: १४ : आत्मधर्म : २१३
पंचाध्यायीमां अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनयनुं लक्षण आपतां एम कह्युं छे के जे नय जे पदार्थनी जे
आत्मभूत शक्ति छे तेने अवान्तर भेद कर्या विना सामान्यरूपे ते ज पदार्थनी बतावे छे ते अनुपचरित
सद्भूतव्यवहारनय छे. तथा व्यवहारनयथी एकवार स्वात्मामां ज्ञान सामान्यनी अपेक्षाए भेद विवक्षित
कर्या छतां तेने जाणवारूप धर्मनी अपेक्षाए स्व–पर विकल्परूप स्वीकारवो पडे छे. कारण के ज्ञानमां आ
धर्मनो स्वनी पेठे परना संबंधथी आरोप करवामां आवे छे. तेथी एने स्वीकारनार नयने उपचरित सद्भूत
व्यवहारनय कह्यो छे. आ रीते पंचाध्यायमां आ बन्ने नयोनां लक्षणो कई द्रष्टिथी कर्या छे ए स्पष्ट थई जाय
छे परंतु बीजे (अनगार धर्मामृत्त अने आलाप पद्धति वगेरेमां) साधक आत्माना स्वात्मा अने परात्मा
एवा भेद कह्या विना आ नयोनां लक्षण अने उदाहरण आपवामां आव्यां छे. तेथी त्यां एनां लक्षण
आदिनो विचार बीजी रीते करवामां आव्यो छे.
९४. तात्पर्य ए छे के ज्यां सम्यग्द्रष्टिनी श्रद्धाना विषयनी विवक्षा होय त्यां पंचाध्यायीना कथन प्रमाणे
व्यवहारना भेद करवामां आवे छे अने ज्यां लोकव्यवहारमूलक ज्ञानना विषयनी विवक्षा होय त्यां बीजा
(आलापपद्धति अने अनगारधर्मामृत आदि) शास्त्रोनां कथन प्रमाणे व्यवहारनयना भेद करवामां आवे छे.
अहीं आटलुं विशेष ए समजवुं जोईए के पंचाध्यायीकारे आ मीमांसा पोतानी बुद्धिथी ज करी छे एम नथी.
परंतु तेमणे ए बधुं समय प्राभृतमां बतावेला स्वसमय अने परसमयना स्वरूपने ध्यानमां राखीने ज लख्युं
छे. एमना आम कहेवानी पाछळ जे हेतु अने प्रयोजन छे एनो निर्देश तेमणे पोते कर्यो ज छे.
९प. आ व्यवहारनयनो एक विचार छे. ए सिवाय तेनी मीमांसा एक जुदी रीते करवामां आवी छे.
आगळ एनुं ज स्पष्टीकरण करीए छीए. वात एम छे के संसार अवस्थामां जीवना जे रागादि विभावभाव
होय छे ते फक्त जीवमां प्राप्त थता नथी पण ज्यारे आ जीव कर्मोथी बद्ध रहे छे त्यारे ज एनी प्राप्ति थाय छे.
आ भाव जीवमां ज थाय छे अने जीव ज एनुं उपादान छे एमां शंका नथी. पण ए थाय छे पुद्गलकर्मरूप
निमित्तोना सद्भावमां ज, तेथी एना नैमित्तिक होवाथी मूर्त होवा छतां पण एने जीवना कहेवा ए पण
एक व्यवहार छे. आ ज तथ्य ध्यानमां राखीने आचार्य अमृतचंद्रे समयप्राभृत गाथा २७२ नी टीकामां
व्यवहारनयनुं आ लक्षण आप्युं छे. :–
पराश्रितो व्यवहारनयः।
अर्थ:– जे परना आश्रयथी थाय छे अर्थात् अन्य वस्तुना गुणधर्मने अन्यना स्वीकारे छे ते
व्यवहारनय छे.
९६. अहीं आचार्य कुन्दकुन्दनो अभिप्राय, परना आश्रये आ जीवने जे अध्यवसान भाव थाय छे
तेने छोडाववानो छे. ते ज प्रसंगे आचार्य अमृतचन्द्रे व्यवहारनुं आ लक्षण आप्युं छे.
९७. आ व्यवहार असद्भूत छे केम के जेटला कोई नैमित्तिक भाव थाय छे ते मूर्त होवाथी जीवना
स्वभावमां उपलब्ध थता नथी. छतां पण ते आ नय वडे जीवना स्वीकारवामां आवे छे, तेथी आ द्रष्टिने
स्वीकार करनार नय असद्भूत व्यवहारनय कहेवाय छे. आ ज सत्य ध्यानमां राखीने पंचाध्यायीमां आ
नयनुं आ लक्षण द्रष्टिगोचर थाय छे.
अपि चासद्भूतादिव्यवहारान्तो नयश्च भवति यथा ।
अन्य द्रव्यस्य गुणाः संजायन्ते बलादन्यत्र ।। १–५२९।।
अर्थ: अन्य द्रव्यना गुणोनुं बळपूर्वक (उपचार सामर्थ्यथी) अन्य द्रव्यमां संयोजन करवुं ए
असद्भूत व्यवहारनय छे.
आ नयनुं उदाहरण आपतां पंचाध्यायीमां कह्युं छे :–
स यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् ।
तत्संयोगत्वादिह मूर्ताः क्रोधादयोऽपि जीवभवाः ।। १–५३०।।