Hoon Parmatma-Gujarati (Devanagari transliteration). Pravachan: 37-40.

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१९०] [हुं
हवे ९० मी गाथामां योगीन्द्रदेव कहे छे के समकिती ज पंडित अने प्रधान छे.
जो सम्मत्त–पहाण बुहु सो तइलोय–पहाणु ।
केवल–णाण वि लहु लहइ सासय–सुक्ख–णिहाणु ।। ९०।।
जे सम्यक्त्वप्रधान बुध, ते ज त्रिलोकप्रधान;
पामे केवळज्ञान झट, शाश्वत सौख्यनिधान.
९०.
आहाहा...! दिगंबर संतोए पण कांई काम कर्या छे! बहु थोडां शब्दोमां आखो
सार भरी दीधो छे.
आ तो योगसार छे. पोताना आश्रये जे पर्याय प्रगट थाय तेनुं नाम ‘योग’
छे, ते योगनो आ सार छे. पराश्रित व्यवहार ते योगसार नथी पण स्वाश्रित निश्चय
ते योगसार छे.
जे सम्यग्दर्शननो स्वामी छे-जे आत्मा समज्यो छे ते पंडित छे, बाकी
अगियार अंग ने चौदपूर्व भणी गयेलो होय तोपण ते पंडित नथी. आत्माना आश्रय
वगर अगियार अंग आदिनुं ज्ञान पण नाश पामी जाय छे अने जीव निगोदमां पण
चाल्यो जाय छे. अक्षरना अनंतमां भागे ज्ञाननो क्षयोपशम थई जाय छे. माटे
आत्मज्ञान वगरनुं एकलुं अगियार अंगनुं ज्ञान कांई कल्याणकारी नथी केमके ते
पराश्रित छे.
ज्ञानमूर्ति भगवान आत्मामां एकाग्र थईने तेमांथी ज्ञाननो कण काढवो ते कण
पण कल्याणकारी छे. (आ ‘कण’ कहेतां कणिका याद आवी) बनारसीदासजीए
परमार्थवचनिकामां लख्युं छे के स्वरूपना द्रष्टि-ज्ञानपूर्वक चारित्रनी कणिका जागे तो
मोक्षमार्ग छे, नहि तो मोक्षमार्ग नथी. बनारसीदासजी एक बहु मोटा महापंडित थई
गया; यथार्थ वस्तुस्वरूप लखतां गया.
अहीं कहे छे के सम्यग्द्रष्टि ज जगतमां प्रधान (मुख्य) छे अने पंडित छे.
सम्यक्स्वरूप पूर्ण शुद्ध तत्त्वनी अंतर्मुख थईने स्वाश्रये जेणे सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं ते
ज जगतमां स्वामी एटले प्रधान अने पंडित छे. आत्मा जाण्यो तेणे बधुं जाण्युं. ‘एक
जाने सब होत है, सबसे एक न होय.’ सम्यग्द्रष्टि तो केवळज्ञान लेशे. अंदरमां सादि
अनंतकाळनी अनंती केवळपर्याय ज्ञानमां पडी छे तेथी जेणे ज्ञायकनी द्रष्टि करी ते एक
बे भवमां केवळज्ञान लेशे...लेशे अने लेशे ज.
जेनी द्रष्टिमां पोतानो आत्मा श्रेष्ठ छे ते जीव जगतमां प्रधान छे अने ते ज
पंडित छे. श्रावकरत्नकरंडमां समकितीनी बहु महिमा करी छे के समकित तो परम
आधार छे तेना वगर ज्ञान-व्रत-तप-चारित्र आदि बधुं फोगट छे, कांकरा समान छे.
चैतन्यरत्ननी द्रष्टि अने निर्विकल्प अनुभूति वगर बधुं व्यर्थ छे.
छढाळामां पण समकितनी महिमा गातां लख्युं छे के स्वभावनी गरिमा ज
एवी छे के तेना द्रष्टिवंत सम्यग्द्रष्टिने भले जरापण संयम न होय तोपण देवो
आवीने तेने पूजे छे.
सम्यग्द्रष्टिनी द्रष्टि ज्यां पडी छे एवा स्वभावमां ज ते रहेलां छे, रागमां
रहेलां नथी.

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परमात्मा] [१९१
सम्यग्द्रष्टिने स्वभावनी ज रुचि छे, रागनी रुचि नथी. आवा जगत्श्रेष्ठ सम्यग्द्रष्टि
अविनाशी सुखना निधान एवा केवळज्ञानने शीघ्र प्राप्त करे छे.
सम्यग्द्रष्टि जिनेश्वरना लघुनंदन छे. बनारसीदासजी समयसार नाटकमां लखे छे
‘भेदविज्ञान जग्यो जिनके घट, शीतल चित्त भयो जिम चंदन, केली करे शिवमारगमें,
जगमांहि जिनेश्वरके लघुनंदन.’ मुनिराज मोटा पुत्र छे अने सम्यग्द्रष्टि नाना पुत्र छे.
सम्यग्द्रष्टिनी आवी महिमा छे ते ज्यां सुधी अंतरमां ख्यालमां न आवे अने
पोताना क्षयोपशम ज्ञाननी के रागनी मंदतानी अधिकता रह्यां करे, सम्यग्द्रष्टि माराथी
कोई अधिक महान छे एवुं बहुमान न आवे त्यां सुधी तेने स्वद्रव्यनो आश्रयभाव
प्रगट थतो नथी.
सम्यग्दर्शन सर्व गुणोमां मुख्य गुण छे. ‘दंसणमूलो धम्मो.’ धर्मनुं मूळ
सम्यग्दर्शन छे. तेथी ज अहीं (स्वाध्यायमंदिरमां) कुंदकुंद आचार्यना चार बोल मोटा
अक्षरमां लख्यां छे. (१) दंसणमूलो धम्मो. (२) द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि. (३)
दर्शनशुद्धि ते ज आत्मसिद्धि अने (४) पूर्णताने लक्षे शरूआत ते ज वास्तविक
शरूआत छे. चारेय वाक्य सारमां सार छे.
धर्म चारित्र छे पण तेनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. अने ‘मूलं नास्ति कुत्तो शाखा?
ज्यां सम्यग्दर्शनरूपी मूळ ज नथी त्यां व्रत, तप, संवर, निर्जरा आदिनी शाखा क्यांथी
होय? एकडा वगर मींडा शुं कामना? मुख्यता एकडानी छे. एकडा सहितना मींडानी
किंमत छे तेम सम्यक्त्व सहितना ज्ञान अने चारित्र मुक्तिनुं कारण छे.
सम्यग्दर्शननुं ध्येय स्वरूपमां छे, द्रष्टि द्रव्यमां छे, परिणमन पण द्रव्य तरफ छे
अने रागथी मुक्त छे तेथी सम्यक् द्रष्टि क्रमे क्रमे मोक्ष तरफ लई जाय छे. अर्थात्
सम्यग्दर्शन अबंधपरिणामनी उग्रता तरफ लई जाय छे. केम के अबंधस्वभावी द्रव्यनी
द्रष्टि थई एटले परिणाम अबंधस्वभाव तरफ ज छे अने अबंधपरिणाम ते ज
मोक्षमार्ग छे.
जेम मूळ विना वृक्ष होतुं नथी तेम सम्यक्त्व विना धर्म होतो नथी ज्ञान घणुं
होय पण सम्यग्दर्शन न होय तो ते ज्ञानी, पंडित नथी. अने एक देडकुं भले तेने
नवतत्त्वना नामनी पण खबर न होय पण आत्मानो आश्रय करीने सम्यग्दर्शन प्रगट
करी शके छे. आ अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप ते हुं छुं, तेनाथी विरुद्ध दुःख ते हुं नहि
एटलुं समजायुं तेमां बधुं आवी गयुं.
भगवान आत्माने अतीन्द्रिय आनंदनो ज्यां पर्यायमां स्पर्श थाय छे त्यां नवेय
तत्त्वनुं ज्ञान थई जाय छे. अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थतां अतीन्द्रिय ज्ञानानंदस्वरूप
आखो आत्मा ते हुं जीवद्रव्य निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते संवर-निर्जरा तत्त्व,
आनंदथी विरूद्ध आकुळतारूप-दुःखरूप भाव ते आस्रव-बंध तत्त्व अने आनंदमूर्ति
निजद्रव्यथी जुदां अचेतनद्रव्य ते अजीवद्रव्य-आम नवेय तत्त्वनुं यथार्थ ज्ञान
सम्यग्दर्शन थतां एकसाथे थई जाय छे.
समयसार छठ्ठी गाथामां आत्माने परद्रव्यथी भिन्न उपास्यमान कह्यो छे. द्वादशांग

