Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 212 (Adhikar 2),213 (Adhikar 2) Paramatmaprakash Shastranu Phal,214 (Adhikar 2) Antim Mangal ; Tikakaranu Antim Kathan Gatha-; Shlok ; Sadhak Jivani Drashti; Paramatmaprakashdohadina Varnanukram Soochi; Saskrut Tikayamuktana Padhyadina Varnanukram Soochi.

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adhikAr-2 dohA-211 ]paramAtmaprakAsha [ 547
इत्थु इत्यादि इत्थु अत्र ग्रन्थे ण लेवउ न ग्राह्यः कैः पंडियहिँ पण्डितैर्विवेकिभिः
कोऽसौ गुण-दोसु वि गुणो दोषोऽपि कथंभूतः पुणरुत्तु पुनरुक्त : कस्मान्न ग्राह्यः यतः
मइँ पुणु पुणु वि पउत्तु मया पुनः पुनः प्रोक्त म् किं तत् वीतरागपरमात्मतत्त्वम् किमर्थम्
भट्ट-पभायर-कारणइँ प्रभाकरभट्टनिमित्तेनेति अत्र भावनाग्रन्थे समाधिशतकादिवत् पुनरुक्त दूषणं
नास्ति इति तदपि कस्मादिति चेत् अर्थं पुनःपुनश्चिन्तनलक्षणमिति वचनादिति मत्वा
प्रभाकरभट्टव्याजेन समस्तजनानां सुखबोधार्थं बहिरन्तःपरमात्मभेदेन तु त्रिविधात्मतत्त्वं
बहुधाप्युक्त मिति भावार्थः
।।२११।।
अथ
३४३) जं मइँ किं पि विजंपियउ जुत्ताजुत्तु वि इत्थु
तं वरणाणि खमंतु महु जे बुज्झहिँ परमत्थु ।।२१२।।
ग्रहण नहीं करें, और कविकलाका गुण भी न लें, क्योंकि [मया ] मैंने [भट्टप्रभाकरकारणेन ]
प्रभाकरभट्टके संबोधनके लिए [पुनः पुनरपि प्रोक्तम् ] वीतराग परमानंदरूप परमात्मतत्त्वका
कथन बार
बार किया है ।।
भावार्थ :इस शुद्धात्मभावनाके ग्रंथमें पुनरुक्तका दोष नहीं लगता समाधितंत्र
ग्रंथकी तरह इस ग्रंथमें भी बार बार शुद्ध स्वरूपका ही कथन किया है, बारम्बार उसी अर्थका
चिंतवन है, ऐसा जानकर इसका रहस्य (अभिप्राय) बार बार चिंतवना
प्रभाकरभट्टकी
मुख्यताकर समस्त जीवोंको सुखसे प्रतिबोध होनेके लिये इस ग्रंथमें बारबार बहिरात्मा
अंतरात्मा और परमात्माका कथन किया है, ऐसा जानना ।।२११।।
आगे श्रीयोगीन्द्राचार्य ज्ञानीजनोंसे प्रार्थना करते हैं, कि मैंने जो किसी जगह छंद
अलंकारादिमें युक्त-अयुक्त कहा हो, तो उसे पंडितजन परमार्थके जाननेवाले मुझ पर क्षमा करें
bhAvArtha(shuddha AtmAnI) bhAvanAnA A granthamAn, samAdhishatak Adi granthanI jem,
punaruktino doSh Avato nathI, kAraN ke artha vAramvAr chintanasvarUp chhe. ‘(arthanun chintan vAramvAr
karavA yogya chhe.)’ evun Agamanun vachan chhe em jANIne prabhAkarabhaTTanA bahAne samasta janone
sukhathI bodh thAy e hetuthI bahirAtmA, antarAtmA ane paramAtmAnA bhedathI traN prakAranA
Atmatattvanun anek prakAre paN kathan karavAmAn Avyun chhe, em bhAvArtha chhe. 211.
vaLI, have shrI yogIndrAchArya gnAnI janone prArthanA kare chhe ke men koI jagyAe chhand,
alankAr AdimAn yogya, ayogya kahyun hoy to tenAparamArthanA jANanAr panDitajan mane kShamA
kare

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548 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-212
यन्मया किमपि विजल्पितं युक्तायुक्त मपि अत्र
तद् वरज्ञानिनः क्षाम्यन्तु मम ये बुध्यन्ते परमार्थम् ।।२१२।।
जं इत्यादि मइं किं पि विजंपियउ यन्मया किमपि जल्पितम् किं जुत्ताजुत्तु वि
शब्दविषये अर्थविषये वा युक्तायुक्त मपि इत्थु अत्र परमात्मप्रकाशभिधानग्रन्थे खमंतु क्षमां
कुर्वन्तु
किं तत् पूर्वोक्त दूषणम् के वर-णाणि वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानयुक्ता
विशिष्टज्ञानिनः कस्य महु मम योगीन्द्रदेवाभिधानस्य कथंभूता ये ज्ञानिनः जे बुज्झहिं ये
केचन बुध्यन्ते जानन्ति कम् परमत्थु रागादिदोषरहितमनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यसहितं च
परमार्थशब्दवाच्यं शुद्धात्मानमिति भावार्थः ।।२१२।। इति सूत्रत्रयेण सप्तममन्तरस्थलं गतम्
एवंसप्तभिरन्तस्थलैश्चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितं महास्थलं समाप्तम्
bhAvArthaparamAtmaprakAsh nAmanA granthamAn shabdanA viShayamAn ke arthanA viShayamAn je
kAI mArAthI yukta ke ayukta kahevAyun hoy te pUrvokta doShanI, vItarAg nirvikalpa
svasamvedanarUpagnAnathI yukta vishiShTa gnAnIo
ke jeo rAgAdi doSh rahit ane anantagnAn,
anantadarshan, anantasukh ane anantavIryathI yukta, ‘paramArtha’ shabdathI vAchya evA shuddha AtmAne
jANe chhe teo-yogIndradev jenun nAm chhe evA mane kShamA kare, e bhAvArtha chhe. 212.
e pramANe traN gAthAsUtrathI sAtamun antarasthaL samApta thayun. e pramANe sAt
गाथा२१२
अन्वयार्थ :[अत्र ] इस ग्रंथमें [यत् ] जो [मया ] मैंने [किमपि ] कुछ भी
[युक्तायुक्तमपि विजल्पितं ] युक्त अथवा अयुक्त शब्द कहा होवे, तो [तत् ] उसे [ये
वरज्ञानिनः ] जो महान् ज्ञानके धारक [परमार्थम् ] परम अर्थको [बुध्यंते ] जानते हैं, वे
पंडितजन [मम क्षाम्यंतु ] मेरे ऊ पर क्षमा करें
भावार्थ :मेरी छद्मस्थकी बुद्धि है, जो कदाचित् मैंने शब्दमें, अर्थमें, तथा छंद
अलंकारमें, अयुक्त कहा हो, वह मेरा दोष क्षमा करो, सुधार लो, जो विवेकी परम अर्थको
अच्छी तरह जानते हैं, वे मुझ पर कृपा करो, मेरा दोष न लो
यह प्रार्थना योगीन्द्राचार्यने
महामुनियोंसे की जो महामुनि अपने शुद्ध स्वरूपको अच्छी तरह अपनेमें जानते हैं जो
निजस्वरूप रागादि दोष रहित अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्यकर सहित हैं, ऐसे अपने
स्वरूपको अपनेमें ही देखते हैं, जानते हैं, और अनुभवते हैं, वे ही इस ग्रंथके सुननेके योग्य
हैं, और सुधारनेके योग्य हैं
।।२१२।।
इसप्रकार तीन दोहोंमें सातवाँ अंतरस्थल कहा इस तरह चौबीस दोहोंका

