Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 28-67 ; 3. Sansaranupreksha.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 3 of 17

 

Page 17 of 297
PDF/HTML Page 41 of 321
single page version

एवं पश्यन् अपि अलु ग्रहभूतपिशाचयोगिनीजक्षम्
शरणं मन्यते मूढः सुगाढमिथ्यात्वभावात् ।।२७।।

अर्थःए प्रमाणे पूर्वोक्त प्रकारथी अशरणता प्रत्यक्ष देखवा छतां पण मूढ मनुष्य, तीव्र मिथ्यात्वभावथी सूयारदि ग्रह, भूत, व्यंतर, पिशाच, जोगणी, चंडिकदिक अने मणिभद्रदिक यक्षोनुं शरण माने छे.

भावार्थःआ प्राणी प्रत्यक्ष जाणे छे के मरणथी कोई पण रक्षण करवावाळुं नथी छतां ए, ग्रहदिकमां शरणपणुं कल्पे छे; ए बधुं तीव्र मिथ्यात्वना उदयनुं माहात्म्य छे.

हवे, मरण थाय छे ते आयुना क्षयथी ज थाय छे एम कहे छेः

आउक्खएण मरणं आउं दाउं ण सक्कदे को वि
तम्हा देविंदो वि य मरणाउ ण रक्खदे को वि ।।२८।।
आयुःक्षयेण मरणं आयुः दातुं न शक्नोति कः अपि
तस्मात् देवेन्द्रः अपि च मरणात् न रक्षति कः अपि ।।२८।।

अर्थःआयुकर्मना क्षयथी मरण थाय छे. वळी ए आयुकर्म कोईने कोई पण आपवा समर्थ नथी, माटे देवोनो इन्द्र पण मरणथी बचावी शकतो नथी.

भावार्थःआयु पूर्ण थवाथी मरण थाय छे अने ए आयु कोई पण कोईने पण आपवा समर्थ नथी; तो पछी रक्षण करवावाळो कोण छे? ते विचारो.

हवे ए ज अर्थने द्रढ करे छेः

अप्पाणं पि चवंतं जइ सक्कदि रक्खिदुं सुरिंदो वि
तो किं छंडदि सग्गं सव्वुत्तमभोयसंजुत्तं ।।२९।।
आत्मानं अपि च्यवन्तं यदि शक्नोति रक्षितुं सुरेन्द्रः अपि
तत् किं त्यजति स्वर्गं सर्वोत्तमभोगसंयुक्तम् ।।२९।।

Page 18 of 297
PDF/HTML Page 42 of 321
single page version

अर्थःदेवोनो इन्द्र पण पोताने चवतो (मरतो) थको राखवाने समर्थ होत तो सर्वोत्तम भोगो सहित जे स्वर्गनो वास तेने ते शा माटे छोडत?

भावार्थःसर्व भोगोनुं स्थळ पोताना वश चालतुं होय तो तेने कोण छोडे?

हवे परमार्थ (साचुं) शरण दर्शावे छेः

दंसणणाणचरित्तं सरणं सेवेह परमसद्धाए
अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ।।३०।।
दर्शनज्ञानचरित्रं शरणं सेवध्वं परमश्रद्धया
अन्यत् किं अपि न शरणं संसारे संसरताम् ।।३०।।

अर्थःहे भव्य! तुं परम श्रद्धापूर्वक दर्शनज्ञानचरित्रस्वरूप (आत्माना) शरणने सेवन कर. आ संसारमां परिभ्रमण करता जीवोने अन्य कोई पण शरण नथी.

भावार्थःसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र पोतानुं स्वरूप छे अने ए ज परमार्थरूप (वास्तविकसाचुं) शरण छे, अन्य सर्व अशरण छे. निश्चय श्रद्धापूर्वक ए ज शरणने पकडोएम अहीं उपदेश छे.

हवे ए ज वातने द्रढ करे छेः

अप्पा णं पि य सरणं खमदिभावेहिं परिणदो होदि
तिव्वकसायविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ।।३१।।
आत्मा ननु अपि च शरणं क्षमदिभावैः परिणतः भवति
तीव्रकषायविष्टः आत्मानं हिनस्ति आत्मना ।।३१।।

अर्थःउत्तम क्षमदि स्वभावे परिणत आत्मा ज खरेखर शरण छे; पण जे तीव्रकषाययुक्त थाय छे ते पोता वडे पोताने ज हणे छे.


Page 19 of 297
PDF/HTML Page 43 of 321
single page version

भावार्थःपरमार्थथी विचारवामां आवे तो पोताने पोते ज रक्षवावाळो छे अने पोते ज घातवावाळो छे. क्रोधदिरूप भाव करे छे त्यारे शुद्ध चैतन्यनो घात थाय छे तथा क्षमदिरूप भाव करे छे त्यारे पोतानी रक्षा थाय छे; अने ए ज (क्षमदि) भावोथी, जन्ममरण रहित थईने, अविनाशी पद प्राप्त थाय छे.

