Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 8-18 (Chapter 2).

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१८६ ] [ मोक्षशास्त्र

(३) अनादि अज्ञानी जीवने क्या भावो कदी थया नथी?

१. ए वात लक्षमां राखवी के जीवने अनादिथी ज्ञान, दर्शन अने वीर्य क्षायोपशमिकभावो छे पण ते कांई धर्मनुं कारण नथी.

र. पोताना स्वरूपने लगती असावधानी (मोह) संबंधनो औपशमिकभाव अनादि अज्ञानी जीवने कदी प्रगटयो नथी. जीव ज्यारे सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे त्यारे दर्शनमोहनो (मिथ्यात्वनो) उपशम थाय छे; सम्यग्दर्शन अपूर्व छे केमके ते जीवने पूर्वे कदी पण ते भाव थयेलो न हतो. आ औपशमिकभाव थया पछी मोहने लगता क्षायोपशमिक अने क्षायिक भाव ते जीवने प्रगट थया वगर रहेता नथी; ते जीव मोक्षावस्था अवश्य प्रगट करे छे.

(४) उपरना औपशमिकादि त्रण भावो क्या विधिथी प्रगटे?

१. ज्यारे जीव पोताना आ भावोनुं स्वरूप समजीने त्रिकाळी ध्रुवरूप (सकळ निरावरण) अखंड एक अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकभाव तरफ पोतानुं वलण-लक्ष स्थिर करे त्यारे उपरना त्रण भावो प्रगटे छे; ‘हुं खंड-ज्ञानरूप छुं’ एवी भावना वडे औपशमिकादि भावो प्रगटता नथी.

[श्री समयसार-हिंदी, जयसेनाचार्यकृत टीका पा. ४८३]

र. पोताना अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकभाव तरफना वलणने अध्यात्मभाषामां ‘निश्चयनयनो आश्रय’ कहेवामां आवे छे. निश्चयनयना आश्रये शुद्ध पर्याय प्रगटे छे. निश्चयनयनो विषय अखंड; अविनश्वर शुद्धपारिणामिकभाव अर्थात् ज्ञायकभाव छे. व्यवहारनयना आश्रये शुद्धता प्रगटती नथी पण अशुद्धता प्रगटे छे.

[श्री समयसार गाथा-११]
(प) पांच भावोमांथी क्या भाव बंधरूप छे अने क्या
भाव बंधरूप नथी

१. आ पांच भावोमांथी एक औदयिकभाव (मोह साथेनो जोडाणभाव) बंधरूप छे; ज्यारे जीव मोहभाव करे त्यारे कर्मनो उदय बंधनुं कारण उपचारथी कहेवाय अने जो जीव मोहभावरूपे न परिणमे तो बंध थाय नहि अने त्यारे ते ज जड-कर्मनी निर्जरा थई एम उपचारथी कहेवाय.

र. जेमां पुण्य, पाप, दान, पूजा, व्रतादि भावोनो समावेश थाय छे एवा आस्रव अने बंध ए बे औदयिकभाव छे; संवर अने निर्जरा ते मोहना औपशमिक


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अ. २. सूत्र २ ] [ १८७ अने क्षायोपशमिकभाव छे, ते शुद्धताना अंशो होवाथी बंधरूप नथी; अने मोक्ष ते क्षायिकभाव छे, ते सर्वथा पवित्र पर्याय छे एटले ते पण बंधरूप नथी.

३. शुद्ध त्रिकाळी पारिणामिकभाव तो बंध अने मोक्षथी निरपेक्ष छे. ।। ।।
जीवनुं लक्षण
उपयोगी लक्षणम्।। ८।।
अर्थः– [लक्षणम्] जीवनुं लक्षण [उपयोगः] उपयोग छे.
टीका

लक्षण–घणा मळेला पदार्थोमांथी कोई एक पदार्थने जुदो करवावाळा हेतुने (साधनने) लक्षण कहे छे. (श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका. प्रश्न-र.)

उपयोग– चैतन्यगुण साथे संबंध राखवावाळा जीवना परिणामने उपयोग कहे छे.

उपयोगने ‘ज्ञान-दर्शन’ पण कहेवाय छे, ते बधा जीवोमां होय छे अने जीव सिवाय बीजा कोई द्रव्यमां होता नथी, तेथी तेने जीवनो असाधारण गुण अथवा लक्षण कहे छे; वळी ते सद्भूत (आत्मभूत) लक्षण छे तेथी बधा जीवोमां सदाय होय छे. आ सूत्रमां बधा जीवोने लागु पडे तेवुं सामान्य लक्षण आप्युं छे.

[तत्त्वार्थसार पा. प४ः अंग्रेजी तत्त्वार्थसूत्र ता. प८]

जेम सोना अने चांदीनो एक पिंड होवा छतां तेमां सोनुं तेना पीळाशादि लक्षण वडे अने चांदी तेना शुक्लादि लक्षण वडे बन्ने जुदां छे एम तेनो भेद जाणी शकाय छे, तेम जीव अने कर्म-नोकर्म (शरीर) एकक्षेत्रे होवा छतां जीव तेना उपयोग-लक्षण वडे कर्म-नोकर्मथी जुदो छे अने द्रव्यकर्म-नोकर्म तेमना स्पर्शादि लक्षण वडे जीवथी जुदां छे-एम तेनो भेद जाणी शकाय छे.

जीव अने पुद्गलने अनादिथी एकक्षेत्रावगाहरूपे संबंध छे, तेथी अज्ञानदशामां ते बन्ने एकरूप भासे छे. जीव अने पुद्गल एक आकाशक्षेत्रे होवा छतां जो साचां लक्षणो वडे निर्णय करवामां आवे तो ते बन्ने भिन्न छे तेवुं ज्ञान थाय छे. घणा मळेला पदार्थोमांथी कोई एक पदार्थने जुदो करनार हेतुने लक्षण कहे छे. अनंत परमाणुओनुं बनेलुं शरीर अने जीव एम घणा मळेला पदार्थो छे, तेमां अनंत पुद्गलो छे अने एक जीव छे, तेने ज्ञानमां जुदा करवा माटे अहीं जीवनुं लक्षण बताववामां आव्युं छे, ‘जीवनुं लक्षण उपयोग छे’ एम अहीं कह्युं छे.


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१८८ ] [ मोक्षशास्त्र

प्रश्नः– उपयोग एटले शुं? उत्तरः– चैतन्य ते आत्मानो स्वभाव छे, ते चैतन्यस्वभावने अनुसरतो आत्मानो जे परिणाम तेने उपयोग कहेवामां आवे छे. उपयोग जीवनुं निर्बाध लक्षण छे.

आठमा सूत्रनो सिद्धांत

शरीरादिनां कार्यो हुं करी शकुं, हुं तेने हलावी-चलावी शकुं एम जे जीवो माने छे ते चेतन अने जडद्रव्यने एकरूप माने छे, तेओनी ए खोटी मान्यता छोडाववा अने जीवद्रव्य जडथी सर्वथा जुदुं छे एम बताववा जीवनुं असाधारण लक्षण उपयोग छे एम आ सूत्रमां बताव्युं छे.

नित्य उपयोग लक्षणवाळुं जीवद्रव्य कदी पुद्गलद्रव्यपणे (शरीरादिपणे) थतुं जोवामां आवतुं नथी अने नित्य जड लक्षणवाळुं शरीरादि पुद्गलद्रव्य कदी जीवद्रव्यपणे थतुं जोवामां आवतुं नथी; कारण के उपयोग अने जडपणाने एकरूप थवामां, प्रकाश अने अंधकारनी माफक, विरोध छे. जड अने चेतन कदी पण एक थई शके नहि. जड अने चेतन ए बन्ने सर्वथा जुदां जुदां छे, कदाचित् कोईपण रीते एकरूप थतां नथी; तेथी हे जीव! तुं सर्व प्रकारे प्रसन्न था! तारुं चित्त उज्ज्वळ करी सावधान था अने स्वद्रव्यने ज ‘आ मारुं छे’ एम अनुभव. आवो श्रीगुरुओनो उपदेश छे.