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adhikAr-2 dohA-213 ]paramAtmaprakAsha [ 549
अथैकवृत्तेन प्रोत्साहनार्थं पुनरपि फलं दर्शयति
३४४) जं तत्तं णाणरूवं परममुणिगणा णिच्च झायंति चित्ते
जं तत्तं देहचत्तं णिवसइ भुवणे सव्व-देहीण देहे
जं तत्तं दिव्व-देहं तिहुविणगुरुगं सिज्झए संतजीवे
जं तत्तं जस्स सुद्धं फु रइ णियमणे पावए सो हि सिद्धिं ।।२१३।।
यत् तत्त्वं ज्ञानरूपं परममुनिगणा नित्यं ध्यायन्ति चित्ते
यत् तत्त्वं देहत्यक्तं निवसति भुवने सर्वदेहिनां देहे
यत् तत्त्वं दिव्यदेहं त्रिभुवनगुरुकं सिध्यति शान्तजीवे
तत् तत्त्वं यस्य शुद्धं स्फु रति निजमनसि प्राप्नोति स हि सिद्धिम्
।।२१३।।
पावए सो प्राप्नोति स हि स्फु टम् काम् सिद्धिं मुक्ति म् यस्य किम् जस्स
antarasthaLothI chovIs sUtronun mahAsthaL samApta thayun.
have, ek sragdharA nAmanA chhandathI protsAhan arthe pharIne paN (A granthane bhaNavAnun) phaL
kahe chhe
bhAvArthaje Atmatattva gnAnarUp chhe, jenun paramamunigaNo chittamAn nirantar dhyAn
महास्थल पूर्ण हुआ
आगे एक स्रग्धरा नामके छंदमें फि र भी इस ग्रंथके पढ़नेका फल कहते हैं
गाथा२१३
अन्वयार्थ :[तत् ] वह [तत्त्वं ] निज आत्मतत्त्व [यस्य निजमनसि ] जिसके
मनमें [स्फु रति ] प्रकाशमान हो जाता है, [स हि ] वह ही साधु [सिद्धिम् प्राप्नोति ] सिद्धिको
पाता है
कैसा है, वह तत्त्व ? जो कि [शुद्धं ] रागादि मल रहित है, [ज्ञानरूपं ] और ज्ञानरूप
है, जिसको [परममुनिगणाः ] परममुनीश्वर [नित्यं ] सदा [चित्ते ध्यायंति ] अपने चित्तमें ध्याते
हैं, [यत् तत्त्वं ] जो तत्त्व [भुवने ] इस लोकमें [सर्वदेहिनां देहे ] सब प्राणियोंके शरीरमें
[निवसति ] मौजूद है, [देहत्यक्तं ] और आप देहसे रहित है, [यत् तत्त्वं ] जो तत्त्व [दिव्यदेहं ]
केवलज्ञान और आनदरूप अनुपम देहको धारण करता है, [त्रिभुवनगुरुकं ] तीन भुवनमें श्रेष्ठ
है, [शांतजीवे सिध्यति ] जिसको आराधकर शांतपरिणामी संतपुरुष सिद्धपद पाते हैं
भावार्थ :ऐसा वह चैतन्यतत्त्व जिसके चित्तमें प्रगट हुआ है, वही साधु सिद्धिको

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550 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-213
णिय-मणे फु रइ यस्य निजमनसि स्फु रति प्रतिभाति किं कर्मतापन्नम् तं तत्तं तत्तत्त्वम्
कथंभूतम् शुद्धं रागादिरहितम् पुनरपि कथंभूतं यत् जं तत्तं णाण-रूवं यदात्मतत्त्वं
ज्ञानरूपम् पुनरपि किंविशिष्टं यत् णिच्च झायंति नित्यं ध्यायन्ति क्व चित्त मनसि
के ध्यायन्ति परम-मुणि-गणा परममुनिसमूहाः पुनरपि किंविशिष्टं यत् जं तत्तं देह-
चत्तं यत्परमात्मतत्त्वं देहत्यक्तं देहाद्भिन्नम् पुनरपि कथंभूतं यत् णिवसइ निवसति क्व
भुवणे सव्व-देहीण देहे त्रिभुवने सर्वदेहिनां संसारिणां देहे पुनरपि कीद्रशं यत् जं तत्ते
दिव्व-देहं यत् शुद्धात्मतत्त्वं दिव्यदेहं दिव्यं केवलज्ञानादिशरीरम् शरीरमिति कोऽर्थः
स्वरूपम् पुनश्च कीद्रशं यत् तिहुयण-गुरुगं अव्याबाधानन्तसुखादिगुणेन त्रिभुवनादपि गुरुं
पूज्यमिति त्रिभुवनगुरुकम् पुनरपि किंरूपं यत् सिज्झए सिद्धयति निष्पत्तिं याति क्व
संत-जीवे ख्यातिपूजालाभादिसमस्तमनोरथविकल्पजालरहितत्वेन परमोपशान्त जीवस्वरूपे
इत्यभिप्रायः
।।२१३।।
अथ ग्रन्थस्यावसाने मङ्गलार्थमाशीर्वादरूपेण नमस्कारं करोति
३४५) परम-पय-गयाणं भासओ दिव्व-काओ
मणसि मुणिवराणं मुक्खदो दिव्वजोओ
kare chhe, je paramAtmatattva dehathI bhinna chhe ane traN lokamAn sarva sansArI prANIonA dehamAn
rahe chhe, je shuddhAtmatattva divyadeh chhe-kevaLagnAnAdi sharIr chhe-divya arthAt kevaLagnAnAdi, sharIr
arthAt svarUp chhe, je tattva avyAbAdh, anant sukhAdi guNothI traN lokathI paN guru chhe-pUjya
chhe ane je tattva khyAti, pUjA, lAbh AdithI mAnDIne samasta manoratharUp vikalpajALathI rahit
hovAne lIdhe paramashAntajIvasvarUpamAn siddha thAy chhe arthAt niShpattine pAme chhe te muktine pAme
chhe, e abhiprAy chhe. 213.
have, granthanA ante mangaLArthe AshIrvAdarUpe namaskAr kare chhe
पाता है अव्याबाध अनंतसुख आदि गुणोंकर वह तत्त्व तीन लोकका गुरु है, संतपुरुषोंके ही
हृदयमें वह तत्त्व सिद्ध होता है कैसे हैं संत ? जो अपनी बड़ाई, अपनी प्रतिष्ठा और लाभादि
समस्त मनोरथों और विकल्पजालोंसे रहित हैं, जिन्होंने अपना स्वरूप परमशांतभावरूप पा लिया
है
।।२१३।।
आगे ग्रंथके अन्तमंगलके लिये आशीर्वादरूप नमस्कार करते हैं