वस्तुस्वभावविचारथी, शरण आपको आप;
व्यवहारे पंच परमगुरु, अवर सकल संताप.
इति अशरणानुप्रेक्षा समाप्त.
v
३. संसारानुप्रेक्षा

अहीं प्रथम बे गाथाओ वडे संसारनुं सामान्य स्वरूप कहे छेः

एक्कं चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो
पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहुवारं ।।३२।।
एवं जं संसरणं णाणादेहेसु हवदि जीवस्स
सो संसारो भण्णदि मिच्छकसाएहिं जुत्तस्स ।।३३।।
एकं त्यजति शरीरं अन्यत् गृह्णति नवं नवं जीवः
पुनः पुनः अन्यत् अन्यत् गृह्णति मुंचति बहुवारम् ।।३२।।
एवं यत् संसरणं नानादेहेषु भवति जीवस्य
सः संसारः भण्यते मिथ्याकषायैः युक्तस्य ।।३३।।

अर्थःमिथ्यात्व अर्थात् वस्तुनुं सर्वथा एकांतरूप श्रद्धान करवुं अने कषाय एटले क्रोध-मान-माया-लोभए सहित आ जीवने अनेक


Page 20 of 297
PDF/HTML Page 44 of 321
single page version

देहोमां जे संसरण अर्थात् भ्रमण थाय छे तेने ‘संसार’ कहीए छीए. ते केवी रीते? ए ज कहीए छीएःएक शरीरने छोडी अन्यने ग्रहण करे; वळी पाछो नवुं शरीर ग्रहण करी, पाछो तेने पण छोडी, अन्यने ग्रहण करे; ए प्रमाणे घणी वार ( शरीरने) ग्रहण कर्या ज करे ते ज संसार छे.

भावार्थःएक शरीरथी अन्य शरीरनी प्रप्ति थया करे ते ज संसार छे.

हवे ए प्रमाणे संसारमां संक्षेपथी चार गति छे तथा अनेक प्रकारनां दुःख छे. त्यां प्रथम ज नरकगतिनां दुःखोने छ गाथाओ द्वारा कहे छेः

नरकगतिनां दुःखो
पाव-उदयेण णरए जायदि जीवो सदेहि बहुदुक्खं
पंचपयारं विविहं अणोवमं अण्णदुक्खेहिं ।।३४।।
पापोदयेन नरके जायते जीवः सहते बहुदुःखम्
पंचप्रकारं विविधं अनौपम्यं अन्यदुःखैः ।।३४।।

अर्थःपापना उदयथी आ जीव नरकमां उत्पन्न थाय छे; त्यां पांच प्रकारनां विविध घणां दुःख सहन करे छे, जेमने तिर्यंचदि अन्य गतिओनां दुःखोनी उपमा आपी शकाती नथी.

भावार्थःजे जीवोनी हिंसा करे छे, जूठ बोले छे, परधन हरण करे छे, परनारीने वांच्छे छे, घणा आरंभ करे छे, परिग्रहमां आसक्त छे, घणो क्रोधी, तीव्र मानी, अति कपटी, अति कठोरभाषी, पापी, चुगलीखोर, (अति) कृपण, देव-शास्त्र-गुरु निंदक, अधम, दुबुरद्धि, कृतघ्नी अने घणो ज शोक-दुःख करवानी ज जेनी प्रकृति छे एवो जीव मरीने नरकमां उत्पन्न थाय छे अने त्यां अनेक प्रकारनां दुःखने सहे छे.

हवे उपर कहेलां पांच प्रकारनां दुःख क्यां क्यां छे ते कहे छेः


Page 21 of 297
PDF/HTML Page 45 of 321
single page version

असुरोदीरियदुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं
खित्तुब्भवं च तिव्वं अण्णोण्णकयं च पंचविहं ।।३५।।
असुरोदीरितदुःख शारीरं मानसं तथा विविधम्
क्षेत्रोद्भवं च तीव्रं अन्योऽन्यकृतं च पंचविधम् ।।३५।।

अर्थःअसुरकुमारदेवोथी उपजावेलां दुःख, (पोताना) शरीरथी ज उत्पन्न थयेलां दुःख, मनथी अने अनेक प्रकारनां क्षेत्रथी उत्पन्न थयेलां दुःख तथा परस्पर करेलां दुःखए प्रमाणे पांच प्रकारनां दुःख छे.

भावार्थःत्रीजा नरक सुधी तो असुरकुमारदेवो मात्र कुतूहलथी जाय छे अने नारकीओने जोई तेमने परस्पर लडावे छेअनेक प्रकारथी दुःखी करे छे; वळी ए नारकीओनां शरीर ज पापना उदयथी स्वयमेव अनेक रोगयुक्त, बूरां, घृणाकारी अने दुःखमय होय छे, तेमनां चित्त ज महाक्रूर अने दुःखरूप ज होय छे; नरकनुं क्षेत्र महाशीत, उष्ण, दुर्गंधदि अनेक उपद्रव सहित छे; तथा परस्पर वेरना संस्कारथी (आपस-आपसमां) छेदन, भेदन, मारण, ताडन अने कुंभीपाक वगेरे करे छे; त्यांनां दुःख उपमारहित छे.

हवे ए ज दुःखने विशेष (भेद) कहे छेः

छिज्जइ तिलतिलमित्तं भिंदिज्जइ तिलतिलंतरं सयलं
वज्जग्गिए कढिज्जइ णिहप्पए पूयकुंडम्हि ।।३६।।
छिद्यते तिलतिलमात्रं भिद्यते तिलतिलान्तरं सकलम्
वज्रग्निना क्वथ्यते निधीयते पूयकुण्डे ।।३६।।

अर्थःज्यां शरीरने तलतल प्रमाण छेदवामां आवे छे, तेना तलतल जेटला शकल अर्थात् खंडने पण भेदवामां आवे छे, वज्रग्निमां पकाववामां आवे छे तथा परुना कुंडमां नाखवामां आवे छे.

इच्चेवमाइदुक्खं जं णरए सहदि एयसमयम्हि
तं सयलं वण्णेदुं ण सक्कदे सहसजीहो वि ।।३७।।

Page 22 of 297
PDF/HTML Page 46 of 321
single page version

इत्येवमदिदुःखं यत् नरके सहते एकसमये
तत्सकलं वणरयितुं न शक्नोति सहस्रजिह्वः अपि ।।३७।।

अर्थःए प्रमाणे पूर्व गाथामां कह्यां तेने मांडीने जे दुःखो ते नरकमां एक काळमां जीव सहन करे छे तेनुं कथन करवाने, जेने हजार जीभ होय ते पण समर्थ थतो नथी.

