Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं. : ३४ ‘आत्मधर्म’ Regd. No. G. 128
वीतरागी संतोनी मधुरी प्रसादी
१. अहो जिनभगवंतो! आत्मानी आराधना करावनारो आपनो स्व–वश
मार्ग... खरेखर अद्भुत छे, आश्चर्यकारी छे; आपनो आ मार्ग अमने
महा आनंद आपे छे.
र. जेम शीतळ–मीठुं पाणी तरस्याना गळे तुरत ऊतरी जाय छे तेम
चैतन्यस्वादथी भरेली वीतरागी संतोनी मीठी–मधुरी वाणी मुमुक्षुना
अंतरमां तरत ऊतरी जाय छे.
३. शरीर भले भडभड बळतुं होय, ते ज वखते आत्मा पोतानी
वीतरागीशांतिमां ठरी शके छे; –केमके बंने तत्त्व जुदा छे.
४. पंचपरमेष्ठीने साथीदार राखीने जे मोक्षना पंथे चाल्यो ते कदी मार्ग
भूलशे नहि. तेने वच्चे कोई विध्न आवशे नहि.
प. जेम हाथी खाबोचियामां डुबतो नथी तेम सुखनो दरियो. जेणे पोतामां
देख्यो छे एवा ज्ञानी–हस्ती विषयोना मेला खाबोचियामां डुबता नथी.
६. तडको सदा तडको नथी रहतो, तडका पछी थोडा वखतमां छांयो आवे छे;
हे जीव! तुं धैर्यथी काम ले, तारा दुर्दिन थोडा वखतमां वीती जशे.
७. अरे भाई, जगत माटे तें घणुंघणुं कर्युं–ते तो बधुं निष्फळ गयुं! हवे तो
आत्मा मळे, आत्मा रीझे ने पोताने शांति थाय–एवुं कर.
८. त्रण लोकमां बधे फरी फरीने शोधतां छेवटे एक ज वस्तु सुंदर मीठी
लागी... अहो, आ चैतन्यतत्त्व ज सुंदरमां सुदर, ने आनंदना मीठा
स्वादवाळुं छे.
९. अहो, आ चैतन्यतत्त्व अनंतगुणनुं महा मंदिर छे; आ परमात्ममंदिरमां
पंचपरमेष्ठीओ, रत्नत्रय अने जिनागमो ए बधुं बिराजी ज रह्युं छे.
१०. संत कहे छे– हे भाई! तुं आ सुंदर तत्त्वना मधुर स्वादना संस्कार तारा
आत्मामां ऊतारजे, –तेनुं अपूर्व फळ तने अत्यारे ज मळशे.
प्रकाशक: (सौराष्ट्र) प्रत: ३३प०
मुद्रक : मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय : सोनगढ (सौराष्ट्र) : भादरवो (३५९)