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adhikAr-2 dohA-214 ]paramAtmaprakAsha [ 551
विसयसुहरयाणं दुल्लहो जो हु लोए
जयउ सिवसरूवो केवलो को वि बोहो ।।२१४।।
परमपदगतानां भासको दिव्यकायः
मनसि मुनिवराणां मोक्षदो दिव्ययोगः
विषयसुखरतानां दुर्लभो यो हि लोके
जयतु शिवस्वरूपः केवलः कोऽपि बोधः
।।२१४।।
जयउ सर्वोत्कर्षेण वृद्धिं गच्छतु कोऽसौ दिव्व-काओ परमौदारिक-
शरीराभिधानदिव्यकायस्तदाधारो भगवान् कथंभूतः भासओ दिवाकरसहस्रादप्यधिक-
तेजस्त्वाद्भासकः प्रकाशकः केषां कायः परम-पय-गयाणं परमानन्तज्ञानादिगुणास्पदं यदर्हत्पदं
तत्रगतानाम् न केवलं दिव्यकायो जयतु दिव्व-जोओ द्वितीयशुक्लध्यानाभिधानो
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपो दिव्ययोगः कथंभूतः मोक्खदो मोक्षप्रदायकः क्व जयतु
मणसि मनसि केषाम् मुणिवराणं मुनिपुङ्गवानाम् न केवलं योगो जयतु केवलो को वि
bhAvArtha(1) param anant gnAnAdiguNanun je sthAn chhe evA arhantapadane prApta
jIvonun hajAro sUryathI paN adhik tejathI prakAshak evA, param audArik sharIr nAmanun je
divyakAy ane tenA AdhArabhUt bhagavAn jayavant varto
sarvotkarShathI vRuddhi pAmo.
(2) munipungavonA manamAn mokShadAyak bIjA shukladhyAn nAmano vItarAg nirvikalpa samAdhirUp
गाथा२१४
अन्वयार्थ :[दिव्यकायः ] जिसका ज्ञान आनंदरूप शरीर है, अथवा
[परमपदगतानां भासकः ] अरहंतपदको प्राप्त हुए जीवोंका प्रकाशमान परमौदारिकशरीर है,
ऐसा परमात्मतत्त्व [जयतु ] सर्वोत्कर्षपनेसे वृद्धिको प्राप्त होवे
जो परमौदारिकशरीर ऐसा है,
कि जिसका तेज हजारों सूर्योंसे अधिक है, अर्थात् सकल प्रकाशी है जो परमपदको प्राप्त हुए
केवली हैं, उनको तो साक्षात् दिव्यकाय पुरुषाकार भासता है, [मुनिवराणां ] और जो महामुनि
हैं, उनके [मनसि ] मनमें [दिव्ययोगः ] द्वितीय शुक्लध्यानरूप वीतराग निर्विकल्पसमाधिरूप
भास रहा है, [मोक्षदः ] और मोक्षका देनेवाला है
[केवलः कोऽपि बोधः ] जिसका
केवलज्ञान स्वभाव है, ऐसी अपूर्व ज्ञानज्योति [शिवस्वरूपः ] सदा कल्याणरूप है [लोके ]
लोकमें [विषयसुखरतानां ] शिवस्वरूप अनन्त परमात्माकी भावनासे उत्पन्न जो परमानन्द
अतीन्द्रियसुख उससे विपरीत जो पाँच इन्द्रियोंके विषय उनमें जो आसक्त हैं, उनको [यः हि ]

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552 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-214
बोहो केवलज्ञानाभिधानः कोऽप्यपूर्वो बोधः कथंभूतः सिव-सरूवो शिवशब्दवाच्यं यदनन्तसुखं
तत्स्वरूपः पुनरपि कथंभूतः दुल्लहो जो हु लोए दुर्लभो दुष्प्राप्यः यः स्फु टम् क्व लोके
केषां दुर्लभः विसय-सुह-रयाणं विषयसुखातीतपरमात्मभावनोत्पन्नपरमानन्दैकरूपसुखास्वाद-
रहितत्वेन पञ्चेन्द्रियविषयासक्तानामिति भावार्थः ।।२१४।।
इति ‘परु जाणंतु वि परममुणि परसंसग्गु चयंति’ इत्याद्येकाशीतिसूत्रपर्यन्तं
सामान्यभेदभावना तदनन्तरं ‘परमसमाहि’ इत्यादि चतुर्विंशतिसूत्रपर्यन्तं महास्थलं, तदनन्तरं
वृत्तद्वयं चेति सर्वसमुदायेन सप्ताधिकसूत्रशतेन द्वितीयमहाधिकारे चूलिका गतेति
।। एवमत्र
परमात्मप्रकाशाभिधानग्रन्थेन प्रथमस्तावत् ‘जे जाया झाणग्गियए’ इत्यादि त्रयोविंशत्यधिक-
सूत्रशतेन प्रक्षेपकत्रयसहितेन प्रथममहाधिकारो गतः
तदनन्तरं चतुर्दशाधिकशतद्वयेन प्रक्षेपक-
पञ्चकसहितेन द्वितीयोऽपि महाधिकारो गतः एवं पञ्चाधिकचत्वारिंशत्सहितशतत्रय-
जो परमात्मतत्त्व [दुर्लभः ] महा दुर्लभ है
भावार्थ :इस लोकमें विषयी जीव जिसको नहीं पा सकते, ऐसा वह परमात्मतत्त्व
जयवंत होवे ।।२१४।।
इसप्रकार परमात्मप्रकाश ग्रंथमें पहले ‘जे जाया झाणग्गियए’ इत्यादि एकसौ
तेबीस दोहे तीन प्रक्षेपकों सहित ऐसे १२६ दोहोंमें पहला अधिकार समाप्त हुआ एकसौ
चौदह ११४ दोहे तथा ५ प्रक्षेपक सहित ११९ दोहोंमें दूसरा महाधिकार कहा और ‘परु
जाणंतु वि’ इत्यादि एकसौ सात १०७ दोहोंमें तीसरा महाधिकार कहा प्रक्षेपक और
divyayog jayavant varto. (3) viShayasukhathI rahit evA paramAtmAnI bhAvanAthI utpanna
paramAnand jenun ek rUp chhe evA sukhanA AsvAdathI rahit evA panchendriy viShayomAn Asakta
jIvone lokamAn kharekhar je duShprApya chhe evo, ‘shiv’ shabdathI vAchya evun je anantasukh te
svarUp kevaLagnAn nAmano koI apUrva bodh chhe te lokamAn jayavant varto. 214.
e pramANe ‘परु जाणंतु वि परममुणि परसंसग्गु चयंति’ ityAdi 81 sUtra sudhI
sAmAnyabhedabhAvanA, tenA pachhI ‘परमसमाहि’ ityAdi 24 sUtra sudhI mahAsthaL, tenA pachhI be
chhand em sarva maLI 107 sUtrathI bIjA mahAdhikaraNamAn chUlikA samApta thaI.
e pramANe A paramAtmaprakAsh nAmanA granthamAn pratham to ‘जे जाया झाणग्गियए’
ityAdi 123 traN prakShepak sahit (126) dohAsUtrathI pahelo mahAdhikAr samApta thayo.
tyArapachhI 214 pAnch prakShepak sahit (219) dohAsUtrathI bIjo mahAdhikAr samApta thayo.