जीव, शरीर अने द्रव्यकर्म एक आकाशप्रदेशे बंधरूप रह्यां छे तेथी ते घणा मळेला पदार्थोमांथी एक जीवपदार्थने जुदो जाणवा माटे आ सूत्रमां जीवनुं लक्षण कहेवामां आव्युं छे. ।। ।। [सर्वार्थसिद्धि भाग बीजो. पा. २७-२८]

उपयोगना भेदो
स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः।। ९।।
अर्थः– [सः] ते उपयोगना [द्विविधः] ज्ञान उपयोग अने दर्शन उपयोग

एवा बे भेद छे; वळी तेओ क्रमथी [अष्ट चतुः भेदः] आठ अने चार भेद सहित छे अर्थात् ज्ञान उपयोगना मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवळ (ए पांच सम्यग्ज्ञान) अने कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि (ए त्रण मिथ्याज्ञान) एम आठ भेद छे, तेम ज दर्शनउपयोगना चक्षु, अचक्षु, अवधि तथा केवळ एम चार भेद छे. आ रीते ज्ञानना आठ अने दर्शनना चार भेदो मळी उपयोगना कुल बार भेद छे.

टीका
(१) आ सूत्रमां ‘उपयोगना भेद बताव्या छे, केमके भेद बताव्या होय तो

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अ. २. सूत्र ९ ] [ १८९ जिज्ञासुओ जलदी समजी शके छे, तेथी कह्युं छे के-‘सामान्य शास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत्’ अर्थात् सामान्य शास्त्रथी विशेष बळवान छे. सामान्य एटले टूंकामां कहेनारुं अने विशेष एटले भेदो पाडीने बतावनारुं. साधारण माणसो विशेषथी बराबर निर्णय करी शके छे. [मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. २०८]

(र) ‘दर्शन’ शब्दना जुदा जुदा अर्थो अने तेमांथी अहीं लागु पडतो अर्थ

शास्त्रमां एक ज शब्दनो कोई ठेकाणे तो कोई अर्थ थाय छे तथा कोई ठेकाणे कोई अर्थ थाय छे. ‘दर्शन’ शब्दना पण अनेक अर्थ थाय छे. (१) अध्याय १, सूत्र १-२मां मोक्षमार्ग संबंधी कथन करतां ‘सम्यग्दर्शन’ शब्द कह्यो छे त्यां दर्शन शब्दनो अर्थ श्रद्धा छे. (र) उपयोगना वर्णनमां ‘दर्शन’ शब्दनो अर्थ वस्तुनुं सामान्य ग्रहण मात्र छे. अने (३) इंद्रियना वर्णनमां ‘दर्शन शब्दनो अर्थ नेत्र वडे देखवा मात्र छे. आ त्रण अर्थोमांथी अहीं चालता सूत्रमां बीजो अर्थ लागु पडे छे.

[मोक्षमार्ग प्र. पा. २९८]

दर्शन उपयोग– कोई पण पदार्थने जाणवानी योग्यता (लब्धि) थतां ते पदार्थ तरफ सन्मुखता, प्रवृत्ति अथवा बीजा पदार्थो तरफथी हठीने विवक्षित पदार्थ तरफ उत्सुकता प्रगट थाय छे ते दर्शन छे. ते उत्सुकता चेतनामां ज थाय छे. विवक्षित पदार्थने थोडो पण जाणवामां आवतो नथी त्यां सुधीना चेतनाना व्यापारने ‘दर्शनउपयोग’ कहेवामां आवे छे. द्रष्टांतः- एक माणसनो उपयोग भोजन करवामां लागी रह्यो छे अने तेने एकदम इच्छा थई के बहार मने कोई बोलावतुं तो नथी ने? हुं ते जाणी लउं; अथवा कोईनो अवाज कानमां पडवाथी तेनो उपयोग भोजन तरफथी हठीने शब्द तरफ लागी जाय छे. आमां चेतनाना उपयोगनुं भोजनथी खसवुं अने शब्द तरफनुं लागवुं थयुं पण ज्यां सुधी शब्द तरफनुं कांई पण ज्ञान न थाय त्यां सुधीनो व्यापार ते ‘दर्शन उपयोग’ छे.

पूर्व विषयथी हठवुं अने पछीना विषय तरफ उत्सुक थवुं ते ज्ञाननो पर्याय नथी तेथी ते चेतनापर्यायने ‘दर्शन उपयोग’ कहेवामां आवे छे.

[तत्त्वार्थसार पा. ३१०-३११]
आत्माना उपयोगनुं पदार्थ तरफ झूकवुं ते दर्शन छे.
[गुजराती द्रव्य-संग्रह पा. प९]

द्रव्य-संग्रहनी ४३ मी गाथामां ‘सामान्य’ शब्द वापर्यो छे तेनो अर्थ ‘आत्मा’ थाय छे. सामान्यग्रहण एटले आत्मग्रहण; आत्मग्रहण ते दर्शन छे.

[हिंदी बृहत् द्रव्यसंग्रह पा. १७प]

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१९० ] [ मोक्षशास्त्र

(३) साकार अने निराकार

ज्ञानने साकार अने दर्शनने निराकार कहेवामां आवे छे; त्यां ‘आकार’नो अर्थ ‘लंबाई-पहोळाई अने जाडाई’ एम थतो नथी, पण जे प्रकारनो अर्थ होय ते प्रकार ज्ञानमां जणाय तेने आकार कहेवामां आवे छे. अमूर्तिक आत्मानो गुण होवाथी ज्ञान पोते खरी रीते अमूर्त छे. जे पोते तो अमूर्त होय अने वळी द्रव्य न होय, मात्र गुण होय तेने पोतानो जुदो आकार होई शके नहि; पोतपोताना आश्रयभूत द्रव्यनो जे आकार होय ते ज आकार गुणोनो होय छे. ज्ञानगुणनो आधार आत्मद्रव्य छे तेथी आत्मानो जे आकार ते ज ज्ञाननो आकार छे, आत्मा गमे तेवा आकारना पदार्थने जाणे तोपण आत्मानो आकार तो (समुद्घात सिवायना प्रसंगे) बहारना शरीराकारे रहे छे, तेथी वास्तविक रीते ज्ञेय पदार्थना आकारे ज्ञान थतुं नथी पण आत्माना आकारे ज्ञान रहे छे; पण ज्ञेय पदार्थ जेवो छे तेवो ज्ञान जाणी ले छे तेथी ज्ञानने साकार कहेवाय छे (तत्त्वार्थसार पा. ३०८- ३०९) दर्शन एक पदार्थथी बीजाने जुदो पाडतुं नथी तेथी तेने निराकार कहेवाय छे.

पंचाध्यायी भाग बीजो गाथा-३९१ मां आकारनो अर्थ नीचे प्रमाणे कह्यो छे-
आकारोर्थविकल्पः स्वादर्थः स्वपरगोचरः।
सोपयोगो विकल्पो वा ज्ञानस्यैतद्धि लक्षणम्।।

अर्थः– अर्थ विकल्पने आकार कहे छे, स्व-पर पदार्थने अर्थ कहेवामां आवे छे, उपयोगावस्थाने विकल्प कहे छे अने ते ज्ञाननुं लक्षण छे.

भावार्थः– आत्मा अथवा बीजा पदार्थोनुं उपयोगात्मक भेदविज्ञान थवुं तेने ज आकार कहे छे. पदार्थोना भेदाभेदने माटे थयेला निश्चयात्मक बोधने ज आकार कहे छे. अर्थात् पदार्थोनुं जाणवुं ते ज आकार कहेवाय छे अने ते ज्ञाननुं स्वरूप छे.

विकल्पः– अर्थ = स्व अने पर विषय; विकल्प = व्यवसाय; अर्थविकल्प = स्व-पर व्यवसायात्मक ज्ञान, ए ज्ञानने प्रमाण कहेवाय छे.

