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अ. १ सूत्र ६] [२३ प्रवर्ते-एम बे परद्वारोथी प्रवर्ते ते परोक्ष छे.
प्रत्यक्षः केवळ आत्माथी ज प्रतिनिश्चितपणे प्रवर्ते ते प्रत्यक्ष छे. प्रमाण ते साचुं ज्ञान छे, तेना पांच भेदो छे-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय अने केवळ. तेमां मति अने श्रुत मुख्यपणे परोक्ष छे, अवधि अने मनःपर्यय ए विकल (अंश) प्रत्यक्ष छे अने केवळज्ञान ते सकलप्रत्यक्ष छे.
नय बे प्रकारना छे-द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक. तेमां जे द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तुमां द्रव्यनो मुख्यपणे अनुभव करावे ते द्रव्यार्थिकनय छे अने जे पर्यायनो मुख्यपणे अनुभव करावे ते पर्यायार्थिकनय छे.
शास्त्रोमां घणे ठेकाणे द्रव्यार्थिकनय अने पर्यायार्थिकनय एम बे नयो वापर्या छे, पण ‘गुणार्थिकनय’ एम क्यांय वापरवामां आव्युं नथी, तेनुं कारण शुं? ते कहेवाय छेः-
तर्कः– १. द्रव्यार्थिकनय कहेतां तेनो विषय गुण अने पर्यायार्थिकनय कहेतां तेनो विषय पर्याय, तथा ए बन्ने भेगुं थईने प्रमाण ते द्रव्य, आ रीते गणीने गुणार्थिकनय वापर्यो नथी; आ प्रमाणे कोई कहे-तो ए बराबर नथी. केमके एकला गुण ते द्रव्यार्थिकनयनो विषय नथी.
तर्कः– र. द्रव्यार्थिकनयनो विषय द्रव्य अने पर्यायार्थिकनयनो विषय पर्याय, तथा ते पर्याय गुणनो अंश होवाथी पर्यायमां गुण आवी गया, ए रीते गणीने गुणार्थिकनय वापर्यो नथी; आ प्रमाणे कोई कहे-तो तेम पण नथी. केमके पर्यायमां आखो गुण आवी जतो नथी.
शास्त्रोमां द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिकनय ए बे ज नयो वापरवामां आव्या छे, ते बे नयोनुं खरूं स्वरूप ए छे के-
पर्यायार्थिकनयनो विषय जीवनो अपेक्षित बंध-मोक्षनो पर्याय छे, अने ते रहित (बंध-मोक्षनी अपेक्षा रहित) त्रिकाळी गुण अने त्रिकाळी निरपेक्ष पर्याय सहित त्रिकाळी जीवद्रव्यसामान्य ते द्रव्यार्थिकनयनो विषय छे-आ अर्थमां शास्त्रोमां द्रव्यार्थिक
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२४] [मोक्षशास्त्र अने पर्यायार्थिकनय वापरवामां आव्या छे, एटले गुणार्थिकनयनी जरूर रहेती नथी. जीव सिवायना पांच द्रव्योना त्रिकाळी ध्रुवस्वरूपमां तेना गुण समाई जाय छे माटे जुदा गुणार्थिकनयनी जरूर नथी.
शास्त्रोमां द्रव्यार्थिकनय वापरे छे तेमां ऊंडुं रहस्य छे. द्रव्यार्थिकनयनो विषय त्रिकाळी द्रव्य छे अने पर्यायार्थिकनयनो विषय क्षणिक पर्याय छे. द्रव्यार्थिकनयना विषयमां जुदो गुण नथी केमके गुणने जुदो पाडी लक्षमां लेतां विकल्प ऊठे छे अने विकल्प ते पर्यायार्थिकनयनो विषय छे. +
द्रव्यार्थिकनयने-निश्चय, शुद्ध, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, स्वालंबी, स्वाश्रित, स्वतंत्र, स्वाभाविक, त्रिकाळी, ध्रुव, अभेद अने स्वलक्षी नय कहेवामां आवे छे.
पर्यायार्थिकनयने-व्यवहार, अशुद्ध, असत्यार्थ, अपरमार्थ, अभूतार्थ, परालंबी पराश्रित, परतंत्र, निमित्ताधीन, क्षणिक, उत्पन्नध्वंसी भेद अने परलक्षी नय कहेवामां आवे छे.
सम्यग्द्रष्टिने द्रव्यद्रष्टि, शुद्धद्रष्टि, धर्मद्रष्टि, निश्चयद्रष्टि, परमार्थद्रष्टि, अंतरात्मा वगेरे नामो आपवामां आवे छे.
मिथ्याद्रष्टिने पर्यायबुद्धि, संयोगीबुद्धि, पर्यायमूढ, व्यवहारद्रष्टि, व्यवहारमूढ, संसारद्रष्टि, परावलंबीबुद्धि, पराश्रितद्रष्टि, बहिरात्मा वगेरे नामो आपवामां आवे छे.
व्यवहारनय स्वद्रव्य=परद्रव्यने अथवा तेना भावोने अथवा कारण-कार्यादिने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे तेथी एवां ज श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे, माटे तेनो त्याग करवो.
निश्चयनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने अथवा तेना भावोने अथवा कारण-कार्यादिने यथावत् निरूपण करे छे, तथा कोईने कोईमां मेळवतो नथी तेथी एवां ज श्रद्धानथी _________________________________________________________________ + नयनुं विशेष स्वरूप जाणवुं होय तेणे प्रवचनसारमां छेल्ले ४७ नयो आप्या छे तेनो
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अ. १ सूत्र ६] [२प सम्यक्त्व थाय छे, माटे तेनुं श्रद्धान करवुं. ए बन्ने नयोने समकक्षी (सरखी हदना) मानवा ते मिथ्यात्व छे.
वीतरागे कहेलो व्यवहार अशुभमांथी बचावी जीवने शुभभावमां लई जाय छे; तेनुं द्रष्टांत द्रव्यलिंगी मुनि छे; ते भगवाने कहेलां व्रत वगेरे निरतिचार पाळे छे अने तेथी शुभभाव वडे नवमी ग्रैवेयके जाय छे, पण तेनो संसार ऊभो रहे छे; अने भगवाने कहेलो निश्चय शुभ अने अशुभ बन्नेथी बचावी जीवने शुद्धभावमां-मोक्षमां लई जाय छे, तेनुं द्रष्टांत सम्यग्द्रष्टि छे के जे नियमा (चोक्कस) मोक्ष प्राप्त करे छे.
जैन शास्त्रोना अर्थ करवानी पद्धतिः- जैनशास्त्रोमां वस्तुनुं स्वरूप समजाववाना बे प्रकार छेः निश्चयनय अने व्यवहारनय.
(१) निश्चयनय एटले के वस्तु सत्यार्थपणे जेम होय तेम ज कहेवुं ते; माटे निश्चयनयनी मुख्यताथी ज्यां कथन होय त्यां तेने तो ‘सत्यार्थ एम ज छे’ एम जाणवुं अने-
(र) व्यवहारनय एटले के वस्तु सत्यार्थपणे तेम न होय पण पर वस्तु साथेनो संबंध बताववा माटे कथन होय-जेमके ‘घीनो घडो.’ घडो ते घीनो नथी पण माटीनो छे, छतां घी अने घडो बन्ने एक जग्याए रहेलां छे तेटलुं बताववा तेने ‘घीनो घडो’ कहेवामां आवे छे; ए रीते ज्यां व्यवहारथी कथन होय त्यां ‘खरेखर तेम नथी पण निमित्तादि बताववा माटे उपचारथी ते कथन छे’ एम समजवुं.
