Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalyan-Kalpdrum-Ekibhav Stotra; Vishapahar Stotra.

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श्रीमद् वादिराजआचार्यविनिर्मित
कल्याणकल्पद्रुमएकीभाव स्तोत्र
(मन्दाकन्ता)
एकीभावं गत इव मया यः स्वयं कर्मबन्धो
घोरं दुःखं भवभवगतो दुर्निवारः करोति
तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे भक्तिरुन्मुक्तये चेज
जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतुः ।।।।
जो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी,
सो मुज कर्म प्रबध करत भवभव दुःख भारी;
ताहि तिहारी भक्ति जगतरवि जो निरवारै,
तो अब और कलेश कौन सो नाहिं विदारै. १.
अर्थ :हे जिनसूर्य! आ जे कर्मबंध मारी साथे स्वयं एकपणाने
प्राप्त थयो होय तेवो थई रह्यो छे, ने दुर्निवार छे अने जे प्रत्येक भवमां
साथे जईने घोर दुःखो आपे छे तेने पण जो आपनी भक्ति दूर करी
शके छे तो बीजुं एवुं कष्टनुं कर्युं कारण छे के जेने ते भक्ति जीती न
शके? अर्थात् कोई पण नथी
जिनभक्तिना प्रसादथी बधा कष्टो अने
संतापोनुं सहज ज निवारण थई जाय छे. १.
ज्योतीरूपं दुरितनिवहध्वान्तविध्वंसहेतुं
त्वामेवाहुर्जिनवर चिरं तत्त्वविद्याभियुक्ताः
चेतोवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमानम्-
तस्मिन्नंहः कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे ।।।।

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५४ ][ पंचस्तोत्र
तुम जिन जोतिस्वरूप दुरितअंधियारिनिवारी,
सो गणेश गुरू कहैं तत्त्वविद्याधनधारी;
मेरे चितघरमाहिं बसौ तेजोमय यावत्,
पापतिमिर अवकाश तहां सो क्योंकरि पावत. २.
अर्थ :हे जिनवर! दीर्घ तत्त्वज्ञानीओ आपने एवा ज्योतिरूप
बनावे छे के जे पापसमूहरूप अंधकारना विनाशना हेतु छे. जो आप
मारा हृदयमंदिरमां खूब प्रकाशित थई रह्या छे तो पछी तेमां पापरूपी
अंधकार वास्तवमां केवी रीते टकी शके? जो पाप टकी शकतुं न होय तो
पापनुं फळ एवुं दुःख पण रही शके नहि. २.
आनन्दाश्रुस्नपितवदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढमनाः स्तोत्रमन्त्रैः भवन्तम्
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देहवल्मीकमध्यान्
निष्कास्यन्ते विविधविषमव्याधयो काद्रवेयाः ।।।।
आनंद आंसूवदन धोय तुमसों चित सानै,
गदगद सुरसो सुयशमंत्र पढि पूजा ठानैं;
ताके बहुविध व्याधि व्याल चिरकाल निवासी,
भाजैं थानक छोड देहबांबई के वासी. ३.
अर्थ :हे जिनेन्द्रदेव! आपमां चित्तनी स्थिरता करीने जे
भक्तजन आनंदना अश्रुओथी जेनुं मुख धोवायुं छे ते गदगद स्वरे
स्तोत्र
मंत्रो द्वारा आपनी पूजा करे छे तेना शरीररूपी राफडामांथी जुदी
जुदी जातना विषम रोगरूप सर्पो बहार नीकळी जाय छे के जे तेमां
चिरकाळथी रहेवाना अभ्यासी हता. ३.
प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात्
पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम्

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कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ५५
ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वान्तगेहं प्रविष्टस्
तत् किं चित्रं जिन वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि ।।।।
दिवितैं आवनहार भये भविभाग उदयबल,
पहलेही सुर आय कनकमय कीय महीतल;
मनगृहध्यानदुवार आय निवसो जगनामी,
जो सुवरन तन करो कौन यह अचरज स्वामी. ४.
अर्थ :हे जिनदेव! भव्यजीवोना पुण्यप्रभावथी देवलोकमांथी
अहीं आपना पधारवाना (छ महिना) अगाउथी ज देवो द्वारा करवामां
आवती रत्नो आदिनी वृष्टिथी आ भूमंडळ सुवर्णमय बन्युं हतुं. हवे
ज्यारे आप ध्यानरूपी द्वारवाळा मारा रुचिकर अंतःकरणमां प्रवेश पाम्या
छो तो हे देव! आप मारा आ (कोढना रोगथी घेरायेला) शरीरने
सुवर्णमय बनावी दो एमां कई आश्चर्यनी वात छे? कोई पण आश्चर्यनी
वात नथी. ४.
लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन् निर्निमित्तेन वन्धुसू
त्वय्येवासौ सकलविषया शक्तिरप्रत्यनीका
भक्तिस्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्तशय्यां
मय्युत्पन्नं कथमिव ततः क्लेशयूथं सहेथाः ।।।।
प्रभु सब जगके विना हेतु बांधव उपकारी,
निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहारी;
भक्तिरचित ममचित्त सेज नित वास करोगे,
मेरे दुःखसंताप देख किम धीर धरोगे. ५.
अर्थ :हे भगवान्! आप लोकना अद्वितीय कारण विशेष
विनानां बंधु छो अने आपमां ज सर्व पदार्थोने जाणनारी जेने कोई
प्रतिपक्षी नथी एवी शक्ति छे, आप मारी भक्तिथी समृद्ध एवी
चित्तरूपी शय्यामां चिरकाळथी निवास करो छो तेथी मारामां उत्पन्न थता

