Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 15-39 (Chapter 7).

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४६६ ] [ मोक्षशास्त्र

(र) लौकिक सत्य बोलवाना भाव जीवे घणीवार कर्या छे, पण परमार्थ सत्यनुं स्वरूप समज्यो नथी, तेथी जीवनुं भवभ्रमण मटतुं नथी. सम्यग्दर्शन पूर्वकना अभ्यासथी परमार्थ सत्य बोलवानुं थई शके छे, अने तेना विशेष अभ्यासथी सहज उपयोग रह्या करे छे. मिथ्याद्रष्टिना कथनमां कारण विपरीतता, स्वरूप विपरीतता अने भेदाभेद विपरीतता होय छे तेथी, लौकिक अपेक्षाए ते कथन सत्य होय तोपण, परमार्थथी तेनुं सर्व कथन असत्य छे.

(३) जे वचन प्राणीओने पीडा आपवाना भाव सहित होय ते पण अप्रशस्त छे, पछी भले वचनो अनुसार वस्तुस्थिति विद्यमान होय तोपण ते असत्य छे.

(४) पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी अस्तित्वरूप वस्तुने अन्यथा कहेवी ते असत्य छे. वस्तुना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे-

द्रव्य–जे सत् छे अर्थात् जेनी सत्ता (होवापणुं) नित्य टकी रहे छे; द्रव्यनुं सत् लक्षण छे, ते उत्पाद-व्यय-ध्रुवपणा सहित छे. गुण-पर्यायना समुदायनुं नाम द्रव्य छे.

क्षेत्र–पोताना जे प्रदेशमां द्रव्य स्थित होय ते तेनुं क्षेत्र छे. काळ–जे पर्यायरूपे द्रव्य परिणमे ते तेनो काळ छे. भाव–द्रव्यनी निजशक्ति-गुण ते तेनो भाव छे. आ चार प्रकारथी द्रव्य जे रीते छे ते रीते न मानतां अन्यथा मानवुं एटले के-जीव पोते शरीर वगेरे परद्रव्यो पणे थई जाय, पोतानी अवस्था कर्म के शरीर वगेरे परद्रव्य करावे के करी शके अने पोताना गुण बीजाथी थाय अगर तो देव- गुरु-शास्त्रना अवलंबने उघडे-इत्यादि प्रकारे मानवुं तथा ते मान्यतानुसार बोलवुं ते असत्यवचन छे. पोतानां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावमां पर वस्तुओ नास्तिरूप छे, तेनुं पोते कांई करी शके एवी मान्यतापूर्वक बोलवुं ते पण असत्य छे.

(प) आत्मा कोई स्वतंत्र पदार्थ नथी अथवा परलोक नथी एम कहेवुं ते असत्य छेः ते बन्ने पदार्थो आगमथी, युक्तिथी तेमज अनुभवथी सिद्ध थई शके छे, छतां तेनुं अस्तित्व न मानवुं ते असत्य छे; अने जे रीते आत्मानुं स्वरूप न होय ते रीते कहेवुं ते पण असत्यवचन छे.

(६) बधा पापोनुं कारण प्रमाद छे; प्रमाद अहितनुं मूळ छे. प्रमादथी बोलवावाळा जीवना सुख-चैतन्यरूप भावप्राणनो घात थाय छे, तेथी प्रमादथी बोलवुं ते असत्यवचन छे अने पाप छे.


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अ. ७ सूत्र १४-१प ] [ ४६७

३. प्रश्नः– वचन ते तो पुद्गल द्रव्यनी पर्याय छे, जीव तेने करी शकतो नथी, छतां असत्यवचनथी जीवने केम पाप लागे छे?

उत्तरः– खरेखर पाप के बंधन असत्यवचनथी थतुं नथी पण ‘प्रमत्तयोगात्

एटले के प्रमादना संयोगथी ज पाप लागे छे अने बंधन थाय छे. असत्य वचन जड छे ते तो मात्र निमित्त छे. ज्यारे जीव असत्य बोलवाना भाव करे त्यारे जो पुद्गल परमाणुओ वचनरूपे परिणमवा लायक होय तो असत्य वचनरूपे ज परिणमे. जीव असत्य बोलवाना भाव करे छतां त्यां पुद्गल परमाणुओ वचनरूपे न पण परिणमे; एम थाय तो पण जीवनो विकारीभाव ते ज पाप छे अने ते बंधनुं कारण छे.

प्रमाद बंधनुं कारण छे एम आठमा अध्यायना पहेला सूत्रमां कहेशे. ४. सम्यग्द्रष्टि जीवोने चोथा गुणस्थाने अनंतानुबंधी कषाय पूर्वकनो प्रमाद टळी जाय छे; पांचमा गुणस्थाने अनंतानुबंधी तथा अप्रत्याख्यान कषाय पूर्वकनो प्रमाद टळी जाय छे; छठ्ठा गुणस्थाने अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान अने प्रत्याख्यान कषाय पूर्वकनो प्रमाद टळी जाय छे, पण संज्वलनना तीव्र कषाय पूर्वकनो प्रमाद होय छे. आम उत्तरोत्तर प्रमाद टळतो जाय छे, अने बारमा गुणस्थाने सर्व कषायनो नाश थाय छे.

प. उज्ज्वल वचन, विनय वचन अने प्रिय वचनरूप भाषावर्गणा समस्त लोकमां भरेली छे, तेनुं कांई कमीपणुं नथी, कांई किंमत आपी लाववी पडती नथी, वळी मीठां कोमळरूप वचनो बोलवाथी जीभ दुःखती नथी, शरीरमां कष्ट उपजतुं नथी-आम समजीने, असत्य वचनने दुःखनुं मूळ जाणी शीघ्र तेनो त्याग करवो जोईए अने सत्य तथा प्रिय वचननी ज प्रवृत्ति करवी जोईए. ।। १४।।

स्तेय (चोरी) नुं स्वरूप
अदत्तादानं स्तेयम्।। १५।।
अर्थः– प्रमादना योगथी, [अदत्तादानं] दीधा वगर कोई पण वस्तुने ग्रहण

करवी ते [स्तेयम्] चोरी छे.

टीका

प्रश्नः– कर्मवर्गणा अने नोकर्मवर्गणाओनुं ग्रहण ते चोरी कहेवाय के नहि? उत्तरः– ते चोरी न कहेवाय; ज्यां लेवा-देवानो संभव होय त्यां चोरीनो व्यवहार थाय छे-ए हेतुथी ‘अदत्त’ शब्द मूक्यो छे.


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४६८ ] [ मोक्षशास्त्र

प्रश्नः– मुनिराजने गाम-नगर वगेरेमां पर्यटन करतां शेरी-दरवाजा वगेरेमां प्रवेश करवाथी अदत्तादान थाय के केम?

उत्तरः– ते अदत्तादान न कहेवाय, केम के ते जग्या बधाने आववा जवा माटे खुल्ली छे. वळी शेरी वगेरेमां प्रवेश करतां मुनिने प्रमत्तयोग होतो नथी.

बाह्य वस्तुनुं ग्रहण थाय के न थाय, तोपण चोरी करवानो भाव होय ते ज चोरी छे अने ते ज बंधनुं कारण छे. परवस्तुने खरेखर कोई ग्रहण करी शकतुं ज नथी, पोताने परवस्तु ग्रहण करवानो जे प्रमादयुक्त भाव छे ते ज दोष छे. ।। १प।।

कुशील (ब्रह्मचर्य) नुं स्वरूप
मैथुनमब्रह्म।। १६।।
अर्थः– [मैथुनम् अब्रह्मं] मैथुन ते अब्रह्म अर्थात् कुशील छे.
टीका

१. मैथुनः– चारित्रमोहनीयना उदयमां जोडावाथी राग-परिणाम सहित स्त्री- पुरुषोनी परस्पर स्पर्श करवानी ईच्छा ते मैथुन छे. (आ व्याख्या व्यवहार मैथुननी छे.)

