Padmanandi Panchvinshati-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 22-29 (8. Siddh Stuti),1 (9. Aalochana),2 (9. Aalochana),3 (9. Aalochana),4 (9. Aalochana),5 (9. Aalochana),6 (9. Aalochana),7 (9. Aalochana),8 (9. Aalochana),9 (9. Aalochana),10 (9. Aalochana),11 (9. Aalochana),12 (9. Aalochana),13 (9. Aalochana),14 (9. Aalochana),15 (9. Aalochana),16 (9. Aalochana),17 (9. Aalochana),18 (9. Aalochana),19 (9. Aalochana),20 (9. Aalochana),21 (9. Aalochana),22 (9. Aalochana),23 (9. Aalochana),24 (9. Aalochana),25 (9. Aalochana),26 (9. Aalochana),27 (9. Aalochana),28 (9. Aalochana),29 (9. Aalochana),30 (9. Aalochana),31 (9. Aalochana),32 (9. Aalochana),33 (9. Aalochana),1 (10. Sadabodhachandroday),2 (10. Sadabodhachandroday); 9. Aalochana; 10. Sadabodhachandroday.

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सर्वोपाधिविवर्जितात्मनि परं शुद्धेकबोधात्मनि
स्थित्वा सिद्धिमुपाश्रितो विजयते सिद्धः समृद्धो गुणैः
।।२१।।
अनुवाद : जे निक्षेप, नय अने प्रमाणनी अपेक्षाए करवामां आवता
विवरणो, कर्ता आदि समस्त कारको, कारक अने क्रिया आदिना संबंध, तथा ‘तमे’
अने ‘हुं’ इत्यादि विकल्पानेे पण छोडीने केवळ शुद्ध एक ज्ञानस्वरूप तथा समस्त
उपाधि रहित आत्मामां स्थित थईने सिद्धि पाम्या छे एवा ते अनंत ज्ञानादि गुणोथी
समृद्ध सिद्ध परमेष्ठी जयवंत हो. २१.
(शार्दूलविक्रीडित)
तैरेव प्रतिपद्यतेऽत्र रमणीस्वर्णादिवस्तु प्रियं
तत्सिद्धैकमहः सदन्तर
द्रशा मन्दैर्न यैद्रर्श्यते
ये तत्तत्त्वरसप्रभिन्नहृदयास्तेषामशेषं पुनः
साम्राज्यं तृणवद्वपुश्च परवद्भोगाश्च रोगा इव
।।२२।।
अनुवाद : संसारमां जे मूर्ख जीवो उत्तम अभ्यंतर नेत्र (ज्ञान) थी ते
समीचीन सिद्धात्मारूप अद्वितीय तेजने देखता नथी तेओ ज अहीं स्त्री अने सुवर्ण
आदि वस्तुओने प्रिय माने छे. परंतु जेमनुं हृदय ते सिद्धात्मारूप रसथी परिपूर्ण थई
गयुं छे तेमने समस्त साम्राज्य (चक्रवर्तिपणुं) तृण समान तुच्छ लागे छे, शरीर बीजा
जेवुं (अथवा शत्रु जेवुं) प्रतिभासे छे, तथा भोग रोग समान जणाय छे. २२.
(शार्दूलविक्रीडित)
वन्द्यास्ते गुणिनस्त एव भुवने धन्यास्त एव ध्रुवं
सिद्धानां स्मृतिगोचरं रुचिवशान्नामापि यैर्नीयते
ये ध्यायन्ति पुनः प्रशस्तमनसस्तान् दुर्गभूभृद्दरी-
मध्यस्थाः स्थिरनासिकाग्रिम
द्रशस्तेषां किमु ब्रूमहे ।।२३।।
अनुवाद : जे भव्य जीव भक्तिपूर्वक सिद्धोना नाम मात्रनुं पण स्मरण करे
छे ते संसारमां निश्चयथी वंदनीय छे, तेओ ज गुणवान छे अने तेओ ज प्रशंसा
योग्य छे. तो पछी जे साधुजनो दुर्ग (दुर्गम स्थान) अथवा पर्वतनी गुफानी मध्यमां
स्थित रहीने अने नासिकाना अग्रभाग उपर पोताना नेत्रो स्थिर करीने प्रसन्न मनथी

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ते सिद्धोनुं ध्यान करे छे तेमना विषयमां अमे शुं कहीए? अर्थात् तेओ तो अतिशय
गुणवान अने वंदनीय छे ज. २३.
(शार्दूलविक्रीडित)
यः सिद्धे परमात्मनि प्रविततज्ञानैकमूर्तौ किल
ज्ञानी निश्चयतः स एव सकलप्रज्ञावतामग्रणीः
तर्कव्याकरणादिशास्त्रसहितैः किं तत्र शून्यैर्यतो
यद्योगं विदधाति वेध्यविषये तद्बाणमावर्ण्यते
।।२४।।
अनुवाद : जे भव्य जीव अतिशय विस्तृत ज्ञानरूप अद्वितीय शरीरना धारक
सिद्ध परमात्माना विषयमां ज्ञानवान् छे ते ज निश्चयथी समस्त विद्वानोमां श्रेष्ठ छे.
परंतु जे सिद्धात्मविषयक ज्ञानथी शून्य रहीने न्याय अने व्याकरण आदि शास्त्रोना
जाणकार छे तेमनुं अहीं कांई पण प्रयोजन नथी. कारण ए के जे लक्ष्यना विषयमां
संबंध करे छे ते ज बाण कहेवाय छे.
विशेषार्थ : जे बाण पोताना लक्ष्यने वींधे छे ते ज बाण प्रशंसनीय मनाय छे, पण
जे बाण पोतानुं लक्ष्य वींधवामां असमर्थ रहे छे ते वास्तवमां बाण कहेवराववाने योग्य नथी.
एवी ज रीते जे भव्य जीव प्रयोजनभूत आत्मतत्त्वना विषयमां जाणकारी राखे छे ते ज वास्तवमां
प्रशंसनीय छे. एनाथी विपरीत जे न्याय, व्याकरण अने ज्योतिष आदि अनेक विषयोनां प्रकांड
विद्वान थईने पण जो प्रयोजनभूत आत्मतत्त्वना विषयमां अज्ञानी छे तो ते निन्दाने पात्र छे.
कारण ए के आत्मज्ञान विना जीवनुं कदी कल्याण थई शकतुं नथी. ए ज कारणे द्रव्यलिंगी मुनि
बार अंगना पाठी होवा छतां पण अभव्यसेननी जेम संसारमां परिभ्रमण करे छे अने एनाथी
विपरीत शिवभूति (भाव
- प्राभृत - ५२ - ५३) मुनि जेवा भव्य प्राणी केवळ तुषमाष समान
आत्मपरना विवेकथी ज संसारथी मुक्त थई जाय छे. २४.
(शार्दूलविक्रीडित)
सिद्धात्मा परमः परं प्रविलसद्बोधः प्रबुद्धात्मना
येनाज्ञायि स किं करोति बहुभिः शास्त्रैर्बहिर्वाचकैः
यस्य प्रोद्गतरोचिरुज्ज्वलतनुर्भानुः करस्थो भवेत्
ध्वान्तध्वंसविधौ स किं मृगयते रत्नप्रदीपादिकान्
।।२५।।
अनुवाद : जे विवेकी पुरुषे सम्यग्ज्ञानथी विभूषित केवळ उत्कृष्ट सिद्ध आत्मानुं

