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संयमना भेदोमां संयमने गोतवाथी संयमनी अवस्था प्रगटे नहि, पण ‘हुं आत्मा तो अभेदपणे वीतराग- स्वरूप छुं, अनंत गुणोनो अभेद पिंड छुं’ एवी अभेद द्रष्टिना जोरे (स्थिरता वधतां) संयमादि वीतरागी पर्याय प्रगटे छे. ‘असंयमनो त्याग करुं तो संयम प्रगटे’ एवा विकल्पथी संयम प्रगटे नहि पण मारो स्वभाव ज कायम समस्वरूप छे, वीतरागस्वरूप छे — एम तेना उपर द्रष्टि मूकवाथी (स्थिरता थतां) संयम प्रगटे छे. गुण-गुणीनो भेद पण वस्तुद्रष्टिनो विषय नथी. वास्तविक रीते तो अनंत गुणोना अभेद पिंडरूप जे निज वस्तु ते ज द्रष्टिनो विषय छे. २४८.
चंद्र तो पोते सोळ कळाए पूर्ण छे, तेने नित्य- राहु आडो होय छे; राहु जेम खसतो जाय तेम चंद्रनी एक एक कळा ऊघडती जाय छे. चंद्रमां बीज, त्रीज, चोथ वगेरे कळाना भेद पोताथी नथी पण राहुना निमित्तनी अपेक्षाथी छे. ए रीते ज्ञानस्वरूप आत्मा चंद्र समान आखो परिपूर्ण छे, तेमां पांचमा, छठ्ठा, सातमा गुणस्थानना भेदनी जे कळाओ छे ते अखंड आत्मानी अपेक्षाए नथी, पण निमित्त एवो जे कर्मरूप राहु तेनी अपेक्षाए छे. पुरुषार्थ वडे ते खसतो जाय छे तेथी संयमनी कळाना भेद पडे छे, पण
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अभेद आत्मानी अपेक्षाए ते भेद पडता नथी. ते कळाना भेद उपर द्रष्टि नहि राखतां आखा द्रव्य उपर द्रष्टि राखवी ते ज कळा ऊघडवानुं कारण छे. २४९.
नीति ते कपडां समान छे अने धर्म ते दागीना समान छे. जेम कपडां विना दागीना शोभता नथी, तेम नीति विना धर्म शोभा पामतो नथी. २५०.
देव-शास्त्र-गुरु एम कहे छे के भाई! तारो महिमा तने आवे तेमां अमारो महिमा आवी जाय छे. तने तारो महिमा आवतो नथी तो तने अमारो पण महिमा खरेखर आव्यो नथी, अमने तें ओळख्यां नथी. २५१.
तपनी व्याख्या ‘रोटला न खावा’ ते नथी; पण आत्मा ज्ञानानंदमय एक स्वतंत्र पदार्थ छे एवो निर्णय थया पछी अंतरमां एकाग्रता थतां जे उज्ज्वळताना परिणाम थाय छे तेने भगवान तप कहे छे; अने ते वखते जे विकल्प होय तेने व्यवहारे तप कहेवाय छे. आत्मानी लीनतामां विशेष उग्रता थाय छे
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ते धर्मध्यान अने शुकलध्यानरूप तप छे. २५२.
जे ज्ञान साथे आनंद न आवे ते ज्ञान ज नथी, पण अज्ञान छे. २५३.
कोईना आशीर्वादथी कोईनुं भलुं थतुं नथी, कोईना शापथी कोईनुं बूरुं थतुं नथी. सौनां पुण्य-पाप प्रमाणे थाय छे. केटलाक एम माने छे के भक्तामर-स्तोत्र बोलवाथी नागा-भूख्या रहीए नहि; पण एनो अर्थ शुं थयो? — के रोटला, पाणी ने लूगडांना ओशियाळा कोई दिवस मटीए नहि. अरे भाई! आवुं ऊंधुं माग्युं? एना करतां एवो भाव कर के प्रभु! तमारा गुणोनुं मने बहुमान छे, तमारा गुणो मने गोठे छे, एटले के आत्माना गुणो मने गोठे छे, तेथी तमारी भक्ति करुं छुं, स्तुति करुं छुं. २५४.
