Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 68-102 ; 4. Ekatvanupreksha; 5. Anyatvanupreksha; 6. Ashuchitvanupreksha; 7. Aashravanupreksha; 8. Sanvaranupreksha; 9. Nirjaranupreksha.

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छे तेमांथी एटली ज (कर्मवर्गणाओ) समये समये खरी जाय छे. वळी ए ज प्रमाणे औदरिकदि शरीरोना समयप्रबद्धो शरीरग्रहणना समयथी मांडीने आयु स्थिति सुधी ग्रहण करे छे वा छोडे छे. ए प्रमाणे अनदिकाळथी मांडी अनंत वार (कर्म-नोकर्म पुद्गलोनुं) ग्रहण करवुं वा छोडवुं थया ज करे छे.

हवे त्यां एक परावर्तनना प्रारंभमां प्रथम समयना समय- प्रबद्धमां जेटला पुद्गलपरमाणुने जेवा स्निग्ध-रूक्ष-वर्ण-गंध-रस-स्पर्श तीव्र-मंद-मध्यम भावथी ग्रह्या होय तेटला ज तेवी रीते कोई समये फरी ग्रहणमां आवे त्यारे एक कर्मनोकर्मपरावर्तन थाय छे, पण वच्चे अनंत वार अन्य प्रकारना परमाणु ग्रहण थाय तेने अहीं न गणवा; एवी रीते जेवा ने तेवा ज (कर्म-नोकर्मपरमाणुओने) फरीथी ग्रहण थवाने अनंतकाळ जाय छे. तेने एक द्रव्यपरावर्तन कहीए छीए. ए प्रमाणे आ जीवे आ लोकमां अनंता परावर्तन कर्यां.

हवे क्षेत्रपरावर्तन कहे छेः

सो को वि णत्थि देसो लोयायासस्स णिरवसेसस्स
जत्थ ण सव्वो जीवो जादो मरिदो य बहुवारं ।।६८।।
सः कः अपि नस्ति देशः लोकाकाशस्य निरवशेषस्य
यत्र न सर्वः जीवः जातः मृतः च बहुवारम् ।।६८।।

अर्थःआ समग्र लोकाकाशनो एवो कोई पण प्रदेश नथी के ज्यां आ सर्व संसारी जीवो अनेक वार ऊपज्यामर्या न होय.

भावार्थःसर्व लोकाकाशना प्रदेशोमां आ जीव अनंतवार ऊपज्यो-मर्यो छे. एवो एक पण प्रदेश बाकी रह्यो नथी के ज्यां (आ जीव) न ऊपज्यो-मर्यो होय. अहीं आ प्रमाणे समजवुं के लोकाकाशना प्रदेशो असंख्यात छे. तेना मध्यना आठ प्रदेशने वचमां लईने सूक्ष्मनिगोदलब्धअपर्याप्तक जघन्य अवगाहना धारण करी जीव ऊपजे छे. हवे तेनी अवगाहना पण असंख्यात प्रदेशी छे. ते जेटला प्रदेश


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छे तेटली वार तो त्यां ज ए ज अवगाहना पामे छे, वच्चे अन्य जग्याए अन्य अवगाहनाथी (जीव) ऊपजे तेनी अहीं गणतरी नथी. त्यार पछी एक एक प्रदेश क्रमपूर्वक वधती अवगाहना पामे ते अहीं गणतरीमां छे. ए प्रमाणे (क्रमपूर्वक वधतां वधतां) महामच्छनी उत्कृष्ट अवगाहना सुधी पूर्ण करे अने ए रीते अनुक्रमे लोकाकाशना सर्व प्रदेशोने स्पर्शे त्यारे एक क्षेत्रपरावर्तन थाय.

हवे काळपरावर्तन कहे छेः

उवसप्पिणिअवसप्पिणिपढमसमयदिचरमसमयंतं
जीवो कमेण जम्मदि मरदि य सव्वेसु कालेसु ।।६९।।
उत्सर्पिणीअवसर्पिणीप्रथमसमयदिचरमसमयान्तम्
जीवः क्रमेण जायते म्रियते च सर्वेषु कालेषु ।।६९।।

अर्थःउत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी काळना प्रथम समयथी मांडीने अंतना समय सुधी आ जीव अनुक्रमपूर्वक सर्वकाळमां ऊपजे तथा मरे छे (ते काळपरावर्तन छे).

भावार्थःकोई जीव, दस कोडाकोडी सागरनो जे उत्सर्पिणीकाळ तेना प्रथम समयमां जन्म पामे, पछी बीजी उत्सर्पिणीना बीजा समयमां जन्मे, ए ज प्रमाणे त्रीजी उत्सर्पिणीना त्रीजा समयमां जन्मे, ए प्रमाणे अनुक्रमपूर्वक अंतना समय सुधी जन्मे, वच्चे अन्य समयोमां अनुक्रमरहित जन्मे तेनी अहीं गणतरी नथी. ए ज प्रमाणे अवसर्पिणीकाळना पण दस कोडाकोडी सागरना समयो (क्रमवार) पूर्ण करे तथा ए ज प्रमाणे मरण करे तेने एक काळपरावर्तन कहे छे. तेमां पण अनंत काळ थाय छे.

