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समुदायपातनिका छे. (१) त्यां आदिमां
चतुर्विंशतिसूत्रपर्यन्तं सामान्यविवरणम्, अत ऊर्ध्वं ‘अप्पा जोइय सव्वगउ’ इत्यादि
त्रिचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं विशेषविवरणम्, अत ऊर्ध्वं ‘अप्पा संजमु’ इत्याद्येकत्रिंशत्सूत्रपर्यन्तं
चूलिकाव्याख्यानमिति प्रथममहाधिकारः समाप्तः
इति समुदायपातनिका
इत्याद्येकचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं विशेषविवरणं, तदनन्तरं प्रक्षेपकान् विहाय सप्तोत्तरशत-
‘जेहउ णिम्मलु’ इत्यादि चौबीस दोहा पर्यन्त सामान्य वर्णन, ‘अप्पा जोइय सव्वगउ]’ इत्यादि
तेतालीस दोहा पर्यन्त विशेष वर्णन और ‘अप्पा संजमु’ इत्यादि इकतीस दोहा पर्यन्त चूलिका
व्याख्यान है
पर्यंत दूसरा महाधिकार है
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थका एक दोहकसूत्र कहे छेः
अभेदरत्नत्रयकी मुख्यताकर चूलिका व्याख्यान है
नित्य, निरंजन और ज्ञानमयी सिद्ध परमात्मा हुए हैं, [तान् ] उन [परमात्मनः ] सिद्धोंको
[नत्वा ] नमस्कार करके मैं परमात्मप्रकाशका व्याख्यान करता हूँ
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विमल केवळज्ञानादि अनंतचतुष्टयनी व्यक्तिरूप, लोकालोकने प्रकाशवाने समर्थ, सर्वप्रकारे
उपादेयभूत कार्यसमयसाररूप परिणम्या छे. कया नयनी विवक्षाथी (तेओ कार्यसमयसाररूप
सिद्धपरमात्मा) थया छे? जेवी रीते धातुपाषाण सुवर्णपर्यायरूप परिणतिनी प्रगटतारूपे थयो
छे तेवी रीते तेओ सिद्धपर्यायरूप परिणतिनी प्रगटतारूपे थया छे, श्री पंचास्तिकाय
(गाथा-२०)मां कह्युं छे केः
अपेक्षाए जीव प्रथमथी ज शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाववाळो छे. द्रव्यसंग्रह (गाथा-१३३)मां
निरूपणमुपोद्धातः संग्रहवाक्यं वार्तिकमिति यावत्
व्यक्ति रूपेण लोकालोकप्रकाशनसमर्थेन सर्वप्रकारोपादेयभूतेन कार्यसमयसाररूप परिणताः
प्रगटतास्वरूप परमात्मा परिणत हुए हैं
समर्थ हैं
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वीतराग निर्विकल्प शुक्लध्यान अने अध्यात्मनी अपेक्षाए वीतराग निर्विकल्प रूपातीतध्यान
समजवुं. कह्युं छे के (बृहत द्रव्यसंग्रह गाथा ४८नी टीका)
छे अने निरंजननुं ध्यान ते रूपातीत ध्यान छे.) अने ते ध्यान वस्तुवृत्तिथी शुद्ध आत्मानां
सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्अनुष्ठानरूप अभेद रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिथी समुत्पन्न
है
शुद्ध हुए
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भावकर्मो समजवां. पुद्गलपिंडरूप ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्मो छे अने रागादिसंकल्पविकल्परूप
भावकर्मो छे. द्रव्यकर्मोनुं दहन अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयथी छे अने भावकर्मोनुं दहन
अशुद्ध निश्चयनयथी छे, शुद्ध निश्चयनयथी तो बंधमोक्ष नथी.
