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केवल–णाण वि लहु लहइ सासय–सुक्ख–णिहाणु ।। ९०।।
पामे केवळज्ञान झट, शाश्वत सौख्यनिधान.
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द्रव्यनी उपासना करे छे, सेवा करे छे, तेने पर्यायमां शुद्धता प्रगट थाय छे, ए
शुद्धताथी ज जाण्युं के त्रिकाळी द्रव्य शुद्ध छे. पर्यायमां शुद्धता प्रगट थया वगर क्यांथी
जणाय के द्रव्य शुद्ध छे? माटे ज कह्युं के पर्यायमां द्रव्यनी सेवा करीने तेने शुद्ध जाणवो
ते द्वादशांग वाणीनो सार छे.
जणाय छे. अहो! चारे पडखेथी सत्य ऊभुं थाय छे. दिव्यज्ञाननी शी वात? स्वभावने
शी मर्यादा? लोकालोक तो शुं पण तेथी अनंतगुणा लोकालोक होय तेने पण जाणवानुं
ज्ञानमां सामर्थ्य छे. स्वतः स्वभाव छे, सहज ताकात छे. जड परमाणुमां पण एक
समयमां आखा ब्रह्मांडमां जवानी ताकात छे, तो ज्ञाननी ताकातनुं शुं कहेवुं? जेनो जे
स्वभाव होय तेमां मर्यादा न होय.
देव होय तोपण ते पूज्य नथी. माटे ज कह्युं छे के सम्यग्दर्शन सहित नरकवास पण
भलो छे अने सम्यग्दर्शन विना स्वर्गनो वास पण भलो नथी. सम्यग्दर्शन थयुं तेनो
तो मोक्ष थई गयो.
आवी जाय छे. बहार क्यांय शोधवा जवुं पडतुं नथी.
ईन्द्रियसुखनो द्रष्टिमांथी त्याग थई गयो.
परचीजनो मालिक थतो नथी. मिथ्यात्वदशामां शरीर अने परद्रव्यमां अहंकार, ममकार
करतो ते हवे आत्मामां अहंकार अने तेना गुणोमां ममकार करवा लाग्यो.
ईष्ट-अनिष्टनी द्रष्टि छोडीने स्वभावप्राप्तिनो उद्यमी थई जाय छे. द्रष्टिए गुलांट खाधी
त्यां बधुं बदलाई गयुं. तेनी महिमा केम करवी?
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पहोंचाडी दे छे.
चारित्र आदि सम्यग्दर्शन सहित होय तो तेनी किंमत महारत्न समान थई जाय छे.
नथी.
त्याज्य कहा है. यदि चंचल नेत्रवाली युवतियोंके यौवन
न ढलता होता, यदि राजाओंकी विभूति बिजलीके
समान चंचल न होती, अथवा यदि यह जीवन वायुसे
उत्पन्न हुई लहरोंके समान चंचल न होता तब कौन
ईस सांसारिक सुखसे विमुख होकर जिनेन्द्रके द्वारा
उपदिष्ट तपश्चरण करता!
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सो कम्मेहिं ण बंधियउ संचिय–पु व विलाई
कर्मबंध ते नव करे, पूर्वबद्ध क्षय थाय. ९१.
कदी मरण पण थतुं नथी. आत्मा अनादि अनंत अजन्म अने अमरण स्वभावी छे.
एवा गुणस्वभावी आत्मामां जे स्थिर थाय छे ते मुक्त थाय छे.
नवा कर्म बंधाता नथी अने जूना कर्मोनो नाश थई जाय छे.
पूर्वनी अशुद्ध अवस्थानो नाश थाय छे. निर्मळतानो उत्पाद, मलिनतानो व्यय अने
ध्रुव तो पोते त्रिकाळ छे. आवा उत्पाद-व्यय ते धार्मिक क्रिया छे. जैनधर्मनी आ क्रिया
छे. चैतन्यबिंब ध्रुव स्वभाव सत्तामां रुचि करीने ते रूप परिणति करीने स्थिर थवुं ते
संवर निर्जरारूप जैनधर्मनी धार्मिक क्रिया छे. लाखो शास्त्रो लखवानो हेतु-सार आ
क्रिया करवानो छे.
