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अतीन्द्रियजन्य परमसुख मोक्षनी चाह करी. आ प्रमाणे अर्थ करवाथी
वास्तवमां कोई पण विरोध नथी. ९.
करवाने कारणे ईश्वर कहो तो ते बराबर नथी कारण के ते पण पाछळथी
कामथी पीडित थई गया हता. विष्णु पण लक्ष्मीनी साथे शयन करवाने
कारणे अनेक आकुळताओथी पीडित छे परंतु आप सदैव आत्मामां जागृत
रहेवाने कारणे कामनिद्रामां अचेत थया नहि अर्थात् हरिहरादिक बधा देव
बाह्य परिग्रहथी लिप्त, निद्रा आदि अढार दोष सहित तथा कामद्वारा
पीडित छे अने आप अढार दोषरहित बाह्य अंतरंग बधा परिग्रहोथी
रहित, निराकुळ अने साचा कामविजेता छो. १०.
गुणीपणुं नथी. जेम वाव, कूवो, तळाव आदिनी निंदा करवाथी समुद्रनो
महिमा होय एम बाबत नथी परंतु समुद्रनो महिमा स्वभावथी ज होय
छे तेवी ज रीते अनंत ज्ञानादि अपरिमित गुणोना स्वामी होवाथी आपनो
सर्वोपरि महिमा स्वभावथी ज छे. ११.
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संसारीजीवोने परस्पर जुदी जुदी अवस्थाओमां लई जाय छे परिणामे
हे जिनेन्द्रदेव! आपे संसाररूपी घोर समुद्रमां परस्पर एकबीजानुं नेतृत्व
(व्यवहारनयथी) कह्युं छे. १२.
अग्निमां प्रवेश करवो आदि घोर दुःखोनुं ), गुणोनी प्रसिद्धि माटे
(हाडकानी खोपरीओनी माळा पहेरवी, मृगना चामडानुं आसन राखवुं
इत्यादि) प्रत्यक्ष दोषोनुं, धर्म माटे (अश्वमेघ, नरमेघ अने नरपशुयज्ञरूप)
पापोनुं आचरण करे छे. आ प्रमाणे हेयोपादेय (हिताहित) ज्ञान रहित
जीव तेलनी प्राप्ति माटे रेतीनो समूह पीले छे. १३.
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माटे अहीं तहीं भटके छे परंतु आपनुं स्मरण करता नथी. जो के मणि
आदि बधा शब्दो आपना पवित्र नामना ज पर्यायवाची छे. १४.
धारण करे छे तेने वश आखुं जगत थई जाय छे ए आश्चर्यनी वात
छे. आप मनरहित छो तोपण सुखेथी (अनंतज्ञानादि गुणोथी संपन्न
होवाने कारणे) जीवो छो अथवा जेमना चित्तमांथी आप बहार छो
तेओ सुखपूर्वक रही शकता नथी अने आप अचिंत्य होवा छतां पण
अनंत सुखमां लीन छो. १५.
अभिप्राय ए नथी के आपना ज्ञान अने प्रभुत्वनी सीमा आटली ज छे
केम के काळ अने लोकनी संख्या निश्चित छे तेथी आप त्रिकाळज्ञानी अने
त्रिभुवनपति कहेवाओ छो. जो आ उपरांत बीजा पण अनंतकाळ अने
लोक होत तो ते पण आपना ज्ञान अने प्रभुत्वमां समाई ज जात. १६.
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इन्द्रना ज आत्मसुखनुं कारण छे. जेम कोई आदरपूर्वक छत्र धारण करे
छे तो तेनाथी तेने ज छायादिरूप सुखनी प्राप्ति थाय छे. तेनाथी सूर्यनो
कांई थोडो ज उपकार थाय छे? तेवी ज रीते भगवाननी सेवा द्वारा इन्द्र
संसारनाशक अतिशय पुण्यनी प्राप्ति करे छे. १७.
प्रतिकूळ उपदेश केम? क्यां इच्छाथी प्रतिकूळ आपनो आ उपदेश? अने
क्यां तेमां सर्व संसारी जीवोनुं प्रियपणुं? आ बधुं परस्पर विरोधी होवा
छतां पण विरोध रहित यथार्थ छे एम मने द्रढ विश्वास छे. १८.
भव्यजीवो प्रत्ये कोई राग नथी तेथी वीतरागी होवामां अने उपदेश
देवामां कोई विरोध नथी. हितकारी होवा छतां पण ते इन्द्रियविषयना
तुच्छ क्षणिक सुखथी प्रतिकूळ छे केम के इन्द्रियविषय सुखनो विपाक अत्यंत
कडवो छे छतां पण शिवसुख आपवानुं मुख्य कारण होवाथी बधाने प्रिय
छे तेथी आपना उपदेशमां कोई विरोध नथी.
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छे अने जळथी समुद्र समुद्रमांथी एक पण नदी नीकळती नथी तेवी ज
रीते हे भगवान! आपनी पासे परमाणुमात्र पण परिग्रह नथी तोपण
अनंतज्ञानादि गुणो द्वारा अत्यंत उन्नत स्वभाव होवाथी आपना द्वारा जे
अनंत सुखादिरूप फळनी प्राप्ति थई शके छे ते धनपति कुबेरथी कदी थई
शकती नथी. १९.
ज हो केम के प्रतिहारपणानुं कार्य तेणे ज कर्युं छे, आपने ते प्रातिहार्य
(प्रतहारनुं कार्य) केवी रीते होय? अथवा बराबर छे के पूर्वोपार्जित
तीर्थंकर प्रकृतिरूप कर्मना उदयथी अशोकवृक्षादि आठ प्रातिहार्य होय छे ए
कारणे ते कर्मयोगथी आपने पण ‘प्रातिहार्य’ हो. २०.
