Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : पोष : रप००
आंधळो नथी के पोते पोताने न देखे. स्वयं पोते पोताने (बीजा कोईनी सहाय
वगर) देखे–साक्षात् देखे–अनुभवे एवी प्रकाशशक्तिवाळो आत्मा छे. आत्मामां
आवो प्रकाशस्वभाव होवाथी तेना बधा गुणोमां पण प्रकाशस्वभावपणुं छे, एटले
आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय बधुं स्वरूप स्वसंवेदनप्रत्यक्ष थाय एवो प्रकाशस्वभावी
आत्मा छे.
अहो, वीतरागसंतोनी वाणी!–जेणे जाणी ते न्याल थई जाय छे. गुरुदेव
कहे छे–अहो! आ समयसार तो आत्माने जोवानुं अजोड नेत्र छे, ते आत्मानो
साक्षात्कार करावे छे. अहो! आ पंचमकाळमां पण आत्माने साधीने एकावतारी
थई शकाय–एवी सामग्री आ समयसारमां रही गई छे. ए तो जे अनुभव करे
एने एनी गंभीरतानी खबर पडे. माटे आचार्यदेवे कह्युं छे के आ समयसारमां
निजवैभवथी अमे जे आत्मस्वभाव बतावीए छीए–ते स्वानुभव–प्रत्यक्ष वडे तमे
प्रमाण करजो.
बापु! आ तारा आत्मानी प्राप्तिना अलौकिक मारगडा कहेवाय छे.
भगवान आत्मा स्वयं–प्रकाशमान एवा स्पष्ट स्वसंवेदननी शक्तिवाळो छे.
मतिश्रुतज्ञानने सामान्यपणे परोक्ष कह्या होवा छतां, स्वसंवेदन बळे मिथ्यात्वनो
नाश करतां तेनामां कोई एवी अचिंत्य सातिशय अद्भुत शक्ति प्रगटे छे के ते
आत्माने प्रत्यक्ष करे छे.
शुं मतिश्रुतज्ञानमां आत्मा प्रत्यक्ष थाय?
हा, स्वसंवेदन वखते ते ज्ञानमांय एवी अद्भुतशक्ति खीली जाय छे.
पंचाध्यायी (गाथा ७०६ थी ७१०)मां कहे छे के–मति–श्रुतज्ञान सामान्यपणे परोक्ष
होवा छतां तेमां एटली विशेषता छे के स्वानुभूतिना समयमां ते पण प्रत्यक्ष थई
जाय छे. मिथ्यात्वना नाशथी सम्यग्द्रष्टिजीवने खरेखर कोई एवी अनिर्वचनीय
शक्ति होय छे के जे शक्तिद्वारा आत्मा पोते पोताने प्रत्यक्ष थाय छे. अहीं
आचार्यदेवे प्रकाशशक्तिमां ए वात स्पष्ट करी छे.
अहो, ज्ञानशक्तिवडे पोतेपोताना आत्मानुं आवुं स्पष्ट–प्रत्यक्ष
स्वसंवेदन करवुं ते ज वीरनाथप्रभुनी परम प्रसादी छे;
ने ते ज वीरप्रभुना मोक्षनो साचो महोत्सव छे.

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : १९ :
नियमा के भजनीय?

कई वस्तु नियमा छे? ने कई वस्तु भजनीय छे? ते संबंधी समजण गतांकमां
१र दाखला वडे आपी हती; ने बीजा दश दाखला विचारवा माटे लख्या हता. ते दश
दाखलानो खुलासो नीचे मुजब छे:–
(१) योगनुं कंपन होय त्यां केवळज्ञान...भजनीय छे, कोई ठेकाणे होय छे ने कोई
ठेकाणे नथी होतुं; जेमके १र गुणस्थान सुधी योगनुं कंपन छे पण केवळज्ञान
नथी; तेरमा गुणस्थाने योगनुं कंपन पण छे ने केवळज्ञान पण छे.
*
उपरनी जेम, केवळज्ञान होय त्यां योगनुं कंपन ते पण भजनीय छे;
चौदमा गुणस्थाने केवळज्ञान होवा छतां योगनुं कंपन नथी.
* अयोगीपणुं (अकंपपणुं) होय त्यां केवळज्ञान नियमथी होय छे;
* केवळज्ञान होय त्यां अयोगीपणुं होय के न होय,–नियम नथी, एटले ते
भजनीय छे.
(२) केवळज्ञान होय त्यां पंचेन्द्रियपणुं...भजनीय छे. सिद्धभगवंतोने केवळज्ञान छे
पण पंचेन्द्रियपणुं नथी.
(३) सम्यग्ज्ञान होय त्यां राग भजनीय छे...चोथा वगेरे गुणस्थाने सम्यग्ज्ञान पण
होय छे ने राग पण होय छे,–बंने साथे होवामां विरोध नथी; अने उपरना
गुणस्थाने क्षीणमोह वगेरे जीवोने सम्यग्ज्ञान होवा छतां राग नथी होतो. आ
रीते सम्यग्ज्ञान साथे रागनुं होवापणुं भजनीय छे, नियमरूप नथी.
(४) अरूपीपणुं होय त्यां चेतनपणुं...भजनीय छे; केमके अरूपी तो अचेतन पण
होई शके छे. जेमके आकाशद्रव्य अरूपी होवा छतां अचेतन छे.
(५) चेतनपणुं होय त्यां अरूपीपणुं नियमा होय छे. कोई पण चेतनवस्तु रूपी होती
नथी, अरूपी ज होय छे.
(६) केवळज्ञान होय त्यां परमऔदारिकशरीर...भजनीय छे...प्रभु सिद्धोने केवळज्ञान
होय छे पण ते शरीर होतुं नथी.
(७) जीवनुं लोकव्यापीपणुं...भजनीय छे...केमके बधा जीवो लोकव्यापी नथी होता,

