Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 21-32 (Chapter 1).

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अ. १. सूत्र २०] [६३ (७) भावश्रुत अने द्रव्यश्रुत

श्रुतज्ञानमां तारतम्यतानी अपेक्षाए भेद पडे छे; अने तेना निमित्तमां पण भेद पडे छे. भावश्रुत अने द्रव्यश्रुत ए बन्नेमां बे, अनेक अने बार भेद पडे छे. भावश्रुतने भावागम पण कही शकाय छे, अने तेमां द्रव्यआगम निमित्त होय छे. द्रव्य आगम (श्रुत) ना बे भेद-१-अंगप्रविष्ट अने र-अंगबाह्य छे; अंग- प्रविष्टना बार भेद छे. (८) अनक्षरात्मक अने अक्षरात्मक श्रुतज्ञान

अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानना बे भेद-पर्यायज्ञान अने पर्यायसमास छे. सूक्ष्म निगोदिया जीवने उत्पन्न थती वखते जे पहेले समये सर्व जघन्य श्रुतज्ञान होय छे ते पर्यायज्ञान छे. बीजो भेद पर्योयसमास छे. सर्व जघन्य ज्ञानथी अधिक ज्ञानने पर्यायसमास कहे छे. [तेना असंख्यात लोकप्रमाण भेद छे.] निगोदिया जीवने सम्यक् श्रुतज्ञान होतुं नथी पण मिथ्याश्रुत होय छे; माटे आ बे भेद सामान्य श्रुतज्ञाननी अपेक्षाए कह्या छे एम समजवुं. (९) सम्यक् अने मिथ्या एवा बे भेद नहि लेतां; सामान्य मति-श्रुतज्ञाननो विचार करीए तो दरेक छद्मस्थ जीवने मति अने श्रुतज्ञान होय छे. स्पर्शवडे कोई वस्तुनुं जाणवुं थयुं ते मतिज्ञान छे; अने तेना संबंधथी ‘आ हितकारी नथी’ इत्यादि ज्ञान थवुं ते श्रुतज्ञान छे, ते अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान छे. एकेन्द्रियादिक असंज्ञी जीवोने अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान ज होय छे. संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोने बन्ने प्रकारनुं श्रुतज्ञान होय छे.

(१०) प्रमाणना बे प्रकार

प्रमाणना- बे प्रकारनां छे-१-स्वार्थ प्रमाण, र-परार्थ प्रमाण. स्वार्थ प्रमाण तो ज्ञानस्वरूप छे अने परार्थ प्रमाण वचनरूप छे. श्रुत सिवायना चार ज्ञान स्वार्थ प्रमाण छे. श्रुतप्रमाण स्वार्थ-परार्थ बन्नेरूप छे, तेथी ज्ञानरूप अने वचनरूप छे. श्रुत उपादान छे, वचन तेनुं निमित्त छे. [विकल्पनो समावेश वचनमां थई जाय छे.] परार्थप्रमाणनो अंश ते ‘नय’ छे.

[जुओ, पंचाध्यायी भाग-१ पृ.-३४४ श्री देवकीनंदनकृत; जैन सिद्वांत दर्पण पानुं-२२;

राजवार्तिक-पानुं-१प३; सर्वार्थसिद्वि पानुं-प६ अध्याय-१ सूत्र-६] (११) ‘श्रु’तनो अर्थ

श्रुतनो अर्थ ‘सांभळेलो विषय’ अथवा ‘शब्द’ एवो थाय छे. जोके

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६४] [मोक्षशास्त्र

श्रुतज्ञान मतिज्ञान पछी थई शके छे. तोपण वर्णववा लायक तथा शिक्षायोग्य सर्व विषयो तेमां (श्रुतज्ञानमां) आवे छे, अने ते सांभळीने जाणी शकाय छे. ए रीते ‘श्रुतज्ञान’ मां श्रुतनो (शब्दनो) संबंध मुख्यताथी छे; ते कारणे श्रुतज्ञानने शास्त्रज्ञान (भावशास्त्रज्ञान) पण कहेवामां आवे छे. (शब्दो सांभळीने जे श्रुतज्ञान थाय छे ते सिवाय बीजा प्रकारनुं पण श्रुतज्ञान थाय छे.) सम्यग्ज्ञानी पुरुषनो उपदेश सांभळवा उपरथी पात्र जीवोने आत्मानुं यथार्थ ज्ञान थई शके छे ते अपेक्षाए तेने श्रुतज्ञान कहेवामां आवे छे. (१२) रूढिना बळथी पण मतिपूर्वक थता आ विशेष ज्ञानने ‘श्रुतज्ञान’ कहेवामां

आवे छे. (१३) श्रुतज्ञानने वितर्क पण कहेवामां आवे छे. [अध्याय ९, सूत्र-३९] (१४) अंगप्रविष्ट अने अंगबाह्य

अंगप्रविष्ट बार भेदनां नाम–१-आचारांग, २-सूत्रकृतांग, ३-स्थानांग, ४- समवायांग, प-व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ६-ज्ञातृधर्मकथा अंग, ७-उपासक अध्ययनांग, ८-अन्तकृतदशांग, ९-अनुत्तरौपपादिक अंग, १०-प्रश्नव्याकरण अंग, ११-विपाकसूत्रांग अने १२-द्रष्टिप्रवाद अंग. अंगबाह्य श्रुतमां चौद प्रकीर्णक होय छे. आ बार अंग अने चौद पूर्वनी रचना, जे दिवसे तीर्थंकर भगवाननो दिव्य- ध्वनि छुटे छे त्यारे भावश्रुतरूप पर्यायथी परिणत गणधरभगवान एक ज मुहूर्त मां क्रमथी करे छे. (१प) आ बधां शास्त्रो निमित्त मात्र छे; भावश्रुतज्ञानमां तेने अनुसरीने

तारतम्यता होय छे-एम समजवुं. (१६) मति अने श्रुतज्ञान वच्चेनो भेद

प्रश्नः– जेम मतिज्ञान इन्द्रिय अने मनथी उत्पन्न थाय छे, तेम श्रुतज्ञान पण इन्द्रिय अने मनथी उत्पन्न थाय छे- तो पछी तेमां भेद शुं छे?

शंकाकारनांकारणो–इन्द्रिय अने मनथी मतिज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे ते प्रसिद्ध छे, अने श्रुतज्ञान वकताना कहेवाथी अने श्रोताना सांभळवाथी उत्पन्न थाय छे तेथी वक्तानी जीभ अने श्रोताना कान तथा मन ए श्रुतज्ञाननी उत्पत्तिमां कारणो छे; ए रीते मति-श्रुत बन्नेना उत्पादक कारण इन्द्रियो अने मन थयां, माटे तेने एक मानवां जोईए.


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अ. १. सूत्र २०] [६प

उत्तरः– मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानने एक मानवां ते बराबर नथी. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान बन्ने इन्द्रियो अने मनथी उत्पन्न थाय छे ए हेतु असिद्ध छे; केमके जीभ अने कानने श्रुतज्ञाननी उत्पत्तिमां कारण मानवां ते भूल छे. जीभ तो शब्दनुं उच्चारण करवामां कारण छे, श्रुतज्ञाननी उत्पत्तिमां कारण नथी. कान पण जीवने थता मतिज्ञाननी उत्पत्तिमां कारण छे, श्रुतज्ञाननी उत्पत्तिमां कारण नथी; तेथी श्रुतज्ञाननी उत्पत्तिमां बे इन्द्रियोने कारण बताववी, मति अने श्रुतज्ञान बन्ने इन्द्रियो अने मनथी उत्पन्न थाय छे एम कहीने बन्नेनी एकता मानवी ते मिथ्या छे. ते बे इन्द्रियो श्रुतज्ञानमां निमित्त नथी. ए रीते मति अने श्रुतज्ञाननी उत्पत्तिना कारणमां भेद छे. मतिज्ञान इन्द्रियो अने मनना कारणे उत्पन्न थाय छे, अने जे पदार्थनो इन्द्रियो तथा मन द्वारा मतिज्ञानथी निर्णय थई गयो होय ते पदार्थनुं मन द्वारा जे विशेषताथी ज्ञान थाय छे ते श्रुतज्ञान छे; माटे बन्ने ज्ञान एक नथी पण जुदां जुदां छे. (१७) विशेष खुलासो