[पं. देवकीनंदनकृत पंचाध्यायी. भाग पहेलो, गाथा-६६६नी फूटनोट]
आकार संबंधी विशेष खुलासो

ज्ञान अमूर्तिक आत्मानो गुण छे, तेमां ज्ञेय पदार्थनो आकार ऊतरतो नथी. मात्र विशेष पदार्थ तेमां भासवा लागे छे-तेने आकृति मानवी ए मतलब छे. सारांशः- ज्ञानमां परपदार्थनी आकृति वास्तविक रीते मानी शकाय नहि, परंतु ज्ञान- ज्ञेय संबंधना कारणे ज्ञेयनो आकृतिधर्म उपचार नयथी ज्ञानमां कल्पित करवामां


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अ. २. सूत्र ९ ] [ १९१ आवे छे, ते उपचारनुं कारण एटलुं ज समजवुं के पदार्थोनी विशेष आकृति नक्की करनार जे चैतन्यपरिणाम छे ते ज्ञान कहेवाय छे, पण ते पदार्थना विशेष आकारतुल्य ज्ञान स्वयं थई जाय छे एवो साकारनो अर्थ नथी.

[तत्त्वार्थसार पाना प४-३०८]
(४) दर्शन अने ज्ञान वच्चे भेद

अंतर्मुख चित्प्रकाशने दर्शन अने बहिर्मुख चित्प्रकाशने ज्ञान कहेवामां आवे छे. सामान्य-विशेषात्मक बाह्य पदार्थने ग्रहण करनारुं ज्ञान छे अने सामान्य- विशेषात्मक आत्मस्वरूपने ग्रहण करनारुं दर्शन छे.

शंकाः– आ प्रमाणे दर्शन अने ज्ञाननुं स्वरूप मानवाथी ‘वस्तुनुं जे सामान्य ग्रहण थाय छे तेने दर्शन कहे छे’ एवा शास्त्रना वचन साथे विरोध आवशे?

समाधानः– बधा बाह्य पदार्थो साथे साधारणपणुं होवाथी, ते वचनमां ज्यां ‘सामान्य’ संज्ञा आपवामां आवी छे त्यां सामान्य पदथी आत्माने ज ग्रहण करवो.

शंकाः– एम शा उपरथी जाणवुं के अहीं सामान्य पदथी आत्मा ज समजवो? समाधानः– ए शंका करवी ठीक नथी, केमके “पदार्थना आकार अर्थात् भेदने कर्या विना” ए शास्त्रवचनथी तेनी पुष्टि थई जाय छे; ते स्पष्ट कहेवामां आवे छे. -बाह्य पदार्थोने आकाररूप प्रतिकर्म व्यवस्थाने नहि करतां (अर्थात् भेदरूपथी प्रत्येक पदार्थने ग्रहण कर्या विना) जे सामान्य ग्रहण थाय छे तेने ‘दर्शन’ कहे छे. वळी ते अर्थने द्रढ करवा माटे कहे छे के-‘आ अमुक पदार्थ छे, आ अमुक पदार्थ छे’ इत्यादिरूपे पदार्थोनी विशेषता कर्या विना जे ग्रहण थाय छे तेने दर्शन कहे छे.

शंकाः– उपर कह्युं तेवुं दर्शननुं लक्षण मानशो तो ‘अनध्यवसाय’ने दर्शन मानवुं पडशे?

समाधानः– नहि, केमके दर्शन बाह्य पदार्थोनो निश्चय न करतां छतां पण स्वरूपनो निश्चय करवावाळुं छे तेथी अनध्यवसायरूप नथी. विषय अने विषयीने योग्यदेशमां होवा पहेलांनी अवस्थाने दर्शन कहे छे.

[श्री धवला, पुस्तक पहेलुं पा. १४प थी १४८; ३८० थी ३८३; तथा बृहत्

द्रव्यसंग्रह हिन्दी-टीका पा. १७० थी १७प. गाथा-४४ नीचेनी टीका.]

उपर जे दर्शन अने ज्ञान वच्चे भेद समजाव्यो छे ते कंई अपेक्षाए छे?
आत्माना ज्ञान अने दर्शन एम बे जुदा गुण लई, ते ज्ञान अने दर्शन गुणनुं

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१९२ ] [ मोक्षशास्त्र जादुं जुदुं कार्य शुं छे ते उपर बताव्युं छे, तेथी एक गुणथी बीजा गुणना भेदनी अपेक्षाए (भेदनये) ते कथन छे एम जाणवुं.

(प) अभेद अपेक्षाए दर्शन अने ज्ञाननो अर्थ

दर्शन अने ज्ञान ए बन्ने गुण आत्माना छे, ते आत्माथी अभिन्न छे तेथी अभेदअपेक्षाए आत्मा दर्शनज्ञानस्वरूप छे एटले के दर्शन ते आत्मा अने ज्ञान ते आत्मा छे एम जाणवुं. द्रव्य अने गुण एकबीजाथी जुदा पडी शके नहि अने द्रव्यनो एक गुण तेना बीजा गुणथी जुदो पडी शके नहि; आ अपेक्षा लक्षमां राखतां दर्शन स्व-पर दर्शक छे अने ज्ञान स्व-पर ज्ञायक छे. अभेदद्रष्टिनी अपेक्षाए आ प्रमाणे अर्थ थाय छे.

[जुओ, श्री नियमसार गाथा १७१ तेम ज श्री समयसारमां दर्शन तथा

ज्ञानना निश्चयनये अर्थ पा. ४२० थी ४२७]

(६) दर्शन अने ज्ञानउपयोग केवळीप्रभुने युगपत्
अने छद्मस्थने क्रमे होय छे

केवळीप्रभुने दर्शन अने ज्ञान उपयोग एक साथे (युगपत्) होय छे अने छद्मस्थने क्रमे क्रमे होय छे, केवळीप्रभुने उपयोग उपचारथी कहेवामां आवे छे. ।। ।।

जीवना भेद
संसारिणो मुक्ताश्च।। १०।।
अर्थः– जीव [संसारिणः] संसारी [च] अने [मुक्ताः] मुक्त एवा बे

भेदवाळा छे. कर्मसहित जीवोने संसारी अने कर्मरहित जीवोने मुक्त कहेवामां आवे छे.

टीका

(१) आ भेदो जीवोनी वर्तमान वर्तती दशाथी छे माटे ते भेदो अवस्था (पर्याय) द्रष्टिए छे. द्रव्य (निश्चय, स्वरूप) द्रष्टिए बधा जीवो सरखा छे. आ व्यवहार-शास्त्र छे तेथी तेमां मुख्यपणे पर्यायद्रष्टिए कथन छे. व्यवहार परमार्थ समजाववा माटे कहेवामां आवे छे पण तेने पकडी राखवा माटे कहेवामां आवतो नथी, तेथी एम समजवुं के पर्यायमां गमे तेवा भेद होय तो पण त्रिकाळी ध्रुवस्वरूपमां कदी फेर पडतो नथी. ‘सर्व जीव छे सिद्धसम, जे समजे ते थाय.’

[श्री आत्मसिद्धि शास्त्र गाथा-१३प]

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अ. २. सूत्र १० ] [ १९३

(र) संसारी जीवो अनंतानंत छे. ‘मुक्ता’ शब्द बहुवचनसूचक छे, माटे

मुक्त जीवो अनंत छे एम समजवुं. ‘मुक्ताः’ शब्द एम पण सूचवे छे के पूर्वे ते जीवनी संसारी अवस्था हती पण तेओए साची समजण करीने ते अवस्थानो व्यय कर्यो अने मुक्तअवस्था प्रगट करी.

(३) संसारनो अर्थः– ‘सं’ = सारी रीते ‘सृ + धञ्’ = सरी जवुं.

पोताना शुद्ध स्वरूपमांथी सारी रीते सरी जवुं-खसी जवुं ते संसार छे; जीवनो संसार स्त्री, पुत्र, लक्ष्मी, मकान वगेरे नथी, तेओ तो जगतना स्वतंत्र पदार्थो छे; जीव ते पदार्थो उपर पोतापणानी कल्पना करीने ते पदार्थोने इष्ट-अनिष्ट माने छे ते विकारी भावने संसार कहेवामां आवे छे.

(४) सूत्रमां ‘’ शब्द छे. ‘’ शब्दना समुच्चय अने अन्वाचय एम बे

अर्थो थाय छे, तेमां अहीं अन्वाचय अर्थ बताववा ‘’ शब्द वापर्यो छे. (एकने प्रधानरूपे अने बीजाने गौणरूपे बताववुं ए ‘अन्वाचय’ शब्दनो अर्थ छे.) संसारी अने मुक्त जीवोमां संसारी जीव प्रधानताए उपयोगवान छे अने मुक्त जीव गौणरूपथी उपयोगवान छे एम सूचववा आ सूत्रमां ‘’ शब्द वापर्यो छे (‘उपयोग’नुं अनुसंधान सूत्र ८ तथा ९ थी लीधुं छे एम समजवुं).

