Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : भाद्रपद र४९९ :
रागथी आत्माना गुणनी प्राप्ति मानवी के रागने मोक्षनुं कारण मानवुं ते
तो रत्नत्रयमार्गनी विराधना छे; रागथी धर्म माननार जीवने
साची रत्नत्रयभक्ति होय नहि एटले के तेने रत्नत्रयनी आराधना
होय नहीं.
(१०)
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप अंतर्मुख भाववडे मोक्षनी आराधना ए ज
मोक्षनी भक्ति छे. श्रेणीकराजा पण क्षायिकसम्यक्त्व वडे आवी मोक्षभक्ति
करता हता. श्रावकने पण अंशे रत्नत्रयनी आराधना होय छे, एटले तेने
निर्वाणनी भक्ति छे, तेथी ते भक्त छे–भक्त छे.
(११)
वीतरागपुरुषोनी परमार्थभक्ति ए छे के, जे कारणपरमात्माने शुद्धरत्नत्रयवडे
आराधीने तेओ सिद्ध थया, ते कारणपरमात्मानी सन्मुख थईने पोते तेनी
आराधना करवी. आवी आराधना–भक्ति ते भवभयने हरनारी छे. शुद्ध
सम्यक्त्वादि वडे आवी आराधना करनार जीव भक्त छे... भक्त छे, ते मोक्षनो
साधक
छे... साधक छे. (१२)
शुद्ध रत्नत्रयनी आराधनारूप आ भक्ति धर्मीने निरंतर होय छे. अमुक ज
वखत आवी भक्ति होय छे–एम नथी, परंतु जेटली शुद्धि छे तेटली तो निरंतर
भक्ति छे. –आवी अतुल भक्ति निरंतर कर्तव्य छे.
(१३)
श्रावक हो के श्रमण हो, तेने रत्नत्रयनी जेटली शुद्धि छे तेटलुं तेनुं चित्त तो
पुण्यपापथी मुक्त ज छे. सम्यक्त्वादि शुद्धपरिणतिमां राग–द्वेष केवा? भले
श्रावक हो, पुण्य–पाप थतां होय, पण ते पुण्य–पाप शुद्धपरिणतिथी तो जुदा ज
छे. शुद्धपरिणति तो भवभयनो अंत करनारी छे ने मोक्षने ज साधनारी छे.
माटे आवी परिणतिवाळो जीव सदाय भक्त छे–भक्त छे; तेने सदाय निर्वाणनी
भक्ति एटले के मोक्षनी आराधना वर्ते ज छे.
(१४)
वाह, जुओ आ धर्मी–श्रावकनी दशा! एनी रत्नत्रयपरिणतिमां चैतन्य
परमात्मा सदा समीप छे, अने रागादि भावो तेनी परिणतिथी अत्यंत दूर छे.
अरेरे, अज्ञानीने रागादि पुण्य–पाप नजीक लागे छे ने परमात्मा दूर लागे छे–
एने परमात्मानी भक्ति केवी?
(१प)
परमात्मानो भक्त एटले मोक्षनो साधक धर्मी जीव कहे छे के मारो कारण
परमात्मा मारा रत्नत्रयमां अत्यंत नजीक छे, मारी परिणतिमां ते अभेदपणे