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५६ ][ पंचस्तोत्र
के थनारा दुःखसमूहने आप केवी रीते सहन करी शको? सहन करी
शकता नथी. ५.
जन्माटव्यां कथमपि मया देव दीर्घं भ्रमित्वा
प्राप्तैयेयं तव नयकथास्फारपियूषवापी
तस्यां मध्ये हिमकरहिमव्यूहशीते नितान्तं
निर्मग्नं मां न जहति कथं दुःखदावोपतापः ।।।।
भववनमें चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जोई,
तुम धुतिकथापियूषवापिका भागन पाई;
शशि तुषार घनसार हार शीतल नहिं जा सम,
करत न्हौन तामाहिं कयो न भवताप बुझै मम. ६.
अर्थ :हे जिनदेव! भववनमां दीर्घकाळपर्यंत भ्रमण कर्यां पछी
आपनी आ नयकथावार्तारूप उदार अमृतरसथी पूर्ण विस्तीर्ण वाव कोई
पण रीतेमहा कष्टथीमने प्राप्त थई छे. ते चन्द्रमा अने हिमपूंज समान
शीतळ वायमां हुं पूर्णपणे निमग्न थई गयो छुं, एवी स्थितिमां दुःखरूपी
दावानळनो आताप मने केम नहि छोडे? छोडशे ज, मारा उपर दुःखनो
कोई प्रभाव रही शकशे नहि. ६.
पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं
हेमाभासो भवति सुरभिः श्रीनिवासश्व पद्मः
सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे
श्रेयः किं तत् स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति ।।।।
श्री विहार परिवाह होत शुचिरूप सकल जग,
कमलकनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग;
मेरो मन सर्वंग, परस प्रभुको सुख पावै,
अब सो कौन कल्यान जो न दिन दिन ढिग आवै. ७.

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कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ५७
अर्थ :हे भगवान्! आपना विहार द्वारा त्रण लोकने पवित्र
करतां आपना चरणोना निक्षेप (मूकवा) मात्रथी कमळो सुवर्णनी
आभासहित, सुगंधित अने श्रीलक्ष्मीनुं निवासस्थान थई जाय छे. (आम
वात छे त्यां) मारुं संपूर्ण मन जो ध्यानद्वारा आपनो सर्वांगे स्पर्श करे
छे तो पछी एवुं कयुं कल्याण छे के जे मने स्वयं प्रतिदिन प्राप्त न
थाय?
हुं बधा ज श्रेयो प्राप्त करवानुं पात्र छुं. ७.
पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्तिपात्र्या पिबन्तं
कर्मारण्यात्पुरूषमसमानन्दधामप्रविष्टम्
त्वां दुर्वारस्मरमदहरं त्वत्प्रसादैकभूमिं
क्रूराकाशः कथमिव रुजाः कण्टका निर्लुठन्ति ।।।।
भवतज सुखपद बसे काममदसुभट संहारे,
जो तुमको निरखंत सदा प्रियदास तिहारे;
तुम वचनामृतपान भक्तिअंजुलिसों पीवै,
तिन्हैं भयानक क्रूररोगरिपु कैसे छीवै. ८.
अर्थ :हे जिनराज! आप दुर्निवार कामदेवना मदने दूर
करनार छो अने कर्मरूप (दुःखदायक) वनमांथी नीकळीने अनुपम सुखनुं
स्थान जे मुक्तिधाम छे तेमां प्रवेशी चुक्या छो, आपनुं आवुं रूप
जोनारने, आपना वचनामृत भक्तिरूप कटोरीथी पीनारने अने आपनी
कृपा
प्रसादनी एक भूमि बनेला पुरुषने क्रूर आकृतिवाळा रोगरूपी
कांटा केवी रीते पीडित करी शके? कोई पण प्रकारे पीडा आपी शके
नहि. ८.
पाषाणात्मा तदितरसमः केवलं रत्नमूर्तिर्
मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्नवर्गः
दृष्टिप्राप्तो हरति स कथं मानरोगं नाराणां
प्रत्यासत्तिर्यथी न भवतस्तस्य तच्छक्ति हेतुः ।।।।