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: २० : आत्मधर्म : पोष : रप००
परंतु केवळज्ञान–समुद्घात वखते जीव लोकव्यापी पण होय छे.
(८) जीवमां राग...भजनीय छे. कोईवार होय छे, कोईवार नथी होतो. राग
वगर पण जीवनुं अस्तित्व रहे छे.
(९) जीवमां ज्ञान नियमा छे. ज्ञान वगरनो कोई जीव होतो नथी.
(१०) अयोगीपणुं होय त्यां केवळज्ञान नियमथी होय ज छे.
परमागमने जाणीने परमातमने अनुभवो
परमागम समयसारमां शुद्धात्मानुं स्वरूप देखाडतां प्रभु कुन्दकुन्दस्वामी
खास भलामण करे छे के ‘हुं आ जे शुद्ध आत्मा देखाडुं छुं ते तमे तमारा
स्वानुभवथी प्रमाण करजो. जिनागम ए मात्र जोवानी, के एकला बाह्य शोभा–
शणगारनी ज वस्तु नथी, एना अंतर–हार्द सुधी पहोंचीने स्वानुभव करवानो छे.
एटले मात्र परमागम–मंदिरनो भव्य उत्सव करीने अटकशो नहि, जे परमागम
तेमां कोतराया छे ते परमागमना अभ्यासमां निरंतर चित्तने जोडीने, तेना ऊंडा
हार्द सुधी पहोंचीने, आनंदमय परमात्मतत्त्वने अनुभूतिगम्य करजो.–ए
जिनवाणीनी सर्वोत्तमभक्ति छे, ने ए वीतरागगुरुओनी भलामण छे. समयसार–
जिनागमना अंतमां ‘आनंदमय विज्ञानघन आत्माने प्रत्यक्ष करतुं आ अक्षय
जगतचक्षु पूर्णताने पामे छे’–एम कहीने “आत्मानो प्रत्यक्ष अनुभव” ते आ
आगमनुं फळ बताव्युं छे.
काशीना पं. श्री कैलाशचंदजी ‘जैन संदेश’ मां लखे छे के–“भक्तिपूर्वक
श्रुतनी उपासना ते जिननी ज उपासना छे. जिनदेवमां ने श्रुतदेवतामां कांई अंतर
नथी, तेथी जे भक्तिथी श्रुतने उपासे छे ते जिनदेवने ज उपासे छे. आपणे हंमेशांं
देव–गुरु साथे शास्त्रनी पण पूजा करीए छीए ने त्रण रत्नोमां (देव–शास्त्र–गुरु
तीन) तेने पण गणीए छीए. परंतु, शास्त्रने मात्र उत्तम कपडावडे बांधवाथी के
पूंठा चडाववाथी ज श्रुतपूजा समाप्त थई जती नथी; वास्तविक श्रुतपूजा तो
एकाग्रचित्तथी तेनुं अध्ययन करवुं ने तेना भाव समजवा ते ज छे. आवी
भावपूजामां देव अने शास्त्रनी एकता थई जाय छे. अत्यारे आपणने आ क्षेत्रे
जिनदेवना साक्षात्कारनुं सौभाग्य तो नथी, परंतु जिनवाणीनो तो साक्षात्कार थाय
छे ने तेना अभ्यासवडे आत्मानो पण साक्षात्कार थई शके छे.

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : २१ :
सोना के हीरा–माणेक वडे जेनी किंमत आंकी न शकाय–एवा गंभीर
आत्मभावो (के जे वीतरागी संतोना अनुभवमांथी नीकळेला रत्नो छे–) ते
समयसारादि परमागमोमां भर्या छे. अने तेथी ज आपणा जैन परमागमोनी महानता
तथा पूज्यता छे. जिनागमोमां जे गंभीर चैतन्यभावो भर्या छे ते बीजा कोई
शास्त्रोमां नथी.–आम परम बहुमानपूर्वक जिनागमनुं सेवन करो...तमने आत्माना
अमूल्य निधान मळशे. मुमुक्षुनी निरंतर भावना होय छे के–
आगमके अभ्यासमांही पुनि चित्त एकाग्र सदीव लगावुं;
दोषवादमें मौन रहुं फिर पुन्यपुरुष–गुण निशदिन गावुं.
हे जीव! गुणीजनोना गुणनी प्रशंसा करतां कदाच तने न आवडे, पण धर्मात्मा–
साधर्मीनी निंदा तो तुं कदी न करीश. गुणीषु प्रमोदं– गुणीजनोना गुणो प्रत्ये जेने
प्रमोदभाव छे ते जीव गुणप्राप्ति तरफ आगळ वधे छे. पण गुणनी ईर्षा करनार तो कदी
गुणने पामतो नथी.
रु रु रु रु रु
विद्वानोनुं मुख्य कार्य ए छे के–
आगमना रहस्यनुं उद्घाटन करीने समाजनी सामे राखवुं
“विद्वान केवल समाजके मुख नहीं है। वे आगमके रहस्योद्घाटनके
जिम्मेदार है। अतः उन्हें, हमारे अमुक वक्तव्यसे समाजमें कैसी प्रतिक्रिया होती
है, वह अनुकूल होती है या प्रतिकूल, यह लक्ष्यमें रखना जरुरी नहीं है। यदि
उन्हें किसी प्रकारका भय हो भी तो सबसे बडा भय आगमका होना चाहिए।
विद्वानोंका प्रमुख कार्य जिनागमकी सेवा है और वह तभी संभव है जब वे
समाजके भयसे मुक्त होकर सिद्धांतके रहस्यको उसके सामने रख सकें। कार्य
बडा है। इस कालमें इसका उनके ऊपर उत्तरदायित्व है, इसलिय उन्हें यह कार्य
सब प्रकारकी मोहममताको छोडकर करना ही चाहिए। समाजका संघारण करना
उनका मुख्य कार्य नहीं है। यदि वे दोनों प्रकारके कार्योंका यथास्थान निर्वाह कर
सकें तो उत्तम है। पर समाजके संघारणके लिये आगमको गौण करना उत्तम नहीं
है। हमें भरोसा हे कि विद्वान इस निवेदनको अपने हृदयमें स्थान देंगे और ऐसा
मार्ग स्वीकार करेंगे जिससे उनके सद्प्रयत्नस्वरूप आगमका रहस्य विशदताके
साथ प्रकाशमें आवे।।”
[–पंडित जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी]

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: २२ : आत्मधर्म : पोष : रप००
विद्वानोनुं मुख्य कार्य बतावतुं पंडितजीनुं आ कथन गुरुदेव घणीवार प्रवचनमां
याद करे छे: “विद्वानो ए मात्र समाजनी वात करवानुं मोढुं ज नथी; तेओ तो
आगमना रहस्यनुं उद्घाटन करवाना अधिकारी छे. एटले, तेमणे एवुं लक्ष राखवुं
जरूरी नथी के अमारा अमुक कथनथी समाजमां केवी असर थशे!–अनुकूळ थशे के
प्रतिकूळ?–हा, जो तेओए कंईपण बीक राखवा जेवुं होय तो सौथी मोटो भय
आगमनो होवो जोईए–के आगमविरुद्ध कंई कथन न थई जाय. विद्वानोनुं मुख्यकार्य
जिनागमनी सेवा छे, अने ते त्यारे ज बनी शके के ज्यारे तेओ समाजना भयथी मुक्त
थईने सिद्धांतनुं रहस्य तेनी सामे राखी शके. काम तो मोटुं छे; अने आ काळमां तेनी
जवाबदारी विद्वानो उपर छे, माटे तेओए बधा प्रकारनी मोहममता छोडीने आ काम
करवुं ज जोईए. समाजनी देखभाळ करवी ए कांई विद्वानोनुं मुख्य काम नथी! जो
तेओ बंने प्रकारना कार्योनो यथास्थान निर्वाह करी शके तो ते उत्तम छे. पण समाजनी
देखभाळ माटे, के समाजना रंजन माटे, आगमने गौण करवा ते व्याजबी नथी. अमने
विश्वास छे के विद्वानो आ निवेदनने पोताना हृदयमां स्थान देशे, अने एवो मार्ग
अंगीकार करशे के जेथी तेमना सद्प्रयत्नना फळरूपे आगमनुं रहस्य वधारे स्पष्टताथी
प्रसिद्धिमां आवे.”
* * * * *
* सौए लक्षमां लेवा जेवुं– *
भाईश्री बाबुभाई (फत्तेपुर) लखे छे के– “आत्मधर्ममां अपाती पू. गुरुदेवनी
प्रवचन प्रसादी अपूर्व छे; नाना–मोटा सर्वेने माटे विशेष आकर्षणनुं कारण छे. गयो
अंक वांच्यो तेथी मने आनंद थयो. जिनमंदिरमां रात्रे के वहेली सवारे–परोढिये
अष्टद्रव्यथी पूजन थाय नहि, तेमज सामग्री धोवी के अभिषेक करवो ते पण योग्य
नथी. तेमज पूजनसामग्रीमां सचित्त वस्तुओ वपराय नहीं. सौ मुमुक्षुमंडळोए आ
प्रमाणे जिनमंदिरोमां पूजनपद्धति करवी जोईए.” (पू. गुरुदेवे पण हमणां प्रवचनमां
कहेल के रात्रे आवी क्रियाओ करवी ते मार्ग नथी.) रात्रिभोजनादि पण जैनगृहस्थने
शोभे नहि; तेमां त्रसहिंसा संबंधी तीव्र कषाय होवाथी, जैनमार्गमां खूब भारपूर्वक
तेनो निषेध छे. वीरनाथना मोक्षगमननुं अढी हजारमुं वर्ष चाले छे त्यारे जैनसमाज
जागृत बने, ने ज्ञानशुद्धि साथे क्रियाशुद्धि वडे पण जैनधर्मनी प्रभावना वधारे ए सौनुं
कर्तव्य छे.