भावार्थःआ गाथामां नरकनां दुःखोनुं वचन अगोचरपणुं कह्युं छे.

हवे नरकनुं क्षेत्र तथा ए नारकीओना परिणाम दुःखमय ज छे ते कहे छेः

सव्वं पि होदि णरये खेत्तसहावेण दुक्खदं असुहं
कुविदा वि सव्वकालं अण्णोण्णं होंति णेरइया ।।३८।।
सर्वं अपि भवति नरके क्षेत्रस्वभावेन दुःखदं अशुभम्
कुपिताः अपि सर्वकालं अन्योऽन्यं भवन्ति नैरयिकाः ।।३८।।

अर्थःनरकमां क्षेत्रस्वभावथी ज बधुंय दुःखदायक छे. अशुभ छे तथा नारकीजीव सदाकाळ परस्पर क्रुधित छे.

भावार्थःक्षेत्र तो स्वभावथी दुःखरूप छे ज, परंतु नारकी (जीवो) परस्पर क्रोधी थता थका एकबीजाने मारे छे. ए प्रमाणे तेओ निरंतर दुःखी ज रहे छे.

अण्णभवे जो सुयणो सो वि य णरए हणेइ अइकुविदो
एवं तिव्वविवागं बहुकालं विसहदे दुःक्खं ।।३९।।
अन्यभवे यः सुजनः सः अपि च नरके हन्ति अतिकुपितः
एवं तीव्र विपाकं बहुकालं विषहते दुःखम् ।।३९।।

अर्थःपूर्वभवमां जे स्वजनकुटुंबी हतो ते पण आ नरकमां क्रोधी बनीने घात करे छे. ए प्रमाणे तीव्र छे विपाक जेमनो एवां दुःखो घणा काळ सुधी नारकीजीवो सहन करे छे.


Page 23 of 297
PDF/HTML Page 47 of 321
single page version

भावार्थःएवां दुःखो सागरोपम (काळ) सुधी सहन करे छे तो पण आयुष्य पूर्ण कर्या विना त्यांथी नीकळवुं बनतुं नथी.

हवे तिर्यंचगतिनां दुःखोने साडाचार गाथाओ द्वारा कहे छेः

तिर्यंचगतिनां दुःखो
तत्तो णीसरिदूणं जायदि तिरिएसु बहुवियप्पेसु
तत्थ वि पावदि दुःखं गब्भे वि य छेयणादीयं ।।४०।।
ततः निःसृत्य जायते तिर्यक्षु बहुविकल्पेषु
तत्र अपि प्राप्नोति दुःखं गर्भे अपि च छेदनदिकम् ।।४०।।

अर्थःए नरकमांथी नीकळीने अनेक प्रकारना भेदोवाळी जे तिर्यंचगति तेमां (जीव) उत्पन्न थाय छे; त्यां पण गर्भमां ते दुःख पामे छे. ‘अपि’ शब्दथी सम्मूर्छन थई छेदनदिकनां दुःख पामे छे.

तिरिएहिं खज्जमाणो दुट्ठमणुस्सेहिं हण्णमाणो वि
सव्वत्थ वि संतट्ठो भयदुक्खं विसहदे भीमं ।।४१।।
तियरग्भिः खाद्यमानः दुष्टमनुष्यैः हन्यमानः अपि
सर्वत्र अपि संत्रस्तः भयदुःखं विषहते भीमम् ।।४१।।

अर्थःए तिर्यंचगतिमां जीव, सिंहवाघ अदि वडे भक्षण थतो तथा दुष्ट मनुष्य (म्लेच्छ, पारधी, माछीमार अदि) वडे मार्यो जतो थको सर्व ठेकाणे त्रासयुक्त बनी रौद्रभयानक दुःखोने अतिशय सहन करे छे.

अण्णोण्णं खज्जंता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं
माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ रक्खेदि ।।४२।।
अन्योऽन्यं खादन्तः तिर्यञ्चः प्राप्नुवन्ति दारुणं दुःखम्
माता अपि यत्र भक्षति अन्यः कः तत्र रक्षति ।।४२।।

अर्थःए तिर्यंचगतिमां जीव परस्पर भक्षण थता थका उत्कृष्ट


Page 24 of 297
PDF/HTML Page 48 of 321
single page version

दुःख पामे छे, ते आने खाय अने आ तेने खाय. ज्यां जेना गर्भमां उत्पन्न थयो छे एवी माता पण पुत्रने भक्षण करी जाय, तो पछी अन्य कोण रक्षण करे?

तिव्वतिसाए तिसिदो तिव्वविभुक्खाइ भुक्खिदो संतो
तिव्वं पावदि दुक्खं उयरहुयासेण डज्झंतो ।।४३।।
तीव्रतृषया तृषितः तीव्रबुभुक्षया भुक्षितः सन्
तीव्रं प्राप्नोति दुःखं उदरहुताशेनः दह्यमानः ।।४३।।

अर्थःए तिर्यंचगतिमां जीव तीव्र तरसथी तृषातुर तथा तीव्र भूखथी क्षुधातुर थयो थको तेम ज उदरग्निथी बळतो थको (घणां) तीव्र दुःख पामे छे.

हवे ए कथनने संकोचे छेः

एवं बहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि तिरियजोणीसु
तत्तो णीसरिदूणं लद्धि-अपुण्णो णरो होदि ।।४४।।
एवं बहुप्रकारं दुःखं विषहते तिर्यग्योनिषु
ततः निःसृत्य लब्धि-अपूर्णः नरः भवति ।।४४।।

अर्थःए प्रमाणे पूर्वोक्त प्रकारथी तिर्यंचयोनिमां जीव अनेक प्रकारथी दुःख पामे छे अने तेने सहे छे. ए तिर्यंचगतिमांथी नीकळीने (कदचित्) मनुष्य थाय तो केवो थाय? लब्धिअपर्याप्त के ज्यां पयारप्ति ज पूरी न थाय.