अनुसरनार शिष्य प्रति द्रव्यार्थिकनयथी नित्य टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक जेनो स्वभाव छे एवा
परमात्मद्रव्य छे एम स्थापवा माटे ‘‘नित्य’’ विशेषण आपवामां आव्युं छे, (२) सो कल्पकाळ
मुक्ति गतानां जीवानां कर्माञ्जनसंयोगं कृत्वा संसारे पतनं करोतीति नैयायिका वदन्ति,
है, और निरंजन (सिद्धभगवान्) का ध्यान रूपातीत कहा जाता है
निर्विकल्प समाधि है, उससे उत्पन्न हुआ वीतराग परमानंद समरसी भाव सुखरसका आस्वाद
वही जिसका स्वरूप है, ऐसा ध्यानका लक्षण जानना चाहिये
-विकल्प परिणाम भावकर्म कहे जाते हैं
बंध मोक्ष दोनों ही नहीं है
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ते मुक्तिप्राप्त जीवोने कर्मरूप अंजननो संयोग करीने संसारमां नाखे छे एम नैयायिको कहे
छे. तेना मतने अनुसरनार शिष्य प्रति भावकर्म, द्रव्यकर्म अने नोकर्मरूप अंजनना निषेध अर्थे
मुक्त जीवोने ‘निरंजन’ विशेषण आपवामां आव्युं छे, (३) जेवी रीते सुप्त अवस्थामां पुरुषने
बाह्य ज्ञेयविषयनुं ज्ञान होतुं नथी तेवी रीते मुक्त आत्माओने बाह्य ज्ञेयविषयनुं ज्ञान होतुं
नथी एम सांख्यो कहे छे. तेना मतने अनुसरनार शिष्य प्रति त्रणे जगतना, त्रणे काळवर्ती सर्व
कृतम्
स्थापनार्थं ज्ञानमय-विशेषणं कृतमिति
समझानेके लिये है
हैं तब सदाशिवको जगत्के करनेकी चिन्ता होती है
संसर्ग सिद्धोंके कभी नहीं होता
समयमें ही जानना है, अर्थात् जिसमें समस्त लोकालोकके जाननेकी शक्ति है, ऐसे
ज्ञायकतारूप केवलज्ञानके स्थापन करनेके लिये सिद्धोंका ज्ञानमय विशेषण किया
करता हूँ
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आव्युं छे. एवा ते परमात्माओने नमीने-प्रणमीने-नमस्कार करीने, एवो क्रियाकारक संबंध छे.
अहीं
निश्चयनयथी वंद्यवंदकभाव नथी.
अहीं नित्य, निरंजन अने ज्ञानमयरूप परमात्मद्रव्य उपादेय छे एवो भावार्थ छे.
आ रीते शब्द, नय, मत, आगम अने भावार्थ व्याख्यानकाळे यथासंभव सर्वत्र जाणवा.१.
हवे संसारसमुद्रने तरवाना उपायभूत जे वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप नाव छे तेना
शुद्धनिश्चयनयेन वन्द्यवन्दकभावो नास्तीति
एवंगुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्ताः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः
कथन करनेसे मतार्थ कहा, इस प्रकार अनंतगुणात्मक सिद्धपरमेष्ठी संसारसे मुक्त हुए हैं, यह
सिद्धांतका अर्थ प्रसिद्ध ही है, और निरंजन ज्ञानमई परमात्माद्रव्य आदरने योग्य है, उपादेय है,
यह भावार्थ है, इसी तरह शब्द नय, मत, आगम, भावार्थ व्याख्यानके अवसर पर सब जान
लेना
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सिद्ध थशे? के जेओ वीतराग सर्वज्ञप्रणीत मार्गथी दुर्लभबोधि प्राप्त करीने आगामी काळमां
शिवमय, निरुपम अने ज्ञानमय सिद्ध थशे, जेम के श्रेणिक आदि. अहीं ‘शिव’ शब्दथी निज
इत्यनेन क्रमेण पातनिकास्वरूपं सर्वत्र ज्ञातव्यम्
हूँ
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उपमा रहित समजवुं अने ‘ज्ञान’ शब्दथी केवळज्ञान समजवुं.
अने कषायादिरूप समस्त विभावजळना प्रवेश रहित शुद्ध आत्मानी भावनाथी उत्पन्न सहजानंद
जेनुं एक रूप छे एवा सुखामृतथी विपरीत नरकादिदुःखरूप क्षारजळथी पूर्ण संसारसमुद्रने
तरवाना उपायभूत समाधिरूपी नावने भजता, सेवता थका अर्थात् तेना आधारे चालता अनंत
सिद्ध थशे.
समाधिपोतं भजन्तः सेवमानास्तदाधारेण गच्छन्त इत्यर्थः
होंगे
उससे विपरीत जो नारकादि दुःख वे ही हुए क्षारजल, उनकर पूर्ण इस संसाररूपी समुद्रके
तरनेका उपाय जो परमसमाधिरूप जहाज उसको सेवते हुए, उसके आधारसे चलते हुए, अनंत
सिद्ध होंगे
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छे, जेम के श्री सीमंधर आदि, शुं करता तेओ बिराजे छे? वीतराग परमसामायिक भावनानी
हुए ? [परमसमाधिमहाग्निना ] परमसमाधिरूप महा अग्निकर [कर्मेन्धनानि ] कर्मरूप
ईंधनको [जुह्वन्तः ] भस्म करते हुए
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अभेदरत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप अग्निमां कर्मरूपी इन्धननी आहुति द्वारा होम करता
तेओ बिराजे छे. अहीं उपादेयभूत शुद्ध आत्मद्रव्यनी प्राप्तिना उपायरूप होवाथी निर्विकल्प
समाधि ज उपादेय छे एवो भावार्थ छे. ३.
