Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration). Vishapahar Stotrano Padhyanuvad.

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विषापहार स्तोत्र ][ ७३
चाहवानो अभिप्राय ए छे के आपे इन्द्रियजनित तुच्छ सुख छोडीने
अतीन्द्रियजन्य परमसुख मोक्षनी चाह करी. आ प्रमाणे अर्थ करवाथी
वास्तवमां कोई पण विरोध नथी. ९.
स्मरः सुदग्धो भवतैव तस्मि
न्नुद्धलितात्मा यदि नाम शम्भुः
अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णुः
किं गृह्यते येन भवानजागः ।।१०।।
अर्थ :हे अनंतवीर्यना धारक! लोकविजयी कामने वास्तवमां
आपे ज भस्म कर्यो छे, बीजा कोईए नहि. जो महादेवने कामने भस्म
करवाने कारणे ईश्वर कहो तो ते बराबर नथी कारण के ते पण पाछळथी
कामथी पीडित थई गया हता. विष्णु पण लक्ष्मीनी साथे शयन करवाने
कारणे अनेक आकुळताओथी पीडित छे परंतु आप सदैव आत्मामां जागृत
रहेवाने कारणे कामनिद्रामां अचेत थया नहि अर्थात् हरिहरादिक बधा देव
बाह्य परिग्रहथी लिप्त, निद्रा आदि अढार दोष सहित तथा कामद्वारा
पीडित छे अने आप अढार दोषरहित बाह्य अंतरंग बधा परिग्रहोथी
रहित, निराकुळ अने साचा कामविजेता छो. १०.
स नीरजीस्यादपरोऽधवान्वा,
तदोषकीर्त्यैव न ते गुणित्वम्
स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव !
स्तोकापवादेन जलाशयस्य ।।११।।
अर्थ :हे जिनदेव! आपनाथी भिन्न ते हरिहरादि देव निर्दोष
होय के सदोष होय, तेमना दोषोनुं वर्णन करवा मात्रथी ज आपनुं
गुणीपणुं नथी. जेम वाव, कूवो, तळाव आदिनी निंदा करवाथी समुद्रनो
महिमा होय एम बाबत नथी परंतु समुद्रनो महिमा स्वभावथी ज होय
छे तेवी ज रीते अनंत ज्ञानादि अपरिमित गुणोना स्वामी होवाथी आपनो
सर्वोपरि महिमा स्वभावथी ज छे. ११.

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७४ ][ पंचस्तोत्र
कर्मस्थितिं जन्तुरनेकभूमिं,
नयत्यमुं सा च परस्परस्य
त्वं नेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ,
जिनेन्द्र नौनाविकयोरिवाख्यः ।।१२।।
अर्थ :हे भगवान! जेम समुद्रमां होडी नाविकने अने नाविक
होडीने लई जाय छे तेवी ज रीते संसारी जीव कर्मोनी स्थितिने अने कर्म
संसारीजीवोने परस्पर जुदी जुदी अवस्थाओमां लई जाय छे परिणामे
हे जिनेन्द्रदेव! आपे संसाररूपी घोर समुद्रमां परस्पर एकबीजानुं नेतृत्व
(व्यवहारनयथी) कह्युं छे. १२.
सुखाय दुःखानि गुणाय दोषा -
न्धर्माय पापानि समाचरंति
तैलाय बालाः सिकतासमूहं
निपीडयंति स्फु टमत्वदीयाः ।।१३।।
अर्थ :हे त्रिभुवनपति! आपना शासनथी बाह्य सर्वथा
एकान्तवादी जनो सुखनी प्राप्ति माटे दुःखोनुं (पर्वत उपरथी पडवुं,
अग्निमां प्रवेश करवो आदि घोर दुःखोनुं ), गुणोनी प्रसिद्धि माटे
(हाडकानी खोपरीओनी माळा पहेरवी, मृगना चामडानुं आसन राखवुं
इत्यादि) प्रत्यक्ष दोषोनुं, धर्म माटे (अश्वमेघ, नरमेघ अने नरपशुयज्ञरूप)
पापोनुं आचरण करे छे. आ प्रमाणे हेयोपादेय (हिताहित) ज्ञान रहित
जीव तेलनी प्राप्ति माटे रेतीनो समूह पीले छे. १३.
विषापहारं मणिमौषधानि
मंत्रं समुद्दिश्य रसायनं च
भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति
पर्यायनामानि तवैव तानि ।।१४।।