१. इन्द्रिय अने मन द्वारा ‘आ घडो छे’ एम निश्चय कर्यो ते मतिज्ञान छे; त्यारपछी ए घडाथी जुदा, अनेक स्थळो अने अनेक काळमां रहेवावाळा अथवा भिन्न रंगोना समान जातिना बीजा घडानुं ज्ञान करवुं ते श्रुतज्ञान छे. एक पदार्थने जाण्या बाद समान जातिना बीजा प्रकारने जाणवा ते श्रुतज्ञाननो विषय छे. अथवा-

२. ईन्द्रिय अने मन द्वारा जे घडानो निश्चय कर्यो, त्यारपछी तेना भेदोनुं ज्ञान करवुं ते श्रुतज्ञान छे; जेमके -अमुक घडो अमुक रंगनो छे, अथवा अमुक घडो माटीनो छे- अमुक घडो तांबा पित्तळनो छे; एवी रीते इन्द्रिय अने मन द्वारा निश्चय करी तेना भेद-प्रभेदने जाणनारुं ज्ञान ते श्रुतज्ञान छे. ते ज (मतिज्ञाने जाणेला) पदार्थना भेद-प्रभेदनुं ज्ञान ते पण श्रुतज्ञान छे. अथवा-

३. ‘आ जीव छे’ के ‘आ अजीव छे’ एवो निश्चय कर्या पछी जे ज्ञानथी सत्-संख्यादि द्वारा तेनुं स्वरूप जाणवामां आवे छे ते श्रुतज्ञान छे; केमके ते विशेषस्वरूपनुं ज्ञान इन्द्रिय द्वारा थई शकतुं नथी, तेथी ते मतिज्ञाननो विषय नथी पण श्रुतज्ञाननो विषय छे. जीव-अजीव जाण्या पछी तेना सत्-संख्यादि विशेषोनुं ज्ञान मात्र मनना निमित्तथी थाय छे. मतिज्ञानमां एक पदार्थ सिवाय बीजा पदार्थनुं के ते ज पदार्थना विशेषोनुं ज्ञान थतुं नथी; माटे मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान जुदाजुदा छे. अवग्रह पछी ईहाज्ञानमां ते ज पदार्थनुं विशेषज्ञान छे अने ईहा पछी अवायमां ते ज पदार्थनुं विशेष ज्ञान छे; पण तेमां (ईहा के अवायमां) ते ज पदार्थना भेद-प्रभेदनुं ज्ञान नथी, माटे ते मतिज्ञान छे-श्रुतज्ञान नथी. (अवग्रह, ईहा, अवाय ए मतिज्ञानना भेदो छे.)


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६६] [मोक्षशास्त्र

सूत्र ११ थी र० सुधीनो सिद्धांत

जीवने सम्यग्दर्शन थतां ज सम्यक्मति अने सम्यक्श्रुतज्ञान थाय छे. सम्यग्दर्शन कारण छे अने सम्यग्ज्ञान कार्य छे-एम समजवुं आ सम्यक्मति अने श्रुतज्ञानना जे भेद आप्या छे ते ज्ञाननी विशेष निर्मळता थवा माटे आप्या छे; पण ते भेदमां अटकी, रागमां रोकाई रहेवा माटे आप्या नथी; माटे ते भेदोनुं स्वरूप जाणी जीवे पोताना त्रिकाळी अखंड अभेद चैतन्यस्वभाव तरफ वाळी निर्विकल्प थवानी जरूर छे. ।। २०।।

अवधिज्ञाननुं वर्णन
भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्।। २१।।
अर्थः– [भवप्रत्ययः] भवप्रत्यय नामनुं [अवधिः] अवधिज्ञान

[देवनारकाणाम्] देव अने नारकीओने होय छे.

टीका

(१) अवधिज्ञानना बे भेद छेः- १-भवप्रत्यय, र-गुणप्रत्यय. कारण अने निमित्त

ए त्रण एकार्थवाचक शब्दो छे. अहीं ‘भवप्रत्यय’ शब्द बाह्य निमित्तनी अपेक्षाए कहेल छे, अंतरंग निमित्त तो दरेक प्रकारना अवधिज्ञानमां अवधिज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम छे. (२) देव अने नारकपर्याय धारण करतां, जीवने जे अवधिज्ञान उत्पन्न थाय छे ते

भवप्रत्यय कहेवाय छे. जेम पक्षीओमां जन्म थवो ते ज आकाशमां गमननुं
निमित्त छे, नहि के शिक्षा, जप, तप आदिक; तेमज नारकी अने देवना
पर्यायमां उत्पत्तिमात्रथी अवधिज्ञान प्राप्त थाय छे.
[अहीं सम्यग्ज्ञाननो विषय
छे तोपण अहीं सम्यक् के मिथ्याना भेद वगर सामान्य अवधिज्ञानने माटे
‘भवप्रत्यय’ शब्द वापर्यो छे.
]

(३) भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव, नारकी तथा तीर्थंकरोने (छद्मस्थ दशामां) होय

छे, ते नियमथी देशावधि होय छे; ते समस्त प्रदेशथी उत्पन्न थाय छे. (४) ‘गुणप्रत्यय’-कोई खास पर्याय (भव) नी अपेक्षा न राखतां, जीवना

पुरुषार्थ वडे जे अवधिज्ञान उत्पन्न थाय छे ते गुणप्रत्यय अथवा
क्षयोपशमनिमित्तक कहेवाय छे.
।। २१।।

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अ. १. सूत्र २२] [६७

क्षयोपशम–निमित्तक अवधिज्ञानना भेद तथा तेना स्वामी

क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्।। २२।।

अर्थः– [क्षयोपशमनिमित्तः] क्षयोपशम-निमित्तक अवधिज्ञान [षड्विकल्पः]

अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित-एवा छ भेदवाळुं छे, अने ते [शेषाणाम्] मनुष्य तथा तिर्यंचने थाय छे.

टीका

(१) अनुगामी–जे अवधिज्ञान सूर्यना प्रकाशनी माफक जीवनी साथे साथे जाय तेने

अनुगामी कहे छे.
अननुगामी–जे अवधिज्ञान जीवनी साथे साथे न जाय तेने अननुगामी कहे छे.
वर्द्धमान–जे अवधिज्ञान शुक्लपक्षना चंद्रनी कळानी माफक वधतुं रहे तेने
वर्द्धमान कहे छे.
हीयमान–जे अवधिज्ञान कृष्णपक्षना चंद्रनी कळानी माफक घटतुं रहे तेने
हीयमान कहे छे.
अवस्थित–जे अवधिज्ञान एक सरखुं रहे, न वधे-न घटे, तेने अवस्थित कहे
छे.
अनवस्थित–पाणीना तरंगोनी माफक घटतुं-वधतुं रहे, एकसरखुं न रहे तेने
अनवस्थित कहे छे.

(२) मनुष्योने आ अवधिज्ञान थाय छे एम कह्युं छे तेमां तीर्थंकरो न लेवा, बीजा

मनुष्यो समजवा; ते पण बहु थोडा मनुष्योने थाय छे. आ अवधिज्ञानने ‘गुणप्रत्यय’ पण कहेवामां आवे छे. ते नाभिनी उपर शंख, पद्म, वज्र, स्वस्तिक, कलश, माछलां आदि शुभ चिह्न द्वारा थाय छे. (३) अवधिज्ञानना *प्रतिपाति, ×अप्रतिपाति, देशावधि, परमावधि अने सर्वावधि

एवा भेदो पण पडे छे. (४) +जघन्य देशावधि संयत तथा असंयत मनुष्यो अने तिर्यंचने थाय छे; (देव-

नारकीने थतुं नथी) उत्कृष्ट देशावधि संयत भावमुनिने ज थाय छे, अन्य तीर्थंकरादिक गृहस्थ-मनुष्य, देव, नारकीने नही; तेमने देशावधि थाय छे. _________________________________________________________________ *प्रतिपाति=पडी जाय तेवुं; × अप्रतिपाति = न पडे तेवुं. +जघन्य=सौथी थोडुं.


