Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 21-33 ; Samadhitantra Gathas 26 to 50.

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टीकायत् शुद्धात्मस्वरूपं अग्राह्यं कर्मोदयनिमित्तं क्रोधादिस्वरूपं न गृह्णाति आत्मस्वरूपतया न स्वीकरोति गृहीतमनन्तज्ञानादिस्वरूपं नैव मुञ्चति कदाचिन्न परित्यजति तेन च स्वरूपेण सहितं शुद्धात्मस्वरूपं किं करोति ? जानाति किं विशिष्टं तत् ? सर्वं चेतनमचेतनं वा वस्तु कथं जानाति ? सर्वथा द्रव्यपर्यायादिसर्वप्रकारेण तदित्थम्भूतं स्वरूपं स्वसंवेद्यं स्वसंवेदनग्राह्यम् अहमात्मा अस्मि भवामि ।।२०।। अनंतज्ञानादि गुणोने (न मुञ्चति) छोडतुं नथी तथा (सर्वं) संपूर्ण पदार्थोने (सर्वथा) सर्व प्रकारे एटले द्रव्यगुणपर्यायरूपे (जानाति) जाणे छे, (तत् स्वसंवेद्यं) ते पोताना अनुभवमां आववा योग्य चैतन्य द्रव्य (अहं अस्मि) हुं छुं.

टीका : जे एटले शुद्धात्मस्वरूप छे, ते अग्राह्यने अर्थात् कर्मोदय निमित्ते (थयेला) क्रोधादिरूपने ग्रहतुं नथी एटले तेने आत्मस्वरूपपणे स्वीकारतुं नथी अने ग्रहण करेला अनन्तज्ञानादि स्वरूपने छोडतुं ज नथी एटले क्यारेय पण तेनो परित्याग करतुं नथी. आवा स्वरूपवाळुं शुद्धात्मस्वरूप शुं करे छे? जाणे छे. शुं जाणे छे? सर्व चेतन या अचेतन वस्तुने (जाणे छे). केवी रीते जाणे छे? ते सर्वथा अर्थात् द्रव्यपर्यायादि सर्व प्रकारे (जाणे छे). तेथी आवुं स्वसंवेद्य स्वरूप एटले स्वसंवेदनथी ग्राह्य स्वरूप ते हुंआत्मा छुं.

भावार्थ : शुद्धात्मा ए अनुभवगम्य चैतन्य द्रव्य छे. ते नहि ग्रहण करवा योग्य रागद्वेषादिने ग्रहण करतुं नथी, अने ग्रहण करेला आत्मिक गुणोनेअनंतज्ञानादि गुणोने छोडतुं नथी. ते संपूर्ण पदार्थोने सर्वथाद्रव्यगुणपर्याय सहितजाणे छे.

‘जे निजभावने छोडतो नथी, कांई पण परभावने ग्रहतो नथी, सर्वने जाणेदेखे छे, ते हुं छुंए ज्ञान चिंतवे छे.’

विशेष

आत्मा परद्रव्यने जरा पण ग्रहतो नथी तथा छोडतो नथी कारण के पर निमित्तना आश्रये थयेलाप्रायोगिक गुणना सामर्थ्यथी तेम ज स्वाभाविकवैस्रसिक गुणना सामर्थ्यथी आत्मा वडे परद्रव्यनुं ग्रहवुं तथा छोडवुं अशक्य छे. १. णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेण्हए केइं

जाणदि पस्सदि सव्वं सोहं इदि चिंतए णाणी ।।९७।। (श्री नियमसार, गाथा ९७)

२. जे द्रव्य छे पर तेहने न ग्रही, न छोडी शकाय छे,

एवो ज तेनो गुण को प्रायोगी ने वैस्रसिक छे. (श्री समयसार गु. आवृत्तिगाथा ४०६)

जुओः श्री प्रवचनसार गाथा३२ अने श्री समयसार कलश२३६


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इत्थंभूतात्मपरिज्ञानात्पूर्वं कीदृशं मम चेष्टितमित्याह

उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः स्थाणौ यद्वद्विचेष्टितम्
तद्वन्मे चेष्टितं पूर्वं देहादिष्वात्मविभ्रमात् ।।२१।।

आत्माने पर द्रव्यनो ग्रहणत्याग कहेवो ए तो व्यवहारनयनुं कथनमात्र छे. निश्चयनये तो ते पर द्रव्यनो ग्रहणत्याग करी शकतो ज नथी. ज्यारे जीव आत्मस्वरूपमां लीन थाय छे, त्यारे रागादि विकारो स्वयं छूटी जाय छे; तेने छोडवा पडता नथी. अने आत्मिक गुणो स्वयं प्रगट थाय छे.

वळी आत्मस्वरूप संपूर्णपणे प्रगट थाय त्यारे आत्माना ज्ञानगुणनी पर्याय पण केवळज्ञानरूपे प्रगटे छे. आ केवळज्ञाननो एवो अनंत महिमा छे के ते अनंत द्रव्योना अनंत गुणोने अने तेमनी त्रिकालवर्ती विकारीअविकारी अनंत पर्यायोने संपूर्णपणे एक ज समयमां सर्वथा प्रत्यक्ष जाणे छे.

ज्ञान पर पदार्थोने जाणे छेएम कहेवुं ते पण व्यवहारनयनुं कथन छे. वास्तवमां तो आत्मा पोताने जाणतां समस्त पर पदार्थो जणाई जाय छे एवी ज्ञाननी निर्मळता स्वच्छता छे.

वळी ते आत्मस्वरूप स्वसंवेद्य छे अर्थात् पोताना आत्माना ज अनुभवमां आवे तेवुं छे. गुरु, तेमनी वाणी के तीर्थंकर भगवाननी दिव्यध्वनि पण तेनो अनुभव करावी शके तेम नथी. जीव अनुभव करे तो ते निमित्तमात्र कहेवाय. ते स्वानुभवगोचर छे. आत्मा पोते ज तेने ओळखी, अनुभव करी शके.

ए रीते वास्तवमां आत्माने परद्रव्यनां तथा रागादिनां ग्रहणत्याग नथी; ते सर्वज्ञ छे अने मात्र स्वानुभवगोचर छे. २०.

आवा आत्मपरिज्ञाननी पूर्वे मारी चेष्टा केवी हती ते कहे छेः

श्लोक २१

अन्वयार्थ : (स्थाणौ) झाडना ठूंठामां (उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः) जेने पुरुषनी भ्रान्ति १. जुओः श्री प्रवचनसार गाथा३७, ३८, ३९, ४१, ४७, ४८, ४९, ५१.

स्थाणु विषे नरभ्रान्तिथी थाय विचेष्टा जेम;
आत्मभ्रमे देहादिमां वर्तन हतुं मुज तेम. २१.


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टीकाउत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः पुरुषोऽयमित्युत्पन्ना भ्रान्तिर्यस्य प्रतिपत्तुस्तस्य स्थाणौ स्थाणुविषये यद्वद्यत्प्रकारेण विचेष्टितंविविधमुपकारापकारादिरूपं चेष्टितं विपरीतं वा चेष्टितं तद्वत् तत्प्रकारेण मे चेष्टितं क्व ? देहादिषु कस्मात् आत्मविभ्रमात् आत्मविपर्यासात् कदा ? पूर्वम् उक्तप्रकारात्मस्वरूपपरिज्ञानात् प्राक् ।।२१।। उत्पन्न थई तेवा मनुष्यने (यद्वत्) जेवी (विचेष्टितम्) विपरीत या विविध चेष्टा होय छे (तद्वत्) तेवी (देहादिषु) शरीरादिमां (आत्मविभ्रमात्) आत्मविभ्रमने लीधे (पूर्वं) पहेलां (मे) मारी (चेष्टितम्) चेष्टा हती.