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१९२] [हुं
वाणीनो सार ज आ छे के आत्माने जाणवो. आत्मा तो शुद्ध छे ज. जे शुद्ध
जाणे तेने लाभ छे. जे परद्रव्यनुं लक्ष छोडी पोताना स्वभावनुं लक्ष करी पर्यायमां
द्रव्यनी उपासना करे छे, सेवा करे छे, तेने पर्यायमां शुद्धता प्रगट थाय छे, ए
शुद्धताथी ज जाण्युं के त्रिकाळी द्रव्य शुद्ध छे. पर्यायमां शुद्धता प्रगट थया वगर क्यांथी
जणाय के द्रव्य शुद्ध छे? माटे ज कह्युं के पर्यायमां द्रव्यनी सेवा करीने तेने शुद्ध जाणवो
ते द्वादशांग वाणीनो सार छे.
सर्वज्ञ भगवान तो दरेक जीवने शुद्ध ज देखे छे पण तेथी तने शुं लाभ? तुं
शुद्ध जाण तो लाभ थाय. सर्वज्ञ भगवानना ज्ञानमां तो एक एक तत्त्व जेम छे तेम
जणाय छे. अहो! चारे पडखेथी सत्य ऊभुं थाय छे. दिव्यज्ञाननी शी वात? स्वभावने
शी मर्यादा? लोकालोक तो शुं पण तेथी अनंतगुणा लोकालोक होय तेने पण जाणवानुं
ज्ञानमां सामर्थ्य छे. स्वतः स्वभाव छे, सहज ताकात छे. जड परमाणुमां पण एक
समयमां आखा ब्रह्मांडमां जवानी ताकात छे, तो ज्ञाननी ताकातनुं शुं कहेवुं? जेनो जे
स्वभाव होय तेमां मर्यादा न होय.
सम्यग्द्रष्टि चंडाल हो तोपण ते देव द्वारा पूजवा योग्य छे. अल्पकाळमां ते
चारित्र लईने मुक्ति प्रगट करशे. अने स्वद्रव्यनी द्रष्टि विनानो भले नवमी ग्रैवेयकनो
देव होय तोपण ते पूज्य नथी. माटे ज कह्युं छे के सम्यग्दर्शन सहित नरकवास पण
भलो छे अने सम्यग्दर्शन विना स्वर्गनो वास पण भलो नथी. सम्यग्दर्शन थयुं तेनो
तो मोक्ष थई गयो.
सम्यग्दर्शन थतां अनादिना अज्ञान अंधकारनो नाश थईने ज्ञानप्रकाश प्रगट
थाय छे. सम्यग्द्रष्टिने ‘सब आगमभेद सु उर बसे’ बधा आगमनो सार ज्ञानमां
आवी जाय छे. बहार क्यांय शोधवा जवुं पडतुं नथी.
अज्ञानदशामां जे संसार प्रिय लागतो हतो, ते ज संसार सम्यग्दर्शन थतां
त्यागवा योग्य देखावा लाग्यो. ईन्द्रियसुखनी रुचि पण टळी गई. त्रणलोकना
ईन्द्रियसुखनो द्रष्टिमांथी त्याग थई गयो.
सम्यग्दर्शन थतां जीव अनंत ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुख आदि संपत्तिनो स्वामी
बनी जाय छे अने ते अनंतगुणनो अंश पर्यायमां प्रगट थई जाय छे. पछी ते
परचीजनो मालिक थतो नथी. मिथ्यात्वदशामां शरीर अने परद्रव्यमां अहंकार, ममकार
करतो ते हवे आत्मामां अहंकार अने तेना गुणोमां ममकार करवा लाग्यो.
चैतन्यरवि-सम्यक्त्वसूर्य ऊगतां मिथ्यात्व अंधकार टळी जाय छे.
मिथ्यात्वदशामां सदा इष्टनी प्राप्ति अने अनिष्टना नाश माटे उद्यमी रहेतो हतो ते हवे
ईष्ट-अनिष्टनी द्रष्टि छोडीने स्वभावप्राप्तिनो उद्यमी थई जाय छे. द्रष्टिए गुलांट खाधी
त्यां बधुं बदलाई गयुं. तेनी महिमा केम करवी?
सम्यग्द्रष्टि गृहस्थदशामां पण क्यांय लेखाई जतो नथी, अंदरथी वैरागी रहे छे अने

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परमात्मा] [१९३
भेदविज्ञानने भावे छे अने धीरे धीरे निर्मळ थतो मुनि थईने केवळज्ञान सुधी
पहोंची जाय छे. सम्यग्दर्शन ते ज साचो मित्र छे, जे संसारना दुःखथी छोडावी निर्वाण
पहोंचाडी दे छे.
हवे अहीं आत्मानुशासननो दाखलो आपे छे के सम्यग्दर्शन विना शांतभाव,
ज्ञान, चारित्र आदि बधुं पथ्थर-कांकरा समान तुच्छ छे अने ए ज शांतभाव, ज्ञान,
चारित्र आदि सम्यग्दर्शन सहित होय तो तेनी किंमत महारत्न समान थई जाय छे.
आम मूळ किंमत सम्यग्दर्शननी छे तेथी सम्यग्दष्टि ज मुख्य छे, पंडित छे अने
जगत्श्रेष्ठ छे. आथी धर्मना मूळ तरीके सम्यग्दर्शन सिवाय बीजी कोई चीज महिमावंत
नथी.
* जीवनके क्षणभंगुर होने से ही संसारकी
सुखदायक वस्तुओंका कोई मूल्य नहीं है. ईसीसे ईन्हें
त्याज्य कहा है. यदि चंचल नेत्रवाली युवतियोंके यौवन
न ढलता होता, यदि राजाओंकी विभूति बिजलीके
समान चंचल न होती, अथवा यदि यह जीवन वायुसे
उत्पन्न हुई लहरोंके समान चंचल न होता तब कौन
ईस सांसारिक सुखसे विमुख होकर जिनेन्द्रके द्वारा
उपदिष्ट तपश्चरण करता!
(श्री सुभाषितरत्नसंदोह)

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१९४] [हुं
[प्रवचन नं. ३७]
अबंधस्वभावी निज–परमात्मानी द्रष्टि वडे
कर्मबंधननो क्षय कर
[श्री योगसार उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. १७-७-६६]
आ श्री योगसारजी शास्त्र चाले छे. ९१ मी गाथामां योगीन्द्रदेव कहे छे
केआत्मामां स्थिरता करवी ए ज संवर-निर्जरानुं कारण छे.
अजरु अमरु गुण–गण–णिलउ जहि अप्पा थिरु ठाइ ।
सो कम्मेहिं ण बंधियउ संचिय–पु व विलाई
।। ९१।।
अजर, अमर, बहु गुणनिधि, निजरूपे स्थिर थाय;
कर्मबंध ते नव करे, पूर्वबद्ध क्षय थाय. ९१.
जुओ! शुं कहे छे मुनिराज? आत्मा अजर अमर छे. अमर एटले शाश्वत ध्रुव
अकृत्रिम-अणकरायेली चैतन्यमूर्ति छे. तेने कदी जीर्णता लागु पडती नथी अने तेनुं
कदी मरण पण थतुं नथी. आत्मा अनादि अनंत अजन्म अने अमरण स्वभावी छे.
एवा गुणस्वभावी आत्मामां जे स्थिर थाय छे ते मुक्त थाय छे.
अनादिथी जीव पुण्य-पापना राग अने विकल्पमां स्थिर होवाथी तेने कर्मोनुं
बंधन छे. पण जे जीव शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी प्रतीति करीने तेमां स्थिर थाय छे तेने
नवा कर्म बंधाता नथी अने जूना कर्मोनो नाश थई जाय छे.
अहीं उत्पाद-व्यय-ध्रुव त्रणेय लई लीधा छे. आत्मा ध्रुव पोते अजर-अमर छे
तेमां द्रष्टि-ज्ञान-स्थिरता करतां कर्म रहित निर्मळ पर्यायनो उत्पाद थाय छे अने
पूर्वनी अशुद्ध अवस्थानो नाश थाय छे. निर्मळतानो उत्पाद, मलिनतानो व्यय अने
ध्रुव तो पोते त्रिकाळ छे. आवा उत्पाद-व्यय ते धार्मिक क्रिया छे. जैनधर्मनी आ क्रिया
छे. चैतन्यबिंब ध्रुव स्वभाव सत्तामां रुचि करीने ते रूप परिणति करीने स्थिर थवुं ते
संवर निर्जरारूप जैनधर्मनी धार्मिक क्रिया छे. लाखो शास्त्रो लखवानो हेतु-सार आ
क्रिया करवानो छे.
भगवान आत्मा जन्म-मरण रहित अविनाशी छे. शरीरना संयोगने लोको
जन्म कहे छे अने शरीरना वियोगने मरण कहे छे. आत्मा तो अनादि अनंत छे,
जन्म-मरणथी रहित छे. आत्मा अस्तित्व, वस्तुत्व आदि सामान्यगुण (के जे गुण
बधा द्रव्यमां होय) अने ज्ञान-दर्शन आदि विशेष गुणोथी सहित छे. आत्मा
सामान्यविशेष गुणोनो मोटो समूह छे, तेमां एकाग्र थतां संवर-निर्जरा प्रगट थाय छे.
आत्मामां एक आनंद नामनो विशेष गुण छे अने ते गुण आत्मानी सर्व हालतोमां