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परिज्ञान प्राप्त करी लीधुं छे ते बाह्य पदार्थोनुं विवेचन करनार घणा शास्त्रोथी शुं करे?
अर्थात् तेने आमनुं कांई पण प्रयोजन रहेतुं नथी. बराबर ज छे
जेना हाथमां
किरणोना उदयथी संयुक्त उज्ज्वळ शरीरवाळो सूर्य स्थित रहे छे ते शुं अंधकारने नष्ट
करवा माटे रत्नना दीपक आदि गोते छे? अर्थात् गोतता नथी. २५.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वत्र च्युतकर्मबन्धनतया सर्वत्र सद्दर्शनाः
सर्वत्राखिलवस्तुजातविषयव्यासक्त बोधत्विषः
सर्वत्र स्फु रदुन्नतोन्नतसदानन्दात्मका निश्चलाः
सर्वत्रैव निराकुलाः शिवसुखं सिद्धाः प्रयच्छन्तु नः
।।२६।।
अनुवाद : जे सिद्ध जीव समस्त आत्मप्रदेशोमां कर्मबंधनथी रहित थई
जवाने कारणे सर्व आत्मप्रदेशोमां व्याप्त समीचीन दर्शन सहित छे, जेमनी समस्त
वस्तुओने विषय करनारी ज्ञानज्योतिनो प्रसार सर्वत्र थई रह्यो छे अर्थात् जे सर्वज्ञ
थई गया छे. जे सर्वत्र प्रकाशमान शाश्वत अनंत सुखस्वरूप छे तथा जे सर्वत्र निश्चळ
निराकुळ छे. आवा ते सिद्ध अमने मोक्षसुख प्रदान करो. २६.
(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मोत्तुङ्गगृहं प्रसिद्ध बहिराद्यात्मप्रभेदक्षणं
बह्वात्माध्यवसानसंगतलसत्सोपानशोभान्वितम्
तत्रात्मा विभुरात्मनात्मसुहृदो हस्तावलम्बी समा-
रुह्यानन्दकलत्रसंगतभुवं सिद्धः सदा मोदते
।।२७।।
अनुवाद : जे आत्मारूपी उन्नत भवन प्रसिद्ध बहिरात्मा आदि भेदोरूप खंडो
(माळ) थी सहित तथा आत्माना परिणामोरूप अनेक सुंदर पगथियाओनी शोभा
संयुक्त छे तेमां आत्मारूप मित्रना हाथनो आश्रय लेनार आ आत्मारूप राजा
आनंदरूप स्त्रीथी अधिष्ठित पृथ्वी उपर चढीने मुक्त थतो थको सदा आनंदित रहे छे.
विशेषार्थ : जेम अनेक सीडीओथी सुशोभित पांच सात माळवाळा भवनमां मनुष्य
कोई मित्रना हाथनो सहारो लईने ते सीडीओना आश्रये अनायासे ज उपर अभीष्ट स्थानमां
पहोंचीने आनंद पामे छे. तेवी ज रीते आ जीव अधःप्रवृत्तकरणादि परिणामोरूप सीडीओ उपरथी

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बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मारूप त्रण खंडवाळा आत्मारूप भवनमां स्थित थयो थको
पोताना आत्मारूपी मित्रनुं हस्तावलंबन लईने (आत्मलीन थईने) शाश्वत सुख संयुक्त ते
सिद्धक्षेत्रमां पहोंची जाय छे ज्यां ते अनंतकाळ सुधी अबाध सुख भोगवे छे. २७.
(शार्दूलविक्रीडित)
सैवैका सुगतिस्तदेव च सुखं ते एव द्रग्बोधने
सिद्धानामपरं यदस्ति सकलं तन्मे प्रियं नेतरत्
इत्यालोच्य द्रढं त एव च मया चित्ते धृताः सर्वदा
तद्रूपं परमं प्रयातुमनसा हित्वा भवं भीषणम् ।।२८।।
अनुवाद : सिद्धोनी जे गति छे ते ज एक उत्तम गति छे. तेमनुं जे सुख
छे ते ज एक उत्तम सुख छे. तेमनां जे ज्ञान-दर्शन छे ते ज यथार्थ ज्ञानदर्शन छे
तथा बीजुं पण जे कांई सिद्धोनुं छे ते बधुं मने प्रिय छे. एना सिवाय बीजुं कांई
पण मने प्रिय नथी. आ रीते विचार करतां में भयानक संसार छोडीने अने ते
सिद्धोना उत्कृष्ट स्वरूपनी प्राप्तिमां मन जोडीने मारा चित्तमां निरंतर ते सिद्धोने ज
द्रढता पूर्वक धारण कर्या छे. २८.
(शार्दूलविक्रीडित)
ते सिद्धाः परमेष्ठिनो न विषया वाचामतस्तान् प्रति
प्रायो वच्मि यदेव तत्खलु नभस्यालेख्यमालिख्यते
तन्नामापि मुदे स्मृतं तत इतो भक्त्याथ वाचालित-
स्तेषां स्तोत्रमिदं तथापि कृतवानम्भोजनन्दी मुनिः
।।२९।।
अनुवाद : ते सिद्ध परमेष्ठी वचनोना विषय नथी तेथी ज घणुं करीने तेमना
लक्ष्ये जे कांई हुं कही रह्यो छुं ते आकाशमां चित्रलेखन बराबर छे. छतां पण तेमना
नाममात्रनुं स्मरणेय आनंद उत्पन्न करे छे, तेथी भक्तिविशे वाचाळ थईने में
पद्मनंदी मुनिएतेमनुं आ स्तोत्र कर्युं छे. २९.
आ रीते सिद्धस्तुति समाप्त थई. ८.