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६८] [मोक्षशास्त्र (प) देशावघि ए उपर [पारा १ मां] कहेला छ प्रकार तथा प्रतिपाति अने

अप्रतिपाति एम आठ प्रकारनुं होय छे. परमावधि अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित अने अप्रतिपाती होय छे. (६) अवधिज्ञान रूपी– पुद्गल तथा ते पुद्गलना संबंधवाळा संसारी जीव (ना

विकारी भाव) ने प्रत्यक्ष जाणे छे. (७) द्रव्य अपेक्षाए जघन्य अवधिज्ञाननो विषय–एक जीवना औदारिक शरीर

संचयना लोकाकाश-प्रदेशप्रमाण खंड करतां तेना एक खंड सुधीनुं ज्ञान होय छे.
द्रव्य अपेक्षाए सर्वावधिज्ञाननो विषय– एक परमाण सुधी जाणे छे.
[जुओ, सूत्र २८ टीका]
द्रव्य अपेक्षाए मध्यम अवधिज्ञाननो विषय–जघन्य अने उत्कृष्टनी वच्चेना
द्रव्योना भेदोने जाणे छे.
क्षेत्र अपेक्षाए जघन्य अवधिज्ञाननो विषय-उत्सेधांगुलना
[आठ यव
मध्यना] असंख्यातमां भाग सुधीना क्षेत्रने जाणे छे.
क्षेत्र अपेक्षाए उत्कृष्ट अवधिज्ञाननो विषय–असंख्यात लोकप्रमाण सुधी
क्षेत्रने जाणे छे.
क्षेत्र अपेक्षाए मध्यम अवधिज्ञाननो विषय-जघन्य अने उत्कृष्टनी वच्चेना
क्षेत्रभेदोने जाणे छे.
काळ अपेक्षाए जघन्य अवधिज्ञाननो विषय-(जघन्यथी) आवलिना
असंख्यातभागप्रमाण भूत अने भविष्यने जाणे छे.
काळ अपेक्षाए उत्कृष्ट अवधिज्ञाननो विषय-असंख्यात लोकप्रमाण अतीत
ने अनागत काळ ने जाणे छे.
काळ अपेक्षाए मध्यम अवधिज्ञाननो विषय–जघन्य अने उत्कृष्ट वच्चेना
काळभेदोने जाणे छे.
भावनी अपेक्षाए अवधिज्ञाननो विषय–पहेलां द्रव्यप्रमाण निरूपण करेल
द्रव्योनी शक्तिने जाणे छे.
[श्री धवला पुस्तक १, पानुं ९३-९४]

(८) कर्मनो क्षयोपशम निमित्तमात्र छे एम समजवुं, एटले के जीव पोताना

पुरुषार्थथी पोताना ज्ञाननो विशुद्ध अवधिज्ञानपर्याय प्रगट करे छे तेमां पोते ज
कारण छे. अवधिज्ञान वखते अवधिज्ञानावरणनो क्षयोपशम स्वयं होय एटलो

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अ. १. सूत्र २२] [६९

संबंध बताववा निमित्त जणाव्युं छे. कर्मनी ते वखतनी स्थिति कर्मना पोताना कारणे क्षयोपशमरूप होय छे, एटलो निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे ते अहीं बताव्यो छे. (९) क्षयोपशमनो अर्थ–(१) सर्वघाति स्पर्द्धकोनो उदयाभावी क्षय; (र) देशघाति

स्पर्द्धकोमां गुणनो सर्वथा घात करवानी शक्तिनो उपशम तेने क्षयोपशम कहे
छे. तथा-
क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनमां वेदक सम्यक्त्वप्रकृतिना स्पर्द्धकोने ‘क्षय’ अने
मिथ्यात्व तथा सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृतिओना उदयभावने उपशम कहे छे.
प्रकृतिओना क्षय तथा उपशमने क्षयोपशम कहे छे.
[श्री धवला, पुस्तक प,
पानुं र००-२११-२२१]

(१०) गुणप्रत्यय अवधिज्ञान, सम्यग्दर्शन, देशव्रत अथवा महाव्रतना निमित्तथी थाय

छे तोपण ते बधा सम्यग्द्रष्टि, देशव्रती के महाव्रती जीवोने होतुं नथी; केमके-
असंख्यात लोकप्रमाण सम्यक्त्व, संयमासंयम अने संयमरूप परिणामोमां,
अवधिज्ञानावरणना क्षयोपशमना कारणभूत परिणाम बहु थोडा होय छे.
[श्री
जयधवला पानुं-१७]. गुणप्रत्यय सु-अवधिज्ञान सम्यग्द्रष्टि जीवोने ज थई
शके छे, परंतु बधा सम्यग्द्रष्टि जीवोने ते होतुं नथी-एम समजवुं.
सूत्र २१–२२नो सिद्धांत

“जे जीवोने अवधिज्ञान थयुं होय ते ज जीवो, अवधिज्ञाननो उपयोग मूकी दर्शनमोहकर्मना रजकणोनी अवस्था जोईने ते उपरथी पोताने सम्यग्दर्शन थयुं छे- एम यथार्थपणे जाणी शके”-एवी मान्यता बराबर नथी, केमके बधा ज सम्यग्द्रष्टि जीवोने अवधिज्ञान होतुं नथी, पण सम्यग्द्रष्टि जीवोमांथी घणा ज ओछा जीवोने अवधिज्ञान थाय छे. ‘पोताने सम्यग्दर्शन थयुं छे’ ते जो अवधिज्ञान वगर नक्की न थई शकतुं होय तो, जे जीवोने अवधिज्ञान न थाय तेओने हंमेशां ए संबंधनी शंका-संशय रह्या ज करे, परंतु निःशंकपणुं ए सम्यग्दर्शननो पहेलो ज आचार छे; तेथी जे जीवोने सम्यग्दर्शन संबंधी शंका रह्या करे ते जीव खरी रीते सम्यग्द्रष्टि होय ज नहि, पण मिथ्याद्रष्टि होय छे. माटे अवधिज्ञाननुं, मनःपर्ययज्ञाननुं तथा तेना भेदोनुं स्वरूप जाणी, भेदो तरफना रागने टाळी, अभेद ज्ञानस्वरूप पोताना स्वभाव तरफ जीवे वळवुं.।। २२।।


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७०] [मोक्षशास्त्र

मनःपर्ययज्ञानना भेद
ऋजुविपुलमती मनः पर्ययः।। २३।।
अर्थः– [मनःपर्ययः] मनःपर्ययज्ञान [ऋजुमति विपुलमति] ऋजुमति अने

विपुलमति-एवा बे प्रकारनुं छे.