बन्ने नयोना कथनने सत्यार्थ जाणवुं अर्थात् ‘आ प्रमाणे पण छे तथा आ प्रमाणे पण छे’ एम मानवुं ते भ्रम छे. माटे निश्चय कथनने सत्यार्थ जाणवुं अने व्यवहारकथनने सत्यार्थ न जाणवुं, पण निमित्तादि बतावनारूं ते कथन छे-एम समजवुं.
आ प्रमाणे बन्ने नयोना कथननो अर्थ करवो ते बन्ने नयोनुं ग्रहण छे. बन्नेने आदरवालायक गणवा ते भ्रम छे. सत्यार्थने ज आदरवालायक गणवुं जोईए.
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२६] [मोक्षशास्त्र
जे जीव आत्माना त्रिकाळी स्वरूपने स्वीकारे पण वर्तमान पर्यायमां पोताने विकार छे ते न स्वीकारे-ते निश्चयाभासी छे, तेने शुष्कज्ञानी पण कहेवामां आवे छे.
जीवने शुभभावथी धर्म थाय एम स्वीकारे, पण जीवना त्रिकाळी ध्रुवस्वभावने न स्वीकारे अने तेथी ते तरफ पोतानुं वलण न फेरवे ते व्यवहाराभासी छे; तेने क्रियाजड पण कहेवामां आवे छे. शरीरनी क्रियाथी धर्म थाय एम माने ते तो व्यवहाराभासथी पण घणे दूर छे.
नय ‘रागवाळा’ तथा ‘रागवगरना’ एम बे प्रकारना छे; तेमां आगमनो प्रथम अभ्यास करतां नयोनुं जे ज्ञान थाय ते रागसहित नय छे; त्यां ते राग होवा छतां रागथी धर्म नथी एम जीव माने तो ते नयनुं ज्ञान साचुं छे, पण जो रागथी धर्म थाय एम माने तो ते ज्ञान नयाभास छे. बन्ने नयोनुं साचुं ज्ञान कर्या पछी पोताना पर्याय उपरनुं लक्ष छोडी पोताना त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वभाव तरफ जीव लक्ष करे त्यारे सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव प्रगटे छे तेथी ते नय रागरहित नय छे; तेने ‘शुद्ध नयनो आश्रय अथवा शुद्धनयनुं अवलंबन’ पण कहेवामां आवे छे; ते दशाने ‘नयातिक्रांत’ पण कहेवामां आवे छे, तेने ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कहेवामां आवे छे अने ‘आत्मानो अनुभव’ पण तेने ज कहेवामां आवे छे.
सप्तभंगी बे प्रकारनी छे. आ सात भंगनुं स्वरूप चोथा अध्यायना उपसंहारमां आपेल छे त्यांथी जाणी लेवुं. बे प्रकारनी सप्तभंगी छे, तेमां जे सप्तभंगीथी एक गुण के पर्याय द्वारा आखुं द्रव्य जाणवामां आवे ते प्रमाण- सप्तभंगी छे; अने जे सप्तभंगीथी कहेवामां आवेल गुण अथवा पर्याय द्वारा ते गुण के पर्यायनुं ज्ञान थाय ते नयसप्तभंगी छे. आ सप्तभंगीनुं ज्ञान करतां, दरेक द्रव्य स्वतंत्र छे अने एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी शके नहि-एवी खातरी थवाथी, अनादिनी जीवनी ऊंधी मान्यता टळी जाय छे.
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अ. १ सूत्र ६] [२७ मानवो ते भूल छे. मोक्षमार्ग बे नथी परंतु मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गनुुं निरूपण कर्युं छे ते निश्चयमोक्षमार्ग छे; तथा जे मोक्षमार्ग तो नथी परंतु मोक्षमार्गनुं निमित्त छे-तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे. आ शास्त्रमां मुख्यपणे व्यवहारनयथी कथन छे, केमके तेमां जिज्ञासुओने समजाववा माटे भेदो अने निमित्तोना वर्णन द्वारा कथन करवामां आव्युं छे. ए लक्षमां राखवुं के व्यवहारनयनां शास्त्रो भेदमां रोकवा माटे नथी पण भेदद्वारा अभेद आत्माने समजावे छे. तेथी तेने व्यवहार शास्त्रो कहेवामां आवे छे. जो आत्मानुं अभेदपणुं जीव न समजे अने मात्र भेदने ज जाणे तो तेने राग टळे नहि अने धर्म थाय नहि; माटे आत्मानुं अभेदपणुं समजवानी जरूर छे. जो भेद पाडीने कहेवामां न आवे तो जीवो वस्तुस्वरूप समजी शके नहि, माटे भेदो द्वारा वस्तुस्वरूप समजाववामां आवे छे.
जैनशास्त्रोमां अनेकान्त साचा जीवादी तत्त्वोनुं निरूपण छे, तथा साचो रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग बताव्यो छे; माटे जो जीव तेनी ओळखाण करे तो मिथ्याद्रष्टि रहे नहि, तेमां वीतरागभाव पोषवानुं ज प्रयोजन छे, पण रागभाव (पुण्य- पापभाव) पोषवानुं प्रयोजन नथी; माटे जेओ रागथी-पुण्यथी धर्म थाय एम माने छे तेओ जैनशास्त्रना मर्मने जाणता नथी.
जे मनुष्यशरीरने पोतानुं माने, हुं मनुष्य छुं एम माने, शरीर ते हुं छुं अथवा शरीर मारुं छे एम माने छे एटले के शरीरनुं कांई कार्य जीव करी शके एम माने छे ते आत्मा अने अनंत रजकणोने एकरूप मानतो होवाथी (अर्थात् ‘अनंत’ना मेळापने ‘एक’ मानतो होवाथी) मिथ्याद्रष्टि छे; अने तेनुं ज्ञान ते निश्चयकुनय छे. हुं मनुष्य छुं एवी मान्यता पूर्वक वर्तन करवुं ते तेनो (मिथ्याद्रष्टिनो) व्यवहार छे तेथी ते व्यवहार-कुनय छे. खरी रीते तो ते व्यवहारने निश्चय गणे छे जेमके-‘शरीर ते हुं.’-आ द्रष्टांतमां शरीर पर छे, ते जीव साथे मात्र एकक्षेत्रावगाहे छे छतां तेने पोतारूप मान्युं तेथी तेणे व्यवहारने निश्चय गण्यो. ‘हुं ते शरीर’ एम पण ते माने छे, तेथी तेणे निश्चयने व्यवहार गण्यो छे. पर द्रव्योनुं पोते करी शके अने पर पोताने लाभ-नुकशान करी शके एम मानता होवाथी तेओ मिथ्या एकांती छे.
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२८] [मोक्षशास्त्र
समस्त साची विद्याना मूळरूप पोताना भगवान आत्माना स्वभावने प्राप्त थवुं, आत्माना स्वभावनी भावनामां जोडावुं अने आत्मस्वभावमां स्थिरता वधारवी ते सम्यक् अनेकान्तद्रष्टि छे. सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना एकरूप-ध्रुवस्वभावरूप आत्मानो आश्रय करे छे ते तेनो निश्चय-सुनय छे, अने अचलित चैतन्यविलासरूप आत्मव्यवहार (शुद्धपर्याय) जे प्रगट थाय ते तेनो व्यवहार-सुनय छे.
