Purusharth Siddhi Upay-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 171-194 ; Sallekhna Dharma Vyakhyan.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 8 of 10

 

Page 129 of 186
PDF/HTML Page 141 of 198
single page version

वृद्धिकरम्] उत्तम तप तथा स्वाध्यायनी वृद्धि करनार छे [तत् एव] ते ज [देयं] देवा योग्य छे.

टीकाः– ‘यत् (वस्तु) रागद्वेष असंयम मद दुःख भयादिकं न कुरुते तत् एव मुतपः स्वाध्यायवृद्धिकरं द्रव्यं देयम्।’–अर्थः–जे वस्तु राग, द्वेष, असंयम, मद, दुःख अने भय उत्पत्तिनुं कारण नथी अने जे वस्तु तप अने शास्त्रना स्वाध्यायने वधारनार छे तेनुं ज दान करवुं जोईए.

भावार्थः– जे द्रव्यनुं दान आपवाथी पोताना कर्मोनी निर्जरा थाय अने पात्रजीवोने तप, स्वाध्याय वगेरेनी वृद्धि थाय तेवां द्रव्योनुं ज दान श्रावके आपवुं जोईए. जेनाथी आळस वगेरेनी वृद्धि थाय एवां गरिष्ठ भोजन वगेरेनुं दान आपवुं नहि. आवुं उत्कृष्ट दान चार प्रकारनुं छे. १–आहारदान–शरीरनी स्थिरता माटे आहार आपवो ते पहेलुं दान छे. २– औषधदान–रोगादिनी पीडा दूर करवा माटे औषध आपवुं ते बीजुं दान छे. ३–ज्ञानदान– अज्ञाननो नाश अने ज्ञाननो विकास करवा माटे शास्त्र वगेरे आपवां ते त्रीजुं ज्ञानदान छे. ४–अभयदान–जंगलमां झूंपडी, वसतिका, धर्मशाळा वगेरे बंधावी आपवी. अंधारावाळा रस्तामां प्रकाश आदि थाय तेवी व्यवस्था करावी आपवी ते चोथुं अभयदान छे. आ रीते आत्मकल्याणना निमित्ते दान आपवुं ते ज खरुं दान छे. पण जे वस्तुओनुं दान आपवाथी संसारना विषय आदि अने रागद्वेषनी वृद्धि थाय एवुं दान न आपवुं जोईए.

जेम के–पृथ्वीनुं दान, हाथी, घोडा, सोनुं, चांदी, स्त्री वगेरेनुं दान करवुं ते. जेनाथी रागद्वेषनी वृद्धि थाय तेने ज कुदान कहे छे. आवुं दान करवाथी हलकी गतिना बंध सिवाय बीजुं कांई थतुं नथी, माटे एवुं कुदान न करवुं जोईए. १७०.

हवे पात्रोना भेद बतावे छेः–

पात्रं त्रिभेदमुक्तं संयोगो मोक्षकारणगुणानाम्।
अविरतसम्यग्द्रष्टिः विरताविरतश्च सकलविरतश्च।। १७१।।

अन्वयार्थः– [मोक्षकारणगुणानाम्] मोक्षना कारणरूप गुणोनो अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप गुणोनो [संयोगः] संयोग जेमां होय, एवा [पात्रं] पात्र [अविरतसम्यग्द्रष्टिः] व्रतरहित सम्यग्द्रष्टि [च] तथा [विरताविरतः] देशव्रती [च] अने [सकलविरतः] महाव्रती [त्रिभेदम्] त्रण भेदरूप [उक्तम्] कहेल छे.


Page 130 of 186
PDF/HTML Page 142 of 198
single page version

टीकाः– ‘मोक्षकारणगुणानां संयोगः पात्रं त्रिभेदं उक्तं सकलविरतः च विरताविरतः च अविरतसम्यग्द्रष्टिः च इति।’–अर्थः–मोक्षना कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र– ए त्रणेनो संयोग जेमां होय तेने पात्र कहे छे. उत्तम, मध्यम अने जघन्यपात्रना भेदथी तेना त्रण प्रकार छे.

भावार्थः– सम्यक्त्वसहित मुनिने उत्तमपात्र, सम्यक्त्वसहित देशव्रत पाळनार श्रावकने मध्यमपात्र अने व्रतरहित सम्यक्त्वसहित श्रावकने जघन्यपात्र कहे छे. जे जीवने सम्यग्दर्शन थई गयुं छे ते ज पात्र कहेवावाने योग्य छे. सम्यग्दर्शनना अभावमां कोई प्रकारनी पात्रता होई शकती नथी. तेथी द्रव्यलिंगी मुनि पात्र नथी पण उत्तम कुपात्र छे, केम के तेने सम्यग्दर्शन नथी. पण अहीं विचारवा जेवी वात ए छे के पात्रना भेद व्यवहारसम्यग्दर्शननी अपेक्षाथी छे के निश्चयसम्यग्दर्शननी अपेक्षाए? जो निश्चयसम्यग्दर्शननी अपेक्षाए मानवामां आवे तो तो उत्तमपात्रनी ओळखाण करवी ते कुपात्रनी बुद्धिनी बहारनी वात छे अने जो व्यवहारसम्यग्दर्शननी अपेक्षाए मानवामां आवे तो पहेला गुणस्थानवाळो जीव पण व्यवहारसम्यग्द्रष्टि होई शके छे अने ते उत्तमपात्रनी गणनामां आवी शके छे. तेथी द्रव्यलिंगी मुनि पण उत्तमपात्र होई शके छे अने ए ज ठीक लागे छे. कारण के पात्रनी ओळखाण करवी ए श्रावकनुं काम छे. श्रावक जे वातनी जेटली परीक्षा करी शके छे तेटली ज करशे तेथी द्रव्यलिंगीने पण (व्यवहार) पात्रता होई शके छे. माटे व्यवहारसम्यग्दर्शनथी पात्रोनी परीक्षा करीने तेमने यथायोग्य विनय, आदरपूर्वक दान देवुं अने ते सिवाय दुःखी प्राणीओने भक्तिभाव विना करुणाथी दान आपवुं जोईए.

जे दुःखी नथी, पोतानी आजीविका करवाने समर्थ छे, व्यसनी अने व्यभिचारी छे तेमने दान न आपवुं जोईए. तेमने दान आपवाथी अनेक पाप उत्पन्न थाय छे, माटे एवा जीवोने दान नहि आपवुं जोईए. उत्तमपात्रने दान देवाथी उत्तम भोगभूमि, मध्यमपात्रने दान देवाथी मध्यम भोगभूमि, अने जघन्यपात्रने दान देवाथी जघन्य भोगभूमि तथा कुपात्रने दान देवाथी कुभोगभूमि मळे छे. अपात्रने दान आपवाथी नरकादि गतिनी प्राप्ति थाय छे.

जेम के रयणसारमां कह्युं छे केः–

सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणं फलाण सोहं वा।
लोहीणं दाणं जई विमाण सोहा सव्वस्स जाणेह।।


Page 131 of 186
PDF/HTML Page 143 of 198
single page version

अर्थः– सत्पुरुषोने दान देवाथी कल्पतरुनी जेम शोभा पण थाय छे अने मनवांछित फळनी प्राप्ति पण थाय छे. लोभी, पापी पुरुषोने दान आपवाथी मडदानी ठाठडीनी जेम शोभा तो थाय पण दुःख पण थाय छे. जेम के मडदानी ठाठडी शणगारीने काढवाथी लोकमां कीर्ति थाय पण घरना स्वामीने दुःख आपनार बने छे, एवी ज रीते अपात्र वगेरेने दान आपवाथी संसारमां लोको तो वखाण करे छे पण तेनुं फळ खराब ज थाय छे, सारुं थतुं नथी. १७१.

