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अर्थः — प्रत्येक वनस्पति पण बे प्रकारनी छे. ते निगोद सहित छे तथा निगोद रहित पण छे. वळी त्रस पण बे प्रकारना छे. बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय तथा चार इन्द्रिय ए त्रण तो विकलत्रय (त्रस) तथा ए ज प्रमाणे पंचेन्द्रिय (त्रस) छे.
भावार्थः — जे वनस्पतिना आश्रये निगोद होय ते तो साधारण छे तेने सप्रतिष्ठित पण कहेवामां आवे छे; तथा जेना आश्रये निगोद नथी तेने प्रत्येक ज कहेवामां आवे छे अने एने ज अप्रतिष्ठित पण कहेवामां आवे छे. वळी बे इन्द्रियदिकने त्रस कहेवामां आवे छे.❃ गोम्मटसारमां कह्युं छे के —
थाय छे तथा जे संमूर्च्छन छे ते वनस्पतिओ सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित बंने प्रकारनी होय छे.
अदरक – हळदी वगेरे वगेरे. कोई वनस्पति अग्रभागथी उत्पन्न थाय छे; जेमके गुलाब. कोई वनस्पतिनी उत्पत्ति पर्वथी थाय छे; जेम के इक्षु – वेंत अदि. कोई वनस्पति कंदथी उत्पन्न थाय छे, जेम के सूरण वगेरे. कोई वनस्पति स्कंधथी उत्पन्न थाय छे; जेम के ढाक वगेरे. घणीखरी वनस्पति बीजथी उत्पन्न थाय छे; जेम के चणा – घउं वगेरे, कोई वनस्पति पृथ्वी-जळ अदिना संबंधथी उत्पन्न थई जाय छे अने ते संमूर्च्छन छे; जेम के घास वगेरे. आ बधी वनस्पति सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित बंने प्रकारनी होय छे.
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हवे पंचेन्द्रियोना भेद कहे छेः —
पंचक्खा वि य तिविहा जलथलआयासगमिणो तिरिया ।
पत्तेयं ते दुविहा मणेण जुत्ता अजुत्ता य ।।१२९।।
पञ्चाक्षाः अपि च त्रिविधाः जलस्थलआकाशगमिनः तिर्यञ्चः ।
प्रत्येकं ते द्विविधा मनसा युक्ताः अयुक्ताः च ।।१२९।।
अर्थः — जळचर, थळचर अने नभचर ए प्रमाणे पंचेन्द्रिय-
करतां समान भंग थाय, जेमां तंतु उत्पन्न न थया होय तथा जेने कापतां पाछी वधी जाय ते सप्रतिष्ठित वनस्पति छे; तेनाथी उलटा प्रकारनी होय ते बधी अप्रतिष्ठित समजवी.
छाल, नवी कुंपल, नस, फूल, फळ तथा बीज तोडतां बराबर समभंगे तूटी जाय ते सप्रतिष्ठित प्रत्येक छे तथा जे बराबर समभंगे न तूटे ते अप्रतिष्ठित प्रत्येक छे.
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तिर्यंचना त्रण प्रकार छे. वळी तेओमां कोई मन सहित संज्ञी पण छे तथा कोई मन रहित असंज्ञी पण छे.
तेना भेद कहे छेः —
अर्थः — ए छ प्रकारना तिर्यंच ते गर्भज पण छे तथा सम्मूर्च्छन पण छे. तेमां जे भोगभूमिना तिर्यंच छे ते गर्भज ज छे तथा थलचर अने नभचर ज छे पण जळचर नथी; अने तेओ संज्ञी ज छे पण असंज्ञी नथी.
हवे अठ्ठाणुं (९८) जीवसमास तथा तिर्यंचोना पंचाशी (८५) भेदो कहे छेः —
होय तेने सप्रतिष्ठितप्रत्येक (अनंत जीवोनुं स्थान) समजवी तथा जेनी छाल पातळी होय तेने अप्रतिष्ठितप्रत्येक जाणवी.
