श्रावणः २४८पः ७ः
चैतन्यपद समजावीने सुखनो उपाय बतावे छे. श्रीमद् राजचंद ‘आत्मसिद्धि’ नी शरूआतमां ज कहे छे के–
जे स्वरूप समज्या विना पाम्यो दुःख अनंत
समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत.
जुओ, आ धर्म! धर्म कहो के आनंदनो उपाय कहो! चैतन्यस्वरूपनी अणसमजण ते दुःख छे, ने
चैतन्यस्वरूपनी समजण करवी ते ज अपूर्व सुख अने धर्मनी शरूआत छे.
रे जीव! एक वार तो विषयोमांथी सुखबुद्धि छोडीने तारा चैतन्य पदनी प्रीति कर, तो अनंतकाळमां
नहि मळेला एवा अतीन्द्रियसुखनो स्वाद तने आवशे. आवा अतीन्द्रियसुखना अनुभव माटे पहेलां
सत्समागमे पात्रता करवी जोईए; केम के–
पात्र विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिकज्ञान,
पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्य मतिमान.
“मतिमान” एटले चैतन्यस्वरूपमां मतिने जोडीने, ब्रह्मचर्य सेववुं तेने पात्रता कही छे, ने ते
आत्मज्ञान पामवाने पात्र छे. चैतन्यस्वरूपमां जेणे मति जोडीने तेनी रुचि करी, तेने चैतन्यसुखनो रंग लाग्यो
अने बाह्य विषयोनो रंग ऊडी गयो, विषयोमांथी सुखबुद्धि ऊडी गई, एटले ब्रह्मचर्य वगेरेनो रंग तेने सहेजे
होय छे; आवो जीव आत्मज्ञान पामवाने पात्र छे. जेने चैतन्यसुखनो रंग नथी ने विषयोना सुखमां जे
रंगायेलो छे एवा जीवने आत्मज्ञाननी पात्रता नथी, माटे पहेलां सत्समागमे रुचि पलटावीने चैतन्य
स्वभावनो रंग लगाडवो ने विषयसुखनी रुचि छोडी देवी ते पात्रता छे.
जीवने बहारनो संयोग मळवो ते पूर्वनां पुण्यपाप अनुसार छे, तेमां जीवनो कांई पुरुषार्थ नथी. परंतु
धर्म (–आत्मज्ञान अने स्थिरता) तो वर्तमान अपूर्व पुरुषार्थथी थाय छे. जीवने अनुकूळ संयोगो अनंतवार
मळ्या, बाह्य विषयोनी वात तेणे अनंतवार सांभळी परंतु आचार्यदेव कहे छे के जीवे पोताना शुद्ध स्वरूपनी
प्राप्ति के तेनुं यथार्थ श्रवण पूर्वे क्षणमात्र कर्युं नथी तेथी ते महादुर्लभ छे.
अरे भगवान! परमां तुं सुख माने छे अने तेना वगर न चाले एम माने छे, परंतु शुं तारो आत्मा
एवो पराधीन छे के परवस्तु वगर तेने न चाले!! भाई, तारो आत्मा स्वाधीन छे, ते पोते पोताथी सुखरूप
छे, पोताना सुखने माटे जगतना कोई बाह्य विषयोनी अपेक्षा राखे एवो ते पराधीन नथी. एक वार अंतर्मुख
थईने तारा चैतन्यस्वभावनी प्रतीति अने अनुभव कर. तेना अनुभवथी तारा जन्ममरणनो अंत आवी जशे
ने सिद्धपदनी अपूर्व शांति तने प्राप्त थशे.
शांतिदातार शांतिनाथ भगवाननो जय हो...
सम्यग्द्रष्टि–ज्ञातानो विचार अने आचार
पं. बनारसीदासजी ‘परमार्थवचनिका’ मां लखे छे केः
ज्ञाता तो मोक्षमार्ग साधी जाणे पण मूढ मोक्षमार्ग साधी जाणे नहि......बाह्यक्रिया करतो
थको मूढ जीव पोताने मोक्षमार्गनो अधिकारी माने छे, पण अंतर्गर्भित अध्यात्मरूप क्रिया–जे
अंर्तद्रष्टिग्राह्य छे ते क्रियाने मूढ जीव जाणे नहि, कारण अंर्तद्रष्टिना अभावथी अंर्तक्रिया
द्रष्टिगोचर आवे नहि; तेथी मिथ्याद्रष्टि जीव मोक्षमार्ग साधवाने असमर्थ छे.
..... सम्यग्द्रष्टि जीव अंर्तद्रष्टिवडे मोक्षपद्धति साधी जाणे छे.......सम्यग्ज्ञान अने
स्वरूपाचरणनी कणिका जाग्ये मोक्षमार्ग साचो....मूढ जीव बंधपद्धतिने साधतो थको तेने
मोक्षमार्ग कहे ते वात ज्ञाता माने नहि; केमके बंधने साधवाथी बंध सधाय पण मोक्ष सधाय
नहि. ज्यारे ज्ञाता कदाचित बंधपद्धतिनो विचार करे त्यारे ते जाणे के आ बंधपद्धतिथी मारुं द्रव्य
अनादिकाळथी बंधरूप चाल्युं आव्युं छे, हवे ए पद्धतिनो मोह तोडी वर्ते! आ पद्धतिनो राग
पूर्वनी जेम हे नर! तुं शा माटे करे छे? ते क्षणमात्र पण बंधपद्धतिमां मग्न थाय नहि. ते ज्ञाता
पोतानुं स्वरूप विचारे, अनुभवे, ध्यावे, गावे. श्रवण करे, तथा नवधा भक्ति, तप, क्रिया
पोताना शुद्धस्वरूपसन्मुख थईने करे, ए ज्ञातानो आचार छे.