जन्म-मरणथी रहित छे. आत्मा अस्तित्व, वस्तुत्व आदि सामान्यगुण (के जे गुण
बधा द्रव्यमां होय) अने ज्ञान-दर्शन आदि विशेष गुणोथी सहित छे. आत्मा
सामान्यविशेष गुणोनो मोटो समूह छे, तेमां एकाग्र थतां संवर-निर्जरा प्रगट थाय छे.
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दशामां जीवनी रुचि पुण्य-पाप आदिमां छे तेथी आनंदगुणनुं परिणमन दुःखरूपे थाय
छे. कोईपण गुणनी पर्याय एक समय पण न होय एम त्रणकाळमां कदी बनतुं नथी.
माटे आनंदगुणनी पर्याय तो दरेक समये होय छे पण ते अज्ञानदशामां दुःखरूपे छे
अने स्वभावनी श्रद्धा थतां आनंदगुणनी पर्याय पण मुख्यपणे आनंद- रूपे परिणमे
छे, गौणपणे साधकने दुःख छे पण ते वात अहीं गौण छे.
के सम्यग्दर्शन आखा-पूर्ण द्रव्यनी प्रतीति करे छे तेथी द्रव्यमां रहेलां अनंत गुणोनुं
परिणमन पण अंशे निर्मळ थई जाय छे.
अजर-अमर छे तो तेना गुण पण अजर-अमर छे अने गुण अजर-अमर छे तो
द्रव्य अजर-अमर छे.
सेकंडना असंख्यातमां भागमां अनंतगुणोनी अंशे व्यक्त पर्याय प्रगट थई जाय.
अने शरीर तथा कर्म तो तद्न भिन्न अजीवतत्त्व छे. आस्रव पण अनित्य तादात्म्यनी
अपेक्षाथी आत्मा साथे एकरूप देखाय छे पण नित्य तादात्म्यभावनी अपेक्षाए तो ते
पर्याय पण संयोगीक छे-परद्रव्य छे. कर्ताकर्म-अधिकारनी ६९-७० गाथामां पण आ
वात लीधी छे. केम के ए आत्मानुं स्वरूप नथी.
स्वभावनी द्रष्टिथी जुओ तो पाणी शुद्ध ज देखाय छे. मेलप छे ए तो माटीनो भाग
छे, पाणीनो नहि. तेम वर्तमानमां आत्मा शुभाशुभ भावो सहित छे तेने
भेदविज्ञाननी शक्तिथी शरीर, कर्म अने शुभाशुभ-रागादिथी रहित जोई शकाय छे.
ज्ञायकभाव उपादेय छे. शरीरादि परद्रव्य तो ज्ञेय छे अने रागादि आत्मानी अवस्थामां
होवा छतां दुःखरूप भाव छे माटे हेय छे, आश्रय करवा लायक नथी. ए ज्ञेय अने हेय
भावोथी रहित निर्मळ शुद्धात्मा उपादेय छे.
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व्यवहार कही छे.
आत्माने) द्रष्टिमां पकडयो अने तेमां आगळ वध्यो तेने हवे शुं बाकी रहे? श्रावकने
पडिमा होय छे ए तो व्यवहार छे पण अंदरमां स्थिरताना अंशो वधे छे ए खरेखर
पडिमा छे. आगळ वधतां छठ्ठा प्रमत्त गुणस्थानमां स्थिरता विशेष वधी जाय छे अने
प्रत्याख्यान कषायनो नाश थाय छे. सातमा अप्रमत्त गुणस्थानमां छठ्ठाथी पण विशेष
स्थिरता वधी जाय छे-एम वधतां-वधतां बारमा गुणस्थानमां वीतरागता थतां
अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान थई जाय छे.
‘तुं एक आत्मा संबंधी ज प्रश्न पूछ! तेनो ज उत्तर मांग. मात्र जाणवाना विषयमां
आगळ वधीने शुं करीश? आत्माने तो पहेलां समजी ले!’ मोक्षना प्रेमीनुं ए कर्तव्य छे
के आत्मा संबंधी ज प्रश्न करे. आत्मानी समजण वगर ध्यान पण व्यर्थ छे.