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विषापहार स्तोत्र ][ ७५
अर्थ :हे भगवान! आश्चर्यनी वात छे के संसारी जीवो विष
दूर करनार मणि, औषध, मंत्र, रसायण अने कल्पवृक्ष आदिनी प्राप्ति
माटे अहीं तहीं भटके छे परंतु आपनुं स्मरण करता नथी. जो के मणि
आदि बधा शब्दो आपना पवित्र नामना ज पर्यायवाची छे. १४.
चित्ते न किञ्चित्कृतवानसि त्वं
देवःकृतश्चेतसि येन सर्वम्
हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्रं
सुखेन जीवत्यपि चित्तबाह्यः ।।१५।।
अर्थ :हे त्रिभुवनाराध्य! आपना हृदयमां (वीतराग होवाथी
रागद्वेषादि) कांई पण नथी परंतु जे मनुष्य आपने पोताना हृदयमां
धारण करे छे तेने वश आखुं जगत थई जाय छे ए आश्चर्यनी वात
छे. आप मनरहित छो तोपण सुखेथी (अनंतज्ञानादि गुणोथी संपन्न
होवाने कारणे) जीवो छो अथवा जेमना चित्तमांथी आप बहार छो
तेओ सुखपूर्वक रही शकता नथी अने आप अचिंत्य होवा छतां पण
अनंत सुखमां लीन छो. १५.
त्रिकालतत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकी
स्वामीति संख्यानियतेरमीषां
बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यं
स्तेऽन्येऽपि चेद्वद्याप्स्यदमूनपीदं ।।१६।।
अर्थ :हे जिनेन्द्रदेव! आप त्रणे काळना जीवादि पदार्थोने
यथार्थरूपे जाणो छो तथा त्रणे लोकोना स्वामी छो. आम कहेवानो
अभिप्राय ए नथी के आपना ज्ञान अने प्रभुत्वनी सीमा आटली ज छे
केम के काळ अने लोकनी संख्या निश्चित छे तेथी आप त्रिकाळज्ञानी अने
त्रिभुवनपति कहेवाओ छो. जो आ उपरांत बीजा पण अनंतकाळ अने
लोक होत तो ते पण आपना ज्ञान अने प्रभुत्वमां समाई ज जात. १६.

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७६ ][ पंचस्तोत्र
नाकस्य पत्युः परिकर्म रम्यं
नागम्यरूपस्य तवोपकारि
तस्यैव हेतुः स्वसुखस्य
भानोरुद्बिभ्रतच्छत्रमिवादरेण ।।१७।।
अर्थ :हे गुणसमुद्र! इन्द्रनी मनोहारी सेवा नित्य निरंजन
ज्ञानमूर्तिस्वरूप आपनो उपकार करती नथी. तेनी मनोहारी सेवा ते
इन्द्रना ज आत्मसुखनुं कारण छे. जेम कोई आदरपूर्वक छत्र धारण करे
छे तो तेनाथी तेने ज छायादिरूप सुखनी प्राप्ति थाय छे. तेनाथी सूर्यनो
कांई थोडो ज उपकार थाय छे? तेवी ज रीते भगवाननी सेवा द्वारा इन्द्र
संसारनाशक अतिशय पुण्यनी प्राप्ति करे छे. १७.
क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेशः
स चेत्किमिच्छाप्रतिकूलवादः
क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वं
तन्नायथातथ्यमवेविचं ते ।।१८।।
अर्थ :हे वीतराग प्रभु! परम वीतरागी आप क्यां? आपनो
सुखदायक उपदेश क्यां? जो सुखदायक उपदेश होय तो पछी इच्छाथी
प्रतिकूळ उपदेश केम? क्यां इच्छाथी प्रतिकूळ आपनो आ उपदेश? अने
क्यां तेमां सर्व संसारी जीवोनुं प्रियपणुं? आ बधुं परस्पर विरोधी होवा
छतां पण विरोध रहित यथार्थ छे एम मने द्रढ विश्वास छे. १८.
भावार्थ :जो के वीतराग प्रभु आप परम वीतराग छो छतां
पण भव्य जीवोना पुण्योदयथी आपनी दिव्यध्वनि खरे छे. आपने
भव्यजीवो प्रत्ये कोई राग नथी तेथी वीतरागी होवामां अने उपदेश
देवामां कोई विरोध नथी. हितकारी होवा छतां पण ते इन्द्रियविषयना
तुच्छ क्षणिक सुखथी प्रतिकूळ छे केम के इन्द्रियविषय सुखनो विपाक अत्यंत
कडवो छे छतां पण शिवसुख आपवानुं मुख्य कारण होवाथी बधाने प्रिय
छे तेथी आपना उपदेशमां कोई विरोध नथी.

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विषापहार स्तोत्र ][ ७७
तुङ्गात्फलं यत्तदकिंचनाश्च,
प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादेः
निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाद्रे
र्नैकापि निर्याति धुनी पयोधेः ।।१९।।
अर्थ :हे परमात्मा! जेम पर्वत जळरहित छे परंतु स्वभावथी
ज उन्नत प्रकृति धारण करे छे तेथी तेमांथी गंगादि अनेक नदीओ नीकळे
छे अने जळथी समुद्र समुद्रमांथी एक पण नदी नीकळती नथी तेवी ज
रीते हे भगवान! आपनी पासे परमाणुमात्र पण परिग्रह नथी तोपण
अनंतज्ञानादि गुणो द्वारा अत्यंत उन्नत स्वभाव होवाथी आपना द्वारा जे
अनंत सुखादिरूप फळनी प्राप्ति थई शके छे ते धनपति कुबेरथी कदी थई
शकती नथी. १९.
त्रैलोक्यसेवानियमाय दण्डं
दध्रे यद्रिंद्रो विनयेन तस्य
तत्प्रातिहार्यं भवतः कुतस्त्यं,
तत्कर्मयोगाद्यदि वा तवास्तु ।।२०।।
अर्थ :हे त्रिलोक के नाथ! इन्द्रे त्रण लोकना जीवोनी सेवा
करवा माटे जे विनयपूर्वक दंड धारण कर्यो हतो तेथी प्रतीहारपणुं इन्द्रने
ज हो केम के प्रतिहारपणानुं कार्य तेणे ज कर्युं छे, आपने ते प्रातिहार्य
(प्रतहारनुं कार्य) केवी रीते होय? अथवा बराबर छे के पूर्वोपार्जित
तीर्थंकर प्रकृतिरूप कर्मना उदयथी अशोकवृक्षादि आठ प्रातिहार्य होय छे ए
कारणे ते कर्मयोगथी आपने पण ‘प्रातिहार्य’ हो. २०.
श्रिया परं पश्यति साधु निःस्वः,
श्रीमान्न कश्चित्कृपणं त्वदन्यः
यथा प्रकाशस्थितमन्धकार
स्थायीक्षतेऽसौ न तथा तमःस्थम् ।।२१।।