मैथुन बे प्रकारनुं छे-निश्चय अने व्यवहार. आत्मा पोते ब्रह्मस्वरूप छे; आत्मानी पोताना ब्रह्मस्वरूपमां लीनता ते खरुं ब्रह्मचर्य छे अने राग के कषाय साथे जोडाण थवुं ते अब्रह्मचर्य छे. आ ज निश्चय मैथुन छे. व्यवहार मैथुननी व्याख्या उपर आपी छे.

र. तेरमा सूत्रमां कहेला ‘प्रमत्तयोगात्’ शब्दनी अनुवृत्ति आ सूत्रमां पण

आवे छे; तेथी, स्त्री-पुरुषना युगलसंबंधी रतिसुखने माटे जे चेष्टा (प्रमाद परिणाम) करवामां आवे ते मैथुन छे-एम समजवुं.

३. जेना पालनथी अहिंसादिक गुणो वृद्धि पामे ते ब्रह्म छे अने जे ब्रह्मथी विरुद्ध छे ते अब्रह्म छे. अब्रह्म (मैथुन) मां हिंसादिक दोष पुष्ट थाय छे; वळी तेमां त्रस-स्थावर जीवो पण हणाय छे, मिथ्यावचन बोलाय छे, विना दीधेली वस्तुने ग्रहण करवानुं बने छे अने चेतन तथा अचेतन परिग्रहनुं ग्रहण पण थाय छे-माटे ते अब्रह्म छोडवा लायक छे. ।। १६।।

परिग्रहनुं स्वरूप
मूर्च्छा परिग्रहः।। १७।।
अर्थः– [मूर्च्छा परिग्रह] मूर्छा ते परिग्रह छे.

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अ. ७ सूत्र १७-१८ ] [ ४६९

टीका

१. अंतरंग परिग्रह चौद प्रकारना छे-एक मिथ्यात्व, चार कषाय अने नव नोकषाय.

बाह्य परिग्रह दस प्रकारना छे-क्षेत्र, मकान, चांदी, सोनुं, धन, धान्य, दासी, दास, कपडां अने वासण.

र. परद्रव्यमां ममत्वबुद्धि ते मूर्छा छे. बाह्य संयोग विद्यमान न होवा छतां पण ‘आ मारुं छे’ एवो संकल्प जे जीव करे छे ते परिग्रह सहित छे; बाह्य द्रव्य तो निमित्तमात्र छे.

३. प्रश्नः– ‘आ मारुं छे’ एवी बुद्धिने जो तमे मूर्छा कहेशो तो सम्यग्ज्ञान वगेरे पण परिग्रह ठरशे, केम के ते मारां छे एवी बुद्धि ज्ञानीने पण थाय छे?

उत्तरः– परद्रव्यमां ममत्वबुद्धि ते परिग्रह छे. स्वद्रव्यने पोतानुं मानवुं ते परिग्रह नथी. सम्यग्ज्ञानादि तो आत्मानो स्वभाव होवाथी तेनो त्याग होई शके नहि माटे तेने पोतानां मानवा ते अपरिग्रहपणुं छे.

रागादिमां ‘आ मारां छे’ एवो संकल्प करवो ते परिग्रह छे केम के रागादिथी ज सर्व दोष उत्पन्न थाय छे.

४. तेरमा सूत्रना ‘प्रमत्तयोगात्’ शब्दनी अनुवृत्ति आ सूत्रमां पण छे;

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रवान जीवने जेटला अंशे प्रमाद-भाव न होय तेटला अंशे अपरिग्रहीपणुं छे. ।। १७।।

व्रतनी विशेषता
निःशल्यो व्रती।। १८।।
अर्थः– [व्रती] व्रती जीव [निःशल्यो] शल्यरहित ज होय छे.
टीका

१. शल्य–शरीरमां भोंकायेला बाण, कांटा वगेरे शस्त्रनी माफक जे मनमां बाधा करे ते शल्य छे अथवा आत्माने कांटानी माफक जे दुःख आपे ते शल्य छे.

शल्यना त्रण भेद छे-मिथ्यात्वशल्य, मायाशल्य अने निदानशल्य.
मिथ्यादर्शनशल्य–आत्माना स्वरूपनी श्रद्धानो अभाव ते मिथ्यादर्शनशल्य छे.
मायाशल्य–छळ, कपट, ठगाई ते मायाशल्य छे.

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४७० ] [ मोक्षशास्त्र

निदानशल्य–आगामी विषय-भोगनी वांछा ते निदानशल्य छे. र. मिथ्याद्रष्टि जीव शल्य सहित ज छे तेथी तेने साचां व्रत होय नहि, बाह्यव्रत होय. द्रव्यलिंगी मिथ्याद्रष्टि छे तेथी ते पण खरो व्रती नथी. मायावी- कपटीना बधां व्रत जुठ्ठां छे. इंद्रियजनित विषयभोगोनी वांछा ते तो आत्मज्ञानरहित राग छे; ते रागसहितना व्रत ते पण अज्ञानीनां व्रत छे, ते धर्म माटे निष्फळ छे. संसार माटे सफळ छे. माटे शल्यरहित परमार्थथी ज व्रती थई शकाय छे.

३. द्रव्यलिंगीनुं अन्यथापणुं

प्रश्नः– द्रव्यलिंगी मुनि जिनप्रणीत तत्त्वोने तो माने छे, छतां तेने मिथ्याद्रष्टि केम कहो छो?

उत्तरः– तेने विपरीत अभिनिवेश होवाथी शरीराश्रित क्रियाकांडने ते पोताना माने छे (ते अजीवतत्त्वमां जीवतत्त्वनी श्रद्धा थई). आस्रव-बंधरूप शील-संयमादि परिणामोने ते संवर-निर्जरारूप माने छे. ते जो के पापथी विरक्त थाय छे. परंतु पुण्यमां उपादेयबुद्धि राखे छे तेथी तेने तत्त्वार्थनी यथार्थ श्रद्धा नथी; माटे ते मिथ्याद्रष्टि छे.

प्रश्नः– द्रव्यलिंगीना धर्म साधनमां अन्यथापणुं शुं छे? उत्तरः– (१) संसारमां नरकादिकनां दुःख जाणी तथा स्वर्गादिमां पण जन्म- मरणादिना दुःख जाणी संसारथी उदास थई ते मोक्षने इच्छे छे; हवे, ए दुःखोने तो बधाय दुःख जाणे छे. पण इंद्र अहमिंद्रादिक विषयानुरागथी इंद्रियजनित सुख भोगवे छे तेने पण दुःख जाणी निराकुळ अवस्थाने ओळखी तेने जे मोक्ष जाणे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे.

(र) विषय सुखादिकना फळ नरकादिक छे, शरीर अशुचिमय अने विनाशिक छे, ते पोषण करवा योग्य नथी, तथा कुटुंबादिक स्वार्थनां सगां छे-इत्यादि पर द्रव्योना दोष विचारी तेनो त्याग करे छे. पर द्रव्योना दोष जोवा ते तो मिथ्यात्व सहित द्वेष छे.