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परमात्मा] [१९प
छे, तो पछी प्रश्न ऊठे के आनंद केम थतो नथी? तो तेनुं कारण ए छे के अज्ञान-
दशामां जीवनी रुचि पुण्य-पाप आदिमां छे तेथी आनंदगुणनुं परिणमन दुःखरूपे थाय
छे. कोईपण गुणनी पर्याय एक समय पण न होय एम त्रणकाळमां कदी बनतुं नथी.
माटे आनंदगुणनी पर्याय तो दरेक समये होय छे पण ते अज्ञानदशामां दुःखरूपे छे
अने स्वभावनी श्रद्धा थतां आनंदगुणनी पर्याय पण मुख्यपणे आनंद- रूपे परिणमे
छे, गौणपणे साधकने दुःख छे पण ते वात अहीं गौण छे.
अनंतगुण समुदाय आत्मानी अंतर्मुख द्रष्टि वडे श्रद्धा-भरोसो-विश्वास करतां
आत्माना बधा गुणोनुं अंशे व्यक्त परिणमन सम्यग्दर्शननी साथे ज थई जाय छे. केम
के सम्यग्दर्शन आखा-पूर्ण द्रव्यनी प्रतीति करे छे तेथी द्रव्यमां रहेलां अनंत गुणोनुं
परिणमन पण अंशे निर्मळ थई जाय छे.
भगवान आत्मा प्रगट द्रव्य छे. प्रगट एटले ‘छे’ अने छे ते अस्तित्व-
वाळुं-सत्तावाळुं तत्त्व छे तो ए सत् तत्त्वना गुणो पण सत्-शाश्वत छे. आत्मा
अजर-अमर छे तो तेना गुण पण अजर-अमर छे अने गुण अजर-अमर छे तो
द्रव्य अजर-अमर छे.
मूळ वात तो ए छे के जीवे आ तत्त्वनो कोई दिवस विश्वास कर्यो नथी. भगवान
आत्माने पोतानी श्रद्धानी सराणे चडाव्यो नथी. जो श्रद्धामां आत्माने ले तो तो एक
सेकंडना असंख्यातमां भागमां अनंतगुणोनी अंशे व्यक्त पर्याय प्रगट थई जाय.
अज्ञानदशा वखते पण आत्माने शरीर अने कर्मथी रहित जुओ तो आत्मा शुद्ध
ज छे. पर्यायमां अशुद्धता छे ए तो आस्रवतत्त्व छे, ते ज्ञायकतत्त्वथी भिन्न तत्त्व छे
अने शरीर तथा कर्म तो तद्न भिन्न अजीवतत्त्व छे. आस्रव पण अनित्य तादात्म्यनी
अपेक्षाथी आत्मा साथे एकरूप देखाय छे पण नित्य तादात्म्यभावनी अपेक्षाए तो ते
पर्याय पण संयोगीक छे-परद्रव्य छे. कर्ताकर्म-अधिकारनी ६९-७० गाथामां पण आ
वात लीधी छे. केम के ए आत्मानुं स्वरूप नथी.
वर्तमानमां ज आत्मा शरीर, कर्म अने आस्रवथी भिन्न छे तो तेनाथी भिन्न
द्रष्टि करतां शुद्ध आत्मा अनुभवमां आवी शके छे. जेम माटीवाळा पाणीने, पाणीना
स्वभावनी द्रष्टिथी जुओ तो पाणी शुद्ध ज देखाय छे. मेलप छे ए तो माटीनो भाग
छे, पाणीनो नहि. तेम वर्तमानमां आत्मा शुभाशुभ भावो सहित छे तेने
भेदविज्ञाननी शक्तिथी शरीर, कर्म अने शुभाशुभ-रागादिथी रहित जोई शकाय छे.
रागादि भावो थवा ते आत्मानो अपराध छे, ते भगवान आत्माना स्वभावथी
विरूद्ध छे माटे ते हेय छे. हवे तेने हेय कह्या तो उपादय शुं? तो कहे छे-शुद्ध भगवान
ज्ञायकभाव उपादेय छे. शरीरादि परद्रव्य तो ज्ञेय छे अने रागादि आत्मानी अवस्थामां
होवा छतां दुःखरूप भाव छे माटे हेय छे, आश्रय करवा लायक नथी. ए ज्ञेय अने हेय
भावोथी रहित निर्मळ शुद्धात्मा उपादेय छे.
दरेक पासे वर्तमानमां पण द्रष्टि तो छे-नजर तो छे पण ते नजरमां राग अने

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१९६] [हुं
विकारने ज देखे छे. निजस्वभावथी विरूद्ध क्षणिक विकृत अवस्थाने देखे छे ते ज
द्रष्टिमां रागादि रहित भगवानने जुए तो भगवान शुद्ध ज देखाय छे. भगवान क्यां
अजाण्यो छे? क्यां ज्ञान विनानो छे तो तेने बीजा द्वारा जणाय? पोते ज पोताने
जाणी शके छे-देखी शके छे.
द्रव्य तो राग साथे एकत्व पामतुं नथी पण द्रव्यनी द्रष्टि थतां द्रष्टि पण राग
साथे एकत्व करती नथी. द्रष्टि शुद्ध संवर-निर्जरारूप थई ते आस्रव-बंधरूपे कदी न
थाय. आ श्रद्धा अने ज्ञानना बळथी सम्यग्द्रष्टि स्वभावमां स्थिर थवानो पुरुषार्थ करे
छे अने ए स्थिरता थवी ते ज संवर-निर्जरारूप मोक्षमार्ग छे. बाकी वर्षीतप आदि
क्रिया मोक्षमार्ग नथी.
स्वरूपना निर्विकल्प अनुभवकाळे धर्मीने घणी घणी निर्जरा थाय छे. लोको कहे
छे के शास्त्रना स्वाध्यायमां निर्जरा थाय छे पण भाई! पराश्रये निर्जरा क्यांथी थाय?
निर्जरा तो स्वरूपमां स्थिरता करवाथी ज थाय.
श्रोताः- अमृतचंद्र आचार्य कहे छे के हुं मारी परिणतिनी विशुद्धता माटे आ
टीका रचुं छुं. तो अहीं टीका लखवाथी निर्जरानी वात तो आवी?
पूज्य गुरुदेवः- अरे भाई! तेनो अर्थ समजवो जोईए. निर्जरा तो स्वरूप-
स्थिरताथी ज थाय छे. टीका लखवाना विकल्पथी भिन्न आचार्यनुं घोलन अंदरमां
चाली रह्युं छे तेनाथी निर्जरा थाय छे.
चोथा गुणस्थानथी स्वरूपाचरण चारित्र शरू थई जाय छे. न्यायथी ज वात छे.
शुद्ध स्वभावनी द्रष्टि थतां अंशे स्थिरता थाय छे. सम्यग्द्रष्टि थतां मिथ्यात्वनो नाश
अने सम्यक्त्वनी उत्पत्ति थाय छे तेम अनंतानुबंधीनो नाश थाय छे अने
स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट थाय छे.
जेम अबजोपतिनी दुकाने मुनिम पण बुद्धिशाळी, मोटो पगारदार होय, घांची
जेवो न होय. तेम आ तो सर्वज्ञनी पेढी! धर्मना मूळ धणी एवा सर्वज्ञनी दुकाने
बेसनारे बहु जवाबदारी समजवी जोईए. आडी-अवळी न्याय वगरनी वात अहीं न
चाले. प्रभुनो वीतरागमार्ग-न्यायमार्ग छे.
कोई एम माने छे के चोथा गुणस्थाने स्वरूपाचरण चारित्र न होय. तो भाई!
सम्यक्त्व थतां अनंतगुणना अंश प्रगट थाय छे, तेमां अनंतानुबंधी कषायनो नाश
थतां शुं प्रगट थयुं? अंशे अकषायभाव प्रगट थाय छे ते ज स्वरूपाचरण चारित्र छे.
वस्तुस्थिति ज आम छे त्यां वादविवादनो अवकाश ज नथी.
आहाहा...अनंतकाळमां मांड आवो अवसर मळ्‌यो छे. निगोदथी नीकळी
पंचेन्द्रिय थवुं ज दुर्लभ छे त्यां मनुष्यपणुं मळवुं अने यथार्थ वात काने पडवी अने
तेनी रुचि थवी ए तो महा...महा...महादुर्लभ छे.
चोथा गुणस्थाननी वात आगळ थई गई. हवे पांचमा गुणस्थाननी वात करे छे
के अहीं स्वरूपमां स्थिरतानी वृद्धि थाय छे अने अप्रत्याख्यान कषायनो नाश थाय छे.
भगवान अक्रिय शुद्धबिंब ते निश्चय छे अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी
पर्याय थाय छे ते भेदरूप छे माटे तेने अहीं व्यवहार कही छे. मोक्षमार्गनी पर्यायना
आश्रये मोक्षमार्ग

