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स्थित्वा सिद्धिमुपाश्रितो विजयते सिद्धः समृद्धो गुणैः
अने ‘हुं’ इत्यादि विकल्पानेे पण छोडीने केवळ शुद्ध एक ज्ञानस्वरूप तथा समस्त
उपाधि रहित आत्मामां स्थित थईने सिद्धि पाम्या छे एवा ते अनंत ज्ञानादि गुणोथी
समृद्ध सिद्ध परमेष्ठी जयवंत हो. २१.
तत्सिद्धैकमहः सदन्तर
साम्राज्यं तृणवद्वपुश्च परवद्भोगाश्च रोगा इव
आदि वस्तुओने प्रिय माने छे. परंतु जेमनुं हृदय ते सिद्धात्मारूप रसथी परिपूर्ण थई
गयुं छे तेमने समस्त साम्राज्य (चक्रवर्तिपणुं) तृण समान तुच्छ लागे छे, शरीर बीजा
जेवुं (अथवा शत्रु जेवुं) प्रतिभासे छे, तथा भोग रोग समान जणाय छे. २२.
सिद्धानां स्मृतिगोचरं रुचिवशान्नामापि यैर्नीयते
मध्यस्थाः स्थिरनासिकाग्रिम
योग्य छे. तो पछी जे साधुजनो दुर्ग (दुर्गम स्थान) अथवा पर्वतनी गुफानी मध्यमां
स्थित रहीने अने नासिकाना अग्रभाग उपर पोताना नेत्रो स्थिर करीने प्रसन्न मनथी
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गुणवान अने वंदनीय छे ज. २३.
ज्ञानी निश्चयतः स एव सकलप्रज्ञावतामग्रणीः
यद्योगं विदधाति वेध्यविषये तद्बाणमावर्ण्यते
परंतु जे सिद्धात्मविषयक ज्ञानथी शून्य रहीने न्याय अने व्याकरण आदि शास्त्रोना
जाणकार छे तेमनुं अहीं कांई पण प्रयोजन नथी. कारण ए के जे लक्ष्यना विषयमां
संबंध करे छे ते ज बाण कहेवाय छे.
एवी ज रीते जे भव्य जीव प्रयोजनभूत आत्मतत्त्वना विषयमां जाणकारी राखे छे ते ज वास्तवमां
प्रशंसनीय छे. एनाथी विपरीत जे न्याय, व्याकरण अने ज्योतिष आदि अनेक विषयोनां प्रकांड
विद्वान थईने पण जो प्रयोजनभूत आत्मतत्त्वना विषयमां अज्ञानी छे तो ते निन्दाने पात्र छे.
कारण ए के आत्मज्ञान विना जीवनुं कदी कल्याण थई शकतुं नथी. ए ज कारणे द्रव्यलिंगी मुनि
बार अंगना पाठी होवा छतां पण अभव्यसेननी जेम संसारमां परिभ्रमण करे छे अने एनाथी
विपरीत शिवभूति (भाव
येनाज्ञायि स किं करोति बहुभिः शास्त्रैर्बहिर्वाचकैः
ध्वान्तध्वंसविधौ स किं मृगयते रत्नप्रदीपादिकान्
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अर्थात् तेने आमनुं कांई पण प्रयोजन रहेतुं नथी. बराबर ज छे
करवा माटे रत्नना दीपक आदि गोते छे? अर्थात् गोतता नथी. २५.
सर्वत्राखिलवस्तुजातविषयव्यासक्त बोधत्विषः
सर्वत्रैव निराकुलाः शिवसुखं सिद्धाः प्रयच्छन्तु नः
वस्तुओने विषय करनारी ज्ञानज्योतिनो प्रसार सर्वत्र थई रह्यो छे अर्थात् जे सर्वज्ञ
थई गया छे. जे सर्वत्र प्रकाशमान शाश्वत अनंत सुखस्वरूप छे तथा जे सर्वत्र निश्चळ
निराकुळ छे. आवा ते सिद्ध अमने मोक्षसुख प्रदान करो. २६.