हवे भवपरावर्तन कहे छेः

णेरइयदिगदीणं अवरट्ठिदिदो वरट्ठिटी जाव
सव्वट्ठिदिसु वि जम्मदि जीवो गेवेज्जपज्जंतं ।।७०।।

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नैरयिकदिगतीनां अपरस्थितितः वरस्थितिः यावत्
सवरस्थितिषु अपि जायते जीवः ग्रैवेयकपर्यन्तम् ।।७०।।

अर्थःसंसारी जीव, नरकदि चार गतिनी जघन्य स्थितिथी मांडीने ग्रैवेयकपर्यंत उत्कृष्ट स्थिति सुधी सर्व स्थितिओमां जन्मे छे.

भावार्थःनरकगतिनी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षनी छे. तेना जेटला समय छे तेटली वार तो जघन्य स्थितिनुं आयुष्य धारण करीने जन्मे, पछी एक समय अधिक आयुष्य लईने जन्मे, पछी बे समय अधिक आयुष्य लईने जन्मे, ए ज प्रमाणे अनुक्रमपूर्वक तेत्रीस सागर सुधीनुं आयुष्य पूर्ण करे. पण वच्चे-वच्चे ओछुं-वत्तुं आयुष्य लई जन्मे तेनी अहीं गणतरी नथी. ए ज प्रमाणे तिर्यंचगतिनुं जघन्य आयु अंतर्मुहूर्त छे. तेना जेटला समय छे तेटली वार जघन्य आयुनो धारक थई, पछी एक समय अधिक-अधिकना क्रमथी (ए तिर्यंचगतिनुं उत्कृष्ट) त्रण पल्य आयु पूर्ण करे; पण वच्चे ओछुंवत्तुं आयु पामे तेनी अहीं गणतरी नथी. ए ज प्रमाणे मनुष्यनुं जघन्य आयुथी मांडीने उत्कृष्ट त्रण पल्यनुं आयु पूर्ण करे, तथा ए ज प्रमाणे देवगतिनुं जघन्य दस हजार वर्षथी मांडीने अंतिम ग्रैवेयकनी एकत्रीस सागर सुधीनुं समय-समय अधिक अनुक्रमपणे पूर्ण करे; तेने भवपरावर्तन कहे छे. नव ग्रैवेयकनी आगळ ऊपजवावाळो एक बे भव करीने मुक्त ज थाय छे, तेथी तेने अहीं गण्यो नथी. ए भवपरावर्तननो पण अनंत काळ छे.

हवे भावपरावर्तन कहे छेः

परिणमदि सण्णिजीवो विविहकसाएहिं ट्ठिदिणिमित्तेहिं
अणुभागणिमित्तेहिं य वट्टंतो भावसंसारे ।।७१।।
परिणमते संज्ञिजीवः विविधकषायैः स्थितिनिमित्तैः
अनुभागनिमित्तैः च वर्त्तमानः भावसंसारे ।।७१।।

अर्थःभावसंसारमां वर्ततो संज्ञी जीव अनेक प्रकारना कर्मोना


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स्थितिबंधना तथा अनुभागबंधना कारणरूप अनेक प्रकारना कषायोरूपे परिणमे छे.

भावार्थःकर्मोना एक स्थितिबंधना कारणरूप कषायोनां स्थानक असंख्यातलोकप्रमाण छे. तेमां एक स्थितिबंधस्थानमां अनुभागबंधना कारणरूप कषायोनां स्थान असंख्यातलोकप्रमाण छे. वळी योगस्थान छे ते जगतश्रेणीना असंख्यातमा भागे छे. तेने आ जीव परिवर्तन करे छे. ते केवी रीते? कोई संज्ञी मिथ्याद्रष्टि पर्याप्त जीव पोताने योग्य सर्व जघन्य ज्ञानावरण कर्मप्रकृतिनी स्थिति अंतःकोडाकोडी सागर प्रमाण बांधे, तेनां कषायस्थान असंख्यात लोकमात्र छे. तेमां सर्व जघन्यस्थान एकरूप परिणमे. तेमां ते एक स्थानमां अनुभागबंधना कारणरूप स्थान एवा असंख्यातलोकप्रमाण छे, तेमांथी एक (स्थान) सर्वजघन्यरूप परिणमे, त्यां तेने योग्य सर्वजघन्य योगस्थानरूप परिणमे त्यारे ज जगतश्रेणीना असंख्यातमा भागनां योगस्थान अनुक्रमथी पूर्ण करे; पण वचमां अन्य योगस्थानरूप परिणमे ते अहीं गणतरीमां नथी. ए प्रमाणे योगस्थान पूर्ण थतां अनुभागस्थाननुं बीजुं स्थान परिणमे. त्यां पण ए ज प्रमाणे सर्व योगस्थान पूर्ण करे. त्यार पछी त्रीजुं अनुभागस्थान थाय. त्यां पण तेटलां ज योगस्थान भोगवे. ए प्रमाणे असंख्यातलोकप्रमाण अनुभागस्थान अनुक्रमे पूर्ण करे त्यारे बीजुं कषायस्थान लेवुं. त्यां पण उपर कहेला क्रमपूर्वक असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागस्थान तथा जगत्श्रेणीना असंख्यातमा भागनां योगस्थान पूर्वोक्त क्रमपूर्वक भोगवे, त्यारे त्रीजुं कषायस्थान लेवुं; ए प्रमामे चोथुं

पांचमुंछठ्ठुं अदि असंख्यात लोकप्रमाण कषायस्थान पूर्वोक्त क्रमपूर्वक पूर्ण करे त्यारे एक समय अधिक जघन्यस्थितिस्थान लेवुं. तेमां पण कषायस्थान, अनुभागस्थान अने योगस्थान उपर कहेला क्रमपूर्वक भोगवे. ए प्रमाणे बे समय अधिक जघन्यस्थितिथी मांडी त्रीस कोडाकोडी सागर सुधी ज्ञानावरणकर्मनी स्थिति पूर्ण करे. ए प्रमाणे सर्व मूळकर्मप्रकृतिओ तथा उत्तरकर्मप्रकृतिओनो क्रम जाणवो. ए रीते परिणमतां-परिणमतां अनंत काळ व्यतीत थाय छे; तेने एकठो करतां


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एक भावपरावर्तन थाय. एवां अनंत भावपरावर्तन आ जीव भोगवतो आव्यो छे.

