Atmadharma magazine - Ank 186
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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चैत्रः २४८पः ९ः
आदरणीय अध्यात्मप्रेमी श्री कानजीस्वामी की सेवा में
सादर समर्पित
अभिनन्दन–पत्र
आज परम पुनीत मंगलभय शुभ वेला में शुभ वेदी–
प्रतिष्ठा प्रसंग पर महान् योगी आध्यात्मिक संत श्री
कानजीस्वामी को हम अपने बीच में पाकर अपने को धन्य
मान रहे हैं।
धर्म प्रचारक!
आपने यात्रा प्रसंग को लेकर इस वंसुधरा पर विहार
करके भव्य जीवों को सन्मार्ग पर लगाने का जो प्रयत्न किया
है वह आदरणीय है।
स्वस्वरूपरमण
आपने एक वह महान् विशाल द्रष्टि पाई है जिसमें
परनिरपेक्षता के साथ ही साथ स्वात्मबोध जागृत होता है।
जिसमें सच्चे सुख की अनुभूति प्रतिबिंबित होती है।
सच्चे साधक!
आप एक उस साधना में लगे हुये हैं जिसके बल पर
यह अत्यन्त परिभ्रमण संसार छूट कर सच्चे साध्य की सिद्धि
होती हैं। विरले प्राणी इस साधना को समझते हैं जिसको
आपने अपने सतत प्रयत्न से प्राप्त किया है।
वीतराग उपासक!
हम देखते हैं कि जगत सरागी है और राबगर्द्धक
तत्त्वों को लेकर उन्हीं की उपासना करता हुआ रागमें
फसता जाता है किन्तु आपने अपने स्वानुभवन से उस परम
वीतराग तत्त्व को देखा है एवं उसीका रसास्वादन किया है
जिसमें सच्चे सुख की झलक है।
सच्चें उपदेशक!
आपका दिव्य उपदेश हम भव्य जीवों को अमृत पान
का काम करता हैं। जब आप दुःख और उनके कारण एवं
सुख और उनके कारणों का निरूपण करते है तब भोली
जनता स्वयं अपने गन्तव्य मार्ग का निर्णय कर लेती है और
सच्चे पथ का पथिक बन जाती हैं।
महानुभाव!
हम अल्पज्ञ किन शब्दों में आपके गुणों का वर्णन करें।
फिर भी सूर्य जैसे महान् तेजस्वी प्रतापी होने पर क्या दीपक
से पूज्य नहीं होता।