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : २३ :
* जंबुस्वामी...वैराग्य *
अंतिम केवळी श्री जंबुस्वामीनी वात छे. ए धीर–वीर द्रढब्रह्मचारी श्री
जंबुकुमार ज्यारे दीक्षा लेवा तैयार थया छे त्यारे पोतानी शोकमग्न माताने संबोधन
करतां वैराग्यथी कहे छे के हे माता! तुं शोकने जल्दी छोड. आ संसारमां भमतां केटलीये
वार हुं मोटी विभूतिवाळो राजा थयो ने केटलीये वार नानकडो कीडो थयो. तरंग जेवा
अस्थिर आ संसारमां कोई जीवने ईंद्रियसुख के दुःख कायम एकसरखा रहेतां नथी.
माटे दुःखमां शोक शो? ने सुखमां हर्ष शो? हे माता! आवा संसारथी हवे बस थाओ!
तुं पण कायरता छोडीने मने रजा आप...हवे हुं मारा अविनाशी चैतन्यपदने साधीश.–
कति न कति न वारान् भूपतिभूरिभूतिः
कति न कति न वारान् अत्र जातोस्मि कीटः।।
नियतमिति न कस्याप्यस्ति सौख्यं न दुःखं
जगति तरलरूपे किं मुदा किं शुचा वा।।
ए प्रमाणे वैराग्यमय अमृतवचनो वडे माताने संबोधीने जंबुकुमार वन तरफ
चाल्या ने सुधर्मस्वामी पासे दीक्षा लईने थोडा ज वखतमां केवळज्ञानने साध्युं. धन्य
एमनो वैराग्य! धन्य एमनुं जीवन!
आपना घरमां निधान
आपना घरमां उत्तम धर्मसाहित्य अने ‘आत्मधर्म’ वसावो ते साहित्य आपना
वंश–परिवारने माटे एकवार उत्तम निधान थई पडशे. सोना–झवेरात करतांय उत्तम–
वीतरागी साहित्यवडे आपनुं घर वधु शोभी ऊठशे.
जैनधर्मनो प्रसाद–
हुं दुःखी तो घणा भवोमां थयो. बस, हवे आ भव दुःखी थवा माटे नथी; आ
भव तो सुखी थवा माटे छे. दुःखनो अंत करीने हवे तो सादि अनंत सुखी ज रहेवानुं
छे. –आ मारा जैनधर्मनो ने श्रीगुरुनो प्रसाद छे.

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: २४ : आत्मधर्म : पोष : रप००
कातंत्र–व्याकरणनुं पहेलुं सूत्र
हिंदीभाषी वयोवृद्ध सज्जनो कहे छे के सरकारी निशाळोमां अमने सौथी पहेलांं
ओनामासीधं’ एम शीखवातुं हतुं; पण तेनो अर्थ शुं हतो–ते अमे जराय समजता न
हता.
ओनामासीधं’ ए अशुद्ध उच्चार वडे संस्कृतनुं बगडेलुं रूप छे; तेनी मूळ शुद्ध
भाषा आ प्रमाणे छे– ‘ओ नमः सिद्धंअने ते कातंत्र–व्याकरणनुं सौथी पहेलुं सूत्र छे.
पूर्वे ते व्याकरण शीखवता, तेथी स्वाभाविकपणे ज सौथी पहेलांं ‘“ नम: सिद्धं’ एम
गोखावता. (सन्मतिसंदेशना आधारे)
आपणा गुजरातमां पण ८० वर्ष पहेलांंना स्मरणो याद करतां गुरुदेव घणी
वार कहे छे के धूळी–निशाळमां अमने सौथी पहेलांं ‘सिद्धो वर्णं समाम्नाय:’ एम
गोखावता; पण ते वखते तेनो कोई अर्थ समजातो न हतो. पाछळथी मोक्षमार्ग
प्रकाशक वांचतां तेमां ए शब्द आव्या, त्यारे तेनो अर्थ समजायो के ‘सिद्धो वर्णं
समाम्नाय’ एटले वर्ण–अक्षरोनी आम्नाय अनादिथी सिद्ध छे.–आ बंने द्रष्टांतथी
ख्याल आवशे के आपणा देशनी प्राचीन शिक्षणपद्धति केटली सरस संस्कारी हती!
बंधुओ, आपणा बाळकोने एवा ज उत्तम संस्कारो आपवानो जमानो फरीने अत्यारे
आवी गयो छे. वीरनाथना मोक्षगमनना आ रप०० मा वर्षमां सौ जागीए ने
बाळकोने पहेलेथी वीरशासनना उत्तम संस्कार आपीए.
रु नियमसार (गुजराती) मूळशास्त्र छपाईने तैयार थवा आव्युं छे.
रु सम्यक्त्व–कथा (आठ अंगनुं स्वरूप, आठ अंगनी कथा तथा आठ अंगना
आठ चित्रो सहित प्रगट थयेल छे. किंमत रूा. १–००)
रु बे सखी (अंजनाचरित्र) पुन: प्रगट थयेल छे. (किंमत ०–प०)
रु आत्मधर्म दिवसे–दिवसे विकसी रह्युं छे. कागळ वगेरेनी सख्त मुश्केली वच्चे
पण मात्र चार रूपिया लवाजममां अपाय छे. आपना घरमां धर्मना उत्तम
संस्कारनी रेलमछेल करवा आत्मधर्म मंगावो; स्नेही–मित्रोने पण मोकलो.
लखो–आत्मधर्म कार्यालय, सोनगढ (३६४रप०)