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परमात्मा] [१९७
थतो नथी. निश्चय शुद्धबिंब द्रव्यना आश्रये मोक्षमार्ग प्रगट थाय छे माटे शुद्धपर्यायने
व्यवहार कही छे.
पांचमा गुणस्थानवर्ती श्रावकने सर्वार्थसिद्धिना देव करतां पण शांति वधी जाय
छे. ज्ञान विशेष नथी पण स्थिरता वधी गई छे तेथी शांति विशेष छे. जेने (-
आत्माने) द्रष्टिमां पकडयो अने तेमां आगळ वध्यो तेने हवे शुं बाकी रहे? श्रावकने
पडिमा होय छे ए तो व्यवहार छे पण अंदरमां स्थिरताना अंशो वधे छे ए खरेखर
पडिमा छे. आगळ वधतां छठ्ठा प्रमत्त गुणस्थानमां स्थिरता विशेष वधी जाय छे अने
प्रत्याख्यान कषायनो नाश थाय छे. सातमा अप्रमत्त गुणस्थानमां छठ्ठाथी पण विशेष
स्थिरता वधी जाय छे-एम वधतां-वधतां बारमा गुणस्थानमां वीतरागता थतां
अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान थई जाय छे.
भाई! आ तत्त्व तो धीरजथी समजाय तेम छे पक्षथी के आग्रहथी आ वात न
समजाय. एक आत्मानी लगनी लागी होय तेने ज आ समजाय. इष्टोपदेशमां कह्युं छे के
‘तुं एक आत्मा संबंधी ज प्रश्न पूछ! तेनो ज उत्तर मांग. मात्र जाणवाना विषयमां
आगळ वधीने शुं करीश? आत्माने तो पहेलां समजी ले!’ मोक्षना प्रेमीनुं ए कर्तव्य छे
के आत्मा संबंधी ज प्रश्न करे. आत्मानी समजण वगर ध्यान पण व्यर्थ छे.
हवे ९२ मी गाथामां मुनिराज योगसारनी विशेष स्पष्टता करतां कहे छे के जे
आत्मामां लीन छे ते जीव कर्मोथी बंधातो नथी.
जइ सलिलेण ण लिप्पियइ कमलणि–पत्त कया वि ।
तह कम्मेहिं ण लिप्पियइ जइ रइ अप्प–सहावि ।। ९२।।
पंकज ज्यम पाणी थकी, कदापि नहि लेपाय;
लिप्त न थाये कर्मथी, जे लीन आत्मस्वभाव.
९२.
गाथामां एक शरत मूकी दीधी छे के जो तुं एक आत्मानी प्रीति कर, रति कर,
रुचि कर तो तुं अवश्य कर्मोथी छूटीश अने निर्वाण पामीश. समयसारमां निर्जरा
अधिकारनी २०६ गाथामां लीधुं छे के “तुं आत्मानी प्रीति कर, आत्मामां संतुष्ट था,
तेमां ज तृप्ति पाम, तने उत्तम सुख थशे.”
लोको व्रत, भक्ति पूजा, सिद्धगीरीना दर्शन वगेरेथी लाभ माने छे अने
आत्मानी वातथी भडके छे. पण भाई! सिद्धगीरी तुं पोते ज छो, तुं तारा दर्शन कर
ने! तारो भगवान अनंती सिद्ध पर्यायने अंतरमां राखीने बेठो छे ए सिद्धगीरी उपर
चड तो तारी जात्रा सफळ थशे. शत्रुनो जय करनारो शत्रुंजय पण तारो भगवान
आत्मा छे तेनी यात्रा कर! अशुभथी बचवा शुभभाव आवे. न आवे एम नथी पण
अंतरमां नक्की निर्णय राखजे के स्वाश्रय विना कदी मुक्ति नथी, कल्याण नथी.
गाथामां द्रष्टांत आप्युं छे के जेम कमलिनीनुं पत्र कदापि पाणीथी लेपातुं नथी. तेम
जे आत्मस्वभावमां लीन छे ते कर्मोथी लेपातो नथी. आत्मामां लीन एवो भव्यजीव

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१९८] [हुं
मोक्षमार्गी छे, तेणे ज रत्नत्रयनी एकता धारण करी छे. ए भव्यजीव वीतराग-
स्वभावमां लीन होय छे अने राग-द्वेषथी भिन्न होय छे, तेथी कर्मोथी बंधाता नथी.
वीतरागस्वरूप भगवान आत्मा अने तेमांथी उत्पन्न थयेलो वीतरागभाव
बंधनो नाश करनार छे. सम्यग्दर्शन पण अंशे वीतरागभाव छे. तेथी ज सम्यग्द्रष्टिने
४१ प्रकृतिनो बंध थतो नथी. सम्यग्द्रष्टि लडाईमां ऊभो होय तोपण जे कर्मोथी ते
बंधातो नथी ते ज कर्मोथी परद्रव्यनी अहंबुद्धि करनारो अज्ञानी बंधाय छे. अनंत
संसारने वधारनारा चीकणां कर्मोथी बंधाय छे, ज्ञानी बंधाता नथी.
अहीं समयसारना छेल्लां कळशनो आधार आप्यो छे. धर्मीनी द्रष्टि अने
द्रष्टिना विषयमां राग-द्वेष-मोह नथी तेथी कह्युं छे के धर्मीने राग-द्वेष-मोह होतां ज
नथी. तेथी धर्मीने कर्मोनो बंध थतो नथी अने स्वभावमां रमणताने लीधे वीतरागता
वधती जाय छे अने अस्थिरतानो जे राग छे ते घटतो जाय छे.
आम, सार ए कह्यो के अबंधस्वभावना द्रष्टिवंत धर्मीने बंध होतो नथी.
* जेवी रीते पक्षीओ रात्रे कोई एक वृक्ष उपर
निवास करे छे अने पछी सवार थतां तेओ सहसा
सर्व दिशाओमां चाल्या जाय छे, खेद छे के तेवी ज
रीते मनुष्य पण कोई एक कुळमां स्थित रहीने पछी
मृत्यु पामीने अन्य कुळोनो आश्रय करे छे. तेथी
विद्वान मनुष्य तेने माटे कांई पण शोक करता नथी.
(श्री पद्मनंदी-पंचविंशति)

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परमात्मा] [१९९
[प्रवचन नं. ३८]
अतीन्द्रिय सुखनो सागरः निज–परमात्मा
[श्री योगसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी, ता. १९-७-६६]
आ श्री योगसार नामनुं शास्त्र छे. तेनी ९३ मी गाथा चाले छे.
श्री योगीन्दु मुनिराज कहे छे के शमसुखभोगी ज निर्वाणनुं पात्र छे.
जो सम–सुक्ख–णिलीणु बुहु पुण पुण अप्पु मुणेइ ।
कम्मक्खउ करि सो वि फुडु लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ९३।।
शम-सुखमां लीन जे करे, फरी फरी निज अभ्यास;
कर्म क्षय निश्चय करी, शीघ्र लहे शिववास.
९३.
आ आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप शुद्ध चैतन्य छे अने शरीर, कर्म अने पुण्य-पाप
आदि विकारथी रहित छे. आवा आत्मानुं जेने ज्ञान छे ते ज्ञानी छे धर्मी छे. हिंसा,
जूठुं, चोरी आदिना भाव ते पाप छे अने दया-दान आदिना भाव ते पुण्यभाव छे,
तेनाथी पण रहित अंदर शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान-आनंदस्वरूप भगवान आत्मा बिराजे
छे तेनी अंदरमां रुचि थवी अने तेनो अनुभव करवो ते धर्म छे.
झीणी वात छे भाई! केटलाके तो आवी वात क्यारेय सांभळी पण न होय.
जेवो सिद्धमां आनंद छे एवो आ आत्माना अंतरस्वरूपमां आनंद छे. अनादिथी
मिथ्याद्रष्टि जीव आवा आनंदस्वरूपने भूलीने शुभाशुभ विकार ज मारुं स्वरूप छे अने
परद्रव्यमां मारुं सुख छे एवी मिथ्या मान्यता सेवी रह्यो छे, तेने सर्वज्ञ परमेश्वर
केवळज्ञानी भगवान कहे छे के भाई! परद्रव्य तारी चीज नथी अने पुण्य-पाप ए
पण विकार छे, कृत्रिम उपाधि-मेल छे. ते तारी चीजमां नथी. तुं तो अतीन्द्रिय सुखनो
सागर छे.
अनंतकाळमां अज्ञानी जीव त्यागी थयो, भोगी थयो, राजा थयो, रंक थयो,
रोगी थयो, निरोगी थयो, अनंता भवभ्रमण कर्या पण कोई दिवस आत्मा शुं छे अने
आत्मामां शुं छे तेनो विचार न कर्यो.
परमेश्वर वीतरागदेवे फरमान कर्युं छे के भाई! अमने जे शम-सुखस्वरूप
वीतरागी आनंद प्रगटयो छे ते अतीन्द्रिय आनंद तारी वस्तुमां पण पडयो छे. आत्मा
धर्मी छे अने अतीन्द्रिय ज्ञान आनंद आदि तेना धर्मो छे, पण आ जीवे अनंतकाळमां
एक सेकंड पण पोताना धर्मोनी रुचि करी नथी अने पुण्य-पापनी रुचि छोडी नथी.
जेणे एकवार पोताना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद लीधो-आनंदना वेदनपूर्वक
धर्मनी जेणे शरूआतरूप सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं ते जीव ज्ञानी अने धर्मी छे, आवा
धर्मी भले