तह कम्मेहिं ण लिप्पियइ जइ रइ अप्प–सहावि ।। ९२।।
लिप्त न थाये कर्मथी, जे लीन आत्मस्वभाव.
अधिकारनी २०६ गाथामां लीधुं छे के “तुं आत्मानी प्रीति कर, आत्मामां संतुष्ट था,
तेमां ज तृप्ति पाम, तने उत्तम सुख थशे.”
ने! तारो भगवान अनंती सिद्ध पर्यायने अंतरमां राखीने बेठो छे ए सिद्धगीरी उपर
चड तो तारी जात्रा सफळ थशे. शत्रुनो जय करनारो शत्रुंजय पण तारो भगवान
आत्मा छे तेनी यात्रा कर! अशुभथी बचवा शुभभाव आवे. न आवे एम नथी पण
अंतरमां नक्की निर्णय राखजे के स्वाश्रय विना कदी मुक्ति नथी, कल्याण नथी.
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स्वभावमां लीन होय छे अने राग-द्वेषथी भिन्न होय छे, तेथी कर्मोथी बंधाता नथी.
४१ प्रकृतिनो बंध थतो नथी. सम्यग्द्रष्टि लडाईमां ऊभो होय तोपण जे कर्मोथी ते
बंधातो नथी ते ज कर्मोथी परद्रव्यनी अहंबुद्धि करनारो अज्ञानी बंधाय छे. अनंत
संसारने वधारनारा चीकणां कर्मोथी बंधाय छे, ज्ञानी बंधाता नथी.
नथी. तेथी धर्मीने कर्मोनो बंध थतो नथी अने स्वभावमां रमणताने लीधे वीतरागता
वधती जाय छे अने अस्थिरतानो जे राग छे ते घटतो जाय छे.
सर्व दिशाओमां चाल्या जाय छे, खेद छे के तेवी ज
रीते मनुष्य पण कोई एक कुळमां स्थित रहीने पछी
मृत्यु पामीने अन्य कुळोनो आश्रय करे छे. तेथी
विद्वान मनुष्य तेने माटे कांई पण शोक करता नथी.
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श्री योगीन्दु मुनिराज कहे छे के शमसुखभोगी ज निर्वाणनुं पात्र छे.
कम्मक्खउ करि सो वि फुडु लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ९३।।
कर्म क्षय निश्चय करी, शीघ्र लहे शिववास.
जूठुं, चोरी आदिना भाव ते पाप छे अने दया-दान आदिना भाव ते पुण्यभाव छे,
तेनाथी पण रहित अंदर शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान-आनंदस्वरूप भगवान आत्मा बिराजे
छे तेनी अंदरमां रुचि थवी अने तेनो अनुभव करवो ते धर्म छे.
मिथ्याद्रष्टि जीव आवा आनंदस्वरूपने भूलीने शुभाशुभ विकार ज मारुं स्वरूप छे अने
परद्रव्यमां मारुं सुख छे एवी मिथ्या मान्यता सेवी रह्यो छे, तेने सर्वज्ञ परमेश्वर
केवळज्ञानी भगवान कहे छे के भाई! परद्रव्य तारी चीज नथी अने पुण्य-पाप ए
पण विकार छे, कृत्रिम उपाधि-मेल छे. ते तारी चीजमां नथी. तुं तो अतीन्द्रिय सुखनो
सागर छे.
आत्मामां शुं छे तेनो विचार न कर्यो.
धर्मी छे अने अतीन्द्रिय ज्ञान आनंद आदि तेना धर्मो छे, पण आ जीवे अनंतकाळमां
एक सेकंड पण पोताना धर्मोनी रुचि करी नथी अने पुण्य-पापनी रुचि छोडी नथी.
धर्मी भले
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अने आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना स्वाद साकरना गांगडानी जेम धर्मीने मीठा लागे
छे तेथी धर्मी तेमां लीन थाय छे. शरीर तो अजीवतत्त्व छे अने पुण्य पाप ए
आस्रवतत्त्व छे तेनाथी रहित हुं तो जीवतत्त्व छुं एवा द्रष्टिवंत धर्मी पोताना शम-
सुखमां लीन थईने वारंवार आत्मानो अनुभव करे छे.
