Atmadharma magazine - Ank 278
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : मागशर : २४९३
देहनी क्रिया तो जड छे. मरवा टाणे बोलवा मांगे पण बोली न शके;–ए तो
क्यां जीवने आधीन छे! तारो उपयोग तारे आधीन छे, पण जडनी–ईन्द्रियोनी क्रिया
तारे आधीन नथी.
अरे भाई, तुं तो वीरनो पुत्र! वीर–मार्गनो तुं अफरगामी! अने परभावना के
आत्मानो स्वाद तो अचलित विज्ञानघनरूप छे. पुद्गलनो स्वाद (खाटो–
मीठो) ते तो जड छे, ने रागना स्वादमां आकुळता छे, ते कषायेलो–कषायवाळो स्वाद
छे,–ते बंने स्वादथी जुदो परम शांतरसरूप विज्ञानघन स्वाद ते तारो स्वाद छे.
स्वानुभवमां ज्ञानीने आवा चैतन्यस्वादनुं वेदन थयुं छे.
जेने पोताना चैतन्यना शांतरसनी खबर नथी, तेनो स्वाद चाख्यो नथी, ते
जीव अज्ञानथी शुभ–अशुभभावोना स्वादने पोतानो–आत्मानो स्वाद समजे छे, ने
तेथी ते विकारीभावोनो ते कर्ता थाय छे. अरे, तारा चैतन्यपूरनो एकरूप प्रवाह, तेने
ईन्द्रियरूपी पूलना नाळां वडे रोकीने तुं खंडखंड करी नाखे छे ने राग साथे भेळसेळ
करीने भिन्न चैतन्यस्वभावने तुं भूली रह्यो छे. बापु! तारा स्वादमां तो आनंद होय?
के आकुळता होय? चैतन्यखेतरमां तो आनंदनां अमृत पाके, के विकारनां झेर पाके? ए
झेरीपरिणामोमां अमृतस्वरूप आत्मा केम व्यापे? आनंदस्वरूप आत्मानुं व्याप्य
(रहेवानुं स्थान) ते झेररूप केम होय? भाई! तारुं व्याप्य एटले तारुं रहेवानुं धाम
तो तारा चैतन्यपरिणाममां छे, आनंदथी भरेला विज्ञानमय निर्मळभावमां तुं रहेनारो
(व्यापक) छो, ते ज तारुं रहेवानुं धाम छे. आवा धाममां आत्माने राखवो तेमां तेनी
रक्षा छे; ने विकारवडे तेनी हिंसा थाय छे. बापु! विकारना कर्तृत्व वडे तारा आत्माने तुं
न हण...तारा चैतन्यस्वादने खंडित न कर. विकारथी भिन्न चैतन्यस्वादने अखंड
राखीने तेने अनुभवमां ले.
*
(जयजिनेन्द्र)