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अर्थःसर्व तिर्यंचोना पंचाशी (८५) भेद छे. त्यां गर्भजना आठ छे, ते पर्याप्त – अपर्याप्तथी सोळ (१६) भेद थया, अने सम्मूर्च्छनना तेवीस भेद छे ते पर्याप्त, अपर्याप्त अने लब्ध्यपर्याप्तथी (गुणतां) ओगणसीतेर (६९) भेद थया. ए प्रमाणे सर्व मळी पंचाशी (८५) भेद छे.
भावार्थः — पूर्वे कहेला कर्मभूमिना गर्भजोना जलचर, थलचर अने नभचर (जीवो) छे; तेना संज्ञी, असंज्ञी भेदथी छ भेद थया. वळी भोगभूमिना थलचरसंज्ञी तथा नभचरसंज्ञी आठे भेद पर्याप्त अने अपर्याप्त भेदथी सोळ भेद थया; सम्मूर्च्छनना पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद अने दरेकना सूक्ष्म तेमज बादर मळी बार (१२) भेद तथा वनस्पतिना सप्रतिष्ठित अने अप्रतिष्ठित ए बंने मळी १४ चौद तो एकेन्द्रियना भेद थया, विकलत्रयना त्रण अने कर्मभूमिना पंचेन्द्रियोना संज्ञिजलचर, असंज्ञिजलचर, संज्ञिथलचर, असंज्ञिथलचर, संज्ञिनभचर तथा असंज्ञिनभचर ए छ भेद, ए प्रमाणे बधा मळी तेवीस भेद थया. ते बधा पर्याप्त, अपर्याप्त अने लब्ध्यपर्याप्त भेद करी गणतां (६९) ओगणसीतेर भेद थया. ए प्रमाणे प्रथमना सोळ अने आ ओगणसीतेर मळी पंचाशी (८५)
हवे मनुष्यना भेद कहे छेः —
अर्थः — आर्यखंडमां, म्लेच्छखंडमां, भोगभूमिमां तथा कुभोगभूमिमां मनुष्य छे. ते चारे (प्रकारना) मनुष्योना पर्याप्त तथा निवृरत्ति-अपर्याप्तथी आठ प्रकार थया.
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अर्थः — सम्मूर्च्छन मनुष्य नियमथी आर्यखंडमां ज होय अने ते लब्ध्यपर्याप्तक ज होय छे. वळी नारकी तथा देवना, पर्याप्त अने निर्वृत्त्यपर्याप्तना भेदथी, चार प्रकार छे. ए प्रमाणे तिर्यंचना पंचाशी भेद, मनुष्यना नव भेद, नारकी तथा देवना चार भेद एम बधाय मळी अठ्ठाणुं भेद थया. घणाने समानताथी भेगा करी — संक्षेपताथी संग्रह करी — कहेवामां आवे तेने समास कहे छे. अहीं घणा जीवोनो संक्षेप करीने कहेवुं तेने जीवसमास जाणवो. ए प्रमाणे जीवसमास कह्या.
हवे पयारप्तिनुं वर्णन करे छेः —
अर्थः — आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा अने मनना परिणमननी प्रवृत्तिमां जे सामर्थ्य छे तेना छ प्रकार छे.
भावार्थः — आत्माने यथायोग्य कर्मनो उदय थतां आहारदि ग्रहणनी शक्ति होवी तेने शक्तिरूप पयारप्ति कहीए छीए. तेना छ प्रकार छे.
हवे शक्तिनुं कार्य कहे छेः —
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अर्थः — ए शक्तिनी प्रवृत्तिनी पूर्णताना कारणरूप जे पुद्गलस्कंध छे तेनी प्रगटपणे निष्पत्ति अर्थात् पूर्णता होवी तेने पयारप्ति कहे छे एम जिनेन्द्रदेवे कह्युं छे.