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९. आलोचना
[९. आलोचना ]
(शार्दूलविक्रीडित)
यद्यानन्दनिधिं भवन्तममलं तत्त्वं मनो गाहते सिङ्घस्ताुतिा
त्वन्नामस्मृतिलक्षणो यदि महामन्त्रो ऽस्त्यनन्तप्रभः
यानं च त्रितयात्मके यदि भवेन्मार्गे भवद्दर्शिते
को लोकेऽत्र सतामभीष्टविषये विघ्नो जिनेश प्रभो
।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्रदेव! जो सज्जनोनुं मन आनंदना स्थानभूत
आपना निर्मळ स्वरूपनुं अवगाहन करे छे, जो अनंत दीप्ति संपन्न आपना
नाम स्मरणरूप महामंत्र पासे छे अने जो आपना द्वारा बताववामां आवेल
रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गमां गमन छे; तो पछी अहीं लोकमां ते सज्जनोने
पोताना इष्ट विषयमां विघ्न क्युं होई शके? अर्थात् तेमने इष्ट विषयमां कोई
बाधा उपस्थित थती नथी. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
निःसंगत्वमरागिताथ समता कर्मक्षयो बोधनं
विश्वव्यापि समं
द्रशा तदतुलानन्देन वीर्येण च
द्रग्देव तवैव संसृति परित्यागाय जातः क्रमः
शुद्धस्तेन सदा भवच्चरणयोः सेवा सतां संमता ।।।।
अनुवाद : हे देव! परिग्रहत्याग, वीतरागता, समता, कर्मनो क्षय,
केवळदर्शन सहित समस्त पदार्थोने एक साथे विषय करनारूं ज्ञान (केवळज्ञान),
अनंत सुख अने अनंतवीर्य; आ प्रकारनी आ विशुद्ध प्रवृत्ति संसारथी मुक्त

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थवा माटे आपनी ज थयेली छे. तेथी सज्जनोने सदा आपना चरणोनी
आराधना इष्ट छे. २.
(शार्दूलविक्रीडित)
यद्येतस्य द्रढा मम स्थितिरभूत्त्वत्सेवया निश्चितं
त्रैलोक्येश बलीयसोऽपि हि कुतः संसारशत्रोर्भयम्
प्राप्तस्यामृतवर्षहर्षजनकं सद्यन्त्रधारागृहं
पुंसः किं कुरुते शुचौ खरतरो मध्याह्नकालातपः
।।।।
अनुवाद : हे त्रिलोकीनाथ! जो आपनी आराधनाथी निश्चयथी मारी एवी
द्रढ स्थिति थई गई छे तो पछी मने अतिशय बळवान् संसाररूप शत्रुथी पण भय
केम होय? अर्थात् न होय. ठीक छे
अमृतवर्षाथी हर्ष उत्पन्न करनार एवा उत्तम
फुवारा युक्त गृहने प्राप्त थयेल पुरुषने शुं ग्रीष्म ॠतुमां मध्याह्नकालीन सूर्यनो
अत्यंत तीक्ष्ण संताप पण शुं दुःखी करी शके छे? अर्थात् करी शकतो नथी. ३.
(शार्दूलविक्रीडित)
यः कश्चिन्निपुणो जगत्त्रयगतानर्थानशेषांश्चिरं
सारासारविवेचनैकमनसा मीमांसते निस्तुषम्
तस्य त्वं परमेक एव भगवन् सारो ह्यसारं परं
सर्वं मे भवदाश्रितस्य महती तेनाभवन्निर्वृतिः
।।।।
अनुवाद : हे भगवान! जे कोई चतुर पुरुष सार अने असार पदार्थोनुं
विवेचन करनार असाधारण मन द्वारा निर्दोष रीते त्रणे लोकना समस्त पदार्थोनो
घणा काळ सुधी विचार करे छे तेने केवळ एक आप ज सारभूत अने अन्य सर्व
असारभूत छे तेथी आपना शरणे आवेला मने महान् आनंद प्राप्त थाय छे. ४.
(शार्दूलविक्रीडित)
ज्ञानं दर्शनमप्यशेषविषयं सौख्यं तथात्यन्तिकं
वीर्यं च प्रभुता च निर्मलतरा रूपं स्वकीयं तव
सम्यग्योगद्रशा जिनेश्वर चिरात्तेनोपलब्धे त्वयि
ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभिः ।।।।

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अनुवाद : हे जिनेश्वर! आपनुं ज्ञान अने दर्शन समस्त पदार्थोनो विषय
करनार छे, आपनां सुख अने वीर्य अनंत छे, तथा आपनुं प्रभुत्व अतिशय निर्मळ
छे; आ प्रकारनुं आपनुं निज स्वरूप छे. तेथी जे योगीजनोए सम्यक् ध्यानरूप नेत्र
द्वारा चिरकाळमां आपने प्राप्त करी लीधा छे तेमणे शुं नथी जाण्युं? शुं नथी जोयुं,
अने शुं नथी प्राप्त करी लीधुं? अर्थात् एक मात्र आपने जाणी लेवाथी तेमणे बधुं
ज जाणी लीधुं, देखी लीधुं अने प्राप्त करी लीधुं छे. ५.
(शार्दूलविक्रीडित)
त्वामेकं त्रिजगत्पतिं परमहं मन्ये जिनं स्वामिनं
त्वामेकं प्रणमामि चेतसि दधे सेवे स्तुवे सर्वदा
त्वामेकं शरणं गतोऽस्मि बहुना प्रोक्तेन किंचिद्भवे-
दित्थं तद्भवतु प्रयोजनमतो नान्येन मे केनचित्
।।।।
अनुवाद : हुं एक आपने ज त्रणे लोकना स्वामी, उत्कृष्ट, जिन अने प्रभु
मानुं छुं. हुं एक आपने ज सर्वदा नमस्कार करूं छुं, आपने ज चित्तमां धारण करूं
छुं, आपनी ज सेवा करूं छुं, आपनी ज स्तुति करूं छुं, तथा एक आपना ज शरणने
प्राप्त थयो छुं. घणुं कहेवाथी शुं लाभ? आ रीते जे कांई प्रयोजन सिद्ध थई शकतुं
होय ते थाव. मने आपना सिवाय अन्य कोईनी साथे प्रयोजन नथी. ६.
(शार्दूलविक्रीडित)
पापं कारितवान् यदत्र कृतवानन्यैः कृतं साध्विति
भ्रान्त्याहं प्रतिपन्नवांश्च मनसा वाचा च कायेन च
काले संप्रति यच्च भाविनि नवस्थानोद्गतं यत्पुन-
स्तन्मिथ्याखिलमस्तु मे जिनपते स्वं निन्दतस्ते पुरः
।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्रदेव! मन, वचन अने कायाथी में अहीं जे कांई पण
अज्ञानवशे पाप कर्युं होय, अन्य द्वारा कराव्युं होय अने बीजाओ द्वारा करातां ‘सारुं
कर्युं’; एम स्वीकार कर्यो होय अर्थात् अनुमोदना करी होय; ए उपरांत आ ज नव
स्थानो (१ मनकृत, २ मन कारित, ३ मन अनुमोदित, ४ वचनकृत, ५ वचनकारित,
६ वचनानुमोदित, ७ कायकृत, ८ कायकारित अने कायानुमोदित) द्वारा बीजा पण