हवे ए पांच परावर्तनना कथनने संकोचे छेः

एवं अणाइकालं पंचपयारे भमेइ संसारे
णाणादुक्खणिहाणे जीवो मिच्छत्तदोसेण ।।७२।।
एवं अनदिकालं पञ्चप्रकारे भ्रमति संसारे
नानादुःखनिधाने जीवः मिथ्यात्वदोषेण ।।७२।।

अर्थःए प्रमाणे पंचपरावर्तनरूप संसारमां आ जीव अनदिकाळथी मिथ्यात्वदोष वडे भमे छे. केवो छे संसार? अनेक प्रकारनां दुःखोनुं निधान (खजानो) छे.

हवे एवा संसारथी छूटवानो उपदेश करे छेः

इय संसारं जणिय मोहं सव्वायरेण चइऊणं
तं झायह ससहावं संसरणं जेण णासेइ ।।७३।।
इति संसारं ज्ञात्वा मोहं सर्वादरेण त्यक्त्वा
तं ध्यायत स्वस्वभावं संसरणं येन नश्यति ।।७३।।

अर्थःउपर कह्या प्रमाणे आ संसारने जाणी, सर्व प्रकारे उद्यम करी, मोहने छोडी हे भव्यात्मा! तुं ए आत्मस्वभावनुं ध्यान कर के जेथी संसारपरिभ्रमणनो नाश थाय.

(दोहरा)
पंचपरावर्तनमयी, दुःखरूप संसार;
मिथ्याकर्म उदय थकी, भरमे जीव अपार.
इति संसारानुप्रेक्षा समाप्त.
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४. एकत्वानुप्रेक्षा
इक्को जीवो जायदि इक्को गब्भम्हि गिह्णदे देहं
इक्को बाल-जुवाणो इक्को वुड्ढो जरागहिओ ।।७४।।
एकः जीवः जायते एकः गर्भे गृह्णति देहं
एकः बालः युवा एकः वृद्धः जरागृहितः ।।७४।।

अर्थःजीव छे ते एकलो ऊपजे छे, ते एकलो ज गर्भमां देहने ग्रहण करे छे, ते एकलो ज बाळक थाय छे, ते एकलो ज युवान अने ते एकलो ज जरावस्थाथी ग्रसित वृद्ध थाय छे.

भावार्थःजीव एकलो ज जुदी जुदी अवस्थाओने धारण करे छे.

इक्को रोई सोई इक्को तप्पेइ माणसे दुक्खे
इक्को मरदि वराओ णरयदुहं सहदि इक्को वि ।।७५।।
एकः रोगी शोकी एकः तप्यते मानसैः दुःखैः
एकः म्रियते वराकः नरकदुःखं सहते एकः अपि ।।७५।।

अर्थःजीव एकलो ज रोगी थाय छे, जीव एकलो ज शोकार्त थाय छे, जीव एकलो ज मानसिक दुःखथी तप्तायमान थाय छे, जीव एकलो ज मरे छे अने जीव एकलो ज दीन बनी नरकनां दुःखो सहन करे छे.

भावार्थःजीव एकलो ज अनेक अनेक अवस्थाओने धारण करे छे.

इक्को संचदि पुण्णं इक्को भुंजेदि विविहसुरसोक्खं
इक्को खवेदि कम्मं इक्को वि य पावए मोक्खं ।।७६।।
एकः संचिनोति पुण्यं एकः भुनक्ति विविधसुरसौंख्यं
एकः क्षपति कर्म्म एकः अपि च प्राप्नोति मोक्षम् ।।७६।।

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अर्थःजीव एकलो ज पुण्यनो संचय करे छे, जीव एकलो ज देवगतिनां सुख भोगवे छे, जीव एकलो ज कर्मनो क्षय करे छे, अने जीव एकलो ज मोक्षने प्राप्त करे छे.

भावार्थःजीव एकलो ज पुण्योपार्जन करी स्वर्ग जाय छे अने जीव एकलो ज कर्मनाश करी मोक्ष जाय छे.

सुयणो पिच्छंतो वि हु ण दुक्खलेसं पि सक्कदे गहिदुं
एवं जाणंतो वि हु तो वि ममत्तं ण छंडेइ ।।७७।।
स्वजनः पश्यन्नपि स्फु टं न दुःखलेशं अपि शक्नोति ग्रहीतुम्
एवं जानन् अपि स्फु टं ततः अपि ममत्वं न त्यजति ।।७७।।

अर्थःस्वजन अर्थात् कुटुंबी छे ते पण आ जीवने दुःख आवतां तथा तेने देखवा छतां पण, ते दुःखने लेश पण ग्रहण करवाने असमर्थ थाय छे. आ प्रमाणे प्रगटपणे जाणवा छतां पण आ जीव कुटुंब प्रत्येनुं ममत्व छोडतो नथी.