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५८ ][ पंचस्तोत्र
मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर,
एसे और अनेक रतन दीखैं जग अंतर;
देखत द्रष्टिप्रमान मानमद तुरत मिटावै,
जो तुम निकट न होय शक्ति यह कयों कर पावै. ९.
अर्थ :हे जिनदेव! आपना समवसरणमां स्थित जे मानस्तंभ
छे ते पाषाणनो छे तेथी अन्य पाषाणो समान छे अने केवळ रत्नपाषाण
निर्मित मूर्ति छे, तेवा रत्नो बीजा पण छे, तो पाछी ते मनुष्योना
मानरूपी रोगने दर्शनमात्रथी ज केवी रीते दूर करे छे, जो आपनी
समीपताना प्रभावथी ज तेमां ते शक्ति उत्पन्न न थती होय? अर्थात्
आपनी समीपताना प्रभावथी ज तेनामां तेवी शक्तिनो संचार थाय छे
के जे बीजा पाषाण तथा रत्नोमां होती नथी, माटे आपनो ज अपूर्व
महिमा छे. ९.
हृद्यः प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्तिशैलोपवाही
सद्यः पुंसां निरवधिरुजाधूलिबन्धं धुनोति
ध्यानाहूतो हृदयकमलं यस्य तु त्वं प्रविष्टम्
तस्याशक्यः क इह भुवने देव लोकोपकारः ।।१०।।
प्रभुतन पर्वतपरस पवन उरमें निवहै है,
तासों ततछिन सकल रोगरज बाहिर ह्वै है;
जाके ध्यानाहूत बसो उरअंबुजमांहीं,
कौन जगत उपकारकरन समरथ सो नाहीं. १०.
अर्थ :हे जिनदेव! आपनी मूर्तिरूपी पर्वतने अडीने वहेतो
पवन पण अनुकूळपणे प्राप्त थईने मनुष्योना निःसीम रोगरूपी धूळना
समूहने शीघ्र खंखेरी नाखे छे तो पछी ध्यान द्वारा बोलावायेल आप जेना
हृदयकमळमां प्रवेश करो छो ते मनुष्य द्वारा एवो कयो लोकोपकार छे के
जे आ लोकमां अशक्य होय? १०.

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कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ५९
जानासि त्वं मम भवभवे यच्च याद्रक् च दुःखं
जातं यस्य स्मरणमपि मे शसवन्निष्पिनष्टि
त्वं सर्वेशः सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम् ।।११।।
जनम जनमके दुःख सहे सब ते तुम जानो,
याद किये मुझ हिये लगै आयुधसे मानों;
तुम दयाल जगपाल स्वामि मै शरन गही है,
जो कछु करनो होय करो परमान वही है. ११.
अर्थ :हे जिनेन्द्रदेव! (आ चतुर्गतिरूप संसारमां अनादिकाळथी
भ्रमण करता) मने भवभवमां जे, जेटलुं अने जे प्रकारनुं दारूण दुःख
प्राप्त थयुं छे के जेनुं स्मरण पण मने शस्त्र आघातनी जेम कष्ट आपे
छे ते बधुं आप जाणो छो, आप सर्व रीते समर्थ छो, दयाळु छो तेथी
ज हुं भक्तिभावपूर्वक आपना शरणमां आव्यो छुं. हवे आ वर्तमान
दुःख
संतापना विषयमां जे कांई पण कर्तव्य होय ते ज मने प्रमाण छे
आप जे कांई पण करशो ते मने मान्य छे, में आपना उपर बधुं छोडी
दीधुं छे. ११.
प्रापद्रैव तव नुतिपदैर्जीवकेनोपदिष्टैः
पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम्
कः सन्देहो यदुपलभते वासवश्रीप्रभुत्वं
जल्पन् जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ।।१२।।
मरन समय तुम नाम मंत्र जीवकतैं पायो,
पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो,
जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरंतर,
इन्द्रसंपदा लहै कौन संशय इस अंतर. १२.

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६० ][ पंचस्तोत्र
अर्थ :हे जिनेन्द्रभगवान! एक पापाचारीआखी जिंदगी
पापमां लीनकूतरो पण मरती वखते जीवक द्वारा कानमां जपवामां
आवेला आपना नमस्कार मंत्रना प्रभावथी देवगतिनुं सुख पाम्यो छे तो
पछी कोई निर्मळ मणिनी माळाथी आपना नमस्कारचक्रनो भावपूर्वक जाप
करतो थको मरीने इन्द्रनी विभूतिनो स्वामी बने एमां शो संदेह छे?
अर्थात् एमां कोई संदेहनो अवसर नथी. १२.
शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा
भक्तिर्नाे चेदनवधिसुखावञ्चिका कुच्चिकेयम्
शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो
मुक्तिद्वारं परिदृढमहामोहमुद्राकपाटम् ।।१३।।
जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै,
अनवधि सुखकी सार भक्ति कूची नहिं लाधै;
सो शिववांछक पुरूष मोक्षपट केम उधारै,
मोह मुहर दिढ करी मोक्षमंदिरके द्वारै. १३.
अर्थ :हे भगवान! शुद्ध ज्ञान अने निर्मळ चारित्र होवा छतां
पण जो मुमुक्षु जीवनी आपना प्रत्ये आ ऊंचा प्रकारनी भक्ति न होय
के जे अमर्यादित
अनंत सुख प्राप्तिनी अचुक कूंची छेतो ते मुक्तिनुं
द्वार केवी रीते खोली शकशे के जे सुद्रढ महामोहनी मुद्रा युक्त ताळावाळा
द्वारथी बंध छे? अर्थात् नहि खोली शके. १३.
प्रच्छन्नः खल्वयमद्यमयैरन्धकारैः समन्तात्
पन्था मुक्तेः स्थफु टितपदः क्लेशगर्तैरगाधैः
तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देव तत्त्वावभासी
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारतीरत्नदीपः ।।१४।।
शिवपुरकेरो पंथ पापतमसो अतिछायो,
दुखसरूप बहु कूपखाड सों विकट बतायो;

