Page 247 of 565
PDF/HTML Page 261 of 579
single page version
अनंत प्रदेश कहे जाते हैं
असंख्यात, अनन्त प्रदेश परमाणुओंके मेलसे जानना चाहिए, अर्थात् एक परमाणु एक प्रदेश,
बहुत परमाणु बहु प्रदेश, यह जानना
लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशवाला है, ऐसा जो निज शुद्धात्मा वही
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिदशामें साक्षात् उपादेय है, यह जानना
छोड़ता है, ऐसा दिखलाते हैं
ते शुद्ध आत्मा वीतराग निर्विकल्प समाधिनी परिणतिना काळे साक्षात् उपादेय छे, एवो
भावार्थ छे. २४.
प्रमाणेनासंख्येयाः प्रदेशा यस्य शुद्धात्मनः स शुद्धात्मा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिपरिणतिकाले
साक्षादुपादेय इति भावार्थः
Page 248 of 565
PDF/HTML Page 262 of 579
single page version
हैं, लोकाकाश तो आधार है, और ये सब आधेय हैं, [एकत्वे मिलितानि ] ये द्रव्य एक क्षेत्र
में मिले हुए रहते हैं, एक क्षेत्रावगाही हैं, तो भी [स्वगुणेषु ] निश्चयनयकर अपने अपने गुणों
में ही [निवसंति ] निवास करते हैं, परद्रव्यसे मिलते नहीं हैं
परद्रव्यसे मिलनेरूप संकर
कोई वार कारकव्यभिचार अने लिंगव्यभिचार थाय छे.)
शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी संकर व्यतिकर दोषोना परिहार वडे पोतपोताना सामान्य विशेष शुद्ध गुणोने
छोडतां नथी.
Page 249 of 565
PDF/HTML Page 263 of 579
single page version
समा सकते हैं ? क्योंकि एक एक जीवके असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं, और एक एक
जीवमें अनंतानंत पुद्गलपरमाणु कर्म नोकर्मरूपसे लग रही है, और उसके सिवाय अनन्तगुणे
अन्य पुद्गल रहते हैं, सो ये द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोकमें कैसे समा गये ? इसका समाधान
श्री गुरु करते हैं
जलका घड़ा अच्छी तरह अवकाश पाता है, भस्ममें जल शोषित हो जाता है, अथवा जैसे
अने ते एक एक जीवद्रव्यमां कर्म-नोकर्मरूपे अनंत पुद्गलपरमाणुद्रव्यो रहे छे. ते अनंत
पुद्गलपरमाणुद्रव्यथी पण अनंतगुणा बाकीना पुद्गल परमाणुद्रव्यो रहे छे, तो ते सर्व द्रव्यो
असंख्यप्रदेशवाळा लोकमां केवी रीते अवकाश पामे (रही शके)? एवो पूर्वपक्ष छे.
स्वकीयस्वकीयसामान्यविशेषशुद्धगुणान्न त्यजन्तीति
संख्येयप्रदेशान्यनन्तजीवद्रव्याणि, तत्र चैकैके जीवद्रव्ये कर्मनोकर्मरूपेणानन्तानि पुद्गलपरमाणु-
द्रव्याणि च तिष्ठन्ति तेभ्योऽप्यनन्तगुणानि शेषपुद्गलद्रव्याणि तिष्ठन्ति तानि सर्वाण्यसंख्येय-
प्रदेशलोके कथमवकाशं लभन्ते इति पूर्वपक्षः
भस्मघटे जलघटः सम्यगवकाशं लभन्ते, अथवा यथैकस्मिन् उष्ट्रीक्षीरघटे मधुघटः सम्यगवकाशं
Page 250 of 565
PDF/HTML Page 264 of 579
single page version
आदि बहुत बाजोंका शब्द अच्छी तरह समा जाता है, उसी तरह एक लोकाकाशमें विशिष्ट
अवगाहनशक्तिके योगसे अनंत जीव और अनन्तानन्त पुद्गल अवकाश पाते हैं, इसमें विरोध
नहीं है, और जीवोंमें परस्पर अवगाहनशक्ति है
हैं, और निगोदियाका शरीर अंगुलके असंख्यातवें भाग है, सो ऐसे सूक्ष्म शरीरमें अनंत जीव
समा जाते हैं, तो लोकाकाशमें समा जानेमें क्या अचंभा है ? अनंतानंत पुद्गल लोकाकाशमें
समा रहे हैं, उसकी ‘‘ओगाढ’’ इत्यादि गाथा है
प्रकारके भेदको धरते हैं, कोई सूक्ष्म हैं कोई बादर हैं
जेटली राखमां घडा जेटलुं पाणी पूरतुं शोषाई जाय छे) अथवा (४) जेवी रीते एक ऊंटणीना
दूधना घडामां मधनो घडो समाई जाय छे अथवा (५) जेवी रीते एक भूमिघरमां (भोंयरामां)
ढोल, जयजयकार अने घंट वगेरेना अनेक शब्दो सारी रीते अवकाश पामे छे तेवी रीते एक
ज लोकमां विशिष्ट अवगाहनशक्तिने लीधे पूर्वोक्त अनंत संख्यावाळा जीवो अने अनंतानंत
पुद्गलो अवकाश पामे छे, एमां कोई विरोध नथी. परमागममां (श्री गोम्मटसार जीवकांड गा.