टीका

(१) मनःपर्ययज्ञाननी व्याख्या नवमा सूत्रनी टीकामां आपी छे. बीजाना मनोगत

(मनमां रहेलां) मूर्तिक द्रव्योने, ते मननी साथे जे प्रत्यक्ष जाणे ते मनःपर्ययज्ञान छे. (२) द्रव्य अपेक्षाए मनःपर्ययज्ञाननो विषय–जघन्यरूपथी एक समयमां थता

औदारिक शरीरना निर्जरारूप द्रव्य सुधी जाणी शके; उत्कृष्टरूपे आठ कर्मोना
एक समयमां बंधायेला समय प्रबद्धरूप*द्रव्यना अनंत भागोमांथी एक
भाग सुधी जाणी शके.
क्षेत्र अपेक्षाए आ ज्ञाननो विषय–जघन्यरूपे बे, त्रण कोश सुधीना क्षेत्रने
जाणे; अने उत्कृष्टरूपे मनुष्यक्षेत्रनी अंदर जाणी शके.
[विष्कंभरूप मनुष्यक्षेत्र
समजवुं].
काळ अपेक्षाए आ ज्ञाननो विषय–जघन्यरूपे बे, त्रण भवोनुं ग्रहण करे छे;
उत्कृष्टरूपे असंख्यात भवोनुं ग्रहण करे छे-जाणे छे.
भाव अपेक्षाए आ ज्ञाननो विषय–द्रव्यप्रमाणमां कहेला द्रव्योनी शक्तिने
(भावने) जाणे छे.
[श्री धवला पुस्तक १ पानुं-९४]

आ ज्ञान थवामां मन अपेक्षामात्र(-निमित्तमात्र) कारण छे, उत्पत्तिनुं ते कारण नथी. आ ज्ञाननी उत्पत्ति आत्मानी शुद्धिथी थाय छे. आ ज्ञान द्वारा स्व तथा पर बन्नेना मनमां स्थित रूपी पदार्थो जाणी शकाय छे. [श्री सर्वार्थसिद्धि पानुं ४४८-४प१-४प२] बीजाना मनमां स्थित पदार्थने पण ‘मन’ कहेवामां आवे छे; तेना पर्यायो (विशेषो) ने मनःपर्यय कहे छे, तेने जे ज्ञान जाणे ते मनःपर्ययज्ञान छे. मनःपर्ययज्ञानना ऋजुमति अने विपुलमति एवा बे भेद छे. _________________________________________________________________

*समयप्रबद्ध=एक समयमां जेटला कर्मपरमाणु अने नोकर्मपरमाणु बंधाय ते सर्वने

समयप्रबद्ध कहे छे.


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अ. १. सूत्र २३] [७१

ऋजुमतिः– मनमां चिंतवन करेला पदार्थोने जाणे छे, अचिंतित पदार्थने नहि; अने ते पण सरलरूपथी चिंतित पदार्थने जाणे छे.

[जुओ, सूत्र र८-नीचे टीका]

विपुलमतिः– चिंतित अने नहि चिंतित पदार्थने तथा वक्रचिंतित अने अवक्रचिंतित पदार्थने पण जाणे छे.

[जुओ, सूत्र २८ नीचे टीका]
मनःपर्ययज्ञान विशिष्ट संयमधारीने थाय छे. [श्री धवला पुस्तक ६ पानुं

२८-२९] ‘विपुल’नो अर्थ विस्तीर्ण-विशाळ-गंभीर थाय छे. [तेमां कुटिल, असरळ, विषम, सरळ वगेरे गर्भित छे.) विपुलमतिज्ञानमां ऋजु अने वक्र (एटले सरळ अने आडा) सर्व प्रकारना रूपी पदार्थनुं ज्ञान थाय छे. पोतानां तथा परनां जीवित, मरण, सुख, दुःख, लाभ, अलाभनुं पण ज्ञान थाय छे. व्यक्त मन के अव्यक्त मनथी चिंतवन करेला के नहि चिंतवेला के आगळ जई जेनुं चिंतवन करशे एवा सर्व प्रकारना पदार्थोने विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी जाणे छे.

[सर्वार्थसिद्धि पानुं ४४८-४प१-४प२]

काळ अपेक्षाए ऋजुमतिनो विषय–जघन्यपणे भूत-भविष्यना बे त्रण भव पोताना अने बीजाना जाणे, उत्कृष्टपणे सात-आठ भव ते मुजब जाणे.

क्षेत्र अपेक्षाए आ ज्ञान जघन्यपणे त्रणथी उपर अने नवथी नीचे कोश अने उत्कृष्टपणे त्रणथी उपर अने, नवथी नीचे योजननी अंदर जाणे छे, तेथी बहार नहि.

[कोश=१ गाउ; योजन= २००० गाउ]

काळ अपेक्षाए विपुलमतिनो विषय–जघन्यथी सात-आठ भव आगला- पाछला जाणे अने उत्कृष्ट असंख्यात भव आगला-पाछला जाणे.

क्षेत्र अपेक्षाए आ ज्ञान–जघन्यपणे त्रणथी उपर अने नवथी नीचे योजन प्रमाण जाणे; उत्कृष्टपणे मानुषोत्तर पर्वतनी अंदर जाणे-तेथी बहार नहि.

[सर्वार्थसिद्धि पानुं-४प४]
विपुलमतिनो अर्थ इंग्लिश तत्त्वार्थसूत्रमां नीचे प्रमाणे आप्यो छेः-

Complex direct knowledge of complex mental things. e. g. of what a man is thinking of now along with what he has thought of it in the past and will think of it in the future. [पानुं-४०]

अर्थः– आंटीघूंटी वाळी मनमां स्थित वस्तुओनुं आंटीघूंटी सहित प्रत्यक्षज्ञान जेमके-एक माणस वर्तमानमां शुं विचारे छे. तेनी साथे भूतकाळमां तेणे शुं


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७२] [मोक्षशास्त्र विचार्युं छे अने भविष्यमां ते शुं विचारशे ते ज्ञाननो मनोगत विकल्प ते मनःपर्ययज्ञाननो विषय छे. (बाह्य वस्तुनी अपेक्षा मनोगतभाव एक अति सूक्ष्म अने विजातीय चीज छे.) २३

ऋजुमति अने विपुलमतिमां अंतर
विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः।। २४।।
अर्थः– [विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां] परिणामोनी शुद्धता अने अप्रतिपात अर्थात्

केवळज्ञान थया पहेलां न छूटवुं [तद्विशेष] ए बे वातोथी ऋजुमति अने विपुलमति ज्ञानमां विशेषता-तफावत छे.

टीका

ऋजुमति अने विपुलमति ए बे प्रकारना मनःपर्ययना भेद सूत्र २३नी टीकामां आप्या छे. आ सूत्रमां स्पष्ट जणावे छे के विपुलमति विशुद्ध शुद्ध छे, वळी ते कदी पडी जतुं नथी पण केवळज्ञान थतां सुधी चालु रहे छे. ऋजुमति ज्ञान तो थईने छूटी पण जाय. चारित्रनी तीव्रताना भेदना कारणे आ भेद पडे छे. संयमपरिणामनुं घटवुं-तेनी हानि थवी ते प्रतिपात छे, ते (प्रतिपात) ऋजुमतिवाळा कोईने होय छे.।। २४।।

अवधिज्ञान अने मनःपर्ययज्ञानमां विशेषता विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः।। २५।।

अर्थः– [अवधिमनःपर्यययोः] अवधि अने मनःपर्यय ज्ञानमां

[विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यः] विशुद्धता, क्षेत्र, स्वामी अने विषयनी अपेक्षाथी- विशेषता होय छे.

टीका

मनःपर्ययज्ञान उतम ऋद्धिधारी भाव-मुनिओने ज होय छे; अने अवधिज्ञान चारे गतिना संज्ञी जीवने होय छे; ए स्वामी अपेक्षाए भेद छे.

उत्कृष्ट अवधिज्ञाननुं क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण सुधी छे, मनःपर्ययनुं अढी द्वीप मनुष्यक्षेत्र छे. आ क्षेत्र अपेक्षाए भेद छे.

स्वामी तथा विषयना भेदथी विशुद्धिमां अंतर जाणी शकाय छे, अवधिज्ञाननो विषय परमाणुपर्यंत रूपी पदार्थ छे अने मनःपर्ययज्ञाननो विषय मनोगत विकल्प छे.


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अ. १. सूत्र २६-२७] [७३

विषयनो भेद सूत्र २७-२८ नी टीकामां आप्यो छे; तथा सूत्र २२ नी टीकामां अवधिज्ञाननो, अने सूत्र २३ नी टीकामां मनःपर्ययज्ञाननो विषय आप्यो छे, ते उपरथी आ भेद समजी लेवा. २प.