बह्वात्माध्यवसानसंगतलसत्सोपानशोभान्वितम्
रुह्यानन्दकलत्रसंगतभुवं सिद्धः सदा मोदते
संयुक्त छे तेमां आत्मारूप मित्रना हाथनो आश्रय लेनार आ आत्मारूप राजा
आनंदरूप स्त्रीथी अधिष्ठित पृथ्वी उपर चढीने मुक्त थतो थको सदा आनंदित रहे छे.
पहोंचीने आनंद पामे छे. तेवी ज रीते आ जीव अधःप्रवृत्तकरणादि परिणामोरूप सीडीओ उपरथी
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पोताना आत्मारूपी मित्रनुं हस्तावलंबन लईने (आत्मलीन थईने) शाश्वत सुख संयुक्त ते
सिद्धक्षेत्रमां पहोंची जाय छे ज्यां ते अनंतकाळ सुधी अबाध सुख भोगवे छे. २७.
तथा बीजुं पण जे कांई सिद्धोनुं छे ते बधुं मने प्रिय छे. एना सिवाय बीजुं कांई
पण मने प्रिय नथी. आ रीते विचार करतां में भयानक संसार छोडीने अने ते
सिद्धोना उत्कृष्ट स्वरूपनी प्राप्तिमां मन जोडीने मारा चित्तमां निरंतर ते सिद्धोने ज
द्रढता पूर्वक धारण कर्या छे. २८.
प्रायो वच्मि यदेव तत्खलु नभस्यालेख्यमालिख्यते
स्तेषां स्तोत्रमिदं तथापि कृतवानम्भोजनन्दी मुनिः
नाममात्रनुं स्मरणेय आनंद उत्पन्न करे छे, तेथी भक्तिविशे वाचाळ थईने में
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त्वन्नामस्मृतिलक्षणो यदि महामन्त्रो ऽस्त्यनन्तप्रभः
को लोकेऽत्र सतामभीष्टविषये विघ्नो जिनेश प्रभो
नाम स्मरणरूप महामंत्र पासे छे अने जो आपना द्वारा बताववामां आवेल
रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गमां गमन छे; तो पछी अहीं लोकमां ते सज्जनोने
पोताना इष्ट विषयमां विघ्न क्युं होई शके? अर्थात् तेमने इष्ट विषयमां कोई
बाधा उपस्थित थती नथी. १.
विश्वव्यापि समं
अनंत सुख अने अनंतवीर्य; आ प्रकारनी आ विशुद्ध प्रवृत्ति संसारथी मुक्त
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आराधना इष्ट छे. २.
पुंसः किं कुरुते शुचौ खरतरो मध्याह्नकालातपः
केम होय? अर्थात् न होय. ठीक छे
अत्यंत तीक्ष्ण संताप पण शुं दुःखी करी शके छे? अर्थात् करी शकतो नथी. ३.
सारासारविवेचनैकमनसा मीमांसते निस्तुषम्
सर्वं मे भवदाश्रितस्य महती तेनाभवन्निर्वृतिः
घणा काळ सुधी विचार करे छे तेने केवळ एक आप ज सारभूत अने अन्य सर्व
असारभूत छे तेथी आपना शरणे आवेला मने महान् आनंद प्राप्त थाय छे. ४.
वीर्यं च प्रभुता च निर्मलतरा रूपं स्वकीयं तव
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छे; आ प्रकारनुं आपनुं निज स्वरूप छे. तेथी जे योगीजनोए सम्यक् ध्यानरूप नेत्र
द्वारा चिरकाळमां आपने प्राप्त करी लीधा छे तेमणे शुं नथी जाण्युं? शुं नथी जोयुं,
अने शुं नथी प्राप्त करी लीधुं? अर्थात् एक मात्र आपने जाणी लेवाथी तेमणे बधुं
ज जाणी लीधुं, देखी लीधुं अने प्राप्त करी लीधुं छे. ५.
