Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 38-39 (Chapter 3),1 (Chapter 4),2 (Chapter 4),3 (Chapter 4),4 (Chapter 4),5 (Chapter 4),6 (Chapter 4),7 (Chapter 4),8 (Chapter 4),9 (Chapter 4),10 (Chapter 4),11 (Chapter 4),12 (Chapter 4),13 (Chapter 4),14 (Chapter 4),15 (Chapter 4),16 (Chapter 4),17 (Chapter 4),18 (Chapter 4),19 (Chapter 4),20 (Chapter 4),21 (Chapter 4); Upsanhar; Fourth Chapter Pg. 271 to 306.

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अ. ३ सूत्र ३९ ] [ २६७ जंबुद्वीप छे. जंबुद्वीपनी वचमां एक लाख योजन सुमेरु पर्वत छे, एक हजार योजन जमीननी अंदर तेनुं मूळ छे, नव्वाणुं हजार योजन जमीननी उपर छे, अने चालीश योजननी तेनी चूलिका (चोटली) छे.

र. जंबुद्वीपनी वचमां पश्चिम-पूर्व लांबा छ कुलाचल (पर्वत) छे, तेनाथी जंबुद्वीपना सात खंड थई गया छे, ते सात खंडोना नाम-भरत, हैमवत्, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत् अने ऐरावत छे.

(र) उत्तरकुरु–देवकुरु
विदेहक्षेत्रमां मेरुनी उत्तर तरफ उत्तरकुरु तथा दक्षिण तरफ देवकुरु क्षेत्र छे.
(३) लवणसमुद्र

जंबुद्वीपनी चारे तरफ खाईनी माफक विंटायेलो बे लाख योजन पहोळो लवण समुद्र छे.

(४) धातकीखंडद्वीप

लवणसमुद्रनी चारे बाजु विंटाएल चार लाख योजन पहोळो धातकीखंडद्वीप छे. आ द्वीपमां मेरु पर्वत छे, तेम ज क्षेत्र तथा कुलाचल (पर्वत) वगेरेनी बधी रचना जंबुद्वीपथी बमणी छे.

(प) कालोदद्यि समुद्र
धातकीखंडनी चारेबाजुथी विंटायेल आठ लाख योजन पहोळो कालोदद्यि समुद्र छे.
(६) पुष्करद्वीप

१. कालोदधिसमुद्रनी चारे बाजु विंटायेल सोळ लाख योजन पहोळो पुष्करद्वीप छे. आ द्वीपनी वचोवच वलय (चूडीना) आकारे पृथ्वी उपर एक हजार बावीस (१०रर) योजन पहोळो, सत्तरसो एकवीस (१७र१) योजन ऊंचो अने चारसो सत्तावीश (४र७) योजन जमीननी अंदर जडवाळो मानुषोत्तर पर्वत छे, अने तेनाथी पुष्करद्वीपना बे खंड थया छे.

र. पुष्करद्वीपना पहेला अर्धाभागमां जंबुद्वीपथी बमणी अर्थात् धातकी खंडनी बराबर सर्वे रचना छे.

(७) नरलोक (मनुष्यक्षेत्र)

जंबुद्वीप, धातकीखंड, पुष्करार्ध (पुष्करद्वीपनो अर्धो भाग), लवणसमुद्र अने कालोदधिसमुद्र- एटला क्षेत्रने नरलोक कहेवाय छे.


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२६८ ] [ मोक्षशास्त्र

(८) बीजा द्वीपो तथा समुद्रो

पुष्करद्वीपथी आगळ परस्पर एकबीजाथी विंटायेला बमणाबमणा विस्तारवाळा मध्यलोकना छेडा सुधी द्वीपो तथा समुद्रो छे.

(९) कर्मभूमि अने भोगभूमिनी व्याख्या

ज्यां असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प अने वाणिज्य ए षट्कर्मोनी प्रवृत्ति होय ते कर्मभूमि छे. ज्यां ते प्रवृत्ति न होय तेने भोगभूमि कहेवाय छे.

(१०) पंदर कर्मभूमिओ

पांच मेरु संबंधी पांच भरत, पांच ऐरावत अने (देवकुरु तथा उत्तरकुरु सिवायना) पांच विदेह -एम कुल पंदर कर्मभूमिओ छे.

(११) भोगभूमिओ

पांच हैमवत अने पांच हैरण्यवत ए दस क्षेत्रो जघन्य भोगभूिओ छे, पांच हरि अने पांच रम्यक् ए दस क्षेत्रो मध्यम भोगभूमिओ छे अने पांच देवकुरु तथा पांच उत्तरकुरु ए दस क्षेत्रो उत्कृष्ट भोगभूमिओ छे.

(१र) भोगभूमि अने कर्मभूमि जेवी रचना

मनुष्यक्षेत्रनी बहारना बधा द्वीपोमां जघन्य भोगभूमि जेवी रचना छे, परंतु स्वयंभूरमण द्वीपना उत्तरार्धमां तथा समस्त स्वयंभूरमण समुद्रमां अने चारे खूणानी पृथ्वीओमां कर्मभूमि जेवी रचना छे. लवणसमुद्र अने कालोदधिसमुद्रमां ९६ अंतर्द्वीपछे, त्यां कुभोगभूमिनी रचना छे अने मनुष्यो ज रहे छे, ते मनुष्योनी आकृतिओ अनेक प्रकारनी कुत्सित छे.