भरत चक्रवर्ती, रामचंद्रजी, पांडवो वगेरे धर्मात्मा संसारमां हता परंतु तेमने निराळा निज आत्मतत्त्वनुं भान हतुं. बीजाने सुखी-दुःखी करवुं, मारवुं-जिवाडवुं ते आत्माना हाथमां नथी एम तेओ बराबर समजे
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छे तोपण अस्थिरता छे तेथी लडाईना प्रसंगमां जोडावा वगेरेना पापभाव अने बीजाने सुखी करवाना, जिवाडवाना तथा भक्ति वगेरेना पुण्यभाव आवे छे. परंतु तेओ समजे छे के आ भावो पुरुषार्थनी नबळाईथी थाय छे. स्वरूपमां लीनतानो पुरुषार्थ करी, अवशिष्ट रागने टाळीने मोक्षपर्याय प्रगट करीशुं — एवी भावनानुं बळ तेमने निरंतर होय छे. २५५.
दरेक द्रव्य स्वतंत्र छे, कोई कोईनुं कांई करी शकतुं नथी. स्वतंत्रतानी आ वात समजवामां मोंघी लागे, परंतु जेटलो काळ संसारमां गयो तेटलो काळ मुक्ति प्रगट करवामां न जोईए माटे सत्य ते सहेलुं छे. सत्य जो मोंघुं होय तो मुक्ति थाय कोनी? माटे जेने आत्महित करवुं छे तेने सत्य नजीक ज छे. २५६.
‘आत्मा ज आनंदनुं धाम छे, तेमां अंतर्मुख थये ज सुख छे’ – आवी वाणीना रणकार ज्यां काने पडे त्यां आत्मार्थी जीवनो आत्मा अंदरथी झणझणी ऊठे छे के वाह! आ भवरहित वीतरागी पुरुषनी वाणी! आत्माना परम शान्तरसने बतावनारी आ वाणी
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खरेखर अद्भुत छे, अश्रुतपूर्व छे. वीतरागी संतोनी वाणी परम अमृत छे. भवरोगनो नाश करनार ए अमोघ औषध छे. २५७.
जे निज शुद्ध ज्ञायकवस्तुमां मिथ्यात्व के रागादि विभावो छे ज नहि तेमां रुचिना परिणाम तन्मय थतां मिथ्यात्व टळे छे; बीजा कोई उपायथी मिथ्यात्व टळे नहि. गुणभेदनो विकल्प पण शुं शुद्धवस्तुमां छे? — नथी; तो ते शुद्धवस्तुनी प्रतीति गुणभेदना विकल्पनी अपेक्षा राखती नथी. शुद्धवस्तुमां विकल्प नथी, ने विकल्पमां शुद्धवस्तु नथी. बन्नेनी भिन्नता जाणतां परिणति विकल्पोथी खसीने स्वभावमां आवी त्यां सम्यक्त्व थयुं ने मिथ्यात्व टळ्युं. — आ, मिथ्यात्व टाळवानी रीत छे. ते माटे, अंदर चिदानंदस्वभावनो अनंतो महिमा भासीने तेनो अनंतो रस आववो जोईए, एम करवाथी परिणाम तेमां तन्मय थाय छे. २५८.
हे भाई! अनंत गुणोनो वैभव जेमां वसेलो छे एवी चैतन्यवस्तु तुं पोते छो. अरे चैतन्यराजा! तारा अचिंत्य वैभवने तें कदी जाण्यो – जोयो – अनुभव्यो नथी, तारा स्वघरमां तें वास कर्यो नथी. स्वघरने भूली
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रागादि विभावने पोतानुं घर मानीने तेमां तुं वस्यो छो. पण श्रीगुरु तने स्वघरमां वास्तु करावे छे के हे जीव! तुं तारा आत्माने चैतन्यस्वरूप जाणीने तेनी सेवा कर. तेनाथी तारुं कल्याण थशे. अहा! स्वघरमां आववानो उमंग कोने न आवे? २५९.