दान आपवाथी हिंसानो त्याग थाय छेः–

हिंसायाः पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने।
तस्मादतिथिवितरणं
हिंसाप्युपरमणमेवेष्टम्।। १७२।।

अन्वयार्थः– [यतः] कारण के [अत्र दाने] अहीं दानमां [हिंसायाः] हिंसाना [पर्यायः] पर्याय [लोभः] लोभनो [निरस्यते] नाश करवामां आवे छे, [तस्मात्] तेथी [अतिथिवितरणं] अतिथिदानने [हिंसाव्युपरमणमेव] हिंसानो त्याग ज [इष्टम्] कह्यो छे.

टीकाः– ‘यतः अत्र दाने हिंसायाः पर्यायः लोभः तिरस्यते तस्मात् अतिथि वितरणं हिंसाव्युपरमणं एव इष्टम्।’ अर्थः–आ दानमां हिंसानो एक भेद जे लोभ छे तेनो त्याग थाय छे तेथी अतिथि पात्रने दान देवुं ते हिंसानो ज त्याग छे.

भावार्थः– खरेखर ज्यारे आपणो अंतरंग कषाय जे लोभ छे तेनो त्याग थाय छे त्यारे ज आपणा परिणाम बाह्य वस्तुमां वितरण करवाना थाय छे, तेथी लोभ कषायनो त्याग ज खरुं दान छे अने लोभ कषाय भावहिंसानो एक भेद छे, तेथी जे सत्पुरुष दान करे छे तेओ ज खरी रीते अहिंसाव्रत पाळे छे. १७२.

गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्या परानपीडयते।
वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति।। १७३।।

अन्वयार्थः– [यः] जे गृहस्थ [गृहमागताय] घेर आवेला [गुणिने] संयमादि गुणवान एवा अने [मधुकरवृत्या] भ्रमर समान वृत्तिथी [परान्] बीजाओने [अपीडयते] पीडा न देवावाळा [अतिथये] अतिथि साधुने [न वितरति] भोजनादि देतो नथी, [सः] ते [लोभवान्] लोभी [कथं] केम [न हि भवति] न होय?


Page 132 of 186
PDF/HTML Page 144 of 198
single page version

टीकाः– ‘यः गृहमागताय गुणिने परान् अपीडयते अतिथये न वितरति सः लोभवान् कथं न भवति।’ अर्थः–पोतानी मेळे–स्वयमेव घेर आवेला तथा रत्नत्रयादि गुणसहित अने भमरा जेवी वृत्तिथी दाताने तकलीफ न आपनार एवा अतिथि मुनि महाराज वगेरे छे, तेमने जे श्रावक गृहस्थ दान देतो नथी ते श्रावक लोभ–हिंसा सहित केम न होय? अवश्य ज होय छे.

भावार्थः– जेवी रीते भमरो बधां फूलोनी वास ले छे पण कोई फूलने पीडा उपजावतो नथी तेवी ज रीते मुनि महाराज वगेरे पण कोई पण श्रावक गृहस्थने पीडा पहोंचाडता नथी. तेमने एम कहेता नथी के अमारे माटे भोजन बनावो अथवा आपो. पण श्रावक पोते ज्यारे आदरपूर्वक बोलावे छे त्यारे तेओ थोडो लूखो सूको शुद्ध प्रासुक जेवो आहार मळे छे तेवो ज ग्रहण करी ले छे; तेथी जे श्रावक आवा संतोषी व्रतीने जो दान न आपे तो ते अवश्य हिंसानो भागीदार थाय छे. १७३.

कृतमात्मार्थं मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः।
अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो
भवत्यहिंसैव।।
१७४।।

अन्वयार्थः– [आत्मार्थं] पोताने माटे [कृतम्] बनावेल [भक्तम्] भोजन [मुनये] मुनिने [ददाति] आपे–[इति] आ रीते [भावितः] भावपूर्वक [अरतिविषादविमुक्तः] अप्रेम अने विषादरहित तथा [शिथिलितलोभः] लोभने शिथिल करनार [त्यागः] दान [अहिंसा एव] अहिंसा स्वरूप ज [भवति] छे.

टीकाः– ‘आत्मार्थं कृतं भुक्तं मुनये ददाति इति भावितः त्यागः अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभः अहिंसैव भवति।’–अर्थः–पोताने माटे बनावेलुं भोजन ते हुं मुनि महाराजने आपुं छुं एम त्यागभावनो स्वीकार करी तथा शोक अने विषादनो त्याग करी जेनो लोभ शिथिल थयो छे एवा श्रावकने अवश्य अहिंसा होय छे.

भावार्थः– आ अतिथिसंविभाग–वैयावृत्त शिक्षाव्रतमां द्रव्य–अहिंसा तो प्रगट ज छे केम के दान देवाथी बीजानी क्षुधा–तृषानी पीडा मटे छे तथा दाता लोभनो त्याग करे छे तेथी भाव–अहिंसा पण थाय छे अर्थात् दान करनार पूर्ण अहिंसाव्रतनुं पालन करे छे. आ रीते सात शीलव्रतोनुं वर्णन पूरुं थयुं. १७४.

(अहीं सुधी श्रावकनां बार व्रतोनुं वर्णन पूरुं थयुं)


Page 133 of 186
PDF/HTML Page 145 of 198
single page version

हवे सल्लेखनानुं स्वरूप कहे छेः–

इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम्।
सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या।। १७५।।

अन्वयार्थः– [इयम्] [एका] एक [पश्चिमसल्लेखना एव] मरणना अंते थवावाळी संलेखना ज [मे] मारा [धर्मस्वं] धर्मरूपी धनने [मया] मारी [समं] साथे [नेतुम्] लई जवाने [समर्था] समर्थ छे. [इति] ए रीते [भक्त्या] भक्ति सहित [सततम्] निरंतर [भावनीया] भावना करवी जोईए.

टीकाः– ‘इयम् एकैव मे धर्मस्वं मया समं नेतुम् समर्था इति इतौः पश्चिमसल्लेखना भक्त्या सततं भावनीया।’ अर्थः–आ मात्र एकली संलेखना ज मारा धर्मने मारी साथे लई जवाने समर्थ छे ते कारणे दरेक मनुष्ये आ अंतिम संलेखना अथवा समाधिमरणनी भक्तिथी सदा भावना करवी जोईए.

भावार्थः– संसारनां कारण क्रोधादि कषाय छे अने तेमनां कारण आहार वगेरे परिग्रहमां इच्छा छे. (स्वसन्मुखताना बळवडे) ए बधांने घटाडवां तेने ज संलेखना कहे छे. आ संलेखना पण बे प्रकारनी छे. एक क्रमे क्रमे त्याग करवो अने बीजी सर्वथा त्याग करवो. तेथी विचार करीने श्रावके पोताना मरणना अंत समये जरूर ज संलेखना करवी जोईए. में जे जीवनपर्यंत पुण्यरूप कार्य कर्युं छे तथा धर्मनुं पालन कर्युं छे ते धर्मने मारी साथे पहोंचाडवाने माटे आ एक संलेखना ज समर्थ छे–एवो विचार करी श्रावके अवश्य समाधिमरण करवुं.१७प.

मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि।
इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम्।।
१७६।।

_________________________________________________________________ १. सत् सम्यक्प्रकारे, लेखना कषायने क्षीण–कृश करवाने सल्लेखना कहे छे. ते अभ्यंतर अने

बाह्य बे भेदरूप छे. कायने कृश करवाने बाह्य अने आंतरिक क्रोधादि कषायोनो कृश करवाने
अभ्यंतर सल्लेखना कहे छे.


Page 134 of 186
PDF/HTML Page 146 of 198
single page version

अन्वयार्थः– [अहं] हुं [मरणान्ते] मरणना समये [अवश्यं] अवश्य [विधिना] शास्त्रोक्त विधिथी [सल्लेखनां] समाधिमरण [करिष्यामि] करीश–[इति] ए रीते [भावना परिणतः] भावनारूप परिणति करीने [अनागतमपि] मरणकाळ आववा पहेलां ज [इदं] [शीलं] संलेखना व्रत [पालयेत्] पाळवुं अर्थात् अंगीकार करवुं जोईए.