स्वयंभूरमण द्वीपना उत्तरार्धने, स्वयंभूरमण समुद्रने अने चारे खूणाने कर्मभूमि जेवा कहेवाय छे; कारण के कर्मभूमिमां अने त्यां विकलत्रय (बे इंद्रियथी चतुरिंद्रिय) जीवो छे अने भोगभूमिमां विकलत्रय जीवो नथी. तिर्यग्लोकमां पंचेन्द्रिय तिर्यंच रहे छे, पण जळचर तिर्यंचो लवणसमुद्र, कालोदधिसमुद्र अने स्वयंभूरमणसमुद्र सिवाय अन्य समुद्रोमां नथी. स्वयंभूरमण समुद्रने फरता खूणा सिवायना भागने तिर्यग्लोक कहेवामां आवे छे.

उपसंहार

आ क्षेत्रो (लोक) कोईए बनाव्यां नथी पण अनादि अनंत छे. स्वर्ग-नरक अने द्वीप-समुद्र आदि जे छे ते अनादिथी ए ज प्रमाणे छे, अने सदाकाळ एम ज


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अ. ३ उपसंहार ] [ २६९ रहेशे. जेम जीवादिक पदार्थो आ लोकमां अनादिनिधन छे तेम आ पण अनादि- निधन समजवा.

आ रीते, यथार्थ श्रद्धानवडे लोकमां सर्व पदार्थो अकृत्रिम, जुदा जुदा, अनादि-निधन जाणवा. जे कोई कृत्रिम घरबार-इंद्रियगम्य वस्तुओ नवी देखाय छे ते तो अनादिनिधन पुद्गलद्रव्योना संयोगी पर्यायो छे, तेमांना पुद्गलो कांई नवा बन्या नथी. माटे जो जीवनिरर्थक भ्रम वडे साच-जूठनो ज निश्चय न करे तो ते साचुं स्वरूप जाणे नहि. दरेक जीव पोतानी श्रद्धानुं फळ पामे छे माटे लायक जीवोए सम्यक्श्रद्धा करवी.

सात नरकभूमि. बील, लेश्या, आयुष्य, द्वीप, समुद्र, पर्वत, सरोवर, नदी, मनुष्य-तिर्यंचनां आयुष्य ईत्यादिनुं वर्णन करी श्री आचार्यदेवे त्रीजो अध्याय पूरो कर्यो.

आ रीते, त्रीजा अध्यायमां अधोलोक अने मध्यलोकनुं वर्णन कर्यु. हवे, उर्ध्वलोकनुं वर्णन चोथा अध्यायमां आवशे.

ए प्रमाणे श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रना
त्रीजा अध्यायनी गुजराती टीका पूरी थई.

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मोक्षशास्त्र गुजराती टीका
अध्याय चोथो

भूमिका

आ शास्त्रना पहेला अध्यायना पहेला सूत्रमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते मोक्षमार्ग छे एम जणाव्युं. त्यार पछी बीजा सूत्रमां सम्यग्दर्शननुं लक्षण ‘तत्त्वार्थश्रद्धान’ छे एम कह्युं. पछी जे तत्त्वोना यथार्थ श्रद्धानथी सम्यग्दर्शन थाय छे तेनां नामो आपी, सात तत्त्वो छे एम चोथा सूत्रमां जणाव्युं. ते सात तत्त्वोमांथी प्रथम जीवतत्त्व छे. ते जीवनुं स्वरूप समजाववा माटे बीजा अध्यायमां जीवना भावो, जीवनुं लक्षण, इंद्रियो-जन्म-शरीर वगेरे साथेनो संसारी जीवोनो निमित्त-नैमित्तिक-संबंध केवा प्रकारनो होय छे ते जणाव्युं.

त्रीजा अध्यायमां, चार प्रकारना संसारी जीवोमांथी नारकी जीवोनुं वर्णन आप्युं; जीवोने रहेवानां स्थानो जणाव्यां अने तेमांथी मनुष्योने तथा बीजा जीवोने रहेवानां क्षेत्रो कया छे ते जणाव्युं. तेमज मनुष्यो तथा तिर्यंचोनां आयुष्य वगेरे संबंधी केटलीक बाबतो वर्णवी.

ए प्रमाणे संसारनी चार गतिना जीवोमांथी मनुष्य, तिर्यंच अने नारक ए त्रणनुं वर्णन त्रीजा अध्यायमां आवी गयुं; हवे देवोने लगतो अधिकार बाकी रहे छे. ते आ चोथा अध्यायमां मुख्यपणे आपवामां आव्यो छे. आ रीते, पूर्वे अध्याय र, सूत्र १०मां जीवना बे भेद (संसारी अने मुक्त) जणाव्या हता तेमांथी संसारी जीवो संबंधी अधिकार आवी जतां मुक्त जीवोनो अधिकार बाकी रहे छे; मुक्तजीवोनो विषय दसमा अध्यायमां वर्णव्यो छे.

ऊर्ध्वलोकनुं वर्णन
देवोना भेद
देवाश्चतुर्णिकायाः।। १।।

अर्थः– देवो चार समूहवाळा छे अर्थात् देवना चार भेद छे-१. भवनवासी, र. व्यन्तर, ३. जयोतिषी अने ४. वैमानिक.


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२७२ ] [ मोक्षशास्त्र

टीका

देव = जे जीव देवगतिनामकर्मना उदयने वश अनेक द्वीप, समुद्र तथा पर्वतादि रमणीक स्थानोमां क्रीडा करे तेने देव कहेवाय छे. ।। ।।

पहेला त्रण प्रकारना देवोनी लेश्या
आदितस्त्रिषु पोतांतलेश्याः।। २।।

अर्थः– प्रथमना त्रण प्रकारना निकायोमां पीत सुधी अर्थात् कृष्ण, नील, कापोत अने पीत-ए चार लेश्या होय छे.