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कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ६१
स्वामी सुखसों तहां कौन जन मारग लागैं,
प्रभु प्रवचन मणिदीप जोन के आगैं आगैं. १४.
अर्थ :हे जिनदेव! मुक्तिनो आ मार्ग बधी बाजुथी पापरूप
अंधकारथीमिथ्यादर्शनादिरूप तिमिरपटलोथीआच्छादित छे अने बहु
ऊंडा क्लेशकारी खाडाओ द्वारानरक, निगोदादिना दुःखोथी पूर्ण स्थानोथी
ऊबडखाबड विषम स्थान बनेल छे; त्यां कयो मनुष्य सुखपूर्वक ते मार्ग
उपर चाली शके? जो यथार्थ वस्तुतत्त्वनो प्रकाशक आपना वचनरूप रत्न
दीपक आगळ आगळ न चालतो होय. भावार्थ एम छे के आपनी
वाणीनो प्रकाश पाम्या विना कोई पण मनुष्य ते मुक्तिना मार्ग पर
सुखपूर्वक चालवामां समर्थ थई शके नहि. १४.
आत्मज्योतिर्निधिरनवधिर्द्रष्टुरानन्दहेतुः
कर्मक्षोणीपटलपिहितो योऽनवाप्यः परेषाम्
हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्तिभाजः
स्तोत्रैर्बन्धप्रकृतिपरुषोद्दामधात्रीखनित्रैः ।।१५।।
कर्मपटलभूमाहिं दबी आतमनिधि भारी,
देखा अतिसुख होय विमुखजन नाहिं उधारी;
तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै,
थुति कुदालसों खोद बंद भू कठिन विदारे. १५.
अर्थ :आत्मज्योतिरूप निधि अमर्यादितरूपे स्थित छे तेनो
क्यांय अंत नथीज्ञानावरणादि कर्मरूप पृथ्वीना पडोथी ते आच्छादित छे,
जोनारने आनंदनुं कारण छेदर्शनमात्रथी जेना आनंदनो उद्भव थाय छे
अने जे बीजाओ द्वाराअभक्त हृदयो द्वारा अप्राप्य छे, तेने आपना
भक्तो तरत ज ते स्तोत्रो द्वारा प्राप्त करी ले छे के जे ( प्रकृति, स्थिति,
अनुभाग
प्रदेशरूप) द्रढ बंधनप्राप्त कठोर अने अति उग्र (कर्मरूप)
भूमिने खोदवामां समर्थ तीक्ष्ण कोदाळी समान छे. १५.

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६२ ][ पंचस्तोत्र
प्रत्युत्पन्ना नय हिमगिरेरायता चामृताब्धे -
र्या देव त्वत्पदकमलयोः संगता भक्ति - गंगा
चेतस्तस्यां मम रूचिवशादाप्लुतं क्षालितांहः
कल्माषं यद्भवति किमियं देव सन्देहभूमि ।।१६।।
श्याद्वादगिरि उपजै मोक्ष सागर लों धाई,
तुम चरणांबुज परस भक्तिगंगा सुखदाई;
मो चित्त निर्मल थयो न्होन रुचिपूरव तामैं,
अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामैं. १६.
अर्थ :हे जिनदेव! आपना चरणकमळोने प्राप्त थयेली जे
भक्तिगंगा छे ते (स्याद्वाद) नयरूप हिमालयमांथी उत्पन्न थईने
प्रवाहित थई अमृतसागररूप मोक्षमां जईने मळी छे. तेमां मारुं मन
स्वरुचिथी डूबकी लगावीने जो पापरूप मेलने धोई नाखे तो एमां शुं कोई
संदेह करवा जेवी वात छे? जरा पण संदेह करवा योग्य वात नथी. १६.
प्रादुर्भूतस्थिरपदसुख त्वामनुध्यायतो मे
त्वय्येवाहं स इति मतिरूपत्पद्यते निर्विकल्पा
मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्तिमभ्रेषरूषां
दोषात्मनोऽप्यनिमतफलास्त्वत्प्रसादाद्भवन्ति ।।१७।।
तुम शिवसुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो,
मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो;
यदपि जूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावै,
तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै. १७.
अर्थ :स्थिर पदना सुखनी प्रगटता पामेल हे जिनेन्द्र
भगवान! आपनुं ध्यान करतां मने आपना विषयमां सोहंनी निर्विकल्प
बुद्धिजे आप छो तेज हुं छुं एवी निःसंशय बुद्धि उत्पन्न थई छे. आ