मोक्षमार्गमां आकुळता न होय. मोक्षमार्गमां तो शमसुखमां लीनतारूप सुख होय.
वीतरागमार्ग तो न्यायमार्ग छे. न्यायथी वीतरागदेव कहे छे के आ आत्मा
अनादिकाळथी पोताना आत्माने भूलीने जेटलां पुण्य-पाप भाव करे छे तेनाथी ते
दुःखी छे, अज्ञानी तेनाथी पोताने सुखी माने छे. गांडानी होस्पीटलमां एक गांडो
बीजाने डाह्यो कहे तेथी शुं ए डाह्यो थई जाय? तेम अज्ञानी करोडपतिने सुखी कहे
तेथी शुं ए सुखी छे?
ज्ञानी अभ्यास करे छे अने तेथी कर्मनो नाश करीने शीघ्र निर्वाणपदने प्राप्त थाय छे.
ते अजीव तत्त्व, आत्मामां पुण्य-पापभाव थाय ते आस्रवतत्त्व अने आत्मानी द्रष्टि
अने अनुभव करवो ते संवर-निर्जरातत्त्व अने ए संवर-निर्जरा उत्कृष्ट थई जाय
त्यारे पूर्णानंद प्रगट थाय ते मोक्षतत्त्व-आम नवेय तत्त्व अहीं आवी गया.
भव जीवे कर्या. कागडा, कूतराना भवमांथी मांड अनंतकाळे मनुष्यपणुं मळे तो तेमां
पण आ वात न समजे एटले फरी एनी ए ज दशाने प्राप्त थाय छे.
थशे त्यारे सीमंधर भगवाननो निर्वाण थशे. तेमना समवसरणमां अत्यारे लाखो
केवळी, गणधरो, मुनिवरो बिराजे छे. इन्द्रो उपरथी भगवाननी वाणी सांभळवा आवे
छे. ए ज आ वाणी छे, संतोनी पण ए ज वाणी छे.
करीने आ मनुष्यपणामां अवसर मळ्यो छे तेने जे गुमावी दे छे एवा मनुष्यो अने
निगोदना जीवमां
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कदी जातजातना शरीररूपे थतो नथी.
भरेलो ते तुं जीव छो पण जेम हरणानी नाभीमां कस्तूरी छे पण तेनी तेने किंमत नथी,
तेम तुं पोते भगवान आत्मा, तारामां सर्वज्ञपद पडयुं छे पण तेनी तने किंमत नथी.
माळाने पोतानो भरोसो आवतो नथी. बीडी वगर चाले नहि, दाळ शाक आदि रसोई
सारी न थाय तो न चाले अने जो सारी होय, दूधपाक पूरी होय तो तो हरखाई जाय
पण भाई! ए तो छ कलाके विष्टा थई जनारी वस्तु छे अने शरीर तेने विष्टा
बनावनारो संचो छे माटे ए बधुं माटी धूळ छे तेमां क्यांय तारुं सुख नथी भाई!
अतीन्द्रिय आनंद आवे ते आत्मधर्म छे.
पूज्य गुरुदेवः- धंधामां केटली माथाकूट करे छे! व्याज तो काढे पण चक्रवर्ती
थईने साकरनो स्वाद लेतो नथी. खारो थईने मीठांनो स्वाद लेतो नथी. भिन्न रहीने
ज्ञान करे छे अने पोताना स्वभावमां तो अभेद थईने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद ले
छे. आ बधुं एणे समजवुं पडशे.
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कम्नक्खउ करि सो वि फुडु लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ९३।।
कर्म क्षय निश्चय करी, शीघ्र लहे शिववास.
अने अनुभव करतां आनंदनो स्वाद आवे. कोई पण पदार्थनो जे स्वभाव होय तेनो
स्वाद आवे. आत्मा पण एक अतीन्द्रिय ज्ञान-आनंदस्वरूप वस्तु छे-पदार्थ छे, तेमांथी
अतीन्द्रिय ज्ञान, आनंद अने शांतिनो स्वाद आवे छे.