टीका

(१) कृष्ण = काळी. नील = गळीना रंगनी. कापोत = काबरचीतरी. कबूतरना रंग जेवी. पीत = पीळी.

(र) आ वर्णन भावलेश्यानुं छे. वैमानिक देवोनी भावलेश्यानुं वर्णन आ अध्यायना ररमां सूत्रमां आपेल छे. ।।।।

चार निकाय देवोना पेटा भेदो
दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यंताः।। ३।।

अर्थः– कल्पोषपन्न (सोळमां स्वर्ग सुधी) देवो पर्यंत. ते चार प्रकारना देवोना क्रमथी दश, आठ, पांच अने बार भेद छे.

टीका

भवनवासीना दस, व्यंतरना आठ, जयोतिषीना पांच अने कल्पोपपन्नना बार भेद छे. [कल्पोपपन्न ते वैमानिक जातना ज छे.] ।।।।

चार प्रकारना देवोना सामान्य भेद
ईद्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभि–
योग्यकिल्विषिकाश्वैकशः।। ४।।

अर्थः– उपर कहेला चार प्रकारना देवोमां दरेकना दस भेद छे-१. इन्द्र, र. सामानिक, ३. त्रायस्त्रिंश, ४. पारिषद, प. आत्मरक्ष, ६. लोकपाळ, ७. अनीक, ८. प्रकीर्णक, ९. आभियोग्य अने १०. किल्विषिक.


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अ. ४ सूत्र ४-प ] [ २७३

टीका

१. इन्द्र = जे देव बीजा देवोमां नहि रहेती एवी अणिमादिक ऋद्धिओथी सहित होय तेने इन्द्र कहेवाय छे, ते देव राजा समान होय छे. [like a king]

र. सामानिक = जे देवनुं आयुष्य, वीर्य, भोग, उपभोग वगेरे इन्द्रसमान होय छे, तोपण आज्ञारूपी ऐश्वर्यथी रहित होय छे ते सामानिक कहेवाय छे, ते देव पिता के गुरुतुल्य होय छे. [like father, teacher]

३. त्रायस्त्रिंश = जे देव मंत्री-पुरोहितना स्थान उपर होय छे तेने त्रायस्त्रिंश कहेवामां आवे छे. एक इन्द्रनी सभामां आवा देवो तेत्रीस ज होय छे. [ministers]

४. पारिषद = जे देव इन्द्र नी सभामां बेसवावाळा होय छे तेने पारिषद कहेवामां आवे छे. [courtiers]

प. आत्मरक्ष = जे देव अंगरक्षक समान होय छे तेने आत्मरक्षक कहेवामां आवे छे. [Body guards]

नोंधः– जोके देवोमां घात वगेरे होतुं नथी तोपण ऋद्धि-महिमाने अर्थे आत्मरक्षक देवो होय छे.

६. लोकपाळ = जे देव कोटवाळ (फोजदार) नी माफक लोकनुं पालन करे तेने लोकपाळ कहेवामां आवे छे. [police]

७. अनीक = जे देव पायदळ वगेरे सात प्रकारनी सेनामां विभक्त रहे छे तेने अनीक कहेवामां आवे छे. [army]

८. प्रकीर्णक = जे देव नगरवासी समान होय तेने प्रकीर्णक कहेवामां आवे छे. [people]

९. आभियोग्य = जे देव दासोनी माफक सवारी आदिमां काम आवे तेने आभियोग्य कहेवाय छे. आ प्रकारना देवो घोडा, सिंह, हंस वगेरे प्रकारना वाहनोरूपे (बीजा देवोना उपयोग माटे) पोते पोताने बनावे छे. [conveyances]

१०. किल्विषिक = जे देव चांडाळादिनी माफक हलकुं काम करवावाळा होय तेने किल्विषिक कहेवामां आवे छे. [servile grade]।।।।

व्यंतर अने ज्योतिषी देवोमां इन्द्र वगेरे भेदोनी विशेषता

त्रायस्त्रिंशलोकपालवर्ज्या व्यन्तरज्योतिष्काः।। ५।।

अर्थः– उपर जे दस भेदो कह्या तेमांथी त्रायस्त्रिंश अने लोकपाळ एवा भेदो

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२७४ ] [ मोक्षशास्त्र व्यंतर अने ज्योतिषी देवोमां होता नथी अर्थात् ते बे भेदोने छोडीने बाकीना आठ भेदो होय छे. ।।।।

देवोमां इन्द्रोनी व्यवस्था
पूर्वयोद्वींन्द्राः।। ६।।
अर्थः– पहेला बे भवनवासी अने व्यंतरोमां-दरेक भेदमां बब्बे इन्द्र होय छे.
टीका

(१) भवनवासीना दस भेद छे, तेथी तेमां वीस इन्द्रो होय छे. व्यंतरोना आठ भेद छे, तेथी तेमां सोळ इन्द्रो होय छे; अने बन्नेमां तेटला ज (इन्द्र जेटला ज) प्रतीन्द्र होय छे.

(र) जे देव युवराज समान अथवा इन्द्र समान होय अर्थात् जे देव ईंद्र जेवुं कार्य करे तेने प्रतीन्द्र कहेवाय छे. (त्रलोक प्रज्ञप्ति पानुं ११८-११९).