१९५ मां) जीवोनी अवगाहनशक्तिनुं स्वरूप पण कह्युं छे के
गा. ६४ मां) पुद्गलोनी अवगाहनशक्तिनुं स्वरूप पण कह्युं छे के
नास्ति विरोधः इति
Page 251 of 565
PDF/HTML Page 265 of 579
single page version
अने बाकीनां द्रव्यो पोतपोतानुं स्वरूप छोडतां नथी. २५.
शेषद्रव्याणि च स्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्ति
स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं, पुद्गलद्रव्य अपने वर्णादि स्वरूपको नहीं छोड़ता, और धर्मादि अन्य
द्रव्य भी अपने अपने स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं
जीवाः ] नरकादि चारों गतियोंके दुःखोंको सहते हुए जीव [संसारं ] संसारमें [भ्रमंति ]
भटकते हैं
Page 252 of 565
PDF/HTML Page 266 of 579
single page version
व्यवहारनयथी गतिमां सहकारी छे तेम ज अधर्मद्रव्य स्थितिमां सहकारी छे, ते ज व्यवहारनयथी
(उपचरित असद्भूतव्यवहारनयथी) आकाशद्रव्य अवकाशदान आपे छे तेम ज काळद्रव्य
शुभाशुभ परिणामोमां सहकारी छे.
गतिसहकारित्वं करोति, तथैवाधर्मद्रव्यं स्थितिसहकारित्वं करोति, तेनैव व्यवहारनयेन
आकाशद्रव्यमवकाशदानं ददाति, तथैव कालद्रव्यं च शुभाशुभपरिणामसहकारित्वं करोति
भावार्थः
मन, श्वासोश्वास, इन चारोंको उत्पत्ति करता है, अर्थात् मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, रागद्वेषादि
विभावपरिणाम हैं, इन विभाव परिणामोंके योगसे जीवके पुद्गलका सम्बन्ध हैं, और पुद्गलके
संबन्धसे ये हैं, धर्मद्रव्य उपचरितासद्भूत व्यवहारनयकर गतिसहायी है
-अशुभ परिणामोंका सहायी है
हुए संसारमें भटकते हैं, यह तात्पर्य हुआ
Page 253 of 565
PDF/HTML Page 267 of 579
single page version
लगकर [लघु ] शीघ्र ही [परलोकः गम्यते ] उत्कृष्ट लोकरूप मोक्षमें जाना चाहिये
उत्पन्न जो अतिन्द्रिय सुख उससे विपरीत आकुलताके उपजानेवाले हैं, ऐसा जानकर हे जीव,
छेः
भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूप मार्गमां स्थित थईने पर अर्थात् परमात्मा तेना अवलोकनरूप-
Page 254 of 565
PDF/HTML Page 268 of 579
single page version
परिणमनरूप मोक्ष उसमें गमन कर
हैं
[ज्ञानं चारित्रं ] ज्ञान और चारित्रको [शृणु ] सुन, [येन ] जिसके धारण करनेसे [परमेष्ठिनम्
प्राप्नोषि ] सिद्धपरमेष्ठिके पदको पावेगा
छेः
गम्यत इति भावार्थः
Page 255 of 565
PDF/HTML Page 269 of 579
single page version
व्यवहारनयेन पुनः कर्मोदयजनितद्रव्यभावरूपैश्चतुर्भिः प्राणैर्जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा जीवः
कई रीते घटे छे, ते कहे छे.)
सद्भाव नहीं होवाथी, मुख्यपणे तो अपरिणामी छे.