सम्यग्दर्शन ते श्रद्धागुणनो शुद्धपर्याय छे, तेनो विषय आत्मानो त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यभाव छे. सम्यग्ज्ञान ते ज्ञानगुणनो शुद्ध पर्याय छे, तेनो विषय आत्मानो त्रिकाळी चैतन्यभाव तथा वर्तमान पर्याय ए बन्ने छे. सम्यक्चारित्र ते चारित्रगुणनो शुद्ध पर्याय छे, तेनुं कार्य सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक पोताना स्वरूपमां स्थिरता करवी अने सिद्धदशारूप कार्यने उत्पन्न करवुं ते छे.
दरेक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाळ अने स्वभावे पोताथी छे अने पर वस्तुना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे ते वस्तु नथी, तेथी दरेक वस्तु पोतानुं ज कार्य करी शके-एम जाणवुं ते खरी नीति छे. जिनेन्द्रदेवे कहेलुं अनेकान्तस्वरूप, प्रमाण अने निश्चय व्यवहाररूप नय ए ज नीति छे. जे सत्यपुरूषो अनेकान्त साथे सुसंगत द्रष्टि वडे अनेकान्तमय वस्तुस्थितिने देखे छे तेओ स्याद्वादनी शुद्धिने पामीने-जाणीने एटले के जिनेश्वरना मार्गने-न्यायने नहि उल्लंघता थका ज्ञानस्वरूप थाय छे.
नोंधः– (१) अनेकान्तने समजाववानी रीतने ‘स्याद्वाद’ कहेवामां आवे छे. (र) सम्यक्-अनेकान्तने प्रमाण कहेवामां आवे छे ते टूंकुं कथन छे; खरी रीते सम्यक्-अनेकान्तनुं ज्ञान ते प्रमाण छे. तेम ज सम्यक् एकांतने नय कहेवामां आवे छे ते टूंकुं कथन छे, खरी रीते सम्यक् एकांतनुं ज्ञान ते नय छे.
मिथ्या एकांतद्रष्टिने वीतराग भगवान परिग्रह कहे छे, अने ते सम्यक् अनेकान्तद्रष्टि वडे दूर थई शके छे.
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अ. १ सूत्र ६] [२९ पण वपराय छे; जेम के सर्व जीवो द्रव्यअपेक्षाए सिद्धसमान छे, १ आत्माना सिद्ध पर्यायने ‘निश्चयपर्याय’र कहेवामां आवे छे, अने आत्मामां थतां विकारी भावने ‘निश्चयबंध’३ कहेवामां आवे छे.
पोताना द्रव्य के पर्यायने ज्यारे निश्चय कहेवामां आवे छे त्यारे, आत्मानी साथे परद्रव्यनो जे संबंध होय तेने आत्माना कहेवामां आवे ते व्यवहार छे-ते उपचार-कथन छे; जेम के जड-कर्मने आत्मानां कहेवां ते व्यवहार छे; जड कर्म ते परद्रव्यनी अवस्था छे, आत्मानी अवस्था नथी-छतां तेने आत्मानां कहेवामां आवे छे, ते कथन निमित्त-नैमित्तिक संबंध बताववा माटे होवाथी ते व्यवहारनय छे- उपचारकथन छे.
आ अध्यायना ३३ मा सूत्रमां आपेला नय ते आत्माने तथा दरेक द्रव्यने लागु पडता होवाथी तेने व्यवहारशास्त्रमां निश्चयनयना विभाग गणवामां आवे छे. ए सात नयोमांथी पहेला त्रण, द्रव्यार्थिकनयना विभाग छे अने पछीना चार, पर्यायार्थिकनयना विभाग छे; पण ते साते नयो भेद होवाथी, अने तेना लक्षे राग थतो होवाथी अने ते राग टाळवा योग्य होवाथी अध्यात्म शास्त्रोमां ते बधाने व्यवहारनयना पेटा विभागो गणवामां आवे छे.
शुद्ध द्रव्यार्थिकनयनी द्रष्टिए आत्मा त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यस्वरूप छे-अहीं (त्रिकाळ शुद्ध कहेवामां) वर्तमान विकारी पर्याय गौण करवामां आवे छे. ते विकारी पर्यायअवस्था होवाथी ते पर्यायार्थिकनयनो विषय छे; अने ज्यारे ते विकारी दशा आत्मामां थाय छे एम बताववुं होय त्यारे, ते विकारी पर्याय अशुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय थाय छे. ते पर्याय परद्रव्यना संयोगे थाय छे एम बताववुं होय त्यारे ते विकारी पर्याय व्यवहारनयनो विषय थाय छे.
आत्मानो अधूरो पर्याय पण व्यवहारनो विषय छे, त्यां व्यवहारनो अर्थ भेद थाय छे-एम समजवुं.
रत्नत्रय जीवथी अभिन्न छे एम ज्ञान करवुं ते द्रव्यार्थिकनयनुं स्वरूप छे तथा रत्नत्रय जीवथी भिन्न छे एम ज्ञान करवुं ते पर्यायार्थिकनयनुं स्वरूप छे, अने रत्नत्रयमां अभेदपूर्वक प्रवृत्ति होवी ते निश्चयनयथी मोक्षमार्ग छे, तथा भेदपूर्वक प्रवृत्ति होवी ते व्यवहारनयथी मोक्षमार्ग छे.
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३०] [मोक्षशास्त्र
निश्चयरत्नत्रयनुं जे समर्थन करवामां आवे छे तेनुं तात्पर्य ए छे के- भेदप्रवृत्ति ते व्यवहाररत्नत्रय छे अने अभेद प्रवृत्ति ते निश्चयरत्नत्रय छे.
हे जीव! प्रथम तारे धर्म करवो छे के नहि ते नक्की कर. जो धर्म करवो होय तो ‘परने आश्रये मारो धर्म नथी’ एवी श्रद्धा द्वारा पराश्रय उपर अभिप्रायमां प्रथम काप मूक. परथी जे जे पोतामां थतुं मान्युं छे ते ते मान्यताने साचा भानवडे बाळी नाख. जेम सात (पुण्य-पाप सहित नव) तत्त्वोने जाणी तेमांथी जीवनो ज आश्रय करवो भूतार्थ छे, तेम अधिगमना उपायो जे प्रमाण, नय, निक्षेप छे तेने जाणी, तेमांथी एक जीवनो ज आश्रय करवो भूतार्थ छे अने ते ज सम्यग्दर्शन छे- एम समजवुं. ६.
स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति अने विधान-तेनाथी पण सम्यग्दर्शनादि तथा जीवादिक तत्त्वोनो व्यवहार थाय छे.
१–निर्देश-वस्तुस्वरूपना कथनने निर्देश कहे छे. र–स्वामित्व-वस्तुना अधिकारीपणाने स्वामित्व कहे छे. ३–साधन-वस्तुनी उत्पत्तिना कारणने साधन कहे छे. ४–अधिकरण-वस्तुना आधारने अधिकरण कहे छे. प–स्थिति-वस्तुना काळनी अवधिने स्थिति कहे छे. ६–विधान-वस्तुना भेदोने विधान कहे छे. उपर कह्या ते छ प्रकारे सम्यग्दर्शननुं वर्णन नीचे प्रमाणे छेः १–निर्देश-जीवादि सात तत्त्वोनी यथार्थ श्रद्धापूर्वक निज शुद्धात्मानो प्रतिभास-विश्वास-प्रतीति.