टीकाः– ‘अहं मरणान्ते अवश्यं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि–इति भावना परिणतः अनागतं अपि शीलं पालयेत्।’ अर्थः–हुं मरण समये अवश्य ज विधिपूर्वक समाधिमरण करीश–एवी भावनासहित श्रावक जे प्राप्त थयेल नथी तेवा शील (स्वभाव)ने प्राप्त करी ले छे.

भावार्थः– श्रावके आ वातनो विचार सदैव करवो जोईए के हुं मारा मरण वखते अवश्य ज संलेखना करीश. कारण के मरण वखते प्रायः मनुष्योना परिणाम बहु दुःखी थई जाय छे तथा कुटुंबीजनो अने धनादिथी ममत्वभाव छूटतो नथी. जेणे ममत्वभाव छोडी दीधो तेणे संलेखना करी. ममत्वभाव छूटी जवाथी पापनो बंध थतो नथी तथा नरकादि गतिनो बंध थतो नथी, तेथी मरण वखते जरूर ज संलेखना करवाना परिणाम राखवा जोईए. १७६.

मरणेऽवश्यं भाविनि कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे।
रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य
नात्मघातोऽस्ति।। १७७।।

अन्वयार्थः– [अवश्यं] अवश्य [भाविनि] थवावाळुं [मरणे ‘सति’] मरण थतां [कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे] कषाय सल्लेखनाना कृश करवा मात्रना व्यापारमां [व्याप्रियमाणस्य] प्रवर्तमान पुरुषने [रागादिमन्तरेण] रागादिभावोना अभावमां [आत्मघातः] आत्मघात [नास्ति] नथी.

टीकाः– ‘अवश्यं भाविनि कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे मरणे रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य आत्मघातः न अस्ति।’–अर्थः–अवश्य ज थनार जे मरण छे तेमां कषायनो त्याग करतां रागद्वेष विना प्राणत्याग करनार जे पुरुष छे तेने आत्मघात थई शकतो नथी.

भावार्थः– संलेखना करनार पुरुषनी इच्छा एवी नथी के हुं जबरजस्तीथी मरण करुं पण एनो अभिप्राय एवो होय छे के जबरजस्तीथी मरण थवा लागे


Page 135 of 186
PDF/HTML Page 147 of 198
single page version

त्यारे मारा परिणाम शुद्ध रहे अने हुं संसारना विषय–भोगोथी ममत्वनो त्याग करी दउं. तेना मरणमां जो रागद्वेष थाय तो ज आत्मघात थाय. पण जे मनुष्य रागद्वेषनो त्याग करी रह्यो छे तेने आत्मघात थई शकतो नथी. १७७.

आत्मघाती कोण छे ते हवे बतावे छेः–

यो हि कषायाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः।
व्यपरोपयति प्राणान् तस्य
स्यात्सत्यमात्मवधः।। १७८।।

अन्वयार्थः– [हि] निश्चयथी [कषायाविष्टः] क्रोधादि कषायोथी घेरायेलो [यः] जे पुरुष [कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः] श्वासनिरोध, जळ, अग्नि, विष, शस्त्रादिथी पोताना [प्राणान्] प्राणने [व्यपरोपयति] पृथक् करे छे [तस्य] तेने [आत्मवधः] आत्मघात [सत्यम्] खरेखर [स्यात्] थाय छे.

टीकाः– ‘हि यः (श्रावकः) कषायाविष्टः (सन्) कुम्भक–जल–धूमकेतु–विषशस्त्रैः प्राणान् व्यपरोपयति तस्य आत्मवधः सत्यं स्यात्।’–अर्थः–जे जीव क्रोधादि कषाय संयुक्त थयो थको श्वास रोकीने, वा जळथी, अग्निथी, विषथी के हथियार वगेरेथी पोताना प्राणनो वियोग करे छे तेने सदा आपघातनो दोष थाय छे.

भावार्थः– क्रोध–मान–माया–लोभ इत्यादि कषायोनी तीव्रताथी जे पोताना प्राणनो घात करवो तेने ज आपघात–मरण कहे छे. १७८.

विशेषः– सल्लेखना धर्म (समाधिमरण विधि) गृहस्थ अने मुनि बेउने छे, सल्लेखना अथवा संन्यासमरणनो एक ज अर्थ छे. माटे बार व्रतो पछी सल्लेखनानुं वर्णन कर्युं छे. आ सल्लेखनाव्रतनी उत्कृष्ट मर्यादा बार वर्ष सुधीनी छे;–एम श्री वीरनंदी आचार्यकृत यत्याचारमां कह्युं छे.

ज्यारे शरीर कोई असाध्य रोगथी अथवा वृद्धावस्थाथी असमर्थ थई जाय, देव– मनुष्यादिकृत कोई दुर्निवार उपसर्ग आवी पडे, कोई महा दुष्काळथी धान्यादि भोज्य पदार्थो दुष्प्राप्य थई जाय अथवा धर्मनो नाश करवावाळां कोई विशेष कारण आवी मळे त्यारे पोताना शरीरने पाकी गयेला पान समान अथवा तेलरहित दीपक समान आपोआप विनाशसन्मुख जाणी, संन्यास धारण करे. जो मरणमां कोई प्रकारे संदेह होय तो मर्यादापूर्वक एवी प्रतिज्ञा करे, के जो आ उपसर्गमां मारुं आयु पूर्ण थई जशे तो (मृत्यु थई जशे तो) मारे आहारादिनो सर्वथा त्याग छे


Page 136 of 186
PDF/HTML Page 148 of 198
single page version

अने कदाचित् जीवन बाकी रहेशे तो आहारादिकने ग्रहण करीश. आ संन्यास ग्रहण करवानो क्रम छे.

रोगादिक थतां यथाशक्ति औषध करे पण ज्यारे असाध्य रोग थई जाय, कोई रीते उपचारथी लाभ न थाय त्यारे आ शरीर, दुष्ट समान सर्वथा त्याग करवा योग्य कह्युं छे, अने इच्छित फळ दाता धर्म विशेषताथी पालन करवा योग्य कहेल छे. शरीर मरण बाद बीजुं पण मळे छे परंतु धर्मपालन करवानी योग्यता पामवी अतिशय दुर्लभ छे. आथी विधिपूर्वक देहना त्यागमां दुःखी न थतां संयमपूर्वक मन–वचन–कायानो उपयोग आत्मामां एकत्रित करवो जोईए अने ‘‘जन्म, जरा तथा मृत्यु शरीर संबंधी छे, मने नथी’’–एवुं चिंतवन करी निर्ममत्वी थई, विधिपूर्वक आहार घटाडी, पोताना त्रिकाळी अकषाय ज्ञातामात्र स्वरूपना लक्षे काया कृश करवी जोईए अने शास्त्रामृतना पानथी कषायोने पातळा पाडवा जोईए, पछी चार प्रकारना संघनी साक्षी वडे समाधिमरणमां सावधान–उद्यमवंत थवुं.