हवे पर्याप्त अने निर्वृत्त्यपर्याप्तनो काळ कहे छेः —
अर्थः — आ जीव, पयारप्तिने ग्रहण करतो थको ज्यां सुधी मनपयारप्तिने पूर्ण न करे त्यां सुधी तेने निर्वृत्त्यपर्याप्त कहे छे, अने ज्यारे मनपयारप्ति पूर्ण थाय छे त्यारे तेने पर्याप्त कहे छे.
भावार्थः — अहीं संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवनी अपेक्षा लक्षमां लई आ प्रमाणे कथन कर्युं छे; परंतु अन्य ग्रंथोमां ज्यां सुधी शरीरपयारप्ति पूर्ण न थाय त्यां सुधी ते निर्वृत्त्यपर्याप्त छे. ए प्रमाणे सर्वजीव-अश्रित कथन छे.
बनावे छे. ज्यां सुधी शरीरपयारप्ति पूर्ण थती नथी त्यां सुधी तेने निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहे छे.
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हवे लब्ध्यपर्याप्तनुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — जे जीव श्वासना अढारमा भागमां मरण पामे, एक पण पयारप्ति पूर्ण न करे ते जीवने लब्ध्यपर्याप्तक कहे छे.
पर्याप्त छे. परंतु निवृरत्ति (शरीरपयारप्ति बनवी)नी अपेक्षाए पूर्ण नथी तेथी ते निर्वृत्त्यपर्याप्त कहेवाय छे.
छे अने तेटलां ज क्षुद्रमरण थाय छे. ते केवी रीते ते कहे छेः —
इन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकना ६०, चार इन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तना ४० तथा
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हवे एकेन्द्रियदि जीवोनी पयारप्तिनी संख्या कहे छेः —
अर्थः — एकेन्द्रियनी चार, विकलत्रयनी पांच अने संज्ञीपंचेन्द्रियनी छ ए प्रमाणे क्रमथी पयारप्ति होय छे, वळी लब्ध्यपर्याप्तक छे ते अपर्याप्तक छे, तेओने पयारप्ति नथी.
भावार्थः — एकेन्द्रियदिकनी उपर प्रमाणे क्रमथी पयारप्ति कही. अहीं असंज्ञीनुं नाम पण लीधुं नथी. त्यां संज्ञीने छ तथा असंज्ञीने पांच पयारप्ति जाणवी. वळी निर्वृत्त्यपर्याप्त ग्रहण करतांनी साथे ज पूर्ण थशे तेथी (तेमनी) जे संख्या कही छे ते ज छे अने लब्ध्यपर्याप्त जोके पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकना २४ जन्म-मरण थाय छे अने एकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक जीव एटला ज समयमां ६६१३२ जन्म-मरण करे छे. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रियना समस्त भवोनो सरवाळो करतां ६६३३६ क्षुद्रभव थाय छे.
गणतां आठ भेद थया तथा वनस्पतिना बादरसाधारण, सूक्ष्मसाधारण अने प्रत्येक एम त्रण भेद छे. एम ए अगियार प्रकारना एकेन्द्रियजीवोमां दरेक जीवने एक अंतर्मुहूर्तमां ६०१२ जन्म-मरण थाय छे. तेने ११ गुणतां बधा एकेन्द्रिय जीवोना ६६१३२ भव थाय छे.
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ग्रहण करी छे तो पण पूर्ण थई शकी नहि तेथी तेने अपूर्ण कह्या एम सूचवे छे. ए प्रमाणे पयारप्तिनुं वर्णन कर्युं.
हवे प्राणोनुं वर्णन करे छे. त्यां प्राणोनुं स्वरूप अने संख्या कहे छेः —
अर्थः — मन, वचन, काय, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास अने आयुनो उदय एना संयोगथी तो ऊपजे – जीवे तथा एना वियोगथी मरे तेने प्राण कहे छे, अने ते दश छे.