हवे मनुष्यगतिनां जे दुःखो छे तेने बार गाथाओ द्वारा कहे छे. त्यां प्रथम ज गर्भमां ऊपजे ते अवस्था कहे छेः

मनुष्यगतिनां दुःखो
अह गभ्भे वि य जायदि तत्थ वि णिवडीकयंगपच्चंगो
विसहदि तिव्वं दुक्खं णिग्गममाणो वि जोणीदो ।।४५।।

Page 25 of 297
PDF/HTML Page 49 of 321
single page version

अथ गर्भे अपि च जायते तत्र अपि निवडीकृत-अङ्गप्रत्यङ्गः
विषहते तीव्रं दुःखं निर्गच्छन् अपि योनितः ।।४५।।

अर्थःअथवा गर्भमां ऊपजे तो त्यां पण हस्त-पाददि अंग अने आंगळां अदि प्रत्यंग ए बधा एकठा संकुचित रह्या थका (जीव) दुःख सहे छे अने त्यांथी योनिद्वारे नीकळतां ते तीव्र दुःखने सहन करे छे.

वळी ते केवो थाय, ते कहे छेः

बालो वि पियरचतो परउच्छिट्ठेण वड्ढदे दुहिदो
एवं जायणसीलो गमेदि कालं महादुक्खं ।।४६।।
बालः अपि पितृत्यक्तः परोच्छिष्टेन वर्धते दुःखितः
एवं याचनशीलः गमयति कालं महादुःखम् ।।४६।।

अर्थः गर्भमांथी नीकळ्या पछी बाळ अवस्थामां ज मात- पिता मरी जाय तो दुःखी थतो थको पारकी उच्छिष्ट वडे जीवननिर्वाह करतो तथा मागवानो ज छे स्वभाव जेनो एवो ते, महादुःखे काळ निर्गमन करे छे.

वळी कहे छे के ए बधुं पापनुं फळ छेः

पावेण जणो एसो दुक्कम्मवसेण जायदे सव्वो
पुणरवि करेदि पावं ण य पुण्णं को वि अज्जेदि ।।४७।।
पापेन जनः एषः दुःकर्मवशेन जायते सर्वः
पुनः अपि करोति पापं न च पुण्यं कः अपि अर्जयति ।।४७।।

अर्थःआ लोकना बधा मनुष्यो पापना उदयथी अशातावेदनीय, नीचगोत्र अने अशुभनामआयु अदि दुष्कर्मना वशे एवां दुःखो सहन करे छे तोपण पाछा पाप ज करे छे, पण पूजा, दान, व्रत, तप अने ध्यानदि छे लक्षण जेनुं एवां पुण्यने उपजावता नथी ए मोटुं अज्ञान छे.


Page 26 of 297
PDF/HTML Page 50 of 321
single page version

विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मदिट्ठी वएहिं संजुत्तो
उवसमभावे सहिदो णिंदणगरहहिं संजुत्तो ।।४८।।
विरलः अर्जयति पुण्यं सम्यग्दृष्टिः व्रतैः संयुक्तः
उपशमभावेन सहितः निन्दनगर्हाभ्यां संयुक्तः ।।४८।।

अर्थःसम्यग्द्रष्टि अर्थात् यथार्थ श्रद्धावान, मुनि-श्रावकनां व्रतो सहित, उपशमभाव अर्थात् मंदकषाय परिणामी, निंदन अर्थात् पोताना दोषोने पोते याद करी पश्चाताप करनार, अने गर्हण अर्थात् पोताना दोषने गुरुजन पासे विनयथी कहेनार; ए प्रमाणे निंदा-गर्हासंयुक्त जीव पुण्यप्रकृतिओेने उपजावे छे. पण एवा विरला ज होय छे.

हवे कहे छे के पुण्ययुक्तने पण इष्ट-वियोगदि जोवामां आवे छे.

पुण्णजुदस्स वि दीसदि इट्ठविओयं अणिट्ठसंजोयं
भरहो वि सहिमाणो परिज्जओ लहुयभाएण ।।४९।।
पुण्ययुतस्य अपि दृश्यते इष्टवियोगः अनिष्टसंयोगः
भरतः अपि सभिमानः परजितः लघुकभ्रात्रा ।।४९।।

अर्थःपुण्योदययुक्त पुरुषने पण इष्टवियोग अने अनिष्ट संयोग थतो जोवामां आवे छे. जुओ, अभिमानयुक्त भरत चक्रवर्ती पण पोताना नाना भाई बाहुबलीथी हार पाम्या.

भावार्थःकोई जाणे के ‘जेने महान पुण्यनो उदय छे तेने तो सुख छे’, पण संसारमां तो सुख कोईने पण होतुं नथी. भरत चक्रवर्ती जेवा पण अपमानदिकथी दुःखी थया तो बीजाओनी वात ज शी कहेवी?

हवे ए ज अर्थने द्रढ करे छेः

सयलट्ठविसयजोओ बहुपुण्णस्स वि ण सव्वहा होदि
तं पुण्णं पि ण कस्स वि सव्वं जेणिच्छिदं लहदि ।।५०।।

Page 27 of 297
PDF/HTML Page 51 of 321
single page version

सकलाथरविषययोगः बहुपुण्यस्य अपि न सर्वथा भवति
तत् पुण्यं अपि न कस्य अपि सर्वं येन इरप्सितं लभते ।।५०।।

अर्थःआ संसारमां समस्त पदार्थोनो, जे विषय अर्थात् भोग्य वस्तु छे ते सर्वनो, योग मोटा पुण्यवानने पण सर्वांगपणे मळतो नथी. कोईने एवुं पुण्य ज नथी के जे वडे बधाय मनोवांच्छित (पदार्थो) मळे.