भावार्थःपोताने थतुं दुःख पोते ज भोगवे छे, तेमां कोई भागीदार बनी शकतुं नथी; छतां आ जीवने एवुं अज्ञान छे के दुःख सहतो छतां पण परना ममत्वने छोडतो नथी.

हवे कहे छे के आ जीवने निश्चयथी एक धर्म ज शरण छेः

जीवस्स णिच्छयादो धम्मो दहलक्खणो हवे सुयणो
सो णेइ देवलोए सो चिय दुक्खक्खयं कुणइ ।।७८।।
जीवस्य निश्चयतः धर्मः दशलक्षणः भवेत् स्वजनः
सः नयति देवलोके सः एव दुःखक्षयं करोति ।।७८।।

अर्थःआ जीवने पोतानो खरो हितस्वी निश्चयथी एक उत्तम क्षमदि दशलक्षणधर्म ज छे, कारण के ते धर्म ज देवलोकने प्राप्त करावे छे तथा ते धर्म ज सर्व दुःखना नाशने (मोक्षने) करे छे.


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भावार्थःधर्म सिवाय अन्य कोई हितस्वी नथी.

हवे कहे छे के शरीरथी भिन्न एवा एकला जीवने तुं जाणः

सव्वायरेण जाणह इक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं
जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ।।७९।।
सर्वादरेण जानीहि एकं जीवं शरीरतः भिन्नम्
यस्मिन् तु ज्ञाते जीवे भवति अशेषं क्षणे हेयम् ।।७९।।

अर्थःहे भव्यात्मा! तुं सर्व प्रकारे उद्यम करीने शरीरथी भिन्न एकला जीवने जाण! जेने जाणतां बाकीनां सर्व परद्रव्यो क्षणमात्रमां तजवा योग्य लागे छे.

भावार्थःज्यारे पोताना स्वरूपने जाणे त्यारे सर्व परद्रव्यो हेयरूप ज भासे छे. तेथी अहीं पोतानुं स्वरूप ज जाणवानो महान उपदेश छे.

(दोहरो)
एक जीव पर्याय बहु, धारे स्व-पर निदान;
पर तजी आपा जाणके, करो भव्य कल्याण.
इति एकत्वानुप्रेक्षा समाप्त.

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५. अन्यत्वानुप्रेक्षा
अण्णं देहं गिह्णदि जणणी अण्णा य होदि कम्मादो
अण्णं होदि कलत्तं अण्णो वि य जायदे पुत्तो ।।८०।।
अन्यं देहं गृह्णति जननी अन्या च भवति कर्मतः
अन्यत् भवति कलत्रं अन्यः अपि च जायते पुत्रः ।।८०।।

अर्थःआ जीव संसारमां जे देह ग्रहण करे छे ते पोतानाथी अन्य छे, माता छे ते पण अन्य छे, स्त्री छे ते पण अन्य छे तथा पुत्र छे ते पण अन्य ऊपजे छे; आ सर्व कर्मसंयोगथी आवी मळे छे.

एवं बहिरदव्वं जाणदि रूवादु अप्पणो भिण्णं
जाणंतो वि हु जीवो तत्थेव य रज्जदे मूढो ।।८१।।
एवं बाह्यद्रव्यं जानति रूपात् स्फु टं आत्मनः भिन्नं
जानन् अपि स्फु टं जीवः तत्रैव च रज्यति मूढः ।।८१।।

अर्थःए प्रमाणे पूर्वोक्त प्रकारथी सर्व बाह्यवस्तुओने आत्माना स्वरूपथी न्यारी (भिन्न) प्रगटपणे जाणवा छतां पण आ मूढमोही जीव ते परद्रव्योमां ज राग करे छे, परंतु ए मोटी मूर्खता छे.

जो जणिऊण देहं जीवसरूवादु तच्चदो भिण्णं
अप्पाणं पि य सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं ।।८२।।
यः ज्ञात्वा देहं जीवस्वरूपात् तत्त्वतः भिन्नम्
आत्मानं अपि च सेवते कार्यकरं तस्य अन्यत्वम् ।।८२।।

अर्थःजे जीव पोताना आत्मस्वरूपथी देहने परमार्थपणे भिन्न जाणी आत्मस्वरूपने सेवे छेध्यावे छे तेने आ अन्यत्वभावना कार्यकारी छे.


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भावार्थःजे देहदि परद्रव्योने न्यारां जाणी पोताना स्वरूपनुं सेवन करे छे तेने आ अन्यत्वभावना कार्यकारी छे.

(दोहरो)
निज आतमथी भिन्न पर, जाणे जे नर दक्ष;
निजमां रमे वमे अपर, ते शिव लखे प्रत्यक्ष.
इति अन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्त.
६. अशुचित्वानुप्रेक्षा
सयलकुहियाण पिंडं किमिकुलकलियं अउव्वदुग्गंधं
मलमुत्ताण य गेहं देहं जाणेहि असुइमयं ।।८३।।
सकलकुथितानां पिण्डं कृमिकुलकलितं अपूर्वदुर्गन्धं
मलमूत्राणां च गृहं देहं जानीहि अशुचिमयम् ।।८३।।

अर्थःहे भव्य! तुं आ देहने अपवित्रमय जाण! केवो छे ए देह? सघळी कुत्सित् अर्थात् निंदनीय वस्तुओनो पिंडसमुदाय छे. वळी ते केवो छे? कृमि अर्थात् उदरना जीव जे कीडा तथा निगोदिया जीवोथी भरेलो छे, अत्यंत दुर्गन्धमय छे तथा मळ-मूत्रनुं घर छे.