भावार्थः — ‘जीव’ एवो प्राणधारण अर्थ छे. त्यां व्यवहारनयथी दश प्राण छे. तेमां, यथायोग्य प्राणसहित जे जीवे तेने ‘जीव’ संज्ञा छे.
हवे एकेन्द्रियदि जीवोनां प्राणनी संख्या कहे छेः —
अर्थः — एकेन्द्रियने चार प्राण छे, बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय तथा संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तजीवोने अनुक्रमे छ – सात – आठ – नव – दश प्राण छे. आ प्राण पर्याप्तनी अपेक्षाए कह्या छे.
हवे ए ज जीवोने अपर्याप्तदशामां केटला प्राण छे ते कहे छेः —
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अर्थः — बंने प्रकारना अपर्याप्त ( निवरृत्त्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तक) जे एकेन्द्रिय, बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय. चार इन्द्रिय, — असंज्ञी तथा संज्ञीपंचेन्द्रियोने त्रण, चार, पांच, छ, सात ए प्रमाणे अनुक्रमे प्राण होय छे.
भावार्थः — निर्वृत्त्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रियोने त्रण, बे इन्द्रियने चार, त्रण इन्द्रियने पांच, चार इन्द्रियने छ तथा असंज्ञी – संज्ञीपंचेन्द्रियने सात ए प्रमाणे प्राण होय छे.
हवे विकलत्रयजीवोनुं स्थान दर्शावे छेः —
अर्थः — बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ए त्रण विकलत्रय कहेवाय छे. ते जीवो नियमथी कर्मभूमिमां, अंतना अर्धा द्वीपमां अने अंतना आखा समुद्रमां होय छे, भोगभूमिमां होता नथी.
भावार्थः — पांच भरत, पांच ऐरावत अने पांच विदेह ए कर्मभूमिनां क्षेत्रमां तथा अंतना स्वयंप्रभद्वीपनी वच्चे स्वयंप्रभ पर्वत छे ते पर्वतनी पाछळना अर्धा स्वयंप्रभद्वीपमां तथा अंतना स्वयंभूरमण नामना आखा समुद्रमां आ विकलत्रय जीवो छे, तेथी अन्य जग्याए नथी.
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हवे अढी द्वीपनी बहार तिर्यंचो छे तेनी व्यवस्था हेमवत्पर्वत माफक छे एम कहे छेः —
अर्थः — मनुष्यक्षेत्रनी बहार – मानुषोत्तर पर्वतनी पेली बाजुथी अंतना स्वयंप्रभद्वीपना अर्धा भागनी आ बाजु सुधीना वच्चेना सर्व द्वीपसमुद्रनां तिर्यंचो छे ते हैमवत्क्षेत्रना तिर्यंचो जेवा छे.
भावार्थः — हेमवत्क्षेत्रमां जघन्यभोगभूमि छे. मानुषोत्तर पर्वतथी आगळना असंख्यात द्वीप-समुद्र तथा अर्धा स्वयंप्रभ नामना छेल्ला द्वीप सुधी सर्व ठेकाणे जघन्यभोगभूमि जेवी रचना छे अने त्यांना तिर्यंचोनां आयुष्य-काय हेमवत्क्षेत्रना तिर्यंचो जेवां छे.
हवे जलचरजीवोनां स्थान कहे छे.
अर्थः — लवणोदधि समुद्रमां, कालोदधि समुद्रमां तथा अंतना स्वयंभूरमण समुद्रमां जलचरजीवो छे, बाकीना वच्चेना समुद्रोमां नियमथी जलचरजीवो नथी.
हवे देवनां स्थान कहे छे. त्यां प्रथम भवनवासी-व्यंतरनां स्थान कहे छेः —
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अर्थः — खरभाग अने पंकभागमां भवनवासीओनां भवन तथा व्यंतरदेवोनां निवास छे. वळी ए बंनेनां तिर्यग्लोकमां पण निवास छे.