अंतनी आराधनाथी चिरकाळथी करेली सम्यक् व्रत–नियमरूप धर्म आराधना सफळ थई जाय छे, केमके तेथी क्षणभरमां घणा काळथी संचित पापनो नाश थई जाय छे. अने जो अंत मरण बगडी जाय अर्थात् असंयमपूर्वक या देहमां एकता–बुद्धिपूर्वक मृत्यु थई जाय तो करेली धर्माराधना निष्फळ थई जाय छे. अहीं कोई प्रश्न करे के, ‘‘जो अंत समय समाधिमरण करी लेवाथी क्षणमात्रमां पूर्व पापोनो नाश थई जाय छे तो पछी युवाअवस्थामां धर्म करवानी शी जरूर छे? अंत समये संन्यास धारण करी लेवाथी ज सर्व मनोरथ सिद्ध थई जशे,’’ तो तेनुं समाधान–जे जीव पोतानी पूर्वअवस्थामां धर्मथी विमुख रहे छे अर्थात् जेमणे तत्त्वज्ञानपूर्वक व्रत–नियम आदि धर्माराधना नथी करी ते जीव अंतकाळमां धर्मसन्मुख अर्थात् संन्यासयुक्त कदी थई शकतो नथी. केमके–चंद्रप्रभचरित्र प्रथम सर्गमां कह्युं छे के ‘‘चिरन्तनाभ्यासनिबन्धनेरितागुणेषु दोषेषु च जायते मतिः’’ अर्थात् चिरकाळना अभ्यासथी प्रेरित करवामां आवेली बुद्धि गुण अथवा दोषोमां जाय छे. जे वस्त्र प्रथमथी ज उजळुं करेलुं होय छे तेनी उपर मनपसंद रंग चढी शके छे, पण जे वस्त्र प्रथमथी मेलुं छे तेनी उपर कदीपण रंग चढावी शकातो नथी. माटे समाधिमरण ते ज धारण करी शके छे के जे प्रथम अवस्थाथी ज धर्मनी आराधनामां बराबर सावधान रहेलो होय. हां, कोई स्थाने एवुं पण जोवामां आवे छे के जेणे _________________________________________________________________ १. चार प्रकारना संघ मुनि, अर्जिका, श्रावक, श्राविका.


Page 137 of 186
PDF/HTML Page 149 of 198
single page version

आजीवन धर्मसेवनमां चित्त लगाडयुं नहोतुं ते पण अपूर्व विवेकनुं बळ प्राप्त करी समाधिमरण एटले संन्यासपूर्वक मरण करीने स्वर्गादिक सुखोने पामी गया पण ते तो काकतालीय न्यायवत् अति कठिन छे. (ताडवृक्षथी फळ तूटवुं ने ऊडता कागडाना मोढामां तेनी प्राप्ति थई जवी जेम कठिन छे तेम संस्कारहीन जीवन वडे समाधिमरण पामवुं कठण छे.) माटे सर्वज्ञ वीतरागनां वचनो प्रति श्रद्धावान छे तेमणे उपर कही शंकाने पोताना चित्तमां कदीपण स्थान आपवुं नहि.

समाधिमरणना इच्छुक पुरुषो बने त्यांसुधी जिनेश्वर भगवाननी जन्मादि तीर्थभूमिनो आश्रय ग्रहण करे, जो तेम न बनी शके तो मंदिर अथवा संयमीजनोना आश्रयमां रहे. संन्यासार्थी तीर्थक्षेत्रे जती वखते बधा साथे क्षमा याचना करे अने पोते पण मन–वचन– कायपूर्वक सर्वने क्षमा करे. अंत समये क्षमा करवावाळो संसारनो पारगामी थाय छे, अने वैर– विरोध राखनारो अर्थात् क्षमा न राखनार अनंत संसारी थाय छे. संन्यासार्थीए पुत्र, कलत्रादि कुटुम्बीओथी तथा सांसारिक सर्व संपदाथी सर्वथा मोह छोडी (निर्मोही निज आत्माने भजवो जोईए.) उत्तम साधक धर्मात्माओनी सहाय लेवी केमके साधर्मी तथा आचार्योनी सहायथी अशुभकर्म यथेष्ट बाधानुं कारण बनतां नथी. व्रतना अतिचारो साधर्मीओ अथवा आचार्य सन्मुख प्रगट करीने निःशल्य थई प्रतिक्रमण–प्रायश्चित शास्त्रमां कहेली विधिओथी शोधन करवुं जोईए.

निर्मळभावरूपी अमृतथी सिंचित समाधिमरणने माटे पूर्व अथवा उत्तर दिशा तरफ मस्तक राखे. जो श्रावक महाव्रतनी याचना करे, तो निर्णायक आचार्यने उचित छे के तेने महाव्रत दे, महाव्रत ग्रहणमां नग्न थवुं जोईए. अर्जिकाने पण अंतकाळ उपस्थित थतां एकान्त स्थानमां वस्त्रोनो त्याग करवो उचित कहेल छे. संथारा वखते अनेक प्रकारना योग्य आहार देखाडी भोजन करावे. अथवा जो तेने अज्ञानतावश भोजनमां आसक्त समजे, तो परमार्थज्ञाता आचार्य तेने उत्तम प्रभावशाली व्याख्यान द्वारा एम समजावे के–

हे जितेन्द्रिय, तुं भोजन–शयनादिरूप कल्पित पुद्गलोने हजी पण उपकारी समजे छे! अने एम माने छे के आमांथी कोई पुद्गल एवां पण छे के में भोगव्या नथी. ए तो महान आश्चर्यनी वात छे! भला विचार तो कर के आ मूर्तिक पुद्गळ तारा अरूपीमां कोई प्रकारे मळी शके तेम छे? मात्र इन्द्रियोना ग्रहण पूर्वक तेने अनुभवीने तें एम मानी लीधुं छे के हुं ज तेनो भोग करुं छुं, तो हे...दूरदर्शी,


Page 138 of 186
PDF/HTML Page 150 of 198
single page version

हवे आवी भ्रान्त बुद्धिने सर्वथा छोडी दे अने निर्मळज्ञानानंदमय आत्मतत्त्वमां लवलीन था. आ ते ज समय छे के जेमां ज्ञानी जीव शुद्धतामां सावधान रहे छे अने भेदज्ञानना बळथी चिंतवन करे छे के हुं अन्य छुं अने ए पुद्गल देहादि माराथी सर्वथा भिन्न जुदा ज पदार्थ छे. माटे हे महाशय! परद्रव्योथी मोह तुरत ज छोड अने पोताना आत्मामां निश्चल–स्थिर रहेवानो प्रयत्न कर. जो कोई पुद्गलमां आसक्त रहीने मरण पामीश तो याद राखजे के तने हलका–तुच्छ जंतु थई, आ पुद्गलोनुं भक्षण अनंतवार करवुं पडशे. आ भोजनथी तुं शरीरनो उपकार करवा चाहे छे तो कोई रीते पण योग्य नथी. केमके शरीर एवुं कृतध्नी छे के ते कोईना करेला उपकारने माने नहि, माटे भोजननी इच्छा छोडी, केवळ आत्महितमां चित्त जोडवुं ते ज बुद्धिमत्ता छे.

आ प्रकारे हितोपदेशरूपी अमृतधारा पडवाथी अन्ननी तृष्णा दूर करी कवलाहार छोडावे तथा दूध आदि पीवायोग्य वस्तु वधारे, पछी क्रमे क्रमे गरम जळ लेवा मात्रनो नियम करावे. जो उनाळो, मारवाड जेवो देश तथा पित्त प्रकृतिना कारणे तृषानी पीडा सहन करवा असमर्थ होय तो मात्र ठंडुं पाणी लेवानुं राखे, अने शिक्षा दे के हे आराधक! हे आर्य! परमागममां प्रशंसनीय मारणांतिक सल्लेखना अत्यंत दुर्लभ वर्णवी छे, माटे तारे विचार पूर्वक अतिचार आदि दोषोथी तेनी रक्षा करवी.