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कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ६३
बुद्धि जो के मिथ्या ज छे तो पण ते मने अचळ तृप्ति आपे छे अने
ते योग्य छे कारण के आपना प्रसादथी दोषी मनुष्य पण अभिमत फळनी
प्राप्ति करी ले छे. १७.
मिथ्यावादं मलमपनुदन् सप्तभंगीतरङ्गै
र्वागम्भोदिर्भुवनमखिलं देव पर्यति यस्ते
तस्यावृतिं सपदि विबुधाश्चेतसैवाचलेन
व्यातन्वन्तः सुचिरममृतासे वयातृप्नुवन्मि ।।१८।।
वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवनमें व्यापै,
भंग तरंगिनि विकथवादमल मलिन उथापै;
मनसुमेरुसो मथै ताहि जे सम्यग्ज्ञानी
परमामृत सों तृपत होहिं ते चिरलों प्रानी. १८.
अर्थ :हे अर्हन् भगवन्! आपनो जे वचनसमुद्र छेदिव्य -
ध्वनि द्वारा मुखारित थयेलो श्रुतसागर छेते पोतानी सप्तभंगात्मक
तरंगोद्वारा मिथ्यावादरूप मळनेसर्वथा एकान्तमय वस्तुतत्त्वना कथन
विकारनेदूर करतो थको आखाय विश्वमां फेलायेल छे. जे विबुधजन छे
तेओ शीघ्र ज पोताना एकाग्र चित्त द्वारा तेनुं मंथन करीने जे अमृत
मोक्षतत्त्वने प्राप्त करे छे तेनी भरपूर सेवाथी चिरकाळ सुधी तृप्त अने
सुखी बनी रहे छे. १८.
आहार्य्येभ्यः स्पृहयति परं यः स्वभावादहृद्यः
शस्त्रग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः
सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषां
तत्किं भूषावसनकुसुमैः किं च शस्त्रैरुदस्रैः ।।१९।।
जो कुदेव छबिहीन वसन भूषण अभिलाखै;
वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखै;
तुम सुंदर सर्वांग शत्रु समरथ नहिं कोई,
भूषण वसन गदादि ग्रहन काहेको होई. १९.

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६४ ][ पंचस्तोत्र
अर्थ :जे स्वभावथी अमनोज्ञ होय ते शृंगारोनी इच्छा करे छे
अने जे शत्रु द्वारा जीताई जवा योग्य होय ते भयथी सदा शस्त्रोनुं ग्रहण
करे छे. भगवान्! आप तो सर्वांग सुंदर छो, बीजाओ द्वारा आप अजेय
छो; तो पछी (स्वभावथी ज सुंदर होवाने लीधे) वस्त्रो आभूषणो अने
पुष्पोनुं आपने शुं प्रयोजन होय? तथा शत्रुओथी अजेय होवाना कारणे
शस्त्रो
अशस्त्रोथी पण शुं प्रयोजन होय १९.
इन्द्रः सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते
तस्यैवेयं भवलयकारी श्लाध्यतेमातनोति
त्वं निस्तारी जननजलधेः सिद्धिकान्तापतिस्त्वं
त्वं लोकानां प्रभुरिति तव श्लाध्यते स्तोत्रमित्थम् ।।२०।।
सुरपति सेवा करै कहा प्रभु प्रभुता तेरी,
सो सलाधना लहै मिटै जगसों जग केरी;
तुम भवजलधि जिहाज तोहि शिवकंत उचरिये,
तुहीं जगतजनपाल नाथथुतिकी थुति करीये. २०.
अर्थ :हे तीर्थंकर भगवान! इन्द्र आपनी जे सारी रीते
सेवा पूजाभक्ति करे छे तेनाथी आपनो शुं महिमा अथवा प्रशंसा
छे? कांई पण नहि. आ सेवा तो ते इन्द्रना ज महिमा प्रशंसानुं
कारण बने छे; केम के ते तेना भवभ्रमणनो नाश करे छे.
वास्तवमां आप संसार-समुद्रथी पार करनार छो, सिद्धिकान्ताना स्वामी
छो अने त्रणे लोकना स्वामी छो आ जातनुं स्तोत्र आपनी प्रशंसानुं
द्योतक छे. २०.
वृत्तिर्वाचामपरसदृशी न त्वमन्येन तुल्यः
स्तुत्युद्गाराः कथमिव ततः त्वय्यमी नः क्रमन्ते
भैवं भूवंस्तदपि भगवन् भक्तिपीयूष पुष्टाम्
ते भव्यानामभिमतफलाः पारिजाता भवन्ति ।।२१।।