ज्ञानगुणने प्रधान करीने आत्माने ‘ज्ञायक’ कहेवाय छे. ज्ञानगुण पोते सविकल्प छे, एटले के ते पोताने अने परने जाणनार छे; अने ज्ञान सिवाय बीजा कोई गुणमां स्व-परने जाणवानुं सामर्थ्य नथी, जेथी ज्ञान सिवाय बधा गुणो निर्विकल्प छे. २६०.
तत्त्व समजवामां, तेना विचारमां जे शुभभाव सहेजे आवे छे तेवा ऊंचा शुभभाव क्रियाकांडमां नथी. अरे! एक कलाक ध्यान राखी तत्त्वने सांभळे तोपण शुभभावनी टंकशाळ पडे अने शुभभावनी सामायिक थई जाय; तो पछी जो चैतन्यनी जागृति लावी निर्णय करे तो तेनी तो वात ज शी? तत्त्वज्ञाननो विरोध न करे अने ज्ञानीने शुं कहेवुं छे ते सांभळे तो तेमां, शुभ रागनुं जे पुण्य बंधाय तेना करतां, परमार्थना लक्ष सहित सांभळनारने उत्कृष्ट पुण्यना शुभभाव थई
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जाय छे; पण ते पुण्यनी किंमत शी? पुण्यथी मात्र सांभळवानुं मळे पण तेमां जातने भेळवीने सत्यनो निर्णय न करे तो थोथां छे. २६१.
आत्मामां कर्मनी ‘नास्ति’ छे. बन्ने स्वतंत्र चीज छे. जे पोतामां नथी ते पोताने नुकसान करी शके नहि. पोते स्वलक्षे विकार करी शके नहि, पण विकारमां निमित्तरूप बीजी वस्तुनी हाजरी होय छे. कोईनी अवस्था कोईना कारणे थती नथी. ज्यां जीवने विकारी भाव करवानी वर्तमान योग्यता होय त्यां निमित्तरूपे थनार कर्म हाजर ज होय. २६२.
वीतरागवाणीरूपी समुद्रना मंथनथी जेणे शुद्ध चिद्रूप-रत्न प्राप्त कर्युं छे एवो मुमुक्षु चैतन्यप्राप्तिना परम उल्लासथी कहे छे के अहो! मने सर्वोत्कृष्ट चैतन्यरत्न मळ्युं, हवे मारे चैतन्यथी अन्य बीजुं कोई कार्य नथी, बीजुं कोई वाच्य नथी, बीजुं कोई ध्येय नथी, बीजुं कांई श्रवणयोग्य नथी, बीजुं कांई प्राप्त करवा जेवुं नथी, बीजुं कोई श्रेय नथी, बीजुं कोई आदेय नथी. २६३.
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मोह, राग, द्वेष वगेरे जे विकारी अवस्था आत्मानी पर्यायमां उत्पन्न थाय ते जडनी ज अवस्था छे, कारण के जड तरफना वलणवाळो भाव छे माटे तेने जडनो कह्यो छे. ते भाव आत्मानो स्वभाव नथी अने तेनी उत्पत्ति मूळ आत्मामांथी थती नथी माटे तेने जड कह्यो छे. २६४.
अमे कांई पण बीजानुं करी शकीए एम माननारा चोराशीना अवतारमां रखडवाना छे. आत्मा तो एकलो ज्ञाताद्रष्टा छे; तेनुं ज कार्य हुं करी शकुं तेम न मान्युं अने परवस्तुनुं हुं करी शकुं छुं एम जेणे मान्युं तेने पोताना चैतन्यनी जागृति दबाई गई माटे ते अपेक्षाए ते जड छे. आथी कांई एम नथी समजवानुं के चैतन्य फीटीने जडद्रव्य थई जाय छे. जो आत्मा जड थई जतो होय तो ‘तुं समज, आत्माने ओळख’ एम संबोधी पण न शकाय. ए तो घणी वार कहीए छीए के आबाळगोपाळ, राजाथी रंक – बधा आत्मा प्रभु छे, बधा आत्मा परिपूर्ण भगवान छे, बधा आत्मा वर्तमानमां अनंत गुणोथी भर्या छे; पण तेनुं भान न करे, ओळखे नहि अने जडना कर्तव्यने पोतानुं कर्तव्य माने, जडना
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स्वरूपने पोतानुं स्वरूप माने, तेनी द्रष्टिमां तेने जड ज भासे छे माटे तेने जड कह्यो छे. २६५.