पछी अशक्तिनी वृद्धि देखीने, मरणकाळ नजीक छे एम निर्णय थतां आचार्य समस्त संघनी अनुमतिथी संन्यासमां निश्चलता माटे पाणीनो पण त्याग करावे. आवा अनुक्रमथी चारे प्रकारना आहारनो त्याग थतां समस्त संघथी क्षमा करावे अने निर्विघ्न समाधिनी सिद्धिने माटे कायोत्सर्ग करे. त्यार पछी वचनामृतनुं सिंचन करे अर्थात् संसारथी वैराग्य उत्पन्न करवावाळा कारणोनो उक्त आराधकना कानमां, मन्द मन्द वाणीथी जप करे. श्रेणिक, वारिषेण, सुभगादिनां द्रष्टान्त संभळावे अने व्यवहार–आराधनामां स्थिर थई, निश्चय–आराधनानी तत्परता माटे आम उपदेश करे के–

हे आराधक! श्रुतस्कंधनुं ‘‘एगो मे सासदा आदा’’ इत्यादि वाकय ‘‘णमो अरहंताणं’’ इत्यादि पद अने ‘अर्हं’ इत्यादि अक्षर–एमांथी जे तने रुचिकर लागे, तेनो आश्रय करीने तारा चित्तने तन्मय कर! हे आर्य! ‘हुं एक शाश्वत आत्मा छुं’ ए श्रुतज्ञानथी पोताना आत्मानो निश्चय कर! स्वसंवेदनथी आत्मानी भावना कर! समस्त


Page 139 of 186
PDF/HTML Page 151 of 198
single page version

चिंताओथी पृथक् थईने प्राणविसर्जन कर! अने जो तारुं मन कोई क्षुधा परीषहथी अथवा कोई उपसर्गथी विक्षिप्त (व्यग्र) थई गयुं होय तो नरकादि वेदनाओनुं स्मरण करीने ज्ञानामृतरूप सरोवरमां प्रवेश कर. केमके अज्ञानी जीव शरीरमां आत्मबुद्धि अर्थात् ‘‘हुं दुःखी छुं हुं सुखी छुं–एवा संकल्प करीने दुःखी थया करे छे, परंतु भेदविज्ञानी जीव आत्मा अने देहने भिन्न भिन्न मानीने देहने कारणे सुखी–दुःखी थतो नथी, पण विचारे छे के मने मरण ज नथी तो पछी भय कोनो? मने रोग नथी पछी वेदना केवी? हुं बाळक, वृद्ध या तरुण नथी तो पछी मनोवेदना केवी? हे महाभाग्य! आ जराक जेटला शारीरिक दुःखथी कायर थईने प्रतिज्ञाथी जरापण च्युत न थईश, द्रढचित्त थईने परम निर्जरानी अभिलाष कर. जो, ज्यांसुधी तुं आत्मचिन्तवन करतो थको संन्यास ग्रहण करीने संथारामां बेठो छो, त्यांसुधी क्षणे क्षणे तने प्रचुर कर्मोनो विनाश थाय छे! शुं तुं धीरवीर पांडवोनुं चरित्र भूली गयो छे? जेमने लोढानां घरेणां अग्निथी तपावी शत्रुए पहेराव्यां हतां तोपण तपस्याथी किंचित् पण च्युत न थतां आत्मध्यानथी मोक्षने पाम्या! शुं ते महासुकुमार सुकुमालकुमारनुं चरित्र सांभळ्‌युं नथी? जेनुं शरीर शियाळे थोडुं थोडुं करडीने अतिशय कष्ट देवा माटे घणा दिवस (त्रण दिवस) सुधी भक्षण कर्युं हतुं, परंतु किंचित् पण मार्गच्युत न थतां जेमणे सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग पाप्त कर्युं हतुं. एवां असंख्य उदाहरण शास्त्रमां छे जेमां दुस्सह उपसर्गो सहन करीने अनेक साधुओए स्वार्थसिद्धि करी छे. शुं तारुं आ कर्तव्य नथी के तेमनुं अनुकरण करीने जीवन–धनादिमां निर्वांछक थई, अंर्त–बाह्य परिग्रहना त्यागपूर्वक साम्यभावथी निरुपाधिमां स्थिर थई आनंदामृतनुं पान करवुं! अने उपरोक्त उपदेशथी सम्यक् प्रकारे कषायने पातळा करी–कृश करी रत्नत्रयनी भावनारूप परिणमनथी पंच नमस्कार–मंत्र स्मरण पूर्वक समाधिमरण करवुं जोईए.–आ समाधिमरणनी संक्षेप विधि छे.

सल्लेखना पण अहिंसा छे

नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम्।
सल्लेखनामपि
ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्धयर्थम्।। १७९।।

अन्वयार्थः– [यतः] कारण के [अत्र] आ संन्यास मरणमां [हिंसायाः] हिंसाना [हेतवः] हेतुभूत [कषायाः] कषाय [तनुताम्] क्षीणताने [नीयन्ते] पामे छे [ततः] तेथी [सल्लेखनामपि] संन्यासने पण आचार्यो [अहिंसाप्रसिद्धयर्थ] अहिंसानी सिद्धि माटे [प्राहुः] कहे छे.


Page 140 of 186
PDF/HTML Page 152 of 198
single page version

टीकाः– ‘यतः हिंसायाः हेतवः कषायाः अत्र (सल्लेखनायां) तनुतां नीयन्ते ततः सल्लेखनाम् अहिंसा प्रसिद्धयर्थम् प्राहुः।’–अर्थः–हिंसाना कारण कषाय छे, ते आ संलेखनामां क्षीण थई जाय छे तेथी संलेखनाने पण अहिंसानी पुष्टि माटे कही छे.

भावार्थः– आ संन्यासमां कषायो घटे छे अने कषाय ज हिंसानुं मूळ कारण छे, तेथी संन्यासनो स्वीकार करवाथी अहिंसा व्रतनी ज सिद्धि थाय छे. १७९.

इति यो व्रतरक्षार्थं सततं पालयति सकलशीलानि।
वरयति
पतिंवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदश्रीः।। १८०।।

अन्वयार्थः– [यः] जे [इति] आ रीते [व्रतरक्षार्थं] पंच अणुव्रतोनी रक्षा माटे [सकलशीलानि] समस्त शीलोने [सततं] निरंतर [पालयति] पाळे छे [तम्] ते पुरुषने [शिवपदश्रीः] मोक्षपदनी लक्ष्मी [उत्सुका] अतिशय उत्कंठित [पतिंवरा इव] स्वयंवरनी कन्यानी जेम [स्वयमेव] पोते ज [वरयति] स्वीकार करे छे, अर्थात् प्राप्त थाय छे.

‘इति यः व्रतरक्षार्थं सकलशीलानि सततं पालयति तं उत्सुका शिवपदश्रीः पतिंवरा इव स्वयमेव वरयति।’ अर्थः–आ रीते जे पांचे अणुव्रतोनी रक्षा माटे सात शीलव्रत पाळे छे तेने मोक्षरूपी लक्ष्मी उत्सुक थईने स्वयंवरमां कन्यानी जेम पोते ज वरे छे.

भावार्थः– जेम स्वयंवरमां कन्या पोतानी मेळे ओळखीने योग्य पतिने वरे छे, तेम मुक्तिरूपी लक्ष्मी व्रती अने समाधिमरण करनार श्रावकने पोते ज प्राप्त थाय छे. १८०.

आ रीते पांच अणुव्रत, त्रण गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, एक संलेखना अने एक सम्यक्त्व–आ रीते श्रावकनी चौद वातोनुं वर्णन कर्युं.

हवे तेना पांच पांच अतिचारोनुं वर्णन करे छेः–

अतिचाराः सम्यक्त्वे व्रतेषु शीलेषु पञ्च पञ्चेति।
सप्ततिरमी
यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनो हेयाः।। १८१।।

अन्वयार्थः– [सम्यक्त्वे] सम्यक्त्वमां [व्रतेषु] व्रतोमां अने [शीलेषु] शीलोमां [पञ्च पञ्चेति] पांच पांचना क्रमथी [अमी] [सप्ततिः] सित्तेर


Page 141 of 186
PDF/HTML Page 153 of 198
single page version

[यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनः] यथार्थ शुद्धिने रोकनार [अतिचाराः] अतिचार [हेयाः] छोडवा योग्य छे.

टीकाः– ‘सम्यक्त्वे व्रतेषु (सल्लेखना पञ्च) पञ्च पञ्च अतिचाराः इति अमी सप्ततिः यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनः हेयाः।’ अर्थः–सम्यग्दर्शनमां, पांच अणुव्रतोमां, त्रण गुणव्रतोमां, चार शिक्षाव्रतोमां अने संलेखनामां प्रत्येकना पांच पांच अतिचार छे. आ रीते ए सित्तेर अतिचार छे ते बधा व्रतोनी शुद्धिने दोष लगाडनार छे.

