Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 129-169.

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प्रत्येकाः अपि च द्विविधाः निगोदसहिताः तथैव रहिताः च
द्विविधाः भवन्ति त्रसाः अपि च द्वित्रिचतुरक्षाः तथैव पञ्चाक्षाः ।।१२८।।

अर्थःप्रत्येक वनस्पति पण बे प्रकारनी छे. ते निगोद सहित छे तथा निगोद रहित पण छे. वळी त्रस पण बे प्रकारना छे. बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय तथा चार इन्द्रिय ए त्रण तो विकलत्रय (त्रस) तथा ए ज प्रमाणे पंचेन्द्रिय (त्रस) छे.

भावार्थःजे वनस्पतिना आश्रये निगोद होय ते तो साधारण छे तेने सप्रतिष्ठित पण कहेवामां आवे छे; तथा जेना आश्रये निगोद नथी तेने प्रत्येक ज कहेवामां आवे छे अने एने ज अप्रतिष्ठित पण कहेवामां आवे छे. वळी बे इन्द्रियदिकने त्रस कहेवामां आवे छे. गोम्मटसारमां कह्युं छे के

मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंदबीज बीजरुहा
सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ।।
(गो. जी. गा. १८५)
मूलाग्रपर्वबीजाः कन्दाः तथा स्कन्धबीजाः बीजरुहाः
सम्मूर्च्छनाः च भणिताः प्रत्येकाः अनन्तकायाः च ।।
अर्थःजे वनस्पति मूळ, अग्र, पर्व, कंद, स्कंध तथा बीजथी उत्पन्न

थाय छे तथा जे संमूर्च्छन छे ते वनस्पतिओ सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित बंने प्रकारनी होय छे.

भावार्थःघणीखरी वनस्पतिओ मूळथी उत्पन्न थाय छे; जेम के

अदरकहळदी वगेरे वगेरे. कोई वनस्पति अग्रभागथी उत्पन्न थाय छे; जेमके गुलाब. कोई वनस्पतिनी उत्पत्ति पर्वथी थाय छे; जेम के इक्षुवेंत अदि. कोई वनस्पति कंदथी उत्पन्न थाय छे, जेम के सूरण वगेरे. कोई वनस्पति स्कंधथी उत्पन्न थाय छे; जेम के ढाक वगेरे. घणीखरी वनस्पति बीजथी उत्पन्न थाय छे; जेम के चणाघउं वगेरे, कोई वनस्पति पृथ्वी-जळ अदिना संबंधथी उत्पन्न थई जाय छे अने ते संमूर्च्छन छे; जेम के घास वगेरे. आ बधी वनस्पति सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित बंने प्रकारनी होय छे.


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हवे पंचेन्द्रियोना भेद कहे छेः

पंचक्खा वि य तिविहा जलथलआयासगमिणो तिरिया

पत्तेयं ते दुविहा मणेण जुत्ता अजुत्ता य ।।१२९।।

पञ्चाक्षाः अपि च त्रिविधाः जलस्थलआकाशगमिनः तिर्यञ्चः

प्रत्येकं ते द्विविधा मनसा युक्ताः अयुक्ताः च ।।१२९।।

अर्थःजळचर, थळचर अने नभचर ए प्रमाणे पंचेन्द्रिय-

गूढसिरसंधिपव्वं समभेगमहीरुहं च छिण्णरुहं
साहारणं सरीरं तव्विवरीयं च पत्तेयं ।।
(गो. जी. गा. १८६)
गूढशिरासन्धिपर्वं समभंगमहीरुहं च छिन्नरुहं
साधारणं शरीरं तद्विपरीतं च प्रत्येकम् ।।
अर्थःजे वनस्पतिओनी शीरा, संधी, पर्व प्रगट न होय, जेनो भंग

करतां समान भंग थाय, जेमां तंतु उत्पन्न न थया होय तथा जेने कापतां पाछी वधी जाय ते सप्रतिष्ठित वनस्पति छे; तेनाथी उलटा प्रकारनी होय ते बधी अप्रतिष्ठित समजवी.

मूले कंदे छल्ली पवाल सालदलकुसुमफलबीजे
समभंगे सदि णंता असमे सदि होंति पत्तेया ।।
(गो. जी. गा. १८७)
मूले कन्दे त्वक्प्रवाले शालादलकुसुमफलबीजे
समभंगे सति अनन्ताः असमे सति भवन्ति प्रत्येकाः ।।
अर्थःजे वनस्पतिओनां मूळ (हळदर-आदु वगेरे), कंद (सूरणदि),

छाल, नवी कुंपल, नस, फूल, फळ तथा बीज तोडतां बराबर समभंगे तूटी जाय ते सप्रतिष्ठित प्रत्येक छे तथा जे बराबर समभंगे न तूटे ते अप्रतिष्ठित प्रत्येक छे.


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तिर्यंचना त्रण प्रकार छे. वळी तेओमां कोई मन सहित संज्ञी पण छे तथा कोई मन रहित असंज्ञी पण छे.

तेना भेद कहे छेः

ते वि पुणो वि य दुविहा गब्भजजम्मा तहेव संमुच्छा
भोगभुवा गब्भभुवा थलयरणहगमिणो सण्णी ।।१३०।।
ते अपि पुनः अपि च द्विविधाः गर्भजजन्मानः तथैव संमूर्च्छनाः
भोगभुवः गर्भभुवः स्थलचरनभोगमिनः संज्ञिनः ।।१३०।।

अर्थःए छ प्रकारना तिर्यंच ते गर्भज पण छे तथा सम्मूर्च्छन पण छे. तेमां जे भोगभूमिना तिर्यंच छे ते गर्भज ज छे तथा थलचर अने नभचर ज छे पण जळचर नथी; अने तेओ संज्ञी ज छे पण असंज्ञी नथी.