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७८ ][ पंचस्तोत्र
अर्थ :हे जिनेश्वर! दरिद्र मनुष्य धनवानने आदरभावथी देखे
छे परंतु आपना सिवाय बीजी कोई पण धनवान व्यक्ति पुण्योदय रहित
निर्धनने सारी रीते जोती नथी. ते योग्य ज छे कारण के अंधारामां उभेलो
मनुष्य प्रकाशमां उभेला पुरुषने जेम जोई ले छे तेम प्रकाशमां उभेलो
पुरुष अंधारामां उभेला पुरुषने जोई शकतो नथी. २१.
भावार्थ :ऐश्वर्यना मदथी अंध संसारना संपत्तिशाळी मनुष्यो
निर्धनो तरफ आंख उघाडीने जोता पण नथी पण आप श्रीमान् होवा छतां
पण ज्ञानादि संपत्ति रहित मनुष्योने हितनो उपदेश आपीने सुखी करो
छो. आ रीते आप संसारना श्रीमानोथी भिन्न प्रकारना ज श्रीमान् छो.
स्ववृद्धिनिःश्वासनिमेषभाजि,
प्रत्यक्षमात्मानुभवेऽपि मूढः
किं चाखिलज्ञेयविवर्तिबोध
स्वरूपमध्यक्षमवैति लोकः ।।२२।।
अर्थ :हे जगतना नाथ! पोताना शरीरनी वृद्धि, प्राणधारण
अने आंखना पलकारवाळा वास्तवमां पोताना स्वरूपनो अनुभव करवामां
पण अशक्त जीवो स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी आत्माने क्यांथी जाणी शके?
अने ज्यां प्रत्यक्षरूप स्वात्माने ज जाणता नथी तो पछी केवळज्ञान-
स्वरूप, अमूर्त अने चिन्मात्र एवा आपने केवी रीते जाणी शके? अर्थात्
जाणी शके नहि. २२.
तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव
त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य
तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं
पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति ।।२३।।
अर्थ :हे परमात्मा! आप नाभिराजाना पुत्र छो अने
भरतेश्वरना पिता छो आ प्रमाणे आपना वंशनुं वर्णन करीने जे मूढबुद्धि

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विषापहार स्तोत्र ][ ७९
जीव आपनी अवहेलना करे छे ते बुद्धिहीनोनी जेम हाथमां आवेला
सुवर्णने एम कहीने छोडी दे छे के आ पाषाण छे अथवा पाषाणथी
उत्पन्न थयुं छे. २३.
दत्तस्त्रिलोक्यां पटहोऽभिभूताः
सुरासुरास्तस्य महान्स लाभः
मोहस्य मोहस्त्वयि को विरोद्धु
र्मूलस्य नाशो वलवद्धिरोधः ।।२४।।
अर्थ :हे त्रिभुवननाथ! त्रणे लोकमां विजयनुं नगारुं वगाडवाथी
मोहने घणो मोटो विजयलाभ थयो कारण के तेनाथी सुर अने असुर बधा
अपमानित थया. परंतु आपनी समक्ष ते मोह स्वयं मूर्च्छित थई गयो.
ते योग्य ज छे, विरोधीनो बळवाननी साथे विरोध करवाथी मूळ सहित
नाश थाय छे. २४.
मार्गस्त्वयैको ददृशे विमुक्ते
श्चतुर्गतीनां गहनं परेण
सर्वं मया दृष्टमिति स्मयेन
त्वं मा कदाचिद्भुजमालुलोक ।।२५।।
अर्थ :हे जिनेन्द्रदेव! आपे एक मोक्षनो ज मार्ग जोयो छे
अने आपनाथी भिन्न अन्यमती देवोए चारे गतिनो गहन मार्ग जोयो
छे तेथी में बधुं ज जोयुं छे एवा अहंकारथी आपे कदी पण आपनो
हाथ जोयो नहि. २५.
स्वर्भानुरर्कस्य हविर्भुजोऽम्भः,
कल्पान्तवातोऽम्बुनिधेर्विधातः
संसारभोगस्य वियोगभावो,
विपक्षपूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये ।।२६।।