भावार्थःआ देहने सर्व अपवित्र वस्तुओना समूहरूप जाण.

हवे कहे छे केआ देह अन्य सुगंधित वस्तुओने पण पोताना संयोगथी दुर्गन्धमय करे छे.

सुट्ठु पवित्तं दव्वं सरससुगंधं मणोहरं जं पि
देहणिहित्तं जायदि घिणावणं सुट्ठु दुग्गंधं ।।८४।।

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सुष्ठु पवित्रं द्रव्यं सरससुगन्धं मनोहरं यदपि
देहनिक्षिप्तं जायते घृणास्पदं सुष्ठु दुर्गन्धम् ।।८४।।

अर्थःरूडा, पवित्र, सुरस अने मनोहर सुगंधित द्रव्यो छे ते पण आ देहमां नाखतांनी साथे ज घृणास्पद अने अत्यंत दुर्गन्धमय बनी जाय छे.

भावार्थःआ देहने चंदन-कपूरदि लगावतां ते पण दुर्गन्धमय थई जाय छे, मिष्टान्नदि सुरस वस्तुओ खातां ते पण मलदिरूप परिणमी जाय छे तथा अन्य वस्तु पण आ देहना स्पर्शमात्रथी अस्पर्श्य थई जाय छे.

फरी आ देहने अशुचिरूप दर्शावे छेः

मणुयाणं असुइमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण
तेसिं विरमणकज्जे ते पुण तत्थेव अणुरत्ता ।।८५।।
मनुजानां अशुचिमयं विधिना देहं विनिर्मितं जानीहि
तेषां विरमणकार्ये ते पुनः तत्र एव अनुरक्ताः ।।८५।।

अर्थःहे भव्य? आ मनुष्योनो देह, कर्मोए अशुचिमय बनाव्यो छे, त्यां आवी उत्प्रेक्षासंभावना जाण केए मनुष्योने वैराग्य उपजाववा माटे ज एवो रच्यो छे; छतां पण आ मनुष्य एवा देहमां पण अनुरागी थाय छे ए मोटुं अज्ञान छे.

वळी ए ज अर्थने द्रढ करे छेः

एवंविहं पु देहं पिच्छंता वि य कुणंति अणुरायं
सेवंति आयरेण य अलद्धपुव्वं ति मण्णंता ।।८६।।
एवंविधं अपि देहं पश्यन्तः अपि च कुवरन्ति अनुरागम्
सेवन्ते आदरेण च अलब्धपूर्वं इति मन्यमानाः ।।८६।।

अर्थःपूर्वोक्त प्रकारे एवा अशुचि देहने प्रत्यक्ष देखवा छतां पण आ मनुष्य त्यां अनुराग करे छे, जाणे पूर्वे (आवो देह) कदी


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पण पाम्यो न होय एम मानतो थको तेने आदरे छेसेवे छे, पण ते महान अज्ञान छे.

हवे आ देहथी जे विरक्त थाय छे तेने अशुचिभावना सफल छे एम कहे छेः

जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं
अप्पसरूवि सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स ।।८७।।
यः परदेहविरक्तः निजदेहे न च करोति अनुरागम्
आत्मस्वरूपे सुरक्तः अशुचित्वे भावना तस्य ।।८७।।

अर्थःजे भव्य, परदेह जे स्त्री अदिना देह तेनाथी विरक्त थतो थको निज देहमां पण अनुराग करतो नथी अने आत्मस्वरूपमां ध्यान वडे लीन रहे छे तेने अशुचिभावना सार्थक थाय छे.

भावार्थःकेवळ विचारमात्रथी ज भावना प्रधान (साची) नथी, परन्तु देहने अशुचिरूप विचारवाथी जेने वैराग्य प्रगट थाय तेने भावना सत्यार्थ कहेवाय छे.

(दोहरो)
स्वपर देहकुं अशुचि लखी, तजै तास अनुराग;
ताके साची भावना, सो कहीए महाभाग्य.
इति अशुचित्वानुप्रेक्षा समाप्त.

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७. आuावानुप्रेक्षा
मणवयणकायजोया जीवपएसाण फंदणविसेसा
मोहोदएण जुत्ता विजुदा वि य आसवा होंति ।।८८।।
मनवचनकाययोगाः जीवप्रदेशानां स्पन्दनविशेषाः
मोहोदयेन युक्ताः वियुताः अपि च आस्रवाः भवन्ति ।।८८।।

अर्थःमन-वचन-कायरूप योग छे ते ज आस्रव छे. केवा छे ते योग? जीवप्रदेशोनुं परिस्पंदन अर्थात् चलन-कंपन तेना ज जे विशेष (भेद) छे ते ज योग छे. वळी ते केवा छे? मोहकर्मना उदयरूप मिथ्यात्व- कषायकर्म सहित छे तथा ए मोहना उदयथी रहित पण छे.

भावार्थःमन-वचन-कायनुं निमित्त पामीने जीवना प्रदेशोनुं चलाचल थवुं ते योग छे अने तेने ज आस्रव कहीए छीए. ते गुणस्थानोनी परिपाटी अनुसार सूक्ष्मसांपराय नामना दशमा गुणस्थान सुधी तो मोहना उदयरूप यथासंभवित मिथ्यात्वकषायोथी सहित होय छे तेने सांपरयिक आस्रव कहीए छीए तथा तेनी उपरना तेरमा गुणस्थान सुधी मोहना उदयरहित (योग) छे तेने इर्यापथ आस्रव कहीए छीए. जे पुद्गलवर्गणाओ कर्मरूप परिणमे तेने द्रव्यास्रव कहीए छीए तथा जीवप्रदेशो चंचल थाय छे तेने भावास्रव कहीए छीए.