हवे अठ्ठाणुं (९८) जीवसमास तथा तिर्यंचोना पंचाशी (८५) भेदो कहे छेः

अट्ठ वि गब्भज दुविहा तिविहा संमुच्छिणो वि तेवीसा
इदि पणसीदी भेया सव्वेसिं होंति तिरियाणं ।।१३१।।
अष्टौ अपि गर्भजाः द्विविधाः त्रिविधाः सम्मूर्च्छनाः अपि त्रयोविंशतिः
इति पंचाशीतिः भेदाः सर्वेषां भवन्ति तिरश्चाम् ।।१३१।।
कंदस्स व मूलस्स व साखाखंधस्स वा वि बहुलतरी
छल्ली सा णंतजिया पत्तेयजिया तु तणुकदरी ।।
(गो. जी. गा. १८८)
कन्दस्य वा मूलस्य वा शाखास्कन्धस्य वा अपि बहुलतरी
त्वक् सा अनन्तजीवा प्रत्येकजीवा तु तनुकतरी ।।
अर्थःजे वनस्पतिओनां कंद, मूळ पातळी डाळी तथा स्कंधनी छाल जाडी

होय तेने सप्रतिष्ठितप्रत्येक (अनंत जीवोनुं स्थान) समजवी तथा जेनी छाल पातळी होय तेने अप्रतिष्ठितप्रत्येक जाणवी.


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अर्थःसर्व तिर्यंचोना पंचाशी (८५) भेद छे. त्यां गर्भजना आठ छे, ते पर्याप्तअपर्याप्तथी सोळ (१६) भेद थया, अने सम्मूर्च्छनना तेवीस भेद छे ते पर्याप्त, अपर्याप्त अने लब्ध्यपर्याप्तथी (गुणतां) ओगणसीतेर (६९) भेद थया. ए प्रमाणे सर्व मळी पंचाशी (८५) भेद छे.

भावार्थःपूर्वे कहेला कर्मभूमिना गर्भजोना जलचर, थलचर अने नभचर (जीवो) छे; तेना संज्ञी, असंज्ञी भेदथी छ भेद थया. वळी भोगभूमिना थलचरसंज्ञी तथा नभचरसंज्ञी आठे भेद पर्याप्त अने अपर्याप्त भेदथी सोळ भेद थया; सम्मूर्च्छनना पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद अने दरेकना सूक्ष्म तेमज बादर मळी बार (१२) भेद तथा वनस्पतिना सप्रतिष्ठित अने अप्रतिष्ठित ए बंने मळी १४ चौद तो एकेन्द्रियना भेद थया, विकलत्रयना त्रण अने कर्मभूमिना पंचेन्द्रियोना संज्ञिजलचर, असंज्ञिजलचर, संज्ञिथलचर, असंज्ञिथलचर, संज्ञिनभचर तथा असंज्ञिनभचर ए छ भेद, ए प्रमाणे बधा मळी तेवीस भेद थया. ते बधा पर्याप्त, अपर्याप्त अने लब्ध्यपर्याप्त भेद करी गणतां (६९) ओगणसीतेर भेद थया. ए प्रमाणे प्रथमना सोळ अने आ ओगणसीतेर मळी पंचाशी (८५)

भेद थया.

हवे मनुष्यना भेद कहे छेः

अज्जवमिलेच्छखंडे भोगमहीसु वि कुभोगभूमीसु
मणुया हवंति दुविहा णिव्वित्तिअपुण्णगा पुण्णा ।।१३२।।
आर्यम्लेच्छखण्डेषु भोगमहीषु अपि कुभोगभूमिषु
मनुजाः भवन्ति द्विविधाः निर्वृत्त्यपर्याप्ताः पूर्णपर्याप्ताश्च ।।१३२।।

अर्थःआर्यखंडमां, म्लेच्छखंडमां, भोगभूमिमां तथा कुभोगभूमिमां मनुष्य छे. ते चारे (प्रकारना) मनुष्योना पर्याप्त तथा निवृरत्ति-अपर्याप्तथी आठ प्रकार थया.


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संमुच्छिणा मणुस्सा अज्जवखंडेसु होंति णियमेण
ते पुण लद्धिअपुण्णा णारयदेवा वि ते दुविहा ।।१३३।।
सम्मूर्च्छनाः मनुष्याः आर्यखण्डेषु भवन्ति नियमेन
ते पुनः लब्धिअपूर्णाः नारकदेवाः अपि ते द्विविधाः ।।१३३।।

अर्थःसम्मूर्च्छन मनुष्य नियमथी आर्यखंडमां ज होय अने ते लब्ध्यपर्याप्तक ज होय छे. वळी नारकी तथा देवना, पर्याप्त अने निर्वृत्त्यपर्याप्तना भेदथी, चार प्रकार छे. ए प्रमाणे तिर्यंचना पंचाशी भेद, मनुष्यना नव भेद, नारकी तथा देवना चार भेद एम बधाय मळी अठ्ठाणुं भेद थया. घणाने समानताथी भेगा करीसंक्षेपताथी संग्रह करीकहेवामां आवे तेने समास कहे छे. अहीं घणा जीवोनो संक्षेप करीने कहेवुं तेने जीवसमास जाणवो. ए प्रमाणे जीवसमास कह्या.

हवे पयारप्तिनुं वर्णन करे छेः

आहारसरीरिंदियणिस्सासुस्सासभासमणसाणं
परिणइवावारेसु य जाओ छ च्चेव सत्तीओ ।।१३४।।
आहारशरीरेन्द्रियनिःश्वासोच्छ्वासभाषामनसाम्
परिणतिव्यापारेषु च याः षडेव शक्तयः ।।१३४।।

अर्थःआहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा अने मनना परिणमननी प्रवृत्तिमां जे सामर्थ्य छे तेना छ प्रकार छे.

भावार्थःआत्माने यथायोग्य कर्मनो उदय थतां आहारदि ग्रहणनी शक्ति होवी तेने शक्तिरूप पयारप्ति कहीए छीए. तेना छ प्रकार छे.