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८० ][ पंचस्तोत्र
अर्थ :हे अनंत सुखधारक! राहु सूर्यनो, जळ अग्निनो,
प्रलयकाळनो पवन समुद्रनो तथा वियोगभाव संसारना भोगोनो प्रतिपक्षी
छे, आ प्रमाणे केवळ आपना सिवाय संसारना बधा पदार्थोनो अभ्युदय
तेमना प्रतिपक्ष सहित छे. २६.
भावार्थ :हे प्रभुवर! केवळ आपनो ज अभ्युदय एवो छे के
ए प्रतिपक्षी भावोथी सुरक्षित छे केमके आपना सर्व विभावोनो सर्वथा
नाश थई गयो छे तेथी केवळ आपना भक्त ज शाश्वत सुखनो रसास्वाद
ले छे.
अजानतस्त्वां नमतः फलं यत्,
तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति
हरिन्मणिं काचधियादधान
स्तं तस्य बुद्धया वहतो न रिक्तः ।।२७।।
अर्थ :हे मुनिनाथ! आपने जाण्या विना (पण) नमस्कार
करनार मनुष्यने जे फळ प्राप्त थाय छे ते फळ आपनाथी भिन्न बीजाओने
‘देव’ जाणीने नमस्कार करनारने पण मळतुं नथी केमके नीलमणिने काच
मानीने धारण करनार मनुष्य, काचने नीलमणि मानीने धारण करनार
मनुष्य करतां दरिद्र नथी. २७.
प्रशस्तवाचश्चतुराः कषायै
र्दग्धस्य देवव्यवहारमाहुः
गतस्य दीपस्य हि नंदितत्वं,
दृष्टं कपालस्य च मंगलत्वम् ।।२८।।
अर्थ :हे जिनपति! प्रशस्त वचन बोलनार चतुर व्यवहारी
मनुष्य क्रोधादिकषायोथी जलता पुरुषने पण देव शब्दथी संबोधे छे. आ
व्यवहार एवो छे जेम ओलवाता दीपकने लोको कहे छे के दीपक वधी
गयो अने फूटेला घडाने कहे छे के घडानुं कल्याण थई गयुं. २८.

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विषापहार स्तोत्र ][ ८१
नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तं,
हितं वचस्ते निशमय्य वक्तुः
निर्दोषतां के न विभावयन्ति,
ज्वरेण मुक्तः सुगमः स्वरेण ।।२९।।
अर्थ :हे स्याद्वाद नायक! जेम कोईनो निरोगी स्वर सांभळतां
ज खबर पडी जाय छे के ए ज्वर रहित छे तेवी ज रीते हे देवाधिदेव!
जुदा जुदा अर्थवाळा, एक अर्थवाळा तथा हितकारी आपना द्वारा
प्रतिपादित वचनो सांभळीने कयो परीक्षक आपना जेवा सत्यवादीनी
निर्दोषतानो अनुभव न करे अर्थात् बधां ज करे छे. २९.
न क्वापि वाञ्छा ववृते च वाकते
काले क्वचित्कोऽपि तथा नियोगः
न पूरयाम्यम्बुधिमित्यदंशुः
स्वयं हि शीतद्युतिरभ्युदेति ।।३०।।
अर्थ :हे ॠषभदेव! आ आपनो कोई अचिंत्य गुण ज छे
के आपनी क्यांय कोई पण प्रकारनी इच्छा विना ज आपना वचनो
(दिव्यध्वनि)नी प्रवृत्ति स्वभावथी ज थाय छे, एवो कांईक नियोग ज छे.
जेम चन्द्रनो उदय स्वभावथी ज थाय छे, ‘हुं समुद्रने पूरेपूरो भरी दउं’
एवी इच्छाथी चन्द्रनो उदय थतो नथी, तेवी ज रीते आपनी दिव्यध्वनि
स्वभावथी ज खरे छे. ३०.
गुणा गंभीराः परमांः प्रसन्ना
बहुप्रकाराबहवस्तबेति
दृष्टोयमन्तः स्तवने न तेषां
गुणो गुणानां किमतः परोस्ति ।।३१।।
अर्थ :हे गुण समुद्र? आपना गुण गंभीर, सर्वोत्कृष्ट,
सुप्रसिद्ध, भिन्न भिन्न प्रकारना अने ते घणा छे. स्तुतिमां ते गुणोनो

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८२ ][ पंचस्तोत्र
अंत देखातो नथी केम के ते अनंत छे. जो तेमनो क्यांय अंत होय तो
आपमां ज छे. अर्थात् आप सर्वगुणसंपन्न छो, आपनामां कोई गुणनी
कमी नथी. ३१.
स्तुत्या परं नाभिमतं हि भक्त्या
स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि
स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं
केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम् ।।३२।।
अर्थ :हे देवाधिदेव! केवळ स्तुतिद्वारा ज इच्छित फळनी प्राप्ति
थती नथी परंतु भक्ति, स्मरण, नमस्कारथी पण थाय छे. तेथी हुं सदैव
आपनी भक्ति करुं छुं, ध्यान करुं छुं अने आपने प्रणाम करुं छुं केम
के कोई पण उपाय द्वारा पोताना विभाव भावो मटाडीने इच्छित फळ सिद्ध
करी लेवुं जोईए. ३२.
ततस्त्रिलोकीनगराधिदेवं
नित्यं परंज्योतिरनंतशक्तिम्
अपुण्यपापं परपुण्यहेतुं
नमाम्यहं वन्द्यमवन्दितारम् ।।३३।।
अर्थ :हे गुणनिधि! आप अविनाशी छो, केवळज्ञान स्वरूप
ज्योतिथी प्रकाशमान छो, अनंत वीर्यना धारक छो, स्वयं पुण्यपाप रहित
छो छतां पण भव्यजीवोना पुण्यना कारण छो. आप इन्द्र, चक्रवर्ती बधा
द्वारा वंद्य छो परंतु आप कोईने वंदन करता नथी. त्रणे लोकना स्वामी
एवा आपने हुं (धनंजय कवि) सदैव नमस्कार करुं छुं. ३३.
अशब्दमस्पर्शमरूपगंधं
त्वां नीरसं तद्विषयावबोधम्
सर्वस्य मातारममेयमन्यै
र्जिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि ।।३४।।