भावार्थःमोटा पुण्यवानने पण वांच्छित वस्तुमां कांई ने कांई ओछप रहे छे, सर्व मनोरथ तो कोईना पण पूर्ण थता नथी; तो पछी (कोई जीव) संसारमां सर्वांग सुखी केवी रीते थाय?

कस्स वि णत्थि कलत्तं अहव कलत्तं पुत्तसंपत्ती
अह तेसिं संपत्ती तह वि सरोओ हवे देहो ।।५१।।
कस्य अपि नस्ति कलत्रं अथवा कलत्रं न पुत्रसम्प्रप्तिः
अथ तेषां सम्प्रप्तिः तथपि सरोगः भवेत् देहः ।।५१।।

अर्थःकोई मनुष्यने तो स्त्री नथी, कोईने जो स्त्री होय तो पुत्रनी प्रप्ति नथी तथा कोईने पुत्रनी प्रप्ति छे तो शरीर रोगयुक्त छे.

अह णीरोओ देहो तो धणधण्णाण णेय संपत्ति
अह धणधण्णं होदि हु तो मरणं झत्ति ढुक्केदि ।।५२।।
अथ नीरोगः देहः तत् धनधान्यानां नैव सम्प्रप्तिः
अथ धनधान्यं भवति खलु तत् मरणं झगिति ढौकते ।।५२।।

अर्थःजो कोई नीरोग देह होय तो धन-धान्यनी प्रप्ति होती नथी अने जो धन-धान्यनी प्रप्ति थई जाय छे तो (कदचित्) मरण पण थई जाय छे.

कस्स वि दुठ्ठकलत्तं कस्स वि दुव्वसणवसणिओ पुत्तो
कस्स वि अरिसमबंधू कस्स वि दुहिदा दु दुच्चरिया ।।५३।।

Page 28 of 297
PDF/HTML Page 52 of 321
single page version

कस्य अपि दुष्टकलत्रं कस्य अपि दुर्व्यसनव्यसनिकः पुत्रः
कस्य अपि अरिसमबन्धुः कस्य अपि दुहिता अपि दुश्चरिता ।।५३।।

अर्थःआ मनुष्यभवमां कोईने स्त्री दुराचरणी छे, कोईने पुत्र जुगार अदि दुर्व्यसनोमां लवलीन छे, कोईने शत्रु समान कलहकारी भाई छे तो कोईने पुत्री दुराचरणी छे.

कस्स वि मरदि सुपुत्तो कस्स वि महिला विणस्सदे इट्ठा
कस्स वि अग्गिपलित्तं गिहं कुडंबं च डज्झेइ ।।५४।।
कस्य अपि म्रियते सुपुत्रः कस्य अपि महिला विनश्यति इष्टा
कस्य अपि अग्निप्रलिप्तं गृहं कुटुंबं च दह्यते ।।५४।।

अर्थःकोईने तो सारो पुत्र होय ते मरी जाय छे, कोईने इष्ट स्त्री होय ते मरी जाय छे तो कोईने घर-कुटुंब सघळुं अग्नि वडे बळी जाय छे.

एवं मणुयगदीए णाणादुक्खाइं विसहमाणो वि
ण वि धम्मे कुणदि मइं आरंभं णेय परिचयइ ।।५५।।
एवं मनुजगत्यां नानादुःखनि विषहमाणः अपि
न अपि धर्मे करोति मतिं आरम्भं नैव परित्यजति ।।५५।।

अर्थःउपर प्रमाणे मनुष्यगतिमां नाना प्रकारनां दुःखोने सहवा छतां पण आ जीव सद्धर्ममां बुद्धि करतो नथी अने पापारंभने छोडतो नथी.

सधणो वि होदि णिधणो धणहीणो तह य ईसरो होदि
राया वि होदि भिच्चो भिच्चो वि य होदि णरणाहो ।।५६।।
सधनः अपि भवति निर्धनः धनहीनः तथा च ईश्वरः भवति
राजा अपि भवति भृत्यः भृत्यः अपि च भवति नरनाथः ।।५६।।

अर्थःधनवान होय ते निर्धन थई जाय छे, ए ज प्रमाणे निर्धन होय ते इश्वर थई जाय छे. वळी राजा होय ते किंकर थई


Page 29 of 297
PDF/HTML Page 53 of 321
single page version

जाय छे. अने किंकर होय ते राजा थई जाय छे.

सत्तू वि होदि मित्तो मित्तो वि य जायदे तहा सत्तू
कम्मविवागवसादो एसो संसारसब्भावो ।।५७।।
शत्रुः अपि भवति मित्रं मित्रं अपि च जायते तथा शत्रुः
कमरविपाकवशात् एषः संसारस्वभावः ।।५७।।

अर्थःकर्मोदयवशे वैरी होय ते तो मित्र थई जाय छे तथा मित्र होय ते वैरी थई जाय छे. एवो ज संसारनो स्वभाव छे.

भावार्थःपुण्यकर्मना उदयथी वैरी पण मित्र थई जाय छे तथा पापकर्मना उदयथी मित्र पण शत्रु थई जाय छे.

हवे चार गाथामां देवगतिनां दुःखोनुं स्वरूप कहे छेः

देवगतिनां दुःखो
अह कह वि हवदि देवो तस्स वि जाएदि माणसं दुक्खं
दट्ठूण महड्ढीणं देवाणं रिद्धिसम्पत्ती ।।५८।।
अथ कथमपि भवति देवः तस्य अपि जायते मानसं दुःखम्
दृष्टवा महर्द्धीनां देवानां ऋद्धिसम्प्रप्तिम् ।।५८।।

अर्थःअथवा (कदचित्) महान कष्टथी देवपर्याय पण पामे त्यां तेने पण महान ॠद्धिधारक देवोनी ॠद्धिसंपदा जोईने मानसिक दुःख उत्पन्न थाय छे.