(३) व्रतादिनुं फळ स्वर्ग-मोक्ष छे, तपश्चरणादिक पवित्र फळ आपनार छे, ए वडे शरीर शोषवा योग्य छे तथा देव-गुरु-शास्त्रादि हितकारी छे-इत्यादि परद्रव्योना गुण विचारी तेने अंगीकार करे छे. परद्रव्यने हितकारी मानवुं ते मिथ्यात्व सहित राग छे.

(४) ए वगेरे प्रकारे कोई परद्रव्योने बूरां जाणी अनिष्टरूप श्रद्धा करे छे तथा कोई परद्रव्योने भलां जाणी इष्टरूप श्रद्धा करे छे; परद्रव्यमां इष्ट-अनिष्टरूप श्रद्धान करवुं ते मिथ्यात्व छे. वळी ए ज श्रद्धानथी तेनी उदासीनता पण द्वेषरूप होय छे, केम के कोई परद्रव्योने बूरां जाणवां तेनुं नाम द्वेष छे.


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अ. ७ सूत्र १८ ] [ ४७१

(प) वळी जेम पहेलां शरीराश्रित पाप कार्योमां ते कर्तापणुं मानतो हतो ते ज प्रमाणे हवे ते शरीराश्रित पुण्यकार्योमां पोतानुं कर्तापणुं माने छे. ए प्रमाणे पर्यायाश्रित (-शरीराश्रित) कार्योमां अहंबुद्धि मानवानी समानता थई; जेम के-हुं जीवने मारुं छुं, परिग्रहधारी छुं-इत्यादिरूप मान्यता पहेलां हती, ते ज प्रमाणे हुं जीवोनी रक्षा करुं छुं, हुं परिग्रहरहित नग्न छुं-एवी मान्यता हवे थई, ते मिथ्या छे.

४. अढारमा सूत्रनो सिद्धांत

(१) अज्ञान अंधकारथी आच्छादित थया थका जेओ आत्माने (परनो) कर्ता माने छे तेओ मोक्षने इच्छनारा होय तोपण लौकिकजनोनी माफक तेमनो पण मोक्ष थतो नथी; एवा जीवो भले मुनि थया होय तोपण तेओ लौकिकजन जेवा ज छे. लोक इश्वरने कर्ता माने छे अने ते मुनिओए आत्माने परद्रव्यनो कर्ता (पर्यायाश्रित क्रियानो-शरीरनो अने तेनी क्रियानो कर्ता) मान्यो, एम बन्नेनी मान्यता समान थई. तत्त्वने जाणनार पुरुष ‘सघळुंय परद्रव्य मारुं नथी’ एम जाणीने, लोक अने श्रमण (द्रव्यलिंगी मुनि) ए बन्नेने जे आ परद्रव्यमां कर्तृत्वनो व्यवसाय छे ते तेमना सम्यग्दर्शनरहितपणाने लीधे ज छे एम सुनिश्चितपणे जाणे छे. जे परद्रव्यनुं कर्तापणुं माने छे ते, लौकिकजन हो के मुनिजन हो, -मिथ्याद्रष्टि ज छे.

(जुओ, श्री समयसार पा. ३९० थी ३९४)

(र) प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टि पण परद्रव्योने बूरां जाणीने त्याग करे छे? उत्तरः– सम्यग्द्रष्टि परद्रव्योने बूरां जाणतां नथी; परद्रव्यनुं ग्रहण-त्याग थई शकतुं नथी एम ते जाणे छे. पोताना रागभावने ते बूरो जाणे छे तेथी सरागभावने छोडे छे अने तेना निमित्तरूप परद्रव्योनो पण सहज त्याग थाय छे. वस्तु विचारतां कोई परद्रव्य तो भलां-बूरां छे ज नहि. मिथ्यात्वभाव सौथी बूरो छे ते मिथ्याभाव तो सम्यग्द्रष्टिए प्रथम छोडयो ज होय छे.

(३) प्रश्नः– व्रत होय तेने ज व्रती कहेवा जोईए, तेने बदले ‘निःशल्य होय ते व्रती थाय’ एम शा माटे कहो छो?

उत्तरः– शल्यनो अभाव थया विना, हिंसादिक पापभावोना टळवा मात्रथी कोई जीव व्रती थई शके नहि. शल्यनो अभाव थतां व्रतना संबंधथी व्रतीपणुं आवे छे तेथी सूत्रमां ‘निःशल्यो’ शब्द वापर्यो छे. ।। १८।।


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४७२ ] [ मोक्षशास्त्र

व्रतीना भेद
अगार्यनगारश्च।। १९।।
अर्थः– [अगारी] अगारी अर्थात् सागार (गृहस्थ) [अनगारःच] अने

अणगार (गृहत्यागी भावमुनि)-ए प्रमाणे व्रतीना बे भेद छे.

नोंधः– महाव्रतोने पाळनारा मुनि अणगारी कहेवाय छे अने देशव्रतने पाळनारा श्रावक सागारी कहेवाय छे. ।। १९।।

सागारनुं लक्षण
अणुव्रतोऽगारी।। २०।।
अर्थः– [अणुव्रतः] अणुव्रत अर्थात् एकदेशव्रत पाळनारा सम्यग्द्रष्टि जीव

[अगारी] सागार कहेवाय छे.

टीका

अहींथी अणुव्रतधारीओनुं विशेष वर्णन शरू थाय छे, अने आ अध्याय पूरो थतां सुधी ते ज वर्णन छे. अणुव्रतना पांच भेद छे. १. अहिंसा अणुव्रत र. सत्य अणुव्रत ३. अचौर्य अणुव्रत ४ ब्रह्मचर्य अने प. परिग्रह परिमाण अणुव्रत. ।। २०।।

अणुव्रतना सहायक सात शीलव्रतो
दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकप्रौषधोपवासोपभोगपरिभोग–
परिमाणातिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च।। २१।।
अर्थः– [च] वळी ते व्रती [दिग् देश अनर्थदंडविरतिः] दिग्व्रत देशव्रत

तथा अनर्थदंडव्रत ए त्रण गुणव्रत अने [सामायिक प्रौषधोपवास उपभोगपरिभोगपरिमाण अतिथिसंविभागव्रत] सामायिक, प्रौषध उपवास, उपभोग- परिभोगनुं परिमाण (-मर्यादा) तथा अतिथिसंविभाग व्रत-ए चार शिक्षाव्रत [संपन्नः] सहित होय छे अर्थात् व्रतधारी श्रावक पांच अणुव्रत, त्रण गुणव्रत अने चार शिक्षाव्रत ए रीते बार व्रतो सहित होय छे.

टीका

१. पूर्वे १३ थी १७ सुधीना सूत्रोमां हिंसादि पांच पापोनुं जे वर्णन कर्युं छे तेमनो एकदेश त्याग ते पांच अणुव्रत छे. अणुव्रतोने जे पुष्टि करे ते गुणव्रत छे अने जेनाथी मुनिव्रत पालन करवानो अभ्यास थाय ते शिक्षाव्रत छे.