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : २५ :
सिंह करतांय शूरवीर मुमुक्षु –
वीर सर्वदमन शूरवीर मुमुक्षु
सिंहणनुं मोढुं फाडीने तेम कर्मरूपी सिंहनुं मोढुं फाडीने
तेना दांत गणे छे... निज आत्माने देखे छे.
‘सर्वदमन’ नी वीरतानी एक वात प्रसिद्ध छे के, ते नानो हतो त्यारे एकवार
सिंहना बच्चांने रमतां–रमतां हाथमां तेड्युं; सिंहण पण सामे ज ऊभी हती, ने आंख
फाडीने जोई रही हती. पण आ सर्वदमनने कोनी बीक? एणे तो निर्भयपणे सिंहणनुं
मोढुं झालीने कह्युं के– ‘उघाड तारुं मोढुं; मारे तारा दांत गणवा छे! ’ जुओ, केटली हिंमत!
तेम अहीं ‘सर्वदमन’ एवो मुमुक्षु आत्मा शूरवीर थईने मोक्षने साधवा जाग्यो,
ते सर्वे कर्मरूपी सिंहनुं दमन करतां चैतन्यनी वीरताथी कहे छे के–खूली जा कर्म; मारे
मारो परमात्मा देखवो छे! मारा परमात्मामां तारो अभाव छे. चैतन्यमां वळी कर्म
केवा? आम, कर्मरूपी सिंहनुं मोढुं फाडीने पोते पोताना परमात्माने देखी ल्ये छे.
–आत्माने साधवा नीकळ्‌या ए ते कांई कर्मथी डरता हशे? ए तो पोतानी
प्रभुत्वशक्तिवडे कर्मने तोडीने परमात्मा थाय छे.
(प्रभुत्वशक्तिना प्रवचनमांथी)

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: २६ : आत्मधर्म : पोष : रप००
गतांकमां विचारवाना चार प्रश्नो लखेल, तेनो जवाब –
(१) आपणा गुजरात–सौराष्ट्रमां चार सिद्धक्षेत्रो आवेला छे– गीरनार, शत्रुंजय,
पावागढ अने तारंगा. गीरनार–तीर्थमां भगवान नेमिनाथना दीक्षा कल्याणक,
ज्ञानकल्याणक अने मोक्षकल्याणक थया छे तथा श्रीकृष्णना पुत्रो वगेरे ७र
करोडने सातसो मुनिओ सिद्धपद पाम्या छे. शत्रुंजयतीर्थमां त्रण पांडवो वगेरे
आठ करोड मुनिवरो सिद्धपद पाम्या छे. पावागढतीर्थमां रामकुमारो लव–कुश,
लाटदेशना राजा अने पांच करोड मुनिवरो सिद्धपद पाम्या छे; तथा
तारंगातीर्थमां वरदत्त–सागरदत्त वगेरे साडात्रण करोड मुनिवरो सिद्धपद पाम्या
छे. ते सर्वे सिद्धभगवंतोने अने सिद्धिधामने नमस्कार हो.
(र) सिद्धभगवान संपूर्ण सुखी छे, तेमने जराय दुःख नथी. तेओ देवगतिमां,
मनुष्यगतिमां के संसारनी कोई गतिमां नथी, मोक्षगतिमां छे. अरिहंत
भगवंतोय जोके संपूर्ण सुखी छे, परंतु तेओ हजी मनुष्यगतिमां छे.
सिद्धभगवंतो चारे गतिथी पार छे.
(३) पंचपरमेष्ठी भगवंतोमां अरिहंत अने सिद्ध भगवंतो सर्वज्ञ छे; आचार्य–
उपाध्याय–साधु हजी सर्वज्ञ नथी पण रत्नत्रय वडे सर्वज्ञपदने साधी रह्या छे.
(४) पांचपरमेष्ठी भगवंतोमांथी सिद्धभगवंतो पंचमगतिमां एटले के मोक्षगतिमां
बिराजे छे. बाकीनां चारे परमेष्ठी मनुष्यगतिमां होय छे. ए सिवायनी
त्रणगतिमां पंचपरमेष्ठीपद होतुं नथी; सम्यग्दर्शन अने आत्मज्ञान होई शके छे.
“महावीर भगवान” संबंधमां जे भाई –
बहेनोए लेख लखी मोकल्या छे ते सौने धन्यवाद!
हजी पण जेमने लेख लखवा ईच्छा होय तेमने
जान्युआरी मासनी आखर तारीख सुधी तक
आपवामां आवे छे. लेख मोकलनारनां नामो अने
बीजी माहिती आगामी अंकमां आपीशुं. लेख
मोकलनार सौने आ अठवाडियामां पुस्तक मळशे.

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : २७ :
आ अंकमांथी शोधी काढवाना दश वाक््यो:–
(स्वाध्याय–प्रचारनी आ योजनामां त्रणसो–चारसो भाई–बहेनो होंशथी भाग
लई रह्या छे, ते सौने धन्यवाद.)
१. वाह जिनवाणीनी अद्भुत शोभा! ते जिनवाणी...
र. परमागम–मंदिरमां पण आ शक्तिना वर्णननो भाग ‘सोनेरी’ ...
३. परथी जीवे एवो पराधीन आत्मा नथी; आत्मा तो...
४. स्वसंवेदनवडे आत्मप्रभु...
प. वीरनाथना मोक्षगमनना आ रप००मा वर्षमां सौ जागीए, ने बाळकोने...
६. शब्दोथी लखवामां अनंत शक्तिओ न आवी शके, अंतरना वेदनमां...
७. आवुं जैनशासन समजीने महावीरप्रभुना...
८. स्वरूप–जीवन भगवानना अनेकान्तमार्गथी प्राप्त थयुं छे. –ए ज...
९. महावीरने ओळखवाथी आत्मा चैतन्यस्वरूपे ओळखाय छे; एटले.....
१०. दशमा बोल तरीके तमारे आ अंकमां जे जे तीर्थंकर भगवंतोना नाम
आव्या होय ते शोधवाना छे.
–संपादक आत्मधर्म, सोनगढ (३६४रप०)
* * * * *
अढी हजार वर्ष पहेलांं आ भरतक्षेत्रमां
साक्षात् तीर्थंकरपणे भगवान महावीरे जे
आत्महितकारी ईष्ट–मिष्ट उपदेश आप्यो ते आजेय
आपणा उपर उपकार करी रह्यो छे. आवा महावीर
भगवानना उपकारनी अंजलिरूपे योजायेल निबंध
योजनामां अनेक भाई–बेनोए उत्साहथी भाग
लीधो छे; ते सौने धन्यवाद!