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कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ६५
वचन जाल जडरूप आप चिन्मूरति झांई,
तातैं युति आलाप नाहिं पहुंचै तुम तांई;
तो भी निर्फल नाहिं भक्तिरसभीने वायक,
संतनको सुरतरु समान वांछित वरदायक. २१.
अर्थ :हे भगवन्! वचनोनी प्रवृत्ति अपरसद्रश छेअचेतन
पुद्गल जेवी छे अने आप अन्यसमपुद्गलरूप नथी तेथी अमारा
स्तुतिरूप वचनो आपनी पासे केवी रीते पहोंची शके? न पहोंची शके;
परंतु भले न पहोंचे छतां पण भक्तिरूप सुधारसथी पुष्ट थयेला आ
स्तुतिरूप उद्गार भव्यजीवोने माटे अभिष्ट फळ आपनार कल्पवृक्ष समान
बने छे. २१.
कोपावेशो न तव न तव क्वापि देवप्रसादो
व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयैवानपेक्षम्
आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधिर्वैरहारी
क्वैंवंभूतं भुवनतिलक प्राभवं त्वत्परेषु ।।२२।।
कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहू नहिं धारो,
अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहारो;
तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये,
यह प्रभुता जग तिलक कहां तुम विन सरदहिये. २२.
अर्थ :हे त्रिभुवनतिलक देव! आप कोईना पण उपर क्रोध
करता नथी अने कोईना पण उपर प्रसन्नतानो भाव पण प्रगट करता
नथी. वास्तवमां आपनुं चित्त जे कोईनी अपेक्षा राखतुं नथी ते सदा परम
उपेक्षाथी
वीतरागताथी व्याप्त रहे छे. आम होवा छतां पण आ लोक
आपनी आज्ञाने आधीन छे अने आपनुं सामीप्य वेरने दूर करे छे
आपनी समीप आवतां जातिविरोधी जीवोनुं वेर चाल्युं जाय छे, कोई एक
बीजाने द्वेषभावथी जोतुं नथी. आवी जातनो प्रभाव आपनाथी भिन्न
कोपादियुक्त सराग देवोमां क्यां होय? क्यांय न होय २२.

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६६ ][ पंचस्तोत्र
देव स्तोतुं त्रिदिवगणिकामण्डलीगीतकीर्ति
तोतूर्ति त्वां सकलविषयज्ञानमूर्तिं जनो यः
तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पन्थासू
तत्त्वग्रन्थस्मरणविषये नैष भोमूर्ति मर्त्यः ।।२३।।
सुरतिय गावैं सुयश सर्वगति ज्ञानस्वरूपी,
जो तुमको थिर होहिं नमैं भविआनंदरूपी;
ताहि छेमपुर चलनवाट बाकी नहि हो हैं,
श्रुतके सुमरनमांहि सो न कबहू नर मोहैं. २३.
अर्थ :हे जिनदेव! आप एवा ज्ञाननी मूर्ति छो के जेणे सकळ
पदार्थोने पोतानो विषय कर्यो छे अने स्वर्गोनी अप्सराओए मळीने
आपना खूब यशोगान कर्या छे. आपनी स्तुति करवा माटे जे उत्सुक अने
उद्यत थाय छे ते क्षेमरूप मोक्ष तरफ गमन करनार मनुष्योनो मार्ग कदी
पण कुटिल अने जटिल बनतो नथी अने ते तत्त्वग्रन्थोना स्मरणमां कदी
मोह पामता नथी
तत्त्वसमूहना विषयमां तेमने कदी कोई संदेह उत्पन्न
थतो नथी. २३.
चित्त कुर्वन्निरवधिसुखज्ञानद्रद्रग्दवीर्यरूपं
देव ! त्वां यः समयनियमादादरेण स्तवीति
श्रेयोमार्गं स खलु सुकृती तावता पूरयित्वा
कल्याणानां भवति विषयः पञ्चधा पञ्चितानाम्
।।२४।।
अतुल चतुष्टयरूप तुमैं जो चित्तमैं धारै,
आदरसों तिहुंकालमाहिं जगथुति विस्तारे;
सो सुक्रत शिवपंथ भक्तिरचना कर पूरै!
पंचकल्यानक ॠद्धिपाय निहचै दुःख चूरै. २४.
अर्थ :हे तीर्थंकर जिनदेव! जे कोई भव्यप्राणी आपने

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कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ६७
अनंतसुख, अनंतज्ञान, अनंत दर्शन अने अनंतवीर्यरूप हृदयमां धारण
करतो थको
ध्यातो थको निश्चित समयना नियमपूर्वक नित्य आदर सहित
आपनी स्तुति करे छे ते पुण्यवान पुरुष एटला मात्रथी ज कल्याणमार्गने
पूर्ण करीने पांच प्रकारना विस्तृत कल्याणकोनो पात्र बने छे. २४.
भक्तिप्रह्वमहेन्द्रपूजितपद त्वत्कीर्तने न क्षमाः
सूक्ष्मज्ञानद्रशोऽपि संयमभृतः के हन्त मन्दा वयम्
अस्माभिः स्तवनच्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते
स्वात्माधीन
सुखैषिणां स खलु नः कल्याणकल्पद्रुमः ।।२५।।
अहो जगतपति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि हारै,
तुम गुनकीर्तनमाहिं कौन हम मंद विचारै;
थुति छलसों तुम विषै देव आदर विस्तारे!
शिवमुख पूरनहार कल्पतरु यही हमारे. २५.
अर्थ :हे जिनेन्द्र भगवान! भक्तिथी नम्रीभूत थईने महान
देवेन्द्र आपना चरणोने पूजे छे, सूक्ष्म ज्ञानदर्शनना धारक अने संयमथी
भरपूर (स्वामी समन्तभद्र जेवा स्तुतिकार) मुनिराज पण आपनुं कीर्तन
करवामां समर्थ नथी; तो अमारा जेवा मन्दबुद्धिवाळाओनी तो वात ज
शी करवी? अमे तो स्तवनना बहाने आपना प्रत्ये मारा उच्च आदरनो
विस्तार कर्यो छे. आ स्तवनरूप उच्च आदर अमारा जेवा स्वात्माधीन
सुखना इच्छकोने माटे ‘कल्याण
कल्पद्रुम’ छेकल्याण प्रदान करनार
कल्पवृक्ष छे. २५.
प्रशस्ति
वादिराजमनु शाब्दिकलोको
वादिराजमनु तार्किकसिंहः
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते
वादिराजमनु भव्य सहायः ।।।।