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TIkAkAranun antim kathan ]paramAtmaprakAsha [ 553
प्रमितश्रीयोगीन्द्रदेवविरचितदोहकसूत्राणांविवरणभूता परमात्मप्रकाशवृत्तिः समाप्ता ।।
[टीकाकारस्यान्तिमकथनम्]
अत्र ग्रन्थे प्रचुरणे पदानां सन्धिर्न कृतः, वाक्यानि च भिन्नभिन्नानि कृतानि सुखबोधार्थम्
किं च परिभाषासूत्रं पदयोः संधिर्विवक्षितो न समासान्तरं तयोः तेन कारणेन
लिङ्गवचनक्रियाकारकसंधिसमासविशेष्यविशेषणवाक्यसमाप्त्यादिकं दूषणमत्र न ग्राह्यं विद्वद्भिरिति
इदं परमात्मप्रकाशवृत्तेर्व्याख्यानं ज्ञात्वा किं कर्तव्यं भव्यजनैः सहजशुद्धज्ञानानन्दैक-
स्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निजनिरञ्जनशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धान ज्ञानानुष्ठानरूप-
अन्तके दो छन्द उन सहित तीनसौ पैंतालीस ३४५ दोहोंमें परमात्मप्रकाशका व्याख्यान
ब्रह्मदेवकृत टीका सहित समाप्त हुआ
[टीकाकारका अंतिम कथन ]
इस ग्रंथमें बहुधा पदोंकी संधि नहीं की, और वचन भी जुदे-जुदे सुखसे समझनेके
लिये रक्खे गये हैं, समझनेके लिये कठिन संस्कृत नहीं रक्खी, इसलिये यहाँ लिंग, वचन,
क्रिया, कारक, संधि, समास, विशेष्य, विशेषणके दोष न लेना
जो पंडितजन विशेषज्ञ हैं,
वे ऐसा समझें, कि यह ग्रंथ बालबुद्धियोंके समझानेके लिये सुगम किया है इस
परमात्मप्रकाशकी टीकाका व्याख्यान जानकर भव्यजीवोंको ऐसा विचार करना चाहिये, कि मैं
e pramANe shrIyogIndradev virachit 345 dohAsUtronI vivaraNarUp paramAtmaprakAshanI
vRutti (shrI brahmadevakRut TIkA sahit) samApta thaI.
[TIkAkAranun antim kathan]
sahelAIthI samajAy te mATe A granthamAn ghaNun karIne padonI sandhi karI nathI, ane vAkyo
judAn judAn karyAn chhe. vaLI sUtranI paribhAShAmAn padonI sandhi tenA samAsanI vachche vivakShit nathI
tethI ling, vachan, kriyA, kArak, sandhi, samAs, visheShya, visheShaN, vAkyasamApti AdinA doSh
vidvAnoe na grahavA.
A paramAtmaprakAsh vRuttinun vyAkhyAn jANIne bhavyajanoe shun karavun? to A
paramAtmaprakAshanI vRuttinun vyAkhyAn jANIne bhavyajanoe evo vichAr karavo joIe ke

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554 ]
yogIndudevavirachita
[ TIkAkAranun antim kathan
निश्चयरत्नत्रयात्मनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानन्दरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवेदन-
ज्ञानेन स्वसंवेद्यो गम्यः प्राप्यो भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभपञ्चेन्द्रियविषय-
व्यापारमनवचनकायव्यापारभावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मख्यातिपूजालाभ
द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूप-
निदान्मायामिथ्याशल्यत्रयादिसर्वविभावपरिणामरहितशून्योऽहं, जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनवचन-
कायैः कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयनयेन
तथा सर्वेऽपि जीवाः, इति निरन्तरं भावना
कर्तव्येति ।। ग्रन्थसंख्या ।।४०००।।
पांडवरामहिं णरवरहिं पुज्जिउ भत्तिभरेण
सिरिसासणु जिणभासियउ णंदउ सुक्खसएहिं ।।१।।
‘‘shuddhanishchayanayathI hun ek (kevaL) traN lokamAn, traN kALamAn manavachanakAyAthI ane kRut-kArit
-anumodanathI udAsIn chhun. nij niranjan shuddha AtmAnA samyakshraddhAn, samyaggnAn ane
samyaganuShThAnarUp nishchayaratnatrayAtmak nirvikalpa samAdhithI utpanna vItarAg sahajAnandarUp
sukhAnubhUtimAtra lakShaNavALA svasamvedanagnAnathI svasamvedya, gamya, prApya evo paripUrNa hun chhun. rAg,
dveSh, moh, krodh, mAn, mAyA, lobh, pAnch indriyonA viShayavyApAr, manavachanakAyAnA vyApAr,
bhAvakarma, dravyakarma, nokarma, khyAti, pUjA, lAbh, dekhelA, sAmbhaLelA ane anubhavelA bhogonI
AkAnkShArUp nidAn, mAyA, mithyAtva, e traNe shalya Adi sarva vibhAvapariNAmothI rahit-shUnya
-hun chhun. sarva jIvo paN AvA ja chhe, evI nirantar bhAvanA karavI. 4000
have, TIkAkAr antim shlok kahe chhe
पांडवरामहिं णरवरहिं पुज्जिउ भक्ति भरेण
सिरिसासणु जिणभासियउ णंदउ सुक्खसएहिं ।।१।।
सहज शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव निर्विकल्प हूँ, उदासीन हूँ, निजानंद निरंजन शुद्धात्म सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप निश्चयरत्नत्रयमयी निर्विकल्पसमाधिसे उत्पन्न वीतराग
सहजानंदरूप आनंदानुभूतिमात्र जो स्वसंवेदनज्ञान उससे गम्य हूँ, अन्य उपायोंसे गम्य नहीं हूँ
निर्विकल्प निजानंद ज्ञानकर ही मेरी प्राप्ति है, पूर्ण हूँ राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ,
पाँचों इन्द्रियोंके विषय व्यापार, मन, वचन काय, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म, ख्याति पूजा
लाभ, देखे, सुने और अनुभवे भोगोंकी वाँछारूप निदानबंध, माया मिथ्या ये तीन शल्यें इत्यादि
विभाव परिणामोंसे रहित सब प्रपंचोंसे रहित मैं हूँ
तीन लोक, तीन कालमें, मन वचन
कायकर, कृत कारित अनुमोदनाकर, शुद्ध निश्चयसे मैं आत्माराम ऐसा हूँ तथा सभी जीव
ऐसे हैं ऐसी सदैव भावना करनी चाहिये अब टीकाकारके अंतके श्लोकका अर्थ कहते