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: २८ : आत्मधर्म : पोष : रप००
स...मा...चा...र– (अनुसंधान टाईटल पानुं २)
× उत्सव वखते ज्यारे आप सोनगढ पधारो त्यारे, टोर्च–बेटरी, लोटो–ग्लास,
पाणीनी डोल अने पागरण साथे लावशो–जेथी आपने सुविधा रहेशे. जोखमी
दागीना जेम बने तेम न लावशो, केमके ते वखते सोनगढना उत्सवमां
पंचकल्याणकनी शोभा ज एवी अद्भुत हशे के बीजी शोभानी कोई जरूर ज
नहि रहे.
× कंकोतरी मोकलवा माटे आपना गामना मुमुक्षुमंडळनुं जिनमंदिरनुं तेमज
प्रमुखश्रीनुं सरनामुं लखी मोकलशो. –जेथी कोई बाकी न रही जाय.
× आ महान उत्सव दरमियान जैनधर्मना प्रचार अने प्रभावना संबंधी आपना
सुझाव विचार अने योजनाओ नीचेना सरनामे तुरतमां लखी मोकलवा
निमंत्रण छे: ब्र. हरिलाल जैन, प्रचारविभाग, सोनगढ : (३६४रप०)
× परमागम–मंदिरनी दिवालोमां, आरसमां कोतरेला पचास जेटला वैराग्यप्रेरक
चित्रो लगाडवाना छे;– जाणे के तीर्थंकरोना जीवनने ज नजरे नीहाळता
होईए–एवुं वातावरण ए चित्रो द्वारा खडुं थशे. ते चित्रोनुं आलेखन कार्य
पूरुं थयुं छे, ने आरसमां कोतरवानुं काम चाली रह्युं छे.
× उत्सव वखते हजारो हिंदीभाषी साधर्मीओ आवशे, एटले तेमनी सुविधा माटे
गुरुदेवना प्रवचनो हिंदीभाषामां थशे. उत्सव बाद केटलाक दिवसो गुरुदेव
सोनगढमां ज बिराजशे. गढडा शहेरमां वेदी–प्रतिष्ठानुं मूरत फागणमासमां
राखेल नथी; एटले गुरुदेवना विहारनो कार्यक्रम हजी निश्चित थयो नथी. नक्की
थये जणाववामां आवशे.
एक खास सूचना–
प्रतिष्ठा महोत्सव अंगे मालसामाननी खरीदी शरू थई गई छे. तो आ अंगे जे
मुमुक्षु भाई–बहेनोए लोन लखावी होय ते रकमनो “श्री परमागम मंदिर प्रतिष्ठा
महोत्सव समिति” ए नामनो बेन्क ओफ ईन्डीया–सोनगढनो, अगर भावनगरनी
गमे ते बेन्क उपरनो, ड्राफट के रोकडा तुरत ज मोकलवा विनंती छे.
सोनगढ–ओफिस
लि. नवनीतलाल सी. जवेरी
T. F. No. 34 प्रमुखश्री–श्री प्रतिष्ठा–महोत्सव समिति
तारनुं सरनामुं C/o. श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
PARMAGAM. SONGAD सोनगढ सौराष्ट्र (३६४रप०)

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : २९ :
जैन केवो होय?
जैनना साचा पंडित मात्र शास्त्रभणतर वडे थई शकातुं
नथी, पण भावश्रुतथी स्व–परनी भिन्नतानो विवेक करीने
आत्माने जे जाणे ते साचो जैन–पंडित छे. एटले जैनधर्मना साचा
पंडित के श्रावक थवा माटे आ ज पहेलुं कर्तव्य छे के देहादिथी भिन्न
पोताना आत्माने जाणीने अनुभववो.
(अष्टप्रवचनमांथी.)
* अनंतगुणगंभीर सम्यक्त्वनी अद्भुतदशा! *
सम्यग्द्रष्टि जीव आत्माना शुद्धस्वरूपनो प्रकाशक छे, जीवादि नवे तत्त्वोनुं स्वरूप
जेम छे तेम ते जाणे छे. जीवादि तत्त्वोना साचा स्वरूपने जे न जाणे ते शुद्धताने क्यांथी
साधी शकशे? धर्मीजीव जीवादितत्त्वना स्वरूपने बराबर जाणीने तेमांथी पोताना शुद्ध
चैतन्यतत्त्वने बीजाथी भिन्न अनुभवे छे; ए रीते सम्यग्द्रष्टि जीव शुद्धतत्त्वनो प्रकाशक
छे, ते ज खरो पंडित छे; तेने आत्मविद्या आवडे छे तेथी ते ज खरो विद्वान छे. तेना
सम्यक्त्व–परिणाम शुद्ध छे; व्यवहारना शुभरागपरिणाम ते कांई शुद्ध नथी, ते तो
अशुद्ध छे. सम्यक्त्वपरिणाम तो राग वगरना शुद्ध छे, अने मिथ्यात्वनो तेमां अभाव
छे.
वळी ते सम्यग्द्रष्टिजीव साचा देव–गुरु–शास्त्रनो भक्त छे, तेमनी पूजा–भक्ति–
बहुमानमां तत्पर छे; अने तेमणे कहेला सम्यक्धर्मने ते आचरे छे. मिथ्याभावथी मुक्त
थईने ते सम्यक्त्वने अनुभवे छे, सम्यक्त्वादिरूपे परिणमेला शुद्ध आत्माने ते वेदे छे.
जुओ, संतोए सम्यग्द्रष्टिजीवनी अंतरंगदशानुं केवुं सरस वर्णन कर्युं छे!
चिदानंदस्वभावनी सन्मुख थयेला सम्यग्द्रष्टिने रागादि दुःखभावो प्रत्ये सहेजे
उदासीनभाव होय छे, एटले तेना परिणाम संसारथी विमुख वर्ते छे. भले गृहवासमां
होय तोपण खरेखर ते संसारथी विमुख छे. अनंतगुणगर्भित श्रद्धानुं बळ ज कोई एवुं
छे के आत्माने परभावोथी पृथक् ज देखे छे.