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अ. ७ सूत्र २१ ] [ ४७३

र. त्रण गुणव्रत अने चार शिक्षाव्रतनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे. -
दिग्व्रतः– मरणपर्यंत सूक्ष्म पापोनी निवृत्तिने माटे दशे दिशाओमां आववा-
जवानी मर्यादा करवी ते दिग्व्रत छे.
देशव्रतः– जीवनपर्यंत लीधेला दिग्व्रतनी मर्यादामांथी पण वधारे संकोच करीने
घडी, कलाक, मास, वर्ष वगेरे वखत सुधी अमुक घर, शेरी वगेरे
सुधी जवा-आववानी मर्यादा करवी ते देशव्रत छे.
अनर्थदंडव्रतः– प्रयोजनरहित पापवर्द्धक क्रियानो त्याग करवो ते अनर्थदंडव्रत छे;
अनर्थदंडना पांच भेद छे. १. पापोपदेश (हिंसादि पापारंभनो उपदेश
करवो ते); र. हिंसादान (तलवार वगेरे हिंसाना उपकरणो आपवा
ते); ३. अपध्यान (बीजुनुं बूरुं विचारवुं ते); ४. दुःश्रुति (राग-
द्वेषने वधारनारां खोटां शास्त्रोनुं श्रवण करवुं ते) अने प. प्रमादचर्या
(प्रयोजन वगर ज्यां-त्यां जवुं तथा पृथ्वी वगेरे खोदवुं ते).

शिकार, जय, पराजय, युद्ध, परस्त्रीगमन, चोरी वगेरेनुं कोईपण वखते चिंतवन करवुं नहि, केम के ते माठां ध्यानोनुं फळ पाप ज छे.

-आ त्रण गुणव्रत छे.
सामायिकः– मन, वचन, काया वडे कृत कारित अनुमोदनाथी हिंसादि पांच
पापोनो त्याग करवो ते सामायिक छे; आ सामायिक शुभभावरूप छे.
(सामायिकचारित्रनुं स्वरूप नवमा अध्यायमां आपवामां आवशे.)
पौषधोपवासः– पहेला अने पछीना दिवसे एकाशनपूर्वक आठम अने चौदश
आदि दिवसे उपवासादि करी, एकांतवासमां रही, संपूर्ण
सावद्ययोगने छोडी, सर्व इन्द्रियोना विषयोथी विरक्त थई
धर्मध्यानमां रहेवुं ते प्रौषधोपवास छे.
उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रतः– श्रावकोने भोगनां निमित्तथी हिंसा थाय
छे. भोग अने उपभोगनी वस्तुओनुं माप करी (मर्यादा बांधी)
पोतानी शक्ति अनुसार भोगउपभोगने छोडवा ते
उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत छे.
अतिथिसंविभागव्रतः– अतिथि अर्थात् मुनि वगेरेने माटे आहार, कमंडळ,
पींछी, वसतिका आदिनुं दान देवुं ते अतिथिसंविभागव्रत छे.
-आ चार शिक्षाव्रत छे.

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४७४ ] [ मोक्षशास्त्र

३. लक्षमां राखवा लायक सिद्धांत

अनर्थदंडव्रत नामे आठमा व्रतमां दुःश्रुतिनो त्याग कह्यो छे, ते सूचवे छे के- जीवोए दुःश्रुतिरूप शास्त्र क्या छे अने सुश्रुतिरूप शास्त्रो क्या छे तेनो विवेक करवो जोईए. जे जीवने धर्मना निमित्त तरीके दुश्रुति होय तेने सम्यग्दर्शन प्रगटे ज नहि; अने धर्मना निमित्त तरीके जेने सुश्रुति (सत्शास्त्रो) होय तेणे पण तेनो मर्म जाणवो जोईए; जो तेनो मर्म समजे तो ज सम्यग्दर्शन प्रगट करी शके, अने जो सम्यग्दर्शन प्रगट करे तो ज अणुव्रतधारी श्रावक के महाव्रतधारी मुनि थई शके. जे सुशास्त्रनो मर्म जाणे ते ज जीव, आ अध्यायना पांचमा सूत्रमां सत्यव्रत संबंधी कहेली अनुविची भाषण एटले के शास्त्रनी आज्ञानुसार निर्दोष वचन बोलवानी भावना करी शके. सुशास्त्र अने कुशास्त्रनो विवेक करी शकवा माटे दरेक मनुष्य लायक छे; माटे मुमुक्षु जीवोए ते विवेक बराबर करवो जोईए. जो सत्-असत्नो विवेक जीव नहि समजे तो साचो व्रतधारी थई शके नहि. ।। २१।।

व्रतीने सल्लेखना धारण करवानो उपदेश
मारणांतिकीं सल्लेखनां जोषिता।। २२।।
अर्थः– व्रतधारी श्रावक [मारणांतिकीं] मरण वखते थनारी [सल्लेखनां]

सल्लेखनानुं [जोषिता] प्रीतिपूर्वक सेवन करे छे.

टीका

१. आ लोक के परलोक संबंधी कांईपण प्रयोजननी अपेक्षा कर्या वगर शरीर अने कषायने कृश करवां (-सम्यक् प्रकारे पातळां पाडवा) ते सल्लेखना छे.

२. प्रश्नः– शरीर तो पर वस्तु छे, जीव तेने कृश करी शके नहि, छतां अहीं शरीरने कृश करवानुं केम कह्युं?

उत्तरः– कषायने कृश करतां शरीर तेना पोताना कारणे घणे भागे कृश थाय छे एवो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध बताववा माटे उपचारथी तेम कह्युं छे. वात-पीत्त- कफ वगेरेना प्रकोपथी मरण अवसरे परिणाममां आकुळता आववा न देवी अने आराधनाथी चलायमान न थवुं ते ज खरी काय सल्लेखना छे; मोह-राग-द्वेषादिथी पोताना सम्यग्दर्शन-ज्ञान परिणाम मरण अवसरे मलिन न थवा देवा ते कषाय सल्लेखना छे.

३. प्रश्नः– समाधिपूर्वक देहनो त्याग थयो माटे तेमां आत्मघात छे के नहि?

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अ. ७ सूत्र २३ ] [ ४७प

उत्तरः– राग-द्वेष-मोहथी लेपायेल जीव झेर, शस्त्र वगेरेथी घात करे ते आत्मघात छे, पण समाधिपूर्वक सल्लेखना मरण करे तेमां रागादिक नथी अने आराधना छे तेथी तेने आत्मघात नथी. प्रमत्तयोग रहित अने आत्मज्ञान सहित जे जीव, कलेवर अवश्य विनाशिक छे एम जाणीने ते प्रत्येनो राग ओछो करे छे तेने हिंसा नथी. ।। २२।।

सम्यग्दर्शनना पांच अतिचार
शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यद्रष्टिप्रशंसासंस्तवाः
सम्यग्दृष्टेरतीचाराः।। २३।।
अर्थः– [शंका कांक्षा विचिकित्सा] शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, [अन्यद्रष्टिप्रशंसा

संस्तवाः] अन्यद्रष्टिनी प्रशंसा अने अन्यद्रष्टिनुं संस्तव-ए पांच [सम्यग्द्रष्टेः अतीचाराः] सम्यग्दर्शनना अतिचारो छे.

टीका

१. जे जीवनुं सम्यग्दर्शन निर्दोष होय ते व्रत बराबर पाळी शके छे तेथी अहीं प्रथम सम्यग्दर्शनना अतिचारो जणाव्या छे, के जेथी ते अतिचार टाळी शकाय. औपशमिकसम्यक्त्व अने क्षायिक सम्यक्त्व तो निर्मळ होय छे, तेमां अतिचार होता नथी. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व चळ, मळ अने अगाढ ए दोष सहित होय छे एटले तेमां अतिचार लागे छे.

र. सम्यग्द्रष्टिने आठ गुण (-अंग, लक्षण अर्थात् आचार) होय छे, तेनां नाम-निःशंका, निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढद्रष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य अने प्रभावना.