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२००] [हुं
छखंडना राजा चक्रवर्ती हो के स्वर्गना इन्द्र हो पण तेओ स्वभाव सिवाय बहारमां
क्यांय सुख मानता नथी. आवा ज्ञानी शम-सुखमां लीन थईने वारंवार आत्मानो
अनुभव करे छे.
पुण्य-पापभावनी रुचि छोडीने जे अंतरना श्रद्धा ज्ञानमां अतीन्द्रिय आनंदनो
स्वाद ले छे ते गृहस्थाश्रममां रह्यो होय तोपण धर्मी छे.
“केवलीपणंतो धम्मो शरणं” एवा गडिया तो लोको सवार सांज बोली जाय छे
ने! ए केवळीभगवान सर्वज्ञदेव सो इन्द्रोनी उपस्थितिमां आ वात कहे छे के भाई!
तें अनंत काळथी परिभ्रमण कर्युं तेनुं एक ज कारण छे के तने अतीन्द्रिय
आनंदस्वभावनी अरुचि अने पुण्य-पापभावनी रुचि पडी छे.
जे सिद्धभगवान थया ए क्यांथी थया? ए निर्दोष दशा लाग्या क्यांथी? शुं ए
बहारथी आवे छे? अरे! स्वभावमां छे ते प्रगट थाय छे, बहारथी कांई आवतुं नथी.
लींडीपीपरनो दाखलो आपीए छीए के लींडीपीपरमां ६४ पहोरी तीखाश अने लीलो
रंग अंदरमां छे ते घूंटवाथी प्रगट थाय छे, कांई पथ्थरमांथी ते तीखाश अने रंग
आवता नथी, जो एम होय तो तो कांकरा घसवाथी पण तीखाश आववी जोईए, पण
एम नथी. प्राप्तनी प्राप्ति छे, पीपरमां शक्ति छे ते बहार आवे छे. कुवामां पाणी छे
तो अवेडामां आवे छे, तेम आत्मामां अतीन्द्रिय आनंद अने सर्वज्ञपद पडयुं छे ते
तेमां लीन थतां प्रगट थाय छे. वीतरागी वकील एवा सर्वज्ञदेवनी एक एक वात
न्यायथी भरेली छे.
लींडीपीपरमां ६४ पहोरी तीखाश भरी छे तेम आत्मामां अतीन्द्रिय आनंद
भर्यो पडयो छे एवी धर्मीने भरोंसो आवी गयो छे तेथी तेने स्त्री, कुटुंब, राजपाटमां
के पुण्य-पापमां क्यांय आनंद देखातो नथी, क्यांय सुख लागतुं नथी.
लोकोने एम लागे के कोण जाणे आ ते पण वात शुं वात करे छे? पण प्रभु!
तुं अरूपी पण अतीन्द्रिय आनंदनुं दळ छो जेम एक ठंडी बरफनी साडात्रण हाथनी
शीला होय तो तेमां जेम चारे बाजु उपर-नीचे, मध्यमां बधे ठंडु...ठंडु...ठंडुं ज भर्यु छे,
तेम आ आत्मा देहव्यापक पण देहथी भिन्न अतीन्द्रिय आनंदनी शीला छे, पण
जीवोने बरफनी शीलानो विश्वास आवे छे पण पोतानी अतीन्द्रिय आनंदनी पाटनो
विश्वास आवतो नथी; आवा आत्मानो ज्यां सुधी विश्वास न आवे, अंतरज्ञान अने
अनुभव न थाय त्यां सुधी तेने धर्मनी गंध पण आवी नथी.
एक एक गाथामां महासिद्धांत-महामंत्र भर्या छे. “शम-सुखमां लीन जे रहे”
एटले पुण्य-पाप भाव छे ते विषम छे, दुःखरूप छे, तेनाथी विरुद्ध सुखरूप एवा
शमसुखमां जे लीन थाय छे-अतीन्द्रिय आनंदमां रुचि जमावे छे अने वारंवार तेनो
अभ्यास करे छे तेने संवर-निर्जरा थाय छे.
हाथमां पुस्तक छे ने! जे वंचाय तेनी मेळवणी करती जवी जोईए. नामानी
चोपडी एकबीजा मेळवे छे ने! तेम अहीं पण पुस्तक पासे जोईए.
माखी जेवा प्राणीने पण फटकडी फीकी लागे छे अने साकर मीठी लागे छे तो साकर

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परमात्मा] [२०१
उपरथी माखी खसती नथी तेम पुण्य-पापना भाव फटकडी जेवा फीक्का-दुःखरूप छे
अने आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना स्वाद साकरना गांगडानी जेम धर्मीने मीठा लागे
छे तेथी धर्मी तेमां लीन थाय छे. शरीर तो अजीवतत्त्व छे अने पुण्य पाप ए
आस्रवतत्त्व छे तेनाथी रहित हुं तो जीवतत्त्व छुं एवा द्रष्टिवंत धर्मी पोताना शम-
सुखमां लीन थईने वारंवार आत्मानो अनुभव करे छे.
शम-सुखमां लीनता कहीने मुनिराज कहेवा मागे छे के निर्वाणना उपायमां कष्ट
नथी. मोक्षना उपायमां दुःख नथी. कष्ट-दुःख सहन करवामां तो आकुळता छे,
मोक्षमार्गमां आकुळता न होय. मोक्षमार्गमां तो शमसुखमां लीनतारूप सुख होय.
वीतरागमार्ग तो न्यायमार्ग छे. न्यायथी वीतरागदेव कहे छे के आ आत्मा
अनादिकाळथी पोताना आत्माने भूलीने जेटलां पुण्य-पाप भाव करे छे तेनाथी ते
दुःखी छे, अज्ञानी तेनाथी पोताने सुखी माने छे. गांडानी होस्पीटलमां एक गांडो
बीजाने डाह्यो कहे तेथी शुं ए डाह्यो थई जाय? तेम अज्ञानी करोडपतिने सुखी कहे
तेथी शुं ए सुखी छे?
सम्यग्दर्शन थतां ज्ञानी आत्माना अतीन्द्रिय आनंदमां ललचाया छे. अहीं
आनंद छे...अहीं आनंद छे...अहीं आनंद छे-एम करीने वारंवार आत्माना अनुभवनो
ज्ञानी अभ्यास करे छे अने तेथी कर्मनो नाश करीने शीघ्र निर्वाणपदने प्राप्त थाय छे.
एक गाथामां नवेय तत्त्व समावी दीधा छे. ज्ञानीनी नजरमां नवेय तत्त्व
तरवरे छे. भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनी मूर्ति ते एक जीवतत्त्व, कर्म शरीरादि
ते अजीव तत्त्व, आत्मामां पुण्य-पापभाव थाय ते आस्रवतत्त्व अने आत्मानी द्रष्टि
अने अनुभव करवो ते संवर-निर्जरातत्त्व अने ए संवर-निर्जरा उत्कृष्ट थई जाय
त्यारे पूर्णानंद प्रगट थाय ते मोक्षतत्त्व-आम नवेय तत्त्व अहीं आवी गया.
अरे भगवान! जीवोने वीतरागनुं कहेलुं तत्त्व सांभळवा पण मळे नहि त्यां ए
समजे क्यारे, रुचि क्यारे करे अने अनुभव क्यारे थाय? समजण वगर अनंतानंत
भव जीवे कर्या. कागडा, कूतराना भवमांथी मांड अनंतकाळे मनुष्यपणुं मळे तो तेमां
पण आ वात न समजे एटले फरी एनी ए ज दशाने प्राप्त थाय छे.
वर्तमानकाळमां महाविदेहमां सीमंधरप्रभु बिराजे छे. करोडपूर्वनुं तेमनुं आयुष्य
छे. मुनिसुव्रत भगवानना समयमां थया छे अने आवती चोवीशीना १३मा तीर्थंकर
थशे त्यारे सीमंधर भगवाननो निर्वाण थशे. तेमना समवसरणमां अत्यारे लाखो
केवळी, गणधरो, मुनिवरो बिराजे छे. इन्द्रो उपरथी भगवाननी वाणी सांभळवा आवे
छे. ए ज आ वाणी छे, संतोनी पण ए ज वाणी छे.
आत्माना अतीन्द्रिय आनंद-शांतिनो अनुभव करवो तेने भगवान मोक्षमार्ग
कहे छे अने पुण्य-पापभाव ते बंधमार्ग छे. जीवोने आ तत्त्वनो निर्णय करवानो मांड
करीने आ मनुष्यपणामां अवसर मळ्‌यो छे तेने जे गुमावी दे छे एवा मनुष्यो अने
निगोदना जीवमां