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: ३० : आत्मधर्म : पोष : रप००
सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टिना परिणाममां मोटुं अंतर छे. सम्यग्द्रष्टिना
परिणाम शुद्ध छे, ते संसारथी विमुख छे अने स्वभावनी सन्मुख छे; त्यारे
मिथ्याद्रष्टिना परिणाम अशुद्ध छे, ते स्वभावथी विमुख छे ने संसारनी सन्मुख छे.
जेने शुभरागनी पण रुचि छे तेना परिणाम संसारनी सन्मुख छे, मोक्षसन्मुख तेना
परिणाम नथी.
* जैनधर्मनुं मूळ: द्रव्य–गुण–पर्यायनुं ज्ञान *
धर्मीने सातप्रकृतिना क्षयादिथी जे शुद्ध सम्यक्त्व प्रगट्युं ते कांई त्रिकाळीगुण
नथी पण गुणनुं शुद्ध परिणमन छे एटले के शुद्ध परिणाम छे–पर्याय छे. सिद्धप्रभुना
आठ प्रधान गुणोमां ‘सम्यक्त्व–गुण’ कहेल छे त्यां ‘गुण’ एटले गुणनी शुद्धपर्याय,
दोष वगरनी पर्याय’ एवो तेनो अर्थ छे. सामान्यगुण नवो न प्रगटे, पण तेनी
शुद्धपर्याय नवी प्रगटे. श्रद्धागुण तो बधा जीवोमां त्रिकाळ छे, तेनुं शुद्ध परिणमन थतां
सम्यग्दर्शनादि शुद्धपर्याय प्रगटे छे, ते कोई विरल जीवोने ज थाय छे. आ रीते द्रव्य–
गुण–पर्यायने जेम छे तेम बराबर जाणवा जोईए. वस्तुना द्रव्य–गुण–पर्यायनुं ज्ञान ते
तो जैनधर्मनुं मूळ छे; ने ते सम्यक्त्वादिनुं कारण छे.
जगतमां अनंतानंत (अक्षय–अनंत) जीवो छे. दरेक जीव स्वतंत्र, कोईना
बनाव्या वगरनो स्वतःसिद्ध छे; एकेक जीवमां पोताना अनंत गुणो; ने त्रणेकाळे
गुणनुं स्वतंत्र पर्यायरूप परिणमन.–आवा द्रव्य–गुण–पर्यायनुं यथार्थ स्वरूप धर्मी जीव
बराबर जाणे छे. भगवान जिनेश्वरना मतमां ज तेनुं यथार्थ प्रतिपादन छे, अने
जिनेश्वरना नंदन एवा सम्यग्द्रष्टि ज तेने बराबर जाणे छे. माटे कह्युं के सम्यग्द्रष्टि
जीव देव–गुरु–शास्त्रनो साचो भक्त छे अने तेमना कहेला धर्मने ते सम्यक्पणे आचरे
छे.
* वाह रे वाह, मुनिदशा! सम्यग्द्रष्टि तेनो भक्त छे. *
सम्यग्दर्शन उपरांत ज्यारे अंतरमां आत्मस्वरूपमां घणी लीनता थाय त्यारे
मुनिदशा होय छे. सम्यग्द्रष्टिने आवी मुनिदशानी निरंतर भावना होय छे. अहो,
मुनिदशानी शी वात! एमनी शुद्धता ने एमनुं सुख तो सर्वार्थसिद्धिना देव करतांय
विशेष छे. ए तो परमेष्ठी पद छे, अरिहंतो अने सिद्धोनी साथे नमस्कारमंत्रमां एमनुं
नाम आवे छे; सम्यग्द्रष्टि जीवो पण दासानुदासपणे परम भक्तिथी एमना चरणोमां
मस्तक झुकावे छे. वाह, ए मुनिदशा! अरे, सम्यग्दर्शन पण अपूर्व दशा

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ३१ :
छे त्यां मुनिदशानी तो शी वात! मुनिवरो तो आत्माना महा आनंदना झुले झूली रह्या
छे. अहो! ए तो संत–परमेश्वर छे, परम गुरु छे, मोक्षना उग्रपणे साधक छे,
सिद्धपदना पाडोशी छे. सम्यग्द्रष्टि जीव आवा मुनिनो भक्त होय छे; ने ते
सम्यग्द्रष्टिनी दशा पण अलौकिक होय छे.
धर्मीने अशुभ–भोग वखते कांई ते भोगथी निर्जरा नथी,
सम्यक्त्वथी निर्जरा छे; भोगो तो बंधनां ज कारण छे.
सम्यग्दर्शन ते आत्माना शुद्धपरिणाम छे, तेना वडे ते शुद्धतत्त्वने प्रकाशे छे,
शुद्धात्मानुं स्वसंवेदन करे छे. पर्यायमां हजी अमुक अशुद्धता वर्तती होवा छतां
भेदज्ञानशक्तिना बळे ते पोताना आत्माने शुद्धपणे प्रकाशे छे, एटले भोगादिमां तो
तेने स्वप्नेय सुख भासतुं नथी.
भोगना अशुभपरिणाम वखतेय सम्यग्द्रष्टिने निर्जरा चालु छे, केमके ते
वखतेय तेना अंतरमां शुद्धतत्त्वना श्रद्धा–ज्ञानरूप शुद्धपरिणामनी धारा वर्ती रही छे,
अने ते तो निर्जरानुं ज कारण छे, तेथी तेने निर्जरा चालु छे–एम समजवुं. पण
विषयोनो अशुभराग पोते कांई निर्जरानुं कारण नथी, ते तो बंधनुं ज कारण छे;
सम्यग्द्रष्टिने पण जेटलो राग छे ते तो बंधनुं कारण छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने
भूमिकामुजब शुद्ध तेमज अशुद्ध भावो एकसाथे वर्ते छे, पण बंनेनुं कार्य जुदुं छे. तेमां
शुद्धभाव तो निर्जरानुं कारण छे एटले तेनी प्रधानता गणीने धर्मीने निर्जरा कहेवामां
आवी छे, ते यथार्थ छे.
* हे जीव! कुमार्गसेवनथी तें घणां दुःख सहन कर्यां, हवे तेने छोड; *
ने भक्तिथी जैनमार्गने ओळखीने तेनुं सेवन कर.
अरे जीव! जिनमार्गथी विरुद्ध कुदेवादिने मानीने मिथ्यात्वना सेवनथी
संसारमां नरकादिना घोर दुःखो तें भोगव्या. माटे हे भाई! हवे कुमार्गनुं सेवन तुं
छोड, ने शुद्ध सम्यक्त्वादिमां रत था. कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रना सेवनथी तो तुं नरकादिना
घोरदुःखने पामीश. रागना वधारनारा एवा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने सेवनार जीव
मोक्षने माटे अपात्र छे, ने ते नरकादिमां पडे छे; कदाच शुभरागथी स्वर्गमां जाय तो
त्यां पण मिथ्यात्वथी ते दुःखी ज छे, ते मिथ्यासेवनथी ते स्वर्गमांथी नीकळीने निगोद
वगेरेमां जशे;–एनां दुःखनी शी वात? दया करीने संतो कहे छे के हे भव्य! आवा
दुःखोथी छूटवा माटे तुं शुद्ध द्रष्टि वडे मिथ्यात्वने छोड, कुदेवादिना

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: ३२ : आत्मधर्म : पोष : रप००
सेवनने छोड; अने भक्तिथी जैनमार्गने ओळखीने तेनुं सेवन कर.–तारुं महान कल्याण
थशे.
* जैन–साधु केवा होय? *
रत्नत्रयसंयुक्त जे साधु शुद्धभाववडे आत्माने ध्यावे छे ते साधु अबद्ध छे,
तेओ कर्मथी बंधाता नथी पण अल्पकाळे मुक्ति पामे छे. ते मुनिनुं चारित्र आत्मारूप
छे. शुभराग ते कांई खरूं चारित्र नथी, अर्थात् ते आत्मारूप नथी. आत्मामां एकाग्र
थईने आत्मारूप थयेलुं चारित्र ते खरूं चारित्र छे. एवा चारित्र वडे जे मोक्षने साधे छे
ते साधु छे.
ते साधु भगवंतो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र सहित शुद्ध संयमी छे, जिन–रूप
धारण करनारा छे, अने शुद्धआत्माना अनुभवरूप अर्थने साधनारा छे. ते महात्मा,
त्रणलोकने जाणनारा एवा शुद्धआत्माने ध्यावे छे–ए ज तेमनुं महाव्रत छे.
धर्मध्यानसंयुक्त एवा ते साधु शुद्धधर्मने प्रकाशे छे. सर्वज्ञजिनदेवे जे तत्त्वो कह्यां छे
तेनुं ज तेओ प्रकाशन करे छे.
अहो, सर्वज्ञदेवे आत्मानो शुद्ध धर्म प्रकाश्यो छे, अने मोक्षने साधनारा साधुओ
पण सर्वज्ञदेवना वचनअनुसार ज शुद्धआत्माने प्रकाशे छे. आ रीते राग वगरना
शुद्धआत्माने प्रकाशनारा एवा वीतरागमार्गने, तथा एवा जैनसाधुने ज धर्मी जीव
श्रद्धे छे; एनाथी विरुद्ध मार्गने ते कदी मानतो नथी. अहो, आवा वीतरागमार्गी
जैनसाधुओ शुद्धभाव वडे पोताना आत्माने तो भवसमुद्रथी तारे छे, तेम ज
शुद्धमार्गना उपदेश वडे जगतना भव्य जीवोने पण तेओ तारनारा छे. आ रीते
जैनसाधुओ ज तरण–तारण छे; तेओ जहाजसमान छे. जहाज पोते तरे छे ने तेमां
बेसनारने पण तारे छे, तेम जैनसाधुओ पोते रत्नत्रयवडे तरे छे ने तेमना उपदेशेला
रत्नत्रयमार्गने अनुसरनारा जीवोने पण तारे छे.
–आवा तरण–तारणहार साधु भगवंतोने नमस्कार हो.
* खरो पंडित कोण छे? *
शास्त्र भणे ते पंडित, ने न आवडे ते मूर्ख–एम नथी; पण
आत्माने जाणे ते पंडित, ने न जाणे ते मूर्ख–एम ज्ञानी कहे छे.
परम औदारिक शरीरमध्ये जेओ केवळज्ञानादि गुणोसहित बिराजे छे एवा