भावार्थः– व्रतनो सर्वदेश भंग करवो तेने अनाचार कहे छे अने एकदेश भंग थवो ते अतिचार कहेवाय छे. आ रीते उपर कहेली श्रावकनी चौद वातोना सित्तेर अतिचार थाय छे. १८१.

सम्यग्दर्शनना पांच अतिचार

शङ्का तथैव काङ्क्षा विचिकित्सा संस्तवोऽन्यद्रष्टीनाम्।
मनसा च तत्प्रशंसा
सम्यग्द्रष्टेरतीचाराः।। १८२।।

अन्वयार्थः– [शङ्का] संदेह [काङ्क्षा] वांछा [विचिकित्सा] ग्लानि [तथैव] तेवी ज रीते [अन्यद्रष्टीनाम्] मिथ्याद्रष्टिओनी [संस्तवः] स्तुति [च] अने [मनसा] मनथी [तत्प्रशंसा] ते अन्य मतवाळाओनी प्रशंसा करवी ते [सम्यग्द्रष्टेः] सम्यग्द्रष्टिना [अतीचाराः] अतिचार छे.

टीकाः– ‘शङ्का तथैव काङ्क्षा विचिकित्सा अन्यद्रष्टीनाम् संस्तवः च मनसा प्रशंसा सम्यग्द्रष्टेः अतीचाराः भवन्ति।’–अर्थः–(१) जिनवचनमां शंका करवी, (२) व्रतो पाळीने संसारनां सुखोनी इच्छा करवी. (३) मुनि वगेरेनुं शरीर जोईने घृणा करवी, (४) मिथ्याद्रष्टिओनी स्तुति करवी, अने (प) तेमनां कार्योनी मनथी प्रशंसा करवी. –आ सम्यग्दर्शनना पांच अतिचार छे.

भावार्थः– ज्यांसुधी आ पांच अतिचारोनो त्याग थतो नथी त्यांसुधी ते निश्चयसम्यग्द्रष्टि थई शकतो नथी. १८२.

अहिंसा अणुव्रतना पांच अतिचार

छेदनताडनबन्धा भारस्यारोपणं समधिकस्य।
पानान्नयोश्च रोधः
पञ्चाहिंसाव्रतस्येति।। १८३।।


Page 142 of 186
PDF/HTML Page 154 of 198
single page version

अन्वयार्थः– [अहिंसाव्रतस्य] अहिंसा व्रतना [छेदनताडनबन्धाः] छेदवुं, ताडन करवुं, बांधवुं, [समधिकस्य] अतिशय वधारे [भारस्य] बोजो [आरोपणं] लादवो, [च] अने [पानान्नयोः] अन्न–पाणी [रोधः] रोकवा अर्थात् न देवा [इति] ए रीते [पञ्च] पांच अतिचार छे.

टीकाः– ‘छेदन ताडन बन्धाः समधिकस्य भारस्य आरोपणं पानान्नयोश्च रोधः इति पञ्च अहिंसाव्रतस्य अतीचाराः।’ अर्थः–छेदन अर्थात् कान, नाक, हाथ वगेरे कापवा, ताडन अर्थात् लाकडी, चाबूक, आर वगेरेथी मारवुं, बंध अर्थात् एक जग्याए बांधीने रोकी राखवुं, अधिक भार लादवो तथा योग्य समये घास, चारो, पाणी वगेरे न आपवां–ए अहिंसा अणुव्रतना पांच अतिचार छे. १८३.

सत्य अणुव्रतना पांच अतिचार

मिथ्योपदेशदानं रहसोऽभ्याख्यानकूटलेखकृती।
न्यासापहारवचनं
साकारमन्त्रभेदश्च।। १८४।।

अन्वयार्थः– [मिथ्योपदेशदानं] जूठो उपदेश आपवो, [रहसोऽभ्याख्यानकूट– लेखकृती] एकान्तनी गुप्त वातो प्रगट करवी, जूठां लखाण करवां, [न्यासापहारवचनं] थापण ओळववानुं वचन कहेवुं [च] अने [साकारमन्त्रभेदः] कायानी चेष्टाओथी जाणीने बीजानो अभिप्राय प्रगट करवो–ए पांच सत्य अणुव्रतना अतिचार छे.

टीकाः– ‘मिथ्योपदेशदानं रहसोऽभ्याख्यानं कूटलेखकृती न्यासापहारवचनं साकार मन्त्रभेदश्च इति सत्याणुव्रतस्य पञ्च अतिचाराः सन्ति।’ अर्थः–१–जूठो उपदेश आपवो के जेथी जीवोनुं अहित थाय, २–कोई स्त्री पुरुषनी गुप्त वात प्रगट करवी, ३–जूठा लेख लखवा तथा जूठी रसीद वगेरे पोते लखवी, ४–कोईनी थापण पचावी पाडवी, प–कोईनी आकृति जोईने तेनो अभिप्राय प्रगट करी देवो–ए पांच सत्य अणुव्रतना अतिचार छे.

भावार्थः– एवो जूठो उपदेश आपवो के जेथी लोको धर्म छोडीने अधर्ममां लागी जाय अने पोतानी पासे कोई थापण मूकी गयुं होय अने ते भूली गयो तथा ओछी वस्तु मागवा लाग्यो त्यारे तेने एम कहेवुं के जेटली होय तेटली लई जाव,


Page 143 of 186
PDF/HTML Page 155 of 198
single page version

एने न्यासअपहार कहे छे. जूठी रसीदो लखी आपवी अथवा पराणे लखावी लेवी कूटलेख छे. १८४.

अचौर्य अणुव्रतना पांच अतिचार

प्रतिरूपव्यवहारः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम्।
राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे च।। १८५।।

अन्वयार्थः– [प्रतिरूपव्यवहारः] प्रतिरूप व्यवहार एटले साची वस्तुमां खोटी वस्तु भेळवीने वेचवी, [स्तेननियोगः] चोरी करनाराओने मदद करवी, [तदाहृतादानम्] चोरे लावेली वस्तुओ राखवी, [च] अने [राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे] राजाए प्रचलित करेला नियमोनुं उल्लंघन करवुं, मापवाना के तोळवाना गज, कांटा, तोला वगेरेना मापमां हीनाधिक करवुं–(एते पञ्चास्तेयव्रतस्य) ए पांच अचौर्यव्रतना अतिचार छे.

टीकाः– ‘प्रतिरूपव्यवहारः स्तेननियोगः तदाहृतादानम् राजविरोधातिक्रमः च हीनाधिकमानकरणे इति अचौर्याणुव्रतस्य पञ्च अतीचाराः सन्ति।’ अर्थः–१. जूठी वस्तुने (अशुद्ध वस्तुने) ठीक जेवी करीने साची वस्तुमां भेळवीने चलाववी, एनुं नाम प्रतिरूप व्यवहार छे, २. चोरीनी प्रेरणा करवी अथवा चोरी करवानो उपाय बताववो ए बीजो स्तेनप्रयोग अतिचार छे, ३. चोरीनी वस्तु खरीदवी ए त्रीजो अतिचार छे, ४. राजानी आज्ञानुं उल्लंघन करवुं अथवा राजानो कर न आपवो ए चोथो अतिचार छे. प. अधिक मूल्यवाळी वस्तुमां ओछा मूल्यवाळी वस्तु भेळववी, मापवा–तोळवानां वासण, त्राजवां वगेरे ओछांवत्तां राखवां ए पांचमो अतिचार छे. –आ पांच अचौर्य अणुव्रतना अतिचार छे. १८प.