लेकिन जीव पुद्गलकी तरह विभावव्यंजनपर्यायके अभावसे विभावपरिणमन नहीं है, इसलिये
मुख्यतासे परिणामी दो द्रव्य ही कहे हैं, शुद्धनिश्चयनयकर शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव जो शुद्ध
चैतन्यप्राण उनसे जीता है, जीवेगा, पहले जी आया, और व्यवहारनयकर इंद्री, बल, आयु,
श्वासोश्वासरूप द्रव्यप्राणोंकर जीता है, जीवेगा, पहले जी चुका, इसलिये जीवको ही जीव कहा
गया है, अन्य पुद्गलादि पाँच द्रव्य अजीव हैं, स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्ति सहित मूर्तीक
एक पुद्गलद्रव्य ही है, अन्य पाँच अमूर्तीक हैं
Page 256 of 565
PDF/HTML Page 270 of 579
single page version
पुनर्बहुप्रदेशलक्षणकायत्वाभावादप्रदेशम्
द्रव्यभावरूप चार प्राणोथी जे जीवे छे, जीवशे अने पूर्वे जीवतो हतो ते जीव छे, अने पुद्गलादि
पांच द्रव्यो अजीवरूप छे.
व्यवहारनयथी मूर्त छे तोपण शुद्धनिश्चयनयथी अमूर्त छे, अने धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ
ए चार द्रव्यो अमूर्त छे.
कायत्वनो अभाव होवाथी अप्रदेश छे.
असंख्यातप्रदेशी जीवद्रव्यको आदि लेकर पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय हैं, वे सप्रदेशी हैं, और
कालद्रव्य बहुप्रदेश स्वभावकायपना न होनेसे अप्रदेशी है, धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन द्रव्य
एक एक हैं, और जीव, पुद्गल, काल ये तीनों अनेक हैं
क्षेत्र कहा गया है, बाकी पाँच द्रव्य अक्षेत्री हैं, एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गमन करना, वह चलन
हलनवती क्रिया कही गई है, यह क्रिया जीव पुद्गल दोनोंके ही है, और धर्म, अधर्म, आकाश,
काल ये चार द्रव्य निष्क्रिय हैं, जीवोंमें भी संसारी जीव हलन
तो सभी द्रव्य नित्य हैं, अर्थपर्याय जो षट्गुणी हानिवृद्धिरूप स्वभावपर्याय है, उसकी अपेक्षा
सब ही अनित्य हैं, तो भी विभावव्यंजनपर्याय जीव और पुद्गल इन दोनोंकी है, इसलिये इन
Page 257 of 565
PDF/HTML Page 271 of 579
single page version
पुनर्निष्क्रियाणि
द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्ये तथाप्यगुरुलघुपरिणति
अने काळ ए चार द्रव्यो तो निष्क्रिय छे.
नित्य छे ज्यारे जीवपुद्गलद्रव्य तो-जोके द्रव्यार्थिकनयनी अपेक्षाए नित्य छे तोपण अगुरु-
लघुपरिणतिरूप स्वभावपर्यायनी अपेक्षाए अने विभावव्यंजनपर्यायनी अपेक्षाए अनित्य छे.
निश्चयसे जानना कि चार नित्य हैं, दो अनित्य हैं, तथा द्रव्यकर सब ही नित्य हैं, कोई भी
द्रव्य विनश्वर नहीं है, जीवको पाँचों ही द्रव्य कारणरूप हैं, पुद्गल तो शरीरादिकका कारण
है, धर्म-अधर्मद्रव्य गति स्थितिके कारण हैं, आकाशद्रव्य अवकाश देनेका कारण है, और काल
वर्तनाका सहायी है
द्रव्योंको अकारण है, और ये पाँचों कारण हैं, शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक
शुद्धद्रव्यार्थिकनयकर यह जीव यद्यपि बंध, मोक्ष, पुण्य, पापका कर्ता नहीं है, तो भी
अशुद्धनिश्चयनयकर शुभ-अशुभ उपयोगसे परिणत हुआ पुण्य-पापके बंधका कर्ता होता है, और
Page 258 of 565
PDF/HTML Page 272 of 579
single page version
करोतीत्यकारणम्
परिणतः सन् पुण्यपापबन्धयोः कर्ता तत्फलभोक्ता च भवति विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिज-
शुद्धात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन
छे तोपण
अशुद्धनिश्चयनयथी शुभाशुभ उपयोगरूपे परिणमतो थको पुण्य-पापबंधनो कर्ता अने तेनां फळनो
भोक्ता छे. अने विशुद्धज्ञान-विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा निजशुद्धात्मद्रव्यना
सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यग् अनुष्ठानरूप शुद्धोपयोग वडे ते-रूपे परिणमतो थको मोक्षनो
पण कर्ता छे अने तेना फळनो भोक्ता छे. शुभ, अशुभ, शुद्धपरिणामोरूपे परिणमवुं ते ज
कर्तापणुं सर्वत्र जाणवुं अने पुद्गलादि पांचद्रव्योने पोतपोताना परिणामरूप परिणमवुं ते ज
कर्तापणुं छे अने वस्तुद्रष्टिथी तो पुण्य-पाप आदिरूपे कर्तापणुं नथी ज.