टीका : पुरुषनी भ्रान्ति जेने उत्पन्न थई छेतेनी अर्थात् ‘आ पुरुष छे’ एवी जेने भ्रान्ति उत्पन्न थई छे तेनीएवुं माननारनीस्थाणुमां (ठूंठाना विषयमां) जे रीते जे प्रकारे विचेष्टा थाय छेविविध प्रकारनी चेष्टा थाय छेअर्थात् उपकारअपकारादिरूप चेष्टा वा विपरीत चेष्टा थाय छेते प्रमाणेते प्रकारे में चेष्टा करी. कोना विषे? देहादि विषे. शा कारणथी? आत्मविभ्रमआत्मविपर्यासना कारणे. क्यारे? पूर्वे अर्थात् उक्त प्रकारना आत्मस्वरूपना परिज्ञान पूर्वे.

भावार्थ : अंतरात्मा विचारे छे के, ‘जेवी रीते कोई पुरुष भ्रमथी वृक्षना ठूंठाने पुरुष समजी तेनाथी पोताने उपकारअपकारादिनी कल्पना करी सुखीदुःखी थाय छे, तेवी रीते हुं पण मिथ्यात्वावस्थामां भ्रमथी शरीरादिने आत्मा समजी तेनाथी पोताने उपकार अपकारादिनी कल्पना करी सुखीदुःखी थयोए मारी मूर्खाई भरेली चेष्टा हती. कोई ठूंठाने पुरुष माने अने हुं शरीरादिने आत्मा मानुंएम बंनेना विभ्रममां अने चेष्टामां कांई फेर नथी.’

विशेष

‘‘जेम एक नारीए काष्टनी पूतळी बनावीने तेने अलंकारवस्त्र पहेरावीने पोताना महेलमां पथारीमां सुवाडी राखी अने लूगडांथी ढांकी दीधी. त्यां, ते नारीनो पति आव्यो. एणे एम जाण्युं के मारी नारी शयन करे छे. ते तेने हलावे, पवन नाखे, परंतु ते (पूतळी) तो बोले नहि. आखी रात बहु सेवा करी; प्रभात थयुं त्यारे तेणे जाण्युं के आ तो काष्टनी पूतळी छे, त्यारे ते पस्तायो के में जूठी सेवा करी. तेम अनादिथी आत्मा पर अचेतननी सेवा वृथा करे छे. ज्ञान थतां ते जाणे छे के जड छे, त्यारे तेनो स्नेह त्यागे छे अने स्वरूपानंदी थई सुख पामे छे.’’ २१. १. ‘अनुभव प्रकाशक’गु. बीजी आवृत्ति, पृ. २२२३.


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साम्प्रतं तु तत्परिज्ञाने सति कीदृशं मे चेष्टितमित्याह

यथाऽसौ चेष्टते स्थाणौ निवृत्ते पुरुषाग्रहे
तथाचेष्टोऽस्मि देहादौ विनिवृत्तात्मविभ्रमः ।।२२।।

टीकाअसौ उत्पन्नपुरुषभ्रान्तिः पुरुषाग्रहे पुरुषाभिनिवेशे निवृत्ते विनष्टे सति यथा येन पुरुषाभिनिवेशजनितोपकारापकाराद्युद्यमपरित्यागप्रकारेण चेष्टते प्रवर्तते तथाचेष्टोऽस्मि तथा तदुद्यमपरित्यागप्रकारेण चेष्टा यस्यासौ तथाचेष्टोऽस्मि भवाम्यहम् क्व ? देहादौ किं विशिष्टः ? विनिवृत्तात्मविभ्रमः विशेषेण निवृत्त आत्मविभ्रमो यस्य क्व ? देहादौ ।।२२।।