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ३३ :
अरिहंत–परमेष्ठी ते देव छे; तेमने जे ओळखे छे, तथा तेमना जेवो ज हुं पण आ
शरीरनी मध्ये केवळज्ञानादि स्वभावसहित छुं–एम जे जाणे छे एवा सम्यग्ज्ञानी ते ज
खरा पंडित छे.
ए ज प्रमाणे, अष्टकर्मथी विमुक्त, मुक्तिस्थाने (सिद्धालयमां) बिराजमान
जेवा सिद्धभगवंतो छे, तेमना जेवो ज मारो आत्मा आ शरीरमध्ये बिराजी रह्यो छे–
एम शुद्धद्रष्टिथी जे अनुभवे छे ते ज खरो पंडित छे.
जेवा जीवो छे सिद्धिगत, तेवा जीवो संसारी छे;
जेथी जन्म–मरणादि हीन, ने अष्टगुणसंयुक्त छे. (नियमसार गा. ४७)
–आवा निज आत्माने अंर्तबुद्धिथी जे जाणे छे ते ज साचो विद्वान अने पंडित
छे. आत्माने जाण्या वगर एकला शास्त्रना शब्दोनुं भणतर होय एने कांई साचा
पंडित कहेता नथी. जे चैतन्य–विद्यामां प्रवीण होय तेने ज मोक्षना मार्गमां साचा
विद्वान कहेवाय छे. अरे, जे भणतर भवथी तरवामां काम न आवे एवा भणतरने ते
पंडिताई कोण कहे? भाई, तें शास्त्रो जाण्या ने लोकोए तने पंडित मान्यो, पण जो
तारा आत्माने तें न जाण्यो तो तारुं शुं हित थयुं? तारी पंडिताई तने शुं काम आवी?
आत्माने जाण्या वगर परमार्थमार्गमां तो तुं मूर्ख ज रह्यो.–योगसारमां कहे छे के–
शास्त्रपाठी पण मूर्ख छे, जे निजतत्त्व अजाण,
ते कारण ए जीव खरे पामे नहि निर्वाण. (प३)
परमात्माने जाणीने त्याग करे परभाव,
ते आत्मा पंडित खरो, प्रगट लहे भवपार. (८)
वळी योगसारमां ज कहे छे के–
जे जाणे शुद्धात्मने अशुची देहथी भिन्न,
ते ज्ञाता सौ शास्त्रनो शाश्वत–सुखमां लीन. (९प)
अने एनाथी उल्टुं–
निज–पररूपथी अज्ञजन जे न तजे परभाव,
जाणे कदी सौ शास्त्र पण थाय न शिवपुर राव. (९६)
भले कदाच शास्त्र भणतर न भण्यो होय, संस्कृत वांचतां के भाषण करतां

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: ३४ : आत्मधर्म : पोष : रप००
आवडतुं न होय, पण जेने आत्मानुं स्वरूप जाणीने तेनो अनुभव करतां आवडयुं ते
परमार्थमार्गमां पंडित छे, बारे अंगनो सार तेणे जाणी लीधो छे. अने जे स्व–परनी
भिन्नता जाणतो नथी, परभावथी भिन्न शुद्धात्माने पोतामां अनुभवतो नथी, ते
अज्ञानी भले कदाच घणां शास्त्रो भणे तोपण ते मोक्षसुखने जरापण पामतो नथी. आ
रीते जे शुद्धात्माने जाणे छे ते ज खरो शूरवीर ने पंडित छे. श्री कुंदकुंदस्वामी पण कहे छे
के–
ते धन्य छे कृतकृत्य छे शूरवीर ने पंडित छे,
सम्यक्त्व–सिद्धिकर अहो, स्वप्नेय नहि दूषित छे. (मोक्षप्राभृत गा. ८९)
एकला शास्त्रभणतरथी धर्ममां पंडितपणुं कहेता नथी. शुद्धनयअनुसार साचा
तत्त्वने जाणीने सर्वज्ञवचनअनुसार पंडितो तेनुं कथन करे छे. परंतु आत्माना मूळभूत
सत्य स्वरूपने तो जेओ जाणता नथी ने शास्त्रना जाणपणामां ज संतुष्ट थईने बेठा छे
एवा पंडितने माटे तो कहे छे के–
पंडिय पंडिय पंडिय कण छंडिय वि तुस खंडिया
पय अत्थं तुठ्ठोसि परमत्थ ण जाणई मूढोसि।।
(मोक्षमार्गप्रकाशकमां पाहुडदोहानी गा. ८प)
हे पंडित! हे पंडित! हे पंडित! जो तुं परमार्थ तत्त्वने नथी जाणतो ने शब्दना
अर्थमां ज संतुष्ट छो तो, कणने छोडीने फोतरां खांडनारनी जेम तुं मूर्ख छो. अहो, बधी
विद्याओमां आत्माने जाणनारी विद्या ते ज सौथी श्रेष्ठ विद्या छे. आवी अध्यात्मविद्या
ए तो भारतदेशनी मूळ वस्तु छे, तेने लोको भूली गया छे; अत्यारे तेनो ज प्रचार
करवा जेवुं छे.
धर्मी जाणे छे के अहो, परमात्मपणुं मारा आत्मामां भर्युं छे; आ शरीरादि हुं
नहीं. आ रीते जेणे देह अने आत्मानी भिन्नतानो विवेक कर्यो अने अंतर्मुख थईने
ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्मानो अनुभव कर्यो ते खरो पंडित छे, ते मोक्षनो साधक छे,
पंचपरमेष्ठीपदने ते पोतामां देखे छे. –
आत्मा ते अरिहंत छे, सिद्ध निश्चये ए ज;
आचारज उवझाय ने साधु निश्चये ते ज. (१०४)
ते सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा जाणे छे के मारा आत्मामां परमात्मस्वभाव छे, एटले
शुद्धद्रष्टिथी हुं परमात्मा ज छुं.–आ प्रमाणे पोताना स्वभावने परमात्मस्वरूपे