हवे शक्तिनुं कार्य कहे छेः

तस्सेव कारणाणं पुग्गलखंधाण जा हु णिप्पत्ति
सा पज्जत्ती भण्णदि छब्भेया जिणवरिंदेहिं ।।१३५।।

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तस्याः एव कारणानां पुद्गलस्कन्धानां या स्फु टं निष्पत्तिः
सा पयारप्तिः भण्यते षड्भेदाः जिनवरेन्द्रैः ।।१३५।।

अर्थःए शक्तिनी प्रवृत्तिनी पूर्णताना कारणरूप जे पुद्गलस्कंध छे तेनी प्रगटपणे निष्पत्ति अर्थात् पूर्णता होवी तेने पयारप्ति कहे छे एम जिनेन्द्रदेवे कह्युं छे.

हवे पर्याप्त अने निर्वृत्त्यपर्याप्तनो काळ कहे छेः

पज्जत्तिं गिह्णंतो मणुपज्जत्तिं ण जाव समणोदि
ता णिव्वत्तिअपुण्णो मणुपुण्णो भण्णदे पुण्णो ।।१३६।।
पयारप्तिं गृह्णन् मनःपय्यारप्तिं न यावत् समाप्नोति
तावत् निर्वृत्त्यपर्याप्तकः मनःपूर्णः भण्यते पूर्णः ।।१३६।।

अर्थःआ जीव, पयारप्तिने ग्रहण करतो थको ज्यां सुधी मनपयारप्तिने पूर्ण न करे त्यां सुधी तेने निर्वृत्त्यपर्याप्त कहे छे, अने ज्यारे मनपयारप्ति पूर्ण थाय छे त्यारे तेने पर्याप्त कहे छे.

भावार्थःअहीं संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवनी अपेक्षा लक्षमां लई आ प्रमाणे कथन कर्युं छे; परंतु अन्य ग्रंथोमां ज्यां सुधी शरीरपयारप्ति पूर्ण न थाय त्यां सुधी ते निर्वृत्त्यपर्याप्त छे. ए प्रमाणे सर्वजीव-अश्रित कथन छे.

त्तज्जपस्स य उदये णियणियपज्जत्तिणिट्ठिदो होदि
जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति-अपुण्णगो ताव ।।
(गो. जी. गा. १२०)
पर्याप्तस्य च उदये निजनिजपयारप्तिनिष्ठितो भवति
यावत् शरीरं अपूर्णं निर्वृत्त्यपूर्णकः तावत् ।।
अर्थपयारप्ति नामना नामकर्मना उदयथी जीव पोतपोतानी पयारप्ति

बनावे छे. ज्यां सुधी शरीरपयारप्ति पूर्ण थती नथी त्यां सुधी तेने निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहे छे.


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हवे लब्ध्यपर्याप्तनुं स्वरूप कहे छेः

उस्सासट्ठारसमे भागे जो मरदि ण य समाणेदि
एका वि य पज्जत्ती लद्धिअपुण्णो हवे सो दु ।।१३७।।
उच्छ्वासाष्टदशमे भागे यः भ्रियते न च समाप्नोति
एकां अपि च पयारप्तिं लब्ध्पर्याप्तकः भवेत् स तु ।।१३७।।

अर्थःजे जीव श्वासना अढारमा भागमां मरण पामे, एक पण पयारप्ति पूर्ण न करे ते जीवने लब्ध्यपर्याप्तक कहे छे.

भावार्थःपयारप्तिकर्मनो उदय होवाथी शक्तिनी अपेक्षाए तो

पर्याप्त छे. परंतु निवृरत्ति (शरीरपयारप्ति बनवी)नी अपेक्षाए पूर्ण नथी तेथी ते निर्वृत्त्यपर्याप्त कहेवाय छे.

१ तिण्णसया छत्तीया छावट्ठिसहस्सगणि मरणणि
अंतोमुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दभवा ।।
(गो. जी. गा. १२२)
षटत्रिंशत्रिशतधिकषट्षष्ठिसहस्रकणि मरणनि
अन्तर्मुहूर्त्तकाले तावन्तः च एव क्षुद्रभवाः ।।
अर्थःलब्ध्यपर्याप्तक जीवने एक अंतर्मूहूर्तमां ६६३३६ क्षुद्रजन्म थाय

छे अने तेटलां ज क्षुद्रमरण थाय छे. ते केवी रीते ते कहे छेः

सीदी सट्ठी तालं वियले चउवीस होंति पंचक्खे
छावट्ठिं च सहस्सा सयं च बत्तीसमेयक्खे ।।
(गो. जी. गा. १२३)
अशीतिः षष्ठिः चत्वरिंशत् विकले चतुर्विंशतिः भवन्ति पंचाक्षे
षट्षष्ठिः च सहस्रणि शतं च द्वत्रिंशत् एकाक्षे ।।
अर्थःएक अंतर्मुहूर्तकाळमां बे इन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तना ८०, त्रण

इन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकना ६०, चार इन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तना ४० तथा


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हवे एकेन्द्रियदि जीवोनी पयारप्तिनी संख्या कहे छेः

लब्धिअपुण्णे पुण्णं पज्जत्ती एयक्खवियलसण्णीणं
चदु-पण-छक्कं कमसो पज्जत्तीए वियाणेह ।।१३८।।
लब्ध्पर्याप्तके पूर्णं पयारप्तिः एकाक्षविकलसंज्ञिनाम्
चतस्रः पञ्च षट् क्रमशः पर्याप्तयः विजानीहि ।।१३८।।

अर्थःएकेन्द्रियनी चार, विकलत्रयनी पांच अने संज्ञीपंचेन्द्रियनी छ ए प्रमाणे क्रमथी पयारप्ति होय छे, वळी लब्ध्यपर्याप्तक छे ते अपर्याप्तक छे, तेओने पयारप्ति नथी.