ब्रह्मचर्य अणुव्रतना पांच अतिचार बतावे छेः–

स्मरतीव्राभिनिवेशोऽनङ्गक्रीडान्यपरिणयनकरणम्।
अपरिगृहीतेतरयोर्गमने चेत्वरिकयोः
पञ्च।। १८६।।

अन्वयार्थः– [स्मरतीव्राभिनिवेशः] कामसेवननी अतिशय इच्छा राखवी, [अनङ्गक्रीडा] योग्य अंगो सिवाय बीजां अंगो साथे कामक्रीडा करवी, [अन्यपरिणयनकरणम्] बीजाना विवाह करवा [च] अने [अपरिगृहीतेतरयोः] कुंवारी के परणेली


Page 144 of 186
PDF/HTML Page 156 of 198
single page version

[इत्वरिकयोः] व्यभिचारिणी स्त्रीओ पासे [गमने] जवुं. लेणदेणादिनो व्यवहार राखवो. [एते ब्रह्मव्रतस्य] ए ब्रह्मचर्यव्रतना [पञ्च] पांच अतिचार छे.

टीकाः– ‘स्मरतीव्राभिनिवेशः अनङ्गक्रीडा अन्यपरिणयनकरणं इत्वरिकयोः अपरिगृहीता गमनं च इत्वरिका परिगृहिता गमनं च इति पञ्च अतीचाराः ब्रह्मचर्याणुव्रतस्य सन्ति।’ अर्थः– १. काम–भोग–विषय सेवन करवानी बहु लालसा राखवी, २. जे अंग विषय सेवन करवाना नथी तेवां मुख, नाभि, स्तन वगेरे अनंगोमां रमण करवुं, ३. बीजाना पुत्र–पुत्रीओना विवाह कराववा, ४. व्यभिचारिणी वेश्या तथा कन्या वगेरे साथे लेणदेण आदि व्यवहार राखे, वार्ता करे, रूप–शृंगार देखे, प–व्यभिचारिणी बीजानी स्त्री साथे पण ए प्रमाणे करवुं–ए पांच ब्रह्मचर्य अणुव्रतना अतिचार छे. १८६.

परिग्रहपरिणाम व्रतना पांच अतिचार

वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम्।
कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रियाः
पञ्च।। १८७।।

अन्वयार्थः– [वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम्] घर, भूमि, सोनुं, चांदी, धन, धान्य, दास, दासी अने [कुप्यस्य] सुवर्णादि धातुओ सिवाय वस्त्रादिना [भेदयोः] बब्बे भेदोनां [अपि] पण [परिमाणातिक्रियाः] परिमाणनुं उल्लंघन करवुं–[एते अपरिग्रहव्रतस्य] ए अपरिग्रहव्रतना [पञ्च] पांच अतिचार छे.

टीकाः– ‘वास्तु क्षेत्र परिमाणातिक्रमः, अष्टापदहिरण्यपरिमाणातिक्रमः, धनधान्य– परिमाणातिक्रमः, दासदासीपरिमाणातिक्रमः, अपि कुप्यस्य भेदयोः परिमाणातिक्रमः इति पंच परिग्रहपरिमाणव्रतस्य अतीचाराः सन्ति।’ अर्थ–१–घर अने क्षेत्रनुं परिमाण वधारी देवुं, २– सोना–चांदीनुं परिमाण वधारी देवुं, ३–गाय, भेंस, घोडा, घउं, चणा वगेरेनुं परिमाण वधारी देवुं, ४–दास–दासीनुं परिमाण वधारी देवुं, प–कृप्य एटले गरम अने सुतराउ–ए बन्ने प्रकारनां वस्त्रोनुं परिमाण वधारी देवुं; –ए रीते आ पांच परिग्रहपरिमाणव्रतना अतिचार छे.१८७. _________________________________________________________________ १. रत्नकरंड श्रावकाचार गा ६० मां इत्वरिकागमननो अर्थ–‘इत्वरिका जे व्यभिचारिणी स्त्री तेने घरे

जवुं अथवा तेने पोताना घेर बोलावी (धनादि) लेणदेण राखे, परस्पर वार्ता करे, श्रृंगार देखे ते
इत्वरिकागमन नामे अतिचार छे.


Page 145 of 186
PDF/HTML Page 157 of 198
single page version

दिग्व्रतना पांच अतिचार बतावे छेः–

ऊर्ध्वमधस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमाः क्षेत्रवृद्धिराधानम्।
स्मृत्यन्तरस्य गदिताः पञ्चेति
प्रथमशीलस्य।। १८८।।

अन्वयार्थः– [ऊर्ध्वमधस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमाः] उपर, नीचे अने समान भूमिनी करेली मर्यादानुं उल्लंघन करवुं अर्थात् जेटलुं प्रमाण कर्युं होय तेनाथी बहार चाल्या जवुं, [क्षेत्रवृद्धिः] परिमाण करेला क्षेत्रनी लोभादिवश वृद्ध करवी अने [स्मृत्यन्तरस्य] स्मृति सिवायना क्षेत्रनी मर्यादा [आधानम्] धारण करवी अर्थात् याद न राखवी, [इति] ए रीते [पञ्च] पांच अतिचार [प्रथमशीलस्य] प्रथम शील अर्थात् दिग्व्रतनां [गदिताः] कहेवामां आव्या छे.

टीकाः– ‘ऊर्ध्व व्यतिक्रमः अधस्तात् व्यतिक्रमः तिर्यक् व्यतिक्रमः क्षेत्रवृद्धिः, स्मृत्यन्तरस्य आधानम् इति पञ्च अतीचाराः प्रथमशीलस्य दिग्व्रतस्य सन्ति।’ अर्थः–१. मर्यादा करेली उपरनी दिशाओनुं उल्लंघन करवुं, २. मर्यादा करेली नीचेनी दिशाओनुं उल्लंघन करवुं, ३. मर्यादा करेली तिर्यक् दिशाओनुं उल्लंघन करवुं, ४. मर्यादा करेला क्षेत्रने वधारवुं, प. परिमाण करेली मर्यादाने भूली जईने हद वधारी देवी–ए पांच अतिचार दिग्व्रतनां छे. १८८.

देशव्रतना पांच अतिचार

प्रेष्यस्य संप्रयोजनमानयनं शब्दरूपविनिपातौ।
क्षेपोऽपि पुद्गलानां द्वितीयशीलस्य पञ्चेति।। १८९।।

अन्वयार्थः– [प्रेष्यस्य संप्रयोजनम्] प्रमाण करेला क्षेत्रनी बहार बीजा मनुष्यने मोकलवो, [आनयनं] त्यांथी कोई वस्तु मंगाववी, [शब्दरूपविनिपातौ] शब्द संभळाववा, रूप बतावीने ईशारा करवा अने [पुद्गलानां] कांकरा वगेरे पुद्गलो [क्षेपोऽपि] पण फेंकवा– [इति] आ रीते [पञ्च] पांच अतिचार [द्वितीयशीलस्य] बीजा शीलना अर्थात् देशव्रतना कहेवामां आव्या छे.

टीकाः– ‘प्रेष्यस्य संप्रयोजनम् आनयनं शब्दविनिपातौ रूपविनिपातौ पुद्गलानां क्षेपः इति पञ्च अतीचाराः द्वितीयशीलस्य सन्ति।’ अर्थः–१. मर्यादा बहार नोकर–चाकरने मोकलवा, २. मर्यादा बहारथी कोई वस्तु मंगाववी, ३. मर्यादा बहार शब्द


Page 146 of 186
PDF/HTML Page 158 of 198
single page version

करीने–बोलीने पोतानुं काम करवुं, ४. मर्यादानी बहार पोतानुं रूप देखाडीने स्वार्थ साधवो, प. मर्यादा बहार कोई चीज वगेरे फेंकीने पण पोतानुं कार्य करी लेवुं–ए पांच देशव्रतना अतिचार छे. १८९.

अनर्थदंडत्याग व्रतना पांच अतिचार

कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम्।
असमीक्षिताधिकरणं
तृतीयशीलस्य पञ्चेति।। १९०।।

अन्वयार्थः– [कन्दर्पः] कामनां वचन बोलवां, [कौत्कुच्यं] भांडरूप अयोग्य कायचेष्टा करवी, [भोगानर्थक्यम्] भोग–उपभोगना पदार्थोनुं अनर्थकय, [मौखर्यम्] वाचाळपणुं [च] अने [असमीक्षिताधिकरणं] विचार कर्या विना कार्य करवुं; [इति] ए रीते [तृतीयशीलस्य] त्रीजा शील अर्थात् अनर्थदंडविरति व्रतना [अपि] पण [पंच] पांच अतिचार छे.