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विषापहार स्तोत्र ][ ८३
अर्थ :हे त्रिलोकीनाथ! आप शब्द, स्पर्श, रूप, गंध अने
रसरहित छो परंतु तेमना विषयना पूर्ण ज्ञाता छो. आप सर्वने जाणो
छो परंतु आपने कोई जाणतुं नथी. आपना अनंतगुणोनुं स्मरण पण करी
शकातुं नथी एवा श्री जिनेन्द्र भगवाननुं हुं सदैव वारंवार चिंतवन करुं
छुं. ३४.
अगाधमन्यैर्मनसाप्यलंध्यं
निष्किंचनं प्रार्थितमर्थवद्भिः
विश्वस्य पारं तमदृष्टपारं
पतिं जनानां शरणं व्रजामि ।।३५।।
अर्थ :हे नरनाथ! आप गुणोथी गंभीर छो तेथी बीजा ते
ऊंडाण सुधी पहोंची शकता नथी, मनथी आपनुं चिंतवन करी शकातुं नथी,
परमाणुमात्र पण परिग्रह आपनी पासे नथी छतां पण इन्द्र चक्रवर्ती
वगेरे आपनी पासे याचना करे छे. (कारण के अनंत चतुष्टयस्वरूप
अंतरंग
लक्ष्मीथी आप शोभी रह्या छो अने इन्द्र, चक्रवर्ती वगेरे तेनाथी
रहित छे तेथी तेमनुं याचकपणुं स्वाभाविक ज छे.) आप विश्वना सकळ
पदार्थोनो पार पाम्या छो अने बीजाने पण पार पहोंचाडो छो, परंतु
आपनो पार कोई पाम्युं नथी, एवा ते जिनपतिनुं हुं शरण ग्रहुं छुं. ३५.
त्रैलोक्यदीक्षागुरवे नमस्ते
योऽवर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत्
प्राग्मण्डशैलः पुनरद्धिकल्पः
पश्चान्न मेरुः कुलपर्वतोऽभूत् ।।३६।।
अर्थ :हे त्रिभुवनपति! सुमेरु पर्वत पहेलां गोळ पत्थरोनो
ढगलो, पछी नानो पहाड अने पछी कुलाचल थयो नहोतो परंतु स्वभावथी
ज ते महामेरु हतो तेवी ज रीते आप क्रमपूर्वक न वधतां स्वयं उन्नत
हता. एवा त्रणलोकना दीक्षागुरु स्वरूप आपने नमस्कार. ३६.

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८४ ][ पंचस्तोत्र
स्वयंप्रकाशस्य दिवा निशा वा,
न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम्
न लाघवं गौरवमेकरूपं
वन्दे विभुं कालकलामतीतम् ।।३७।।
अर्थ :हे त्रिलोकी प्रभु! आप स्वयं सतत प्रकाशस्वरूप छो तेथी
दिवस के रात्रिनी जेम बाध्य बाधकपणुं नथी, जेमने नथी लघुता के नथी
गुरुता. ते सदैव एकरूप रहेनार अने काळनी कळाथी रहित अर्थात्
अविनाशी त्रिलोकीनाथने हुं नमस्कार करुं छुं. ३७.
इति स्तुति देव विधाय दैन्या
द्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि
छायातरूं संश्रयतः स्वतः स्यात्,
कश्छायया याचितयात्मलाभः ।।३८।।
अर्थ :हे नाथ! आ प्रमाणे स्तुति करीने हुं दीनतापूर्वक वरदान
मांगतो नथी केमके हुं जाणुं छुं के आप रागद्वेषरहित छो. अथवा बराबर
ज छे के वृक्षोनो आश्रय लेनार पुरुषने छांयो स्वयं प्राप्त थई जाय छे
तो पछी छांयो मागवाथी शो लाभ थाय? ३८.
अथास्ति दित्सा यदि वोपरोध
स्त्वय्येव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिम्
करिष्यते देव तथा कृपां मे,
को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरिः ।।३९।।
अर्थ :हे स्वामी! जो आपनी कांई देवानी इच्छा होय अथवा
कांई अनुग्रह होय तो हुं ए ज मागुं छुं के आपना चरणोमां ज मारी
भक्ति रहो. मने विश्वास छे के हे देव! आप मारा उपर आटली कृपा
अवश्य करशो. पोता वडे पोषावा योग्य शिष्य उपर क्या विद्वान पुरुष
अनुकूळ नथी थता? बधा ज थाय छे. ३९.