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२०२] [हुं
कांई फेर नथी. जेने आत्मानी द्रष्टि अने अनुभव नथी तेने माणसनुं शरीर हो के
निगोदनुं शरीर हो तेमां कांई फेर नथी. केम के एकेयमां तेना आत्माने लाभ नथी.
‘शम-सुख’ एक शब्दमां पण मुनिराजे केटलां भाव भर्या छे! शम-सुखमां
लीन एवो चक्रवर्ती होय ते जाणे छे के आ बहारना स्वाद ते मारा नहि रे नहि.
मारा स्वाद तो अंदरमां छे. जरी राग छे तेथी छ खंडना राजमां पडया छे, पण
स्वभावना आनंदने ए भूलता नथी. जेम नट दोरी उपर नाचतो होय पण ते भूले
नहि के मारा पग दोरी उपर छे, भूले तो पडी जाय. तेम चक्रवर्तीने सुंदर रूपवाळी
९६००० तो राणीओ छे, इन्द्र तो जेनो मित्र छे, हीरा-माणेकना सिंहासन छे,
वैभवनो पार नथी पण तेमां फसाईने ए स्वभावना आनंदने भूलता नथी. तेनी
रुचि तो स्वभावमां ज पडी छे, तेनुं ज नाम सम्यग्द्रष्टि छे.
लोको कहे छे के जेम परीषह वधारे सहन करे तेम वधारे लाभ. अरे! परीषह
सहन करवा ए तो दुःख छे तेमां लाभ केवो? ज्ञानीने स्वभावना उल्लसित वीर्य अने
अतीन्द्रिय आनंद आगळ बहार लाख प्रतिकूळता होय तोपण तेने ज्ञेय तरीके जाणे
छे. बहारमां मने कोई प्रतिकूळ नथी तेम कोई अनुकूळ पण नथी. मने तो मारा
विकारी भाव प्रतिकूळ छे, अनिष्ट छे अने दुःखरूप छे अने मारो स्वभाव मने
अनुकूळ छे तेम ज्ञानी जाणे छे. माटे दुःख सहन करवुं ते मोक्षनो उपाय नथी पण
चंदननी शीतळ शिला जेवा अतीन्द्रिय स्वभावनी शांति अने सुखनुं वेदन करवुं ते
मोक्षनो उपाय छे.
जेम दरियामां कांठे भरती आवे छे तेम आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो मोटो
दरियो छे तेनी द्रष्टि अने एकाग्रता करतां वर्तमान पर्यायमां आनंदनी भरती आवे
छे. ते मोक्षनो उपाय-मोक्षमार्ग-शमसुख छे.
भाई! तारा मारगडां जुदां छे बापा! दुनिया बीजाने माने तेथी कांई ए
वीतरागनो मार्ग न थई जाय. वीतरागनो मार्ग तो शम-सुखरूप छे. पुण्य-पाप भाव
ते वीतरागमार्ग नथी. पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंद आवे ते वीतरागमार्ग छे.
सम्यग्द्रष्टि आत्माना आनंद आगळ भोगनी वासनाने काळा नाग जेवी
दुःखरूप समजे छे. हजु स्थिरता नथी तेथी राग आवे छे पण तेमां एने प्रेम अने
रुचि नथी, ३२ लाख विमाननो लाडो समकिती इन्द्र बहारमां क्यांय आनंद मानतो
नथी. आनंद तो अंदरमां छे एम ए माने छे. लोकोने लागे के आ हजारो
अप्सराओनो भोग ले छे पण तेने अंदरथी दुःख लागे छे, उपसर्ग लागे छे, राग
टळतो नथी, स्वरूप-स्थिरतानी कचाश छे तेथी राग आवे छे पण ए रोग लागे छे-
उपसर्ग लागे छे, ज्यारे ए ज भोगमां मिथ्याद्रष्टिने मीठास वेदाय छे. सम्यग्द्रष्टि अने
मिथ्याद्रष्टिमां आटलो फेर छे.
सोनानी लगडी उपर जुदी जुदी जातना चीतरेलां कपडां वींटया होय पण लगडी
कोई दिवस ए चितरामणरूपे के कपडां रूपे थती नथी, तेम भगवान सोनानी लगडी
छे तेनी उपर कोईने स्त्रीना, कोईने पुरुषना, कोईने हाथीना के कोईने कंथवाना
शरीररूप कपडां

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परमात्मा] [२०३
वींटया छे पण वस्तु भगवान चिदानंद आनंदकंद सदाय तेनाथी भिन्न तत्त्व छे ते
कदी जातजातना शरीररूपे थतो नथी.
भाई! तुं कोण? तारी दशा कोण? तुं एटले अतीन्द्रिय आनंदनो पिंड, शरीर,
वाणी, मने ए तुं नहि हो भाई! विकार पण तुं नहि. आनंद अने शांतिना जीवनथी
भरेलो ते तुं जीव छो पण जेम हरणानी नाभीमां कस्तूरी छे पण तेनी तेने किंमत नथी,
तेम तुं पोते भगवान आत्मा, तारामां सर्वज्ञपद पडयुं छे पण तेनी तने किंमत नथी.
भाई! तुं विचार तो कर के अनंता सर्वज्ञ थयां ते सर्वज्ञपद लाव्या क्यांथी?
पीपरमां तीखाश आवी क्यांथी? पथ्थरमांथी आवी के हती तेमांथी प्रगट थई? पण
माळाने पोतानो भरोसो आवतो नथी. बीडी वगर चाले नहि, दाळ शाक आदि रसोई
सारी न थाय तो न चाले अने जो सारी होय, दूधपाक पूरी होय तो तो हरखाई जाय
पण भाई! ए तो छ कलाके विष्टा थई जनारी वस्तु छे अने शरीर तेने विष्टा
बनावनारो संचो छे माटे ए बधुं माटी धूळ छे तेमां क्यांय तारुं सुख नथी भाई!
जेम साकर खातां मीठाश लागे, लीमडो खातां कडवो लागे, मीठुं खातां खारुं
लागे तेम भगवान आत्मानो अनुभव करतां आनंद आवे. आत्मामां रमणतां करतां
अतीन्द्रिय आनंद आवे ते आत्मधर्म छे.
श्रोताः- आत्माने ओळखवा माटे आटलुं बधुं समजवुं पडे?
पूज्य गुरुदेवः- धंधामां केटली माथाकूट करे छे! व्याज तो काढे पण चक्रवर्ती
व्याज पण काढे! तेम आमां पण जेम छे तेम समजवुं तो पडे ने! आत्मा गळ्‌यो
थईने साकरनो स्वाद लेतो नथी. खारो थईने मीठांनो स्वाद लेतो नथी. भिन्न रहीने
ज्ञान करे छे अने पोताना स्वभावमां तो अभेद थईने अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद ले
छे. आ बधुं एणे समजवुं पडशे.

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२०४] [हुं
[प्रवचन नं. ३९]
एकवार “हुं परमात्मा छुं” एवी द्रष्टि कर
[श्री योगसार शास्त्र उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. २०-७-६६]
आ श्री योगसार शास्त्रनी ९३ मी गाथा चाले छे.
जो सम–सुक्ख णिलीणु बुहु पुण पुण अप्पु मुणेइ ।
कम्नक्खउ करि सो वि फुडु लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ९३।।
शम-सुखमां लीन जे करे, फरी फरी निज अभ्यास;
कर्म क्षय निश्चय करी, शीघ्र लहे शिववास.
९३.
अहीं आ गाथामां आत्मा पोताना आनंदस्वभावने जाणीने वारंवार आनंदनो
अनुभव करे तो कर्मनो क्षय करीने निर्वाणने प्राप्त थाय एवा भाव भर्या छे.
जेम साकर खावाथी मीठाशनो स्वाद आवे, लीमडो खावाथी कडवो स्वाद आवे
अने लवण खावाथी खारो स्वाद आवे, तेम अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप आत्मानी द्रष्टि
अने अनुभव करतां आनंदनो स्वाद आवे. कोई पण पदार्थनो जे स्वभाव होय तेनो
स्वाद आवे. आत्मा पण एक अतीन्द्रिय ज्ञान-आनंदस्वरूप वस्तु छे-पदार्थ छे, तेमांथी
अतीन्द्रिय ज्ञान, आनंद अने शांतिनो स्वाद आवे छे.
आत्मस्वभावनी रुचि अने स्वसन्मुख थईने तेनुं ज्ञान करवुं अने ए रूपे
परिणमन करवुं, अनुभव करवो ते धर्मनी शरूआत-संवर छे, तेमां अतीन्द्रिय
आनंदनो स्वाद आवे छे. त्यांथी मोक्षमार्गनी शरूआत थाय छे. पछी अंतरस्वरूपमां
वारंवार एकाग्रता करतां आस्रव थोडो थाय छे अने निर्जरा विशेष थाय छे. मारा
स्वभावमां ज मारो आनंद छे एम जाणे त्यां आनंद माटे ललचाय छे ए जीव
अतीन्द्रिय आनंदना स्वादमां वृद्धि करे छे एटली तेने निर्जरा वधारे थाय छे अने
आस्रव ओछो थाय छे. आ साधकजीवनी दशा छे.
जेने एकलो आस्रव ज छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, जेने आस्रवनो सर्वथा अभाव
अने पूर्ण निर्मळता छे ते अरिहंतदशा छे अने थोडो आस्रव अने निर्जरा बन्ने छे ते
साधक जीवनी दशा छे.
आत्मानी सन्मुख थवाथी ज साचा सुखनो अनुभव थाय छे, एकला राग-द्वेष,
हर्ष-शोक-कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनानो अनुभव करवो ते अधर्मदशा छे, ते
मिथ्याद्रष्टिनी बाधकदशा छे.
हवे ज्यां जीव स्वभावनी सन्मुखता करीने साधक थयो त्यां तेने आस्रव घटे छे
अने निर्जरा वधी जाय छे. तेथी ज तेने साधकपणुं प्रगटयुं कहेवाय. जगतमां क्यांय
नथी एवुं