हुआ
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पांडवो आदि पूर्वकाळे वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानना बळथी निज शुद्ध आत्मस्वरूपने
पामीने कर्मनो क्षय करी हाल निर्वाणमां सदा काळने माटे बिराजी रह्या छे, एमां कांई
शंका नथी.
सदापि न संशयः
स्वरूपभूते निर्वाणपदे तिष्ठन्ति यतः ततस्तन्निर्वाणपदमुपादेयमिति तात्पर्यार्थः
स्वसंवेदनज्ञानके बलसे निजशुद्धात्मस्वरूप पाके, कर्मोंका क्षयकर, परमसमाधानरूप निर्वाण
-पदमें विराज रहे हैं उनको मेरा नमस्कार होवे यह सारांश हुआ
तात्पर्यार्थ छे. ४.
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निश्चयन्त इति
हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ
हुए व्यवहारनयकर [सकलं ] समस्त [लोकालोकं ] लोक अलोकको [विमलं ] संशय रहित
[पश्यन्त: ] प्रत्यक्ष देखते हुए [तिष्ठन्ति ] ठहर रहे हैं
प्रत्यक्ष देखते हैं, परंतु पदार्थोंमें तन्मयी नहीं हैं, अपने स्वरूपमें तन्मयी हैं
छेः
देखे छे परंतु पर पदार्थोमां तन्मय नथी, पोताना स्वरूपमां तन्मय छे. जो निश्चयनयथी
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अनुभव थाय अने परकीय राग-द्वेष जाणवामां आवतां, पोताने रागद्वेषमयपणुं प्राप्त थाय एवो
महान दोष आवे.
छुंः
रागद्वेषमयत्वं च प्राप्नोतीति महद्दूषणम्
राग-द्वेष नहीं है
और अपनी ज्ञायकशक्तिकर सबको प्रत्यक्ष देखते हैं जानते हैं
हुआ
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जीवितमरणलाभालाभशत्रुमित्रसमानभावनाविनाभूतवीतरागनिर्विकल्पसमाधिपूर्वं जिनोपदेशं लब्ध्वा
पश्चादनन्तचतुष्टयस्वरूपा जाता ये
जीवादिक सकल पदार्थ [प्रकाशिता: ] प्रकाशित किये, उनको मैं [भक्त्या ] भक्तिसे [वन्दे ]
नमस्कार करता हूँ
जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, सबमें समान भाव होनेसे उत्पन्न हुई वीतरागनिर्विकल्प
परमसमाधि उसके कहनेवाले जिनराजके उपदेशको पाकर अनंतचतुष्टयरुप हुए, तथा जिन्होंने
यथार्थ जीवादि पदार्थोंका स्वरूप प्रकाशित किया तथा जो कर्मका अभाव है वह वही
अलाभ, शत्रु-मित्र बधा प्रत्ये समान भावना होवानी साथे अविनाभावी वीतराग निर्विकल्प
समाधिपूर्वक जिनोपदेश पामीने जेओ अनंतचतुष्टयस्वरूप थया छे अने जेओए अनुवादरूपे
जीवादि पदार्थो प्रकाश्या छे अने विशेषपणे कर्मनो अभाव थतां केवळज्ञानादि अनंतगुण
स्वरूपनी प्राप्तिरूप जे मोक्ष छे अने शुद्ध आत्मानां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, अने
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प्रकाश्या छे तेमने हुं नमस्कार करुं छुं. अहीं अर्हतगुणस्वरूप जे स्वशुद्धात्मस्वरूप छे ते ज
उपादेय छे एवो भावार्थ छे. ६.
अभेदरत्नत्रय वही हुआ मोक्षमार्ग ऐसे मोक्ष और मोक्षमार्गको भी प्रगट किया, उनको मैं
नमस्कार करता हूँ
अनुभव करनेके लिए [तान् अपि ] उन [त्रीन् अपि ] तीनों आचार्य, उपाध्याय, साधुओंको
भी [नत्वा ] मैं नमस्कार करके परमात्मप्रकाशका व्याख्यान करता हूँ
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अने नरनारकादि विभावपर्याय रहित चिदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवुं जे शुद्धात्मतत्त्व
छे ते ज भूतार्थ छे, परमार्थरूप ‘समयसार’ शब्दथी वाच्य छे, सर्व प्रकारे उपादेयभूत छे अने
तेनाथी जे अन्य छे ते हेय छे. एवी चल, मलिन, अवगाढ रहितपणे निश्चयश्रद्धानबुद्धि ते
सम्यक्त्व छे, तेमां आचरण परिणमन ते दर्शनाचार छे.