मति–श्रुत ज्ञाननो विषय

मतिश्रुतयोर्निबंधो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु।। २६।।

अर्थः– [मतिश्रुतयोः] मतिज्ञान अने श्रुतज्ञाननो [निबंघः]

विषयसंबंध[असर्वपर्यायेषु] सर्व पर्योयोथी रहित [द्रव्येषु] जीव-पुद्गलादि सर्वे द्रव्यो छे.

टीका

मति अने श्रुतज्ञान रूपी-अरूपी सर्वे द्रव्योने जाणे छे, पण तेना सर्वे पर्यायोने जाणतां नथी, तेना विषय-संबंध सर्वे द्रव्यो अने तेना केटलाक पर्यायो साथे होय छे.

आ सूत्रमां ‘द्रव्येषु’ शब्द वापर्यो छे तेथी जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म,

आकाश अने काळ ए समस्त द्रव्यो समजवां; तेना केटलाक पर्यायो आ ज्ञान जाणे छे, सर्व पर्यायोने नहि.

प्रश्नः– जीव, धर्मास्तिकाय वगेरे अमूर्तद्रव्यो छे तेने मतिज्ञान केम जाणे के जेथी मतिज्ञान सर्व द्रव्योने जाणे एम कही शकाय?

उत्तरः– अनिन्द्रिय (मन) ना निमित्ते अरूपी द्रव्योनुं अवग्रह, इहा, अवाय अने धारणारूप मतिज्ञान प्रथम ऊपजे छे, पछी ते मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान सर्व द्रव्यने जाणे छे; अने पोतपोताने योग्य पर्यायोने ते जाणे छे-एम समजवुं.

आ बंने ज्ञानोवडे जीवने पण यथार्थपणे जाणी शकाय छे. ।। २६।।
अवधिज्ञाननो विषय
रूपिष्ववधेः।। २७।।
अर्थः– [अवधेः] अवधिज्ञाननो विषय-संबंध [रूपिषु] रूपी द्रव्योमां छे

अर्थात् अवधिज्ञान रूपी पदार्थोने जाणे छे.

टीका

जेने रूप, रस, गंध, स्पर्श होय ते पुद्गल द्रव्य (रूपी द्रव्य) छे; पुद्गल द्रव्यथी संबंध राखवावाळा संसारी जीवने पण आ ज्ञानना हेतु माटे रूपी कहेवामां आवे छे. [जुओ सूत्र २८ नीचे टीका]


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७४] [मोक्षशास्त्र

जीवना पांच भावोमांथी औदयिक, औपशमिक अने क्षायोपशमिक ए त्रण भावो(परिणामो) ज अवधिज्ञाननो विषय थाय छे; अने जीवना बाकीना-क्षायिक तथा पारिणामिक ए बे भावो तथा धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य अने काळद्रव्य अरूपी पदार्थ छे ते अवधिज्ञानना विषयभूत थता नथी.

आ ज्ञान सर्व रूपी पदार्थोने अने तेना केटलाक पर्योयोने जाणे छे एम समजवुं. ।। २७।।

मनःपर्ययज्ञाननो विषय
तदनंतभागे मनःपर्ययस्य।। २८।।
अर्थः– [तत् अनंतभागे] सर्वावधिज्ञानना विषयभूत रूपी द्रव्यना अनंतमा

भागे [मनःपर्ययस्य] मनःपर्ययज्ञाननो विषय-संबंध छे.

टीका

परमअवधिज्ञानना विषयभूत जे पुद्गलस्कंध छे तेनो अनंतमो भाग करतां जे एक परमाणु मात्र थाय छे ते सर्वावधिनो विषय छे, तेनो अनंतमो भाग ऋजुमति-मनःपर्ययज्ञाननो विषय छे अने तेनो अनंतमो भाग विपुलमतिमनःपर्ययनो विषय छे. (सर्वार्थसिद्धि पानुं-४७३)

सूत्र २७–२८ नो सिद्धांत

अवधिज्ञाननो अने मनःपर्ययज्ञाननो विषय रूपी छे एम अहीं कह्युं छे. अध्याय र ना सूत्र १ मां आत्माना पांच भावो कह्या छे तेमांथी औदयिक, औपशमिक तथा क्षायोपशमिक ए त्रण भावो आ ज्ञाननो विषय थाय छे एम सूत्र २७ मां कह्युं छे, तेथी नक्की थाय छे के परमार्थ ते त्रण भावो रूपी छे-एटले के अरूपी आत्मानुं स्वरूप ते नथी. केमके आत्मामांथी ते भावो टळी शके छे अने जे टळी शके ते परमार्थे आत्मानुं होय नहि. ‘रूपी’ नी व्याख्या अध्याय प ना सूत्र प मां आपी छे, त्यां पुद्गल ‘रूपी’ छे-एम कह्युं छे; अने पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाळा छे एम अध्याय प सूत्र २३ मां कह्युं छे. श्री समयसारनी गाथा प० थी ६८ तथा २०३ मां वर्णादिथी गुणस्थान पर्यंतना भावो पुद्गलद्रव्यना परिणाम होवाथी जीवनी अनुभूतिथी भिन्न छे माटे ते जीव नथी एम कह्युं छे; ते ज सिद्धांत आ (व्यवहार) शास्त्रमां उपर कहेलां टूंकां सूत्रो द्वारा प्रतिपादन कर्यो छे.

[जुओ, समयसार पृ. ८२ थी १०२ तथा २६१]

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अ. १. सूत्र ९] [७प

अध्याय र सूत्र १ मां ते भावोने जीवना कह्या छे ते व्यवहारे कह्या छे. जो खरेखर ते जीवना होय तो जीवमांथी कदी टळे नहि अने एक सरखा रहे; पण एक सरखा रहेता नथी अने टाळी शकाय छे, माटे ते जीवस्वरूप-जीवना निजभाव नथी.।। २८।।

केवळज्ञाननो विषय
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।। २९।।
अर्थः– [केवलस्य] केवळज्ञाननो विषय-संबंध[सर्वद्रव्यपर्यायेषु] सर्व द्रव्यो

अने तेना सर्वे पर्यायो छे-अर्थात् केवळज्ञान एक साथे सर्व पदार्थोने अने तेना सर्व पर्यायोने जाणे छे.

टीका

केवळज्ञान=असहाय ज्ञान; एटले के इन्द्रिय, मन के आलोकनी अपेक्षारहित आ ज्ञान छे. त्रिकाळगोचर अनंत पर्यायोने प्राप्त अनंत वस्तुओने ते जाणे छे, असंकुचित (संकोच वगरनुं) छे, अने प्रतिपक्षीरहित छे; केवळज्ञान अमर्यादित छे.

शंकाः– जे पदार्थनो नाश थई चूक्यो छे अने जे पदार्थ हजी उत्पन्न नथी थयो तेने केवळज्ञान केम जाणी शके?

समाधानः– केवळज्ञान निरपेक्ष होवाथी बाह्य पदार्थोनी अपेक्षा विना तेने एटले के नष्ट अने अनुत्पन्न पदार्थोने जाणे तेमां कांई विरोध नथी. केवळज्ञानने विपर्ययज्ञानपणानो पण प्रसंग नथी, केमके यथार्थ स्वरूपथी ते पदार्थोने जाणे छे. नष्ट अने अनुत्पन्न वस्तुओनो जोके वर्तमानमां सद्भाव नथी तोपण तेनो अत्यंत अभाव नथी.

सर्व द्रव्य अने ते द्रव्यना त्रिकाळवर्ती अनंतानंत पर्यायोने अक्रमथी एक काळे केवळज्ञान जाणे छे; ते ज्ञान सहज (इच्छाविना) जाणे छे. केवळज्ञानमां एवी शक्ति छे के अनंतानंत लोक-अलोक होय तोपण तेने जाणवाने केवळज्ञान समर्थ छे.