भावार्थःएकेन्द्रियदिकनी उपर प्रमाणे क्रमथी पयारप्ति कही. अहीं असंज्ञीनुं नाम पण लीधुं नथी. त्यां संज्ञीने छ तथा असंज्ञीने पांच पयारप्ति जाणवी. वळी निर्वृत्त्यपर्याप्त ग्रहण करतांनी साथे ज पूर्ण थशे तेथी (तेमनी) जे संख्या कही छे ते ज छे अने लब्ध्यपर्याप्त जोके पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकना २४ जन्म-मरण थाय छे अने एकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक जीव एटला ज समयमां ६६१३२ जन्म-मरण करे छे. ए प्रमाणे एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रियना समस्त भवोनो सरवाळो करतां ६६३३६ क्षुद्रभव थाय छे.

पुढविदगागणिमारुदसाहारणथूलसुहुमपत्तेया
एदेसु अपुण्णेसु य एक्केक्के बार खं छक्कं ।।
(गो. जी. गा. १२४)
पृथ्वीदकग्निमारुतसाधारणस्थूलसूक्ष्मप्रत्येकाः
एतेषु अपूर्णेषु च एकैकस्मिन् द्वादश खं षट्कम् ।।
अर्थःपृथ्वी, जळ, अग्नि, वायु ए चारना बादर अने सूक्ष्म भेदे

गणतां आठ भेद थया तथा वनस्पतिना बादरसाधारण, सूक्ष्मसाधारण अने प्रत्येक एम त्रण भेद छे. एम ए अगियार प्रकारना एकेन्द्रियजीवोमां दरेक जीवने एक अंतर्मुहूर्तमां ६०१२ जन्म-मरण थाय छे. तेने ११ गुणतां बधा एकेन्द्रिय जीवोना ६६१३२ भव थाय छे.


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ग्रहण करी छे तो पण पूर्ण थई शकी नहि तेथी तेने अपूर्ण कह्या एम सूचवे छे. ए प्रमाणे पयारप्तिनुं वर्णन कर्युं.

हवे प्राणोनुं वर्णन करे छे. त्यां प्राणोनुं स्वरूप अने संख्या कहे छेः

मणवयणकायइंदियणिस्सासुस्सासआउ-उदयाणं
जेसिं जोए जम्मदि मरदि विओगम्मि ते वि दह पाणा ।।१३९।।
मनोवचनकायेन्द्रियनिःश्वासोच्छ्वासायुरुदयानाम्
येषां योगे जायते म्रियते वियोगे ते अपि दश प्राणाः ।।१३९।।

अर्थःमन, वचन, काय, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास अने आयुनो उदय एना संयोगथी तो ऊपजेजीवे तथा एना वियोगथी मरे तेने प्राण कहे छे, अने ते दश छे.

भावार्थः‘जीव’ एवो प्राणधारण अर्थ छे. त्यां व्यवहारनयथी दश प्राण छे. तेमां, यथायोग्य प्राणसहित जे जीवे तेने ‘जीव’ संज्ञा छे.

हवे एकेन्द्रियदि जीवोनां प्राणनी संख्या कहे छेः

एयक्खे चदु पाणा बितिचउरिंदिय-असण्णि-सण्णीणं
छह सत्त अट्ठ णवयं दह पुण्णाणं कमे पाणा ।।१४०।।
एकाक्षे चत्वारः प्राणा द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिनाम्
षट् सप्त अष्ट नवकं दश पूर्णानां क्रमेण प्राणाः ।।१४०।।

अर्थःएकेन्द्रियने चार प्राण छे, बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय तथा संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तजीवोने अनुक्रमे छ सातआठनवदश प्राण छे. आ प्राण पर्याप्तनी अपेक्षाए कह्या छे.

हवे ए ज जीवोने अपर्याप्तदशामां केटला प्राण छे ते कहे छेः


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दुविहाणमपुण्णाणं इगिबितिचउरक्ख-अंतिमदुगाणं
तिय चउ पण छह सत्त य कमेण पाणा मुणेयव्वा ।।१४१।।
द्विविधानां अपूर्णानां एकद्वित्रिचतुरक्षन्तिमद्विकानां
त्रयः चत्वारः पञ्च षट् सप्त च क्रमेण प्राणा ज्ञातव्याः ।।१४१।।

अर्थःबंने प्रकारना अपर्याप्त ( निवरृत्त्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तक) जे एकेन्द्रिय, बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय. चार इन्द्रिय, असंज्ञी तथा संज्ञीपंचेन्द्रियोने त्रण, चार, पांच, छ, सात ए प्रमाणे अनुक्रमे प्राण होय छे.

भावार्थःनिर्वृत्त्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रियोने त्रण, बे इन्द्रियने चार, त्रण इन्द्रियने पांच, चार इन्द्रियने छ तथा असंज्ञी संज्ञीपंचेन्द्रियने सात ए प्रमाणे प्राण होय छे.

हवे विकलत्रयजीवोनुं स्थान दर्शावे छेः

बितिचउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्मभूमीसु
चरिमे दीवे अद्धे चरम-समुद्दे वि सव्वेसु ।।१४२।।
द्वित्रिचतुरक्षाः जीवाः भवन्ति नियमेन कर्मभूमिषु
चरमे द्वीपे अर्द्धे चरमसमुद्रे अपि सर्वेषु ।।१४२।।

अर्थःबेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ए त्रण विकलत्रय कहेवाय छे. ते जीवो नियमथी कर्मभूमिमां, अंतना अर्धा द्वीपमां अने अंतना आखा समुद्रमां होय छे, भोगभूमिमां होता नथी.

भावार्थःपांच भरत, पांच ऐरावत अने पांच विदेह ए कर्मभूमिनां क्षेत्रमां तथा अंतना स्वयंप्रभद्वीपनी वच्चे स्वयंप्रभ पर्वत छे ते पर्वतनी पाछळना अर्धा स्वयंप्रभद्वीपमां तथा अंतना स्वयंभूरमण नामना आखा समुद्रमां आ विकलत्रय जीवो छे, तेथी अन्य जग्याए नथी.