भावार्थः — एक लाख एंशी हजार योजन जाडी पहेली रत्नप्रभा पृथ्वी छे; तेना त्रण भागमां (प्रथमना) सोळ हजार योजनप्रमाण खरभागमां असुरकुमार सिवाय बाकीना नव कुमारभवनवासीओनां भवन छे, तथा राक्षसकुल विना सात कुल व्यंतरोनां निवास छे; तथा बीजा चोराशी हजार योजनप्रमाण पंकभागमां असुरकुमार भवनवासी तथा राक्षसकुल व्यंतरो वसे छे. वळी तिर्यग्लोक अर्थात् मध्यलोक असंख्यात द्वीप-समुद्रप्रमाण छे; तेमां पण भवनवासीओनां भवन अने व्यंतरोनां निवास छे.
हवे ज्योतिषी, कल्पवासी तथा नारकीओनां निवास कहे छे —
अर्थः — एक राजु प्रमाण तिर्यग्लोकमां असंख्यात द्वीप-समुद्र छे तेना उपर ज्योतिषीदेवोनां विमान बिराजे छे; कल्पवासी ऊर्ध्वलोकमां छे तथा नारकी अधोलोकमां छे.
हवे जीवोनी संख्या कहे छे. त्यां प्रथम तेज-वायुकायना जीवोनी संख्या कहे छेः —
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अर्थः — अग्निकाय अने वायुकायना बादरपयारप्ति सहित जीव छे ते यथानुक्रम घनआवलीना असंख्यातमा भाग तथा कंईक न्यून लोकप्रदेशप्रमाण जाणवा.
भावार्थः — अग्निकायना जीव घनआवलीना असंख्यातमा भाग तथा वायुकायना कंईक कम लोकप्रदेशप्रमाण छे.
हवे पृथ्वी अदिनी संख्या कहे छेः —
अर्थः — पृथ्वीकयिक, अपकयिक, प्रत्येकवनस्पतिकयिक, सप्रतिष्ठित वा अप्रतिष्ठित अने त्रस ए बधा पर्याप्त-अपर्याप्त जीवो छे ते जुदा जुदा असंख्यात जगत्श्रेणिप्रमाण छे.
अर्थः — प्रत्येक वनस्पतिकाय तथा बादर लब्ध्यपर्याप्तक जीव छे ते असंख्यातलोकप्रमाण छे, ए ज प्रमाणे सूक्ष्म अपर्याप्तक पण असंख्यातलोकप्रमाण छे अने सूक्ष्मपर्याप्तक जीव छे ते संख्यातगुणा छे.
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अर्थः — सिद्धजीव अनंता छे, सिद्धोथी अनंतगुणा निगोदजीव छे तथा सिद्धोथी अनंतमा भागे अभव्यजीवो छे.
अर्थः — सम्मूर्च्छनमनुष्य, जगतश्रेणिना असंख्यातमा भागमात्र छे अने सर्व गर्भजमनुष्य नियमथी संख्याता ज छे.
हवे सान्तर अने निरन्तर (ना नियमने) कहे छेः —
अर्थः — देव, नारकी, लब्ध्यपर्याप्तक तथा सम्मूर्छनमनुष्य एटला तो सान्तर एटले अंतर सहित छे, बाकीना सर्व जीवो निरंतर छे.
भावार्थः — एक पर्यायथी अन्य पर्याय पामे, वळी पाछा फरीथी ते ने ते ज पर्याय पामे, एटलामां वच्चे जे अन्तर रहे तेने सान्तर (अन्तर सहित) कहेवामां आवे छे. अहीं नाना जीव अपेक्षाए अन्तर कह्युं छे, अर्थात् देव, नारकी, मनुष्य अने लब्ध्यपर्याप्तकजीवोनी उत्पत्ति कोई काळमां न थाय तेने पण अंतर कहे छे. तथा अंतर न पडे तेने निरंतर कहे छे. त्यां वैक्रियकमिश्रकाययोगी देव – नारकीनुं तो बार मुहूर्तनुं अंतर कह्युं छे, अर्थात् कोई न ऊपजे तो बार मुहूर्त सुधी ज न ऊपजे. वळी सम्मूर्च्छनमनुष्य कोई न ज थाय तो पल्यना असंख्यातमा
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भाग काळ सुधी ज न थाय ए प्रमाणे अन्य ग्रंथोमां कह्युं छे. बाकीना सर्व जीव निरंतर ऊपजे छे.