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जे पाप वर्तमानकाळमां करी रह्यो छुं, अने भविष्यकाळमां करीश ते सर्व मारा पाप
आपनी सामे आत्मनिंदा करवाथी मिथ्या थाव. ७.
(शार्दूलविक्रीडित)
लोकालोकमनन्तपर्यययुतं कालत्रयीगोचरं
त्वं जानासि जिनेन्द्र पश्यसि तरां शश्वत्समं सर्वतः
स्वामिन् वेत्सि ममैकजन्मजनितं दोषं न किंचित्कुतो
हेतोस्ते पुरतः स वाच्य इति मे शुद्धयर्थमालोचितम्
।।।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र! आप त्रिकाळवर्ती अनंत पर्यायो सहित लोक अने
अलोकने सदा सर्व तरफथी युगपत् जाणो अने देखो छो. तो पछी हे स्वामी! आप
मारा एक जन्ममां उत्पन्न दोषोने क्या कारणे नथी जाणता? अर्थात् अवश्य जाणो
छो. छतां पण हुं आलोचना पूर्वक आत्मशुद्धि माटे उक्त दोष आपनी सामे प्रगट
करूं छुं. ८.
(शार्दूलविक्रीडित)
आश्रित्य व्यवहारमार्गमथवा मूलोत्तराख्यान् गुणान्
साधोर्धारयतो मम स्मृतिपथप्रस्थायि यद्दूषणम्
शुद्धयर्थं तदपि प्रभो तव पुरः सज्जोऽहमालोचितुं
निःशल्यं हृदयं विधेयमजडैर्भव्यैर्यतः सर्वथा
।।।।
अनुवाद : व्यवहार मार्गनो आश्रय करीने अथवा मूळ अने उत्तर गुणोने
धारण करनार मारा जेवा साधुने जे दूषण स्मरणमां आवी रह्युं छे तेनी पण शुद्धि
माटे हे प्रभो ! हुं आपनी पासे आलोचना करवा माटे उद्यत थयो छुं. कारण ए
छे के विवेकी भव्य जीवोए सर्व प्रकारे पोतानुं हृदय शल्यरहित करवुं जोईए. ९.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वो ऽप्यत्र मुहुर्मुहुर्जिनपते लोकैरसंख्यैर्मित-
व्यक्ताव्यक्त विकल्पजालकलितः प्राणी भवेत् संसृतौ

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तत्तावद्भिरयं सदैव निचितो दोषैर्विकल्पानुगैः
प्रायश्चित्तमियत् कुतः श्रुतगतं शुद्धिर्भवत्संनिधेः
।।१०।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्रदेव! अहीं संसारमां सर्व प्राणी वारंवार असंख्यात
लोकप्रमाण स्पष्ट अने अस्पष्ट विकल्पोना समूहथी संयुक्त होय छे. तथा उक्त
विकल्पो अनुसार आ प्राणी निरंतर एटला (असंख्यात लोक प्रमाण) ज दोषोथी
व्याप्त होय छे. आटलुं प्रायश्चित्त भला, आगमप्रमाणे क्यांथी थई शके? अर्थात्
थई शकतुं नथी. माटे ते दोषोनी शुद्धि आपनी निकटता अथवा आराधनाथी थाय
छे. १०.
(शार्दूलविक्रीडित)
भावान्तःकरणेन्द्रियाणि विधिवत्संहृत्य बाह्याश्रया-
देकीकृत्य पुनस्त्वया सह शुचिज्ञानैकसन्मूर्तिना
निःसंगः श्रुतसारसंगतमतिः शान्तो रहः प्राप्तवान्
यस्त्वां देव समीक्षते स लभते धन्यो भवत्संनिधिम्
।।११।।
अनुवाद : हे देव! जे भव्य जीव भावमन अने भावेंन्द्रियोने नियमानुसार
बाह्य वस्तुओ तरफथी खसेडीने तथा निर्मळ अने ज्ञानरूप अद्वितीय उत्तम मूर्तिना
धारक आपनी साथे एकमेक करीने परिग्रहरहित, आगमना रहस्यना ज्ञाता, शान्त
अने एकान्त स्थानने प्राप्त थता थका आपने देखे छे ते प्रशंसनीय छे. ते ज आपनी
समीपता प्राप्त करे छे. ११.
(शार्दूलविक्रीडित)
त्वामासाद्य पुरा कृतेन महता पुण्येन पूज्यं प्रभुं
ब्रह्माद्यैरपि यत्पदं न सुलभं तल्लभ्यते निश्चितम्
अर्हन्नाथ परं करोमि किमहं चेतो भवत्संनिधा-
वद्यापि ध्रियमाणमप्यतितरामेतद्बहिर्धावति
।।१२।।
अनुवाद : हे अर्हंत् देव! पूर्वकृत महान् पुण्यना उदयथी पूजवाने योग्य
आप जेवा स्वामीने पामीने जे पद ब्रह्मा आदिने माटे पण दुर्लभ छे ते निश्चितपणे