ज्ञान आत्मानो स्वभाव छे. ज्ञानमां काळभेद नथी, ज्ञानने वजन नथी अने ज्ञानमां विकार नथी.
पचास वर्ष पहेलांनी वात याद करवी होय तो ते संभारवा ज्ञानमां क्रम पाडवो पडतो नथी. जेम कापडना पचास ताका उपराउपर खडक्या होय ने तेमांथी नीचेनो ताको काढवो होय तो उपरना ताका फेरव्या पछी ज नीचेनो ताको नीकळे, तेम ज्ञानमां पचास वर्ष पहेलांनी वात याद करवा माटे वचलां ओगणपचास वर्षनी वातने संभारवी पडती नथी. जे रीते गई कालनी वात याद आवे ते ज रीते पचास वर्ष पहेलांनी वात पण झट याद आवी शके छे. माटे ज्ञानमां काळभेद पडतो नथी; काळने खाई जाय एवो अरूपी ज्ञानमूर्ति आत्मा छे.
ज्ञान अरूपी छे तेथी ज्ञान गमे तेटलुं वधी जाय तोपण तेनुं वजन लागतुं नथी. घणां पुस्तको जाण्यां तेथी ज्ञानमां भार वधी जतो नथी. ए रीते ज्ञानने वजन नथी माटे ते अरूपी छे.
ज्ञान शुद्ध अविकारी छे; ज्ञानमां विकार नथी. जुवानीमां काम-क्रोधादि विकारी भावोथी भरेली, काळा
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कोयला जेवी जिंदगी गाळी होय, पण पछी ज्यारे तेने ज्ञानमां याद करे त्यारे ज्ञान साथे ते विकार थई आवतो नथी; तेथी ज्ञान पोते शुद्ध अविकारी छे. जो विकारी होय तो पूर्वना विकारनुं ज्ञान करतां ते विकार पण साथे थई आववो जोईए, पण तेम थतुं नथी. आत्मा पोते शुद्ध-अवस्थामां रहीने विकारनुं ज्ञान करी शके छे. अवस्थामां परना अवलंबनथी क्षणिक विकार थाय छे तेने अविकारी स्वभावना भान वडे सर्वथा तोडी शकाय छे. नाश थई शके ते आत्मानो स्वभाव होय नहि; तेथी विकार आत्मानो स्वभाव नथी. २६६.
वीतरागी पर्याय ए ज निश्चय मोक्षमार्ग — साचो धर्म — छे. जोईने चालवुं, भाषा मृदु बोलवी, ते खरेखर समिति नथी. शास्त्रमां कथन आवे के मुनिए धोंसराप्रमाण जोईने चालवुं वगेरे. तो तेवो उपदेश केम कर्यो? तेनुं समाधान ए छे के व्यवहार विना परमार्थ समजावी शकातो नथी. ‘स्वस्ति’ शब्दनो अर्थ म्लेच्छ न समजी शके, पण ‘स्वस्ति’नो अर्थ तेनी भाषामां कहे के ‘तारुं अविनाशी कल्याण थाओ’ तो ते जीव समजी शके छे. आत्मामां दर्शन, ज्ञान, चारित्र
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एवा भेद पाडीने समजावे छे पण ते भेद कहेवामात्र छे; आत्मामां खरेखर एवा भेद नथी, आत्मा तो अभेद छे. वळी व्यवहार अंगीकार कराववा व्यवहार कहेता नथी. व्यवहार विना परमार्थनो उपदेश अशक्य छे तेथी व्यवहारनो उपदेश छे. समयसारमां श्रीमद्- भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के — जह णवि सक्क मणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं ।
जेम अनार्यने — म्लेच्छने म्लेच्छभाषा विना अर्थ ग्रहण कराववानुं शक्य नथी, तेम व्यवहार विना परमार्थनो उपदेश अशक्य छे. तेथी व्यवहारनो उपदेश छे. निश्चयने अंगीकार कराववा माटे व्यवहार वडे उपदेश देवामां आवे छे, परंतु व्यवहार छे ते अंगीकार करवायोग्य नथी. २६७.
