Atmadharma magazine - Ank 204a
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.


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आत्मधर्म
वर्ष १७
सळंग अंक २०४A
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001 Jan 2005 First electronic version.

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आत्मधर्मना अंकनो खास वधारो
श्री जिनवाणीदातार गुरुदेवाय नम:
परम आनंदना पिपासु
जीवने संतो चैतन्यनो–
अध्यात्मरस पीवडावे छे.
आसो सुद पूर्णिमा: आजे जिज्ञासुओने माटे
आनंदनो सोनेरी दिवस छे...गुरुदेवना मंगलमय
प्रवचनोनी श्रुतधारा आजे शरू थाय छे...आ प्रवचनो
द्वारा गुरुदेव पिपासु जीवोने आनंदमय अध्यात्मरसनुं
पान करावीने तेओनी तृषा मटाडे छे...अंतरमां
जयनादपूर्वक श्रोताजनो अध्यात्मरसने झीलीने तृप्त
थाय छे...भारतना हजारो जिज्ञासुओनां हैयां जेनी राह
जोई रह्या हता ते अध्यात्मरसनां झरणां गुरुदेवे
वहेवडाववा शरू कर्या छे. “आत्मधर्म” ना आ खास
वधाराद्वारा जिज्ञासुओने तेनी प्रसादीनुं रसपान करतां
जरूर आनंद थशे आ मंगल प्रसंगे गुरुदेवने अतिशय
भक्तिपूर्वक नमस्कार करीए छीए. जय हो.....भवछेदक
गुरु–वाणीनो!

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: २ : आत्मधर्म: २०४
आ प्रवचनसारनी ७२मी गाथा छे. आ प्रवचनसारना कर्ता भगवान
कुंदकुंदाचार्यदेव छे, तेमना संबंधमां श्री अमृतचंद्राचार्यदेव कहे छे के तेमने भवसमुद्रनो
किनारो अत्यंत नजीक आवी गयो छे, अल्पकाळमां तेओ भवने छेदीने मोक्ष पामवाना
छे.–आवा भवछेदक पुरुषनी वाणी छे, ते वाणी पण भवछेदक छे. भवनो छेद करवानो
उपाय आ वाणी बतावे छे.
ज्ञानानंदस्वभावने नमस्कार करीने, तथा अनेकान्तमय वाणीने नमस्कार करीने
प्रवचनसारनी शरूआत करतां आचार्यदेव कहे छे के परमानंदरूपी सुधारसना पिपासु
भव्यजीवोने माटे आ प्रवचनसारनी टीका रचाय छे. जेने चैतन्यना परमआनंदनी ज
पिपासा छे, जगतनी बीजी कोई लप जेनां अंतरमां नथी, अरे! अमारा चैतन्यनुं
अमृत अमारा अंतरमां ज छे–एम जेनी जिज्ञासानो दोर आत्मा तरफ वळ्‌यो छे, एवा
भव्यजीवोना आनंद माटे–हितने माटे आ टीका रचवामां आवे छे. जुओ, आ श्रोतानी
जवाबदारी बतावी; श्रोता केवो छे? के चैतन्यना परमानंदरूपी अमृतनो ज पिपासु छे,
ए सिवाय संसारनी कोई चीजनो, माननो, लक्ष्मीनो, पुण्यनो, के रागादिनो पिपासु जे
नथी, आवा जिज्ञासुश्रोताने माटे आ “तत्त्वप्रदीपिका” रचाय छे. तरता पुरुषनी आ
वाणी भवछेदक छे.
काम एक आत्मार्थनुं,
बीजो नहि मन रोग.
जेना अंतरमां एक आत्मार्थ साधवा सिवाय बीजी कोई तमन्ना नथी, आत्माने
साधवानी ज तमन्ना छे, एवा आत्मार्थी जीवोने माटे आचार्यभगवान आ शास्त्र रचे
छे. आ शास्त्रद्वारा आचार्यदेव परमानंदना पिपासु भव्यजीवने यथार्थ तत्त्वोनु स्वरूप
समजावे छे, –ज्ञान अने ज्ञेय तत्त्वोनुं यथार्थस्वरूप समजतां भेदज्ञानज्योति प्रगटे छे
ने जीव परम आनंदने पामे छे.
आटला उपोद्घात पछी हवे मूळ अधिकार शरू थाय छे.
(जेठ सुद १४ना रोज प्रवचनसार गा. ७१ सुधी वंचायेल, त्यारबाद आजे
आसो सुद १पना रोज प्रवचनसार गा. ७२थी शरू थाय छे.)
जगतना छ द्रव्योमां आ आत्मा ज्ञानतत्त्व छे, विशुध्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी
आत्मा छे तेना स्वभावमां ज वास्तविक सुख छे; ए सिवाय शुभ के अशुभ
परिणाममां वास्तविक सुख नथी. परमानंदरूप जे ज्ञानतत्त्व छे तेमां शुभ के अशुभ