(३) श्री तीर्थंकर भगवान सो इन्द्रोथी पूज्य छे, ते सो इन्द्रो नीचे प्रमाणे छे-
४० भवनवासीना-वीस इन्द्रो अने वीस प्रतीन्द्रो.
३र व्यंतरना-सोळ इन्द्रो अने सोळ प्रतीन्द्रो.
र४ सोळ स्वर्गमांथी-प्रथमना चार देवलोकना चार, मध्यना आठ देवलोकना

चार अने अंतना चार देवलोकना चार-एम बार इन्द्रो अने बार प्रतीन्द्रो.

र ज्योतिषी देवोमां-चंद्रमा इन्द्र अने सूर्य प्रतीन्द्र.
१ मनुष्यमां-चक्रवर्ती इन्द्र.
१ तिर्यंचमां-अष्टापद-सिंह इन्द्र.
१००
[योगसार-शीलप्रसादजीकृत टीका पानुं १३६] ।। ।।
देवोमां कामसेवन संबंधी वर्णन
कायप्रवीचारा आ णेशानात्।। ७।।

अर्थः– ऐशानस्वर्ग सुधीना देवो (अर्थात् भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी अने पहेला तथा बीजा स्वर्गना देवो) मनुष्योनी माफक शरीरथी कामसेवन करे छे. (प्रवीचार = कामसेवन)


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अ. ४ सूत्र ८-९ ] [२७प

टीका

देवोमां संततिनी उत्पत्ति गर्भद्वारा थती नथी, तेम ज वीर्य अने बीजी धातुओनुं बनेलुं शरीर तेमने होतुं नथी. तेमनुं शरीर वैक्रियिक होय छे. मात्र मननी कामभोगरूप वासना तृप्त करवानो तेओ आ उपाय करे छे. तेनो वेग उत्तरोत्तर मंद होवाथी थोडां ज साधनोथी ए वेग मटी जाय छे. नीचेना देवोनी वासना तीव्र होवाथी वीर्यस्खलननो संबंध नहि होवा छतां पण शरीर संबंध थया विना तेमनी वासना दूर थती नथी. तेनाथी आगळना देवोमां वासना कंईक मंद होय छे तेथी तेओ आलिंगनमात्रथी संतोष माने छे. आगळ आगळना देवोनी वासना तेथी पण मंद होवाथी रूप देखवाथी तथा शब्द सांभळवाथी ज तेमनी वासना शांत थई जाय छे. तेथी आगळना देवोने चिंतवनमात्रथी कामशांति थई जाय छे. कामेच्छा सोळमा स्वर्ग सुधी छे, त्यार पछीना देवोने कामेच्छा उत्पन्न ज थती नथी. ।। ।।

शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवीचाराः।। ८।।

अर्थः– बाकीनां स्वर्गना देवो देवीओना स्पर्शथी, रूप देखवाथी, शब्द सांभळवाथी अने मनना विचारोथी कामसेवन करे छे.

टीका

त्रीजा अने चोथा स्वर्गना देवो देवांगनाओना स्पर्शथी, पांचमाथी आठमा स्वर्ग सुधीना देवो देवीओनुं रूप देखवाथी, नवमाथी बारमा स्वर्ग सुधीना देवो देवीओना शब्द सांभळवाथी अने तेरमाथी सोळमा स्वर्ग सुधीना देवो देवीओ संबंधी मनना विचारमात्रथी तृप्त थई जाय छे-तेमनी कामेच्छा तेटलाथी शांत थई जाय छे. ।। ।।

परेऽप्रवीचाराः।। ९।।

अर्थः– सोळमा स्वर्गथी आगळना देवो कामसेवन रहित होय छे. (तेमने कामेच्छा ज उत्पन्न थती नथी तो पछी तेना प्रतिकारनुं शुं प्रयोजन?)

टीका
(१) आ सूत्रमां ‘परे’ शब्दथी कल्पातीत (सोळमा स्वर्गथी उपरना)

समस्त देवोनो संग्रह करवामां आव्यो छे; तेथी एम समजवुं के अच्युत (सोळमा) स्वर्गनी उपर नव ग्रैवेयकना ३०९ विमान, नव अनुदिश विमान अने पांच अनुत्तर विमानमां


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२७६ ] [ मोक्षशास्त्र वसनारा अहमिंद्र छे तेमने कामसेवन नथी; त्यां देवांगना नथी. [सोळ स्वर्गनी उपरना देवोमां भेद नथी, बधा सरखा होवाथी तेने अहमिंद्र कहेवाय छे.]