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[पाण्डवरामैः नरवरैः पूजितं भक्ति भरेण
श्रीशासनं जिनभाषितं नन्दतु सुखशतैः ।।१।।]
।। इति श्रीब्रह्मदेवविरचिता परमात्मप्रकाशवृत्तिः समाप्ता ।।
❀ ❀ ❀
हैंयुधिष्ठिर राजाको आदि लेकर पाँच भाई पांडव और श्रीरामचंद्र तथा अन्य भी विवेकी राजा
हैं, उनसे अत्यन्त भक्तिकर यह जिनशासन पूजनीक है, जिसको सुर नाग भी पूजते हैं, ऐसा
श्रीजिनभाषित शासन सैंकड़ों सुखोंके वृद्धिको प्राप्त होवे
यह परमात्मप्रकाश ग्रंथका व्याख्यान
प्रभाकरभट्टके सम्बोधनके लिये श्रीयोगीन्द्रदेवने किया, उस पर श्रीब्रह्मदेवने संस्कृतटीका की
श्रीयोगीन्द्रदेवने प्रभाकरभट्टको समझानेके लिये तीनसौ पैंतालीस दोहे रचे, उसपर श्रीब्रह्मदेवने
संस्कृतटीका पाँच हजार चार ५००४ प्रमाण की
और उस पर दौलतरामने भाषावचनिकाके
श्लोक अड़सठिसौ नब्बै ६८९० संख्याप्रमाण बनाये
इस प्रकार श्री योगींद्राचार्यविरचित परमात्मप्रकाशकी पं० दौलतरामकृत भाषाटीका
समाप्त हुई
✽ ✽ ✽
पांडवरामैः नरवरैः पूजितं भक्ति भरेण
श्री शासनं जिनभाषितं नन्दतु सुखशतैः ।।
e pramANe shrI brahmadevavirachit paramAtmaprakAshanI vRutti samApta thaI.
arthashrI rAmachandra, pAnch pAnDavo ane anya naravarothI A jinashAsan atyant
bhaktithI pUjit chhe evun shrIjinabhAShit shAsan senkaDo sukhothI samRuddha varto.
(A paramAtmaprakAsh granthanun vyAkhyAn prabhAkarabhaTTanA sambodhan mATe shrIyogIndradeve karyun.
tenA par shrIbrahmadeve sanskRit TIkA karI. shrIyogIndradeve prabhAkarabhaTTane samajAvavA mATe 345 dohA
rachyA, tenA par shrI brahmadeve sanskRitaTIkA 5004 shlok pramANanI karI.)
A prakAre shrI yogIndrAchArya virachit paramAtmaprakAshanI shrImad braÙdev virachit
sanskRit TIkAno gujarAtI anuvAd samApta thayo.
LL
TIkAkAranun antim kathan ]paramAtmaprakAsha [ 555

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[ 556 ]
sAdhak jIvanI draShTi
adhyAtmamAn hammeshAn nishchayanay ja mukhya chhe; tenA ja Ashraye dharma thAy chhe.
shAstromAn jyAn vikArI paryAyonun vyavahAranayathI kathan karavAmAn Ave tyAn paN nishchayanayane
ja mukhya ane vyavahAranayane gauN karavAno Ashay chhe
em samajavun; kAraN ke puruShArtha
vaDe potAmAn shuddhaparyAy pragaT karavA arthAt vikArI paryAy TALavA mATe hammeshAn nishchayanay
ja AdaraNIy chhe; te vakhate banne nayonun gnAn hoy chhe paN dharma pragaTAvavA mATe banne
nayo kadI AdaraNIy nathI. vyavahAranayanA Ashraye kadI dharma anshe paN thato nathI, parantu
tenA Ashraye to rAg
- dveShanA vikalpo ja UThe chhe.
chhaye dravyo, temanA guNo ane temanA paryAyonA svarUpanun gnAn karAvavA mATe koI
vakhate nishchayanayanI mukhyatA ane vyavahAranayanI gauNatA rAkhIne kathan karavAmAn Ave,
ane koI vakhate vyavahAranayane mukhya karIne tathA nishchayanayane gauN rAkhIne kathan karavAmAn
Ave; pote vichAr kare temAn paN koI vakhate nishchayanayanI mukhyatA ane koI vakhate
vyavahAranayanI mukhyatA karavAmAn Ave; adhyAtmashAstramAn paN jIvano vikArI paryAy jIv
svayam kare chhe tethI thAy chhe ane te jIvano ananya pariNAm chhe
em vyavahAranaye
kahevAmAnsamajAvavAmAn Ave; paN te darek vakhate nishchayanay ek ja mukhya ane
AdaraNIy chhe em gnAnIonun kathan chhe. shuddhatA pragaT karavA mATe koI vakhate nishchayanay
AdaraNIy chhe ane koI vakhate vyavahAranay AdaraNIy chhe
em mAnavun te bhUl chhe.
traNe kALe ekalA nishchayanayanA Ashraye ja dharma pragaTe chhe em samajavun.
sAdhak jIvo sharUAtathI ant sudhI nishchayanI ja mukhyatA rAkhIne vyavahArane gauN
ja karatA jAy chhe, tethI sAdhakadashAmAn nishchayanI mukhyatAnA jore sAdhakane shuddhatAnI vRuddhi
ja thatI jAy chhe ane ashuddhatA TaLatI ja jAy chhe. e rIte nishchayanI mukhyatAnA jore
pUrNa kevaLagnAn thatAn tyAn mukhya
- gauNapaNun hotun nathI ane nay paN hotA nathI.

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परमात्मप्रकाशदोहदीनां वर्णानुक्रमसूची
G
अप्पादंसणि
११९
११८
अप्पा दंसणु केवलु
९७
९६
अप्पा परहं ण
२८८
१५७
अप्पा पंगुह
६७
६६
आप्पा पंडिउ मुक्खु
९२
९१
अप्पा बंभणु वइसु
८८
८७
अप्पा बुज्झहि
५८
५८
अप्पा माणुसु देउ
९१
९०
अप्पा मिल्लिवि
२०४
७७
अप्पा मिल्लिवि णाणमउ २०५
७८
अप्पा मेल्लवि
७५
७४
अप्पा मेल्लिवि णाण
२८९
१५८
अप्पायत्तउ जं जि
२८५
१५४
अप्पा लद्धउ
१५
१५
अप्पा वंदउ
८९
८८
अप्पा संजमु सीलु
९४
९३
अप्पिं अप्पु मुणंतु
७७
७६
अप्पु पयासइ
१०२
१०१
अप्पु वि परु वि
१०४
१०३
अमणु अणिंदिउ
३१
३१
अरि जिय जिणपइ
२८४
१३४
अवगुणगहणइं
३१७
१८६
अंगइं सुहुमइं
२३०
१०३
इत्थु ण लेवउ पंडियहिं ३४२
१११
इहु तणु जीवड
३१३
१८२
इहु सिवसंगमु
२७३
१४२
उत्तमु सुक्खु ण
१३१
उत्तमु सुक्खु ण
१३२
अच्छइ जित्तिउ
१६४
३८
अट्ठ वि कम्मइं
५५
५५
अट्ठहं कम्महं
७६
७५
अणु जइ जगहं
१३१
अण्णु जि तित्थु म
९६
९५
अण्णु जि दंसणु
९५
९४
अण्णु वि दोसु
१७१
४५
अण्णु वि दोसु
१७२
४६
अण्णु वि बंधु वि
३३३
२०२
अण्णु वि भत्तिए
३३६
२०५
अत्थि ण उब्भउ
७०
६९
अत्थि ण पुण्णु
२१
२१
अद्धुम्मीलियलोयणिहिं ३००
१६९
अप्पउ मण्णइ जो
२२०
९३
अप्पसहावि
१०१
१००
अप्पहं जे वि
१०७
१०६
अप्पहं णाणु
२८६
१५५
अप्पा अप्पु जि
६८
६७
अप्पा कम्मविवज्जियउ ५२
५२
अप्पा गुणमउ
१५९
३३
अप्पा गुरु णवि
९०
८९
अप्पा गोरउ किण्हु
८७
८६
अप्पा जणियउ केण
५६
५६
अप्पा जोइय
५१
५१
अप्पा झायहि
९८
९७
अप्पा णाणहं गम्मु
१०८
१०७
अप्पा णाणु मुणेहि
१०६
१०५
अप्पा णियमणि
९४
९८
अप्पा तिविहु
१२
१२
स. दो. नं. अ.
दो.
स. दो. नं. अ.
दो.