३–साधन-साधनना बे भेद छे-अंतरंग अने बाह्य. अंतरंग साधन
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अ. १ सूत्र ७] [३१ (अंतरंगकारण) तो पोताना शुद्धात्माना त्रिकाळी ज्ञायकभाव (पारिणामिकभाव) नो आश्रय छे; अने बाह्य कारण जुदा जुदा प्रकारना होय छे. तिर्यंच अने मनुष्यगतिमां १-जातिस्मरण, र-धर्मश्रवण अगर ३-जिनबिंबदर्शन-ए निमित्तो होय छे; देवगतिमां बारमा स्वर्ग पहेलां १-जातिस्मरण, र-धर्मश्रवण, ३-जिन- कल्याणकदर्शन अगर ४-देवऋद्धिदर्शन होय छे अने तेनाथी आगळ सोळमा स्वर्ग सुधी १-जाति स्मरण, २-धर्मश्रवण अगर ३-जिनकल्याणक दर्शन होय छे. नव ग्रैवेयकोमां १-जातिस्मरण अगर र-धर्म-श्रवण होय छे. नरकगतिमां त्रीजी नरक सुधी जातिस्मरण, धर्म-श्रवण अगर दुःखानुभव निमित्त होय छे अने चोथाथी सातमी नरक सुधी जातिस्मरण अगर दुःखानुभव निमित्त होय छे.
नोंधः– उपर जे धर्मश्रवण जणाव्युं छे ते धर्मश्रवण सम्यग्ज्ञानीओ पासेथी कर्युं होवुं जोईए.
शंकाः– सर्वे नारकी जीवो विभंगज्ञान द्वारा एक, बे या त्रणादि भव जाणे छे तेथी बधाने जातिस्मरण थाय छे माटे बधा नारकी जीवो सम्यग्द्रष्टि थई जवा जोईए ने?
समाधानः– सामान्यरूपे भवस्मरण द्वारा सम्यकत्वनी प्राप्ति थती नथी, पण पूर्वभवमां धर्मबुद्धिथी करेलां अनुष्ठानो ऊंधां (विफळ) हतां एवी प्रतीति प्रथम सम्यकत्वनी उत्पत्तिनुं कारण थाय छे, ए लक्षमां राखी भवस्मरणने सम्यकत्वनी उत्पत्तिनुं कारण कह्युं छे. नारकी जीवोने पूर्वभवनुं स्मरण होवा छतां उपर कहेला उपयोगनो घणाने अभाव होय छे. उपर कहेला प्रकारवाळुं जातिस्मरण प्रथम सम्यकत्वनी उत्पत्तिनुं कारण थाय छे.
शंकाः– नारकी जीवोने धर्मश्रवण केवी रीते संभवे छे, त्यां तो ऋषिओना (साधुओना) गमननो अभाव छे?
समाधानः– पोताना पूर्वभवना संबंधीओने धर्म उत्पन्न कराववामां प्रवृत्त अने तमाम बाधाओ रहित सम्यग्द्रष्टि देवोनुं त्यां (त्रीजी नरक सुधी) गमन होय छे.
शंकाः– जो वेदनानो अनुभव सम्यक्त्वनी उत्पत्तिनुं कारण होय तो बधा नारकीओने वेदनानो अनुभव छे माटे बधाने सम्यक्त्व थवुं जोईए ने?
समाधानः– वेदना सामान्य सम्यक्त्वनी उत्पत्तिनुं कारण नथी; पण जे जीवोने एवो उपयोग होय छे के-आ वेदना मिथ्यात्वने कारणे उत्पत्ति थइ छे-ते जीवोने वेदना सम्यकत्वनी उत्पत्तिनुं कारण थाय छे; बीजा जीवोने वेदना, सम्यकत्वनी
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३२] [मोक्षशास्त्र उत्पत्तिनुं कारण थतुं नथी. (श्री धवला पुस्तक छठ्ठुं, पृष्ठ ४रर-४र३)
समाधानः– जिनबिंबदर्शनथी
वाळे तेने) निधत्त अने निकाचितरूप मिथ्यात्वादि कर्मकलापनो पण क्षय देखवामां आवे छे; तेथी जिनबिंबदर्शन प्रथम सम्यकत्वनी उत्पत्तिनुं कारण थाय छे. (श्री धवला. पुस्तक छठ्ठुं, पृष्ठ ४र७-४र८]
४–अधिकरणः– सम्यग्दर्शननुं आभ्यंतर अधिकरण आत्मा छे अने बाह्य अधिकरण त्रसनाडी छे. [लोकाकाशनी मध्यमां चौद राजु लांबी अने एक राजु पहोळी जे सळंग जग्या छे तेने त्रसनाडी कहेवाय छे.)
प–स्थितिः– त्रणे प्रकारना सम्यग्दर्शननी नानामां नानी स्थिति अंतर्मुहूर्त छे. औपशमिकनी उत्कृष्ट स्थिति पण तेटली ज छे, क्षायोपशमिकनी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर छे अने क्षायिकनी स्थिति सादि-अनंत छे, तथा संसारमां रहेवानी अपेक्षाए तेनी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर तथा अंतर्मुहूर्त सहित आठ वर्ष कम-बे क्रोडीपूर्व छे.
६–विधानः– सम्यग्दर्शन एक प्रकारे, अथवा स्वपर्यायनी लायकातनी अपेक्षाए त्रण प्रकारे-औपशमिक, क्षायोपशमिक अने क्षायिक; अथवा आज्ञा, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ अने परम-अवगाढ एम दश प्रकारे छे.।। ७।।
सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काळ, अंतर, भाव अने अल्पबहुत्व ए आठ अनुयोग द्वारा पण पदार्थनुं ज्ञान थाय छे.
सत् अने संख्या–ते द्रव्य, गुण, पर्यायना सत्त्वनी अपेक्षाए पेटा भेद छे. सत् सामान्य छे, संख्या विशेष छे.
काळ अने अंतर–ते काळना पेटा भेद छे. काळ सामान्य छे, अंतर विशेष छे.
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अ. १ सूत्र ८] [३३
भाव अने अल्पबहुत्व–ते भावना पेटा भेद छे. भाव सामान्य छे, अल्पबहुत्व विशेष छे.
सत्–वस्तुना अस्तित्वने सत् कहे छे. संख्या–वस्तुना परिमाणोनी गणतरीने संख्या कहे छे. क्षेत्र–वस्तुना वर्तमान काळना निवासने क्षेत्र कहे छे. स्पर्शन–वस्तुना त्रणेकाळ संबंधी निवासने स्पर्शन कहे छे. काळ–वस्तुनी स्थिर रहेवानी मर्यादाने काळ कहे छे. अंतर–वस्तुना विरहकाळने अंतर कहे छे. भाव–गुणने अथवा औपशमिक, क्षायिक आदि पांच भावोने भाव कहे छे. अल्पबहुत्व–अन्य पदार्थनी अपेक्षाथी वस्तुनी हीनता-अधिकताना वर्णनने अल्पबहुत्व कहे छे.
अनुयोग–भगवाने कहेलो उपदेश विषय अनुसार जुदा जुदा अधिकारमां आवेलो छे, ते दरेक अधिकारने अनुयोग कहे छे. सम्यक्ज्ञाननो उपदेश आपवा अर्थे प्रवृत्त थयेलो अधिकार ते अनुयोग छे.