(र) नवग्रैवेयकना देवोमांथी केटलाक सम्यग्द्रष्टि होय छे अने केटलाक मिथ्याद्रष्टि होय छे. यथाजात द्रव्यलिंगी जैन मुनि तरीके अतिचार रहित पांच महाव्रतो वगेरे पाळ्‌यां होय एवा मिथ्याद्रष्टिओ पण नवमी ग्रैवेयकमां ऊपजे छे; मिथ्याद्रष्टिओनो आ उत्कृष्ट शुभभाव छे. आवा शुभभावो दरेक मिथ्याद्रष्टि जीवे अनंतवार कर्या [जुओ, अध्याय २ सूत्र १० नी टीका पारा १०-र१-र३] छतां पण धर्मनो अंश के शरूआत ते जीव पाम्यो नहि. आत्मभान वगरनां सर्व व्रत अने तपने बाळव्रत अने बाळतप कहेवाय छे; एवां बाळव्रत अने बाळतप जीव गमे तेटली वार (अनंती अनंती वार) करे तोपण ते वडे सम्यग्दर्शन एटले के धर्मनी शरूआत थाय ज नहि; माटे जीवोए प्रथम आत्मभान वडे सम्यग्दर्शन पामवानी खास जरूरियात छे. मिथ्याद्रष्टिना उत्कृष्ट शुभभाव वडे अंशमात्र धर्म थई शके नहि. शुभभाव ते विकार छे अने सम्यग्दर्शन ते आत्माना श्रद्धागुणनी अविकारी अवस्था छे. विकारथी के विकारभावने वधारवाथी अविकारी अवस्था प्रगटे नहि पण ते विकारने टाळवाथी ज प्रगटे. शुभभावथी धर्म कदी थाय नहि एवी मान्यता प्रथम करवी जोईए; ए रीते प्रथम मान्यतानी भूल जीव टाळे छे अने पछी क्रमेक्रमे चारित्रना दोष टाळीने जीव संपूर्ण शुद्धतानी प्राप्ति करे छे.

(३) नवग्रैवेयकना सम्यग्द्रष्टि देवो अने ते उपरना देवो (के जे बधा सम्यग्द्रष्टि ज होय छे) तेओने चोथुं गुणस्थान ज होय छे. तेओने देवांगनानो संयोग होतो नथी तोपण पांचमा गुणस्थानवर्ती स्त्रीवाळा मनुष्यो अने तिर्यंचो करतां तेमने वधारे कषाय होय छे एम समजवुं.

(४) कोई जीवने कषायनी बाह्य प्रवृत्ति तो घणी होय अने अंतरंग कषायशक्ति थोडी होय छे. -१. तथा कोईने अंतरंग कषायशक्ति तो घणी होय अने बाह्य प्रवृत्ति थोडी होय तेने तीव्र कषायी कहेवामां आवे छे-र. द्रष्टांतोः-

१. पहेला भागनुं द्रष्टांत आ प्रमाणे छेः- व्यंतरादि देवो कषायोथी नगरनाशादि कार्य करे छे तोपण तेमने कषायशक्ति थोडी होवाथी पीतलेश्या कही छे. एकेन्द्रियादि जीवो कषाय कार्य करतां (बाह्यमां) जणाता नथी तोपण तेमने घणी कषायशक्ति होवाथी कृष्णादि लेश्याओ कही छे.

र. बीजा भागनुं द्रष्टांत आ सूत्र ज छे. आ सूत्र एम बतावे छे के सर्वार्थ- सिद्धिना देवो कषायरूप थोडा प्रवर्ते छे. अब्रह्मचर्य सेवता नथी, देवांगनाओ तेमने


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अ. ४ सूत्र ९-१० ] [ २७७ होती नथी, छतां पंचमगुणस्थानवर्ती (देशसंयमी) करतां तेमने कषायशक्ति घणी होवाथी ते चोथागुणस्थानवर्ती-असंयमी छे. पंचमगुणस्थानवर्ती जीव वेपार अने अब्रह्मचर्यादि कषाय कार्यरूप घणा प्रवर्तता होय छे तोपण तेमने मंदकषायशक्ति होवाथी देशसंयमी कह्या छे.

३. वळी आ सूत्र एम पण बतावे छे के नव ग्रैवेयकना मिथ्याद्रष्टि जीवोने बाह्य ब्रह्मचर्य छे तो पण तेओ पहेला गुणस्थाने छे अने पांचमा गुणस्थानवर्ती जीवो परणे छे तथा अब्रह्मचर्यादि कार्यरूप प्रवर्ते छे तो पण ते देशसंयमी सम्यग्द्रष्टि छे.

(प) आ सूत्रनो सिद्धांत

बाह्य संयोगोना सद्भाव के अभावने अने बाह्य प्रवृत्ति के निवृत्तिने अनुसरीने जीवनी अपवित्रता के पवित्रतानो निर्णय करवो ते न्यायविरुद्ध छे; पण अंतरंग मान्यता अने कषायशक्ति उपरथी ज जीवनी अपवित्रता के पवित्रतानो निर्णय करवो ते न्यायसर छे. मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा (बहारथी आत्मानुं माप करनारो) होवाथी ते साचो निर्णय करी शके नहि केमके तेनुं लक्ष बाह्य संयोगोना सद्भाव के अभाव उपर तथा बाह्य प्रवृत्ति के निवृत्ति उपर होवाथी ते बहारना आधारे निर्णय करे छे. सम्यग्द्रष्टि अंतरात्मा (अंतरद्रष्टिथी आत्मानुं माप करनार) होवाथी तेनो निर्णय अंतरंग स्थिति उपर अवलंबे छे, तेथी ते अंतरंग मान्यता अने कषायशक्ति केवी छे ते उपरथी निर्णय करे छे, ते कारणे तेनो निर्णय साचो होय छे. ।। ।।

भवनवासी देवोना दस भेदो
भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णग्निवातस्तनितोदधि–
द्वीपदिक्कुमाराः।। १०।।

अर्थः– भवनवासी देवोना दस भेद छे-१. असुरकुमार, र. नागकुमार, ३. विद्युत्कुमार, ४. सुपर्णकुमार, प. अग्निकुमार, ६. वातकुमार, ७. स्तनितकुमार, ८. उदधिकुमार, ९. द्वीपकुमार अने १०. दिग्कुमार.

टीका

(१) र० वर्षनी नीचेना युवानोनुं जेवुं जीवन अने टेवो होय छे तेवुं जीवन अने टेवो आ देवोने पण होय छे तेथी तेओ ‘कुमार’ कहेवाय छे.