आचरणरूप शुद्धोपयोगकर परिणत हुआ मोक्षका भी कर्ता होता है, और अनंतसुखका भोक्ता
होता है
जो परिणमन वही कर्तापना है, पुण्य पापादिका कर्तापना नहीं है, सर्वगतपना लोकालोक
व्यापकताकी अपेक्षा आकाश ही में है, धर्मद्रव्य-अधर्मद्रव्य ये दोनों लोकाकाशव्यापी हैं,
अलोकमें नहीं है, और जीवद्रव्यमें एक जीवकी अपेक्षा केवलसमुद्घातमें लोकपूरण अवस्थामें
लोकमें सर्वगतपना है, तथा नाना जीवकी अपेक्षा सर्वगतपना नहीं है, पुद्गलद्रव्य लोकप्रमाण
Page 259 of 565
PDF/HTML Page 273 of 579
single page version
जीवापेक्षया सर्वगतमेव भवतीति
चेतनादिस्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति
जीवनी अपेक्षाए, सर्वगत ज छे. वळी पुद्गलद्रव्य लोकरूप महास्कंधनी अपेक्षाए सर्वगत
छे, बाकीना पुद्गलनी अपेक्षाए सर्वगत नथी, वळी काळद्रव्य एक एक काळाणुद्रव्यनी अपेक्षाए
सर्वगत नथी, लोकना प्रदेशो जेटला अनेक काळाणुनी विवक्षाथी लोकमां सर्वगत छे.
पंचास्तिकाय गाथा ७मां) कह्युं पण छे के
स्वभावने छोडतां नथी.)
कालाणुकी अपेक्षा तो एकप्रदेशगत है, सर्वगत नहीं है, और नाना कालाणुकी अपेक्षा
लोकाकाशके सब प्रदेशोंमें कालाणु है, इसलिये सब कालाणुओंकी अपेक्षा सर्वगत कह सकते
हैं
व्यापक है, इसलिये सर्वगत कहा
है, सभी द्रव्य निज निज स्वरूपमें हैं, पररूप नहीं हैं
अन्यको अन्य अवकाश देता है, तो भी अपना अपना अवकाश आपमें ही है, परमें नहीं है,
यद्यपि ये द्रव्य हमेशासे मिल रहे हैं, तो भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते
Page 260 of 565
PDF/HTML Page 274 of 579
single page version
कायव्यापाररहितं निजशुद्धात्मद्रव्यमेवोपादेयम्
निजशुद्धात्मद्रव्य ज उपादेय छे. २८.
विषय छे) एवा व्यवहार सम्यक्त्वनां व्याख्याननी मुख्यताथी समाप्त थयुं.
वह शुभ, अशुभ, मन, वचन, कायके व्यापारसे रहित हुआ ध्यावने योग्य है
Page 261 of 565
PDF/HTML Page 275 of 579
single page version
भङ्गयात्मकं वा तत् तथा जानाति य आत्मसंबन्धी स्वपरिच्छेदको भावः परिणामस्तत् सम्यग्-
ज्ञानं भवति
जे आत्मानो स्व-परपरिच्छेदक भाव-परिणाम-जाणे छे, ते सम्यग्ज्ञान छे.
काळे, जोके बहिर उपयोग अनीहित छे खरो तोपण इहापूर्वक विकल्पनो अभाव होवाने लीधे
तेनुं गौणपणुं होवाथी स्वसंवेदनज्ञानने ज ज्ञान कहेवामां आवे छे. २९.