जो ‘सत्’ शब्द सामान्यथी सम्यग्दर्शनादिनुं होवापणुं कहेनारो होय तो निर्देशमां तेनो समावेश थई जाय, पण गति, ईन्द्रिय, काय, योग वगेरे चौद मार्गणाओ छे तेमां कई जग्याए क्या प्रकारनुं सम्यग्दर्शन छे अने क्या प्रकारनुं नथी ते प्रकारना विशेषनुं ज्ञान ‘सत्’थी थाय छे, ‘निर्देश’थी ए ज्ञान थतुं नथी; ए प्रमाणे सत् अने निर्देशमां तफावत छे.
‘सत्’ शब्दनुं एवुं सामर्थ्य छे के, ते अनधिकृत पदार्थोनुं (जेनो अधिकार न होय तेवा पदार्थोनुं) पण ज्ञान करावी शके छे. जो ‘सत्’ शब्द न वापर्यो होत तो आगला सूत्रमां सम्यग्दर्शन वगेरे तथा जीव आदि सात तत्त्वोनुं ज अस्तित्व (‘निर्देश’ शब्दने कारणे) छे एवुं ज्ञान थात, अने जीवना क्रोध, मान आदि पर्याय तथा पुद्गलना वर्ण, गंध आदि तथा घट पट आदि पर्याय-जेनो आ अधिकार नथी- तेनुं अस्तित्व नथी-एवो अर्थ थात; माटे जीवमां क्रोधादि छे तथा पुद्गलमां वर्णादि छे एवा अनधिकृत पदार्थो छे एवुं ज्ञान कराववा माटे ‘सत्’ शब्द आ सूत्रमां वापर्यो छे.
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३४] [मोक्षशास्त्र
प्रकारनी गणना ते विधान छे अने ते भेदनी गणनाने (भेदने) संख्या कहे छे; जेमके सम्यग्द्रष्टिना त्रण प्रकार छे-(१) औपशमिक सम्यग्द्रष्टि (र) क्षायोपशमिक सम्यग्द्रष्टि अने (३) क्षायिक सम्यग्द्रष्टि. ए त्रण तो प्रकार छे, तेनी गणतरी करवी के औपशमिक सम्यग्द्रष्टि केटला, क्षायोपशमिक सम्यग्द्रष्टि केटला अथवा क्षायिक सम्यग्द्रष्टि केटला-ए भेदगणना छे. आ विशेषतानुं ज्ञान ‘संख्या’ शब्दथी थाय छे; भेदोनी गणतरीनी विशेषता जणाववानुं जे कारण थाय छे, ते ‘संख्या’ छे.
‘विधान’ शब्दमां मूळ पदार्थना भेदो ग्रहण करवा ज मान्या छे, तेथी भेदोना अनेक प्रकारना भेदोनुं ग्रहण करवा माटे ‘संख्या’ शब्द वपराय छे.
‘विधान’ कहेवाथी भेद-प्रभेद आवी जाय एम गणवामां आवे तो, विशेष स्पष्टता माटे ‘संख्या’ शब्द वापरवामां आव्यो छे एम समजवुं.
‘अधिकरण’ शब्द थोडीक जग्या सूचवे छे तेथी ते व्याप्य छे. ‘क्षेत्र’ शब्द व्यापक छे, ते अधिक जग्या सूचवे छे. ‘अधिकरण’ कहेवाथी संपूर्ण पदार्थोनुं ज्ञान थतुं नथी. क्षेत्र कहेवाथी संपूर्ण पदार्थोनुं ज्ञान थाय छे; माटे समस्त पदार्थोना ज्ञान माटे ‘क्षेत्र’ शब्द आ सूत्रमां वापर्यो छे.
‘क्षेत्र’ शब्द अधिकरणथी विशेषता सूचवे छे, तो पण ते एकदेशनो विषय करे छे अने ‘स्पर्शन’ शब्द सर्वदेशनो विषय करे छे. जेम-कोईए पूछयुं के ‘राजा क्यां रहे छे?’ उत्तर आप्यो के ‘अमुक नगरमां रहे छे.’ अहीं संपूर्ण नगरमां राजा रहेतो नथी परंतु नगरना एक देशमां रहे छे तेथी राजानो निवास नगरना एकदेशमां होवाथी ‘नगर’ क्षेत्र छे. कोईए पूछयुं के ‘तेल क्यां छे?’ उत्तर आप्यो के ‘तेल तलमां रहे छे.’ अहीं सर्वत्र तेल रहेवाना कारणे तल ते तेलनुं स्पर्शन छे; एवी रीते क्षेत्र अने स्पर्शन वच्चे एक तफावत छे.
क्षेत्र वर्तमान काळनो विषय छे, स्पर्शन त्रिकाळगोचर विषय छे. वर्तमान अपेक्षाए जळ घडामां छे, पण ते त्रिकाळ नथी. त्रणेकाळ जे जग्याए पदार्थनी सत्ता रहे तेनुं नाम स्पर्शन छे; एवी रीते क्षेत्र अने स्पर्शननो बीजो तफावत छे.
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अ. १ सूत्र ८] [३प शब्द व्यापक छे, ते बधा पदार्थोनी मर्यादा बतावे छे. ‘स्थिति’ थोडा ज पदार्थोनुं ज्ञान करावे छे. ‘काळ’ सर्व पदार्थोनुं ज्ञान करावे छे. ‘काळ’ना बे प्रकार छे- (१) निश्चयकाळ, (र) व्यवहारकाळ. निश्चयकाळ ते मुख्यकाळ छे, अने पर्यायविशिष्ट पदार्थोनी हद बतावनारो अर्थात् कलाक, घडी, पळ आदि व्यवहारकाळ छे-एम ‘काळ’ शब्द बतावे छे. ‘स्थिति’नो अर्थ काळनी मर्यादा छे अर्थात् ‘अमुक पदार्थ अमुक जग्याए आटलो काळ रहे’ ते वातने ‘स्थिति’ शब्द बतावे छे; एटले काळ अने स्थिति ए बेमां तफावत छे.
‘भाव’ शब्द निक्षेपना सूत्रमां छे छतां अहीं शा माटे?
निक्षेपना सूत्र (सूत्र-प) मां ‘भाव’नो अर्थ एवो छे के-वर्तमानमां जे अवस्था मोजूद होय तेने भावनिक्षेप जाणवो अने भविष्यमां जे अवस्था थवानी होय तेने वर्तमानमां छे-एम कहेवुं ते द्रव्यनिक्षेप छे; अने अहीं(सूत्र-८ मां) ‘भाव’ शब्दना उल्लेखथी औपशमिक, क्षायिक आदि भावोनुं ग्रहण छे. जेमके औपशमिक पण सम्यग्दर्शन अने क्षायिक आदि पण सम्यग्दर्शन कहेवाय छे; एम बन्ने ठेकाणे (सूत्र प मां तथा सूत्र ८ मां) ‘भाव’ शब्दनुं जुदुं जुदुं प्रयोजन छे.
केटलाक शिष्यो तो थोडुं कहेवाथी विशेष तात्पर्य समजी ले छे; अने केटलाक शिष्यो एवा होय छे के ज्यारे विस्तारथी कहेवामां आवे त्यारे ते समजी शके. परम कल्याणमय आचार्यनो उद्देश हरेकने तत्त्वोनुं स्वरूप समजाववानो छे. प्रमाण-नयथी ज समस्त पदार्थोनुं ज्ञान थइ शके छे छतां विस्तारकथनथी समजी शके तेवा जीवोने निर्देश आदि तथा सत् संख्यादिनुं ज्ञान कराववा माटे जुदां जुदां सूत्रो कह्यां छे; माटे ‘एक सूत्रमां बीजानो समावेश थइ जाय छे माटे विस्तार व्यर्थ छे’ एवी शंका व्याजबी नथी.