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उदयहं आणिवि कम्मु ३१८
१८३
उव्वलि चोप्पडि
२७९
१४८
उव्वस वसिया जो
२९१
१६०
एक्कु करे मण बिण्णि
२३८
१०७
एक्कु जि मेल्लिवि
२६१
१३१
ए पंचिंदियकरहडा
२६६
१३६
एयइं दव्वइं
१५२
२६
एयहिं जुत्तउ
२५
२५
एहु जो अप्पा
३०५
१७४
एहु ववहारें
६०
६०
कम्मइं दिढघण
७९
७८
कम्मणिबद्धु वि
३६
३६
कम्मणिबद्धु वि
४९
४९
कम्महं केरा भावडा
७४
७३
कम्महिं जासु
४८
४८
कम्मु पुरक्किउ सो
१६५
३९
करि सिवसंगमु
२७७
१४६
काऊ ण पग्गरूवं
२३९ २१११
कारणविरहिउ
५४
५४
कालु अणाइ अणाइ
२७८
१४३
कालु मुणिज्जहि
१४७
२१
कालु लहेविणु
८६
८५
कि वि भणंति
५०
५०
केण वि अप्पउ
२१७
९०
केवलणाणिं अणवरउ
३२७
१९६
केवलदंसणणाणमउ
२४
२४
केवलदंसणणाणमय
केवलदंसणु णाणु
३३०
१९९
गउ संसारि
गयणि अणंति
३८
३८
गंथहं उप्परि
१७६
४९
घरवासउ मा जाणि
२०५
१४४
घोरु करंतु वि
३२२
१९१
घोरु ण चिण्णउ
२९८
१६७
चउगइदुक्खहं
१०
१०
चट्टहिं पट्टहिं
२१६
८९
चेल्लाचेल्लीपुत्थियहिं
२१५
८८
छिज्जउ भिज्जउ
७३
७२
जइ इच्छसि भो
२४० २१११
जइ जिय उत्तमु
१३०
जइ णिविसद्धु
११५
११४
जणणी जणणु वि
८४
८३
जम्मणमरणविवज्जिउ
३३४
२०३
जलसिंचणु पयणिद्दलणु २४६
११६
जसु अब्भंतरि
४१
४१
जसु परमत्थें
४६
४६
जसु हरिणच्छी
१२२
१२१
जहिं भावइ तहिं
१९७
७०
जहिं मइ तहिं
११३
११२
जं जह थक्कउ
१५५
२९
जं णियदव्वहं
११४
११३
जं णियबोहहं
२०२
७५
जं तत्तं णाणरूवं
३४३
२१३
जं बोल्लइ ववहार-
१४०
१४
जं मइं किं पि विजंपियउ ३४३
२१२
जं मुणि लहइ
११८
११७
स. दो. नं. अ.
दो.
स. दो. नं. अ.
दो.
558 ]
yogIndudevavirachita
[ dohAsUchI

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जं सिवदंसणि
११७
११६
जाणवि मण्णवि
१५६
३०
जा णिसि सयलहं
१७३ २४६
जामु सुहासुहभावडा
३२५
१९४
जांवइ णाणिउ
१६१
४१
जासु ण कोहु ण
२०
२०
जासु ण धारणु
२२
२२
जासु ण वण्णु ण
१९
१९
जिउ मिच्छत्तें
८०
७९
जिण्णिं वत्थिं जेम
३१०
१७९
जित्थु ण इंदिय
२८
२८
जिय अणुमित्तु वि
२५०
१२०
जीउ वि पुग्गलु
१४८
२२
जीउ सचेयणुं
१४३
१७
जीव म जाणहि
२५३
१२३
जीव वहंतहं णरय
२५७
१२७
जीवहं कम्मु अणाइ
५९
५९
जीवहं तिहुयण
२२३
९६
जीवहं दंसणु णाणु
२२८
१०१
जीवहं भेउ जि
२३३
१०६
जीवहं मोक्खहं हेउ
१३८
१२
जीवहं लक्खणु
२२५
९८
जीवहं सो पर
१३६
१०
जीवाजीव म
३०
३०
जीवा सयल वि
२२४
९७
जे जाया झायग्गियएं
जे जिणलिंगु धरेवि
२१८
९१
जेण कसाय हवंति
१६८
४२
जेण ण चिण्णउ
२६८
१३५
जेंण णिरंजणि
१२६ ११२३
जेण सरूविं झाइयइ
३०४
१७३
जे णियबोह५३
५३
जे दिट्ठा सूरुग्गमणि
२६३
१३२
जै दिट्ठें तुट्टंति
२७
१-२७
जे परमप्पपयासहं
३३७
२०६
जे परमप्पययासु
३३५
२०४
जे परमप्पहं भत्तियर
३३९
२०८
जे परमप्पु णियंति
जे भवदुक्खहं बीहिया ३४५
२०७
जेम सहाविं णिम्मलउ ३०८
१७७
जे रयणत्तउ
१५८
३२
जे सरसिं संतुट्ठ२४२ २
१११
जेहउ जज्जरु णरय२८०
१४९
जेहउ णिम्मणु
२६
२६
जो अणुमेत्तु
२०८
८१
जो आयासइ मणु
२९५
१६४
जोइज्जइ तिं
११०
१०९
जोइय अप्पें
१००
९९
जोइय चिंति म
३१८
१८७
जो णियदंसण१८६
५९
जोइय णियमणि
१२०
११९
जोइय णेहु परिच्चयहि
२४५
११५
जोइय दुम्मइ कवुण
३०२
१७१
जोइय देहु
२८२
१५१
जोइय देहु
२८३
१५२
जोइय मिल्लहि
३०१
१७०
जोइय मोक्खु वि
१२८
जोइय मोहु परिच्चयहि २३८
१११
जोइय लोहु परिच्चयहि २४३
११३
जोइय विसमी जोय२६७
१३७
जोइय विंदहिं
३९
३९
जोइय सयलु वि
२५९
१२९
जो जिउ हेउ
४०
४०
जो जिणु केवलणाण३२८
१९७
स. दो. नं. अ.
दो.
स. दो. नं. अ.
दो.
dohAsUchI ]
paramAtmaprakAsha
[ 559