आनंदनो स्वाद आवे छे. त्यांथी मोक्षमार्गनी शरूआत थाय छे. पछी अंतरस्वरूपमां
वारंवार एकाग्रता करतां आस्रव थोडो थाय छे अने निर्जरा विशेष थाय छे. मारा
स्वभावमां ज मारो आनंद छे एम जाणे त्यां आनंद माटे ललचाय छे ए जीव
अतीन्द्रिय आनंदना स्वादमां वृद्धि करे छे एटली तेने निर्जरा वधारे थाय छे अने
आस्रव ओछो थाय छे. आ साधकजीवनी दशा छे.
साधक जीवनी दशा छे.
मिथ्याद्रष्टिनी बाधकदशा छे.
नथी एवुं
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ते भगवान परमात्मा छे, अने स्वभावनी द्रष्टिथी स्वाश्रय प्रगट थयो पण हजी साथे
थोडो पराश्रय रही गयो ते साधकदशानो व्यवहार छे.
अनंतकाळमां जीवे बहार ज डोकियां मार्या छे. स्वाश्रय क्यारेय कर्यो ज नथी.
जाय. सीधी वात छे. भगवान आत्मा पोते सीधो-सरळ चिदानंद भगवान पडयो छे
“सत् सरळ छे, सत् सर्वत्र छे अने सत् सुलभ छे” पण जीवे पोते एवुं दुर्गम करी
नाख्युं छे के के सत् वात सांभळवी पण एने मोंघी पडे छे.
कांई नवो धर्म नथी कर्यो.
प्रदेशमां अनंतगुणनो पिंड महाप्रभु बिराजमान छे. स्वभावनी मूर्ति छे तेनुं शुं कहेवुं?
अरूपी चित्पिंड, चिद्घन, विज्ञानघन वस्तु छे. आकाशना अमाप... अमाप अनंत
प्रदेशोनी संख्या करतां अनंतानंत गुणो एकेएक आत्मामां छे. एवा आत्मानो आश्रय
लईने सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट करे तेने आस्रव घणो घटी जाय छे अने संवर-निर्जरा
वधी जाय छे. कारण के अनंतानंत गुणोमांथी बहु थोडा-अमुक ज गुणोमां विपरीतता
रही छे तेथी आस्रव-बंध थोडो थाय छे अने अनंत... अनंत...गुणनो आदर अने
बहुमानथी अनंता गुणोनी निर्मळ पर्याय प्रगट थई छे तेथी संवर-निर्जरा अधिक
थई गई छे. तेथी ज निश्चयथी सम्यग्द्रष्टिने अबंध कह्यो छे, केम के स्वभावमां बंध
नथी अने तेनी द्रष्टिमां बंध नथी तेथी बंधना भावने ज्ञेयमां नाखीने सम्यग्द्रष्टिने
अबंध कह्यो छे. रागथी, निमित्तथी तथा भेदथी भिन्न अधिक आत्मानी द्रष्टि थई तेने
मोक्षमार्ग तो तेना हाथमां आवी गयो.
द्रष्टिना जोरथी धर्मीनुं ज्ञान जाणे छे के पूर्ण आनंदनी प्राप्ति विना हुं अतृप्त छुं.
प्राप्ति विना अतृप्त छे. तेथी जेने पूर्णानंदनी झंखना छे एवा मोक्षार्थी-धर्मी जीवो
निर्वाणनुं लक्ष राखीने शम-सुखने भोगवता थका, आत्मानो विशेष विशेष अनुभव
करतां करतां शीघ्र निर्वाणने पामे छे.
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नचावे छे अने कर्मचेतना तथा कर्मफळचेतनाने छोडे छे.
छे एम मानीने तेने वळग्यो छे. तेथी ज अमृतचंद्राचार्ये ४१३ गाथामां कह्युं छे के
अज्ञानी जीवो अनादिरूढ-व्यवहारमूढ अने निश्चय अनारूढ छे, अने ज्ञानी व्यवहारमूढ
नथी, पण व्यवहारने जाणनार छे. निश्चय वस्तु द्रष्टिमां आव्या पछी थोडी अस्थिरताने
लीधे राग आवे छे ते व्यवहार छे एम ज्ञानी जाणे छे. निश्चय वगर व्यवहार
त्रणकाळमां होतो ज नथी.