प्रश्नः– जिनबिंब(जिनप्रतिमा) ना दर्शनथी सम्यग्दर्शनरूप फळ थवुं शास्त्रमां कह्युं छे तो दर्शन करनार बधांने ते फळ थवुं जोइए, छतां बधांने ए फळ केम थतुं नथी?
उत्तरः– सर्वज्ञनी सत्ता (होवापणा) नो जेणे निर्णय कर्यो होय छे तेने जिनप्रतिमाना दर्शनथी सम्यग्दर्शन फळ थाय छे, बीजाने थतुं नथी बीजाओए सर्वज्ञनो निश्चय तो कर्यो नथी, पण मात्र कुळपद्धतिथी, संप्रदायना आश्रयथी अगर मिथ्याधर्मबुद्धिथी दर्शन-पूजनादिरूप तेओ प्रवर्त छे, केटलाक मतपक्षना हठाग्रहीपणाथी अन्यदेवने मानता नथी, मात्र जिनदेवादिना सेवक बनी रह्या छे. ए बधाने नियमथी पोताना आत्मकल्याणरूप कार्यनी सिद्धि थती नथी.
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३६] [मोक्षशास्त्र
प्रश्नः– सर्वज्ञनी सत्तानो निश्चय अमाराथी न थयो तेथी शुं थयुं? ए देव तो साचा छे माटे पूजनादि करवां अफळ थोडां ज जाय छे?
उत्तरः– किंचित् मंदकषायरूप परिणति थशे तो पुण्यबंध थशे, परंतु जिनमतमां तो देवना दर्शनथी सम्यग्दर्शनरूप फळ थवुं कह्युं छे ते तो नियमथी सर्वज्ञनी सत्ता जाणवाथी ज थशे, अन्य प्रकारे नहि थाय. तेथी जेने साचा जैनी थवुं छे तेणे तो सत्देव, सत्गुरु अने सत्शास्त्रने आश्रये सर्वज्ञनी सत्तानो तत्त्वनिर्णय करवो योग्य छे; पण जेओ तत्त्वनिर्णय तो नथी करतां अने पूजा, स्तोत्र, दर्शन, त्याग, तप, वैराग्य, संयम, संतोष आदि बधांय कार्यो करे छे तेनां ए बधाय कार्यो असत्य छे. माटे सत् आगमनुं सेवन, युक्तिनुं अवलंबन, परापर सद्गुरुओनो उपदेश अने स्वानुभव द्वारा तत्त्वनिर्णय करवो योग्य छे.
प्रश्नः– मिथ्याद्रष्टि देव चार कारणोथी प्रथम औपशमिक सम्यकत्व प्रगट करे छे, एम कह्युं-तेमां एक कारण ‘जिनमहिमा’ कह्युं छे, पण जिनबिंबदर्शन न कह्युं तेनुं शुं कारण?
उत्तरः– जिनबिंबदर्शननो जिनमहिमादर्शनमां समावेश थई जाय छे केमके जिनबिंब विना जिनमहिमानी उत्पत्ति थती नथी.
प्रश्नः– स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक अने परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमा जिनबिंब विना करवामां आवे छे तेथी जिनमहिमादर्शनमां जिनबिंबपणानुं अविनाभावीपणुं न आव्युं?
उत्तरः– स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक अने परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमामां पण भावी जिनबिंबनुं दर्शन थाय छे. बीजी रीते जोतां ए महिमामां उत्पन्न थतुं प्रथम सम्यकत्व माटे जिनबिंबदर्शन निमित्त नथी पण जिनगुणश्रवण निमित्त छे.
प्रश्नः– देवऋद्धिदर्शनमां जातिस्मरणनो समावेश केम न थाय? उत्तरः– पोतानी अणिमादिक ऋद्धिओने देखीने ज्यारे एवो विचार उत्पन्न थाय छे के-आ ऋद्धिओ जिनभगवाने उपदेशेला धर्मानुष्ठानथी उत्पन्न थई छे, त्यारे प्रथम सम्यकत्वनी प्राप्ति माटे जातिस्मरणनिमित्त थाय छे; पण ज्यारे सौधर्मादिक देवोनी महाऋद्धिओ देखीने एवुं ज्ञान उत्पन्न थाय छे के-सम्यग्दर्शन सहितना संयमना फळथी-शुभभावथी-ते उत्पन्न थई छे अने हुं सम्यकत्वरहितना द्रव्यसंयमना फळथी वाहनादिक नीच देवोमां उत्पन्न थयो छुं त्यारे प्रथम सम्यकत्वनुं ग्रहण देवऋद्धिदर्शन निमित्तक थाय छे, आ रीते जातिस्मरण अने देवऋद्धिदर्शन ए बे कारणोमां फेर छे.
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अ. १ सूत्र ९] [३७
नोंधः– नारकीओमां जातिस्मरण अने वेदनारूप कारणोमां पण आ विवेक लागु पाडी लेवो.
प्रश्नः– आणत, प्राणत, आरण अने अच्युत आ चार कल्पोना मिथ्याद्रष्टि देवोने प्रथम सम्यकत्वमां देवऋद्धिदर्शन कारण केम कह्युं नथी?
उत्तरः– ए चार कल्पोमां महाऋद्धिवाळा उपरना देवोनुं आगमन होतुं नथी, तेथी त्यां महाऋद्धिदर्शनरूप प्रथम सम्यकत्वनी उत्पत्तिनुं कारण कहेवामां आव्युं नथी, ते ज कल्पोमां स्थित देवोनी महाऋद्धिनुं दर्शन प्रथम सम्यकत्वनी उत्पत्तिनुं निमित्त थतुं नथी; केमके ते ऋद्धिओने वारंवार जोवाथी विस्मय थतुं नथी. वळी ते कल्पोमां शुक्ललेश्याना सद्भावने कारणे महाऋद्धिना दर्शनथी कोई संकलेशभाव उत्पन्न थतो नथी.
नव ग्रैवेयकोमां महाऋद्धिदर्शन नथी, केमके त्यां उपरना देवोना आगमननो अभाव छे. जिनमहिमादर्शन पण त्यां नथी, केमके ते विमानवासी देवो नंदीश्वरादिक महोत्सव जोवा जता नथी. अवधिज्ञानथी जिनमहिमाओ तेओ देखे छे, तोय ते देवोने राग ओछो होवाथी जिनमहिमादर्शनथी तेमने विस्मय उत्पन्न थतो नथी.
जिज्ञासु जीवोए जीवादि द्रव्यो तथा तत्त्वोने पिछाणवां; त्यागवायोग्य एवां मिथ्यात्व-रागादि तथा ग्रहण करवा योग्य एवां सम्यक्दर्शनादिकनुं स्वरूप ओळखवुं, प्रमाण-नयोवडे तत्त्वज्ञान प्राप्त करवुं, तथा निर्देश, स्वामित्वादिवडे अने सत्- संख्यादिवडे तेमना विशेषो जाणवा. ८.
मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्।। ९।।
मनःपर्यय अने केवळ ए पांच [ज्ञानम्] ज्ञान छे.
मतिज्ञान– पांच ईन्द्रियो अने मन द्वारा (पोतानी शक्ति अनुसार) जे ज्ञान थाय ते मतिज्ञान छे.