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हवे अढी द्वीपनी बहार तिर्यंचो छे तेनी व्यवस्था हेमवत्पर्वत माफक छे एम कहे छेः

माणुसखित्तस्स बहिं चरिमे दीवस्स अद्धयं जाव
सव्वत्थे वि तिरिच्छा हिमवदतिरिएहिं सरिच्छा ।।१४३।।
मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः चरमे द्वीपस्य अर्द्धकं यावत्
सर्वत्र अपि तिर्यञ्चः हैमवततियरग्भिः सदृशाः ।।१४३।।

अर्थःमनुष्यक्षेत्रनी बहारमानुषोत्तर पर्वतनी पेली बाजुथी अंतना स्वयंप्रभद्वीपना अर्धा भागनी आ बाजु सुधीना वच्चेना सर्व द्वीपसमुद्रनां तिर्यंचो छे ते हैमवत्क्षेत्रना तिर्यंचो जेवा छे.

भावार्थःहेमवत्क्षेत्रमां जघन्यभोगभूमि छे. मानुषोत्तर पर्वतथी आगळना असंख्यात द्वीप-समुद्र तथा अर्धा स्वयंप्रभ नामना छेल्ला द्वीप सुधी सर्व ठेकाणे जघन्यभोगभूमि जेवी रचना छे अने त्यांना तिर्यंचोनां आयुष्य-काय हेमवत्क्षेत्रना तिर्यंचो जेवां छे.

हवे जलचरजीवोनां स्थान कहे छे.

लवणोए कालोए अंतिमजलहिम्मि जलयरा संति
सेससमुद्देसु पुणो ण जलयरा संति णियमेण ।।१४४।।
लवणोदके कालोदके अन्तिमजलधौ जलचराः सन्ति
शेषसमुद्रेषु पुनः न जलचराः सन्ति नियमेन ।।१४४।।

अर्थःलवणोदधि समुद्रमां, कालोदधि समुद्रमां तथा अंतना स्वयंभूरमण समुद्रमां जलचरजीवो छे, बाकीना वच्चेना समुद्रोमां नियमथी जलचरजीवो नथी.

हवे देवनां स्थान कहे छे. त्यां प्रथम भवनवासी-व्यंतरनां स्थान कहे छेः

खरभायपंकभाए भावणदेवाण होंति भवणणि
विंतरदेवाण तहा दुह्णं पि य तिरियलोए वि ।।१४५।।

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खरभागपङ्कभागयोः भावनदेवानां भवन्ति भवननि
व्यन्तरदेवानां तथा द्वयोरमपि च तिर्यग्लोके अपि ।।१४५।।

अर्थःखरभाग अने पंकभागमां भवनवासीओनां भवन तथा व्यंतरदेवोनां निवास छे. वळी ए बंनेनां तिर्यग्लोकमां पण निवास छे.

भावार्थःएक लाख एंशी हजार योजन जाडी पहेली रत्नप्रभा पृथ्वी छे; तेना त्रण भागमां (प्रथमना) सोळ हजार योजनप्रमाण खरभागमां असुरकुमार सिवाय बाकीना नव कुमारभवनवासीओनां भवन छे, तथा राक्षसकुल विना सात कुल व्यंतरोनां निवास छे; तथा बीजा चोराशी हजार योजनप्रमाण पंकभागमां असुरकुमार भवनवासी तथा राक्षसकुल व्यंतरो वसे छे. वळी तिर्यग्लोक अर्थात् मध्यलोक असंख्यात द्वीप-समुद्रप्रमाण छे; तेमां पण भवनवासीओनां भवन अने व्यंतरोनां निवास छे.

हवे ज्योतिषी, कल्पवासी तथा नारकीओनां निवास कहे छे

जोइसियाण विमाणा रज्जूमित्ते वि तिरियलोए वि
कप्पसुराः उड्ढम्हि य अहलोए होंति णेरइया ।।१४६।।
ज्योतिष्काणां विमानाः रज्जूमात्रे अपि तिर्यग्लोके अपि
कल्पसुराः ऊ र्ध्वं च अधोलोके भवन्ति नैरयिकाः ।।१४६।।

अर्थःएक राजु प्रमाण तिर्यग्लोकमां असंख्यात द्वीप-समुद्र छे तेना उपर ज्योतिषीदेवोनां विमान बिराजे छे; कल्पवासी ऊर्ध्वलोकमां छे तथा नारकी अधोलोकमां छे.

हवे जीवोनी संख्या कहे छे. त्यां प्रथम तेज-वायुकायना जीवोनी संख्या कहे छेः

बादरपज्जत्तिजुदा घणआवलिया-असंखभागा दु
किंचूणलोयमित्ता तेऊ वाऊ जहाकमसो ।।१४७।।

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बादरपयारप्तियुताः घनावलिका-असंख्यभागाः तु
किंञ्चिन्न्यूनलोकमात्राः तेजसः वायवः यथाक्रमशः ।।१४७।।

अर्थःअग्निकाय अने वायुकायना बादरपयारप्ति सहित जीव छे ते यथानुक्रम घनआवलीना असंख्यातमा भाग तथा कंईक न्यून लोकप्रदेशप्रमाण जाणवा.

भावार्थःअग्निकायना जीव घनआवलीना असंख्यातमा भाग तथा वायुकायना कंईक कम लोकप्रदेशप्रमाण छे.

हवे पृथ्वी अदिनी संख्या कहे छेः

पुढवीतोयसरीरा पत्तेया वि य पइट्ठिया इयरा
होंति असंखा सेढी पुण्णापुण्णा य तह य तसा ।।१४८।।
पृथ्वीतोयशरीराः प्रत्येकाः अपि च प्रतिष्ठिताः इतरे
भवन्ति असंख्यातश्रेणयः पर्याप्ताः अपर्याप्ताः च तथा च त्रसाः ।।१४८।।

अर्थःपृथ्वीकयिक, अपकयिक, प्रत्येकवनस्पतिकयिक, सप्रतिष्ठित वा अप्रतिष्ठित अने त्रस ए बधा पर्याप्त-अपर्याप्त जीवो छे ते जुदा जुदा असंख्यात जगत्श्रेणिप्रमाण छे.