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प्राप्त करी शकाय छे. परंतु हे नाथ! हुं शुं करूं? आपनी समीपमां बळपूर्वक
लगाववा छतां पण आ चित्त हजी ये बाह्य पदार्थो तरफ दोडे छे. १२.
(शार्दूलविक्रीडित)
संसारो बहुदुःखदः सुखपदं निर्वाणमेतत्कृते
त्यक्त्वार्थादि तपोवनं वयमितास्तत्रोज्झितः संशयः
एतस्मादपि दुष्करव्रतविधेर्नाद्यापि सिद्धिर्यतो
वातालीतरलीकृतं दलमिव भ्राम्यत्यदो मानसम्
।।१३।।
अनुवाद : संसार बहु दुःखदायक छे, परंतु मोक्ष सुखनुं स्थान छे. आ
मोक्ष प्राप्त करवा माटे अमे धनसंपत्ति आदि छोडीने तपोवनमां आव्या छीए अने
तेना विषयमां अमे सर्व प्रकारनो संदेह पण छोडी दीधो छे. परंतु आ कठिन
व्रतविधानथी पण हजी सुधी सिद्धि प्राप्त न थई. एनुं कारण ए छे के वायुसमूह
द्वारा चंचळ करवामां आवेला पांदडा समान आ मन भ्रमित थई रह्युं छे. १३.
(शार्दूलविक्रीडित)
झम्पाः कुर्वदितस्ततः परिलसद्बाह्यार्थलाभाद्दद-
न्नित्यं व्याकुलतां परां गतवतः कार्यं विनाप्यात्मनः
ग्रामं वासयदिन्द्रियं भवकृतो दूरं सुहृत् कर्मणः
क्षेमं तावदिहास्ति कुत्र यमिनो यावन्मनो जीवति
।।१४।।
अनुवाद : जे मन आमतेम भटक्या करे छे, बाह्य पदार्थोनी प्राप्तिथी हर्ष
पामे छे, कोई पण प्रयोजन विना निरंतर ज्ञानमय आत्माने अतिशय व्याकुळ करे
छे, इन्द्रिय समूहने वसावे छे तथा संसारना कारणभूत कर्मनो परम मित्र छे; एवुं
ते मन ज्यां सुधी जीवित छे त्यांसुधी अहीं संयमीनुं कल्याण क्यांथी थई शके?
अर्थात् थई शकतुं नथी.
विशेषार्थ : आनो अभिप्राय ए छे के ज्यांसुधी मन शान्त थतुं नथी त्यांसुधी संयमनुं
परिपालन करवा छतां पण कदी आत्मानुं कल्याण थई शकतुं नथी. कारण ए छे के मननी
अस्थिरताथी बाह्य इष्टानिष्ट पदार्थोमां राग
द्वेषनी प्रवृत्ति बनी रहे छे अने ज्यां सुधी राग
द्वेषनुं परिणमन छे त्यांसुधी कर्मनो बंध पण अनिवार्य छे. तथा ज्यांसुधी नवा नवा कर्मनो बंध

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थतो रहे त्यांसुधी दुःखमय आ जन्ममरणरूप संसारनी परंपरा पण चालु ज रहे छे. आ
हालतमां आत्माने कदी शांतिनी प्राप्ति थई शकती नथी. माटे आत्मकल्याणनी इच्छा करनार भव्य
जीवोए सौथी पहेलां पोतानुं चंचळ मन वश करवुं जोईए. मन वश थतां तेना इशारे चालती
इन्द्रियो स्वयमेव वश थई जाय छे. तो एवी अवस्थामां बन्धनो अभाव थई जवाथी मोक्ष पण
कांई दूर रहेतो नथी. १४.
(शार्दूलविक्रीडित)
नूनं मृत्युभुपैति यातममलं त्वां शुद्धबोधात्मकं
त्वत्तस्तेन बहिर्भ्रमत्यविरतं चेतो विकल्पाकुलम्
स्वामिन् किं क्रियते ऽत्र मोहवशतो मृत्योर्न भीः कस्य तत्
सर्वानर्थपरंपराकृदहितो मोहः स मे वार्यताम्
।।१५।।
अनुवाद : हे स्वामिन्! आ चित्त निर्मळ अने शुद्धचैतन्यस्वरूप आपने
प्राप्त थयुं थकुं निश्चयथी मृत्युने प्राप्त थई जाय छे. तेथी ते विकल्पोथी व्याकुळ
थतुं थकुं आपना तरफथी खसीने निरंतर बाह्य पदार्थोमां परिभ्रमण करे छे.
शुं करीए? मोहना वशे अहीं मृत्युनो भय भला कोने नथी होतो? अर्थात्
तेनो भय घणुं करीने बधाने होय छे. तेथी हे प्रभो! समस्त अनर्थोनी
परंपराना कारणभूत मारा आ मोहरूप शत्रुनुं निवारण करो. १५.
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वेषामपि कर्मणामतितरां मोहो बलीयानसौ
धत्ते चञ्चलतां बिभेति च मृतेस्तस्य प्रभावान्मनः
नो चेज्जीवति को म्रियेत क इह द्रव्यत्वतः सर्वदा
नानात्वं जगतो जिनेन्द्र भवता
द्रष्टं परं पर्ययैः ।।१६।।
अनुवाद : बधा कर्मोमां ते मोह अतिशय बळवान छे. तेना ज प्रभावथी
मन चपळता धारण करे छे अने मृत्युथी डरे छे. जो एम न होत तो पछी संसारमां
द्रव्यनी अपेक्षाए कोण जीवे छे अने कोण मरे छे? हे जिनेन्द्र! आपे फक्त पर्यायोनी
अपेक्षाए ज संसारनी विविधता जोई छे.
विशेषार्थ : जो निश्चयनयथी विचार करवामां आवे तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप आ आत्मा

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अनादिनिधन छे. तेनो न कदी जन्म थाय छे अने न कदी मरण. तेना जन्ममरणनी कल्पना
व्यवहारी जन पर्यायनी प्रधानताथी केवळ मोहना निमित्ते करे छे. जेनो ते मोह नष्ट थई जाय
छे तेनुं मन चपळता छोडीने स्थिर थई जाय छे. तेने पछी मृत्युनो भय रहेतो नथी. आ रीते
तेने यथार्थ आत्मस्वरूपनी प्रतीति थवा लागे छे अने त्यारे ते तरत ज परमानंदमय अविनश्वर
पदने प्राप्त करी ले छे. १६.
(शार्दूलविक्रीडित)
वातव्याप्तसमुद्रवारिलहरीसंघातवत्सर्वदा
सर्वत्र क्षणभङ्गुरं जगदिदं संचिन्त्य चेतो मम
।।
संप्रत्येतदशेषजन्मजनकव्यापारपारस्थितं
स्थातुं वाञ्छति निर्विकारपरमानन्दे त्वयि ब्रह्मणि
।।१७।।
अनुवाद : आ विश्व वायुथी ताडित थयेला समुद्रना जळमां उत्पन्न थती
लहेरोना समूह समान सदा अने सर्वत्र क्षणनश्वर छे, एवो विचार करीने आ मारूं
मन अत्यारे जन्म
मरणरूप संसारना कारणभूत आ समस्त प्रवृत्तिओनी पार
पहोंचीने अर्थात् आवी क्रियाओ छोडीने निर्विकार अने परमानंदस्वरूप आप
परमात्मामां स्थित थवानी इच्छा करे छे. १७.
(शार्दूलविक्रीडित)
एनः स्यादशुभोपयोगत इतः प्राप्नोति दुःखं जनो
धर्मः स्याच्च शुभोपयोगत इतः सौख्यं किमप्याश्रयेत्
द्वन्द्वं द्वन्द्वमिदं भवाश्रयतया शुद्धोपयोगात्पुन-
र्नित्यानन्दपदं तदत्र च भवानर्हन्नहं तत्र च
।।१८।।
अनुवाद : अशुभ उपयोगथी पाप उत्पन्न थाय छे अने एनाथी प्राणी
दुःख प्राप्त करे छे तथा शुभ उपयोगथी धर्म थाय छे अने एनाथी प्राणी कोई
विशेष सुख प्राप्त करे छे. सुख अने दुःखनुं आ कलहकारी जोडुं संसारनी सहायथी
चाले छे. परंतु एनाथी विपरीत शुद्ध उपयोगथी ते शाश्वत सुखनुं स्थान अर्थात्
मोक्ष प्राप्त थाय छे. हे अरहंत जिन! आ पद (मोक्ष)मां तो आप स्थित छो अने
हुं ते पदमां अर्थात् शाता, अशाता वेदनीयजनित क्षणिक सुख
दुःखना स्थानभूत
संसारमां स्थित छुं. १८.