आत्मा तद्दन ज्ञायक छे; ते स्वभावनुं न रुचवुं, न गोठवुं, तेनुं नाम क्रोध छे. ‘अखंड चैतन्यस्वभाव ते हुं नहि’ एम स्वभावनो अणगमो — स्वभाव न गोठे — ते अनंतानुबंधी क्रोध छे. वस्तु अखंड छे, बधा भंग-भेद अजीवना संबंधे देखाय छे. द्रष्टिमां ते अखंड स्वभावनुं पोषण न थवुं ते क्रोध छे; पर पदार्थ प्रत्ये
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अहंबुद्धि ते अनंतानुबंधी मान छे; वस्तुनो स्वभाव जेवो छे तेवो नहि मानतां आड मारीने बीजी रीते खतववुं तेनुं नाम अनंतानुबंधी माया छे; स्वभावनी भावना चूकीने विकारनी इच्छा करवी ते अनंतानुबंधी लोभ छे. २६८.
भरत चक्रवर्ती अने बाहुबली बन्ने भाईने लडाई थई. साधारणने तो एवुं लागे के सम्यग्ज्ञानी, वळी बन्ने भाई, वळी ए ज भवे बन्ने मोक्ष जवाना ने आ शुं? परंतु लडती वखते पण भान छे के हुं आ बधाथी भिन्न छुं. ते लडाईना ज्ञाता छे. जे क्रोध थाय छे ते क्रोधना पण ज्ञाता छे. पोताना शुद्ध, पवित्र आनंदघनस्वभावनुं भान वर्ते छे, परंतु अस्थिरता छे तेथी लडाईमां ऊभा छे. भरत चक्रवर्ती जीती शक्या नहि, तेथी छेवटे बाहुबलीजी उपर चक्र मूक्युं. ए वखते बाहुबलीजीने वैराग्य आव्यो के धिक्कार छे आ राजने! अरे! आ जीवनमां राजने माटे आ शुं? ज्ञानी पुण्यथी पण राजी नथी अने पुण्यनां फळथी पण राजी नथी. बाहुबलीजी कहे छे के हुं चिदानंद आत्मा, परथी भिन्न छुं, एने आ न होय, आ न शोभे! धिक्कार छे आ राजने! एम वैराग्य आवतां मुनिपणुं
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लीधुं. मींदडी जे मोढेथी पोताना बच्चाने पकडे ते ज मोढेथी उंदरने पकडे पण ‘पकड पकडमें फेर है,’ तेम ज्ञानी ने अज्ञानीनी क्रिया एक सरखी देखाय पण भावमां आंतरा होय छे. २६९.
स्त्री, पुत्र, पैसा आदिमां रच्या-पच्या रहेवुं ए तो झेरीलो स्वाद छे, सर्पनो मोटो राफडो छे; पण शुभ भावमां आववुं ते पण संसार छे. परम पुरुषार्थी महा- ज्ञानीओ अंदरमां गुम थया ते बहार न आव्या. २७०.
ज्ञानीने पण आकरा रोग आवे, इन्द्रियो मोळी पडी जाय, बहारथी इन्द्रियो काम न करे, बहारमां बेसूध जेवुं लागे, पण अंदरमां बेसूध नथी. २७१.