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जो णवि मण्णइ
१८२
५५
जो णवि मण्णइ
२३२
१०५
जो णियकणहिं
४५
४५
जो णियभाउ ण
१८
१८
जोणिलक्खइं
२५३
१२२
जो परमत्थें
३७
३७
जो परमप्पउ परम३३१
२००
जो परमप्पा णाणमउ
३०६
१७५
जो भत्तउ रयणत्तयहं
१५७
३१
जो भत्तउ रयणत्तयहं
२२२
९५
जो समभावपरिट्ठियहं
३५
३५
जो समभावहं
२३६
१०९
झाणें कम्मक्खउ
३३२
२०१
ण वि उप्पज्जइ
६९
६८
णाणवियक्खु सुद्धमणु
३४०
२०९
णाणविहीणहं
२०१
७४
णाणिय णाणिउ
१०९
१०८
णाणि मुएप्पिणु भाउ
१७४
४७
णाणिहिं मूढहं
२१३
८६
णाणु पयासहि
१०५
१०४
णासविणिग्गउ सासडा २९३
१६२
णिच्चु णिरंजणु
१७
१७
णिट्ठुरवयणु सुणेवि
३१५
१८४
णिम्मलफलिहहं
३०७
१७६
णियमणि णिम्मलि
१२३
१२२
णियमें कहियउ
१५४
२८
णेयाभावे विल्लि
४७
४७
तत्तातत्तु मुणेवि
१६९
४३
तरुणउ बूढउ
८३
८२
तलि अहिरणि वरि
२४४
११४
तं णियणाणु जि
२०३
७६
तं परियाणहि दव्वु
५७
५७
तारायणु जलि
१०३
१०२
तित्थइं तित्थु
२१२
८५
तिहुयणवंदिउ
१६
१६
तिहुयणि जीवहं
१३५
तुट्टइ मोहु तडित्ति
२९२
१६१
ते चिय धण्णा ते
२४७
११७
ते पुणु जीवहं
६१
६१
ते पुणु वंदउं
ते पुणु वंदउं
ते वंदउ सिरिसिद्ध
ते हउं वंदउं
दव्वइं जाणइ
१४१
१५
दव्वइं जाणहि
१४२
१६
दव्वइं सयलहं
१४६
२०
दव्व चयारि वि
१४९
२३
दंसणणाणचरित्त
१८१
५४
दंसणु णाणु अणंत
१३७
११
दंसणु णाणु चरित्तु
१६६
४०
दंसण पुव्वु
१६१
३५
दाणिं लब्भइ भोउ
१९९
७२
दाणु ण दिण्णउ
२९९
१६८
दुक्खइं पावइं
२८१
१५०
दुक्खहं कारणि
८५
८४
दुक्खहं कारणु
१५३
२७
दुक्खहं कारणु मुणिवि २८४
१५३
दुक्खु वि सुक्खु
६४
६४
स. दो. नं. अ.
दो.
स. दो. नं. अ.
दो.
560 ]
yogIndudevavirachita
[ dohAsUchI

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दुक्खु वि सुक्खु
१६२
३६
देउ ण देउले
१२४
१२३
देउ णिरंजणु
२००
७३
देउलु देउ वि सत्थु
२६०
१३०
देवहं सत्थहं
१८८
६१
देवहं सत्थहं....जो
१८९
६२
देहविभिण्णउ
१४
१४
देहविभेयइं जो
२२९
१०२
देहहं उप्परि
१७८
५१
देहहं उब्भउ
७१
७०
देहहं पेक्खिवि
७२
७१
देहादेवलि
३३
३३
देहादेहहिं जो
२९
२९
देहि ससंतु वि
४२
४२
देहि वसंतु वि णवि
१९६
१६५
देहि वसंतें
४४
४४
देहु वि जित्थु
२७६
१४५
देहे वसंतु वि
३४
३४
धम्महं अत्थहं
१२९
धम्माधम्मु वि एक्कु
१५०
२४
धम्मु ण संचिउ
२६२
१३३
धंधइ पडियउ
२५१
१२१
पज्जयरत्तउ जीवडउ
७८
७७
परमपयगयाणं
३४५
२१४
परमसमाहि धरेवि
३२८
१९३
परमसमाहिमहासरहिं
३२०
१८१
परु जाणंतु वि
२३५
१०८
पंच वि इंदिय
६३
६३
पंचहं णायकु
२७१
१४०
पावहि दुक्खु महंतु
२४९
११९
पावें णारउ
१९०
६३
पेच्छइ जाणइ
१३९
१३
पुग्गलु छव्विहु
१४५
१९
पुणु पुणु पणविवि
११
११
पुण्णु वि पाउ वि
९२
९२
पुण्णेण होइ विहवो
१८७
६०
बलि किउ माणुस२७८
१४७
बंधहं मोक्खहं
१८०
५३
बंधु वि मोक्खु
६५
६५
बंभहं भुवणि
२२६
९९
बिण्णि वि जेण
१६३
३७
बिण्णि वि दोस
१७०
४४
बुज्झइ सत्थइं
२०९
८२
बुज्झंतहं परमत्थु
२२१
९४
बोहणिमित्तें
२११
८४
भणइ भणावइ
१७५
४८
भल्लाहं वि णासंति
२३७
११०
भवतणुभोय
३२
३२
भाउ विसुद्धउ
१९५
६८
भावाभावाहिं संजुवउ
४३
४३
भाविं पणविवि
भिण्णउ वत्थु जि
३१२
१८१
भुंजंतु वि....जो
२०७
८०
भुंजंतु वि णिय२०६
७९
मणु मिलियउ
१२५ ११२३
मं पुणु पुण्णइं
१८४
५७
मारिवि चूरिवि
२५६
१२६
स. दो. नं. अ. दो.
dohAsUchI ]
paramAtmaprakAsha
[ 561

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मारिवि जीवहं लक्खडा २५५
१२५
मुक्खु ण पावहि
२५४
१२४
मुणिवरविंदहं
१११
११०
मुत्तिविहूणउ
१४४
१८
मूढा सयलु वि
२५८
१२८
मूढु वियक्खणु
१३
१३
मेल्लिवि सयल
११६
११५
मोक्खु जि साहिउ
२४८
११८
मोक्खु म चिंतहि
३१९
१८८
मोहु विलिज्जइ मणु
२९८
१६३
राएं रंगिए
१२१
१२०
रत्तें वत्थे जेम
३०९
१७८
रायदोस बे
२२७
१००
रूवि पयंगा
२४२
११२
लक्खणछंदविवज्जियउ ३४१
२१०
लाहहं कित्तिहि
२१९
९२
लेणहं इच्छइ
२१४
८७
लोउ विलक्खणु
३१६
१८५
लोयागासु धरेवि
१५१
२५
वर जिय पावइं
१८३
५६
वर णियदंसण१८५
५८
वत्थुपणट्ठइ जेम
३११
१८०
वंदउ णिंदउ
१९३
६६
वंदणु णिंदणु
१९१
६४
वंदणु णिंदणु
१९२
६५
वित्तिणिवित्तिहिं
१७९
५२
विसयकसाय वि
३२३
१९२
विसयकसायहिं
६२
६२
विसयकसायहिं
२८७
१५६
विसयसुहइं बे
२६९
१३८
विसयहं उप्परि
१७७
५०
विसयासत्तउ जीव
२७२
१४१
वेयहिं सत्थहिं
२३
२३
सत्तु वि मित्तु वि
२३१
१०४
सत्थु पढंतु वि
२१०
८३
सयलपयत्थहं
१६०
३४
सयलवियप्पहं
३२६
१९५
सयलवियप्पहं जो
३२१
१९०
सयल वि संग ण
२९७
१६६
सयलहं कम्महं
३२९
१९८
सव्वहिं रायहिं
३०२
१७२
संता विसय जु
२७०
१३९
सिद्धिहिं केरा
१९६
६९
सिरिगुरु अक्खहि
१२७
सुण्णउं पउं
२९०
१५९
सुद्धहं संजमु
१९४
६७
सुहपरिणामें
१९८
७१
सो जोइउ जो जोगवइ २६८ २१३७
सो णत्थि त्ति पएसो
६६
६५
सो पर वुच्चइ
११२
१११
हरिहरबंभु वि
१३८
हउं वरु बंभणु
८२
८१
हउं गोरउ हउं
८१
८०
स. दो. नं. अ. दो.
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[ dohAsUchI