मुनिराज कहे छे के ‘प्रभु! तुं ज भगवान छो’ पण तेने पोतानुं स्वरूप जोवानी
फुरसद नथी. अरे! तेनी सन्मुख द्रष्टि करवी, ए मने ठीक छे, तेमां मारुं हित छे एम
पण तेने हजी बेसतुं नथी, अने व्यवहारनी ज रुचि रहे छे, पण तेमां तारुं अहित
थाय छे भाई!
जोइज्जइ गुण–गणि–णिलउ णिम्मल–तेय–फुरंनु ।। ९४।।
निर्मळ तेजोमय अने अनंत गुणगणधाम.
आवो ते आत्मा क्षेत्रथी पण केवडो मोटो हशे? तेने मुनिराज कहे छे के भाई! मोटा
क्षेत्रथी आत्मानी महानता नथी. तेनी महानता तो गुणनी अचिंत्यताथी छे.
स्फुरायमान छे, अति पवित्र छे. आवा आत्माने अंतरज्ञान अने श्रद्धाथी जोवो जोईए.
वस्तुद्रष्टिथी जुओ तो आत्मा त्रिकाळ निरावरण, स्फटिक जेवो शुद्ध निर्मळ छे. वस्तुने वळी
आवरण केवा? आत्मा तो त्रिकाळ निरावरण, सामान्य-विशेष गुणोनो सागर, ज्ञाता-
द्रष्टा, वीतराग, परमानंदमय, परम वीर्यवान अने शुद्ध समकित गुणधारी छे.
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चमकता आत्मामां चित्तने स्थिर करीने ध्यान करवुं जोईए.
स्वरूपनी द्रष्टि थई छे एटली ध्यान करवानी योग्यता प्रगटी छे. सम्यग्द्रष्टिने
स्वरूपाचरण चारित्र होय छे तेथी चोथा गुणस्थानथी ज ध्याननी शरूआत थई जाय
छे. ते पहेलां ध्यान होतुं नथी. केम के सम्यक् श्रद्धान विना आत्मानो साचो प्रेम अने
रुचि होता नथी तेथी आत्मानी लगनी लागती नथी.
जेने आवडे छे तेने आत्मानी सवळी रुचि थतां आत्मानुं ध्यान करतां केम न आवडे?
आवडे ज. उलटा ध्यानमां तो ताकात मोळी पडी जाय छे अने सवळा ध्यानमां ताकात
उग्रता धारण करे छे.
तरणातुल्य-तुच्छ भासे छे. आत्माना आनंद आगळ ज्ञानीने आखी दुनिया दुःखी
लागे छे तेथी ज्ञानी दुनियाना कोई पदने ईच्छता नथी.
अर्थात् रूद्र अने विधाता अर्थात् ब्रह्मा तथा आदि
शब्दथी मोटा मोटा पदवी धारक सर्व काळ वडे
कोळीओ बनी गया ते संसारमां शुं शरणरूप छे?
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छे तेथी आत्मज्ञान सहितना शास्त्रज्ञाननी मुख्यता छे.
सो जाणइ सत्थई सयल सासय–सुक्खहं लीणु ।। ९५।।
ते ज्ञाता सौ शास्त्रनो, शाश्वत सुखमां लीन.
अनुभव करे, आत्माने जाणे तेणे सर्व जाण्युं.
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे एम प्रथम निर्णय करीने, तेनी
सन्मुख थईने, जेणे अतीन्द्रिय आनंदनो अंशे अनुभव कर्यो अने ते द्वारा जाण्युं के आत्मा
अतीन्द्रियज्ञान अने आनंदमय छे तेणे सर्व जाण्युं. एकने जाण्यो तेने सर्व जाण्युं.
भाई! त्रिकाळी आनंद आदि अनंतगुणरूप धर्मनो धरनार तुं धर्मी छो. आवा पोताना
स्वभावने जे अनुभव सहित जाणे तेणे बार अंग अने चौदपूर्व जाण्या कहेवाय.
कारण के बधां शास्त्रमां कहेवानो हेतु तो आत्मानुं ज्ञान करवुं ते ज छे.
स्वभावनो स्वाद ल्ये. आमां जाणवुं, रुचि अने आनंदनुं वेदन आ त्रण वात आवी गई.