इट्ठविओगे दुक्खं होदि महड्ढीण विसयतण्हादो
विसयवसादो सुक्खं जेसिं तेसिं कुदो तित्ती ।।५९।।
इष्टवियोगे दुःख भवति महर्द्धीनां विषयतृष्णातः
विषयवशात् सुखं येषां तेषां कुतः तृप्तिः ।।५९।।

अर्थःमहर्द्धिकदेवोने पण इष्ट ॠद्धि अने देवांगनदिनो वियोग थतां दुःख थाय छे. जेमने विषयाधीन सुख छे तेमने तृप्ति क्यांथी थाय? तृष्णा वधती ज रहे छे.


Page 30 of 297
PDF/HTML Page 54 of 321
single page version

हवे शारीरिक दुःखथी मानसिक दुःख मोटुं छेएम कहे छेः

सारीरियदुक्खादो माणसदुक्खं हवेइ अइपउरं
माणसदुक्खजुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति ।।६०।।
शारीरिकदुःखतः मानसदुःखं भवति अतिप्रचुरम्
मानसदुःखयुतस्य हि विषयाः अपि दुःखावहाः भवन्ति ।।६०।।

अर्थःकोई समजे के शरीरसंबंधी दुःख मोटुं छे अने मानसिक दुःख अल्प छे. तेने अहीं कहे छे के शारीरिक दुःखथी मानसिक दुःख घणुं तीव्र छेमोटुं छे; जुओ, मानसिक दुःख सहित पुरुषने अन्य घणा विषयो होय तोपण तेओ दुःखदायक भासे छे.

भावार्थःमनमां चिंता थाय त्यारे सर्व सामग्री दुःखरूप ज भासे छे.

देवाणं पि य सुक्खं मणहरविसएहिं कीरदे जदि ही
विसयवसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि ।।६१।।
देवानां अपि च सुखं मनोहरविषयैः क्रियते यदि हि
विषयवशं यत्सुखं दुखस्य अपि कारणं तत् अपि ।।६१।।

अर्थःदेवोने मनोहर विषयोथी जो सुख छे एम विचारवामां आवे तो ते प्रगटपणे सुख नथी. जे विषयोने आधीन सुख छे ते दुःखनुं ज कारण छे (दुःख ज छे).

भावार्थःअन्य निमित्तथी सुख मानवामां आवे ते भ्रम छे, कारण के जे वस्तु सुखना कारणरूप मानवामां आवे छे ते ज वस्तु काळान्तरमां दुःखना ज कारणरूप थाय छे.

ए प्रमाणे विचार करतां संसारमां कोई ठेकाणे पण सुख नथी एम कहे छेः

एवं सुट्ठु असारे संसारे दुक्खसायरे घोरे
किं कत्थ वि अत्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्छयदो ।।६२।।

Page 31 of 297
PDF/HTML Page 55 of 321
single page version

एवं सुष्ठु असारे संसारे दुःखसागरे घोरे
किं कुत्र अपि अस्ति सुखं विचार्यमाणं सुनिश्चयतः ।।६२।।

अर्थःए प्रमाणे सर्व प्रकारे असार एवा आ दुःखसागररूप भयानक संसारमां निश्चयथी विचार करवामां आवे तो शुं कोई ठेकाणे किंचित् पण सुख छे? अपितु नथी ज.

भावार्थःचारगतिरूप संसार छे. अने चारे गतिओ दुःखरूप ज छे, तो तेमां सुख क्यां समजवुं?

हवे कहे छे के आ जीव पर्यायबुद्धिवाळो छे. तेथी ते जे योनिमां ऊपजे छे त्यां ज सुख मानी ले छेः

दुक्कियकम्मवसादो राया वि य असुइकीड़ओ होदि
तत्थेव य कुणइ रइं पेक्खह मोहस्स माहप्पं ।।६३।।
दुष्कृतकर्मवशात् राजा अपि च अशुचिकीटकः भवति
तत्र एव च करोति रतिं प्रेक्षध्वं मोहस्य माहात्म्यम् ।।६३।।

अर्थःहे प्राणी! तमे जुओ तो खरा आ मोहनुं माहात्म्य! के पापवश मोटो राजा पण मरीने विष्टाना कीडामां जई उत्पन्न थाय छे अने त्यां ज ते रति माने छेक्रीडा करे छे.

हवे कहे छे केआ प्राणीनो एक ज भवमां अनेक संबंध थाय छे.

पुत्तो वि भाउ जाओ सो वि य भाओ वि देवरो होदि
माया होदि सवत्ती जणणो वि य होदि भत्तारो ।।६४।।
एयम्मि भवे एदे संबंधा होंति एय-जीवस्स
अण्णभवे किं भण्णइ जीवाणं धम्मरहिदाणं ।।६५।। युगलम्
पुत्रः अपि भ्राता जातः सः अपि च भ्राता अपि देवरः भवति
माता भवति सपत्नी जनकः अपि च भवति भर्ता ।।६४।।

Page 32 of 297
PDF/HTML Page 56 of 321
single page version

एकस्मिन् भवे एते सम्बन्धाः भवन्ति एकजीवस्य
अन्यभवे किं भण्यते जीवानां धर्मरहितानाम् ।।६५।।

अर्थःएक जीवने एक भवमां आटला संबंध थाय छे तो पछी धर्मरहित जीवोने अन्य भवोना संबंधमां तो शुं कहेवुं? ते संबंध क्या क्या छे? ते कहीए छीएःपुत्र तो भाई थयो अने भाई हतो ते दियर थयो, माता हती ते शोक थई अने पिता हतो ते भरथार थयो. एटला संबंध वसंततिलका वेश्या, धनदेव, कमळा अने वरुणने (परस्पर) थया. तेमनी कथा अन्य ग्रंथोथी अहीं लखीए छीएः

