
तो रत्नत्रयमार्गनी विराधना छे; रागथी धर्म माननार जीवने
होय नहीं.
करता हता. श्रावकने पण अंशे रत्नत्रयनी आराधना होय छे, एटले तेने
निर्वाणनी भक्ति छे, तेथी ते भक्त छे–भक्त छे.
आराधीने तेओ सिद्ध थया, ते कारणपरमात्मानी सन्मुख थईने पोते तेनी
आराधना करवी. आवी आराधना–भक्ति ते भवभयने हरनारी छे. शुद्ध
सम्यक्त्वादि वडे आवी आराधना करनार जीव भक्त छे... भक्त छे, ते मोक्षनो
साधक
वखत आवी भक्ति होय छे–एम नथी, परंतु जेटली शुद्धि छे तेटली तो निरंतर
भक्ति छे. –आवी अतुल भक्ति निरंतर कर्तव्य छे.
पुण्यपापथी मुक्त ज छे. सम्यक्त्वादि शुद्धपरिणतिमां राग–द्वेष केवा? भले
श्रावक हो, पुण्य–पाप थतां होय, पण ते पुण्य–पाप शुद्धपरिणतिथी तो जुदा ज
छे. शुद्धपरिणति तो भवभयनो अंत करनारी छे ने मोक्षने ज साधनारी छे.
माटे आवी परिणतिवाळो जीव सदाय भक्त छे–भक्त छे; तेने सदाय निर्वाणनी
भक्ति एटले के मोक्षनी आराधना वर्ते ज छे.
अरेरे, अज्ञानीने रागादि पुण्य–पाप नजीक लागे छे ने परमात्मा दूर लागे छे–
एने परमात्मानी भक्ति केवी?
परमात्मा मारा रत्नत्रयमां अत्यंत नजीक छे, मारी परिणतिमां ते अभेदपणे