शंकाः– केवळी भगवानने एक ज ज्ञान होय छे के पांचे ज्ञान होय छे? समाधानः– पांचे ज्ञानोनुं एकी साथे रहेवुं मानी शकाय नहि, केमके मतिज्ञानादि आवरणीय ज्ञान छे अने केवळज्ञानी भगवान क्षीण आवरणीय छे तेथी भगवानने आवरणीय ज्ञान होवुं संभवे नहि; केमके आवरणना निमित्तथी थतां ज्ञानोनुं (आवरणनो अभाव थया पछी) रहेवानुं बनी शके एम मानवुं ते न्यायविरुद्ध छे.

[श्री धवला पुस्तक ६ पानुं २९-३०]

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७६] [मोक्षशास्त्र

मति आदि ज्ञानोनुं आवरण केवळज्ञानावरणना नाश थवानी साथे ज पूरेपूरुं नष्ट थाय छे. [जुओ, सूत्र ३० नी टीका]

एक साथे सर्वथा जाणवानुं एक एक जीवमां सामर्थ्य छे.
२९ मा सूत्रनो सिद्धांत

‘हुं परने जाणुं तो मोटो’ एम नहि, पण मारुं बेहद सामर्थ्य अनंतज्ञान- ऐश्वर्यपणे होवाथी हुं पूर्णज्ञानघन स्वाधीन आत्मा छुं-एम पूर्ण साध्यने दरेक जीवे नक्की करवुं जोईए; एम नक्की करी स्वथी एकत्व अने परथी विभक्त (भिन्न) पोताना एकाकार स्वरूप तरफ जीवे वळवुं जोईए, पोताना एकाकार स्वरूप तरफ वळतां सम्यग्दर्शन प्रगटी क्रमेक्रमे जीव आगळ वधे छे अने तेनी पूर्ण ज्ञानदशा थोडा वखतमां प्रगटे छे. ।। २९।।

एक जीवने एक साथे केटलां ज्ञान होई शके छे?
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः।। ३०।।
अर्थः– [एकस्मिन्] एक जीवमां [युगपत्] एक साथे [एकादीनि] एकथी

शरू करीने [आचतुर्भ्य] चार ज्ञान सुधी [भाज्यानि] विभक्त करवा योग्य छे अर्थात् होई शके छे.

टीका

(१) एक जीवने एक साथे एकथी शरू करी चार ज्ञान सुधी होई शके छे; एक ज्ञान होय तो केवळज्ञान होय छे; बे होय तो मति अने श्रुत होय छे; त्रण होय तो मति, श्रुत अने अवधि अगर मति, श्रुत अने मनःपर्ययज्ञान होय छे; चार होय तो मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्यय ज्ञान होय छे. एकी साथे पांच ज्ञानो कोईने होतां नथी. वळी एक ज ज्ञान एक वखते उपयोगरूप होय छे. केवळज्ञान प्रगटयुं त्यारथी ते कायम माटे टके छे; बीजां ज्ञानोनो उपयोग वधारेमां वधारे अंतर्मुहूर्त होय छे, तेथी वधारे होतो नथी, पछी ज्ञानना उपयोगनो विषय बदले ज छे. केवळी सिवाय बधा संसारी जीवोने ओछामां ओछा बे एटले के मति अने श्रुतज्ञान होय ज छे.

(२) क्षायोपशमिक ज्ञान क्रमवर्ती छे, एक काळमां एक ज प्रवर्ते छे; पण अहीं जे चार ज्ञान एकी साथे कह्यां छे ते चारनो उघाड एकी वखते होवाथी चार ज्ञाननी जाणनरूप लब्धि एक काळमां होय एम कहेवुं छे, उपयोग तो एक काळे एक स्वरूपे ज होय छे. ।। ३०।।


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अ. १. सूत्र ३१] [७७

सूत्र ९ थी ३० सुधीनो सिद्धांत

आत्मा खरेखर परमार्थ छे अने ते ज्ञान छे; आत्मा पोते ज पदार्थ छे; तेथी ज्ञान पण एक ज पद छे. जे आ ज्ञान नामनुं एक पद छे ते आ परमार्थ-स्वरूप साक्षात् मोक्ष उपाय छे. आ सूत्रोमां ज्ञानना जे भेदो कह्या छे ते आ एक पदने अभिनंदे छे.

ज्ञानना हीनाधिकरूप भेदो, तेना सामान्य ज्ञानस्वभावने भेदता नथी, पण अभिनंदे छे; माटे जेमां समस्त भेदनो अभाव छे एवा आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं-एटले के ज्ञानस्वरूप आत्मानुं ज अवलंबन करवुं. ज्ञानस्वरूप आत्माना अवलंबनथी ज नीचे मुजब प्राप्ति थाय छेः-

१-निजपदनी प्राप्ति थाय छे. र-भ्रांतिनो नाश थाय छे. ३-आत्मानो लाभ थाय छे. ४-अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे, प-भावकर्म जोरावर थई शकतुं नथी. ६-राग, द्वेष, मोह उत्पन्न थता नथी. ७-फरी कर्म आस्रवतुं नथी. ८-फरी कर्म बंधातुं नथी. ९-पूर्वे बंधायेलुं कर्म भोगवायुं थकुं निर्जरी जाय छे. १०-समस्त कर्मोनो अभाव थवाथी साक्षात् मोक्ष थाय छे. आवुं ज्ञानस्वरूप आत्माना आलंबननुं माहाम्य छे.

क्षयोपशम अनुसार ज्ञानमां जे भेदो थाय छे ते कांई ज्ञानसामान्यने अज्ञानरूप नथी करता, ऊलटा ज्ञानने प्रगट करे छे; माटे आ बधा भेदो उपरनुं लक्ष गौण करी ज्ञानसामान्यनुं अवलंबन लेवुं. सूत्र ९ मां छेडे एकवचन सूचक ‘ज्ञानम्’ शब्द वापर्यो छे, ते भेदोनुं स्वरूप जाणी, भेदो उपरनुं लक्ष छोडी, शुद्धनयना विषयभूत अभेद अखंड ज्ञानस्वरूप आत्मा तरफ पोतानुं लक्ष वाळवा- लई जवा माटे वापर्यो छे, एम जाणवुं.

[जुओ, श्री समयसार गाथा-२०४ पानुं २६२ थी २६४]
मति श्रुत अने अवधि ज्ञानमां मिथ्यापणुं
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।। ३१।।
अर्थः– [मतिश्रुतअवधयः] मति, श्रुत अने अवधि ए त्रण ज्ञान

[विपर्ययाश्च] विपर्यय पण होय छे.

टीका

(१) उपर कहेलां पांचे ज्ञान सम्यग्ज्ञान छे, परंतु मति, श्रुत अने अवधि ए त्रण ज्ञान मिथ्याज्ञान पण होय छे, ते मिथ्याज्ञानने कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान तथा कुअवधि


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७८] [मोक्षशास्त्र (विभंग) ज्ञान कहे छे. अत्यार सुधी सम्यग्ज्ञाननो अधिकार चालतो आव्यो छे; हवे आ सूत्रमां ‘च’ शब्दथी एम सूचव्युं छे के आ त्रण ज्ञान सम्यक् पण होय छे अने मिथ्या पण होय छे. सूत्रमां ‘विपर्ययः’ शब्द वापर्यो छे तेमां संशय अने अनध्यवसाय गर्भितपणे आवी जाय छे-एम जाणवुं. मति अने श्रुतज्ञानमां संशय, विपर्यय अने अनध्यवसाय ए त्रण दोषो छे; अवधिज्ञानमां संशय होतो नथी, पण अनध्यवसाय अथवा विपर्यय बे दोषो होय छे, तेथी तेने कुअवधि अथवा विभंग कहे छे. विपर्यय संबंधी विशेष हकीकत ३२ मां सूत्रनी टीकामां आपी छे.