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संस्कृतटीकायामुक्ताना पद्यादीनां वर्णानुक्रमसूची
अइसयमादसमुत्थं
आगम [कुन्दकुन्द, प्रवचनसार ११६].
अकसायं तु चरित्तं
अक्खरडा जोयंतु टिउ
[रामसिंह, दोहापाहुड ८४].
अक्खाण रसणीं
अज्ज वि तियरण
[कुन्दकुन्द, मोक्षप्राभृत ७७].
अण्णोण्णं पविसंता
[कुन्दकुन्द पञ्चास्तिकाय ७].
अत्रेदानीं निषेधन्ति
[रामसेन, तत्त्वानुशासन ८३].
अथिरेण थिरा
[रामसिंह, दोहापाहुड १९].
अनादितो हि मुक्त
अन्यथा वेदपाडित्य
अपरिग्गहो अणिच्छो
[कुन्दकुन्द, समयसार २१०].
अभूदपुव्वो हवदि
[कुन्दकुन्द, पंञ्चास्तिकाय २०].
अरसमरूवमगंधं
[कुन्दकुन्द, (भाव) प्राभृत ६४; पञ्चास्तिकाय १२७].
अस्त्यामानादिबद्धः
[पूज्यपाद, सिद्धभक्ति २].
आत्मानमात्मा
[पूज्यपाद, सिद्धभक्ति ४].
आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य
[पूज्यपाद, इष्टोपदेश ४७].
आत्मोपादानसिद्धं
[पूज्यपाद, सिद्धभक्ति ७].
आनन्दं ब्रह्मणो
आभिणिसुदोहि
[कुन्दकुन्द, समयसार २०४].
आर्त्ता नरा धर्मपरा
आसापिसाय
इत्यतिदुर्लभरूपां
ऊ र्ध्वगा बलदेवाश्च
एगणिगोदसरीरे
परमागम, [नेमिचन्द्र, गो० जीवकाण्ड १९५].
एदम्हि रदो णिच्चं
[कुन्दकुन्द, समयसार २०६].
ओगाढगाढणिचिदो
[कुन्दकुन्द, पञ्चास्तिकाय ६४].
कषायैरिन्दियैः
कंखिदकलुसिदभूदो
कः पण्डितो
[अमोघवर्ष, प्रश्नोत्तररत्नमाला ५].
चरितारो सन्त्यद्य
[रामसेन, तत्त्वानुशासन ६].
चंडो ण मुयइ
[नेमिचन्द्र, गो० जीवकाण्ड ५०८].
चित्ते बद्धे बद्धो
जं पुण सगयं
[देवसेन, तत्त्वसार ५].
जीवा जिणवर
जीवा पुग्गलकाया
[कुन्दकुन्द, पञ्चास्तिकाय [९८].

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से पज्जएसु णिरदा
[कुन्दकुन्द, प्रवचनसार २२].
जेसिं जीवसहावो
[कुन्दकुन्द, पच्ञास्तिकाय [३५].
जो पस्सइ अप्पाणं
[कुन्दकुन्द, समयसार [१५].
जो पुणु परदव्वं
[कुन्दकुन्द, मोक्षप्राभृत [१५].
णमिएहिं जं
[कुन्दकुन्द, मोक्षप्राभृत [१०३].
णाणगुणेहि विहीणा
[कुन्दकुन्द, समयसार [२०५].
तं वत्थुं मुत्तव्वं
[शिवार्य, भ० आराधना २६२].
तावदेव सुखी
तिणकट्ठण व
त्यक्त्वा स्वकीय
दर्शनमात्मविनिश्चिति
[अमृतचन्द्र, पु. सिद्धयुपाय २१६].
दह्यमाने जगति
दुक्खक्खउ
[कुन्दकुन्द, प्राकृत सिद्धभक्ति].
देवागमपरिहीणे
धम्मो वत्थुसहावो
[कुमार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७६].
न गृहं गृहमित्याहुः
नामाष्टकसहस्रेण
[?, आप्तस्वरूप ५५].
पंडवरामहिं
पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं
परमार्तनयाय
परिणाम जीव
पावेण णरयतिरियं
पुढवीजलं च छाया
[कुन्दकुन्द, पञ्चास्तिकाय ७६
१].
पुव्वमभाविदजोगो
[शिवार्य, भ० आराधना २४].
बन्धवधच्छेदादेः
[समन्तभद्र, रत्नकरड ७८].
मणु मरइ पवणु
मुक्तश्चेत्प्राग्
मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ
[सोमदेव, यशस्तिलक पृ. ३२४].
यत्पुनर्वज्रकायस्थ
[रामसेन,] तत्त्वानुशासन [८४].
यावत्क्रियाः प्रवर्तन्ते
[जटासिंहनन्दि ?].
येन येन स्वरूपेण
[अमितगति, योगसार ९५१]
येनोपायेन शक्येत
रम्येषु वस्तुवतादिषु
[गुणभद्र, आत्मानुशासन २२८].
रयणत्तयं ण
[नेमिचन्द्र, द्रव्यसंग्रह ४०].
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[ TIkAnI shlokasUchI

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रागद्वेषौ प्रवृत्तिः
[गुणभद्र, आत्मानुशासन २३७].
रागादीणमणुप्पो
१०
लोकव्यवहारे ?
वरं नरकवासोऽपि
विसयहं कारणि
वीरा वेरग्गपरा
वैराग्यं तत्त्ववित्रानं
शिवं परमकल्याण
[?, आप्तस्वरूप २४].
षोडशतीर्थकराणां
[बृहदाराधनाशास्त्र].
सग्गो तवेण
[कुन्दकुन्द, मोक्षप्राभृत २३].
सत्यं वाचि
[गुणभद्र, आत्मानुशासन २१८].
सद्दव्वरओ
[कुन्दकुन्द मोक्षप्राभृत [१४].
सद्दृष्टिज्ञान
[समन्तभद्र, रत्नकरण्ड ३; रामसेन, तत्त्वानुशासन ५१].
सपरं बाधासहिय
[कुन्दकुन्द, प्रवचनसार १७६].
समओ उप्पण्णपद्धंसो
समसत्तुबंधुवग्गो
[कुन्दकुन्द, प्रवचनसार ३४१].
सम्मत्तणाणदंसण
[कुन्दकुन्द, प्राकृत सिद्धभक्ति २०].
सम्मद्दंसण
[नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रह ३९].
सव्वे सुद्धा
[नेमिचन्द्र, द्रव्यसंग्रह [१३].
सम्यमेवादराद्भाव्यं
[पद्मनंदी, पञ्चविंशति...].
सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः
[पूज्यपाद, सिद्धभक्ति १].
सुद्धस्स य सामण्णं
[कुन्दकुन्द, प्रवचनसार ३७४].
स्वयमेवात्मना
११
हस्ते चिन्तामणिः
हावो मुखविकारः
हिंसानृत
[उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र ७१].
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१. देखो अनगारधर्मामृतटीका पृ. २६२. २. देखो यशस्तिलक ५२५१. ३. देखो अनगारध. टीका
पृ. ४०३. ४. देखो षट्प्राभृतटीका पृ. ३४२. ५. देखो नीतिवाक्यामृत ३१३१. ६. देखो
षट्प्राभृतटीका पृ. २३६. ७. देखो ज्ञानार्णव पृ. ९३. ८. देखो अमृताशीति ६७. ९. देखो ज्ञानार्णव
पृ. ४१५. १०. देखो जयधवला पृ. १३ आराकी प्रति. ११. देखो सर्वार्थसिद्धि ७
१३
TIkAnI shlokasUchI ]
paramAtmaprakAsha
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