३. सम्यग्दर्शनना पांच अतिचार कह्या तेमांथी पहेला त्रण तो निःशंकितादि पहेला त्रण गुणोमां आवता दोषो छे. अने बाकीना बे अतिचारोनो समावेश छेल्ला पांच गुणोना दोषमां थाय छे. आ अतिचारो चोथाथी सातमा गुणस्थानवाळा क्षायोपशमिक सम्यग्द्रष्टिने होय छे एटले के क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनवाळा मुनि, श्रावक के सम्यग्द्रष्टि-ए त्रणने आ अतिचार होई शके छे. आ अतिचारमां सम्यक्त्वमोहनीयनो उदय निमित्त छे. अंशे भंग थाय (अर्थात् दोष लागे) तेने अतिचार कहे छे, तेना परिणामे सम्यग्दर्शन निर्मूळ थतुं नथी, मात्र मलिन थाय छे.

४. शुद्धात्मस्वभावनी प्रतीतिरूप निश्चयसम्यग्दर्शनना सद्भावमां सम्यग्दर्शन

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४७६ ] [ मोक्षशास्त्र संबंधी व्यवहार दोषो होवा छतां त्यां मिथ्यात्वप्रकृतिओनुं बंधन थतुं नथी. वळी बीजा गुणस्थाने पण सम्यग्दर्शन संबंधी व्यवहार दोषो होवा छतां त्यां पण मिथ्यात्व प्रकृतिनुं बंधन नथी.

प. सम्यग्दर्शन ए धर्मरूपी वृक्षनी जड छे, मोक्ष महेलनुं पहेलुं पगथियुं छे; तेना विना ज्ञान अने चारित्र सम्यक्पणाने पामता नथी. माटे लायक जीवोने माटे ए उचित छे के, जे प्रकारे बने ते रीते अर्थात् गमे तेम करीने आत्माना वास्तविक स्वरूपने समजीने सम्यग्दर्शनरूपी रत्नथी पोताना आत्माने भूषित करे अने ते सम्यग्दर्शनने अतिचार रहित बनावे. धर्मरूपी कमळनी मध्यमां सम्यग्दर्शनरूपी कळी शोभायमान छे, निश्चय व्रत, शील वगेरे ते कळीनां पांदडां छे. माटे गृहस्थोए अने मुनिओए ते सम्यग्दर्शनरूपी कळीमां अतिचार आववा न देवो.

६. पांच अतिचारनुं स्वरूप

शंकाः– पोताना आत्माने ज्ञाता-द्रष्टा, अखंड, अविनाशी, अने पुद्गलथी भिन्न जाणीने पण आलोक, परलोक, मरण, वेदना, अरक्षा, अगुप्ति अने अकस्मात्-ए सात भयने प्राप्त थवुं अथवा तो अर्हंत सर्वज्ञ वीतरागदेवे कहेला तत्त्वना स्वरूपमां संदेह थवो ते शंका नामनो अतिचार छे.

कांक्षा– आ लोक के परलोक संबंधी भोगोमां तथा मिथ्याद्रष्टिओना ज्ञान के आचरणादिमां वांछा थई आववी ते वांछा-अतिचार छे. आ राग छे.

विचिकित्सा– रत्नत्रय वडे पवित्र पण बाह्यमां मलिन शरीर-एवा धर्मात्मा मुनिओने देखीने तेमना प्रत्ये अथवा धर्मात्माना गुणो प्रत्ये के दुःखी-दारिद्री जीवोने देखीने तेमना प्रत्ये ग्लानि थई आववी ते विचिकित्सा-अतिचार छे. आ द्वेष छे.

अन्यद्रष्टि प्रशंसाः– आत्मस्वरूपना अजाण जीवोनां ज्ञान, तप, शील, चारित्र, दान वगेरेने पोतामां प्रगट करवानो मनमां विचार थवो अगर तो तेने सारां जाणवां ते अन्यद्रष्टि प्रशंसा-अतिचार छे. (अन्यद्रष्टि एटले मिथ्याद्रष्टि.)

अन्यद्रष्टि संस्तव– आत्मस्वरूपना अजाण जीवोनां ज्ञान, तप, शील, चारित्र, दानादिकनां फळने सारुं जाणीने वचन द्वारा तेनी स्तुति थई जवी ते अन्यद्रष्टि संस्तवअतिचार छे.

७. आ बधां दोषो छतां सम्यग्द्रष्टि जीव तेने दोष तरीके गणे छे अने ते दोषोनो तेने खेद छे, माटे ते अतिचार छे, पण जे जीव ते दोषोने दोष तरीके न जाणे अने उपादेय गणे तेने तो ते अनाचार छे एटले के ते तो मिथ्याद्रष्टि ज छे.

८. आत्मानुं स्वरूप समजवा माटे शंका करीने जे प्रश्न करवामां आवे ते शंका

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अ. ७ सूत्र २४-२प ] [ ४७७ नथी पण आशंका छे; अतिचारोमां जे शंका दोष कह्यो छे तेमां तेनो समावेश थतो नथी.

प्रशंसा अने संस्तवमां एटलो भेद छे के, प्रशंसा मन द्वारा थाय छे अने संस्तव वचन द्वारा थाय छे. ।। २३।।

पांच व्रत अने सात शीलोना अतिचार
व्रतशीलेषु पंच पंच यथाक्रमम्।। २४।।
अर्थः– [व्रतशीलेषु] व्रत अने शीलोमां पण [यथाक्रमम्] अनुक्रमे दरेकमां

[पंच पंच] पांच पांच अतिचारो छे.

नोंधः– व्रत कहेतां अहिंसादि पांच अणुव्रत समजवा अने शील कहेतां त्रण गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत ए सात समजवा. आ दरेकना पांच अतिचारोनुं वर्णन हवेना सूत्रोमां करे छे. ।। २४।।

अहिंसा–अणुव्रतना पांच अतिचार

बंधवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः।। २५।।

अर्थः– [बंध वध च्छेद] बंध, वध, छेद, [अतिभारआरोपण] घणो भार

लादवो अने [अन्नपाननिरोधाः] अन्नपाननो निरोध करवो-ए पांच अहिंसा- अणुव्रतना अतिचार छे.

टीका

बंध–प्राणीओने इच्छित स्थानमां जतां रोकवा माटे रस्सी वगेरेथी बांधवा ते. वध–प्राणीओने लाकडी वगेरेथी मारवुं ते. छेद–प्राणीओना नाक-कान वगेरे अंगो छेदवा ते. अतिभार–आरोपण–प्राणीनी शक्तिथी अधिक भार लादवो ते. अन्नपाननिरोध–प्राणीओने वखतसर खावा-पीवा न देवुं ते. अहीं अहिंसा-अणुव्रतना अतिचार तरीके ‘प्राणव्यपरोपण’ने गणवुं नहि, केम के प्राणव्यपरोपण ते हिंसानुं लक्षण छे एटले ते अतिचार नथी पण अनाचार छे. ते संबंधी पूर्वे सूत्र १३ मां कहेवाई गयुं छे. ।। २प।।


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४७८ ] [ मोक्षशास्त्र

सत्य–अणुव्रतना पांच अतिचार
मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहार–
साकारमन्त्रभेदाः।। २६।।
अर्थः– [मिथ्या उपदेश] मिथ्या उपदेश, [रहोभ्याख्यान] रहोभ्याख्यान

[कूटलेखक्रिया] कूटलेखक्रिया, [न्यास अपहार] न्यास अपहार अने [साकारमन्त्रभेदाः] साकार मंत्रभेद-ए पांच सत्य-अणुव्रतना अतिचारो छे.