एक भवमां अढार नातानी कथा

मालवदेशनी उज्जयनी नगरीमां राजा विश्वसेन हतो. त्यां सुदत्त नामनो शेठ रहेतो हतो. ते सोळ करोड द्रव्यनो स्वामी हतो. ते शेठ एक वसंततिलका नामनी वेश्यामां आसक्त थयो अने तेने पोताना घरमां राखी. ते गर्भवती थई त्यारे रोग सहित देह थवाथी तेने पोताना घरमांथी काढी मूकी. ते वसंततिलकाए पोताना घरमां ज पुत्र-पुत्रीना जोडकाने जन्म आप्यो. ते वेश्या खेदखिन्न थईने ए बन्ने बाळकोने जुदा जुदा रत्नकांबळमां लपेटी पुत्रीने तो दक्षिण दरवाजे नाखी आवी

त्यां प्रयागनिवासी वणजाराए तेने उपाडी पोतानी

स्त्रीने सोंपी. तेनुं (पुत्रीनुं) नाम कमळा राख्युंतथा पुत्रने उत्तरदिशाना दरवाजे नाख्यो. त्यांथी साकेतपुरना एक सुभद्र नामना वणजाराए तेने (पुत्रने) उपाडी पोतानी स्त्री सुव्रताने सोंप्यो अने तेनुं धनदेव नाम राख्युं. हवे पूर्वोपर्जित कर्मवश ते धनदेवनो पेली कमळानी साथे विवाह थयो अने ए बंने (भाई-बहेन) पति-पत्नी थयां. पछी आ धनदेव व्यापार अर्थे उज्जयिनी नगरीमां गयो. त्यां ते पेली वसंततिलका वेश्यामां लुब्ध थयो अने तेना संयोगथी वसंततिलकाने एक पुत्र जन्म्यो. तेनुं नाम वरुण राख्युं. हवे एक दिवस कमळाए कोई मुनिने पोतानो संबंध पूछ्यो अने मुनिए तेनुं सर्व वृतांत कह्युं, ते नीचे प्रमाणे छेः


Page 33 of 297
PDF/HTML Page 57 of 321
single page version

आ उज्जयिनी नगरीमां एक सोमशर्मा नामनो ब्राह्मण हतो. तेने काश्यपी नामनी स्त्री हती. तेमने अग्निभूत अने सोमभूत नामना बे पुत्र थया. ए बंने क्यांकथी भणीने आवता हता. त्यां मार्गमां कोई जिनदत्त मुनिने तेमनी माता, जे जिनमती आर्या हती ते, क्षेमकुशळ पूछती देखी तथा त्यां बीजा कोई जिनभद्रमुनि हता तेमने सुभद्रा नामनी आर्या, के जे तेमना पुत्रनी वहु हती ते, क्षेमकुशळ पूछती देखी, ए द्रश्य आ बंने भाईओए दीठुं अने त्यां हास्य कर्युं के

‘जुओ तो खरा! तरुणने तो वृद्ध स्त्री अने वृद्धने

तरुण स्त्री, अहो विधाताए खरी विपरीतता रची छे!’ उपर्जित कर्म अनुसार सोमशर्मा तो मरीने वसंततिलका वेश्या थयो तथा ए हास्यना पापथी अग्निभूत अने सोमभूत बंने भाई मरीने आ वसंततिलकाने पुत्र-पुत्रीरूप जोडकां थयां अने तेमनुं कमळा अने धनदेव नाम राख्युं. वळी पेली काश्यपी ब्राह्मणी हती ते (मरीने) वसंततिलका अने धनदेवना संयोगथी वरुण नामनो पुत्र थई. ए प्रमाणे आ सर्व संबंध सांभळीने कमळाने जतिस्मरणज्ञान थयुं, त्यारे ते उज्जयिनी नगरीमां वसंततिलकाने घरे गई. त्यां पेलो वसंततिलकानो पुत्र वरुण पारणामां झूलतो हतो. तेने ते कहेवा लागी के हे बाळक! तारी साथे मारा छ प्रकारना संबंध छे, ते तुं सांभळ.

१. मारो भरथार जे धनदेव तेना संयोगथी तुं जन्म्यो माटे मारो पण तुं (शोक) पुत्र छे.

२. धनदेव मारो सगो भाई छे तेनो तुं पुत्र छे, माटे तुं मारो भत्रीजो पण छे.

३. तारी माता वसंततिलका छे ते ज मारी पण माता छे, माटे तुं मारो भाई पण छे.

४. तुं मारा भरथार धनदेवनो नानो भाई छे, तेथी तुं मारो दियर पण छे.


Page 34 of 297
PDF/HTML Page 58 of 321
single page version

५. मारो भरथार धनदेव छे ते मारी माता वसंततिलकानो पण भरथार छे, तेथी धनदेव मारो पिता पण थयो अने तेनो तुं नानो भाई छे, माटे तुं मारो काको पण छे.

६. हुं वसंततिलकानी शोक्य थई, तेथी धनदेव मारो शोकपुत्र थयो अने तेनो तुं पुत्र छे माटे तुं पौत्र पण छे.

ए प्रमाणे वरुणने ते छ प्रकारना संबंध कहेती हती. त्यां पेली वसंततिलका आवी अने आ कमळाने कहेवा लागी के तुं कोण छे? के मारा पुत्रने आ प्रमाणे छ प्रकारथी तारो संबंध संभळावे छे? त्यारे कमळा बोली के तारी साथे मारे पण छ प्रकारथी संबंध छे. ते तुं पण सांभळ!

१. प्रथम तो तुं मारी माता छे, कारण के हुं धनदेवनी साथे तारा ज उदरथी युगलरूपे ऊपजी छुं.