(२) अनादि मिथ्याद्रष्टिने कुमति अने कुश्रुत होय छे अने तेने देव अने नारकीना भवमां कुअवधि पण होय छे. ज्यां ज्यां मिथ्यादर्शन होय छे त्यां त्यां मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्र अविनाभावीपणे होय छे. ।। ३१।।

प्रश्न- सम्यग्द्रष्टि जेम नेत्रादिक इन्द्रियोथी रूपादिने सुमतिथी जाणे छे तेम मिथ्याद्रष्टि पण कुमतिज्ञानथी तेने जाणे छे, तथा जेम सम्यग्द्रष्टि श्रुतज्ञानथी तेने जाणे छे, तथा कथन करे छे तेम मिथ्याद्रष्टि पण कुश्रुतज्ञानथी जाणे छे अने कथन करे छे, तथा जेम सम्यग्द्रष्टि अवधिज्ञानथी रूपी वस्तुओने जाणे छे तेम मिथ्याद्रष्टि कुअवधिज्ञानथी जाणे छे-तो मिथ्याद्रष्टिना ज्ञानने मिथ्याज्ञान शा माटे कहो छो?

–उत्तर–

सदसतोरविशेषाघद्रच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्।। ३२।।

अर्थः– [यद्रच्छ उपलब्धेः] पोतानी इच्छाद्वारा जेम तेम (Whims) ग्रहण

करवाने कारणे [सत् असतोः] विद्यमान अने अविद्यमान पदार्थोनुं [अविशेषात्] भेदरूप ज्ञान (यथार्थ विवेक) न होवाने कारणे [उन्मत्तवत्] पागल पुरुषोना ज्ञाननी माफक मिथ्याद्रष्टिनुं ज्ञान विपरीत अर्थात् मिथ्याज्ञान ज होय छे.

टीका

(१) आ सूत्र घणुं उपयोगी छे. आ ‘मोक्षशास्त्र’ होवाथी, अविनाशी सुख माटे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप एक ज रस्तो छे एम पहेला सूत्रमां जणावीने, बीजा सूत्रमां सम्यग्दर्शननुं लक्षण बताव्युं;; जेनी श्रद्धा वडे सम्यग्दर्शन थाय ते सात तत्त्वो चोथा सूत्रमां जणाव्यां; तत्त्वोने जाणवा माटे प्रमाण अने नयना ज्ञाननी जरूरियात छे एम छठ्ठा सूत्रमां कह्युं; पांच ज्ञानो सम्यक् होवाथी ते प्रमाण छे एम


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अ. १. सूत्र ३२] [७९ सूत्र ६-१० मां जणाव्युं अने ते पांच सम्यग्ज्ञानोनुं स्वरूप सूत्र ११ थी ३० सुधीमां बताव्युं....

(२) एटली भूमिका बांध्या पछी मति, श्रुत अने अवधि ए त्रण मिथ्याज्ञान पण होय छे; अने जीव अनादिनो मिथ्याद्रष्टि होवाथी ते सम्यक्त्व न पामे त्यां सुधी तेनुं ज्ञान विपर्यय छे एम सूत्र ३१ मां बताव्युं. सुखना साचा अभिलाषीए ते मिथ्यादर्शन पहेलुं ज टाळवुं जोईए-एम बताववा आ सूत्रमां मिथ्याज्ञान-के जे ज्ञान हंमेशां मिथ्यादर्शनपूर्वक ज होय छे-तेनुं स्वरूप बताव्युं छे.

(३) सुखना साचा अभिलाषीने मिथ्याज्ञाननुं स्वरूप समजाववा माटे कह्युं के- १-मिथ्याद्रष्टि जीव सत् अने असत् वच्चेनो भेद (विवेक) जाणतो नथी; तेथी सिद्ध थयुं के दरेक भव्य जीवे प्रथम सत् शुं अने असत् शुं तेनुं यथार्थ ज्ञान प्राप्त करी मिथ्याज्ञान टाळवुं जोईए.

२-ज्यां सत् अने असत् भेदनुं अज्ञान होय त्यां अणसमज पूर्वक पोताने ठीक पडे तेम गांडा पुरुषनी माफक (मदिरा पीधेला माणसनी माफक) खोटी कल्पनाओ जीव कर्या ज करे छे; तेथी एम समजाव्युं के सुखना साचा अभिलाषी जीवोए साची समजण करी खोटी कल्पनाओनो नाश करवो ज जोईए.

(४) पहेलेथी त्रीस सुधीना सूत्रोमां मोक्षमार्ग अने सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञाननुं स्वरूप समजावी ते ग्रहण करवानुं कह्युं, ते उपदेश ‘अस्ति’थी आप्यो; अने ३१मा सूत्रमां मिथ्याज्ञाननुं स्वरूप बतावी तेनुं कारण ३२मा सूत्रमां कही ते मिथ्याज्ञाननो नाश करवा उपदेश आप्यो; एटले आ सूत्रमां ‘नास्ति’थी समजाव्युं. आ रीते ‘अस्ति-नास्ति’ वडे एटले के अनेकान्त वडे सम्यग्ज्ञान प्रगट करी मिथ्याज्ञाननी नास्ति करवा माटे उपदेश आप्यो.

(प) सत् = विद्यमान (वस्तु),
असत् = अविद्यमान-अणछती (वस्तु),
अविशेषात्= ए बेनो यथार्थ विवेक न होवाथी.
यद्रच्छ (विपर्यय) उपलब्धेः =
[विपर्यय शब्दनी ३१मा सूत्रथी अनुवृति
आवे छे.] विपरीत-पोतानी मनमानी ईच्छा मुजब कल्पनाओ-होवाथी
ते मिथ्याज्ञान छे.
‘उन्मत्तवत्’ = मदिरा पीधेला माणसनी जेम.

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८०] [मोक्षशास्त्र

विपर्यय=विपरीतता; ते त्रण प्रकारे छे. १-कारणविपरीतता, २-
स्वरूपविपरीतता, ३-भेदाभेदविपरीतता.
कारणविपरीतताः– मूळकारणने न ओळखे अने अन्यथा कारण माने ते.
स्वरूपविपरीतताः– जेने जाणे छे तेना मूळवस्तुभूत स्वरूपने न ओळखे
अने अन्यथा स्वरूप माने ते.
भेदाभेदविपरीतताः– जेने ते जाणे छे तेने ‘ए आनाथी भिन्न छे’ अने
‘ए एनाथी अभिन्न छे’ -एम यथार्थ न ओळखतां अन्यथा भिन्न-
अभिन्नपणुं माने ते भेदाभेद विपरीतता छे.

ए त्रण विपरीतता टाळवानो उपाय–

साचा धर्मनी तो एवी परिपाटी छे के, पहेलां जीव सम्यक्त्व प्रगटे करे, पछी व्रतरूप शुभभाव होय. हवे सम्यक्त्व तो स्व अने परनुं श्रद्धान थतां थाय छे; तथा ते श्रद्धान द्रव्यानुयोग (अध्यात्मशास्त्रो) नो अभ्यास करवाथी थाय छे, माटे पहेलां जीवे द्रव्यानुयोग अनुसार श्रद्धा करी सम्यग्द्रष्टि थवुं, अने त्यारपछी पोते चरणानुयोग अनुसार साचां व्रतादिक धारण करी व्रती थवुं.