(प) जीवने संसारी दशा होवानुं कारण पोताना स्वरूपनी भ्रमणा छे; ते भ्रमणाने मिथ्यादर्शन कहेवामां आवे छे. ए मिथ्यादर्शनना संसर्गथी जीवने पांच प्रकारना परिवर्तनो थाय छे-संसारचक्र चाले छे.

(६) जीव अनादिथी मिथ्याद्रष्टि होय छे; ते पोतानी पात्रता केळवी सत्समागमे सम्यग्द्रष्टि थाय छे. मिथ्याद्रष्टिरूप अवस्थाने कारणे परिभ्रमण अर्थात् परिवर्तन थाय छे, ते परिभ्रमणने संसार कहेवामां आवे छे. जीवने पर प्रत्येनी एकत्वबुद्धिना कारणे मिथ्याद्रष्टिपणुं होय छे. ज्यां सुधी जीवनुं लक्ष पर उपर होय छे एटले के परथी मने लाभ-नुकशान थाय एम ते माने छे त्यां सुधी तेने परवस्तुरूप कर्म अने. नोकर्म साथे निमित्त-नैमित्तिक संबंध थाय छे. आ परिवर्तनना पांच भेदो पडे छे- १. द्रव्यपरिवर्तन, र. क्षेत्रपरिवर्तन, ३. काळपरिवर्तन, ४. भवपरिवर्तन अने प. भावपरिवर्तन. परिवर्तनने संसरण अथवा परावर्तन पण कहेवाय छे.

(७) द्रव्यपरिवर्तननुं स्वरूप
अहीं द्रव्यनो अर्थ पुद्गलद्रव्यो छे. जीवने विकारी अवस्थामां पुद्गलो साथे जे

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१९४ ] [ मोक्षशास्त्र संबंध थाय छे तेने द्रव्यपरिवर्तन कहे छे; तेना बे पेटा भेद छे-१. नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन अने र. कर्मद्रव्यपरिवर्तन.

१. नोकर्मद्रव्यपरिवर्तननुं स्वरूपः– औदारिक, तैजस अने कार्मण अथवा वैक्रियिक, तैजस अने कार्मण-ए त्रण शरीर अने छ पर्याप्तिने लायक जे पुद्गलस्कंधो एक समयमां एक जीवे ग्रहण कर्या ते जीव फरी ते ज प्रकारना स्निग्ध-रूक्ष स्पर्श, वर्ण, रस, गंध आदिथी तथा तीव्र, मंद के मध्यम भाववाळा स्कंधो ग्रहण करे त्यारे एक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन थाय. (वचमां बीजां जे नोकर्मनुं ग्रहण करवामां आवे ते हिसाबमां गणवा नहि.) तेमां पुद्गलोनी संख्या अने जात (Quality) बराबर ते ज प्रकारना नोकर्मोनी होवी जोईए.

र. कर्मद्रव्यपरिवर्तननुं स्वरूपः– एक जीवे एक समयमां आठ प्रकारना कर्मस्वभाववाळां जे पुद्गलो ग्रहण कर्यां तेवां ज कर्मस्वभाववाळां पुद्गलो फरी ग्रहण करे त्यारे एक कर्मद्रव्यपरिवर्तन थाय. (वचमां ते भावोमां जरापण फेरवाळा बीजा जे जे रजकणो ग्रहण करवामां आवे ते हिसाबमां गणवा नहि). ते आठ प्रकारनां कर्मपुद्गलोनी संख्या अने जात बराबर ते ज प्रकारनां कर्मपुद्गलोनी होवी जोईए.

खुलासो– आजे एक समये शरीर धारण करतां नोकर्म अने द्रव्यकर्मना पुद्गलोनो संबंध एक अज्ञानी जीवने थयो, त्यार पछी नोकर्म अने द्रव्यकर्मोनो संबंध ते जीवने बदलाया करे छे; ए प्रमाणे फेरफार थतां ज्यारे ते जीव फरीने तेवुं ज शरीर धारण करी तेवां ज नोकर्म अने द्रव्यकर्मोने प्राप्त करे त्यारे एक द्रव्यपरिवर्तन पूरुं कर्युं कहेवाय छे. (नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन अने कर्मद्रव्यपरिवर्तननो काळ समान ज होय छे.)

(८) क्षेत्रपरिवर्तननुं स्वरूप

जीवने विकारी अवस्थामां आकाशना क्षेत्र साथे थता संबंधने क्षेत्रपरिवर्तन कहेवाय छे. लोकना आठ मध्यप्रदेशोने पोताना शरीरना आठ मध्यप्रदेश बनावीने कोई जीव सूक्ष्मनिगोदमां अपर्याप्त सर्वजघन्य शरीरवाळो थयो अने क्षुद्रभव (श्वासना अढारमा भागनी स्थिति) पाम्यो; पछी उपर कहेल आठ प्रदेशोनी अडोअड एकेक अधिक प्रदेशने स्पर्शी समस्त लोकने पोताना जन्मक्षेत्ररूपे प्राप्त करे त्यारे एक क्षेत्रपरिवर्तन पूरुं थयुं कहेवाय. (वच्चे क्षेत्रनो क्रम छोडीने बीजे ज्यां ज्यां जन्म्यो ते क्षेत्रोने गणवां नहि.)

खुलासो– मेरूपर्वतना तळियेथी शरू करीने क्रमे क्रमे एकेक प्रदेश आगळ वधतां आखा लोकमां जन्म धारण करतां एक जीवने जेटलो वखत लागे तेटला वखतमां एक क्षेत्रपरिवर्तन पूरुं थयुं कहेवाय छे.


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अ. २. सूत्र १० ] [ १९प

(९) काळपरिवर्तननुं स्वरूप

एक जीव एक अवसर्पिणीना पहेला समये जन्म्यो, त्यार पछी हरकोई अन्य अवसर्पिणीना बीजा समये जन्म्यो, पछी अन्य अवसर्पिणीना त्रीजा समये जन्म्यो, ए रीते एकेक समय आगळ चालतां नवी अवसर्पिणीना छेल्ला समये जन्म्यो, तथा तेवी ज रीते उत्सर्पिणीकाळमां ते मुजब ज जन्म्यो; अने त्यार पछी उपर मुजब ज अवसर्पिणी अने उत्सर्पिणीकाळना दरेक समये अनुक्रमे मरण करे; आ प्रमाणे भ्रमण करतां जे काळ लागे तेने काळपरिवर्तन कहेवामां आवे छे. (आ काळक्रमरहित वचमां जे जे समयोमां जन्म-मरण करवामां आवे ते समयो हिसाबमां गणवा नहि.) अवसर्पिणी अने उत्सर्पिणीकाळनुं स्वरूप त्रीजा अध्यायना र७ मा सूत्रमां कह्युं छे त्यांथी जाणी लेवुं.)

(१०) भवपरिवर्तननुं स्वरूप

नरकमां सर्वजघन्य आयु दस हजार वर्षनुं छे. तेटला आयुवाळो एक जीव पहेला नरकना पहेला पाठडे जन्म्यो, पछी कोई काळे तेटलुं ज आयु पामी ते ज पाठडे जन्म्यो; (वचमां बीजी गतिओमां भ्रमण कर्युं ते भव हिसाबमां लेवा नहि.) ए प्रमाणे दस हजार वर्षना जेटला समय थाय तेटलीवार ते जीव तेटला (दस हजार वर्षना) ज आयुसहित त्यां ज जन्म्यो (वचमां अन्य स्थानोमां जन्म्यो ते हिसाबमां लेवा नहि), त्यार पछी दस हजार वर्ष अने एक समयना आयुसहित जन्म्यो, त्यार पछी दस हजार वर्ष अने बे समय एम अनुक्रमे एकेक समय आयु वधतां वधतां छेवट तेत्रीस सागरना आयुसहित नरकमां जन्म्यो (अने मर्यो) (आ क्रमरहित जन्म थाय ते गणतरीमां लेवा नहि); नरकनुं उत्कृष्ट आयु ३३ सागरनुं छे, तेटला आयुसहित जन्मे-ए प्रमाणे गणतां जे काळ थाय तेटला काळमां एक नारकी भवपरिवर्तन पूरुं थाय छे.