त्वामेकं प्रणमामि चेतसि दधे सेवे स्तुवे सर्वदा
दित्थं तद्भवतु प्रयोजनमतो नान्येन मे केनचित्
छुं, आपनी ज सेवा करूं छुं, आपनी ज स्तुति करूं छुं, तथा एक आपना ज शरणने
प्राप्त थयो छुं. घणुं कहेवाथी शुं लाभ? आ रीते जे कांई प्रयोजन सिद्ध थई शकतुं
होय ते थाव. मने आपना सिवाय अन्य कोईनी साथे प्रयोजन नथी. ६.
भ्रान्त्याहं प्रतिपन्नवांश्च मनसा वाचा च कायेन च
स्तन्मिथ्याखिलमस्तु मे जिनपते स्वं निन्दतस्ते पुरः
कर्युं’; एम स्वीकार कर्यो होय अर्थात् अनुमोदना करी होय; ए उपरांत आ ज नव
स्थानो (१ मनकृत, २ मन कारित, ३ मन अनुमोदित, ४ वचनकृत, ५ वचनकारित,
६ वचनानुमोदित, ७ कायकृत, ८ कायकारित अने कायानुमोदित) द्वारा बीजा पण
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आपनी सामे आत्मनिंदा करवाथी मिथ्या थाव. ७.
त्वं जानासि जिनेन्द्र पश्यसि तरां शश्वत्समं सर्वतः
हेतोस्ते पुरतः स वाच्य इति मे शुद्धयर्थमालोचितम्
मारा एक जन्ममां उत्पन्न दोषोने क्या कारणे नथी जाणता? अर्थात् अवश्य जाणो
छो. छतां पण हुं आलोचना पूर्वक आत्मशुद्धि माटे उक्त दोष आपनी सामे प्रगट
करूं छुं. ८.
साधोर्धारयतो मम स्मृतिपथप्रस्थायि यद्दूषणम्
निःशल्यं हृदयं विधेयमजडैर्भव्यैर्यतः सर्वथा
माटे हे प्रभो ! हुं आपनी पासे आलोचना करवा माटे उद्यत थयो छुं. कारण ए
छे के विवेकी भव्य जीवोए सर्व प्रकारे पोतानुं हृदय शल्यरहित करवुं जोईए. ९.
व्यक्ताव्यक्त विकल्पजालकलितः प्राणी भवेत् संसृतौ
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प्रायश्चित्तमियत् कुतः श्रुतगतं शुद्धिर्भवत्संनिधेः
विकल्पो अनुसार आ प्राणी निरंतर एटला (असंख्यात लोक प्रमाण) ज दोषोथी
व्याप्त होय छे. आटलुं प्रायश्चित्त भला, आगमप्रमाणे क्यांथी थई शके? अर्थात्
थई शकतुं नथी. माटे ते दोषोनी शुद्धि आपनी निकटता अथवा आराधनाथी थाय
छे. १०.
देकीकृत्य पुनस्त्वया सह शुचिज्ञानैकसन्मूर्तिना
यस्त्वां देव समीक्षते स लभते धन्यो भवत्संनिधिम्
धारक आपनी साथे एकमेक करीने परिग्रहरहित, आगमना रहस्यना ज्ञाता, शान्त
अने एकान्त स्थानने प्राप्त थता थका आपने देखे छे ते प्रशंसनीय छे. ते ज आपनी
समीपता प्राप्त करे छे. ११.
ब्रह्माद्यैरपि यत्पदं न सुलभं तल्लभ्यते निश्चितम्
वद्यापि ध्रियमाणमप्यतितरामेतद्बहिर्धावति
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लगाववा छतां पण आ चित्त हजी ये बाह्य पदार्थो तरफ दोडे छे. १२.
त्यक्त्वार्थादि तपोवनं वयमितास्तत्रोज्झितः संशयः
वातालीतरलीकृतं दलमिव भ्राम्यत्यदो मानसम्
व्रतविधानथी पण हजी सुधी सिद्धि प्राप्त न थई. एनुं कारण ए छे के वायुसमूह
द्वारा चंचळ करवामां आवेला पांदडा समान आ मन भ्रमित थई रह्युं छे. १३.