बादरलद्धिअपुण्णा असंखलोया हवंति पत्तेया
तह य अपुण्णा सुहुमा पुण्णा वि य संखगुणगुणिया ।।१४९।।
बादरलब्ध्यपर्याप्तकाः असंख्यातलोकाः भवन्ति प्रत्येकाः
तथा च अपूर्णाः सूक्ष्माः पूर्णाः अपि च संख्यातगुणगुणिताः ।।१४९।।

अर्थःप्रत्येक वनस्पतिकाय तथा बादर लब्ध्यपर्याप्तक जीव छे ते असंख्यातलोकप्रमाण छे, ए ज प्रमाणे सूक्ष्म अपर्याप्तक पण असंख्यातलोकप्रमाण छे अने सूक्ष्मपर्याप्तक जीव छे ते संख्यातगुणा छे.

सिद्धा संता अणंता सिद्धहिंतो अणंतगुणगुणिया
होंति णिगोदा जीवा भागमणंतं अभव्वा य ।।१५०।।

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सिद्धाः सन्ति अनन्ताः सिद्धेभ्यः अनन्तगुणगुणिताः
भवन्ति निगोदाः जीवाः भागमनन्तं अभव्याः च ।।१५०।।

अर्थःसिद्धजीव अनंता छे, सिद्धोथी अनंतगुणा निगोदजीव छे तथा सिद्धोथी अनंतमा भागे अभव्यजीवो छे.

सम्मुच्छिया हु मणुया सेढियसंखिज्जभागमित्ता हु
गब्भजमणुया सव्वे संखिज्जा होंति णियमेण ।।१५१।।
सम्मूर्च्छनाः स्फु टं मनुजाः श्रेणिअसंख्यातभागमात्राः स्फु टम्
गर्भजमनुजाः सर्वे संख्याताः भवन्ति नियमेन ।।१५१।।

अर्थःसम्मूर्च्छनमनुष्य, जगतश्रेणिना असंख्यातमा भागमात्र छे अने सर्व गर्भजमनुष्य नियमथी संख्याता ज छे.

हवे सान्तर अने निरन्तर (ना नियमने) कहे छेः

देवा वि णारया वि य लद्धियपुण्णा हु संतरा होंति
सम्मुछिया वि मणुया सेसा सव्वे णिरंतरया ।।१५२।।
देवाः अपि नारकाः अपि च लब्ध्यपर्याताः स्फु टं सान्तराः भवन्ति
सम्मूर्छनाः अपि मनुजाः शेषाः सर्वे निरन्तरकाः ।।१५२।।

अर्थःदेव, नारकी, लब्ध्यपर्याप्तक तथा सम्मूर्छनमनुष्य एटला तो सान्तर एटले अंतर सहित छे, बाकीना सर्व जीवो निरंतर छे.

भावार्थःएक पर्यायथी अन्य पर्याय पामे, वळी पाछा फरीथी ते ने ते ज पर्याय पामे, एटलामां वच्चे जे अन्तर रहे तेने सान्तर (अन्तर सहित) कहेवामां आवे छे. अहीं नाना जीव अपेक्षाए अन्तर कह्युं छे, अर्थात् देव, नारकी, मनुष्य अने लब्ध्यपर्याप्तकजीवोनी उत्पत्ति कोई काळमां न थाय तेने पण अंतर कहे छे. तथा अंतर न पडे तेने निरंतर कहे छे. त्यां वैक्रियकमिश्रकाययोगी देवनारकीनुं तो बार मुहूर्तनुं अंतर कह्युं छे, अर्थात् कोई न ऊपजे तो बार मुहूर्त सुधी ज न ऊपजे. वळी सम्मूर्च्छनमनुष्य कोई न ज थाय तो पल्यना असंख्यातमा


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भाग काळ सुधी ज न थाय ए प्रमाणे अन्य ग्रंथोमां कह्युं छे. बाकीना सर्व जीव निरंतर ऊपजे छे.

हवे जीवोनी संख्या द्वारा अल्प-बहुत्व कहे छेः

मणुयादो णेरइया णेरइयादो असंखगुणगुणिया
सव्वे हवंति देवा पत्तेयवणप्फ दी तत्तो ।।१५३।।
मनुजात् नैरयिकाः नैरयिकात् असंख्यातगुणगुणिताः
सर्वे भवन्ति देवाः प्रत्येकवनस्पतयः ततः ।।१५३।।

अर्थःमनुष्योथी नारकी असंख्यातगुणा छे, नारकीओथी बधा देव असंख्यातगुणा छे अने देवोथी प्रत्येकवनस्पतिजीव असंख्यातगुणा छे.

पंचक्खा चउरक्खा लद्धियपुण्णा तहेव तेयक्खा
वेयक्खा वि य कमसो विसेससहिदा हु सव्वसंखाए ।।१५४।।
पञ्चाक्षाः चतुरक्षाः लब्ध्यपर्याप्ताः तथैव त्र्यक्षाः
द्वयक्षाः अपि च क्रमशः विशेषसहिताः स्फु टं सर्वसंख्यया ।।१५४।।

अर्थःपंचेन्द्रियथी चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रियथी त्रीन्द्रिय अने त्रीन्द्रियथी बेइन्द्रियए लब्ध्यपर्याप्तकजीव संसंख्या द्वारा अनुक्रमे विशेष अधिक छे. कंईक अधिकने विशेषधिक कहे छे.

चउरक्खा पंचक्खा वेयक्खा तह य जाण तेयक्खा
एदे पज्जत्तिजुदा अहिया अहिया कमेणेव ।।१५५।।
चतुरक्षाः पंञ्चाक्षाः द्वयक्षाः तथा च जानीहि त्र्यक्षाः
एते पयारप्तियुताः अधिकाः अधिकाः क्रमेण एव ।।१५५।।

अर्थःचतुन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, बे इन्द्रिय तेवी ज रीते त्रण इन्द्रियए पयारप्ति सहित जीवो अनुक्रमथी अधिक अधिक छे एम जाणो.