मुनिने कर्मप्रक्रम होतो नथी — मुनि कोई काम माथे लेता नथी. ‘पाठशाळानुं ध्यान राखवुं पडशे; पैसा उघराववा माटे तमारे जवुं पडशे; तीर्थ माटे पैसा उघराववा पडशे.’ — आवां कोई पण काम मुनि माथे लेता ज नथी. कोई पण प्रकारनो बोजो मुनि माथे राखता ज नथी. २७२.
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संयोगनुं लक्ष छोडी दे ने निर्विकल्प एकरूप वस्तु छे तेनो आश्रय ले. ‘वर्तमानमां त्रिकाळी ज्ञायक ते हुं छुं’ एम आश्रय कर. गुण-गुणीना भेदनुं पण लक्ष छोडीने एकरूप गुणीनी द्रष्टि कर. तने समता थशे, आनंद थशे, दुःखनो नाश थशे. एक चैतन्यवस्तु ध्रुव छे, तेमां द्रष्टि देवाथी तने मुक्तिनो मार्ग प्रगट थशे. अभेद चीज के जेमां गुण-गुणीना भेदनो पण अभाव छे त्यां जा, तने धर्म थशे, रागथी ने दुःखथी छूटवानो पंथ तने हाथ आवशे. २७३.
पं० भागचंदजी कृत ‘सत्तास्वरूप’मां अर्हंतनुं स्वरूप जाणीने गृहीत मिथ्यात्व टाळवानुं स्वरूप बहु सारी रीते समजावेल छे. परमार्थतत्त्वना विरोधी एवां कुदेव, कुगुरु अने कुशास्त्रने ठीक मानवां ते गृहीत मिथ्यात्व छे. हुं परनो कर्ता छुं, (कर्मथी) रोकायेलो छुं, परथी जुदो — स्वतंत्र नथी, शुभरागथी मने गुण थाय छे एवी जे ऊंधी मान्यता अनादिथी छे ते अगृहीत मिथ्यात्व अथवा निश्चयमिथ्यात्व छे. ते निश्चयमिथ्यात्व टाळवा पहेलां, जे गृहीत मिथ्यात्व अथवा व्यवहार- मिथ्यात्व छे ते टाळवुं जोईए. २७४.
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स्वानुभूति थतां जीवने केवो साक्षात्कार थाय? स्वानुभूति थतां, अनाकुळ-आह्लादमय, एक, आखाय विश्वनी उपर तरतो विज्ञानघन परमपदार्थ — परमात्मा अनुभवमां आवे छे. आवा अनुभव विना आत्मा सम्यक्पणे देखातो — श्रद्धातो ज नथी, तेथी स्वानुभूति विना सम्यग्दर्शननी — धर्मनी शरूआत ज थती नथी.
आवी स्वानुभूति प्राप्त करवा जीवे शुं करवुं? स्वानुभूतिनी प्राप्ति माटे ज्ञानस्वभावी आत्मानो गमे तेम करीने पण द्रढ निर्णय करवो. ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय द्रढ करवामां सहायभूत तत्त्वज्ञाननो — द्रव्योनुं स्वयंसिद्ध सत्पणुं ने स्वतंत्रता, द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, नव तत्त्वनुं साचुं स्वरूप, जीव अने शरीरनी तद्दन भिन्नभिन्न क्रियाओ, पुण्य अने धर्मना लक्षणभेद, निश्चय-व्यवहार इत्यादि अनेक विषयोना साचा बोधनो — अभ्यास करवो. तीर्थंकर भगवंतोए कहेलां आवां अनेक प्रयोजनभूत सत्योना अभ्यासनी साथे साथे सर्व तत्त्वज्ञाननो शिरमोर — मुगटमणि जे शुद्धद्रव्यसामान्य अर्थात् परम पारिणामिकभाव एटले के ज्ञायकस्वभावी शुद्धात्मद्रव्यसामान्य — जे स्वानुभूतिनो आधार छे, सम्यग्दर्शननो आश्रय छे, मोक्षमार्गनुं आलंबन छे, सर्व शुद्धभावोनो नाथ छे — तेनो दिव्य महिमा हृदयमां सर्वाधिकपणे अंकित करवा योग्य छे. ते
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निज शुद्धात्मद्रव्यसामान्यनो आश्रय करवाथी ज अतीन्द्रिय आनंदमय स्वानुभूति प्राप्त थाय छे. २७५.