न्नित्यं व्याकुलतां परां गतवतः कार्यं विनाप्यात्मनः
क्षेमं तावदिहास्ति कुत्र यमिनो यावन्मनो जीवति
छे, इन्द्रिय समूहने वसावे छे तथा संसारना कारणभूत कर्मनो परम मित्र छे; एवुं
ते मन ज्यां सुधी जीवित छे त्यांसुधी अहीं संयमीनुं कल्याण क्यांथी थई शके?
अर्थात् थई शकतुं नथी.
अस्थिरताथी बाह्य इष्टानिष्ट पदार्थोमां राग
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जीवोए सौथी पहेलां पोतानुं चंचळ मन वश करवुं जोईए. मन वश थतां तेना इशारे चालती
इन्द्रियो स्वयमेव वश थई जाय छे. तो एवी अवस्थामां बन्धनो अभाव थई जवाथी मोक्ष पण
कांई दूर रहेतो नथी. १४.
त्वत्तस्तेन बहिर्भ्रमत्यविरतं चेतो विकल्पाकुलम्
सर्वानर्थपरंपराकृदहितो मोहः स मे वार्यताम्
थतुं थकुं आपना तरफथी खसीने निरंतर बाह्य पदार्थोमां परिभ्रमण करे छे.
शुं करीए? मोहना वशे अहीं मृत्युनो भय भला कोने नथी होतो? अर्थात्
तेनो भय घणुं करीने बधाने होय छे. तेथी हे प्रभो! समस्त अनर्थोनी
परंपराना कारणभूत मारा आ मोहरूप शत्रुनुं निवारण करो. १५.
धत्ते चञ्चलतां बिभेति च मृतेस्तस्य प्रभावान्मनः
नानात्वं जगतो जिनेन्द्र भवता
द्रव्यनी अपेक्षाए कोण जीवे छे अने कोण मरे छे? हे जिनेन्द्र! आपे फक्त पर्यायोनी
अपेक्षाए ज संसारनी विविधता जोई छे.
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छे तेनुं मन चपळता छोडीने स्थिर थई जाय छे. तेने पछी मृत्युनो भय रहेतो नथी. आ रीते
तेने यथार्थ आत्मस्वरूपनी प्रतीति थवा लागे छे अने त्यारे ते तरत ज परमानंदमय अविनश्वर
पदने प्राप्त करी ले छे. १६.
सर्वत्र क्षणभङ्गुरं जगदिदं संचिन्त्य चेतो मम
स्थातुं वाञ्छति निर्विकारपरमानन्दे त्वयि ब्रह्मणि
मन अत्यारे जन्म
परमात्मामां स्थित थवानी इच्छा करे छे. १७.
धर्मः स्याच्च शुभोपयोगत इतः सौख्यं किमप्याश्रयेत्
र्नित्यानन्दपदं तदत्र च भवानर्हन्नहं तत्र च
विशेष सुख प्राप्त करे छे. सुख अने दुःखनुं आ कलहकारी जोडुं संसारनी सहायथी
चाले छे. परंतु एनाथी विपरीत शुद्ध उपयोगथी ते शाश्वत सुखनुं स्थान अर्थात्
मोक्ष प्राप्त थाय छे. हे अरहंत जिन! आ पद (मोक्ष)मां तो आप स्थित छो अने
हुं ते पदमां अर्थात् शाता, अशाता वेदनीयजनित क्षणिक सुख
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नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यल्लाघवम्
स्वच्छज्ञान
पुरुष छे, न स्त्री छे अने न नपुंसक छे; जे न गुरुताने प्राप्त छे अने न लघुताने
प्राप्त छे; जे कर्म, स्पर्श, शरीर, गंध, गणना, शब्द अने वर्णरहित छे; तथा जे
निर्मळ ज्ञान अने दर्शननी मूर्ति छे; ते ज उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप हुं छुं
अभेदबुद्धि प्रगट थई जाय छे त्यारे ते समस्त भेद व्यवहार पण तेनी साथे ज नष्ट थई
जाय छे. ते वखते अखंड चित्पिंडस्वरूप एक मात्र आत्मज्योतिनो ज प्रतिभास थाय छे.