हवे मोहना उदय सहित जे आस्रव छे ते ज (खरेखर) आस्रव छे एम विशेषपणे कहे छेः

मोहविवागवसादो जे परिणामा हवंति जीवस्स
ते आसवा मुणिज्जसु मिच्छत्ताई अणेयविहा ।।८९।।
मोहविपाकवशात् ये परिणामा भवन्ति जीवस्य
ते आस्रवाः मन्यस्व मिथ्यात्वादयः अनेकविधाः ।।८९।।

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अर्थःमोहकर्मना उदयवशे आ जीवने जे परिणाम थाय छे ते ज आस्रव छे, एम हे भव्य? तुं प्रगटपणे जाण! ते परिणाम मिथ्यात्वदि अनेक प्रकारना छे.

भावार्थःकर्मबंधनुं कारण आस्रव छे. ते मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योगएम पांच प्रकारना छे. तेमां स्थिति- अनुभागरूप बंधना कारण तो मिथ्यात्वदि चार ज छे अने ते मोहकर्मना उदयथी थाय छे; तथा योग छे ते तो समयमात्र बंधने करे छे पण कांई स्थिति-अनुभागने करतो नथी, तेथी ते बंधना कारणमां प्रधान (मुख्य) नथी.

हवे पुण्य-पापना भेदथी आस्रवने बे प्रकारनो कहे छेः

कम्मं पुण्णं पावं हेउं तेसिं च होंति सच्छिदरा
मंदक साया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु ।।९०।।
कर्म पुण्यं पापं हेतवः तयोः च भवन्ति स्वच्छेतराः
मन्दकषायाः स्वच्छाः तीव्रकषायाः अस्वच्छाः स्फु टम् ।।९०।।

अर्थःकर्म छे ते पुण्य अने पाप एवा बे प्रकारनां छे. तेनुं कारण पण बे प्रकारनुं छेः एक प्रशस्त अने बीजुं अप्रशस्त. त्यां मंदकषायरूप परिणाम छे ते तो प्रशस्त एटले शुभ छे तथा तीव्रकषायरूप परिणाम छे ते अप्रशस्त एटले अशुभ छे एम प्रगट जाणो.

भावार्थःशातावेदनीय, शुभआयु, उच्चगोत्र अने शुभनाम ए प्रकृतिओ तो पुण्य (शुभ) रूप छे तथा बाकीनां चार घतिकर्मो, अशातावेदनीय, नरकायु, नीचगोत्र अने अशुभनाम ए बधी प्रकृतिओ पापरूप छे. तेमना कारणरूप आस्रव पण बे प्रकारना छे. त्यां मंदकषायरूप परिणाम छे ते तो पुण्यास्रव छे तथा तीव्रकषायरूप परिणाम छे ते पापास्रव छे.

हवे मंद-तीव्र कषायनां प्रगट द्रष्टांत कहे छेः


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मंद-तीव्रकषायनां प्रगट द्रष्टांत
सव्वत्थ वि पियवयणं दुव्वयणे दुज्जणे वि खमकरणं
सव्वेसिं गुणगहणं मंदकसायाण दिट्ठंता ।।९१।।
सर्वत्र अपि प्रियवचनं दुर्वचने दुर्जने अपि क्षमाकरणम्
सर्वेषां गुणग्रहणं मन्दकषायाणां दृष्टान्ताः ।।९१।।

अर्थःसर्व जग्याए शत्रु-मित्रदिमां प्रिय-हितरूप वचन बोलवां, दुर्वचनो सांभळीने पण दुर्जनो प्रत्ये क्षमा करवी तथा सर्व जीवोना गुण ज ग्रहण करवाए सर्व मंदकषायी जीवोनां द्रष्टांत छे.

अप्पपसंसणकरण पुज्जेसु वि दोसगहणसीलत्तं
वेरधरणं च सुइरं तिव्वकसायाण लिंगणि ।।९२।।
आत्मप्रशंसनकरणं पूज्येषु अपि दोषग्रहणशीलत्वम्
वैरधारणं च सुचिरं तीव्रकषायाणां लिङ्गनि ।।९२।।

अर्थःपोतानी प्रशंसा करवी, पूज्य पुरुषोना पण दोष ग्रहण करवानो स्वभाव राखवो तथा घणा काळ सुधी वैर धारण करी

हरिततृणाङ्कुरचरिणि, मन्दा मृगशावके भवति मूर्च्छा
उन्दरनिकरोन्मथिनि, माज्जारे सैव जायते तीव्रा ।।
(श्री पुरुषाथरसिद्धिउपाय१२१)

अर्थःलीला घासना अंकुर चरवावाळा हरणना बच्चामां (ए घास चरती वेळा) पण तत्संबंधी मूर्छा मंद होय छे त्यारे ते ज हिंसा उंदरोना समूहनुं उन्मंथन करवावाळी बिल्लीमां तीव्र होय छे. हरण तो स्वभावथी ज लीलां घासनी अधिक शोधमां रहेतुं नथी छतां ज्यारे तेने लीलुं घास मळी जाय तो ते थोडुं घणुं खाईने तेने छोडीने भागी जाय छे, परंतु बिल्ली तो पोताना खाद्यपदार्थनी तपासमां स्वभावथी ज अधिक चेष्टित रहे छे. वळी ते खाद्य पदार्थ मळतां तेमां एटली बधी अनुरक्त थाय छे के माथा उपर डांग मारवा छतां पण तेने छोडती नथी. एटले आ हरण अने बिल्ली ए बे, मंद अने तीव्रकषायनां सरल अने प्रगट उदाहरण छे.