(र) तेओनुं रहेठाण नीचे मुजब छेः-

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२७८ ] [ मोक्षशास्त्र

प्रथम पृथ्वी रत्नप्रभामां त्रण भूमिओ (Strata) छे. तेमां पहेली भूमिने

‘खरभाग’ कहेवाय छे. तेमां असुरकुमार सिवायना नवे प्रकारना भवनवासी देवो रहे छे.

जे भूमिमां असुरकुमार रहे छे ते भागने ‘पंकभाग’ कहेवाय छे, तेमां राक्षसो पण रहे छे. ‘पंकभाग’ ते रत्नप्रभा पृथ्वीनो बीजो भाग छे.

रत्नप्रभानो त्रीजो (सौथी नीचलो) भाग ‘अब्बहुल’ कहेवाय छे. ते पहेली नरक छे.

(३) भवनवासी देवोने आ असुरकुमारादि दस प्रकारनी संज्ञा ते ते प्रकारना नामकर्मना उदयथी छे एम जाणवुं. ‘जे देवो युद्ध करे, प्रहार करे ते असुर छे’ एम कहेवुं ते खरुं नथी अर्थात् ते देवोनो अवर्णवाद छे अने तेमां मिथ्यात्वनो बंध थाय छे.

(४) दस जातिना भवनवासी देवोना सात करोड बोंतेर लाख भुवनो छे; ए भुवनो महासुगंधी, महा रमणीक अने महा उद्योतरूप छे; अने तेटली ज संख्याना (७, ७र, ००, ०००) जिन चैत्यालय छे. दस प्रकारना चैत्यवृक्ष जिनप्रतिमा वडे बिराजित होय छे.

(प) भवनवासी देवोनो आहार अने श्वासनो काळ

१. असुरकुमारदेवने एक हजार वर्ष गये आहारनी इच्छा ऊपजे अने

मनमां तेनो विचार आवतां कंठमांथी अमृत झरे, वेदना व्यापे नहि; पंदर दिवस वीत्ये श्वास ले.

र-४. नागकुमार, सुपर्णकुमार अने द्वीपकुमार ए त्रण प्रकारना देवोने

साडाबार दिवस गये आहारनी इच्छा ऊपजे अने साडाबार मुहूर्त वीत्ये श्वास ले.

प-७. उदधिकुमार, विद्युतकुमार अने स्तनितकुमार ए त्रण प्रकारना देवोने

बार दिवस गये आहारनी इच्छा ऊपजे अने बार मुहूर्त गये श्वास ले.

८-१०. दिग्कुमार१०, अग्निकुमार अने वातकुमार ए त्रण प्रकारना देवोने

साडासात दिवस गये आहारनी इच्छा ऊपजे अने साडासात मुहूर्ते श्वास ले.

देवोने कवलाहार होतो नथी, तेमना कंठमांथी अमृत झरे अमृत छे अने तेमने वेदना व्यापती नथी.

आ अध्यायना छेडे देवोनी व्यवस्था बतावनारुं कोष्टक छे तेमांथी बीजी विगतो जाणी लेवी. ।। १०।।


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अ. ४ सूत्र ११-१२ ] [ २७९

व्यंतर देवोना आठ भेदो
व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः।। ११।।

अर्थः– व्यन्तर देवोना आठ भेद छे-१. किन्नर, र. किंपुरुष, ३. महोरग, ४. गंधर्व, प. यक्ष, ६. राक्षस, ७. भूत अने ८. पिशाच.

टीका

(१) केटलाक व्यंतर देवो जंबुद्वीप तथा बीजा असंख्यात द्वीपसमुद्रोमां रहे छे. राक्षसो रत्नप्रभा पृथ्वीनां ‘पंकभाग’ मां रहे छे, अने राक्षस सिवाय बीजा सात प्रकारना व्यंतर देवो ‘खरभाग’ मां रहे छे.

(र) जुदी जुदी दिशांतरमां आ देवोनो निवास छे तेथी तेने व्यंतर कहेवामां

आवे छे. उपर कही ते आठ संज्ञाओ जुदा जुदा नामकर्मना उदयथी छे. ते संज्ञाओनो केटलाक व्युत्पत्ति मुजब अर्थ करे छे पण ते विपरीत अर्थ छे. अर्थात् एम कहेवुं ते देवनो अवर्णवाद छे अने ते मिथ्यात्वना बंधनुं कारण छे.

(३) पवित्र वैक्रियिक शरीरना धारक देवो कदी पण मनुष्यना अशुचिमय औदारिक शरीर साथे कामसेवन करतां ज नथी; देवोने मांसभक्षण कदी होतुं ज नथी. देवोने कंठना अमृतनो आहार होय छे, पण कवलाहार होतो नथी.

(४) व्यंतर देवोनां स्थानमां जिनप्रतिमा सहित आठ प्रकारना चैत्यवृक्ष होय छे अने ते मानस्थंभादिक सहित होय छे.

(प) व्यंतर देवोनो आवास द्वीप, पर्वत, समुद्र, देश, गाम, नगर, त्रिक, चौटा, घरआंगणुं, रस्तो, गली, पाणीना घाट, बाग, वन, देवकुळ वगेरे असंख्यात स्थळोए छे. ।। ११।।

ज्योतिषी देवोना पांच भेदो
जयोतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च।। १२।।

अर्थः– ज्योतिषी देवना पांच प्रकार छे-१. सूर्य, र. चंद्रमा, ३. ग्रह, ४. नक्षत्र अने प. प्रकीर्णक ताराओ.