हवे जीवोनी संख्या द्वारा अल्प-बहुत्व कहे छेः —
अर्थः — मनुष्योथी नारकी असंख्यातगुणा छे, नारकीओथी बधा देव असंख्यातगुणा छे अने देवोथी प्रत्येकवनस्पतिजीव असंख्यातगुणा छे.
अर्थः — पंचेन्द्रियथी चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रियथी त्रीन्द्रिय अने त्रीन्द्रियथी बेइन्द्रिय — ए लब्ध्यपर्याप्तकजीव संसंख्या द्वारा अनुक्रमे विशेष अधिक छे. कंईक अधिकने विशेषधिक कहे छे.
अर्थः — चतुन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, बे इन्द्रिय तेवी ज रीते त्रण इन्द्रिय — ए पयारप्ति सहित जीवो अनुक्रमथी अधिक अधिक छे एम जाणो.
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अर्थः — सूक्ष्म जीवोने छोडी बाकीना जे तिर्यंचो छे तेमनो एक भाग तो पर्याप्त छे तथा बहुभाग असंख्यात अपर्याप्त छे.
भावार्थः — बादर जीवोमां पर्याप्त थोडा छे अने अपर्याप्त घणा छे.
अर्थः — सूक्ष्म-पर्याप्त जीवो संख्यातभाग छे. तेमां अपर्याप्तक- जीवो एक भाग प्रमाण छे.
भावार्थः — सूक्ष्म जीवोमां पर्याप्त घणा छे अने अपर्याप्त थोडा छे.
अर्थः — अनुत्तरविमान नामना अंतिम पटलथी मांडीने नीचेना आनतस्वर्गना पटल सुधीमां देव छे ते संख्यातगुणा छे अने ते पछीना नीचे सौधर्मस्वर्ग सुधीमां पटल पटल प्रति असंख्यातगुणा छे.
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अर्थः — सातमा नरकथी उपर उपर पहेला नरक सुधी जीव असंख्यात असंख्यातगुणा छे अने प्रथम नरकथी मांडी नीचे नीचेना नरकमां घणुं दुःख छे.
अर्थः — कल्पवासी देवोथी भवनवासी देव अने व्यंतर देव ए बंने रशि तो असंख्यातगुणा छे तथा ज्योतिषी देव व्यंतर देवोथी संख्यातगुणा छे.
हवे एकेन्द्रियदि जीवोनां उत्कृष्ट आयुष्य त्रण गाथामां कहे छेः —
अर्थः — प्रत्येक वनस्पतिनुं उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्षनुं छे तथा साधारण सूक्ष्म-बादर, नित्य-इतरनिगोद अने बधाय सूक्ष्म पृथ्वी -अप-तेज-वायुकयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु अंतर्मुहूर्तनुं छे.
हवे बादर जीवोनुं उत्कृष्ट आयु कहे छेः —
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अर्थः — पृथ्वीकयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु बावीस हजार वर्षनुं छे, अप्कयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु सात हजार वर्षनुं छे, अग्निकयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु त्रण दिवसनुं छे तथा वायुकयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु त्रण हजार वर्षनुं छे.
हवे बे इन्द्रिय अदिनुं उत्कृष्ट आयु कहे छेः —
अर्थः — बे इन्द्रिय जीवोनुं उत्कृष्ट आयु बार वर्षनुं छे, त्रण इन्द्रिय जीवोनुं उत्कृष्ट आयु ओगणपचास (४९) दिवसनुं छे, चार इन्द्रिय जीवोनुं उत्कृष्ट आयु छ महिनानुं छे तथा पंचेन्द्रिय जीवोनुं उत्कृष्ट आयु भोगभूमिनी अपेक्षाए त्रण पल्यनुं छे.