टीका

मिथ्या उपदेशः– कोई जीवने अभ्युदय अगर मोक्ष साथे संबंध राखवावाळी क्रियामां संदेह उत्पन्न थयो अने तेणे आवीने पूछयुं के आ विषयमां मारे शुं करवुं? तेनो उत्तर आपतां सम्यग्द्रष्टि व्रतधारीए पोतानी भूलथी विपरीतमार्गनो उपदेश आप्यो, तो ते मिथ्या उपदेश कहेवाय छे; अने ते सत्य-अणुव्रतनो अतिचार छे. जाणवा छतां जो मिथ्या उपदेश करे तो ते अनाचार छे. विवाद उपस्थित थतां संबंधने उलंघीने असंबंधरूप उपदेश आपवो ते पण अतिचाररूप मिथ्याउपदेश छे.

रहोभ्याख्यानः– कोई खानगी वात प्रगट करवी ते. कूटलेखक्रियाः– पर प्रयोगना वशे (अजाणतां) कोई खोटो लेख लखवो ते. न्यास अपहारः– कोई माणस कांई वस्तु मूकी गयो अने ते पाछी मागती वखते तेणे ओछी मांगी त्यारे ए प्रमाणे ओछुं कहीने तमारुं जेटलुं होय तेटलुं लई जाव ए कहेवुं तथा ओछुं पाछुं आपवुं ते न्यास अपहार छे.

साकार मंत्रभेदः– हाथ वगेरेनी चेष्टा उपरथी बीजाना अभिप्रायने जाणीने ते प्रगट करी देवो ते साकार मंत्रभेद छे.

व्रतधारीने आ दोषो प्रत्ये खेद होय छे तेथी ते अतिचार छे. पण जीवने जो ते प्रत्ये खेद न होय तो ते अनाचार छे एटले के त्यां व्रतनो अभाव ज छे एम समजवुं. ।। २६।।

अचौर्य–अणुव्रतना पांच अतिचार
स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिक–
मानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः।। २७।।
अर्थः– [स्तेन प्रयोग] चोरी माटे चोरने प्रेरणा करवी के तेनो उपाय

बताववो [तत् आहृत आदान] चोरे चोरेली वस्तुने खरीदवी, [विरुद्ध राज्य अतिक्रम] राज्यनी


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अ. ७ सूत्र २८-२९ ] [ ४७९ आज्ञा विरुद्ध चालवुं, [हीनाधिकमानोन्मान] देवा लेवानां माप ओछां वधारे राखवां अने [प्रतिरूपक व्यवहाराः] किंमती वस्तुमां हलकी (-ओछी किंमतनी) वस्तु मेळवीने असली भावे वेचवी-आ पांच अचौर्य-अणुव्रतना अतिचारो छे.

टीका

स्तेनप्रयोगः– चोरने एम कहेवुं के-‘आजकाल धंधा वगरना केम छो? भोजन वगेरे न होय तो मारी पासेथी लई जजो; तमारी पासेनी चीजनो कोई खरीदनार न मळे तो हुं वेची दईश’ इत्यादि वचनोथी चोरने चोरीमां प्रवृत्त करे, पण पोते पोतानी कल्पनाथी चोरी करतो नथी तो तेने अचौर्यव्रत टकी रहेवाथी व्रतधारी कहेवाय छे. चोरीने माटे चोरने ते सहायक थाय छे तेथी तेने स्तेनप्रयोग अतिचार छे.

ब्रह्मचर्य–अणुव्रतना पांच अतिचार
परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीडा–
कामतीव्राभिनिवेशाः।। २८।।
अर्थः– [परविवाहकरण] बीजानां पुत्र-पुत्रीओना विवाह करवा-कराववा,

[परिगृहीत इत्वरिकागमन] पतिसहित व्यभिचारिणी स्त्रीओ पासे आववुं-जवुं, लेणदेण राखवी, राग-भावपूर्वक वातचीत करवी, [अपरीगृहीत इत्वरिकागमन] पतिरहित व्यभिचारिणी स्त्री (वेश्यादि) ने त्यां आववुं-जवुं, लेण देण वगेरेनो व्यवहार राखवो, [अनंगक्रीडा] अनंग क्रीडा एटले के कामसेवन माटे निश्चित अंगोने छोडीने अन्य अंगोथी कामसेवन करवुं अने [कामतीव्राभिनिवेशाः] कामसेवननी अत्यंत अभिलाषा-ए पांच ब्रह्मचर्य-अणुव्रतना अतिचारो छे. ।। २८।।

परिग्रह–परिमाण–अणुव्रतना पांच अतिचार
क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणात्रिक्रमाः।। २९।।
अर्थः– [क्षेत्रवास्तु प्रमाणातिक्रमाः] क्षेत्र अने रहेवाना स्थानना परिमाणनुं

उल्लंघन करवुं, [हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रमाः] चांदी अने सोनाना परिमाणनुं उल्लंघन करवुं. [धनधान्यप्रमाणातिक्रमाः] धन (पशु वगेरे) तथा धान्यना परिमाणनुं उल्लंघन करवुं, [दासीदासप्रमाणातिक्रमाः] दासी अने दासना परिमाणनुं उल्लंघन करवुं तथा [कृप्यप्रमाणातिक्रमाः] वस्त्र, वासण, वगेरेना परिमाणनुं उल्लंघन करवुं-ए पांच अपरिग्रह-अणुव्रतना अतिचारो छे. ।। २९।।


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४८० ] [ मोक्षशास्त्र

आ रीते पांच अणुव्रतोना अतिचारोनुं वर्णन कर्युं, हवे त्रण गुणव्रतोना अतिचारो वर्णवे छे.

दिग्व्रतना पांच अतिचार
ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि।। ३०।।
अर्थः– [ऊर्ध्व व्यतिक्रम] मापथी अधिक ऊंचाईवाळा स्थळोए जवुं, [अधः

व्यतिक्रम] मापथी नीचा (कूवो, खाण वगेरे) स्थळोए उतरवुं, [तिर्यक् व्यतिक्रम] त्रांसा अर्थात् समान स्थानना मापथी वधारे दूर जवुं, [क्षेत्रवृद्धि] मर्यादा करेला क्ष्रेत्रने वधारवुं अने [स्मृति अन्तराधानानि] मर्यादा करेला क्षेत्रने भूली जवुं-ए पांच दिग्व्रतना अतिचारो छे. ।। ३०।।

देशव्रतना पांच अतिचार
आनयनप्रेष्यप्रयोगशद्वरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः।। ३१।।
अर्थः– [आनयन] मर्यादा बहारनी चीजने मंगाववी, [प्रेष्यप्रयोग] मर्यादा

बहार नोकर वगेरेने मोकलवा, [शब्द अनुपात] खांसी, शब्द वगेरेथी मर्यादा बहारना जीवोने पोतानो अभिप्राय समजावी देवो, [रूपानुपात] पोतानुं रूप वगेरे देखाडीने मर्यादा बहारना जीवोने इसारा करवा अने [पुद्गल क्षेपाः] मर्यादा बहार कांकरा वगेरे फेंकवा-ए पांच देशव्रतना अतिचारो छे. ।। ३१।।

अनर्थदंडव्रतना पांच अतिचार
कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्याऽसमीक्ष्याधिकरणोपभोग–
परिभोगानर्थक्यानि।। ३२।।
अर्थः– [कन्दर्प] रागथी हास्यसहित अशीष्ट वचन बोलवां, [कौत्कुच्य]

शरीरनी कुचेष्टा करीने अशीष्ट वचन बोलवां [मौखर्य] दुष्टतापूर्वक जरूर करतां वधारे बोलवुं, [असमीक्ष्याधिकरण] प्रयोजन वगर मन-वचन-कायानी प्रवृत्ति करवी अने [उपभोग परिभोग अनर्थक्यानि] भोग-उपभोगना पदार्थोनो जरूर करतां वधारे संग्रह करवो-ए पांच अनर्थदंडव्रतना अतिचारो छे. ।। ३२।।

आ रीते त्रण गुणव्रतना अतिचारोनुं वर्णन कर्युं, हवे चार शिक्षाव्रतना अतिचारो वर्णवे छे.