पछी त्यांथी नीकळी तिर्यंचगतिमां अंतर्मुहूर्तना आयुसहित उत्पन्न थाय छे एटले के जघन्य अंतर्मुहूर्त आयु पामी ते पूरुं करी ते अंतर्मुहूर्तना जेटला समय छे तेटली वार जघन्य आयु धारे; पछी अनुक्रमे एक एक समये अधिक आयु पामी त्रण पल्य सुधी तमाम स्थिति (आयु) मां जन्म धारी ते पूरुं करे त्यारे एक तिर्यंचगति भवपरिवर्तन पूरुं थाय. (आ क्रमरहित जन्म थाय ते गणतरीमां लेवा नहि) तिर्यंचगतिमां जघन्य आयु अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट आयु त्रण पल्यनुं होय छे.

मनुष्यगति भवपरिवर्तन संबंधमां पण तिर्यंचगतिनी माफक ज समजवुं.
देवगतिमां नरकगतिनी माफक छे पण तेमां एटलो फेर छे के-देवगतिमां उपर

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१९६ ] [ मोक्षशास्त्र कहेला क्रम प्रमाणे एकत्रीस सागर सुधी आयु धारण करी ते पूरुं करे छे. ए प्रमाणे चारे गतिमां परिवर्तन पूरुं करे त्यारे एक भवपरिवर्तन पूरुं थाय छे.

नोंधः– एकत्रीस सागरथी अधिक आयुना धारक नव अनुदिश अने पांच अनुत्तर एवा चौद विमानमां ऊपजता देवोने परिवर्तन होतुं नथी केमके ते बधा सम्यग्द्रष्टि छे.

भवभ्रमणनुं कारण मिथ्याद्रष्टिपणुं छे.
आ संबंधमां कह्युं छे के-
णिरयादि जहण्णादिसु जावदु उवरिल्लिया दु गेवेज्जा।
मिच्छतसंसिदेण हु बहुसो
वि भवट्ठिदी भमिदो।। १।।

अर्थः– मिथ्यात्वना संसर्गसहित नरकादिना जघन्य आयुष्यथी शरू करीने उत्कृष्ट ग्रैवेयक (नवमी ग्रैवेयक) सुधीना भवोनी स्थिति (आयु) आ जीव अनेकवार पाम्यो छे.

(११) भावपरिवर्तननुं स्वरूप

१. असंख्यात योगस्थानो एक अनुभाग बंध (अध्यवसाय) स्थानने करे छे. [कषायना जे प्रकार (Degree) थी कर्मोना बंधमां फलदानशक्तिनी तीव्रता आवे छे तेने अनुभागबंध (अध्यवसाय) स्थान कहेवामां आवे छे.]

र. असंख्यात × असंख्यात अनुभागबंध अध्यवसायस्थानो एक कषायभाव (अध्यवसाय) स्थानने करे छे. [कषायनो एक प्रकार (Degree) जे कर्मोनी स्थिति नक्की करे छे तेने कषायअध्यवसायस्थान कहेवामां आवे छे.]

३. असंख्यात × असंख्यात कषाय अध्यवसायस्थानो *पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्याद्रष्टि जीवना कर्मोनी जघन्यस्थितिबंध करे छे; आ स्थिति अंतःक्रोडाक्रोडी सागरनी होय छे एटले के क्रोडाक्रोडी सागरथी नीचे अने क्रोडीनी उपर तेनी स्थिति होय छे.

४. एक जघन्यस्थितिबंध थवा माटे जरूरनुं छे के-जीवे असंख्यात योगस्थानोमांथी _________________________________________________________________

* जघन्यस्थितिबंधनां कारण जे कषायभावस्थान छे तेनी संख्या असंख्यात लोकना प्रदेशो

जेटली छे; एक एक स्थानमां अनंतानंत अविभाग प्रतिच्छेद छे, जे अनंतभाग हानि, असंख्यातभाग हानि, संख्यातभाग हानि, संख्यातगुण हानि, असंख्यातगुण हानि, अनंतगुण हानि, तथा अनंतभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुण वृद्धि, असंख्यातगुण वृद्धि, अने अनंतगुण वृद्धि ए प्रकारनी छ स्थानवाळी हानि-वृद्धि सहित होय छे.


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अ. २. सूत्र १० ] [ १९७ (एक एक योगस्थानोमांथी) एक अनुभागबंधस्थान थवा माटे पसार थवुं जोईए; अने त्यारपछी एकेएक अनुभागबंधस्थानमांथी एक कषायस्थान थवा माटे पसार थवुं जोईए, अने एक जघन्यस्थितिबंध थवा माटे एकेएक कषायस्थानोमांथी पसार थवुं जोईए.

प. त्यार पछी ते जघन्यस्थितिबंधमां एकेक समय अधिक एम वधतां (नानामां नाना जघन्यबंधथी आगळ दरेक पगले) जवुं जोईए. ए प्रमाणे आठे कर्मो अने (मिथ्याद्रष्टिने लायक) बधी उत्तर कर्मप्रकृतिओनी उत्कृष्ट स्थिति पूरी थाय त्यारे एक भावपरिवर्तन पूरुं थाय छे.

६. उपर पारा ३ मां कहेल जघन्यस्थितिबंधने तथा पारा २ मां कहेल सर्वजघन्य कषायभावस्थानने तथा पारा १ मां कहेल अनुभागबंधस्थानने प्राप्त थवावाळुं तेने लायक सर्वजघन्य योगस्थान होय छे. अनुभाग A, कषाय B अने स्थिति C ए त्रणेनो तो जघन्य ज बंध होय पण योगस्थान पलटीने जघन्ययोगस्थान पछी त्रीजुं योगस्थान थाय अने अनुभागस्थान A, कषायस्थान B, स्थितिस्थान C जघन्य ज बंधाय; पछी चोथुं, पांचमुं, छठ्ठुं, सातमुं, आठमुं वगेरे योगस्थान थतां थतां अनुक्रमे असंख्यात प्रमाण सुधी पलटाय तो पण ते कोई गणतरीमां लेवा नहि, अथवा कोई बे जघन्ययोगस्थाननी वचमां अन्य कषायस्थान A, अन्य अनुभागस्थान B के अन्य योगस्थान C आवी जाय तो ते गणतरीमां लेवा नहि. *

भावपरिवर्तननुं कारण मिथ्यात्व छे
आ संबंधमां कह्युं छे के-
सव्वा पयडिठ्ठिदिओ अणुभागपदेसबंधठाणाणि।
मिच्छत्तसंसिदेण य
भमिदा पुण भावसंसारे।। १।।

अर्थः– समस्त प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध अने प्रदेशबंधनां स्थानरूप मिथ्यात्वना संसर्गथी निश्चये (खरेखर) भावसंसारमां जीव भ्रमे छे.

(१२) संसारना भेद पाडतां भावपरिभ्रमण ते उपादान अर्थात् निश्चयसंसार छे अने द्रव्य-क्षेत्र-काळ तथा भवपरिभ्रमण ते निमित्तमात्र छे अर्थात् व्यवहारसंसार छे केमके ते परवस्तु छे; निश्चय एटले खरेखर अने व्यवहार एटले कथनरूप, निमित्तमात्र _________________________________________________________________

* योगस्थानोमां पण अविभागप्रतिच्छेद पडे छे; तेमां असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुण वृद्धि अने असंख्यातगुण वृद्धि एम चार स्थानरूप ज होय छे.


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१९८ ] [ मोक्षशास्त्र निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगटतां भावसंसार टळी जाय छे, अने त्यारथी बीजां चार निमित्तोनो स्वयं अभाव थाय छे.

(१३) मोक्षनो उपदेश संसारीने होय छे; जो संसार न होत तो मोक्ष, मोक्षमार्ग के तेनो उपदेश होत ज नहि, तेथी आ सूत्रमां पहेलां संसारी जीवो अने पछी मुक्त जीवो एवो क्रम लीधो छे.