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(शार्दूलविक्रीडित)
यन्नान्तर्न बहिः स्थितं न च दिशि स्थूलं न सूक्ष्मं पुमान्
नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यल्लाघवम्
कर्मस्पर्शशरीरगन्धगणनाव्याहारवर्णोज्झितं
स्वच्छज्ञान
द्रगेकमूर्ति तदहं ज्योतिः परं नापरम् ।।१९।।
अनुवाद : जे उत्कृष्ट ज्योति (चैतन्य) न तो अंदर स्थित छे अने न बहार
स्थित छे, जे दिशाविशेषमां स्थित नथी, जे न स्थूळ छे अने न सूक्ष्म छे; जे न
पुरुष छे, न स्त्री छे अने न नपुंसक छे; जे न गुरुताने प्राप्त छे अने न लघुताने
प्राप्त छे; जे कर्म, स्पर्श, शरीर, गंध, गणना, शब्द अने वर्णरहित छे; तथा जे
निर्मळ ज्ञान अने दर्शननी मूर्ति छे; ते ज उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप हुं छुं
एनाथी भिन्न
बीजुं कोई पण स्वरूप मारूं नथी.
विशेषार्थ : अभिप्राय ए छे के भेदबुद्धि रहे त्यांसुधी शरीर अने स्व अने परनी
कल्पना थाय छे. अंदरबहार; स्थूळसूक्ष्म तथा पुरुषस्त्री आदि उपर्युक्त बधा विकल्प एक
ते शरीरना आश्रये ज थया करे छे. पण ज्यारे ते भेदबुद्धि नष्ट थई जाय छे अने
अभेदबुद्धि प्रगट थई जाय छे त्यारे ते समस्त भेद व्यवहार पण तेनी साथे ज नष्ट थई
जाय छे. ते वखते अखंड चित्पिंडस्वरूप एक मात्र आत्मज्योतिनो ज प्रतिभास थाय छे.
त्यांसुधी के आ निर्विकल्प अवस्थामां सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र आदिनो पण
भेद नष्ट थई जाय छे. १९.
(शार्दूलविक्रीडित)
एतेनैव चिदुन्नतिक्षयकृता कार्यं विना वैरिणा
शश्वत्कर्मखलेन तिष्ठति कृतं नाथावयोरन्तरम्
एषोऽहं स चते पुरः परिगतो दुष्टो ऽत्र निःसार्यतां
सद्रक्षेतरनिग्रहो नयवतो धर्मः प्रभोरी
द्रशः ।।२०।।
अनुवाद : हे स्वामिन्! कोई प्रयोजन विना ज वैरभाव पामीने उन्नत
चैतन्य- स्वरूपनो घात करनार आ कर्मरूप दुष्ट शत्रु द्वारा आपणा बन्ने वच्चे उत्पन्न
करवामां आवेलो भेद स्थित छे. आ हुं अने ते कर्मशत्रु बन्ने य आपनी सामे हाजर
छीए. आमांथी आप दुष्टने खेंचीने बहार फेंकी दो कारण के, सज्जननुं रक्षण करवुं

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अने दुष्टने दंड देवो ए न्यायप्रिय राजानुं कर्तव्य होय छे. २०.
(शार्दूलविक्रीडित)
आधिव्याधिजरामृतिप्रभुतयः संबन्धिनो वर्ष्मण-
स्तद्भिन्नस्य ममात्मनो भगवतः किं कर्तृमीशा जडाः
नानाकारविकारकारिण इमे साक्षान्नभोमण्डले
तिष्ठन्तो ऽपि न कुर्वते जलमुचस्तत्र स्वरूपान्तरम्
।।२१।।
अनुवाद : आधि (मानसिक कष्ट), व्याधि (शारीरिक कष्ट), जरा अने मृत्यु
आदि शरीर साथे संबंध राखनार छे. हुं भगवान् आत्मा ते शरीरथी भिन्न छुं,
माटे ते शरीर संबंधी जड आधि
व्याधि आदि मारूं शुं करी शके? अर्थात् ए आत्मानुं
कांई पण नुकशान करी शकता नथी. योग्य पण छेप्रत्यक्ष अनेक आकारो अने
विकारो करनारा आ वादळा आकाशमंडळमां रहेवा छतां पण आकाशना स्वरूपमां
कांई पण अंतर करता नथी. २१.
(शार्दूलविक्रीडित)
संसारातपदह्यमानवपुषा दुःखं मया स्थीयते
नित्यं नाथ यथा स्थलस्थितिमता मत्स्येन ताम्यन्मनः
कारुण्यामृतसंगशीतलतरे त्वत्पादपङ्केरुहे
यावद्देव समर्पयामि हृदयं तावत्परं सौख्यवान्
।।२२।।
अनुवाद : जेम पाणी सुकाई जतां स्थळ उपर रहेलुं माछलुं मनमां अतिशय
कष्ट पामे छे तेवी ज रीते संसाररूप गरमीथी जलता शरीरने धारण करतो थको
अहीं रहीने हुं पण अतिशय कष्ट पामी रह्यो छुं. हे देव! ज्यां सुधी हुं दयारूप
अमृतना संबंधथी अतिशय शीतळताने प्राप्त थयेल आपना चरण
कमळोमां मारूं
हृदय समर्पित करूं छुं. त्यां सुधी अतिशय सुखनो अनुभव करूं छुं. २२.
(शार्दूलविक्रीडित)
साक्षग्राममिदं मनो भवति यद्बाह्यार्थसंबन्धभाक्
तत्कर्म प्रविजृम्भते पृथगहं तस्मात्सदा सर्वथा