हुं आत्मा शुद्ध छुं, अशुद्ध छुं, बद्ध छुं, मुक्त छुं, नित्य छुं, अनित्य छुं, एक छुं, अनेक छुं इत्यादि प्रकारो वडे जेणे प्रथम श्रुतज्ञान वडे ज्ञानस्वभावी निज आत्मानो निर्णय कर्यो छे एवा जीवने, तत्त्वविचारना रागनी जे वृत्ति ऊठे छे ते पण दुःखदायक छे, आकुळतारूप छे. तेवा अनेक प्रकारना श्रुतज्ञानना भावने मर्यादामां लावतो, हुं आवो छुं ने तेवो छुं — एवा विचारने पुरुषार्थ द्वारा रोकतो, पर तरफ वळता उपयोगने स्व तरफ खेंचतो, नयपक्षना आलंबनथी थतो जे रागनो विकल्प तेने आत्माना स्वभावरसना भान द्वारा टाळतो, श्रुतज्ञानने पण जे आत्मसन्मुख करे छे ते, ते वखते अत्यंत विकल्परहित थईने तत्काळ निजरसथी प्रगट थता, आदि-मध्य-अन्त रहित आत्माना परमानंदस्वरूप अमृतरसने वेदे छे. २७६.
जीव परद्रव्यनी क्रिया तो करतो नथी, परंतु विकारकाळे पण स्वभाव-अपेक्षाए निर्विकार रहे छे,
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अपूर्ण दशा वखते पण परिपूर्ण रहे छे, सदाशुद्ध छे, कृतकृत्य भगवान छे. जेम रंगित दशा वखते स्फटिक- मणिना विद्यमान निर्मळ स्वभावनुं भान थई शके छे, तेम विकारी, अधूरी दशा वखते पण जीवना विद्यमान निर्विकारी, परिपूर्ण स्वभावनुं भान थई शके छे. आवा शुद्धस्वभावना अनुभव विना मोक्षमार्गनो प्रारंभ पण थतो नथी, मुनिपणुं पण नरकादिनां दुःखोना डरथी के बीजा कोई हेतुए पळाय छे. ‘हुं कृतकृत्य छुं’ परिपूर्ण छुं, सहजानंद छुं, मारे कांई जोईतुं नथी’ एवी परम उपेक्षारूप, सहज उदासीनतारूप, स्वाभाविक तटस्थतारूप मुनिपणुं द्रव्यस्वभावना अनुभव विना कदी आवतुं नथी. आवा शुद्धद्रव्यस्वभावना ज्ञायकस्वभावना निर्णयना पुरुषार्थ प्रत्ये, तेनी लगनी प्रत्ये वळवानो प्रयास आत्मार्थीओए — भवभ्रमणथी मूंझायेला मुमुक्षुओए — करवा जेवो छे. २७७.
जेने आत्मानी खरेखरी रुचि जागे तेने चोवीशे कलाक एनुं ज चिंतन, घोलन ने खटक रह्या करे, ऊंघमां पण एनुं ए रटण चाल्या करे. अरे! नरकमां पडेलो नारकी भीषण वेदनामां पड्यो होय ते वखते पण, पूर्वे सत् सांभळ्युं होय तेनुं स्मरण करी, फडाक
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दईने अंदरमां ऊतरी जाय छे; एने प्रतिकूळता नडती ज नथी ने! स्वर्गनो जीव स्वर्गनी अनुकूळतामां पड्यो होय तोपण तेनुं लक्ष छोडी अंदरमां ऊतरी जाय छे. अहीं जराक प्रतिकूळता होय तो ‘अरेरे! मारे आम छे ने तेम छे’ – एम करी करीने अनंत काळ गुमाव्यो. हवे एनुं लक्ष छोडी अंदरमां ऊतरी जा ने! भाई! आ विना बीजो कोई सुखनो मार्ग नथी. २७८.