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विषापहार स्तोत्र ][ ८५
वितरति विहिता यथा क थञ्चि
ज्जिन विनताय मनीषितानि भक्तिः
त्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषा
िद्रशति सुखानि यशो धनं जयं च ।।४०।।
अर्थ :हे जिनेन्द्रदेव! जेम कोई पण रीते करेली भक्ति पण
विनयशील भक्तने मनोवांछित फळ आपे छे तो पछी विशुद्ध परिणामोथी
करेली आपनी स्तुति अने भक्ति विशेषपणे सुख, यश, धन अने विजय
आपे छे. ४०.
भावार्थ :हे भगवान! सम्यग्दर्शनपूर्वक विशुद्ध परिणामो द्वारा
आपनी स्तुति करवाथी विशिष्ट सुख, निर्मल यश, धन-वैभव अने विजय
लाभ मळे छे अने अंते सर्वोपरि मोक्षनुं सुख प्राप्त थाय छे.
ए प्रमाणे महाकवि धनंजयकृत विषापहार स्तोत्रनी
पं. श्रेयांसकुमारजी शास्त्रीकृत भाषाटीकानो
गुजराती अनुवाद पूरो थयो.

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विषापहारस्तोत्रनो
पद्यानुवाद
अपने में ही स्थिर रहता है, और सर्वगत कहलाता,
सर्व - संग - त्यागी होकर भी, सब व्यापारोंका ज्ञाता;
कालमानसे वृद्ध बहुत है, फिर भी अजर अमर स्वयमेव,
विपदाओंसे सदा बचावे, वह पुराण पुरुषोत्तम देव. १.
जिसने पर - कल्पनातीत, युग - भार अकेले ही झेला,
जिसके सुगुनगान मुनिजन भी, कर नहिं सके एक वेला;
उसी वृषभकी विशद विरद यह, अल्पबुद्धि जन रचता है,
जाहां न जाता भानु, वहां भी दीप उजेला करता है. २.
शक्र सरीखे शक्तिवान ने, तजा गर्व गुण गाने का,
किन्तु मैं न साहस छोडूंगा, विरदावली बनानेका;
अपने अल्पज्ञान से ही मैं, बहुत विषय प्रकटाऊंगा,
इस छोटे वातायनसे ही, सारा नगर दिखाऊंगा. ३.
तुम सब - दर्शी देव, किन्तु, तुमको न देख सकता कोई,
तुम सबके ही ज्ञाता, पर तुमको न जान पाता कोई;
‘कितने हो’ ‘कैसे हो, यों कुछ कहा न जाता हे भगवान्,
इससे निज अशक्ति बतलाना, यही तुम्हारा स्तवन महान. ४.
बालक सम अपने दोषोंसे, जो जन पीडित रहते हैं,
उन सबको हे नाथ, आप, भवताप रहित नित करते हैं;
यों अपने हित और अहितका, जो न ध्यान धरनेवाले,
उन सबको तुम बालवैद्य हो, स्वास्थ्यदान करनेवाले. ५.

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विषापहार स्तोत्र पद्यानुवाद ][ ८७
देने लेनेका काम कुछ, आज कल्य परसों करके,
दिन व्यतीत करता अशक्त रवि, व्यर्थ दिलासा दे करके;
पर हे अच्युत, जिनपति, तुम यों पल भर भी नहिं खोते हो,
शरणागत नत भक्तजनोको, त्वरित इष्ट फल देते हो. ६.
भक्तिभावसे सुमुख आपके रहनेवाले सुख पाते,
और विमुख जन दुःख पाते हैं, रागद्वेष नहिं तुम लाते;
कमल सुदुतिमय चारु आरसी, सदा एकसी रहती ज्यों,
उसमें सुमुख विमुख दोनों ही, देखें छाया ज्यों की त्यों. ७.
गहराई निधि की, ऊंचाई गिरि की, नभ - थल की चौडाई,
वहीं वहीं तक जहां जहां तक, निधि आदिक दें दिखलाई;
किन्तु नाथ, तेरी अगाधता, और तुंगता, विस्तरता,
तीन भुवनके बाहिर भी है, व्याप रही है जगत्पिता. ८.
अनवस्थाको परम तत्त्व, तुमने अपने मतमें गाया,
किन्तु बडा अचरज यह भगवान्, पुनरागमन न बतलाया;
त्यों आशा करके अदष्टकी, तुम सुद्रष्ट फलको खोते,
यों तब चरित देखें उलटेसे, किन्तु घटित सबही होते. ९.
काम जलाया तुमने स्वामी, इसीलिये बहु उसकी धूल,
शंभु रमाई निज शरीरमें, होय अधीर मोह में भूल;
विष्णु परिग्रहयुत सोते हैं; लूटे उन्हें इसीसे काम,
तुम निर्ग्रंथ जागते रहते, तुमसे क्या छीने वह वाम. १०.
और देव हों चाहे जैसे, पाप सहित अथवा निष्पाप,
उनके दोष दिखानेसे ही, गुणी कहे नहिं जाते आप;
जैसे स्वयं सरितपति की अति, महिमा बढी दिखाती है,
जलाशयोंके लघु कहनेसे, वह न कहीं बढ जाती है. ११.