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चैतन्यात्तव तत्तथेति यदि वा तत्रापि तत्कारणं
शुद्धात्मन् मम निश्चयात्पुनरिह त्वय्येव देव स्थितिः
।।२३।।
अनुवाद : हे शुद्ध आत्मन्! इन्द्रियसमूह साथे आ मन बाह्य पदार्थो साथे
संबंध राखे छे, माटे ज तेनाथी कर्म वधे छे. हुं ते कर्मथी सदा अने सर्व प्रकारे भिन्न
छुं अथवा आपना चैतन्यथी ते कर्म सर्वथा भिन्न छे. अहीं पण ते ज पूर्वोक्त (चेतना-
चेतनत्व) कारण छे. हे देव! मारी स्थिति निश्चयथी अहीं आपना विषयमां ज छे. २३.
(शार्दूलविक्रीडित)
किं लोकेन किमाश्रयेण किमुत द्रव्येण कायेन किं
किं वाग्भिः किमुतेन्द्रियैः किमसुभिः किं तैर्विकल्पैरपि
सर्वे पुद्गलपर्यया बत परे त्वत्तः प्रमत्तो भव-
न्नात्मन्नेभिरभिश्रयस्यतितरामालेन किं बन्धनम्
।।२४।।
अनुवाद : हे आत्मन्! तारे लोकथी, आश्रयथी, द्रव्यथी, शरीरथी, वचनोथी,
इन्द्रियोथी, प्राणोथी अने ते विकल्पोथी पण शुं प्रयोजन छे? अर्थात् एमनाथी तारे कांई
पण प्रयोजन नथी. कारण ए छे के आ बधी पुद्गलनी पर्यायो छे जे ताराथी भिन्न छे.
खेद छे के तुं प्रमादी थईने एमना द्वारा व्यर्थ ज शा माटे बंधनने प्राप्त थाय छे? २४.
(शार्दूलविक्रीडित)
धर्माधर्मनभांसि काल इति मे नैवाहितं कुर्वते
चत्वारोऽपि सहायतामुपगतास्तिष्ठन्ति गत्यादिषु
एकः पुद्गल एव संनिधिगतो नोकर्मकर्माकृति-
वैरी बन्धकृदेष संप्रति मया भेदासिना खण्डितः
।।२५।।
अनुवाद : धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ आ चारे द्रव्य मारुं कांई पण
अहित करता नथी. ते चारे तो गति आदि (स्थिति, अवकाश अने वर्तना) मां सहायक
थईने रह्या छे. परंतु कर्म अने नोकर्मना स्वरूपे परिणमेल आ एक पुद्गलरूप शत्रु
ज मारूं सान्निध्य पामीने बंधनुं कारण थाय छे. तेथी में तेने आ वखते भेद (विवेक)
रूप तलवारथी खंडित करी दीधुं छे. २५.

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(शार्दूलविक्रीडित)
रागद्वेषकृतैर्यथा परिणमेद्रूपान्तरैः पुद्गलो
नाकाशादिचतुष्टयं विरहितं मूर्त्या तथा प्राणिनाम्
ताभ्यां कर्मघनं भवेदविरतं तस्मादियं संसृति-
स्तस्यां दुःखपरंपरेति विदुषा त्याज्यौ प्रयत्नेन तौ
।।२६।।
अनुवाद : जेम राग अने द्वेष द्वारा करवामां आवेला परिणामान्तरोथी
पुद्गल द्रव्य परिणमे छे तेवी रीते ते अमूर्तिक आकाशादि चार द्रव्य उक्त
परिणामान्तरोथी परिणमता नथी. उक्त राग अने द्वेषथी निरंतर प्राणीओने सदा
कठोर कर्मनो बंध थाय छे तेनाथी (कर्मबंधथी) आ संसार थाय छे अने ते संसारमां
दुःखोनी परंपरा प्राप्त थाय छे. आ कारणे विद्वान पुरुषे प्रयत्नपूर्वक उक्त राग
अने द्वेषनो परित्याग करवो जोईए. २६.
(शार्दूलविक्रीडित)
किं बाह्येषु परेषु वस्तुषु मनः कृत्वा विकल्पान् बहून्
रागद्वेषमयान् मुधैव कुरुषे दुःखाय कर्माशुभम्
आनन्दामृतसागरे यदि वसस्यासाद्य शुद्धात्मनि
स्फीतं तत्सुखमेकतामुपगतं त्वं यासि रे निश्चितम्
।।२७।।
अनुवाद : रे मन! तुं बाह्य पर पदार्थोमां घणा रागद्वेषरूप विकल्पो करीने
व्यर्थ ज दुःखना कारणभूत अशुभ कर्म शा माटे करे छे? जो तुं एकत्व (अद्वैतभाव)ने
प्राप्त थईने आनंदरूप अमृतना समुद्रभूत शुद्धात्मामां निवास करे तो निश्चयथी ज महान
सुख पामी शकीश. २७.
(शार्दूलविक्रीडित)
इत्यास्थाय हृदि स्थिरं जिन भवत्पादप्रसादात्सती-
मध्यात्मैकतुलामयं जन इतः शुद्धयर्थमारोहति
एनं कर्तुममी च दोषिणमितः कर्मारयो दुर्धरा-
स्तिष्ठन्ति प्रसभं तदत्र भगवन् मध्यस्थसाक्षी भवान्
।।२८।।