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निर्धनने सारी रीते जोती नथी. ते योग्य ज छे कारण के अंधारामां उभेलो
मनुष्य प्रकाशमां उभेला पुरुषने जेम जोई ले छे तेम प्रकाशमां उभेलो
पुरुष अंधारामां उभेला पुरुषने जोई शकतो नथी. २१.
पण ज्ञानादि संपत्ति रहित मनुष्योने हितनो उपदेश आपीने सुखी करो
छो. आ रीते आप संसारना श्रीमानोथी भिन्न प्रकारना ज श्रीमान् छो.
पण अशक्त जीवो स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी आत्माने क्यांथी जाणी शके?
अने ज्यां प्रत्यक्षरूप स्वात्माने ज जाणता नथी तो पछी केवळज्ञान-
स्वरूप, अमूर्त अने चिन्मात्र एवा आपने केवी रीते जाणी शके? अर्थात्
जाणी शके नहि. २२.
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सुवर्णने एम कहीने छोडी दे छे के आ पाषाण छे अथवा पाषाणथी
उत्पन्न थयुं छे. २३.
अपमानित थया. परंतु आपनी समक्ष ते मोह स्वयं मूर्च्छित थई गयो.
ते योग्य ज छे, विरोधीनो बळवाननी साथे विरोध करवाथी मूळ सहित
नाश थाय छे. २४.
छे तेथी में बधुं ज जोयुं छे एवा अहंकारथी आपे कदी पण आपनो
हाथ जोयो नहि. २५.
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छे, आ प्रमाणे केवळ आपना सिवाय संसारना बधा पदार्थोनो अभ्युदय
तेमना प्रतिपक्ष सहित छे. २६.
नाश थई गयो छे तेथी केवळ आपना भक्त ज शाश्वत सुखनो रसास्वाद
ले छे.
‘देव’ जाणीने नमस्कार करनारने पण मळतुं नथी केमके नीलमणिने काच
मानीने धारण करनार मनुष्य, काचने नीलमणि मानीने धारण करनार
मनुष्य करतां दरिद्र नथी. २७.
गयो अने फूटेला घडाने कहे छे के घडानुं कल्याण थई गयुं. २८.
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जुदा जुदा अर्थवाळा, एक अर्थवाळा तथा हितकारी आपना द्वारा
प्रतिपादित वचनो सांभळीने कयो परीक्षक आपना जेवा सत्यवादीनी
निर्दोषतानो अनुभव न करे अर्थात् बधां ज करे छे. २९.
(दिव्यध्वनि)नी प्रवृत्ति स्वभावथी ज थाय छे, एवो कांईक नियोग ज छे.
जेम चन्द्रनो उदय स्वभावथी ज थाय छे, ‘हुं समुद्रने पूरेपूरो भरी दउं’
एवी इच्छाथी चन्द्रनो उदय थतो नथी, तेवी ज रीते आपनी दिव्यध्वनि
स्वभावथी ज खरे छे. ३०.
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आपमां ज छे. अर्थात् आप सर्वगुणसंपन्न छो, आपनामां कोई गुणनी
कमी नथी. ३१.
आपनी भक्ति करुं छुं, ध्यान करुं छुं अने आपने प्रणाम करुं छुं केम
के कोई पण उपाय द्वारा पोताना विभाव भावो मटाडीने इच्छित फळ सिद्ध
करी लेवुं जोईए. ३२.
द्वारा वंद्य छो परंतु आप कोईने वंदन करता नथी. त्रणे लोकना स्वामी
एवा आपने हुं (धनंजय कवि) सदैव नमस्कार करुं छुं. ३३.
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छो परंतु आपने कोई जाणतुं नथी. आपना अनंतगुणोनुं स्मरण पण करी
शकातुं नथी एवा श्री जिनेन्द्र भगवाननुं हुं सदैव वारंवार चिंतवन करुं
छुं. ३४.
परमाणुमात्र पण परिग्रह आपनी पासे नथी छतां पण इन्द्र चक्रवर्ती
वगेरे आपनी पासे याचना करे छे. (कारण के अनंत चतुष्टयस्वरूप
अंतरंग
पदार्थोनो पार पाम्या छो अने बीजाने पण पार पहोंचाडो छो, परंतु
आपनो पार कोई पाम्युं नथी, एवा ते जिनपतिनुं हुं शरण ग्रहुं छुं. ३५.
ज ते महामेरु हतो तेवी ज रीते आप क्रमपूर्वक न वधतां स्वयं उन्नत
हता. एवा त्रणलोकना दीक्षागुरु स्वरूप आपने नमस्कार. ३६.
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गुरुता. ते सदैव एकरूप रहेनार अने काळनी कळाथी रहित अर्थात्
अविनाशी त्रिलोकीनाथने हुं नमस्कार करुं छुं. ३७.
ज छे के वृक्षोनो आश्रय लेनार पुरुषने छांयो स्वयं प्राप्त थई जाय छे
तो पछी छांयो मागवाथी शो लाभ थाय? ३८.
भक्ति रहो. मने विश्वास छे के हे देव! आप मारा उपर आटली कृपा
अवश्य करशो. पोता वडे पोषावा योग्य शिष्य उपर क्या विद्वान पुरुष
अनुकूळ नथी थता? बधा ज थाय छे. ३९.
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करेली आपनी स्तुति अने भक्ति विशेषपणे सुख, यश, धन अने विजय
आपे छे. ४०.
लाभ मळे छे अने अंते सर्वोपरि मोक्षनुं सुख प्राप्त थाय छे.
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