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राखवुं;ए तीव्रकषायी जीवोनां चिह्न छे

हवे कहे छे के आवा जीवोनुं आस्रवचिंतवन निष्फळ छेः

एवं जाणंतो वि हु परिचयणीए वि जो ण परिहरइ
तस्सासवाणुवेक्खा सव्वा वि णिरत्थया होदि ।।९३।।
एवं जानन् अपि स्फु टं परित्यजनीयान् अपि यः न परिहरति
तस्य आस्रवानुप्रेक्षा सर्वा अपि निरर्थका भवति ।।९३।।

अर्थःआ प्रमाणे प्रगट जाणवा छतां पण जे तजवा योग्य परिणामोने छोडतो नथी तेनुं सर्व आस्रवचिंतवन निरर्थक छेकार्यकारी नथी.

भावार्थःआस्रवानुप्रेक्षा चिंतवन करी प्रथम तो तीव्रकषाय छोडवो, त्यार पछी शुद्धात्मस्वरूपनुं ध्यान करवुं अर्थात् सर्व कषाय छोडवो. ए ज चिंतवननुं फळ छे, मात्र वार्ता ज करवी ए तो सफळ नथी.

एदे मोहजभावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो
हेयमिदि मण्णमाणो आसवअणुपेहणं तस्स ।।९४।।
एतान् मोहजभावान् यः परिवर्जयति उपशमे लीनः
हेयं इति मन्यमानः आस्रवानुप्रेक्षणं तस्य ।।९४।।

अर्थःजे पुरुष उपर कहेला सघळा, मोहना उदयथी थयेला, मिथ्यात्वदि परिणामोने छोडे छेकेवो थयो थको? उपशमपरिणाम जे वीतरागभाव तेमां लीन थयो थको; तथा ए मिथ्यात्वदि भावोने हेय अर्थात् त्यागवा योग्य छे एम जाणतो थकोतेने आस्रवानुप्रेक्षा होय छे.

(दोहरो)
आस्रव पंच प्रकारने, चिंतवी तजे विकार;
ते पामे निजरूपने, ए ज भावनासार.
इति आस्रवानुप्रेक्षा समाप्त.
❃ ❃ ❃

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८. संवरानुप्रेक्षा

हवे सात गाथा द्वारा संवरानुप्रेक्षा कहे छे

सम्मत्तं देसवयं महव्वयं तह जओ कसायाणं
एदे संवरणामा जोगाभावो तह च्चेव ।।९५।।
सम्यक्त्वं देशव्रतं महाव्रतं तथा जयः कषायाणाम्
एते संवरनामानः योगाभावः तथा च एव ।।९५।।

अर्थःसम्यग्दर्शन, देशव्रत, महाव्रत, कषायजय तथा योगनो अभावए संवरनां नाम छे.

भावार्थःपूर्वे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योगरूप पांच प्रकारना आस्रव कह्या हता. तेमने अनुक्रमपूर्वक रोकवा ए ज संवर छे. ते केवी रीते? मिथ्यात्वनो अभाव तो चोथा गुणस्थानमां थयो एटले त्यां मिथ्यात्वनो संवर थयो. अविरतिनो अभाव एकदेशपणे तो देशविरति नामना पांचमा गुणस्थानमां तथा सर्वदेशपणे छठ्ठा प्रमत्तगुणस्थानमां थयो एटले त्यां अविरतिनो संवर थयो, अप्रमत्तगुणस्थानमां प्रमादनो अभाव थयो एटले त्यां प्रमादनो संवर थयो, क्षीणमोह नामना बारमा गुणस्थाने कषायनो अभाव थयो एटले त्यां कषायनो संवर थयो तथा अयोगी जिनमां योगोनो अभाव थयो एटले ए अयोगीस्थाने योगनो संवर थयो. ए प्रमाणे संवरनो क्रम छे.

हवे ए ज विशेषपणे कहे छेः

गुत्ती समिदी धम्मो अणुवेक्खा तह य परिसहजओ वि
उक्किट्ठं चरित्तं संवरहेदू विसेसेण ।।९६।।
गुप्तयः समितियः धर्मः अनुप्रेक्षाः तथा च परीषहजयः अपि
उत्कृष्टं चरित्रं संवरहेतवः विशेषेण ।।९६।।

अर्थःकाय-वचन-मन ए त्रण गुप्ति, इर्या-भाषा-एषणा


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-आदाननिक्षेपणा-प्रतिष्ठापना ए पांच समिति, उत्तम क्षमदि दशलक्षणधर्म, अनित्यदि बार अनुप्रेक्षा, बावीस परीषहजय तथा सामयिकदि उत्कृष्ट पांच प्रकारना चरित्र;एटलां विशेषपणे संवरनां कारणो छे.