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ३५ :
चिंतवतां ध्यानमां अमने कोई अपूर्व आनंद अनुभवाय छे; माटे ते ध्यान सत् छे, तेनुं
आ फळ छे. जो ते ध्यान जूठुं होय तो तेना फळमां आनंद केम आवे? पर्यायमां हजी
पूरुं परमात्मपणुं प्रगट्युं न होवा छतां, शक्तिमां रहेला परमात्मस्वरूपमां पर्यायने
लीन करीने परमात्मस्वरूपे ज पोते पोताने ध्यावतां धर्मीने निर्विकल्प अनुभवनो
परम अद्भुत आनंद थाय छे; माटे परमात्मस्वरूपे पोताने चिंतववो ते सत् छे.–
जे परमात्मा ते ज हुं, जे हुं ते परमात्म;
एम जाणी हे योगीजन! करो न कांई विकल्प. (रर)
ध्यानवडे अभ्यंतरे देखे जे अशरीर,
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननी क्षीर. (६०)
देहनो संयोग अने पर्यायमां रागादिभावो होवा छतां, तेटलो ज पोताने न
मानतां, देहथी भिन्न ने रागथी पार एवो अतीन्द्रिय ज्ञानानंदस्वभाव पण पोतामां सत्
छे–ते रूपे पोताना आत्माने श्रद्धा–ज्ञान–चिंतनमां लेवो ते अरिहंत परमात्मानुं अभेद–
ध्यान छे, तेमां साधकने आत्माना आनंदनो अनुभव थाय छे, ने पर्यायमां शुद्धता थाय
छे. एवो जीव स्व–परनो खरो विवेकी पंडित छे. बाकी शास्त्र भणी–भणीने पंडित
कहेवडावे–पण जे एम माने के रागनी क्रिया अथवा शरीरनी क्रिया मोक्षनुं कारण थशे,
–तो ते पंडित मात्र फोतरां–खंडित छे, एटले के ते खरेखर पंडित नथी पण मूरख छे. हे
भाई! शास्त्रोए बतावेली मूळवस्तु तो तारा अंतरमां छे,–जे देहथी पार छे, रागथी
पार छे, ईंद्रियज्ञानथीये पार छे, एवी चैतन्यभावमय वस्तुने अंर्तद्रष्टिथी तुं जाण–
जैनधर्मना साचा पंडित के श्रावक थवा माटे आ ज पहेलुं कर्तव्य छे.
–जय महावीर
* * * * *
वैराग्य–समाचार:–
* ईंदोरना वयोवृद्ध पंडित श्री बंसीधरजी न्यायालंकार (उ. व. ८३) ता. ७–१र–७३
ना रोज स्वर्गवास पाम्या छे. तेओनो शास्त्राभ्यास घणो विशाळ हतो, मोटा
भागना संस्कृत श्लोको तेमने मोढे हता. तेओ श्री गणेशप्रसादजी वर्णीजीनी
हरोळना, प्राचीन पेढीना एक पंडित हता, ने हालना पंडितोमांथी सेंकडो पंडितोना
विद्यागुरु हता. अवारनवार सोनगढ आवीने तेओ गदगदित थई जता;

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: ३६ : आत्मधर्म : पोष : रप००
सम्मेदशिखरजी–मुंबई वगेरेमां हार्दिक उदगारोवडे तेमणे गुरुदेव प्रत्ये श्रद्धांजलि
आपतां कहेलुं के अनंत तीर्थंकरोए जे मार्ग प्रकाश्यो ते ज मार्ग आपश्री देखाडी
रह्या छो. जयपुरमां विद्वानो वच्चे थयेली महत्त्वनी तत्त्वचर्चा वखते तेमणे
मध्यस्थी तरीकेनी सुयोग्य कामगीरी संभाळी हती. श्रीमान हुकमीचंदजी शेठना
तेओ एक मानीता विद्वान हता, अने छेल्ला अनेक वर्षोथी उदासीन जीवन
गाळता हता. जैनधर्मना संस्कारथी रंगायेलो तेमनो आत्मा, जैनधर्मना
साररूप आत्मअनुभूति पामो–एवी भावना भावीए छीए.
* वढवाण शहेरना वयोवृद्ध आगेवान भाईश्री तलकशी माणेकचंद दोशी (उ. वर्ष
लगभग ९०) ता. १४–१र–७३ ना रोज वढवाण मुकामे स्वर्गवास पाम्या छे.
तेओ वढवाण दि. जैन संघना प्रमुख हता, अने घणा वर्षोथी पू. गुरुदेवना
सत्संगमां आव्या हता. वढवाण शहेरमां वर्धमान भगवाननुं नवुं भव्य
जिनमंदिर बंधाववामां तेमना सुपुत्रोने सारो उत्साह छे.
* राणपुरना श्री पांचुबहेन (तेओ संस्थाना भूतपूर्व ट्रस्टी श्री प्रेमचंदभाई
शेठना काकी) सोनगढ मुकामे मागशर वद १३ ना रोज स्वर्गवास पाम्या छे.
वृद्धावस्थानी अनेक हाडमारी वच्चे पण अनेक वर्षोथी सोनगढ रहीने तेओ
सत्संगनो लाभ लेता हता. स्वर्गवासना दिवसे सवारे पण तेओ जिनमंदिरे
तथा प्रवचनमां आव्या हता.
* धांगध्राना भाईश्री छोटालाल डामरदास (तेओ ब्र. कंचनबेन वगेरेना पिताजी
उ. व. ७८) सोनगढ मुकामे मागशर वद अमासना रोज स्वर्गवास पाम्या छे.
तेमनी चारे पुत्रीओ बालब्रह्मचारी छे ने अनेक वर्षोथी सोनगढ रहीने
सत्संगनो लाभ ल्ये छे. स्व. छोटाभाई पण घणा वर्षोथी सोनगढ रहेता हता,
ने चालवानी तकलीफ छतां पूजन–प्रवचनादिनो नियमित लाभ लेता हता;
छेल्ला दिवस सुधी तेओ प्रवचनमां आव्या हता. स्वाध्यायनो पण तेमने रस
हतो, थोडा दिवस पहेलांं ज तेमणे कहेलुं के मारे तो जीवतां ज जमण करता जवुं
छे. ते अनुसार तेमणे जीवतां ज (पोष वद तेरसे परमागम उत्सवनी कंकोतरी
लखाय त्यारे) संघनुं जमण करवानुं जाहेर कर्युं हतुं.
–स्वर्गस्थ आत्माओ वीतराग–देव–गुरु–धर्मना आश्रये आत्महित पामो.

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बनावुं पत्र कुंदननां, रत्नोनां अक्षरो लखी,
तथापि कुंदसूत्रोना अंकाये मूल्य ना कदी.
सुरुचिभाव–पत्रोमां स्वानुभवनी शाहीथी,
करुं आ कुंदसूत्रोनां अहो! मूल्य सुज्ञानथी.