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६८ ][ पंचस्तोत्र
वादिराज मुनितैं अनु, वैयाकरणी सारे,
वादिराज मुनितैं अनु तार्किक विद्यावारे;
वादिराज मुनितैं अनु हैं काव्यनके ज्ञाता,
वादिराज मुनितैं अनु हैं भविजनके त्राता.
अर्थ :(वर्तमानमांवादिराजना समयमां) जे शाब्दिक लोक छे
शब्दशास्त्रना ज्ञाताओ (वैयाकरणो)नो समूह छेते वादिराजनो अनुवर्ती
छेप्रस्तुत स्तोत्रना कर्ता वादिराजमुनि तेमना अग्रणी छेजे तार्किक
सिंहोनो समूह छे, ते वादिराजनो अनुवर्ती छे; जे काव्यकर्ता छे ते बधा
वादिराजना अनुवर्ती छे अने जे भव्यजीवोनी सहाय करनाराओनो
समुदाय छे, ते पण वादिराजनो अनुवर्ती छे
वादिराज मुनिने ज तेमां
प्रमुख स्थान प्राप्त छे.

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°
श्री महाकवि धनंजय रचित
विषापहार स्तोत्र
(उपजाति)
स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्त
व्यापारवेदी विनिवृत्तसंगः
प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्यः,
पायादपायात्पुरुषः पुराणः ।।।।
अर्थ :पोताना आत्मस्वरूपमां स्थित होवा छतां पण
सर्वव्यापक, समस्त व्यापारोना ज्ञाता होवा छतां पण परिग्रहरहित,
दीर्घायु होवा छतां पण वृद्धावस्था रहित, एवा सर्वश्रेष्ठ पुराण पुरुष श्री
आदिनाथ जिनेन्द्रदेव भव्य जीवोने सांसारिक दुःखोथी छोडावीने मोक्षसुख
प्रदान करो. १.
परैरचिन्त्यं युगभारमेकः,
स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्यः
स्तुत्योऽद्य मेऽसौ वृषभो न भानोः,
किमप्रवेशे विशति प्रदीपः ।।।।
अर्थ :हे प्रभो! आप चक्रवर्त्ती आदि द्वारा अचिंत्य छो,
कर्मभूमिनी शरूआतमां कर्मभूमिनो भार आपे एकलाए ज वहन कर्यो
हतो, आपनी स्तुति करवामां परम ॠद्धिसंपन्न योगीओ पण असमर्थ
छे. आज ते ज श्री ॠषभनाथ भगवाननी हुं स्तुति करी रह्यो छुं. ते
बराबर छे केमके ज्यां सूर्यनो प्रकाश नथी पहोंचतो त्यां शुं दीपक प्रकाश
नथी करतो? अर्थात् करे ज छे. २.

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७० ][ पंचस्तोत्र
तत्याज शक्रः शकनाभिमानं,
नाहं त्यजामि स्तवनानुबंधम्
स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थं,
वातायनेनेव निरूपयामि ।।।।
अर्थ :हे त्रिलोकनाथ! इन्द्रे आपनी स्तुति करवानी शक्तिनुं
अभिमान छोडी दीधुं हतुं परंतु हुं आपनी स्तुति करवानो प्रयत्न छोडतो
नथी. जेम नानकडा वाबारामांथी डोकाईने तेना करता अनेकगणा मोटा
पदार्थोनुं वर्णन करवामां आवे छे तेवी ज रीते हुं (मारा) थोडाक ज्ञान
द्वारा घणा महान पदार्थनुं वर्णन करुं छुं. ३.
त्व विश्वद्रश्व सकलैरदृश्यो,
विद्वानशेषं निखिलैरवेद्यः
वक्तुं कियान्कीदृशमित्यशक्यः,
स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु ।।।।
अर्थ :हे सर्वज्ञदेव! आप सकळ विश्वने देखो छो परंतु आप
बधाथी अद्रश्य रहो छो. आप पूर्णज्ञाता छो परंतु आपने कोई जाणतुं
नथी. आप केवडा अने केवा छो ए कहेवाने कोई समर्थ नथी माटे आपनी
स्तुति न करी शकवारूप जे कथा छे ते ज आपनी स्तुति छे. ४.
व्यापीडितं बालमिवात्मदोषै
रुल्लाघतां लोकमवापिपस्त्वं
हिताहितान्वेषणमांद्यभाजः
सर्वस्य जंतोरसि बालवैद्यः ।।।।
अर्थ :हे जिनेश्वर! जेम बाळको अणसमजणा होवाने कारणे
वातादि दोषोथी पीडाता होय छे ते समये बाळरोगोना निष्णात वैद्य तेमने
निरोग करे छे तेवी ज रीते संसारी जीवो पोताना आत्मानी भ्रान्तिरूप
रोगथी अत्यंत दुःखी थई रह्या छे तेमने आपे मोक्षमार्गरूपी नीरोगतानी