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अ. ७ सूत्र ३३-३४-३प ] [ ४८१

सामायिक–शिक्षाव्रतना पांच अतिचार

योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि।। ३३।।

अर्थः– [मन वचन काय) योग दुष्प्रणिधान] मन संबंधी परिणामोनी

अन्यथा प्रवृत्ति करवी, वचन संबंधी परिणामोनी अन्यथा प्रवृत्ति करवी, काया संबंधी परिणामोनी अन्यथा प्रवृत्ति करवी, [अनादर] सामायिक प्रत्ये उत्साहरहित थवुं अने [स्मृति अनुपस्थानानि] एकाग्रताना अभावने लीधे सामायिकना पाठ वगेरे भूली जवा-ए पांच सामायिक-शिक्षाव्रतना अतिचारो छे.

नोंधः– सूत्रमां ‘योगदुष्प्रणिधान’ शब्द छे तेने मन, वचन अने काया ए त्रणेमां लागु

पाडीने ते त्रण प्रकारने त्रण अतिचार गणवामां आव्या छे.

प्रौषध उपवास–शिक्षाव्रतना पांच अतिचार
अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादर–
स्मृत्यनुपस्थानानि।। ३४।।
अर्थः– [अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित] जोया विनानी अने शोध्या विनानी

जमीनमां [उत्सर्ग] मळ-मूत्रादिनुं क्षेपण करवुं, [आदान] पूजन वगेरेनां उपकरणो लेवां, [संस्तर उपक्रमण] वस्त्र, चटाई वगेरे बिछाववी, [अनादर] भूख वगेरेथी व्याकुळ थई आवश्यक धर्मकार्यो उत्साहरहित थईने करवां अने [स्मृति अनुपस्थानानि] आवश्यक धर्मकार्यो भूली जवां-ए पांच प्रौषधोपवास- शिक्षाव्रतना अतिचारो छे. ।। ३४।।

उपभोगपरिभोगपरिणाम–शिक्षाव्रतना पांच अतिचार

सचित्तसंबंधसंमिश्राभिषवदुःपक्काहाराः।। ३५।।

अर्थः– [सचित्त] सचित्त-जीववाळां (काचां फळ वगेरे) पदार्थो [संबंध]

सचित्त पदार्थनी साथे संबंधवाळा पदार्थो, [संमिश्र] सचित्त पदार्थनी साथे मळेला पदार्थो, [अभिषव] गरिष्ट पदार्थो अने [दुःपक्व] दुःपक्व अर्थात् अर्ध पाकेल के माठी रीते पाकेल पदार्थो-[आहाराः] तेमनो आहार करवो-ए पांच उपभोग परिभोग शिक्षाव्रतना अतिचारो छे.


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४८२ ] [ मोक्षशास्त्र

टीका

भोग–जे वस्तु एक ज वखत वपराय ते भोग, जेम के अन्न; तेने परिभोग पण कहेवाय छे.

उपभोग–जे वस्तु वारंवार वपराय ते उपभोग, जेमके वस्त्र वगेरे. ।। ३प।।
अतिथिसंविभाग–शिक्षाव्रतना पांच अतिचार
सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः।। ३६।।
अर्थः– [सचित्तनिक्षेप] पत्र-पान वगेरे सचित्त वस्तुमां राखीने भोजन देवुं,

[अपिधान] सचित्त वस्तुथी ढांकेल भोजन देवुं, [परव्यपदेश] बीजा दातारनी वस्तुने देवी, [मात्सर्य] अनादरपूर्वक देवुं अथवा बीजा दातारनी ईर्षापूर्वक देवुं अने [कालातिक्रमाः] योग्यकाळनुं उल्लंघन करीने देवुं-ए पांच अतिथिसंविभाग- शिक्षाव्रतना अतिचारो छे.

आ रीते चार शिक्षाव्रतना अतिचारो कह्या. ।। ३६।।
सल्लेखनाना पांच अतिचार
जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि।। ३७।।
अर्थः– सल्लेखना धारण कर्या पछी [जीवितमरणआशंसा] जीववानी इच्छा

करवी के वेदनाथी व्याकुळ थईने शीघ्र मरवानी इच्छा करवी, [मित्रानुराग] अनुराग वडे मित्रोनुं स्मरण करवुं, [सुखानुबंध] पूर्वे भोगवेला सुखोनुं स्मरण करवुं अने [निदानानि] निदान करवुं एटले के भविष्यमां विषयो मळे एवी इच्छा करवी-ए पांच सल्लेखना व्रतना अतिचारो छे.

आ प्रमाणे श्रावकना अतिचारोनुं वर्णन पूरुं थयुं. उपर कह्या प्रमाणे सम्यग्दर्शनना प, बार व्रतना ६० अने सल्लेखनाना प ए रीते कुल ७० अतिचारोनो जे त्याग करे ते ज निर्दोष व्रती छे. ।। ३७।।

दाननुं स्वरूप
अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्।। ३८।।
अर्थः– [अनुग्रहअर्थं] अनुग्रहना हेतुथी [स्वस्य अतिसर्गः] धन वगेरे

पोतानी वस्तुनो त्याग करवो ते [दानम्] दान छे.


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अ. ७ सूत्र ३८ ] [ ४८३

टीका

१. अनुग्रह–पोताना आत्माने अनुसरीने थतो उपकारनो लाभ-एम अनुग्रहनो अर्थ छे. पोताना आत्माने लाभ थाय तेवा भावथी करवामां आवतुं कोई कार्य बीजाने लाभमां निमित्त थाय त्यारे ते परनो अनुग्रह थयो एम कहेवाय छे; खरेखर अनुग्रह स्वनो छे, पर तो निमित्तमात्र छे.

धन वगेरेना त्यागथी खरी रीते पोताने शुभभावनो अनुग्रह छे, केम के तेथी अशुभभाव अटके छे अने पोताना लोभकषायनो अंशे त्याग थाय छे. जो ते वस्तु (धन वगेरे) बीजाने लाभनुं निमित्त थाय तो बीजाने अनुग्रह (उपकार) थयो एम उपचारथी कहेवाय छे, पण खरेखर बीजाने जे उपकार थयो छे ते तेना भावनो थयो छे. तेणे पोतानी आकुळता मंद करी तेथी तेने उपकार थयो, पण जो आकुळता मंद न करे अने नाराजी करे अथवा तो लोलुपता करी आकुळता वधारे तो तेने उपकार थाय नहि. दरेक जीवने पोताना भावनो उपकार थाय छे. परद्रव्यथी के पर मनुष्यथी कोई जीवने उपकार थतो नथी.