(१४) असंख्यात अने अनंत ए संख्या समजवा माटे गणितशास्त्र उपयोग छे; तेमां १०/३ एटले के दसने त्रणथी भांगतां = ३. ३३३... (अंत न आवे त्या सुधी त्रगडा) आवे छे पण तेनो छेडो आवतो नथी, ते ‘अनंत’नुं द्रष्टांत छे; अने असंख्यातनी संख्या समजवा माटे एक गोळना परिघ अने व्यासनुं प्रमाण २२/७ होय छे. [व्यास करतां परिघ २२/७ गणो होय छे] तेनो हिसाब शतांश (Decimal) मां मूकतां जे संख्या आवे छे ते ‘असंख्यात’ छे. गणितशास्त्रमां आ संख्याने ‘Irrational कहेवामां आवे छे.

(१प) व्यवहारराशिना जीवोने आ पांच परिवर्तन लागु पडे छे; आवा अनंतपरिवर्तनो दरेक जीवोए कर्यां छे अने जे जीवो मिथ्याद्रष्टिपणुं चालु राखशे तेमने हजी चाल्या करशे. नित्यनिगोदना जीवो अनादि निगोदमांथी नीकळ्‌या ज नथी, तेमनामां आ पांचपरिवर्तननी शक्ति रहेली छे तेथी तेमने पण उपचारथी आ पांच परिवर्तन लागु पडे छे. व्यवहारराशिना जे जीवो हजी सुधी बधी गतिमां गया नथी तेमने पण उपर प्रमाणे उपचारथी आ परिवर्तनो लागु पडे छे. नित्यनिगोदने अव्यवहारराशिना (निश्चयराशिना) जीवो पण कहेवामां आवे छे.

(१६) मनुष्यभव सफळ करवा माटे खास लक्षमां राखवा लायक विषयो

१. अनादिकाळथी मांडी प्रथम तो आ जीवने नित्यनिगोदरूप शरीरनो संबंध होय छे; ते शरीरनुं आयु पूर्ण थतां मरीने फरी फरी नित्यनिगोद शरीरने ज जीव धारे छे. ए प्रमाणे अनंतानंत जीवराशि अनादिकाळथी निगोदमां ज जन्म-मरण करे छे.

र. वळी निगोदमांथी छ महिना अने आठ समयमां छसो आठ (६०८) जीवो नीकळे छे ते पृथ्वी, जळ, अग्नि, पवन अने प्रत्येक वनस्पतिरूप एकेन्द्रिय पर्यायोमां अगर बे थी चार इन्द्रियोरूप शरीरोमां के चारगतिरूप पंचेन्द्रिय शरीरोमां भ्रमण करे छे, अने फरी पाछो निगोदशरीरने प्राप्त करे छे, (आ इतरनिगोद छे.)

३. जीवने त्रसमां एकी साथे रहेवानो उत्कृष्ट काळ मात्र बे हजार सागर छे. जीवने घणुं तो एकेन्द्रिय पर्यायो अने तेमां पण घणो वखत निगोदमां


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अ. २. सूत्र १०-११ ] [ १९९ ज रहेवानुं बने छेः त्यांथी नीकळी त्रसशरीर पामवुं ए काकतालियन्यायवत् छे, त्रसमां पण मनुष्यपणुं पामवानुं तो भाग्ये ज बने छे.

४. आ प्रमाणे जीवनी मुख्य बे स्थिति छे-निगोदपणुं अने सिद्धपणुं. वचलो त्रसपर्यायनो काळ तो घणो ज थोडो अने तेमां पण मनुष्यपणानो काळ तो अति अति घणो ज थोडो छे.

प. १-संसारमां जीवने मनुष्यभवोमां रहेवानो काळ सर्वथी थोडो छे. र- नारकीना भवोमां रहेवानो काळ तेनाथी असंख्यातगुणो छे. ३–देवना भवोमां रहेवानो काळ तेनाथी (नारकीथी) असंख्यातगुणो छे. अने ४-तिर्यंच भवोमां (मुख्यपणे निगोदमां) रहेवानो काळ तेनाथी (देवथी) अनंतगुणो छे.

आ उपरथी सिद्ध थाय छे के जीव अनादिथी मिथ्यात्वदशामां शुभ तेम ज अशुभ भावो करतो रहे छे, तेमां पण जीवे नरकने लायक तीव्र अशुभ भावो करतां देवने लायक शुभ भावो असंख्यातगुणा कर्या छे. शुभभाव करीने अनंतवार नवमी ग्रैवेयके आ जीव जई आव्यो छे-ते पूर्वे पारा १० मां कहेवाई गयुं छे.

६. नवमी ग्रैवेयकने लायक शुभभावो करनार जीवे गृहीत मिथ्यात्व छोडयुं होय छे, साचां देव-गुरु-शास्त्रने निमित्तरूपे स्वीकार्या होय छे; पांच महाव्रतो, गुप्ति, समिति आदिना उत्कृष्ट शुभभावो अतिचाररहित पाळ्‌या होय छे; आटलुं करे त्यारे ज जीवने नवमी ग्रैवेयकमां जवा लायक शुभभाव होय छे. आत्मभान विना मिथ्याद्रष्टिने लायक उत्कृष्ट शुभभावो जीवे अनंतवार कर्या छतां मिथ्यात्व गयुं नहि; माटे शुभभाव–पुण्य करतां करतां धर्म–सम्यग्दर्शन थाय के मिथ्यात्व टळे ए अशक्य छे. तेथी–

७. आ मनुष्यभवमां ज आत्मानुं साचुं स्वरूप समजीने जीवोए सम्यक्त्व प्राप्त करवुं. Strike the iron while it is hot लोढुं गरम छे त्यां सुधीमां तेने टीपी लो-घडी लो ए कहेवत अनुसार मनुष्यभव छे तेमां तुरत आत्मानुं स्वरूप समजी लो, नहि तो त्रसकाळ थोडा वखतमां पूरो थईने एकेन्द्रियनिगोद-पर्याय प्राप्त थशे अने अनंतकाळ तेमां रहेवानुं थशे. १०.

संसारी जीवोना भेद
समनस्काऽमनस्काः।। ११।।
अर्थः– संसारी जीवो [समनस्काः] मनसहित-संज्ञी अने [अमनस्काः]

मनरहित-असंज्ञी एम बे प्रकारना होय छे.


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२०० ] [ मोक्षशास्त्र

टीका

(१) एकेन्द्रियथी चतुरिन्द्रिय सुधीना जीवो नियमथी असंज्ञी ज होय छे. पंचेन्द्रियोमां तिर्यंचो संज्ञी अने असंज्ञी बन्ने प्रकारना होय छे; बाकीना मनुष्य, देव अने नारकीना जीवो नियमथी संज्ञी ज होय छे.

(२) मनवाळा-संज्ञी जीवो सत्य-असत्यनो विवेक करी शके छे. (३) मन बे प्रकारना छे-द्रव्यमन अने भावमन. पुद्गलद्रव्यना- मनोवर्गणास्कंधोनुं आठ पांखडीवाळा कमळना आकारनुं मन हृदयस्थानमां होय छे ते द्रव्यमन छे; ते सूक्ष्मपुद्गलस्कंध होवाथी इन्द्रियग्राह्य नथी. आत्मानी खास प्रकारनी विशुद्धि ते भावमन छे; ते वडे जीव शिक्षा लेवा, क्रिया (कृत्य) समजवा, उपदेश तथा आलाप (Recitation) माटे लायक छे, तेना नामथी बोलावतां ते पासे आवे छे.

(४) हितमां प्रवर्तवानी अथवा अहितथी दूर रहेवानी शिक्षा जे ग्रहण करे छे ते संज्ञी छे, अने हित-अहितनी शिक्षा, क्रिया, उपदेश वगेरेनुं जे ग्रहण नथी करता ते असंज्ञी छे.

(प) नोइन्द्रियावरणना क्षयोपशम सहित अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटला आत्मप्रदेशो भावमन छे. संज्ञी जीवोने भावमनने लायक निमित्तरूप वीर्यांत्तराय तथा मन-नोइंद्रियावरण नामना ज्ञानावरणकर्मनो क्षयोपशम स्वयं होय छे.