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विषापहार स्तोत्र ][ ७१
प्राप्ति करावी छे. हितमोक्ष (आत्मानी पूर्ण अवस्था) अने मोक्षना कारण
(पूर्णतानी श्रद्धा) तथा अहितसंसार (आत्मानी अपूर्ण दशा) अने
संसारना कारण (अपूर्णतानी श्रद्धा) बन्नेनो निर्णय करवामां असमर्थ बधा
अज्ञानी जीवोना आप खरेखर बाळवैद्य छो. ५.
दाता न हर्ता दिवसं विवस्वा
नद्यश्व इत्यच्युत दर्शिताशः
सव्याजमेवं गमयत्यशक्तः
क्षणेन दत्सेऽभिमतं नताय ।।।।
अर्थ :हे अच्युत! आप नम्र मनुष्यने क्षणमात्रमां मनोवांछित
सिद्धि आपो छो. अर्थात् आप समान निज शुद्धात्मानुं ध्यान करनार
जीवोने आप क्षणवारमां मोक्षदशानी प्राप्ति करावी द्यो छो. परंतु सूर्य जेम
आज अने काल एम करतो दिशा देखाडीने दिवस वीतावी दे छे परंतु
देतो लेतो कांई नथी तेवी ज रीते आपना सिवाय बीजुं कोई पण आज
आपीश, काल आपीश, अने इच्छितपद आपवानी आशा देखाडीने समय
वीतावी दे छे केम के ते स्वतः असमर्थ छे. ६.
उपैति भक्त्या सुमुखः सुखानि,
त्वयि स्वभावाद्विमुखश्च दुःखं
सदावदातद्युतिरेकरूप -
स्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि ।।।।
अर्थ :हे प्रभुवर! आपना प्रत्ये भक्ति होवाथी सम्यग्द्रष्टि
जीव स्वभावथी ज सुख पामे छे अने आपथी विमुख मिथ्याद्रष्टि जीव
दुःख पामे छे. केवळज्ञान रूपी परमद्युतिने धारण करनार आप सदैव ते
बन्ने तरफ दर्पणनी जेम समता स्वभाव धारण करीने शोभायमान थाव
छो अर्थात् पुजारी उपर आप प्रसन्न थता नथी अने निन्दक उपर कोप
करता नथी छतां पण तेओ पोतपोताना परिणामो अनुसार सुख
दुःख
पामे छे. ७.

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७२ ][ पंचस्तोत्र
अगाधताब्धेः स यतः पयोधि
र्मेरोश्च तुङ्गा प्रकृति स यत्र
घावापृथिव्यो पृथुता तथैव,
व्याप त्वदीया भुवनान्तराणि ।।।।
अर्थ :हे जिनेश्वर! समुद्रनी ऊंडाई समुद्र सुधी ज सीमित
छे अने मेरु पर्वतनी ऊंचाई मेरु पर्वत सुधी ज सीमित छे अने
आकाश तथा पृथ्वीनी विशाळता पण तेमना सुधी ज सीमित छे परंतु
आपनी धीरज, उन्नत प्रकृति अने उदारता समस्त लोकालोकमां व्यापी
रही छे. ८.
तवानवस्था परमार्थतत्त्वं,
त्वया न गीतः पुनरागमश्च
दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषी
र्विरुद्धवृत्तोऽपि समञ्जसस्त्वं ।।।।
अर्थ :हे जिनेन्द्रदेव! आपना शासनमां परमार्थतत्त्व
(निश्चयतत्त्व) अनवस्था (अनियतस्थिति अथवा परिवर्तनशीलता) छे तथा
आपे अनवस्था (परिवर्तनशीलता) बतावीने पुनरागमननो अभाव कह्यो
छे. आप प्रत्यक्ष फळ छोडीने अद्रष्ट फळ चाहो छो; आ प्रमाणे आप
विरुद्ध आचरण सहित होवा छतां पण विरुद्ध आचरण रहित छो, ए
महान् आश्चर्य छे. ९.
भावार्थ :प्रस्तुत श्लोकमां विरोधाभास अलंकार छे. वस्तुतत्त्व
अनेक धर्मात्मक छे. सर्वथा नित्यत्व, एकत्वादि स्वरूप नथी. केम के
द्रव्यद्रष्टिथी नित्य अने पर्यायद्रष्टिथी अनित्य धर्मात्मक छे. संसारी जीवोनी
अपेक्षाए पुनरागमन छे परंतु मुक्त जीवोनी अपेक्षाए पुनरागमन नथी
केम के संसारी जीव राग द्वेष, मोहभावोने वश थवाना कारणे जुदी जुदी
योनिओमां परिभ्रमण कर्या करे छे परंतु मुक्त जीवोमां कर्मकलंकनो अभाव
थई गयो छे तेथी तेमने पुनरागमन थतुं नथी. द्रष्टफळ छोडीने अद्रष्टफळ