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परिवज्जिय सुहुमाणं सेसतिरिक्खाण पुण्णदेहाणं
इक्को भागो होदि हु संखातीदा अपुण्णाणं ।।१५६।।
परिवजरयित्वा सूक्ष्माणां शेषतिरश्चां पूर्णदेहानाम्
एकः भागः भवति स्फु टं संख्यातीताः अपूर्णानाम् ।।१५६।।

अर्थःसूक्ष्म जीवोने छोडी बाकीना जे तिर्यंचो छे तेमनो एक भाग तो पर्याप्त छे तथा बहुभाग असंख्यात अपर्याप्त छे.

भावार्थःबादर जीवोमां पर्याप्त थोडा छे अने अपर्याप्त घणा छे.

सुहुमापज्जत्ताणं एगो भागो हवेइ णियमेण
संखिज्जा खलु भागा तेसिं पज्जत्तिदेहाणं ।।१५७।।
सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तानां एकः भागः भवति नियमेन
संख्याताः खलु भागाः तेषां पर्याप्तदेहानाम् ।।१५७।।

अर्थःसूक्ष्म-पर्याप्त जीवो संख्यातभाग छे. तेमां अपर्याप्तक- जीवो एक भाग प्रमाण छे.

भावार्थःसूक्ष्म जीवोमां पर्याप्त घणा छे अने अपर्याप्त थोडा छे.

संखिज्जगुणा देवा अंतिमपडलादु आणदं जाव
तत्तो असंखगुणिदा सोहम्मं जाव पडिपडलं ।।१५८।।
संख्यातगुणाः देवाः अन्तिमपटलात् आनतं यावत्
ततः असंख्यातगुणाः सौधर्मं यावत् प्रतिपटलम् ।।१५८।।

अर्थःअनुत्तरविमान नामना अंतिम पटलथी मांडीने नीचेना आनतस्वर्गना पटल सुधीमां देव छे ते संख्यातगुणा छे अने ते पछीना नीचे सौधर्मस्वर्ग सुधीमां पटल पटल प्रति असंख्यातगुणा छे.

सत्तमणारयहिंतो असंखगुणिदा हवंति णेरइया
जाव य पढमं णरयं बहुदुक्खा होंति हेट्ठिट्ठा ।।१५९।।

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सप्तमनारकेभ्यः असंख्यगुणिताः भवन्ति नैरयिकाः
यावच्च प्रथमं नरकं बहुदुःखा भवन्ति अधोऽधः ।।१५९।।

अर्थःसातमा नरकथी उपर उपर पहेला नरक सुधी जीव असंख्यात असंख्यातगुणा छे अने प्रथम नरकथी मांडी नीचे नीचेना नरकमां घणुं दुःख छे.

कप्पसुरा भावणया विंतरदेवा तहेव जोइसिया
बे होंति असंखगुणा संखगुणा होंति जोइसिया ।।१६०।।
कल्पसुराः भावनकाः व्यन्तरदेवाः तथैव ज्योतिष्काः
द्वौ भवतः असंख्यगुणौ संख्यातगुणाः भवन्ति ज्योतिष्काः ।।१६०।।

अर्थःकल्पवासी देवोथी भवनवासी देव अने व्यंतर देव ए बंने रशि तो असंख्यातगुणा छे तथा ज्योतिषी देव व्यंतर देवोथी संख्यातगुणा छे.

हवे एकेन्द्रियदि जीवोनां उत्कृष्ट आयुष्य त्रण गाथामां कहे छेः

पत्तेयाणं आऊ वाससहस्सणि दह हवे परमं
अंतोमुहुत्तमाऊ साहारणसव्वसुहुमाणं ।।१६१।।
प्रत्येकानां आयुः वर्षसहस्रणि दश भवेत् परमम्
अन्तर्मुहूर्त्तं आयुः साधारणसर्वसूक्ष्माणाम् ।।१६१।।

अर्थःप्रत्येक वनस्पतिनुं उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्षनुं छे तथा साधारण सूक्ष्म-बादर, नित्य-इतरनिगोद अने बधाय सूक्ष्म पृथ्वी -अप-तेज-वायुकयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु अंतर्मुहूर्तनुं छे.

हवे बादर जीवोनुं उत्कृष्ट आयु कहे छेः

बावीससत्तसहसा पुढवीतोयाण आउसं होदि
अग्गीणं तिण्णि दिणा तिण्णि सहस्सणि वाऊणं ।।१६२।।

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द्वविंशतिसप्तसहस्रणि पृथ्वीतोयानां आयुष्कं भवति
अग्नीनां त्रीणि दिननि त्रीणि सहस्रणि वायूनाम् ।।१६२।।

अर्थःपृथ्वीकयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु बावीस हजार वर्षनुं छे, अप्कयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु सात हजार वर्षनुं छे, अग्निकयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु त्रण दिवसनुं छे तथा वायुकयिक जीवोनुं उत्कृष्ट आयु त्रण हजार वर्षनुं छे.

हवे बे इन्द्रिय अदिनुं उत्कृष्ट आयु कहे छेः

बारसवास वियक्खे एगुणवण्णा दिणणि तेयक्खे
चउरक्खे छम्मासा पंचक्खे तिण्णि पल्लणि ।।१६३।।
द्वादशवषारणि द्वयक्षे एकोनपंचाशत् दिननि त्र्यक्षे
चतुरक्षे षण्मासाः पंचाक्षे त्रीणि पल्यनि ।।१६३।।

अर्थःबे इन्द्रिय जीवोनुं उत्कृष्ट आयु बार वर्षनुं छे, त्रण इन्द्रिय जीवोनुं उत्कृष्ट आयु ओगणपचास (४९) दिवसनुं छे, चार इन्द्रिय जीवोनुं उत्कृष्ट आयु छ महिनानुं छे तथा पंचेन्द्रिय जीवोनुं उत्कृष्ट आयु भोगभूमिनी अपेक्षाए त्रण पल्यनुं छे.