हवे तेने स्पष्ट करे छेः

गुत्ती जोगणिरोहो समिदी य पमादवज्जणं चेव
धम्मो दयापहाणो सुतच्चचिंता अणुप्पेहा ।।९७।।
गुप्तिः योगनिरोधः समितिः च प्रमादवर्जनं चैव
धर्मः दयाप्रधानः सुतत्त्वचिन्ता अनुप्रेक्षा ।।९७।।

अर्थःयोगोनो निरोध ते तो गुप्ति छे, प्रमाद तजी यत्नाचारपूर्वक प्रवर्तवुं ते समिति छे, जेमां दया प्रधान होय ते धर्म छे तथा भला तत्त्वो अर्थात् जीवदि तत्त्वो अने निजस्वरूपनुं चिंतवन ते अनुप्रेक्षा छे.

सो वि परीसहविजओ छुहदिपीडाण अइरउद्दाणं
सवणाणं च मुणीणं उवसमभावेण जं सहणं ।।९८।।
सः अपि परीषहविजयः क्षुधदिपीडानां अतिरौद्राणाम्
श्रवणानां च मुनीनां उपशमभावेन यत् सहनम् ।।९८।।

अर्थःअति रौद्र भयानक क्षुधदि पीडाने उपशमभाव अर्थात् वीतरागभाव वडे सहवी ते, ज्ञानी जे महामुनि छे तेमने, परीषहोनो जय कर्यो कहे छे.

अप्पसरूवं वत्थुं चत्तं रायदिएहिं दोसेहिं
सज्झाणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं ।।९९।।
आत्मस्वरूपं वस्तु त्यक्तं रागदिकैः दोषैः
स्वध्याने निलीनं तत् जानीहि उत्तमं चरणम् ।।९९।।

अर्थःजे आत्मस्वरूप वस्तु छे तेमां रागदि दोषरहित धर्म


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-शुक्लध्यान पूर्वक लीन थवुं तेने हे भव्य! तुं उत्तम चरित्र जाण!

हवे कहे छे केआ प्रमाणे संवरने जे आचरतो नथी ते संसारमां भमे छेः

एदे संवरहेदू वियारमाणो वि जो ण आयरइ
सो भमइ चिरं कालं संसारे दुक्खसंतत्तो ।।१००।।
एतान् संवरहेतून् विचारयन् अपि यः न आचरति
सः भ्रमति चिरं कालं संसारे दुःखसन्तप्तः ।।१००।।

अर्थःजे पुरुष उपर प्रमाणे संवरनां कारणोने विचारतो छतो पण तेने आचरतो नथी ते दुःखोथी तप्तायमान थतो थको घणा काळ सुधी संसारमां भ्रमण करे छे.

हवे कहे छे के केवा पुरुषने संवर थाय छेः

जो पुण विसयविरत्तो अप्पाणं सव्वदा वि संवरइ
मणहरविसएहिंतो तस्स फु डं संवरो होदि ।।१०१।।
यः पुनः विषयविरक्तः आत्मानं सर्वदा अपि संवृणोति
मनोहरविषयेभ्यः तस्य स्फु टं संवरः भवति ।।१०१।।

अर्थःजे मुनि इन्द्रियोना विषयोथी विरक्त थयो थको मनने प्यारा जे विषयो तेमनाथी आत्माने सदाय निश्चयथी संवररूप करे छे तेने प्रगटपणे संवर थाय छे.

भावार्थःमनने इन्द्रिय-विषयोथी रोकी, पोताना शुद्ध स्वरूपमां रमाडे तेने संवर थाय छे.

(दोहरो)
गुप्ति समिति वृष भावना, जयन परीषहकार;
चरित धारे संग तजी, सो मुनि संवरधार.
इति संवरानुप्रेक्षा समाप्त.

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९. निर्जरानुप्रेक्षा

हवे निर्जरानुप्रेक्षानुं वर्णन करे छे.

बारसविहेण तवसा णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि
वेरग्गभावणादो णिरहंकारस्स णणिस्स ।।१०२।।
द्वादशविधेन तपसा निदानरहितस्य निर्जरा भवति
वैराग्यभावनातः निरहंकारस्य ज्ञनिनः ।।१०२।।

अर्थःज्ञानी पुरुषने बार प्रकारनां तपथी कर्मोनी निर्जरा थाय छे. केवा ज्ञानीने थाय छे? जे निदान अर्थात् इन्द्रियविषयोनी वांच्छा रहित होय तथा अहंकारअभिमानथी रहित होय तेने, वळी शा वडे निर्जरा थाय छे? वैराग्यभावनाथी अर्थात् संसार-देह-भोग प्रत्ये विरकत परिणामोथी थाय छे.

भावार्थःतप वडे निर्जरा थाय छे; पण जे ज्ञान सहित तप करे तेने थाय छे. अज्ञान सहित विपरीत तप करे तेमां हिंसदिक होवाथी, एवां तपथी तो ऊलटो कर्मबंध थाय छे. वळी तप वडे मद करे, बीजाने न्यून गणे, कोई पूजदिक न करे तेना प्रत्ये क्रोध करे;एवा तपथी तो बंध ज थाय. गर्व रहित तपथी ज निर्जरा थाय. वळी तपथी आलोकपरलोकमां पोतानां ख्यति-लाभ -पूजा अने इन्द्रियोना विषय-भोग इच्छे तेने तो बंध ज थाय. निदान रहित तपथी ज निर्जरा थाय; पण जे संसार-देह-भोगमां आसक्त थई तप करे तेनो तो आशय ज शुद्ध होतो नथी तेथी तेने निर्जरा पण थती नथी. निर्जरा तो वैराग्यभावनाथी ज थाय छे एम जाणवुं.

हवे निर्जरा कोने कहेवी ते कहे छेः