त्यांसुधी के आ निर्विकल्प अवस्थामां सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र आदिनो पण
भेद नष्ट थई जाय छे. १९.
शश्वत्कर्मखलेन तिष्ठति कृतं नाथावयोरन्तरम्
सद्रक्षेतरनिग्रहो नयवतो धर्मः प्रभोरी
करवामां आवेलो भेद स्थित छे. आ हुं अने ते कर्मशत्रु बन्ने य आपनी सामे हाजर
छीए. आमांथी आप दुष्टने खेंचीने बहार फेंकी दो कारण के, सज्जननुं रक्षण करवुं
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स्तद्भिन्नस्य ममात्मनो भगवतः किं कर्तृमीशा जडाः
तिष्ठन्तो ऽपि न कुर्वते जलमुचस्तत्र स्वरूपान्तरम्
माटे ते शरीर संबंधी जड आधि
कांई पण अंतर करता नथी. २१.
नित्यं नाथ यथा स्थलस्थितिमता मत्स्येन ताम्यन्मनः
यावद्देव समर्पयामि हृदयं तावत्परं सौख्यवान्
अहीं रहीने हुं पण अतिशय कष्ट पामी रह्यो छुं. हे देव! ज्यां सुधी हुं दयारूप
अमृतना संबंधथी अतिशय शीतळताने प्राप्त थयेल आपना चरण
तत्कर्म प्रविजृम्भते पृथगहं तस्मात्सदा सर्वथा
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शुद्धात्मन् मम निश्चयात्पुनरिह त्वय्येव देव स्थितिः
छुं अथवा आपना चैतन्यथी ते कर्म सर्वथा भिन्न छे. अहीं पण ते ज पूर्वोक्त (चेतना-
चेतनत्व) कारण छे. हे देव! मारी स्थिति निश्चयथी अहीं आपना विषयमां ज छे. २३.
किं वाग्भिः किमुतेन्द्रियैः किमसुभिः किं तैर्विकल्पैरपि
न्नात्मन्नेभिरभिश्रयस्यतितरामालेन किं बन्धनम्
पण प्रयोजन नथी. कारण ए छे के आ बधी पुद्गलनी पर्यायो छे जे ताराथी भिन्न छे.
खेद छे के तुं प्रमादी थईने एमना द्वारा व्यर्थ ज शा माटे बंधनने प्राप्त थाय छे? २४.
चत्वारोऽपि सहायतामुपगतास्तिष्ठन्ति गत्यादिषु
वैरी बन्धकृदेष संप्रति मया भेदासिना खण्डितः
थईने रह्या छे. परंतु कर्म अने नोकर्मना स्वरूपे परिणमेल आ एक पुद्गलरूप शत्रु
ज मारूं सान्निध्य पामीने बंधनुं कारण थाय छे. तेथी में तेने आ वखते भेद (विवेक)
रूप तलवारथी खंडित करी दीधुं छे. २५.
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नाकाशादिचतुष्टयं विरहितं मूर्त्या तथा प्राणिनाम्
स्तस्यां दुःखपरंपरेति विदुषा त्याज्यौ प्रयत्नेन तौ
परिणामान्तरोथी परिणमता नथी. उक्त राग अने द्वेषथी निरंतर प्राणीओने सदा
कठोर कर्मनो बंध थाय छे तेनाथी (कर्मबंधथी) आ संसार थाय छे अने ते संसारमां
दुःखोनी परंपरा प्राप्त थाय छे. आ कारणे विद्वान पुरुषे प्रयत्नपूर्वक उक्त राग
अने द्वेषनो परित्याग करवो जोईए. २६.