टीका

ज्योतिषी देवोनो निवास मध्यलोकमां समधरातळथी ७९० योजननी ऊंचाईथी ९०० योजननी ऊंचाई सुधी आकाशमां होयछे. सौथी नीचे तारा छे; तेनाथी


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२८० ] [ मोक्षशास्त्र १० योजन ऊंचे सूर्यो छे; सूर्योथी ८० योजन ऊंचे चंद्रमाओ छे; चंद्रमांथी ४ योजन ऊंचे र७ नक्षत्रो छे; नक्षत्रोथी ४ योजन ऊंचे बुधनो ग्रह, तेनाथी ३ योजन ऊंचे शुक्र, तेनाथी ३ योजन ऊंचे बृहस्पति, तेनाथी ३ योजन ऊंचे मंगळ अने तेनाथी ३ योजन ऊंचे शनि छे; ए प्रमाणे पृथ्वीथी ऊंचे ९०० योजन सुधी ज्योतिषीमंडळ छे; तेनो आवास मध्यलोकमां छे. [अहीं र००० कोसनो योजन गणवो.] ।। १र।।

ज्योतिषी देवोनुं विशेष वर्णन
मेरुदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।। १३।।

अर्थः– उपर कहेला ज्योतिषी देवो मेरु पर्वतने प्रदक्षिणा दईने मनुष्यलोकमां हमेशां गमन करे छे.

(अढी द्वीप अने बे समुद्रने मनुष्यलोक कहेवामां आवे छे.) ।। १३।।
तेनाथी थतो काळविभाग
तत्कृतः कालविभागः।। १४।।

अर्थः– घडी, कलाक, दिवस, रात, वगेरे व्यवहारकाळनो विभाग ते गतिशील ज्योतिषी देवो द्वारा करवामां आवे छे.

टीका

काळ बे प्रकारना छे -निश्चयकाळ अने व्यवहारकाळ. निश्चयकाळनुं स्वरूप पांचमा अध्यायना ररमा सूत्रमां आवशे. आ व्यवहारकाळ निश्चयकाळने बतावनारो छे. ।। १४।।

स्थिर ज्योतिषी देवोनुं स्वरूप
बहिरवस्थिताः।। १५।।
अर्थः– मनुष्यलोक (अढी द्वीप) नी बहारना ज्योतिषी देवो स्थिर छे.
टीका

अढी द्वीपनी बहार असंख्यात द्वीप-समुद्रो छे. तेना उपरना (एटले के छेल्ला स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यंतना) ज्योतिषी देवो स्थिर छे. ।। १प।।

आ रीते भवनवासी, व्यंतर अने ज्योतिषी ए त्रण प्रकारना देवोनुं वर्णन पूरुं थयुं. हवे चोथा प्रकारना- वैमानिक देवोनुं स्वरूप कहे छे.


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अ. ४ सूत्र १६-१७-१८ ] [ २८१

वैमानिक देवोनुं वर्णन
वैमानिकाः।। १६।।
अर्थः– हवे वैमानिक देवोनुं वर्णन शरू थाय छे.
टीका

विमानः– जे स्थानमां रहेवावाळा देवो पोताने विशेष पुण्यात्मा समजे ते स्थानने विमान कहेवाय छे.

वैमानिकः– ते विमानोमां पेदा थता देवोने वैमानिक कहेवाय छे. बधा थईने चोरासा लाख सताणुं हजार त्रेवीस विमानो छे. तेमां उतम मंदिरो, कल्पवृक्षो, वन, बाग, वावडी, नगर वगेरे अनेक प्रकारनी रचना होय छे. तेना मध्यस्थानमां जे विमान छे ते इन्द्रक विमान कहेवाय छे; तेनी पूर्वादि चारे दिशामां पंकितरूप (सीधी लाईनमां) जे विमानो छे ते श्रेणीबद्ध विमान कहेवाय छे, चारे दिशानी वच्चे अंतराळमां-विदिशाओमां ज्यां त्यां विखरायेलां फूलनी माफक जे विमानो छे तेने प्रकीर्णक विमान कहेवाय छे. ए रीते इन्द्रक, श्रेणीबद्ध अने प्रकीर्णक एम त्रण प्रकारनां विमानो छे. ।। १६।।

वैमानिक देवोना बे भेद
कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च।। १७।।
अर्थः– वैमानिक देवोना बे भेद छे-१. कल्पोपपन्न अने र. कल्पातीत.
टीका

जेमां इन्द्रादि दस प्रकारना भेदोनी कल्पना होय छे एवा सोळ स्वर्गोने कल्प कहे छे अने ते कल्पमां जे देवो पेदा थाय तेने कल्पोपपन्न कहेवाय छे; तथा सोळमा स्वर्गथी उपर जे देवो पेदा थाय तेने कल्पातीत कहेवाय छे. ।। १७।।

कल्पोनी स्थितिनो क्रम
उपर्युपरि।। १८।।

अर्थः– सोळ स्वर्गना आठ युगल, नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश अने पांच अनुत्तर ए सर्वे विमानो क्रमथी उपर उपर छे.।। १८।।


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२८२ ] [ मोक्षशास्त्र

वैमानिक देवोने रहेवानां स्थान
सौघर्मैशानसानत्कुमारमाहेंद्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रमहा–
शुक्रसतारसहस्त्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसुग्रैवेयकेषु
विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषुसर्वार्थसिद्धौ च।। १९।।

अर्थः– सौधर्म-ऐशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, सतार-सहस्त्रार-आ छ युगलोनां बार स्वर्गोमां, आनत-प्राणत ए बे स्वर्गोमां, आरण-अच्युत ए बे स्वर्गोमां, नव ग्रैवेयक विमानोमां, नव अनुदिश विमानोमां अने विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि ए पांच अनुत्तर विमानोमां वैमानिक देवो रहे छे.