निजस्वरूप [ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान है, ऐसा [मन्यस्व ] तू मान
जो आत्माका भाव (परिणाम) वह सम्यग्ज्ञान है
निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प समाधिसमय पदार्थोंका जानपना मुख्य नहीं लिया, केवल
स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयसम्यग्ज्ञान है
Page 262 of 565
PDF/HTML Page 276 of 579
single page version
हवेइ ज्ञानिनां पुरुषाणां चरणं भवतीति
अने शंकादि दोष रहित एवा सम्यक्त्व परिणामथी श्रद्धीने, माया, मिथ्यात्व अने
निदान ए त्रण शल्यथी मांडीने समस्त चिंताजाळना त्याग वडे, परमानंदरूप
हैं
[त्यजति ] छोड़ता है [सः ] वह [निजः शुद्धः भावः ] आत्माका निज शुद्ध भाव [ज्ञानिनां ]
ज्ञानी पुरुषोंके [चरणं ] चारित्र [भवति ] होता है
इन तीनोंसे रहित है
लेकर समस्त चिंता
Page 263 of 565
PDF/HTML Page 277 of 579
single page version
परिणामेन श्रद्धाय च यः कर्ता मायामिथ्यानिदानशल्यप्रभृतिसमस्तचिन्ताजालत्यागेन निजशुद्धात्म-
स्वरूपे परमानन्दसुखरसास्वादतृप्तो भूत्वा तिष्ठति स पुरुष एवाभेदेन निश्चयचारित्रं भवतीति
भावार्थः
सम्यग्ज्ञानचारित्रमुख्यत्वेन सूत्रद्वयमिति समुदायेनैकोनविंशतिसूत्रस्थलं समाप्तम्
निश्चयचारित्र छे. ३०.
व्यवहारसम्यक्त्वना व्याख्याननी मुख्यताथी चौद गाथासूत्रो सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रनी
मुख्यताथी बे सूत्रो ए प्रमाणे समुदायरूपे ओगणीस सूत्रोनुं स्थळ समाप्त थयुं.
दोहोंमें छह द्रव्यकी श्रद्धारूप व्यवहारसम्यक्त्वका व्याख्यान किया, तथा दो दोहोंमें
सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रका मुख्यतासे वर्णन किया
Page 264 of 565
PDF/HTML Page 278 of 579
single page version
भवतीति
वीतरागसदानन्दैकरूपसुखसुधारसास्वादपरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपस्याभेदरत्नत्रयस्य
भेदरत्नत्रयनो अने निश्चयनयथी वीतराग सदा-आनंद जेनुं एक रूप छे एवा सुखसुधारसना
आस्वादथी परिणत निजशुद्धात्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुचरणरूप
अभेदरत्नत्रयनो जे भक्त छे तेनुं आ लक्षण जाणो. आ क्युं? जोके व्यवहारनयथी सविकल्प
अवस्थामां चित्तने स्थिर करवा माटे देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूतिनुं विशेष कारण, परंपराए
शुद्ध आत्मानी प्राप्तिना हेतुभूत एवां, पंचपरमेष्ठीना रूपनुं स्तवन, वस्तुस्तवन, गुणस्तवनादिक
हैं
है, अन्य नहीं
करने योग्य हैं, व्रत, शीलादि पालने योग्य हैं, ये लक्षण व्यवहाररत्नत्रयके हैं, सो व्यवहारका
नाम भेद हैं, वह भेदरत्नत्रय आराधने योग्य है, उसके प्रभावसे निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति है
हुआ उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेदरत्नत्रय है, उसका जो भक्त (आराधक)
Page 265 of 565
PDF/HTML Page 279 of 579
single page version
परमेष्ठिरूपस्तववस्तुस्तवगुणस्तवादिकं वचनेन स्तुत्यं भवति मनसा च तदक्षररूपादिकं
प्राथमिकानां ध्येयं भवति, तथापि पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयपरिणतिकाले केवलज्ञानाद्यनन्तगुण-
परिणतः स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति
पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयनी परिणतिना काळे केवळज्ञानादि अनंतगुणपरिणत स्वशुद्धात्मा ज ध्याववा
योग्य छे.
देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूतिका कारण है, और परम्पराय शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्तिका कारण
है, सो प्रथम अवस्थामें भव्यजीवोंको पंचपरमेष्ठी ध्यावने योग्य हैं, उनके आत्माका स्तवन,
गुणोंकी स्तुति, वचनसे उनकी अनेक तरहकी स्तुति करनी, और मनसे उनके नामके अक्षर तथा
उनका रूपादिक ध्यावने योग्य हैं, तो भी पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्तिके समय केवलज्ञानादि
अनंतगुणरूप परिणत जो निज शुद्धात्मा वही आराधने योग्य है, अन्य नहीं
पंचपरमेष्ठीका ध्यान करना योग्य है, और निर्विकल्पदशामें निजस्वरूप ही ध्यावने योग्य है,
निजरूप ही उपादेय हैं
करते हैं
Page 266 of 565
PDF/HTML Page 280 of 579
single page version
पुरुषाः आराधका भवन्ति
छे, मोक्षपदना आराधको निज आत्माने ध्यावे छे.
तेओ ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा मोक्षपदना आराधको छे.
आराधक हैं, और वे ही [निजात्मानं ] मोक्षपदके आराधक हुए अपने आत्माको [ध्यायंति ]
ध्यावते हैं