(६) द्रव्यमन-जड पुद्गल छे, ते पुद्गलविपाकी कर्म-उदयना फळरूप छे. जीवनी विचारादि क्रियामां भावमन उपादान छे अने द्रव्यमन निमित्तमात्र छे. भावमनवाळा प्राणी मोक्षना उपदेश माटे लायक छे. तीर्थंकर भगवान के सम्यग्ज्ञानीओ पासेथी उपदेश सांभळी संज्ञी मनुष्यो सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे, संज्ञी तिर्यंचो पण तीर्थंकर भगवाननो उपदेश सांभळी सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे, देवो पण तीर्थंकर भगवाननो तथा सम्यज्ञानीओनो उपदेश सांभळी सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे. नरकना कोई जीवने पूर्वना मित्रादि सम्यग्ज्ञानी देव होय ते त्रीजी नरक सुधी जाय छे अने तेना उपदेशथी त्रीजी नरक सुधीना जीवो सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे.

चोथीथी सातमी नरक सुधीना जीवो पूर्वना सत्समागमना संस्कारो याद लावी सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे, ते निसर्गज सम्यग्दर्शन छे; पूर्वे सत्समागमना संस्कार पामेल मनुष्यो, संज्ञी तिर्यंचो अने देवो पण निसर्गज सम्यग्दर्शन प्रगट करी शके छे. ।। ११।।


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अ. २. सूत्र १२-१३ ] [ २०१

संसारी जीवोना बीजा प्रकारे भेद
संसारिणस्त्रसस्थावराः।। १२।।
अर्थः– [संसारिणः] संसारी जीव [त्रस] त्रस अने [स्थावरः] स्थावरना

भेदथी बे प्रकारना छे.

टीका

(१) आ भेदो पण अवस्थाद्रष्टिए पाडवामां आव्या छे. (२) जीवविपाकी त्रसनामकर्मना उदयथी जीव त्रस कहेवाय छे, अने जीवविपाकी स्थावरनामकर्मना उदयथी जीव स्थावर कहेवाय छे, त्रस जीवोने बे इन्द्रियथी पांच इन्द्रियो होय छे अने स्थावर जीवोने एक स्पर्शन इन्द्रिय ज होय छे. (स्थिर रहे ते स्थावर अने हाले-चाले ते त्रस एवी व्याख्या बराबर नथी-ए ध्यान राखवुं.)

(३) बे इन्द्रियथी अयोगकेवळी गुणस्थान सुधीना जीवो त्रस छे, मुक्त (सिद्ध) जीवो त्रस के स्थावर नथी केमके त्रस अने स्थावर ए भेदो संसारी जीवोना छे.

(४) प्रश्नः– डरे-भयभीत थाय अथवा हलन-चलन करे ते त्रस अने स्थिर रहे ते स्थावर-एवो अर्थ केम करता नथी?

उत्तरः– जो हलन-चलन अपेक्षाए त्रसपणुं अने स्थिरता अपेक्षाए स्थावरपणुं एम होय तो (१) गर्भमां रहेला, इंडामां रहेला, मूर्छित, सूतेला वगेरे जीवो हलन-चलन रहित छे तेथी तेओ त्रस नहि ठरे; अने (र) पवन, अग्नि तथा जल एक जग्याएथी बीजी जग्याए जतां देखाय छे तेम ज धरतीकंप वगेरे वखते पृथ्वी ध्रूजे छे, अने वृक्षो पण ध्रूजे छे. वृक्षनां पांदडां पवन वखते हले छे तेथी तेमने स्थावरपणुं ठरशे नहि अने तेथी कोई पण जीव स्थावर रहेशे नहि. १र.

स्थावर जीवोना भेद

पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः।। १३।।

अर्थः– [पृथिवी अप् तेजः वायु वनस्पतयः] पृथ्वीकायिक, जळकायिक,

अग्निकायिक, वायुकायिक अने वनस्पतिकायिक ए पांच प्रकारना [स्थावराः] स्थावर जीवो छे. [आ जीवने मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होय छे.

टीका

(१) आत्मा ज्ञानस्वभाव छे, पण ज्यारे तेने पोतानी वर्तमान लायकातना


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२०२ ] [ मोक्षशास्त्र कारणे एक स्पर्शनइन्द्रिय द्वारा ज्ञान करी शकवा पूरतो उघाड होय छे त्यारे पृथ्वी, जळ, अग्नि, वायु अने वनस्पतिरूपे परिणमेला रजकणो (पुद्गलस्कंधो) ना बनेला जड शरीरनो संयोग थाय छे.

(२) पृथ्वी, पाणी, अग्नि अने वायुकायिक जीवोनां शरीरनुं माप (अवगाहना) अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटलुं होय छे तेथी ते देखातुं नथी; आपणे तेना समूहो (mass) ने जोई शकीए छीए. पाणीना दरेक टीपामां जळकायिक घणा जीवोनो समूह होय छे. सूक्ष्मदर्शकयंत्र वडे पाणीमां जे झीणा जीवो देखाय छे ते जीवो जळकायिक नथी पण त्रस जीवो छे.

(३) १. पृथ्वीनुं शरीर धारण कर्युं ते जीवो पृथ्वीकायिक छे. र. जीव गया पछी रहेल ते शरीरने पृथ्वीकाय कहे छे. ३. पृथ्वीनुं शरीर धारण करवा पहेलां विग्रहगतिमां जे जीव होय तेने पृथ्वी जीव कहेवाय छे; ए प्रमाणे जळकायिक वगेरे बीजा चार स्थावर जीवोनुं पण समजी लेवुं.

(४) आ स्थावर जीवो ते भवे सम्यग्दर्शन पामवा लायक नथी, केमके संज्ञीपर्याप्तक जीवो सम्यग्दर्शन पामवा लायक छे.

(प) पृथ्वीकायिकनुं शरीर मसुरना दाणाना आकारे लंबगोळ (Oval-इंडाकारे),

जळकायिकनुं शरीर पाणीना टीपाना आकारे गोळ, अग्निकायिकनुं शरीर सोयना समूहना आकारे अने पवनकायिकनुं शरीर धजाना आकारे लांबुं-त्रांसुं होय छे. वनस्पतिकायिकना अने त्रस जीवोनां शरीर अनेक जुदा जुदा आकारे होय छे. ।। १३।।

[गोम्मटसार-जीवकांड, गाथा-२०१]
त्रस जीवोना भेद
द्वीन्द्रियादस्त्रसाः।। १४।।
अर्थः– [द्वि इन्द्रिय आदयः] बे इंद्रियथी शरू करीने अर्थात् बे इन्द्रिय, त्रण

इन्द्रिय, चार इन्द्रिय अने पांच इन्द्रिय जीवो [त्रसः] त्रस कहेवाय छे.

टीका

(१) एकेन्द्रिय जीव स्थावर छे अने तेने एक स्पर्शन-इन्द्रिय ज होय छे; तेने स्पर्शन-इन्द्रिय, कायबळ, आयु अने श्वासोच्छ्वास ए चार प्राणो होय छे.

(र) बे इन्द्रिय जीवने स्पर्शन अने रसना ए बे इन्द्रियो ज होय छे; तेने रसना अने वचनबळ ए बे प्राणो वधतां कुल छ प्राणो होय छे.


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अ. २. सूत्र १४-१प ] [ २०३

(३) त्रण इन्द्रियो जीवने स्पर्शन, रसना अने ध्राण (नाक) ए त्रण इन्द्रियो ज होय छे; तेने ध्राण इन्द्रिय वधतां कुल सात प्राणो होय छे.

(४) चार इन्द्रिय जीवने स्पर्शन, रसना, ध्राण अने चक्षु ए चार इन्द्रियो होय छे. तेने चक्षु इन्द्रिय वधतां कुल आठ प्राणो होय छे.