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८८ ][ पंचस्तोत्र
कर्मस्थितिको जीव निरन्तर, विविध थलोंमें पहुंचाता,
और कर्म इन जग - जीवोको, सब गतियोंमें ले जाता;
यों नौका नाविकके जैसे, इस गहरे भव - सागरमें,
जीव कर्मके नेता हो प्रभु, पार करो कर कृपा हमें. १२.
गुणके लिए लोग करते हैं; अस्थिधारणादिक बहु दोष,
धर्महेतु पापोंमें पडते, पशुवधादिको कह निर्दोष;
सुखहित निज तनको देते हैं, गिरिपातादि दुःखमें ठेल,
यों जो तव मतबाह्य मूढ वे, बालू पेल निकालें तेल. १३.
विषनाशक मणि मंत्र रसायन, औषधके अन्वेषणमें,
देखो तो ये भोले प्राणी, फिरें भटकते वन वन में;
समझ तुम्हें ही मणिमंत्रादिक, स्मरण न करते सुखदायी,
क्योंकि तुम्हारे ही हैं ये सब, नाम दूसरे पर्यायी. १४.
हे जीनेश, तुम अपने मनमें, नहीं किसीको लाते हो,
पर जिस किसी भाग्यशालीके, मनमें तुम आ जाते हो;
वह निज - करमें कर लेता हैं, शकल जगतको निश्चय से,
तव मन से बाहर रहकर भी, अचरज है रहता सुखसे. १५.
त्रिकालज्ञ त्रिजगतके स्वामी, ऐसा कहनेसे जिनदेव,
ज्ञान और स्वामीपनकी, सीमा निश्चित होती स्वयमेव;
यदि इससे भी ज्यादा होती, काल जगतकी गिनती और,
तो उसको भी व्यापित करते, ये तव गुण दोनों सिरमौर. १६.
प्रभुकी सेवा करके सुरपति, बीज स्वसुखके बोता है,
हे अगम्य अज्ञेय न इससे, तुम्हें लाभ कुछ होता है;
जैसे छत्र सूर्यके सम्मुख, करनेसे दयालु जिनदेव,
करनेवाले ही को होता, सुखकर आतपहर स्वयमेव. १७.

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विषापहार स्तोत्र पद्यानुवाद ][ ८९
कहां तुम्हारी वीतरागता, कहां सौख्यकारक उपदेश!
हो भी तो कैसे बन सकता, इन्द्रियसुखविरुद्ध आदेश?
और जगतकी प्रियता भी तब, संभव कैसे हो सकती?
अचरज, यह विरुद्ध गुणमाला, तुममें कैसे रह सकती? १८.
तुम समान अति तुंग किन्तु निधनोंसे, जो मिलता स्वयमेव,
धनद आदि धनिकोंसे वह फल, कभी नहीं मिल सकता देव;
जलविहीन ऊंचे गिरिवरसे, नाना नदियां बहती हैं,
किन्तु विपुल जलयुक्त जलधिसे, नहीं निकलतीं झरती हैं. १९.
करो जगतजन जिनसेवा, यह समझानेका सुरपति ने,
दंड विनयसे लिया, इसलिए प्रातिहार्य पाया उसने;
किन्तु तुम्हारे प्रातिहार्य वसुविधि हैं सो आए कैसे?
हे जिनेंद्र; यदि कर्मयोगसे, तो वे कर्म हुए कैसे? २०.
धनिकोंको तो सभी निधन, लखते हैं भला समझते हैं,
पर निधनोंको तुम सिवाय जिन, कोई भला न कहते हैं;
जैसे अंधकारवासी उजियालेवालेको देखे,
वैसे उजियालावाला नर, नहिं, तमवासीको देखे. २१.
निज शरीरकी वृद्धि श्वासउच्छ्वास और पलकें झपना,
ये प्रत्यक्ष चिह्न है जिस में, ऐसा भी अनुभव अपना;
कर न सकें जो तुच्छबुद्धि वे, हे जिनवर; क्या तेरा रुप,
इन्द्रियगोचर कर सकते हैं, सकल ज्ञेयमय ज्ञानस्वरूप? २२.
‘उनके पिता’ ‘पुत्र हैं उनके,’ कर प्रकास यों कुलकी बात,
नाथ; आपकी गुणगाथा जो, गाते हैं रट रट दिनरात;
चारु चित्तहर चामीकरको, सचमुच ही वे विना विचार,
उपलशकलसे उपजा कहकर, अपने करसे देते डार. २३.