टीकाः– ‘‘कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यम् मौखर्यम् च असमीक्षिताधिकरणं इति तृतीयशीलस्य पञ्च अतीचाराः सन्ति।’’ अर्थः–१–हास्य सहित भांड वचन बोलवां, २–कायाथी कुचेष्टा करवी, ३–प्रयोजनथी अधिक भोगना पदार्थो भेगा करवा तथा नाम ग्रहण करवुं, ४– लडाई–झगडा करावनार वचनो बोलवां, प–प्रयोजन विना मन, वचन, कायानो व्यापार वधारता जवुं–ए ज पांच अनर्थदंडत्यागव्रतना अतिचार छे. १९०.

सामायिक शिक्षाव्रतनां पांच अतिचार

वचनमनःकायानां दुःप्रणिधानं त्वनादरश्चैव।
स्मृत्यनुपस्थानयुताः पञ्चेति चतुर्थशीलस्य।। १९१।।

अन्वयार्थः– [स्मृत्यनुपस्थानयुताः] स्मृतिअनुपस्थान सहित, [वचनमनःकायानां] वचन, मन अने कायानी [दुःप्रणिधानं] खोटी प्रवृत्ति[तु] अने [अनादरः] अनादर–[इति] ए रीते [चतुर्थशीलस्य] चोथा शील अर्थात् सामायिकव्रतना [पंच] पांच [एव] अतिचार छे.

टीकाः– ‘वचनप्रणिधानं, मनःप्रणिधानं, कायप्रणिधानं तु अनादरः च स्मृत्यनुपस्थानयुताः इति पंच चतुर्थशीलस्य अतीचाराः सन्ति।’ अर्थः–१–वचननो दुरुपयोग करवो अर्थात् सामायिक करती वखते मन्त्रनुं उच्चारण अथवा सामायिक पाठनुं


Page 147 of 186
PDF/HTML Page 159 of 198
single page version

उच्चारण बराबर न करवुं, २–मननो दुरुपयोग अर्थात् मनमां खराब भावना उत्पन्न थवी, मनमां अनेक संकल्प–विकल्प ऊठवा, ३–कायानो दुरुपयोग अर्थात् सामायिक करती वखते हाथ–पग हलाववा, ४–अनादर अर्थात् सामायिक आदरपूर्वक न करतां वेठनी जेम पूर्ण करवुं, प–स्मृत्यनुपस्थान एटले सामायिकनो पाठ भूली जवो–ए सामायिक शिक्षाव्रतना पांच अतिचार छे.

सामायिकमां मन, वचन, काया ए त्रणेनी एकाग्रतानी घणी ज आवश्यकता छे. ए त्रणेने वश कर्या विना सामायिक थई शकती ज नथी. माटे तेने अवश्य ज वश करवा जोईए.१९१.

प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतना पांच अतिचार

अनवेक्षिताप्रमार्जितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः।
स्मृत्यनुपस्थानमनादरश्च
पञ्चोपवासस्य।। १९२।।

अन्वयार्थः– [अनवेक्षिताप्रमार्जितमादानं] जोया विना के शुद्ध कर्या विना ग्रहण करवुं, [संस्तरः] पथारी पाथरवी [तथा] तथा [उत्सर्गः] मळ–मूत्रनो त्याग करवो, [स्मृत्यनुपस्थानम्] उपवासनी विधि भूली जवी [च] अने [अनादरः] अनादर–ए [उपवासस्य] उपवासना [पञ्च] पांच अतिचार छे.

टीकाः– ‘१–अनवेक्षिताप्रमार्जितमादानं २–अनवेक्षिताप्रमार्जित संस्तरः ३– अनवेक्षिताप्रमार्जित उत्सर्गः ४–स्मृत्यनुपस्थानम् ५–अनादरश्च इति पञ्च अतीचाराः उपवासस्य सन्ति।’ अर्थः–१–जोया विना तथा पोंछया विना कोई वस्तु ग्रहण करवी, २–जोया विना साफ कर्या विना पथारी पाथरवी, ३–जोया विना साफ कर्या विना मळ–मूत्रनो त्याग करवो, ४–उपवासनी विधि भूली जवी अने प–तप के उपवासनी विधिमां अनादर (उदासीनता) करवो–ए पांच प्रोषधउपवासव्रतना अतिचार छे. १९२.

भोग–उपभोगपरिमाण शिक्षाव्रतना पांच अतिचार

आहारो हि सचित्तः सचित्तमिश्र सचित्तसंबन्धः।
दुष्पक्वोऽभिषवोपि च पञ्चामी
षष्ठशीलस्य।। १९३।।

अन्वयार्थः– [हि] निश्चयथी [सचितः आहारः] सचित्त आहार, [सचित्त–


Page 148 of 186
PDF/HTML Page 160 of 198
single page version

मिश्रः] सचित्त मिश्र आहार, [सचित्तसम्बन्धः] सचित्तना संबंधवाळो आहार [दुष्पक्वः] दुष्पकव आहार, [च अपि] अने [अभिषवः] अभिषव आहार, [अमी][पञ्च] पांच अतिचार [षष्ठशीलस्य] छठ्ठा शील अर्थात् भोग–उपभोग–परिमाणव्रतना छे.

टीकाः– ‘हि सचितः आहारः सचित्तमिश्रः आहारः सचित्तसंबन्धः आहारः च दुःपक्वः आहारः अभिषवाहारः इति अमी पञ्च अतीचाराः षष्ठशीलस्य सन्ति।’ १–जीवसहित काची लीली (लीलोतरी) वस्तुनो आहार लेवो, २–लीलोतरीना मिश्रणवाळी वस्तुनो आहार लेवो, ३–लीलोतरी ढांकी होय तेवी वस्तुनो आहार लेवो, ४–एवी वस्तुनो आहार करवो जे सारी रीते रंधायेली न होय, अति रंधायेली वा अधकचरी रंधायेली होय तथा प–गरिष्ठ, कामोद्दीपक वस्तुनो आहार करवो. –ए पांच भोगोपभोगपरिमाणव्रतना अतिचार छे.

भावार्थः– जोके आ भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रत पाळनार श्रावक हजी सचित्तनो त्यागी नथी तोपण सचित्तत्याग प्रतिमाना पालनना अभ्यास माटे तथा खावाना पदार्थोमां अधिक लालसा मटाडवा माटे ज तेणे आ अतिचार टाळवा जोईए. १९२.

वैयावृत्त अतिथिसंविभागना पांच अतिचार

परदातृव्यपदेशः सचित्तनिक्षेपतत्पिधाने च।
कालस्यातिक्रमणं मात्सर्य्यं चेत्यतिथिदाने।। १९४।।

अन्वयार्थः– [परदातृव्यपदेशः] परदातृव्यपदेश, [सचित्तनिक्षेपतत्पिधाने च] सचित्तनिक्षेप अने सचित्तपिधान, [कालस्यातिक्रमणं] काळनो अतिक्रम [च] अने [मात्सर्य्यं] मात्सर्य–[इति] ए रीते [अतिथिदाने] अतिथिसंविभागव्रतना पांच अतिचार छे.

टीकाः– ‘अतिथिदाने परदातृव्यपदेशः अतिथिदाने सचित्तनिक्षेपः अतिथिदाने सचित्तपिधानं अतिथिदाने कालस्य अतिक्रमणं च अतिथिदाने मात्सर्य्यं–इति पञ्च अतीचाराः वैयाव्रतस्य सन्ति।’ अर्थः–१–घरनुं काम अधिक होवाथी पोताना हाथे दान न देतां बीजाना हाथे अपाववुं, २–आहारनी वस्तुने लीला पांदडामां मूकी _________________________________________________________________ १. दुग्ध धृतादिक रसमिश्रित कामोत्पादक आहार.