श्रुतज्ञान–मतिज्ञान द्वारा जाणवामां आवेला पदार्थने विशेषरूपथी जाणवो ते श्रुतज्ञान छे.
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३८] [मोक्षशास्त्र
अवधिज्ञान–जे ईन्द्रिय के मनना निमित्त विना रूपी पदार्थोने द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावनी मर्यादासहित प्रत्यक्ष जाणे ते अवधिज्ञान छे.
मनःपर्ययज्ञान–जे ईन्द्रिय के मनना निमित्त विना ज अन्य पुरुषना मनमां स्थित रूपी पदार्थोने द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावनी मर्यादा सहित प्रत्यक्ष जाणे ते मनःपर्ययज्ञान छे.
केवळज्ञान–जे सर्व द्रव्यो अने तेना सर्व पर्यायोने युगपत् (एक साथे) प्रत्यक्ष जाणे ते केवळज्ञान छे.
ज्ञानगुण एक छे; तेना पर्यायना आ पांच प्रकार छे; तेमां एक प्रकार ज्यारे उपयोगरूप होय त्यारे बीजो प्रकार उपयोगरूप होय नहि, तेथी ए पांचमांथी एक समये एक ज ज्ञाननो प्रकार उपयोगरूप होय छे.
सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनपूर्वक होय छे; सम्यग्दर्शन कारण छे अने सम्यग्ज्ञान कार्य छे. सम्यग्ज्ञान ए आत्माना ज्ञानगुणनो शुद्ध पर्याय छे, आत्माथी कोई जुदी ते चीज नथी. सम्यग्ज्ञाननुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छेः-
ज्ञानमां ए त्रणे शरतो पूरी पडती होय ते सम्यग्ज्ञान छे; अर्थात् जो ज्ञानमां विषयप्रतिबोध साथे साथे पोतानुं स्वरूप प्रतिभासित थाय अने ते पण यथार्थ होय तो ते ज्ञान सम्यग्ज्ञान छे.
श्री जिनेन्द्रदेवे कहेला ज्ञानना समस्त भेदने जाणीने, परभावोने छोडीने, निजस्वरूपमां स्थिर थई, जीव-जे चैतन्यचमत्कार मात्र छे-तेमां जे प्रवेशे छे ते तुरत ज मोक्षने पामे छे. ९.
(साचां ज्ञान) छे.
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अ. १ सूत्र १०] [३९
नवमा सूत्रमां कह्यां ते पांच ज्ञान ज प्रमाण छे, बीजां कोई पण प्रमाण-ज्ञान नथी. तेना (प्रमाणना) बे भेद छे-(१) प्रत्यक्ष अने (र) परोक्ष. ईन्द्रियो के ईन्द्रियो अने पदार्थोनो संबंध (सन्निकर्ष) ए कोई प्रमाण नथी-एम समजवुं; एटले के ईन्द्रियोथी ज्ञान थतुं नथी अगर तो ईन्द्रियो अने पदार्थोना संबंधथी ज्ञान थतुं नथी पण उपर कहेलां मति आदि ज्ञान पोताथी थाय छे माटे ज्ञान प्रमाण छे.
प्रश्नः– ईन्द्रियो प्रमाण छे केमके ते वडे ज्ञान थाय छे? उत्तरः– नहि, ईन्द्रियो जड छे अने ज्ञान तो चेतननो पर्याय छे ते जड नथी; माटे आत्मा वडे ज ज्ञान थाय छे.
प्रश्नः– सामो ज्ञेय पदार्थ होय तेनाथी ज्ञान थाय-ए तो खरुं ने? उत्तरः– ते साचुं नथी; जो सामो पदार्थ (ज्ञेय) अने आत्मा ए बे मळीने ज्ञान थाय तो ज्ञाता अने ज्ञेय ए बन्नेनुं फळ ज्ञान थयुं-तो बन्नेने ज्ञान थवुं जोईए, पण तेम थतुं नथी.
उपादान अने निमित्त ए बे थईने एक कार्य करे तो उपादान अने निमित्तनुं स्वतंत्रपणुं रह्युं नहि; उपादान निमित्तने कांई करे नहि अने निमित्त उपादानने कांई करे नहि. ते वखते एकबीजाने अनुकूळ दरेक पोतपोताथी पोतपोताने कारणे पोता माटे हाजर होय छे. उपादान निमित्त बन्ने भेगां थईने काम करे तो बन्ने उपादान थई जाय-पण तेम बने नहि.
आ बाबतमां एवो नियम छे के-अपूर्ण ज्ञाननो उघाड जे वखते पोतानो व्यापार करे त्यारे तेने लायक बाह्य पदार्थो एटले के ईन्द्रियो, अजवाळुं, ज्ञेय पदार्थो, गुरु, शास्त्र वगेरे (पर द्रव्यो) पोतपोताने कारणे हाजर होय ज, ज्ञानने तेनी वाट जोवी पडे नहि. निमित्त-१ नैमित्तिकनो तथा रउपादान-निमित्तनो एवो मेळ होय छे.
प्रश्नः– सम्यग्ज्ञाननुं फळ तमे अधिगम कहो छो, पण ते (अधिगम) तो ज्ञान _________________________________________________________________
१. जे कार्य थयुं तेने निमित्त अपेक्षाए कहेवुं होय त्यारे ते कार्य नैमित्तिक कहेवाय छे. र. जे कार्य थयुं तेना निश्चय अने व्यवहार कारणो बताववां होय त्यारे ‘उपादान-निमित्त’ कहेवाय छे.
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४०] [मोक्षशास्त्र
ज छे, तेथी सम्यग्ज्ञाननुं कांई फळ न होय तेम लागे छे? उत्तरः– आनंद (संतोष), उपेक्षा (राग-द्वेष रहितपणुं) अने अज्ञाननो नाश ए सम्यग्ज्ञाननुं फळ छे. (सर्वार्थसिद्धि पानुं-३३४)
नवमा सूत्रमां कहेलां पांच सम्यग्ज्ञान ए ज प्रमाण छे, ते सिवाय बीजाओ जुदां जुदां प्रमाणो कहे छे पण ते वात खरी नथी. जे जीवने सम्यग्ज्ञान थयुं होय ते पोताना सम्यक्मति अने सम्यक्श्रुतज्ञान वडे पोताने सम्यक्त्व थयानो निर्णय करी शके छे, अने ते ज्ञान प्रमाण अर्थात् साचुं ज्ञान छे. १०.
परोक्ष प्रमाण छे.
अहीं प्रमाण अर्थात् साचां ज्ञानना भेदोमांथी शरूआतना बे एटले के मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान ते परोक्ष प्रमाण छे. ए ज्ञान परोक्ष छे तेथी संशयवाळां के भूलवाळां छे-एम मानवुं नहि; ए तो तद्न साचां ज छे. ए ज्ञानना उपयोग वखते इन्द्रिय के मन निमित्त छे तेथी पर अपेक्षाए तेने परोक्ष कह्यां छे, स्व अपेक्षाए पांचे प्रकारनां ज्ञान प्रत्यक्ष छे.
प्रश्नः– त्यारे सम्यक्मतिज्ञानवाळो जीव पोताने सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शन छे एम जाणी शके?