२. धनदेव मारो भाई छे, तेनी तुं स्त्री छे, माटे तुं मारी भोजाई (भाभी) पण छे.

३. मारो भरथार धनदेव छे, तेनी तुं पण स्त्री छे, माटे तुं मारी शोक पण छे.

४. तुं मारी माता छे अने तारो भरथार धनदेव पण थयो एटले धनदेव मारो पिता थयो, तेनी तुं माता छे, माटे तुं मारी दादी पण छे.

५. धनदेव तारो पुत्र छे अने ते मारो पण शोकपुत्र छे, तेनी तुं स्त्री थई, माटे तुं मारी पुत्रवधू पण छे.

६. हुं धनदेवनी स्त्री छुं अने तुं धनदेवनी माता छे, माटे तुं मारी सासु पण छे

आ प्रमाणे वसंततिलका वेश्या पोताना छ प्रकारना संबंध सांभळीने चिंतामां विचारग्रस्त हती त्यां ज पेलो धनदेव आव्यो. तेने


Page 35 of 297
PDF/HTML Page 59 of 321
single page version

जोईने कमळा बोली के तारी साथे पण मारा छ प्रकारना संबंध छे. ते सांभळः

१. प्रथम तो तुं अने हुं बन्ने आ ज वेश्याना उदरमांथी जोडकारूपे साथे जन्म्यां छीए, माटे तुं मारो भाई छे.

२. पछी तारो अने मारो विवाह थयो, तेथी तुं मारो पति पण छे.

३. वसंततिलका मारी माता छे अने तेनो तुं भरथार छे. माटे तुं मारो पिता पण छे.

४. वरुण तारो नानो भाई छे अने ते मारो काको थयो, तेनो तुं पिता छे, एटले काकानो पिता होवाथी तुं मारो दादो पण थयो.

५. हुं वसंततिलकानी शोक छुं अने तुं मारी शोकनो पुत्र छे, तेथी तुं मारो पुत्र पण छे.

६. तुं मारो भरथार छे अने तारी माता वसंततिलका मारी सासु थई, ए सासुनो तुं भरथार थयो, एटले तुं मारो ससरो पण थयो.

ए प्रमाणे एक ज भवमां एक ज जीवने अढार संबंध थया. तेनुं अहीं उदाहरण कह्युं. एम आ संसारनी विचित्र विटंबणा छे, तेमां कांई आश्चर्य नथी. . ए अढार नातानी कथा अन्य ग्रंथो उपरथी अहीं लखी छे. ते गाथाओः

बालय हि सुणि सुवयणं तुज्झ सरिस्सा हि अट्टदह णत्ता
पुत्तु भत्तीज्जउ भायउ देवरु पत्तिय हु पौत्तज्जा ।।।।
तुहु पियरो महु पियरो पियामहो तह य हवइ भत्तारो
भायउ तहा वि पुत्तो ससुरो हवइ बालयो मज्झ ।।।।
तुहु जणणी हुई भज्जा पियामही तह य मायरी सवई
हवइ वहू तह सासू ए कहिया अट्टदह णत्ता ।।।।

Page 36 of 297
PDF/HTML Page 60 of 321
single page version

पंच प्रकाररूप संसारनुं स्वरूप

हवे पांच प्रकारना संसारनां नाम कहे छेः

संसारो पंचविहो दव्वे खेत्ते तहेव काले य
भवभमणो य चउत्थो पंचमओ भावसंसारो ।।६६।।
संसारः पञ्चविधः द्रव्ये क्षेत्रे तथैव काले च
भवभ्रमणः च चतुर्थः पञ्चमकः भावसंसारः ।।६६।।

अर्थःसंसार अर्थात् परिभ्रमण छे ते पांच प्रकारनुं छे. (१) द्रव्य अर्थात् पुद्गलद्रव्यमां ग्रहण-त्यागरूप परिभ्रमण, (२) क्षेत्र अर्थात् आकाशप्रदेशोमां स्पर्शवारूप परिभ्रमण, (३) काळ अर्थात् काळना समयोमां ऊपजवा-विनशवारूप परिभ्रमण, (४) भव अर्थात् नरकदि भवोना ग्रहण-त्यागरूप परिभ्रमण अने (५) भाव अर्थात् पोताने कषाय-योगस्थानरूप भेदोना पलटवारूप परिभ्रमण;ए प्रमाणे पांच प्रकाररूप संसार जाणवो.

हवे तेनुं स्वरूप कहे छे. त्यां प्रथम द्रव्यपरावर्तन कहे छेः

बंधदि मुंचदि जीवो पडिसमयं कम्मपुग्गला विविहा
णोकम्मपुग्गला वि य मिच्छत्तकसायसंजुत्तो ।।६७।।
बध्नति मुञ्चति जीवः प्रतिसमयं कर्मपुद्गलान् विविधान्
नोकर्मपुद्गलान अपि च मिथ्यात्वकषायसंयुक्तः ।।६७।।

अर्थःआ जीव, आ लोकमां रहेलां जे अनेक प्रकारनां ज्ञानावरणदि कर्मपुद्गलो तथा औदरिकदि शरीररूप नोकर्म-पुद्गलोने मिथ्यात्व-कषायो वडे संयुक्त थतो थको समये समये बांधे छे अने छोडे छे.

भावार्थःमिथ्यात्व-कषायवश ज्ञानावरणदि कर्मोना समय- प्रबद्धने अभव्यरशिथी अनंत गुणा तथा सिद्धरशिथी अनंतमा भागे पुद्गलपरमाणुओना स्कंधरूप कार्मण वर्गणाओने (आ संसारी जीव) समये समये ग्रहण करे छे तथा पूर्वे जे ग्रहण करी हती के जे सत्तामां