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परमात्मा] [२०प
पोतानुं अतीन्द्रिय सुख जेणे अनुभव्युं एवा साधकजीवने पोताना अतीन्द्रिय आनंद
अने सुखनी लालच लागे छे.
पोताना स्वभावना बेभानपणाने लीधे मूढ-मिथ्याद्रष्टि जगतना इन्द्र, चक्रवर्ती
आदिना वैभवोमां सुखनी कल्पना करे छे, पण खरेखर ते दुःख छे. धर्मीनी द्रष्टिमां
सुखबुद्धि आत्मामां ज छे. एकला राग-द्वेष, पुण्य-पापभावनो अनुभव करवो ते तो
अधर्मध्यान छे. तेनी रुचि छोडी स्वभावनी द्रष्टि करतां धर्मध्यान प्रगट थाय छे. कोई
कहे धर्मध्यान एटले शुभभाव तो ते वात खोटी छे. स्वभाव सन्मुखनी एकता ते
धर्मध्यान छे अने उग्रपणे एकता थवी ते शुक्लध्यान छे.
अहा! अनंतकाळमां साक्षात् प्रभु पासे पण आ जीव जई आव्यो पण
बहिर्मुखद्रष्टि छोडी नहि. बहारथी मने लाभ थशे ए मान्यता छोडी नहि. ए रीते
पोते अंतर्मुख भगवान आत्माने द्रष्टिमांथी ओजल करी नाख्यो छे.
आहाहा...! भगवान पूर्णानंद स्वरूप आत्मा केवो छे? तो कहे छे के
सर्वज्ञभगवाननी वाणीमां पण जेना पूरा गुण आवी न शके तेवो आ भगवान
आत्मा छे. श्रीमद् कहे छे ने! ‘जे स्वरूप सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां, कही शक्या नहि ते पण
श्री भगवान जो.’ गोम्मटसारमां पण आवे छे के ‘भगवाने जाण्युं छे तेनाथी
अनंतमां भागे ज कही शक्या छे.’ भावमुक्त भगवान अरिहंत ज्यां वाणीमां
आत्मानुं पूरुं स्वरूप कही न शक्या त्यां ‘तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.’
जेम मूंगो गोळनो स्वाद कही शक्तो नथी पण अनुभवी शके छे. तेम भले
आत्मानुं वर्णन वाणीमां पूरुं न आवे पण अनुभवगोचर थई शके एवुं स्वरूप छे.
पुण्य-पापथी रहित आत्मा अनुभवमां आवे छे.
भगवान आत्मा चैतन्य पिंड, चेतन्य दळ, चैतन्य नूर, चैतन्य पूर एवो
पूर्णानंदप्रभु तेनी द्रष्टि अने ध्यानथी गुणस्थाननी श्रेणी वधे छे. रागना के पुण्यना
अवलंबनथी गुणस्थाननी श्रेणी वधती नथी. चैतन्यनी एकाग्रतानी धाराए
गुणस्थाननी धारा वधे छे.
निश्चयनय त्रिकाळ शुद्ध आत्मस्वभावना दर्शन करावे छे, ज्यारे व्यवहारनय तो
भेद, राग अने निमित्तना दर्शन करावे छे. समयसारनी छठ्ठी गाथामां पुण्य-पापना
भेद काढी नाख्या, असद्भूत उपचार अने अनुपचार व्यवहारनयने काढी नाख्यो अने
सातमी गाथामां सद्भूत अनुपचार जे गुण-गुणीना भेदनो व्यवहार ते पण काढी
नाख्यो, एकलो ज्ञायकस्वरूप आत्मा बधाथी जुदो बतावी दीधो छे.
एकलो भगवान ज्ञायक...ज्ञायक...ज्ञायक (‘ज्ञायक’ एवो विकल्प नहि)
चेतन्यना नूर विनाना पुण्य-पापना विकल्पोथी भिन्न पडेलो ‘ज्ञायक’ तेनुं ज्ञानभावे
परिणमन करतां द्रष्टिमां ज्ञायकभाव आवे छे ते धर्मद्रष्टि छे. आ द्रष्टि विना
त्रणकाळमां मोक्ष नथी.
कोई कहे के पंचमकाळमां निश्चय मोक्षमार्ग होय नहि माटे व्यवहार-मोक्षमार्ग जे
पुण्य-परिणाम तेनुं आचरण करो ते मोक्षमार्ग छे. अरे! पण निश्चय विना व्यवहार होय ज
नहि, स्वाश्रय निश्चय प्रगटे त्यारे कांईक पराश्रय बाकी रही जाय ते व्यवहार छे. एकलो

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२०६] [हुं
पराश्रयभाव होय ते तो मिथ्याद्रष्टि छे अने एकलो जेने स्वाश्रय पूरो प्रगट थई गयो
ते भगवान परमात्मा छे, अने स्वभावनी द्रष्टिथी स्वाश्रय प्रगट थयो पण हजी साथे
थोडो पराश्रय रही गयो ते साधकदशानो व्यवहार छे.
आ वस्तुस्थिति छे, ते त्रणकाळमां कदी फरे नहि.
अनंतकाळमां जीवे बहार ज डोकियां मार्या छे. स्वाश्रय क्यारेय कर्यो ज नथी.
एकवार जो ‘हुं परमात्मस्वरूप छुं’ एम द्रष्टि करे तो बहिरात्मा मटीने अंतरात्मा थई
जाय. सीधी वात छे. भगवान आत्मा पोते सीधो-सरळ चिदानंद भगवान पडयो छे
“सत् सरळ छे, सत् सर्वत्र छे अने सत् सुलभ छे” पण जीवे पोते एवुं दुर्गम करी
नाख्युं छे के के सत् वात सांभळवी पण एने मोंघी पडे छे.
आ जैनधर्म कोई संप्रदाय नथी. वस्तुनुं स्वरूप छे. पोताना पूर्णानंदनो आश्रय
लईने अज्ञान-राग-द्वेषादि परनो आश्रय टाळे तेने जैन कहेवामां आवे छे. परमेश्वरे
कांई नवो धर्म नथी कर्यो.
अखंडानंद प्रभु भगवान आत्मा एक समयमां अनंतगुणनो मोटो पिंड-राशि
छे ए वात लावो तो खरा! अनंतगुण न होय तो वस्तु ज न होय. असंख्यात
प्रदेशमां अनंतगुणनो पिंड महाप्रभु बिराजमान छे. स्वभावनी मूर्ति छे तेनुं शुं कहेवुं?
अरूपी चित्पिंड, चिद्घन, विज्ञानघन वस्तु छे. आकाशना अमाप... अमाप अनंत
प्रदेशोनी संख्या करतां अनंतानंत गुणो एकेएक आत्मामां छे. एवा आत्मानो आश्रय
लईने सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट करे तेने आस्रव घणो घटी जाय छे अने संवर-निर्जरा
वधी जाय छे. कारण के अनंतानंत गुणोमांथी बहु थोडा-अमुक ज गुणोमां विपरीतता
रही छे तेथी आस्रव-बंध थोडो थाय छे अने अनंत... अनंत...गुणनो आदर अने
बहुमानथी अनंता गुणोनी निर्मळ पर्याय प्रगट थई छे तेथी संवर-निर्जरा अधिक
थई गई छे. तेथी ज निश्चयथी सम्यग्द्रष्टिने अबंध कह्यो छे, केम के स्वभावमां बंध
नथी अने तेनी द्रष्टिमां बंध नथी तेथी बंधना भावने ज्ञेयमां नाखीने सम्यग्द्रष्टिने
अबंध कह्यो छे. रागथी, निमित्तथी तथा भेदथी भिन्न अधिक आत्मानी द्रष्टि थई तेने
मोक्षमार्ग तो तेना हाथमां आवी गयो.
श्रोताः- वाह प्रभु वाह! आत्मा हाथमां आवी गयो तेनुं शुं बाकी रह्युं? वाह
द्रष्टिनुं जोर छे कांई!
भाई! ए वस्तुनुं ज जोर छे. तेनी द्रष्टि करी एटले द्रष्टिमां पण जोर आवी गयुं.
द्रष्टिना जोरथी धर्मीनुं ज्ञान जाणे छे के पूर्ण आनंदनी प्राप्ति विना हुं अतृप्त छुं.
जेम पेट पूरुं न भराय त्यां सुधी हुं भूख्यो छुं एम लागे छे ने! तेम धर्मी पूर्णानंदनी
प्राप्ति विना अतृप्त छे. तेथी जेने पूर्णानंदनी झंखना छे एवा मोक्षार्थी-धर्मी जीवो
निर्वाणनुं लक्ष राखीने शम-सुखने भोगवता थका, आत्मानो विशेष विशेष अनुभव
करतां करतां शीघ्र निर्वाणने पामे छे.