भूतार्थं परमार्थरूपसमयसारशब्दवाच्यं सर्वप्रकारोपादेयभूतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति
और अशुद्ध निश्चयनयकर रागादिका संबंध है, उससे तथा मतिज्ञानादि विभावगुणके संबंधसे
रहित और नर-नारकादि चतुर्गतिरूप विभावपर्यायोंसे रहित ऐसा जो चिदानंदचिद्रूप एक
अखंडस्वभाव शुद्धात्मतत्त्व है वही सत्य है
अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह
आचरण अर्थात् उसरूप परिणमन वह
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संशयविपर्यासानध्यवसायरहितत्वेन स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धिः सम्यग्ज्ञानं तत्राचरणं
परिणमनं ज्ञानाचारः, तत्रैव शुभाशुभसंकल्पविकल्परहितत्वेन नित्यानन्दमयसुखरसास्वादस्थिरानु-
भवनं च सम्यक्चारित्रं तत्राचरणं परिणमनं चारित्राचारः, तत्रैव परद्रव्येच्छानिरोधेन
सहजानन्दैकरूपेण प्रतपनं तपश्चरणं तत्राचरणं परिणमनं तपश्चरणाचारः, तत्रैव शुद्धात्मस्वरूपे
स्वशक्त्यनवगूहनेनाचरणं परिणमनं वीर्याचार इति निश्चयपञ्चाचाराः
बाह्यचारित्राचारः, अनशनादिद्वादशभेदरूपो बाह्यतपश्चरणाचारः, बाह्यस्वशक्त्यनवगूहनरूपो
पंच समिति, तीन गुप्तिरुप व्यवहार चारित्राचार, अनशनादि बारह तपरूप तपाचार और अपनी
शक्ति प्रगटकर मुनिव्रतका आचरण वह व्यवहार वीर्याचार है
आचरण तथा परद्रव्यकी इच्छाका निरोध और निजशक्तिका प्रगट करना ऐसा यह निश्चय
(१) निःशंकादि अंगरूप आठ भेद ते बाह्य दर्शनाचार छे.
(२) काळ, विनयादि आठ भेद ते बाह्य ज्ञानाचार छे.
(३) पांच महाव्रत, पांच समिति, त्रण गुप्ति, निर्ग्रंथरूप बाह्य चारित्राचार छे.
(४) अनशनादि बार भेदरूप बाह्य तपश्चरणाचार छे.
(५) बाह्य स्वशक्तिने न गोपववारूप बाह्य वीर्याचार छे.
आ व्यवहार पंचाचार परंपराए मोक्षना साधक छे. विशुद्ध ज्ञान, विशुद्ध दर्शन जेनो
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वीर्यरूपाभेदपञ्चाचाररूपात्मकं शुद्धोपयोगभावनान्तर्भूतं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिं
स्वयमाचरन्त्यन्यानाचारयन्तीति भवन्त्याचार्यास्तानहं वन्दे
भावमुपादेयं तस्माच्चान्यद्धेयं कथयन्ति, शुद्धात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेद-
रत्नत्रयात्मकं निश्चयमोक्षमार्गं च ये कथयन्ति ते भवन्त्युपाध्यायास्तानहं वन्दे
अन्योने अचरावे छे तेओ आचार्यो छे, तेमने हुं नमस्कार करुं छुं.
तेनाथी जे अन्य छे ते हेय छे, एवो उपदेश जेओ करे छे अने शुद्ध आत्मस्वभावनां सम्यक्-
श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्आचरणरूप अभेद रत्नत्रयात्मक निश्चय मोक्षमार्गने जेओ कहे
छे तेओ उपाध्यायो छे, तेमने हुं वंदन करुं छुं.
जीवपदार्थ, जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अन्य सब त्यागने योग्य
हैं, ऐसा उपदेश करते हैं, तथा शुद्धात्मस्वभावका सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेद
रत्नत्रय है, वही निश्चयमोक्षमार्ग है, ऐसा उपदेश शिष्योंको देते हैं, ऐसे उपाध्यायोंको मैं नमस्कार
करता हूँ, और शुद्धज्ञान स्वभाव शुद्धात्मतत्त्वकी आराधनारूप वीतराग
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साधकत्वादुपादेयं जानीहीति भावार्थः
उपादेय जाणो एवो भावार्थ छे. ७.