ए प्रमाणे मुख्यपणे तो नीचली दशामां ज द्रव्यानुयोग कार्यकारी छे. यथार्थ अभ्यासने परिणामे विपरीतता टळतां नीचे मुजब यथार्थपणे माने छे-

१-एक द्रव्य, तेना गुण के पर्याय बीजा द्रव्य, तेना गुण के पर्यायमां कांई पण करी शकता नथी. दरेक द्रव्य पोतपोताना कारणे पोतानो पर्याय धारण करे छे. विकारी अवस्था वखते परद्रव्य निमित्तरूप एटले के हाजर होय खरुं पण ते कोई बीजा द्रव्यमां विक्रिया (कांईपण) करी शकतुं नथी. दरेक द्रव्यमां अगुरुलधुत्व नामनो गुण छे तेथी ते द्रव्य बीजारूप थतुं नथी, एक गुण बीजारूप थतो नथी अने एक पर्याय बीजारूप थतो नथी. एक द्रव्यना गुण के पर्याय ते ते द्रव्यथी छूटा पडी शकता नथी; हवे ते प्रमाणे पोताना क्षेत्रथी छूटा पडे नहि अने परद्रव्यमां जाय नहि तो पछी तेने शुं करी शके? कांई ज न करी शके. एक द्रव्य, गुण के पर्याय बीजा द्रव्यना पर्यायमां कारण थाय नहि, तेम ते बीजानुं कार्य थाय नहि, एवी अकारणकार्यत्वशक्ति दरेक द्रव्य मां रहेली छे; आ रीते समजतां कारणविपरीतता टळे छे.

२-दरेक द्रव्य स्वतंत्र छे. जीवद्रव्य चेतनागुणस्वरूप छे; पुद्गलद्रव्य स्पर्श, रस, गंध अने वर्णस्वरूप छे. जीव पोते ‘हुं परनुं करी शकुं, पर मारुं करी शके अने शुभविकल्पथी लाभ थाय’ एवी ऊंधी पक्कड करे त्यांसुधी तेनो अज्ञानरूप पर्याय थाय


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अ. १. सूत्र ३३] [८१ छे. जीव यथार्थ समजे एटले के सत् समजे त्यारे साची मान्यता पूर्वक तेने साचुं ज्ञान थाय छे, तेना परिणामे क्रमेक्रमे शुद्धता वधी संपूर्ण वीतरागता प्रगटे छे. बीजां चार द्रव्यो (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ) अरूपी छे. तेने कदी अशुद्ध अवस्था होती नथी; आ प्रमाणे समजतां स्वरूपविपरीतता टळे छे.

३-परद्रव्यो, जड कर्म अने शरीरथी जीव त्रणेकाळे भिन्न छे; एकक्षेत्रावगाहसंबंधे रहे त्यारे पण जीव साथे एक थई शकता नथी. एक द्रव्यना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव बीजा द्रव्यमां नास्तिरूपे छे, केमके बीजा द्रव्यथी ते द्रव्य चारे प्रकारे भिन्न छे. दरेक द्रव्य पोते पोताना गुणथी अभिन्न छे, केमके तेनाथी कदी ते द्रव्य जुदुं थई शकतुं नथी; आ प्रमाणे समजतां भेदाभेदविपरीतता टळे छे.

सत् = त्रिकाळ टकनार, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, निश्चय, शुद्ध; ए बधा एकार्थवाचक शब्दो छे. जीवनो ज्ञायकभाव त्रिकाळी अखंड छे; तेथी ते सत्, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, निश्चय अने शुद्ध छे. आ द्रष्टिने द्रव्यद्रष्टि, वस्तुद्रष्टि, शिवद्रष्टि, तत्त्वद्रष्टि, कल्याणकारीद्रष्टि पण कहेवामां आवे छे.

असत् = क्षणिक, अभूतार्थ, अपरमार्थ, व्यवहार, भेद, पर्याय, भंग, अविद्यमान; जीवमां थतो विकारभाव असत् छे केमके ते क्षणिक छे अने टाळ्‌यो टाळी शकाय छे.

जीव अनादिथी आ असत् विकारी भाव उपर द्रष्टि राखी रह्यो छे तेथी तेने पर्यायबुद्धि, व्यवहारविमूढ, अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि, मोही अने मूढ पण कहेवामां आवे छे. अज्ञानी आ असत् क्षणिक भावने पोतानो मानी रह्यो छे, एटले के ते असत्ने सत् मानी रह्यो छे; माटे आ भेद जाणी जे असत्ने गौण करी सत्स्वरूप उपर वजन राखी पोताना ज्ञायकभाव तरफ वळे छे ते मिथ्याज्ञान टाळी सम्यग्ज्ञान प्रगट करे छे; तेनुं उन्मत्तपणुं टळे छे.

विपर्यय पण बे प्रकारे होय छे-सहज अने आहार्य. (१) सहज-जे पोताथी-पोतानी भूलथी एटले के परोपदेश विना विपरीतता

उत्पन्न थाय छे ते. (२) आहार्य-परना उपदेशथी ग्रहेल विपरीतता. आ श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा थता

कुमतिज्ञानपूर्वक ग्रहण करेल कुश्रुतज्ञान छे.

शंकाः– दयाधर्मना जाणवावाळा जीवोने भले आत्मानी ओळखाण न होय तोपण दयाधर्मनी श्रद्धा होय छे, तो पछी तेना ज्ञानने अज्ञान (मिथ्याज्ञान) केम मनाय?


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८२] [मोक्षशास्त्र

समाधानः– दयाधर्मना ज्ञाताओमां पण आप्त, आगम अने पदार्थ (नवतत्त्व) नी यथार्थ श्रद्धाथी रहित जे जीवो छे तेमने दयाधर्म आदिमां यथार्थ श्रद्धा होवानो विरोध छे; तेथी तेमनुं ज्ञान अज्ञान ज छे. ज्ञाननुं कार्य जे होवुं जोईए ते न होय त्यां ज्ञानने अज्ञान गणवानुं लोकमां पण प्रसिद्ध छे, जेमके पुत्रनुं कार्य नहि करनार एवा पुत्रने पण लोकोमां कुपुत्र कहेवानो व्यवहार जोवामां आवे छे.

शंका–ज्ञाननुं कार्य शुं छे? समाधानः– जाणेला पदार्थनी श्रद्धा करवी ते ज्ञाननुं कार्य छे. ए प्रकारनुं ज्ञाननुं कार्य मिथ्याद्रष्टि जीवमां थतुं नथी तेथी तेना ज्ञानने अज्ञान कह्युं छे.

[श्री धवला पुस्तक प पानुं-२२४]

विपर्ययमां संशय अने अनध्यवसाय समाई जाय छे एम सूत्र ३१ नी टीकामां कह्युं छे, ते संबंधे हवे थोडुं जणाववामां आवे छेः-

१. केटलाकने धर्म के अधर्म ए कांई हशे के नहि तेवो संशय होय छे.
२. केटलाकने सर्वज्ञना अस्तित्व-नास्तित्वनो संशय होय छे.
३. केटलाकने परलोकना अस्तित्व-नास्तित्वनो संशय होय छे.
४. केटलाकने अनध्यवसाय (अनिर्णय) होय छे; तेओ कहे छे के-हेतुवादरूप
तर्कशास्त्र छे तेथी तेनाथी कांई निर्णय थई शकतो नथी, अने आगमो
छे ते भिन्न भिन्न रीते वस्तुना स्वरूपने कहे छे, कोई कांई कहे छे
अने कोई कांई कहे छे; तेथी तेनी परस्पर वात मळती नथी.
प. केटलाकने एवो अनध्यवसाय (अनिर्णय) होय छे के कोई ज्ञाता सर्वज्ञ
अथवा कोई मुनि के ज्ञानी प्रत्यक्ष देखाता नथी के जेमनां वचन अमे
प्रमाण करी शकीए; वळी धर्मनुं स्वरूप घणुं सूक्ष्म छे तेथी केम निर्णय
थाय? माटे मोटा जे मार्गे जाय ते मार्गे आपणे जवुं.
६. कोई वीतरागधर्मनो लौकिक वादो साथे समन्वय करे छे; शुभभावोना
वर्णननुं समानपणुं केटलाक अंशे देखी जगतमां चालती बधी धार्मिक
मान्यताओ एक छे एम माने छे (ते विपर्यय छे).
७. कोई मंद कषायथी धर्म (शुद्धता) थाय एम माने छे (ते पण विपर्यय छे).
८. आ जगत कोई एक ईश्वरे पेदा कर्युं छे, ए तेनो नियामक छे-एम
ईश्वरनुं स्वरूप विपर्यय समजे छे.