हवे बधांय तिर्यंच अने मनुष्योनुं जघन्य आयु कहे छेः —
अर्थः — लब्ध्यपर्याप्तक सर्व जीवोनुं जघन्य आयु मध्यम हीनमुहूर्त छे अने ते क्षुद्रभवमात्र जाणवुं अर्थात् एक उच्छ्वासना अढारमां भागमात्र छे वळी एकेन्द्रियदिथी मांडीने कर्मभूमिनां तिर्यंच- मनुष्य ए बधाय पर्याप्त जीवोनुं जघन्य आयु पण मध्यम हीनमुहूर्त छे अने ते पहेलानाथी मोटुं मध्यम अंतर्मुहूर्त छे.
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हवे देव-नारकीओनुं उत्कृष्ट तेम ज जघन्य आयु कहे छेः —
अर्थः — देवोनुं तथा नारकी जीवोनुं उत्कृष्ट आयु तेत्रीस सागरनुं छे तथा तेमनुं जघन्य आयु दस हजार वर्षनुं छे.
भावार्थः — आ (आयु) सामान्य देवोनी अपेक्षाए कह्युं छे. विशेष त्रिलोकसार अदि ग्रंथोमांथी जाणवुं.
हवे एकेन्द्रिय अदि जीवोनां शरीरनी उत्कृष्ट-जघन्य अवगाहना दस गाथामां कहे छेः —
अर्थः — एकेन्द्रियचतुष्क अर्थात् पृथ्वी-अप-तेज-वायुकायना जीवोनी अवगाहना जघन्य तथा उत्कृष्ट घनअंगुलना असंख्यातमा भाग छे, त्यां सूक्ष्म अने बादर पर्याप्त-अपर्याप्तनुं शरीर नानुं-मोटुं छे तो पण घनअंगुलना असंख्यातमां भाग ज सामान्यपणे कह्युं छे. विशेष श्री गोम्मटसारमांथी जाणवुं. वळी अंगुलनुं (माप) उत्सेध अंगुल-आठ यवप्रमाण लेवुं पण प्रमाणअंगुल न लेवुं. प्रत्येक वनस्पतिकायमां उत्कृष्ट अवगाहनायुक्त कमळ छे. तेनी अवगाहना कंईक अधिक एक हजार योजन छे.
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अर्थः — बे इन्द्रियमां शंख मोटो छे, तेनी उत्कृष्ट अवगाहना बार योजन लांबी छे; त्रण इन्द्रियमां गोभिका अथात् कानखजूरो मोटो छे, तेनी उत्कृष्ट अवगाहना त्रण कोश लांबी छे; चार इन्द्रियमां भ्रमर मोटो छे. तेनी उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन लांबी छे; तथा पंचेन्द्रियमां संमूर्च्छन मच्छ मोटो छे, तेनी उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन लांबी छे. आ जीवो छेल्ला स्वयंभूरमण द्वीप तथा समुद्रमां जाणवा.
हवे नारकीना उत्कृष्ट अवगाहना कहे छेः —
अर्थः — सातमा नरकमां नारकीजीवनो देह पांचसो धनुष ऊंचो छे; तेना उपर देहनी ऊंचाई अडधी अडधी छे अर्थात् छठ्ठामां बसो पचास धनुष, पांचमामां एकसो पच्चीस धनुष, चोथामां साडाबासठ धनुष, त्रीजामां सवाएकत्रीस धनुष, बीजामां पंदर धनुष दशा आनी, अने पहेलामां सात धनुष तेर आनी — ए प्रमाणे जाणवुं. तेमां ओगणपचास पटल छे अने ते बधांमां जुदी जुदी विशेष अवगाहना श्री त्रिलोकसारमांथी जाणवी.
हवे देवोनी अवगाहना कहे छेः —