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परमात्मा] [२०७
पुण्य-पापना भाव अने तेना फळरूप हर्ष-शोक ते बन्ने कर्मचेतनाथी अने
कर्मफळचेतनाथी रहित ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मानी ज्ञानचेतनाने सम्यग्द्रष्टि
नचावे छे अने कर्मचेतना तथा कर्मफळचेतनाने छोडे छे.
अरे! पण जीव जेमां भरपूर माल भर्यो छे तेनी सामे नजर करवानो वखत
लेतो नथी अने जेमां कांई नथी एवा पुण्य-पापभाव अने निमित्तमां ज मारुं सर्वस्व
छे एम मानीने तेने वळग्यो छे. तेथी ज अमृतचंद्राचार्ये ४१३ गाथामां कह्युं छे के
अज्ञानी जीवो अनादिरूढ-व्यवहारमूढ अने निश्चय अनारूढ छे, अने ज्ञानी व्यवहारमूढ
नथी, पण व्यवहारने जाणनार छे. निश्चय वस्तु द्रष्टिमां आव्या पछी थोडी अस्थिरताने
लीधे राग आवे छे ते व्यवहार छे एम ज्ञानी जाणे छे. निश्चय वगर व्यवहार
त्रणकाळमां होतो ज नथी.
जेम राजा थईने भिक्षा मांगवा जाय तो ए मूरख छे तेम आ आत्मा पोते
त्रणलोकनो नाथ थईने भगवान पासे पोतानुं भगवानपणुं मांगवा जाय छे. तेने
मुनिराज कहे छे के ‘प्रभु! तुं ज भगवान छो’ पण तेने पोतानुं स्वरूप जोवानी
फुरसद नथी. अरे! तेनी सन्मुख द्रष्टि करवी, ए मने ठीक छे, तेमां मारुं हित छे एम
पण तेने हजी बेसतुं नथी, अने व्यवहारनी ज रुचि रहे छे, पण तेमां तारुं अहित
थाय छे भाई!
हवे ९४ मी गाथामां योगीन्दु मुनिराज क्षेत्रथी नानो पण भावथी महान एवा
आत्मानुं स्वरूप बतावे छे.
पुरिसायार–पमाणु जिय अप्पा एहु पवित्तु ।
जोइज्जइ गुण–गणि–णिलउ णिम्मल–तेय–फुरंनु ।। ९४।।
पुरुषाकार पवित्र अति, देखो आतमराम;
निर्मळ तेजोमय अने अनंत गुणगणधाम.
९४.
९३ गाथा सुधी आत्माना बहु वखाण कर्या के आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत
दर्शन, अनंत आनंद आदि अनंत अनंत गुणनो पिंड छे. तेथी शिष्यने प्रश्न ऊठे छे के
आवो ते आत्मा क्षेत्रथी पण केवडो मोटो हशे? तेने मुनिराज कहे छे के भाई! मोटा
क्षेत्रथी आत्मानी महानता नथी. तेनी महानता तो गुणनी अचिंत्यताथी छे.
वेदांत आदि आत्माने सर्वव्यापक माने छे तेनी सामे पण आ गाथा महा
सिद्धांत रजू करे छे के आत्मा शरीरप्रमाण छे, सर्वव्यापक नथी.
भगवान आत्मा क्षेत्रथी पुरुषाकार छे अने भावथी गुणगणधाम-गुणोनी खाण-
गुणगणनिलय एटले गुणना समूहनो निलय नाम घर छे. वळी निर्मळ तेजथी
स्फुरायमान छे, अति पवित्र छे. आवा आत्माने अंतरज्ञान अने श्रद्धाथी जोवो जोईए.
वस्तुद्रष्टिथी जुओ तो आत्मा त्रिकाळ निरावरण, स्फटिक जेवो शुद्ध निर्मळ छे. वस्तुने वळी
आवरण केवा? आत्मा तो त्रिकाळ निरावरण, सामान्य-विशेष गुणोनो सागर, ज्ञाता-
द्रष्टा, वीतराग, परमानंदमय, परम वीर्यवान अने शुद्ध समकित गुणधारी छे.

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२०८] [हुं
भगवान आत्मा परम निर्मळ चैतन्यतेजथी चमकी रह्यो छे. चैतन्यना नूर,
प्रकाशना पुंजथी आत्मा चमकी रह्यो छे, रागना तेजथी आत्मा चमकतो नथी. आवा
चमकता आत्मामां चित्तने स्थिर करीने ध्यान करवुं जोईए.
आ ध्यान साचुं कोण करी शके छे?-के मुनिराज उत्कृष्ट ध्यान करे छे. देशव्रती
श्रावक मध्यम ध्यान करे छे अने अविरत सम्यग्द्रष्टि जघन्य ध्याता छे. सम्यग्द्रष्टिने
स्वरूपनी द्रष्टि थई छे एटली ध्यान करवानी योग्यता प्रगटी छे. सम्यग्द्रष्टिने
स्वरूपाचरण चारित्र होय छे तेथी चोथा गुणस्थानथी ज ध्याननी शरूआत थई जाय
छे. ते पहेलां ध्यान होतुं नथी. केम के सम्यक् श्रद्धान विना आत्मानो साचो प्रेम अने
रुचि होता नथी तेथी आत्मानी लगनी लागती नथी.
अज्ञानीने ध्यान करतां तो आवडे छे पण जेने जेनी रुचि होय तेनुं ध्यान करे
ने! अज्ञानीने संसारनी रुचि छे तेथी तेना ध्यानमां चडी जाय छे; तो ए उलटुं ध्यान
जेने आवडे छे तेने आत्मानी सवळी रुचि थतां आत्मानुं ध्यान करतां केम न आवडे?
आवडे ज. उलटा ध्यानमां तो ताकात मोळी पडी जाय छे अने सवळा ध्यानमां ताकात
उग्रता धारण करे छे.
हुं ज परमात्मा छुं, मारामांथी ज परमात्मपर्याय फाटवानी छे एम नक्की करीने
स्वभावनी द्रष्टि करे तेने पछी स्वभावनी महिमा पासे इन्द्र चक्रवर्तीना वैभवो
तरणातुल्य-तुच्छ भासे छे. आत्माना आनंद आगळ ज्ञानीने आखी दुनिया दुःखी
लागे छे तेथी ज्ञानी दुनियाना कोई पदने ईच्छता नथी.
* जे संसारमां देवोना इन्द्रोनो पण विनाश
जोवामां आवे छे; ज्यां हरि अर्थात् नारायण, हर
अर्थात् रूद्र अने विधाता अर्थात् ब्रह्मा तथा आदि
शब्दथी मोटा मोटा पदवी धारक सर्व काळ वडे
कोळीओ बनी गया ते संसारमां शुं शरणरूप छे?
(श्री स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा)

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परमात्मा] [२०९
[प्रवचन नं. ४०]
निज–परमात्म–अनुभवथी ज शास्त्रज्ञाननी सफळता
[श्री योगसार शास्त्र उपर परम पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन, ता. २१-७-६६]
आ श्री योगसार शास्त्र छे, तेमां अहीं ९प मी गाथा चाले छे.
अहीं योगीन्द्रदेव कहे छे के ‘आत्मज्ञानी ज सर्व शास्त्रोनो ज्ञाता छे.’ केम के
सर्व शास्त्रो जाणवानुं फळ आत्माने जाणवो ते छे. आत्मज्ञान ज सर्व शास्त्रोनो सार
छे तेथी आत्मज्ञान सहितना शास्त्रज्ञाननी मुख्यता छे.
जो अप्पा सुद्धु वि मुणइ असुइ–सरीर–विभिन्नु ।
सो जाणइ सत्थई सयल सासय–सुक्खहं लीणु ।। ९५।।
जे जाणे शुद्धात्मने, अशुचि देहथी भिन्न;
ते ज्ञाता सौ शास्त्रनो, शाश्वत सुखमां लीन.
९प.
आत्मामां अतीन्द्रिय आनंद अंतरमां भर्यो पडयो छे. जेम वस्तु शाश्वत छे तेम
तेनो अतीन्द्रिय आनंद पण शाश्वत छे. एवा शाश्वत आनंदमां एकाग्र थईने आत्मानो
अनुभव करे, आत्माने जाणे तेणे सर्व जाण्युं.
आ तो भाई! योगसार छे ने! योगसार एटले अंतर आत्मामां जोडाण,
मिथ्याद्रष्टिने अधर्मरूप जोडाण छे अने ज्ञानीने आत्मामां एकाग्ररूप जोडाण होय छे.
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे एम प्रथम निर्णय करीने, तेनी
सन्मुख थईने, जेणे अतीन्द्रिय आनंदनो अंशे अनुभव कर्यो अने ते द्वारा जाण्युं के आत्मा
अतीन्द्रियज्ञान अने आनंदमय छे तेणे सर्व जाण्युं. एकने जाण्यो तेने सर्व जाण्युं.
योगसारमां एकलुं माखण भर्युं छे. योगीन्द्रदेव कहे छे के प्रभु! तारी पासे ज
तारो आनंद छे ने! बहार तुं क्यां शोधवा जाय छे? आनंद तो तारो स्वभाव छे
भाई! त्रिकाळी आनंद आदि अनंतगुणरूप धर्मनो धरनार तुं धर्मी छो. आवा पोताना
स्वभावने जे अनुभव सहित जाणे तेणे बार अंग अने चौदपूर्व जाण्या कहेवाय.
कारण के बधां शास्त्रमां कहेवानो हेतु तो आत्मानुं ज्ञान करवुं ते ज छे.
शास्त्रनुं ज्ञान त्यारे ज सफळ कहेवाय के ज्यारे जीव पोताना स्वभावने यथार्थ
जाणे. अने आत्माने यथार्थ जाण्यो त्यारे कहेवाय के ज्यारे जीव तेनी रुचि करीने
स्वभावनो स्वाद ल्ये. आमां जाणवुं, रुचि अने आनंदनुं वेदन आ त्रण वात आवी गई.