२. श्री मुनिराजने दान आपवाना अनुसंधानमां आ सूत्र कहेवायुं छे. मुनिने आहारनुं अने धर्मना उपकरणोनुं दान भक्तिभावपूर्वक आपवामां आवे छे. दान देवामां पोतानो अनुग्रह (-उपकार) तो ए छे के पोताने अशुभ राग टळीने शुभ थाय छे अने धर्मानुराग वधे छे; अने परनो अनुग्रह ए छे के दान लेनारा मुनिने सम्यग्ज्ञान वगेरे गुणोनी वृद्धिनुं निमित्त थाय छे. कोई जीव वडे परनो उपकार थयो एम कहेवुं ते कथन मात्र छे.

३. आ वात लक्षमां राखवी के आ दान शुभरागरूप छे, तेनाथी पुण्यनो बंध थाय छे तेथी ते धर्म नथी; पोताने पोताना शुद्धस्वभावनुं दान ते ज धर्म छे. जेवो शुद्धस्वभाव छे तेवी शुद्धता पर्यायमां प्रगट करवी तेनुं नाम शुद्धस्वभावनुं दान छे.

बीजाओ द्वारा पोतानी ख्याति, लाभ के पूजा थाय एवा हेतुथी जे कांई आपवामां आवे ते दान नथी, पण पोताना आत्मकल्याण माटे तथा पात्र जीवोने रत्नत्रयीनी प्राप्ति माटे, रक्षा माटे के पुष्टि माटे शुभभाव पूर्वक जे कांई देवामां आवे ते दान छे; आमां शुभभाव ते दान छे, वस्तु देवा-लेवानी क्रिया ते तो परद्रव्यनी क्रिया छे.

४. जेनाथी पोताने तथा परने आत्मधर्मनी वृद्धि थाय एवुं दान ते गृहस्थोनुं एक मुख्य व्रत छे; ए व्रतने अतिथिसंविभाग व्रत कहेवाय छे. श्रावकोए प्रतिदिन करवा योग्य छ कर्तव्योमां पण दाननो समावेश थाय छे.


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४८४ ] [ मोक्षशास्त्र

प. आ अधिकारमां शुभास्रवनुं वर्णन छे. सम्यग्द्रष्टि जीवोने शुद्धताना लक्षे शुभभावरूप दान केवुं होय ते आ सूत्रमां जणाव्युं छे. शुभभावथी धर्म थाय एम सम्यग्द्रष्टिओ कदी मानता नथी, पण पोताना स्वरूपमां स्थिर रही शकता नथी तेथी शुद्धताना लक्षे अशुभभाव टाळीने शुभभाव करे छे. त्यां जेटलो अशुभराग टळ्‌यो तेटलो लाभ छे एम समजे अने जे शुभराग रह्यो ते आस्रव छे एम समजीने तेने पण टाळवानी भावना वर्ते छे; तेथी तेमने अंशे शुद्धतानो लाभ थाय छे. मिथ्याद्रष्टि जीवो आ प्रकारनुं दान करी शके नहि; सम्यग्द्रष्टिना जेवी दाननी बाह्य क्रिया तेओ करे पण आ सूत्रमां कहेलुं ‘दान’ तेओने लागु पडे नहि केम के शुद्धतानुं तेने भान नथी अने शुभने ते पोतानुं स्वरूप माने छे. आ सूत्रमां कहेलुं दान सम्यग्द्रष्टिने ज लागु पडे छे.

६. आ सूत्रनो सामान्य अर्थ करवामां आवे तो ते बधा जीवोने लागु पडे; आहार, पात्र, धर्म-उपकरण के धन वगेरे आपवानी जे बाह्य क्रिया ते दान नथी परंतु ते वखते जीवनो शुभभाव ते दान छे. श्री पूज्यपादस्वामी सर्वार्थसिद्धिमां आ सूत्रनुं मथाळुं बांधतां दाननी व्याख्या नीचे प्रमाणे करे छे.

‘शीलविधानमां अर्थात् शिक्षाव्रतोना वर्णनमां अतिथिसंविभागव्रत कहेवामां आव्युं, पण तेमां दाननुं लक्षण जाणवामां न आव्युं माटे ते कहेवुं जोईए, तेथी आचार्य दानना लक्षणनुं सूत्र कहे छे.’

उपरना कथनथी जणाय छे के आ सूत्रमां कहेलुं दान सम्यग्द्रष्टि जीवना शुभभावरूप छे.

७. आ सूत्रमां वापरेल स्व शब्दनो अर्थ धन थाय छे अने धननो अर्थ

‘पोतानी मालिकीनी वस्तु’ एम थाय छे.

८. करुणा दान

करुणादान सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टि बन्ने करी शके छे, पण तेओना भावमां महान अंतर होय छे. आ दानना चार प्रकार छे-१. आहारदान, र. औषधिदान, ३. अभयदान अने ४. ज्ञानदान. जरूरीआतवाळा जैन, अजैन, मनुष्य के तिर्यंच वगेरे कोईपण प्राणी प्रत्ये अनुकंपाबुद्धिथी आ दान थई शके छे. मुनिने जे आहारदान देवामां आवे छे ते करुणादान नथी पण भक्तिदान छे. पोताथी महान गुणो धरावनार होय तेमना प्रत्ये भक्तिदान होय छे. आ संबंधमां विशेष हकीकत हवे पछीना सूत्रनी टीकामां जणावी छे. ।। ३८।।


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अ. ७ सूत्र ३९ ] [ ४८प

दानमां विशेषता
विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः।। ३९।।
अर्थः– [विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्] विधि, द्रव्य, दातृ अने पात्रनी

विशेषताथी [तत् विशेषः] दानमां विशेषता होय छे.

टीका
१. विधिविशेषः– नवधा भक्तिना क्रमने विधिविशेष कहे छे.
द्रव्यविशेषः– तप, स्वाध्याय वगेरेनी वृद्धिमां कारण एवा आहारादिने द्रव्य
विशेष कहे छे.
दातृविशेषः– जे दातार श्रद्धा वगेरे सात गुणो सहित होय तेने दातृविशेष
कहे छे. (दातृ=दातार)
पात्रविशेषः– जे सम्यक्चारित्र वगेरे गुणोसहित होय एवा मुनि वगेरेने
पात्रविशेष कहे छे.
र. नवधा भक्तिनुं स्वरूप
(१) संग्रह (–प्रतिग्रहण)–‘पधारो, पधारो, अहीं शुद्ध आहार-पाणी छे’
इत्यादि शब्दो वडे भक्ति-सत्कारपूर्वक विनयथी मुनिने
आवकार आपवो ते.

(र) उच्चस्थान–तेमने ऊंचा स्थान उपर बेसाडवा ते. (३) पादोदक–गरम करेला शुद्ध जळ वडे तेमना चरण धोवा. (४) अर्चन–तेमनी भक्ति-पूजा करवी. (प) प्रणाम– तेमने नमस्कार करवो. (६–७–८) मनःशुद्धि वचनशुद्धि अने कायशुद्धि (९) एषणाशुद्धि आहारनी शुद्धि आ नवे क्रियाओ क्रमसर होवी जोईए; आवो क्रम न होय तो मुनि आहार लई शके नहि.

प्रश्नः– स्त्री ए प्रमाणे नवधा भक्तिवडे मुनिने आहार आपे के नहि?
उत्तरः– हा, स्त्रीनो करेलो अने स्त्रीना हाथथी पण साधुओ आहार ले छे.