उत्तरः– ज्ञान सम्यक् छे माटे पोताने सम्यग्ज्ञान थयानो निर्णय बराबर करी शके, अने सम्यग्ज्ञान होय त्यां सम्यग्दर्शन अविनाभावी छे माटे तेनो निर्णय करी शके ज. जो निर्णय न करी शके तो पोतानो अनिर्णय एटले अनध्यवसाय थयो, अने एम थाय तो तेवुं ज्ञान मिथ्याज्ञान छे.
प्रश्नः– सम्यक्मतिज्ञानी दर्शनमोहनीय प्रकृतिना पुद्गलोने प्रत्यक्ष जोई शकतो नथी अने तेनां पुद्गलो उदयरूप होय अने जीव तेमां जोडातो होय तो तेनी भूल न थाय?
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अ. १ सूत्र ११] [४१
उत्तरः– जो भूल थाय तो ज्ञान विपरीत थयुं अने तेथी ते ज्ञान ‘सम्यक्’ न कहेवाय. जेम शरीर बगडतां अशातावेदनीयनो उदय छे अने शातावेदनीयनो उदय नथी तेवुं कर्मना रजकणो प्रत्यक्ष देख्या वगर श्रुतज्ञानना बळवडे साचुं जाणी शके छे, तेम पोताना ज्ञान-अनुभवथी श्रुतज्ञानना बळ वडे दर्शनमोहनीय कर्म उदयरूप नथी एम सम्यक् (यथार्थ) जाणी शके छे.
प्रश्नः– सम्यक्मतिज्ञान बीजो जीव भव्य छे के अभव्य छे ते जाणी शके? उत्तरः– आ बाबतमां श्री धवलाशास्त्रमां (पुस्तक छठ्ठुं-पानुं १७) नीचे प्रमाणे जणाव्युं छेः-
“अवग्रहथी ग्रहण करवामां आवेल अर्थने विशेष जाणवानी आकांक्षा ते ‘ईहा’ छे. जेम कोई पुरुषने देखी ‘शुं आ भव्य छे के अभव्य छे?’ ए प्रकारनी विशेष परीक्षा करवाने ‘ईहाज्ञान’ कहे छे. ईहाज्ञान संदेहरूप नथी, केमके ईहात्मक विचारबुद्धिथी संदेहनो विनाश थई जाय छे. संदेहथी उपर अने अवायथी नीचे तथा अंतराळमां प्रवृत्त थती विचारबुद्धिनुं नाम ईहा छे.
ईहाज्ञानथी जाणेला पदार्थविषयक संदेहनुं दूर थई जवुं ते ‘अवाय’ (निर्णय) छे. पहेलां ईहाज्ञानथी ‘शुं आ भव्य छे के अभव्य छे’ ए प्रकारे जे संदेहरूपी बुद्धि द्वारा विषय करवामां आवेलो जीव छे ते ‘अभव्य नथी, भव्य ज छे, केमके तेमां भव्यत्वना अविनाभावी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुण प्रगटया छे’-ए प्रकारे उत्पन्न थयेल ‘चय’ (निश्चय) ज्ञाननुं नाम ‘अवाय’ छे.
आ उपरथी सिद्ध थाय छे के सम्यक्मतिज्ञान पोताने तथा परने सम्यग्दर्शन छे-एम यथार्थपणे नक्की करी शके छे.
आ मोक्षशास्त्र व्यवहारशास्त्र होवाथी सम्यग्द्रष्टि जीवनो उपयोग पर तरफ रोकायो होय त्यारे जे मति-श्रुतज्ञान थाय छे ते संबंधनुं आ सूत्र छे.
सम्यग्द्रष्टिनो ते वखतनो ज्ञान-उपयोग परोक्ष छे. गौणपणे ते बन्ने ज्ञानो निर्विकल्पता वखते प्रत्यक्ष छे ए तेमां आवी जाय छे. सम्यग्द्रष्टि जे वखते पोताना उपयोगमां जोडायो होय त्यारे ते मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष छे. आ दशा चोथा गुणस्थानथी होय छे. मति-श्रुतात्मक भावमन स्वानुभूति वखते विशेष दशावाळुं छे, छतां श्रेणिसमान तो नहि पण पोतानी भूमिकाने योग्य निर्विकल्प होय छे; तेथी मति-श्रुतात्मक भावमन स्वानुभूति समये प्रत्यक्ष मानवामां आव्युं छे. मति-श्रुतज्ञान
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४२] [मोक्षशास्त्र विना केवळज्ञाननी उत्पत्ति थती नथी तेनुं आ कारण छे. (अवधि-मनःपर्ययज्ञान विना केवळज्ञाननी उत्पत्ति थई शके छे.) [पंचाध्यायी भाग पहेलो, गाथा ७०८ थी ७१९ सुधी आ सूत्रनी चर्चा करी छे. देवकीनंदन शास्त्रीकृत पंचाध्यायी पानुं ३६३ थी ३६८]
अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारणारूप मतिज्ञानने ‘सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष’ पण कहेवामां आवे छे. “घडाना रूपने में प्रत्यक्ष दीठुं” एम लोको कहे छे तेथी ते ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष छे.
श्रुतज्ञानमां त्रण प्रकार पडे छे-(१) संपूर्ण परोक्ष, (र) अंशे परोक्ष अने (३) परोक्ष बिलकुल नहि पण प्रत्यक्ष.
(१) शब्दरूप श्रुतज्ञान छे ते परोक्ष ज छे; तेम ज दूर एवां स्वर्ग-नरकादि बाह्य विषयोनुं ज्ञान कराववावाळुं विकल्परूप जे ज्ञान छे ते पण परोक्ष ज छे.
(र) आभ्यंतरमां सुख-दुःखना विकल्परूप जे ज्ञान थाय छे ते, अथवा “हुं अनंत ज्ञानादिरूप छुं” एवुं जे ज्ञान ते ईषत्-परोक्ष छे. (ईषत् = किंचित).
(३) जे निश्चय भावश्रुतज्ञान छे ते शुद्धात्मानी सन्मुख होवाथी सुखसंवित्ति (ज्ञान) स्वरूप छे. ते ज्ञान जोके पोताने जाणे छे तो पण ईन्द्रियो तथा मनथी उत्पन्न थता विकल्पोना समूहथी रहित होवाना कारणे निर्विकल्प छे; (अभेदनये) तेने ‘आत्मज्ञान’ शब्दथी ओळखवामां आवे छे; ते जोके केवळज्ञाननी अपेक्षाए परोक्ष छे तोपण छद्मस्थोने क्षायिक ज्ञाननी प्राप्ति न होवाथी, क्षायोपशमिक होवा छतां तेने ‘प्रत्यक्ष’ कहेवामां आवे छे.
प्रश्नः– आ सूत्रमां मति अने श्रुतज्ञानने परोक्ष कहेल छे छतां उपर तमे तेने ‘प्रत्यक्ष’ केम कहो छो?
उत्तरः– आ सूत्रमां श्रुतने परोक्ष कह्युं छे ते सामान्य कथन छे; उपर जे भावश्रुतज्ञानने प्रत्यक्ष कह्युं ते विशेष कथन छे. प्रत्यक्षनुं कथन विशेषनी अपेक्षाए छे एम समजवुं.
आ सूत्रमां जो उत्सर्ग कथन न होत तो मतिज्ञानने परोक्ष न कहेत; मतिज्ञान जो परोक्ष ज होत तो तर्कशास्त्रमां तेने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष केम कहेत? तेथी जेम विशेष कथनमां ते मतिज्ञानने प्रत्यक्ष ज्ञान कहेवामां आवे छे तेम ज निज आत्म-