(प) पंचेन्द्रिय जीवने स्पर्शन, रसना, ध्राण, चक्षु अने श्रोत्र (कान) ए पांच इन्द्रियो होय छे; तेने कर्ण इन्द्रिय वधतां कुल नव प्राणो असंज्ञीने होय छे. आ पांच इन्द्रियोमां उपर जे क्रम कह्यो तेनाथी आडी अवळी इन्द्रियो कोई जीवने होती नथी; जेमके स्पर्शन अने चक्षु ए बे इन्द्रियो कोई जीवने होई शके नहि, पण जो बे होय तो ते स्पर्श अने रसना ज होय. संज्ञी जीवने मनबळ होय छे तेथी तेने कुल दश प्राणो होय छे.

(६) इन्द्रियो भाव अने द्रव्य एम बे प्रकारे होय छे, ते सूत्र १६ थी १९ सुधीमां कहेवामां आवशे. इन्द्रियोनो क्रम सूत्र १९ मां आप्यो छे.।। १४।।

इन्द्रियोनी संख्या
पंचेन्द्रियाणि।। १५।।
अर्थः– [इन्द्रियाणि] इन्द्रियो [पंच] पांच छे.
टीका

(१) इन्द्रियो पांच होय छे, वधारे होती नथी. ‘इन्द्र’ कहेतां आत्माने एटले संसारी जीवने ओळखावनारुं जे चिह्न तेने इन्द्रिय कहे छे दरेक द्रव्य-इन्द्रिय पोतपोताना विषयनुं ज्ञान ऊपजे तेमां निमित्तकारण छे, कोई इन्द्रिय बीजी कोई इन्द्रियने आधीन नथी. जुदी जुदी एकेक इन्द्रिय परनी अपेक्षारहित छे-एटले के अहमिन्द्रनी जेम दरेक पोतपोताने आधीन छे एवी ऐश्वर्यता (मोटाई) घरे छे.

प्रश्नः– वचन, हाथ, पग, गुदा अने लिंगने पण इन्द्रिय गणवी जोईए? उत्तरः– नहि, अहीं उपयोगनुं प्रकरण छे. उपयोगमां स्पर्शादि इन्द्रियो निमित्त छे तेथी तेने इन्द्रिय मानवी व्याजबी छे. वचन वगेरे उपयोगमां निमित्त नथी, ते तो (जड) क्रियानां साधन छे; अने क्रियानां कारण होवाथी जो तेने इन्द्रिय कहीए तो मस्तक वगेरे बधां अंगोपांग (क्रियानां साधन) छे तेमने इन्द्रियो कहेवी जोईए. माटे उपयोगमां जे निमित्तकारण होय ते इन्द्रियनुं लक्षण छे एम मानवुं व्याजबी छे.


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२०४ ] [ मोक्षशास्त्र

(र) जड इन्द्रियो ज्ञानना उपयोग वखते निमित्त होय छे, पण ज्ञान ते इन्द्रियोथी थतुं नथी, ज्ञान आत्मा पोते पोताथी करे छे. क्षायोपशमिकज्ञाननुं स्वरूप एवुं छे के ते ज्ञान जे वखते जे प्रकारनो उपयोग करवा लायक होय त्यारे तेने लायक इन्द्रियादि बाह्य निमित्तो पोते पोताथी हाजर होय छे, पण निमित्तनी राह जोवी पडती नथी. आवो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध छे. इन्द्रियो छे तेथी ज्ञान थयुं एम अज्ञानी माने छे; ज्ञानी तो ज्ञान पोताथी थयुं एम माने छे, अने जड इन्द्रियो ते वखते संयोगरूप (हाजररूप) स्वयं होय ज छे एम जाणे छे. ।। १प।।

[जुओ, अध्याय १ सूत्र-१४नी टीका. पानुं ६३ थी ६७]
इन्द्रियोना मूळ भेद
द्विविधानि।। १६।।
अर्थः– बधी इन्द्रियो [द्विविधानि] द्रव्यइन्द्रिय अने भावइन्द्रिय-एवा भेदथी

बब्बे प्रकारनी छे.

नोटः– द्रव्येन्द्रियसंबंधी सूत्र १७ मुं छे अने भावेन्द्रियसंबंधी सूत्र १८ मुं छे. ।। १६।।
द्रव्येन्द्रियनुं स्वरूप
निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।। १७।।
अर्थः– [निर्वृत्ति उपकरणे] निर्वृत्ति अने उपकरणने [द्रव्येन्द्रियम्] द्रव्येन्द्रिय

कहे छे.

टीका

निर्वृत्तिः– पुद्गलविपाकी नामकर्मना उदयथी प्रतिनियतस्थानमां थती इन्द्रियरूप पुद्गलनी रचना विशेषने बाह्यनिर्वृत्ति कहे छे; अने उत्सेध अंगुलना असंख्यातमा भाग प्रमाणे थता आत्माना जे विशुद्धप्रदेश तेने आभ्यंतरनिवृत्ति कहे छे; एम निवृत्तिना बे भेद छे. [जुओ, अध्याय-र सूत्र-४४ नी टीका]

जे आत्मप्रदेशो नेत्रादि इन्द्रियाकारे थाय छे ते आभ्यंतरनिर्वृत्ति छे, अने ते ज आत्मप्रदेशे नेत्रादि आकारे जे पुद्गलसमूह रहे छे ते बाह्यनिर्वृत्ति छे. कर्णेन्द्रियना तथा नेत्रेन्द्रियना आत्मप्रदेशो अनुक्रमे जवनी नळी तथा मसुरना आकारे होय छे अने पुद्गल इन्द्रियो पण ते ते आकारे होय छे.


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अ. २. सूत्र १६-१७ ] [ २०प

उपकरण–निर्वृत्तिनो उपकार करवावाळो पुद्गलसमूह ते उपकरण छे. तेना बाह्य अने आभ्यंतर एवा बे भेद छे. जेम-नेत्रमां धोळुं अने काळुं मंडळ ते आभ्यंतर उपकरण छे अने पांपण, डोळा वगेरे बाह्य उपकरण छे तेम. ‘उपकार’नो अर्थ निमित्तमात्र समजवो, पण ते लाभ करे छे एम न समजवुं. [जुओ, अर्थ प्रकाशिका पानुं २०२-२०३] आ बन्ने उपकरणो जड छे. ।। १७।।

भावेन्द्रियनुं स्वरूप
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।। १८।।
अर्थः– [लब्धि उपयोगौ] लब्धि अने उपयोगने [भावेन्द्रियम] भावेन्द्रिय

कहेवामां आवे छे.

टीका

(१) लब्धि– लब्धिनो अर्थ प्राप्ति अथवा लाभ थाय छे. आत्माना चैतन्यगुणनो क्षयोपशमहेतुक उघाड ते लब्धि छे. [जुओ, सूत्र ४प नी टीका]

उपयोग– उपयोगनो अर्थ चैतन्यव्यापार थाय छे. आत्माना चैतन्यगुणनो जे क्षयोपशमहेतुक उघाड छे तेना व्यापारने उपयोग कहे छे.

(र) आत्मा ज्ञेयपदार्थनी सन्मुख थईने पोताना चैतन्यव्यापारने ते तरफ जोडे ते उपयोग छे. उपयोग चैतन्यनुं परिणमन छे; ते कोई अन्य ज्ञेयपदार्थ तरफ लागी रह्यो होय तो, आत्मानी सांभळवानी शक्ति होय तो पण, सांभळे नहि. लब्धि अने उपयोग बन्ने मळीने ज्ञाननी सिद्धि थाय छे.

(३) प्रश्नः– उपयोग तो लब्धिरूप भावेन्द्रियनुं फळ (अथवा कार्य) छे, तेने भावेन्द्रिय शा माटे कही?

उत्तरः– कार्यमां कारणनो उपचार करीने उपयोगने (उपचारथी) भावेन्द्रिय कहेवामां आवे छे. घट-आकारे परिणमेल ज्ञानने घट कहेवामां आवे छे, ए न्याये लोकमां कार्यने पण कारण मानवामां आवे छे. आत्मानुं लिंग इन्द्रिय (भावेन्द्रिय) छे; आत्मा ते स्वअर्थ छे, तेमां उपयोग मुख्य छे अने ते जीवनुं लक्षण छे, तेथी उपयोगने भाव-इन्द्रियपणुं कही शकाय छे.

(४) उपयोग अने लब्धि ए बन्नेने भावेन्द्रिय ए माटे कहे छे के तेओ द्रव्य-