Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : भाद्रपद र४९९ :
अमारो कोईपण गुण परद्रव्यना आश्रये होवानुं अमे देखता नथी. स्वाश्रयपणे
ऊपजता सम्यक्त्वादि निर्मळगुणोमां रागादिनी उत्पत्ति छे ज नहि,
स्वाश्रितभावोथी ते बहार ज छे. –आवा भेदज्ञानवडे ज्ञानपणे ज ऊपजतो
जीव रागद्वेषनो सर्वथा क्षय करीने केवळज्ञानज्योति प्रगट करे छे.
* परद्रव्यने पोताना गुण–दोषनुं उत्पादन माननार जीवने कदी राग–द्वेषनो नाश
थतो नथी; ते तो परनो ज आश्रय करतो थको, परथी ज पोताना गुण–दोष
थवानुं मानतो थको अज्ञानभावरूप ज परिणमे छे. भेदज्ञान वगर मोहसमुद्रने
ते पार करी शकतो नथी.
* आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! परद्रव्यने राग–द्वेषनुं उत्पादन तुं जरापण न
मानीश. पोताना ज गुणपर्यायोमां द्रव्य पोते ऊपजे छे; पोतानी पर्यायमां
ऊपजता कोई द्रव्यनी पर्यायने बीजो उपजावे–एवी कोई वस्तुमां योग्यता ज
नथी. सर्वे द्रव्योने स्वभावथी ज पोतानी पर्यायनो उत्पाद थाय छे–एम
वस्तुस्वरूप जोवामां आवे छे. घडारूपे माटी ऊपजे छे, कुंभार नहीं; तेम
सम्यक्त्वादि गुणरूपे के रागादि दोषरूपे आत्मा ऊपजे छे, परद्रव्य नहीं.
* हे भाई! एकवार आवुं स्व–परनुं स्पष्ट भेदज्ञान तो कर. भेदज्ञान करतां ज
तने परद्रव्य उपरना राग–द्वेषनो अभिप्राय छूटी जशे ने वीतरागी ज्ञानदशा
वगेरे गुणो प्रगट थशे. मारा गुणने के दोषने परद्रव्य तो करतुं नथी पछी तेना
उपर राग–द्वेष करवानुं प्रयोजन क्यां रह्युं? गुण प्रगट करवा अने दोषनो क्षय
करवा मारे मारा चैतन्यमय स्वद्रव्यनो ज आश्रय करवानुं रह्युं. –आवुं
वीतरागीस्वाधीन वस्तुस्वरूप सम्यग्द्रष्टि ज जाणे छे. पोतानुं चैतन्यतत्त्व ज ते
सम्यग्द्रष्टिनो विसामो छे; परमां क्यांय विसामो नथी.
* जेने थाक लागे के विसामो शोधे; तेम भवमां भमतां–भमतां थाकेलो जीव,
राग–द्वेषथी छूटीने चैतन्यधाममां विसामो ल्ये छे. पुण्य–पाप तो अनादिथी
कर्यां, पण तेमां क्यांय जीवने विसामो न मळ्‌यो, शांति न मळी; तो तेनाथी जुदी
जातनो एवो तारो चैतन्यस्वभाव, तेमां ऊंडे जईने विसामो ले, तेमां तने
परम शांति मळशे. –पूर्वे कदी नहि करेलुं एवुं अवश्य करवा जेवुं आ अपूर्व
कार्य छे. हे मुमुक्षु! मोक्ष माटे शुद्धोपयोगरूप थईने आ अपूर्व कार्य तुं कर. ते
तारुं आवश्यक छे.