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अनुवाद : हे जिन! हृदयमां आवो स्थिर विचार करीने आ मनुष्य शुद्धि
माटे आपना चरणोना प्रसादथी निर्दोष अध्यात्मरूपी अद्वितीय त्राजवामां एक
तरफ चडे छे अने बीजी तरफ तेने दोषित करवा माटे आ दुर्जय कर्मरूपी शत्रु
बळपूर्वक स्थित छे. तेथी हे भगवान्! आ विषयमां आप मध्यस्थ (निष्पक्ष)
साक्षी छो. २८.
(शार्दूलविक्रीडित)
द्वैतं संसृतिरेव निश्चयवशादद्वैतमेवामृतं-
संक्षेपादुभयत्र जल्पितमिदं पर्यन्तकाष्ठागतम्
निर्गत्यादिपदाच्छनैः शबलितादन्यत्समालम्बते
यः सो ऽसंज्ञ इति स्फु टं व्यवहृतेर्ब्रह्मादिनामेति च
।।२९।।
अनुवाद : निश्चयथी द्वैत (आत्मपरनो भेद) ज संसार अने अद्वैत ज मोक्ष
छे. आ ए बन्नेना विषयमां संक्षेपथी कथन छे जे चरम सीमाने प्राप्त छे. जे भव्य
जीव धीरे धीरे आ विचित्र प्रथम (द्वैत) पदथी नीकळीने बीजा (अद्वैत) पदनो आश्रय
करे छे ते जो के निश्चयथी वाच्य
वाचकभावनो अभाव थई जवाना कारणे
संज्ञा(नाम) रहित थई जाय छे; छतां पण व्यवहारथी ते ब्रह्मा आदि (परब्रह्म,
परमात्मा) नामने प्राप्त करे छे. २९.
(शार्दूलविक्रीडित)
चारित्रं यदमाणि केवलद्रशा देव त्वया मुक्त ये
पुंसा तत्खलु माद्रशेन विषमे काले कलौ दुर्धरम्
भक्ति र्या समभूदिह त्वयि दृढा पुण्यैः पुरोपार्जितैः
संसारार्णवतारणे जिन ततः सैवास्तु पोतो मम
।।३०।।
अनुवाद : हे जिनदेव! केवळज्ञानी! आपे जे मुक्ति माटे चारित्र
बताव्युं छे तेने निश्चयथी मारा जेवा पुरुष आ विषम पंचम काळमां धारण
करी शकतो नथी. तेथी पूर्वोपार्जित महान् पुण्यथी अहीं जे मारी आपना
विषयमां द्रढ भक्ति थई छे ते ज मने आ संसाररूपी समुद्रथी पार थवा माटे
जहाज समान थाय. ३०.

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(शार्दूलविक्रीडित)
इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनयः
संसारे भ्रमता चिरं यदखिलाः प्राप्ता मयानन्तशः
तन्नापूर्वमिहास्ति किंचिदपि मे हित्वा विमुक्ति प्रदां
सम्यग्दर्शनबोधवृत्तिपदवीं तां देव पूर्णां कुरु
।।३१।।
अनुवाद : हे देव! में चिरकाळ संसारमां परिभ्रमण करतां अनेक वार
इन्द्रपद, निगोद पर्याय तथा वचमां पण बीजा जे समस्त अनंत भव प्राप्त कर्या
छे तेमां मुक्ति आपनार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप परिणति
सिवाय बीजा कोई पण अपूर्व नथी. तेथी रत्नत्रयस्वरूप जे पदवी हजी सुधी
में कदी प्राप्त करी नथी ते अपूर्व पदवी पूर्ण करो. ३१.
(शार्दूलविक्रीडित)
श्रीवीरेण मम प्रसन्नमनसा तत्किंचिदुच्चैः पद-
प्राप्त्यर्थं परमोपदेशवचनं चित्ते समारोपितम्
येनास्तामिदमेकभूतलगतं राज्यं क्षणध्वंसि यत्
त्रैलोक्यस्य च तन्न मे प्रियमिह श्रीमज्जिनेश प्रभो
।।३२।।
अनुवाद : हे जिनेन्द्र प्रभो! श्री वीर भगवाने (अथवा श्री वीरनन्दी
गुरुए) प्रसन्नचित्त थईने उच्च पद (मोक्ष)नी प्राप्ति माटे जे मारा चित्तमां
थोडा उत्तम उपदेशरूप वचनोनुं आरोपण कर्युं छे तेना प्रभावथी क्षणनश्वर जे
एक पृथ्वीनुं राज्य छे ते तो दूर रहो, परंतु मने ते त्रण लोकनुं राज्य पण
अहीं प्रिय नथी. ३२.
(शार्दूलविक्रीडित)
सूरेः पङ्कजनन्दिनः कृतिमिमामालोचनामर्हता-
मग्रे यः पठति त्रिसंध्यममलश्रद्धानताङ्गो नरः
योगीन्द्रैश्चिरकालरूढतपसा यत्नेन यन्मृग्यते
तत्प्राप्नोति परं पदं स मतिमानानन्दसद्म ध्रुवम्
।।३३।।

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अनुवाद : जे बुद्धिमान मनुष्य निर्मळ श्रद्धाथी पोताना शरीरने नम्रीभूत
करीने त्रणे संध्याकाळे अर्हंत् भगवान आगळ श्री पद्मनन्दि सूरि द्वारा विरचित आ
आलोचनारूप प्रकरण भणे छे ते निश्चयथी आनंदना स्थानभूत ते उत्कृष्ट पद प्राप्त
करे छे जेने योगीश्वर तपश्चरण द्वारा प्रयत्नपूर्वक चिरकाळथी शोध्या करे छे. ३३.
आ रीते आलोचना अधिकार समाप्त थयो. ९.

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१०. सद्बोध चंद्रोदय
[ १०.सद्बोधचन्द्रोदयः ]
(शार्दूलविक्रीडित)
यज्जानन्नपि बुद्धिमानपि गुरुः शक्तो न वक्तुं गिरा
प्रोक्तं चेन्न तथापि चेतसि नृणां संमाति चाकाशवत्
यत्र स्वानुभवस्थिते ऽपि विरला लक्ष्यं लभन्ते चिरा-
त्तन्मोक्षैक निबन्धनं विजयते चित्तत्त्वमत्यद्भुतम्
।।।।
अनुवाद : जे चेतन तत्त्वने जाणवा छतां पण अने बुद्धिमान गुरु पण वाणी
द्वारा कहेवाने समर्थ नथी तथा जो कहेवामां आवे तो पण जे आकाश समान
मनुष्योना हृदयमां समातुं नथी तथा जेना स्वानुभवमां स्थित होवा छतां पण विरला
मनुष्यो ज चिर काळे लक्ष्य (मोक्ष) ने प्राप्त करी शके छे; ते मोक्षना अद्वितीय
कारणभूत आश्चर्यजनक चेतनतत्त्व जयवंत हो. १.
(शार्दूलविक्रीडित)
नित्यानित्यतया महत्तनुतयानेकैकरूपत्ववत्
चित्तत्वं सदसत्तया च गहनं पूर्णं च शून्यं च यत्
तज्जीयादखिलश्रुताश्रयशुचिज्ञानप्रभाभासुरो
यस्मिन् वस्तुविचारमार्गचतुरो यः सो ऽपि संमुह्यति
।।।।
अनुवाद : जे चेतन तत्त्व नित्य अने अनित्य स्वरूपे, स्थूळ अने कृश स्वरूपे,
अनेक अने एक स्वरूपे, सत् अने असत् स्वरूपे तथा पूर्ण अने शून्य स्वरूपे गहन
छे; तथा जेना विषयमां समस्त श्रुतनो विषय करनारी एवी निर्मळ ज्ञानरूप