आत्मचिंतनमां क्यांय गुणभेदनी के रागनी मुख्यता नथी, विकल्पनुं जोर नथी, पण ज्ञानमां परम ज्ञायक- स्वभावना कोई अचिंत्य महिमानुं जोर छे, अने तेना ज जोरे निर्विकल्प थईने मुमुक्षुजीव आत्माने साक्षात् स्वानुभवमां लई ले छे; त्यां कोई विकल्प रहेता नथी. आ रीते भेद-विकल्प वच्चे आवता होवा छतां स्वभावना महिमाना जोरे मुमुक्षुजीव तेने ओळंगी जईने स्वानुभूतिमां पहोंची जाय छे. २७९.
लींडीपीपरनो दाणो कदे नानो अने स्वादे अल्प तीखाशवाळो होवा छतां तेनामां चोसठ पहोरी
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तीखाशनी — पूर्ण तीखाशनी शक्ति सदा भरपूर छे. ए द्रष्टान्ते आत्मा पण कदे शरीरप्रमाण अने भावे अल्प होवा छतां तेनामां परिपूर्ण सर्वज्ञस्वभाव, आनंदस्वभाव भरेलो छे. लींडीपीपरने चोसठ पहोर घूंटवाथी तेनी पर्यायमां जेम पूर्ण तीखाश प्रगट थाय छे, तेम रुचिने अंतर्मुख वाळीने स्वरूपनुं घूंटण करतां करतां आत्मानी पर्यायमां पूर्ण स्वरूप प्रगट थई जाय छे. २८०.
प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र छे. हुं पण एक स्वतंत्र पदार्थ छुं, मने कर्म रोकी शके नहि.
प्रश्नः — महाराज! बे जीवोने १४८ कर्मप्रकारो संबंधी सर्व भेदप्रभेदोनां प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभाग बधुंय बराबर एक सरखुं होय तो ते जीवो उत्तरवर्ती क्षणे सरखा भाव करे के भिन्नभिन्न प्रकारना?
उत्तरः — भिन्न भिन्न प्रकारना.
प्रश्नः — बंने जीवोनी शक्ति तो पूरी छे अने आवरण बराबर सरखां छे, तो पछी भाव भिन्नभिन्न प्रकारना केम करी शके?
उत्तरः — ‘अकारण पारिणामिक द्रव्य छे’; अर्थात् जीव जेनुं कोई कारण नथी एवा भावे स्वतंत्रपणे
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परिणमतुं द्रव्य छे, तेथी तेने पोताना भाव स्वाधीनपणे करवामां खरेखर कोण रोकी शके? ते स्वतंत्रपणे पोतानुं बधुं करी शके छे. २८१.
जेम चणामां मीठाशनी ताकात भरी छे, कचाशने लीधे ते तूरो लागे छे ने वाववाथी ऊगे छे, पण शेकवाथी तेनो मीठो स्वाद प्रगट थाय छे अने ते वाव्यो ऊगतो नथी; तेम आत्मामां मीठाश एटले अतीन्द्रिय आनंदशक्ति भरपूर पडी छे, ते शक्तिने भूलीने ‘शरीर ते हुं, रागादि ते हुं’ एवी अज्ञानरूपी कचाशने लीधे तेने पोताना आनंदनो अनुभव नथी पण आकुळतानो अनुभव छे ने फरी फरी अवतार धारण करे छे, परंतु पोताना स्वरूप सन्मुख थईने तेमां एकाग्रतारूप अग्नि वडे शेकवाथी स्वभावना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे अने पछी तेने अवतार थतो नथी. २८२.
मुनिराजने हालतां-चालतां, खातां-पीतां चैतन्यगोळो छूटो पडी जाय छे ने तेओ अतीन्द्रिय आनंदामृतरसने वेदे छे. ऊंघमां पण तेमने क्षणवार झोलुं आवे छे ने क्षणवार जागे छे; क्षणवार जागे छे त्यारे तेमने