रागद्वेषमयान् मुधैव कुरुषे दुःखाय कर्माशुभम्
स्फीतं तत्सुखमेकतामुपगतं त्वं यासि रे निश्चितम्
प्राप्त थईने आनंदरूप अमृतना समुद्रभूत शुद्धात्मामां निवास करे तो निश्चयथी ज महान
सुख पामी शकीश. २७.
मध्यात्मैकतुलामयं जन इतः शुद्धयर्थमारोहति
स्तिष्ठन्ति प्रसभं तदत्र भगवन् मध्यस्थसाक्षी भवान्
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तरफ चडे छे अने बीजी तरफ तेने दोषित करवा माटे आ दुर्जय कर्मरूपी शत्रु
बळपूर्वक स्थित छे. तेथी हे भगवान्! आ विषयमां आप मध्यस्थ (निष्पक्ष)
साक्षी छो. २८.
संक्षेपादुभयत्र जल्पितमिदं पर्यन्तकाष्ठागतम्
यः सो ऽसंज्ञ इति स्फु टं व्यवहृतेर्ब्रह्मादिनामेति च
जीव धीरे धीरे आ विचित्र प्रथम (द्वैत) पदथी नीकळीने बीजा (अद्वैत) पदनो आश्रय
करे छे ते जो के निश्चयथी वाच्य
परमात्मा) नामने प्राप्त करे छे. २९.
संसारार्णवतारणे जिन ततः सैवास्तु पोतो मम
करी शकतो नथी. तेथी पूर्वोपार्जित महान् पुण्यथी अहीं जे मारी आपना
विषयमां द्रढ भक्ति थई छे ते ज मने आ संसाररूपी समुद्रथी पार थवा माटे
जहाज समान थाय. ३०.
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संसारे भ्रमता चिरं यदखिलाः प्राप्ता मयानन्तशः
सम्यग्दर्शनबोधवृत्तिपदवीं तां देव पूर्णां कुरु
छे तेमां मुक्ति आपनार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप परिणति
सिवाय बीजा कोई पण अपूर्व नथी. तेथी रत्नत्रयस्वरूप जे पदवी हजी सुधी
में कदी प्राप्त करी नथी ते अपूर्व पदवी पूर्ण करो. ३१.
प्राप्त्यर्थं परमोपदेशवचनं चित्ते समारोपितम्
त्रैलोक्यस्य च तन्न मे प्रियमिह श्रीमज्जिनेश प्रभो
थोडा उत्तम उपदेशरूप वचनोनुं आरोपण कर्युं छे तेना प्रभावथी क्षणनश्वर जे
एक पृथ्वीनुं राज्य छे ते तो दूर रहो, परंतु मने ते त्रण लोकनुं राज्य पण
अहीं प्रिय नथी. ३२.
मग्रे यः पठति त्रिसंध्यममलश्रद्धानताङ्गो नरः
तत्प्राप्नोति परं पदं स मतिमानानन्दसद्म ध्रुवम्
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आलोचनारूप प्रकरण भणे छे ते निश्चयथी आनंदना स्थानभूत ते उत्कृष्ट पद प्राप्त
करे छे जेने योगीश्वर तपश्चरण द्वारा प्रयत्नपूर्वक चिरकाळथी शोध्या करे छे. ३३.
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प्रोक्तं चेन्न तथापि चेतसि नृणां संमाति चाकाशवत्
त्तन्मोक्षैक निबन्धनं विजयते चित्तत्त्वमत्यद्भुतम्
मनुष्योना हृदयमां समातुं नथी तथा जेना स्वानुभवमां स्थित होवा छतां पण विरला
मनुष्यो ज चिर काळे लक्ष्य (मोक्ष) ने प्राप्त करी शके छे; ते मोक्षना अद्वितीय
कारणभूत आश्चर्यजनक चेतनतत्त्व जयवंत हो. १.
चित्तत्वं सदसत्तया च गहनं पूर्णं च शून्यं च यत्
यस्मिन् वस्तुविचारमार्गचतुरो यः सो ऽपि संमुह्यति
छे; तथा जेना विषयमां समस्त श्रुतनो विषय करनारी एवी निर्मळ ज्ञानरूप