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९० ][ पंचस्तोत्र
तीन लोकमें ढोल बजाकर, किया मोह ने यह आदेश,
सभी सुरासुर हुए पराजित, मिला विजय उसे विशेष;
किन्तु नाथ; वह निबल आपसे, कर सकता था कहां विरोध,
वैर ठानना बलवानोसे, खो देता है खुदको खोद. २४.
तुमने केवल एक मुक्तिका, देखा मार्ग सौख्यकारी,
पर औरोने चारो गति के, गहन पंथ देखे भारी;
इससे सब कुछ देखा हमने, यह अभिमान ठान करके,
हे जिनवर, नहिं कभी देखना, अपनी भुजा तान करके. २५.
रविको राहु रोकता है, पावकको वारि बुझाता है,
प्रलयकालका प्रबल पवन, जलनिधिको नाच नचाता है;
एसे ही भव - भोगोंको, उनका वियोग हरता स्वयमेव,
तुम सिवाय सबकी बढती पर, घातक लगे हुए हैं देव. २६.
बिन जाने भी तुम्हें नमन करनेसे जो फल फलता है,
वह औरोंको देव मान, नमनेसे भी नहिं मिलता है;
ज्यों *मरक्तको काच मानकर, करगत करनेवाला नर,
समझ सुमणि जो काच गहे, उसके सम रहे न खाली कर. २७.
विशद मनोज्ञ बोलनेवाले, पंडित जो कहलाते हैं,
क्रोधादिकसे जले हुएको, वे यों ‘देव’ बताते हैं;
जैसे ‘बुझे हुए’ दीपकको, ‘बढा हुआ’ सब कहते हैं,
और कपाल बिघट जानेको, ‘मंगल हुआ’ समझते हैं. २८.
नयप्रमाणयुत अतिहितकारी, वचन आपके कहे हुए,
सुनकर श्रोताजन तत्त्वोंके, परिशीलन में लगे हुए;
वक्ताका निर्दोषपना जानेंगे, क्यों नहिं हे गुणमाल,
ज्वरविमुक्त जाना जाता है, स्वर परसे सहजहि तत्काल. २९.
* मरक्तनीलमणि.

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विषापहार स्तोत्र पद्यानुवाद ][ ९१
यद्यपि जगके किसी विषयमें अभिलाषा तव रही नहीं,
तौ भी विमल वाणि तब खिरती, यदा कदाचित् कहीं कहीं;
एसा ही कुछ है नियोग यह, जैसे पूर्णचन्द्र जिनदेव,
*ज्वार बढानेको न ऊगता, किन्तु उदित होता स्वयमेव. ३०.
हे प्रभु; तेरे गुण प्रसिद्ध है, परमोत्तम है, गहरे है,
वहु प्रकार है, पार रहित है, निज स्वभावमें ठहरे है,
स्तुति करते करते यों देखा, छोर गुणोंका आखिरमें,
इनमें जो नहिं कहा, रहा वह, और कौन गुण जाहिर में ३१.
किन्तु न केवल स्तुति करनेसे, मिलता है निज अभिमत फल,
इससे प्रभुको भक्तिभावसे, भजता हुं, प्रतिदिन प्रतिपाल;
स्मृति करके सुमरन करता हूं, पुनि विनम्र हो नमता हूं,
किसी यत्नसे भी, अभीष्टसाधन की इच्छा रखता हूं. ३२.
इसीलिये शाश्वत तेजोमय, शक्ति अनन्तवन्त अभिराम,
पुण्य पाप बिन्, परम पुण्यके कारण, परमोत्तम गुणधाम;
वन्दनीय, पर जो न औरकी, करै वन्दना कभी मुनीश,
एसे त्रिभुवन नगर - नाथको, करता हुं प्रणाम धर सीस. ३३.
जो नहिं स्वयं शब्द रस सपरस, अथवा रूप गंध कुछ भी,
पर इन सब विषयोंके ज्ञाता, जिन्हें केवली कहें सभी;
सब पदार्थ जो जानें, पर न जान सकता कोई जिनको,
स्मरण में न आ सकते हैं जो, करता हुं सुमरन उनको. ३४.
लंध्य न औरोंके मनसे भी, और गूढ गहरे अतिशय,
धनविहीन जो स्वयं किन्तु, जिनका करते धनवान विनय;
जो इस जगके पार गये पर, पाया जाय न जिनका पार,
एसे जिनपति के चरणोंकी, लेता हूँ मैं शरण उदार. ३५.
* ज्वार = भारती

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९२ ][ पंचस्तोत्र
मेरु बडासा पत्थर पहले, फिर छोटासा फलस्वरूप,
और अन्त में हुआ न कुलगिरि, किन्तु सदासे उन्नत रूप;
इसी तरह जो वर्धमान हैं किन्तु न क्रमसे हुआ उदार,
सहजोन्नत उस त्रिभुवन - गुरुको, नमस्कार है बारम्बार. ३६.
स्वयं प्रकाशमान जिस प्रभुको, रात दिवस नहिं रोक सका,
लाघव गौरव भी नहिं जिसको, बाधक होकर टोक सका;
एकरूप जो रहे निरंतर, कालकलासे सदा अतीत,
भक्तिभार से झुठकर उसकी, करुं वंदना परम पुनीत. ३७.
इस प्रकार गुणकीर्तन करके, दीन भावसे हे भगवान,
वर न मांगता हुं मैं कुछ भी, तुम्हें वीतरागी वर जान;
वृक्षतले जो जाता है, उस पर छाया होती स्वयमेव,
छांहयाचना करनेसे फिर, लाभ कौनसा हे जिनदेव? ३८.
यदि देनेकी इच्छा ही हो, या इसका कुछ आग्रह हो,
तो निजच रनकमलरत निर्मल बुद्धि दीजिए नाथ अहो;
अथवा कृपा करोगे ही प्रभु, शंका इसमें जरा नहीं,
अपने प्रिय सेवक पर करते, कौन सुधी जन दया नहीं. ३९.