टीका

(१) नव ग्रैवेयकोनां नाम-१. सुदर्शन, र. अमोघ, ३. सुप्रबुद्ध, ४. यशोधर. प. सुभद्र, ६. विशाल, ७. सुमन, ८. सौमन अने ९. प्रीतिकर.

(र) नव अनुदिशनां नाम-१. आदित्य, र. अर्चि, ३. अर्चिमाली, ४. वैरोचन, प. प्रभास, ६. अर्चिप्रभ, ७. अर्चिमध्य, ८. अर्चिरावर्त अने ९. अर्चिविशिष्ठ.

सूत्रमां ‘अनुदिश’नाम नथी परंतु‘नवसु’पदथी तेनुं ग्रहण थई जाय छे.

नव अने ग्रैवेयक ए बन्नेने सातमी विभक्ति लगाडी छे ते बतावे छे के ‘ग्रैवेयक’ थी ‘नव’ ए जुदां स्वर्ग छे.

(३) सौधर्मादिक एकेक विमानमां एकेक जिनमंदिर अनेक विभूति सहित होय छे. वळी इन्द्रना नगरनी बहार अशोकवन, आम्रवन वगेरे होय छे. ते वनमां एक हजार योजन ऊंचुं अने पांचसो योजन पहोळुं एक चैत्यवृक्ष छे. तेनी चारे दिशाओमां पल्यंकासन जिनेन्द्रदेवनी प्रतिमा छे.

(४) इन्द्रना आ स्थानमंडपमां अग्रभागे मानस्थंभ होय छे, ते मानस्थंभमां तीर्थंकरदेव गृहस्थदशामां होय त्यां सुधी तेने पहेरवा योग्य आभरणनो एक रत्नमय कंडियो(पटारो) होय छे. तेमांथी आभरणो काढीने इन्द्र ते तीर्थंकरदेवने पहोंचाडे छे. सौधर्मना मानस्थंभना रत्नमय कंडियामां भरतक्षेत्रना तीर्थंकरनां आभरण होय छे. ऐशान स्वर्गना मानस्थंभना कंडियामां ऐरावतक्षेत्रना तीर्थंकरनां आभरण होय छे. सानत्कुमारना मानस्थंभना कंडियामां पूर्व विदेहना तीर्थंकरनां आभरण होय छे; माहेन्द्रना मानस्थंभना कंडियामां पश्चिम विदेहना तीर्थंकरनां


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अ. ४ सूत्र २०-२१ ] [ २८३ आभरण होय छे; तेथी ते मानस्थंभो देवथी पूजनिक छे. ए मानस्थंभनी नजीक ज आठ योजन पहोळुं, आठ योजन लांबुं तथा ऊंचुं उपपादगृह छे. ते उपपादगृहमां बे रत्नमय शय्या होय छे, ते इन्द्रनुं जन्मस्थान छे. आ उपपादगृहनी निकटमां ज घणा शिखरवाळां जिनमंदिरो छे. तेनुं विशेष वर्णन त्रिलोकसारादि ग्रंथमांथी जाणवुं.।। १९।।

वैमानिक देवोमां उत्तरोत्तर अधिकता
स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिका ।। २०।।

अर्थः– आयुस्थिति, प्रभाव, सुख, धुति, लेश्यानी विशुद्धि, इन्द्रियनो विषय अने अवधिज्ञाननो विषय ए सर्वे उपर उपरनां विमानोमां (वैमानिक देवोने) अधिक छे.

टीका

स्थितिः– आयुकर्मना उदयथी जे भवमां रहेवानुं थाय छे ते स्थिति छे. प्रभावः– परने उपकार तथा निग्रह करवानी भावनी शक्ति प्रभाव छे. सुख– शातावेदनीयना उदयथी इन्द्रियना इष्ट विषयोनी सगवड ते सुख छे. अहीं‘सुख’नो अर्थ बहारना संयोगोनी सगवड करवो, निश्चयसुख (आत्मिक सुख) अहीं न समजवुं; निश्चयसुखनी शरूआत सम्यग्दर्शनथी थाय छे; अहीं सम्यग्द्रष्टिना के मिथ्याद्रष्टिना भेदनी अपेक्षाए कथन नथी पण सामान्य कथन छे एम समजवुं.

द्युति– शरीरनी तथा वस्त्र, आभूषण, बळनी दीप्ति ते द्युति छे. लेश्याविशुद्धि– लेश्यानी उज्ज्वलता ते विशुद्धि छे; अहीं भावलेश्या समजवुं. इन्द्रियविषय– इन्द्रिय द्वारा (मतिज्ञानथी) जाणवायोग्य पर्दाथने इन्द्रियविषय कहेवाय छे.

अवधिविषय– अवधिज्ञानथी जाणवायोग्य पदार्थ ते अवधिविषय छे. ।। र०।।
वैमानिक देवोमां उत्तरोत्तर हीनता
गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः।। २१।।

अर्थः– गति, शरीर, परिग्रह अने अभिमाननी अपेक्षाए उपर उपरना वैमानिक देवो हीन हीन छे.