हवे बधांय तिर्यंच अने मनुष्योनुं जघन्य आयु कहे छेः

सव्वजहण्णं आऊ लद्धियपुण्णाण सव्वजीवाणं
मज्झिमहीणमुहुत्तं पज्जतिजुदाण णिक्किट्ठं ।।१६४।।
सर्वजघन्यं आयुः लब्ध्यपर्याप्तानां सर्वजीवानाम्
मध्यमहीनमुहूर्तं पयारप्तियुतानां निःकृष्टम् ।।१६४।।

अर्थःलब्ध्यपर्याप्तक सर्व जीवोनुं जघन्य आयु मध्यम हीनमुहूर्त छे अने ते क्षुद्रभवमात्र जाणवुं अर्थात् एक उच्छ्वासना अढारमां भागमात्र छे वळी एकेन्द्रियदिथी मांडीने कर्मभूमिनां तिर्यंच- मनुष्य ए बधाय पर्याप्त जीवोनुं जघन्य आयु पण मध्यम हीनमुहूर्त छे अने ते पहेलानाथी मोटुं मध्यम अंतर्मुहूर्त छे.


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हवे देव-नारकीओनुं उत्कृष्ट तेम ज जघन्य आयु कहे छेः

देवाण णारयाणं सायरसंखा हवंति तेत्तीसा
उक्किट्ठं च जहण्णं वासाणं दस सहस्सणि ।।१६५।।
देवानां नारकाणां सागरसंख्या भवन्ति त्रयस्त्रिंशत्
उत्कृष्टं च जघन्यं वर्षाणां दशसस्रणि ।।१६५।।

अर्थःदेवोनुं तथा नारकी जीवोनुं उत्कृष्ट आयु तेत्रीस सागरनुं छे तथा तेमनुं जघन्य आयु दस हजार वर्षनुं छे.

भावार्थःआ (आयु) सामान्य देवोनी अपेक्षाए कह्युं छे. विशेष त्रिलोकसार अदि ग्रंथोमांथी जाणवुं.

हवे एकेन्द्रिय अदि जीवोनां शरीरनी उत्कृष्ट-जघन्य अवगाहना दस गाथामां कहे छेः

अंगुलअसंखभागो एयक्खचउक्कदेहपरिमाणं
जोयणसहस्समहियं पउमं उक्कस्सयं जाण ।।१६६।।
अङ्गुलासंख्यातभागः एकांक्षचतुष्तकदेहपरिमाणम्
योजनसहस्रं अधिकं पद्मं उत्कृष्टकं जानीहि ।।१६६।।

अर्थःएकेन्द्रियचतुष्क अर्थात् पृथ्वी-अप-तेज-वायुकायना जीवोनी अवगाहना जघन्य तथा उत्कृष्ट घनअंगुलना असंख्यातमा भाग छे, त्यां सूक्ष्म अने बादर पर्याप्त-अपर्याप्तनुं शरीर नानुं-मोटुं छे तो पण घनअंगुलना असंख्यातमां भाग ज सामान्यपणे कह्युं छे. विशेष श्री गोम्मटसारमांथी जाणवुं. वळी अंगुलनुं (माप) उत्सेध अंगुल-आठ यवप्रमाण लेवुं पण प्रमाणअंगुल न लेवुं. प्रत्येक वनस्पतिकायमां उत्कृष्ट अवगाहनायुक्त कमळ छे. तेनी अवगाहना कंईक अधिक एक हजार योजन छे.

बारसजोयण संखो कोसतियं गोब्भिया समुद्दिट्ठा
भमरो जोयणमेगं सहस्स सम्मुच्छिमो मच्छो ।।१६७।।

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द्वादशयोजनायामः संखः क्रोशत्रिकं ग्रैष्मिका समुद्दिष्टा
भ्रमरः योजनं एकं सहस्रं सम्मूर्च्छिमः मत्स्यः ।।१६७।।

अर्थःबे इन्द्रियमां शंख मोटो छे, तेनी उत्कृष्ट अवगाहना बार योजन लांबी छे; त्रण इन्द्रियमां गोभिका अथात् कानखजूरो मोटो छे, तेनी उत्कृष्ट अवगाहना त्रण कोश लांबी छे; चार इन्द्रियमां भ्रमर मोटो छे. तेनी उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन लांबी छे; तथा पंचेन्द्रियमां संमूर्च्छन मच्छ मोटो छे, तेनी उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन लांबी छे. आ जीवो छेल्ला स्वयंभूरमण द्वीप तथा समुद्रमां जाणवा.

हवे नारकीना उत्कृष्ट अवगाहना कहे छेः

पंचसयाधणुछेहा सत्तमणरए हवंति णारइया
तत्तो उस्सेहेण य अद्धद्धा होंति उवरुवरिं ।।१६८।।
पश्चशतधनूत्सेधाः सप्तमनरके भवन्ति नारकाः
ततः उत्सेधेन च अर्धार्धाः भवन्ति उपर्युपरि ।।१६८।।

अर्थःसातमा नरकमां नारकीजीवनो देह पांचसो धनुष ऊंचो छे; तेना उपर देहनी ऊंचाई अडधी अडधी छे अर्थात् छठ्ठामां बसो पचास धनुष, पांचमामां एकसो पच्चीस धनुष, चोथामां साडाबासठ धनुष, त्रीजामां सवाएकत्रीस धनुष, बीजामां पंदर धनुष दशा आनी, अने पहेलामां सात धनुष तेर आनीए प्रमाणे जाणवुं. तेमां ओगणपचास पटल छे अने ते बधांमां जुदी जुदी विशेष अवगाहना श्री त्रिलोकसारमांथी जाणवी.

हवे देवोनी अवगाहना कहे छेः

असुराणं पणवीसं सेसं णवभावणा य दहदंडं
विंतरदेवाण तहा जोइसिया सत्तधणुदेहा ।।१६९।।
असुराणां पश्चविंशतिः शेषाः नवभावनाश्च दशदण्डाः
व्यन्तरदेवानां तथा ज्योतिष्काः सप्तधनुर्देहाः ।।१६९।।