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आसो: २४८६ : ३ :
परिणामनो अभाव छे–पछी अज्ञानीना शुभ हो के ज्ञानीना हो,–पण ते शुभ
परिणाममां किंचित् सुख के मोक्षमार्ग नथी. चोथा गुणस्थानथी मोक्षमार्गनी शरूआत
थई होवा छतां जे शुभोपयोग छे ते कंई मोक्षमार्ग नथी. मोक्षमार्ग राग वगरनी जे
शुद्धता प्रगटी तेमां ज छे. ए सिवाय अशुभ के शुभ (सम्यद्रष्टि के मिथ्याद्रष्टि) ते
बंनेमां दुःखनुं साधनपणुं समानपणे छे, जेम पापने उत्पन्न करनार अशुभ उपयोग ते
दुःखनुं ज कारण तेम पुण्यने उत्पन्न करनार शुभउपयोग पण ते अशुभोपयोगनी
माफक ज दुःखनुं साधन छे.–एम ७२मी गाथामां समजावे छे.
कोने समजावे छे?–के जे जीव चैतन्यना परम आनंदनो पिपासु छे तेने समजावे छे–
तिर्यंच–नारक–सुर–नरो जो देहगत दुःख अनुभवे
तो जीवनो उपयोग ए शुभ ने अशुभ कई रीत छे? ७२.
आचार्यदेव कहे छे के, अरे जीव! तुं विचार तो खरो के, जो शुभ अने अशुभ
बंनेमां जोडायेला जीवो दुःख ज पामे छे, तो ते बंनेमां शो फेर छे?–बंनेमां सुखनो
अभाव छे, बंने आत्माना शुद्धोपयोगथी विलक्षण छे, बंने अशुद्ध छे, स्वाभाविक सुख
तो शुद्धोपयोगमां ज छे. जेने रागमां–पुण्यमां–शुभमां सुख लागतुं होय ते जीव खरेखर
परमानंदनो पिपासु नथी. सम्यग्दर्शनमां प्राप्त थतुं जे परमसुख तेनी तेने खबर नथी.
शुभना फळरूप जे पुण्य–तेमां झंपलावीने जेओ पोताने सुखी माने छे तेवा जीवोने
चैतन्यना परमानंदनी खबर नथी, चैतन्यना परमानंदने भूलीने कायरताथी तेओ
ईंद्रियविषयोमां झंपापात करे छे, तेओ दुःखमां ज पड्या छे. नरकनो नारकी के स्वर्गनो
देव–ए बंने जीवो ईन्द्रियविषयोथी ज दुःखी छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो
शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो?
वधवापणुं संसारनुं नर देहने हारी जवो,
एनो विचार नहि अहोहो, एक पळ तमने हवो!
अरे जीव! लक्ष्मी वगेरे वधतां तेमां आत्माने शुं वध्युं? तेमां आत्माने शुं सुख
मळ्‌युं?–एनाथी आत्मानी कांई अधिकता नथी. आत्मानी अधिकता

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: ४ : आत्मधर्म: २०४
तो ज्ञानस्वभावथी ज छे. ज्ञानस्वभाववडे अधिक एवा आत्माने जाण तो तारो
भवनो छेद थाय. भाई, आवो मनुष्य अवतार मळ्‌यो तेमां जो तें भवना छेदनो उपाय
न कर्यो तो तें शुं कर्युं? आ भव, भवना छेद माटे ज मळेलो छे. चार गतिना भवनो
अभाव करवा माटे ज आ अवतार छे; परम आनंदनी प्राप्तिनो पिपासु थईने तुं
भवछेदनो उपाय कर.
ज्ञानी, अथवा तो परमानंदनो पिपासु जीव एम जाणे छे के मारा विशुद्ध
चैतन्य स्वभावमां शुभ के अशुभ नथी, मारा अतीन्द्रिय आनंद स्वभावमां
ईंद्रियविषयनो अभाव छे.–आम ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने जेणे द्रव्येन्द्रियो
भावेन्द्रियो तथा ते ईंद्रियना विषयो–ए बधाथी भिन्न पोताना ज्ञानस्वभावने
अनुभव्यो ते जीव जीतेन्द्रिय छे, ते जिनेन्द्रदेवनो खरो भक्त छे, ते जीव आत्माना
परम आनंदने अनुभवनार छे.
अमृतझरणी.....
शांतिदातारी.......
भव तारणहारी......
गुरुदेवनी मंगल वाणीनो
(आ मंगल–प्रवचन पछी पू. बेनश्रीबेने
हर्षोल्लासपूर्वक भक्ति करावी हती.)
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लवाजम तुरत मोकलावो