वर्तमानमां तेनुं (आत्मानुं) परिज्ञान थतां मारी केवी चेष्टा थई गई ते कहे छेः

श्लोक २२

अन्वयार्थ : (स्थाणौ) वृक्षना ठूंठामां (निवृत्ते पुरुषाग्रहे) ‘आ पुरुष छे’ एवी भ्रान्ति दूर थतां, (यथा)। जेवी रीते (असौ) ते (पूर्वे भ्रान्तिवाळो मनुष्य) (चेष्टते) चेष्टा करे छे अर्थात् तेनाथी उपकारादिनी कल्पनानो त्याग करे छे, (देहादौ) शरीरादिमां (विनिवृत्तात्मविभ्रमः) जेनो आत्मविभ्रम दूर थयो छे तेवो हुं (तथा चेष्टः अस्मि) तेवी रीते चेष्टा करुं छुं.

टीका : (ठूंठामां) पुरुषाग्रह अर्थात् पुरुषाभिनिवेश निवृत्त थतांनाश पामतां, जेने (ठूंठामां) पुरुषनी भ्रान्ति थई गई हती ते (मनुष्य). जेवी रीते पुरुषाभिनिवेशजनित उपकारअपकारादिथी ते प्रवृत्तिनो परित्याग करवारूप चेष्टा करे छेप्रवर्ते छे तेवी रीते में चेष्टा करी छेअर्थात् ते प्रवृत्तिना परित्याग अनुरूप जेने जेवी रीते चेष्टा थाय तेवी चेष्टावाळो हुं बनी गयो छुं.

क्यां (क्या विषयमां)? देहादिमां. केवो (थयो छुं)? जेनो आत्मविभ्रम विनिवृत्त थयो छे तेवोअर्थात् जेनो आत्मविभ्रम विशेष करी निवृत्त थयो छे तेवोथयो छुं. क्यां (क्या विषयमां)? देहादिमां.

भावार्थ : ज्यारे माणस ठूंठाने ठूंठुं समजे छे, त्यारे पहेलां तेमां पुरुषनी कल्पना

स्थाणु विषे विभ्रम जतां थाय सुचेष्टा जेम;
भ्रान्ति जतां देहादिमां थयुं प्रवर्तन तेम. २२.


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अथेदानीमात्मनि स्त्र्यादिलिङ्गैकत्वादिसंख्याविभ्रमनिवृत्त्यर्थतद्विविक्तासाधारणस्वरूपं दर्शयन्नाह

येनात्मनाऽनुभूयेहमात्मनैवात्मनात्मनि
सोऽहं न तन्न सा नासौ नैका न द्वौ वा बहुः ।।२३।।

करी जे उपकारअपकारादिनी कल्पनारूप चेष्टा करतो हतो ते बंध थई जाय छे; तेम अन्तरात्माने भेदविज्ञान द्वारा शरीर अने आत्मानी एकतानो भ्रम दूर थतां शरीरादिमां उपकारअपकाररूप बुद्धि रहेती नथी अने तेथी तेना प्रत्ये उदासीन रहे छे.

विशेष

ज्ञानी पोताना आत्माने शरीरथी भिन्न अने तद्दन जुदी जातनो माने छे; कारण के शरीर रूपी, आत्मा अरूपी; शरीर जड, आत्मा चेतन; शरीर संयोगी, आत्मा असंयोगी; शरीर विनाशी, आत्मा अविनाशी; शरीर आंधळुं, आत्मा देखतो; शरीर इन्द्रियग्राह्य, आत्मा अतीन्द्रियग्राह्य; शरीर बाह्य परतत्त्व, आत्मा अंतरंग स्वतत्त्व, इत्यादि प्रकारे बंने एकबीजाथी भिन्न छे.

आवा अत्यंत भिन्नपणाना विवेकथी जीवने ज्यारे भेदज्ञान थाय छे त्यारे शरीरादिमां आत्मबुद्धिनी भ्रमणा छूटी जाय छे, शरीरना सुधारबगाडथी आत्मा सुधरेबगडे एवो भ्रम टळी जाय छे. देहादि पर पदार्थो प्रत्ये कर्ताबुद्धिना स्थाने ज्ञाताबुद्धि ऊपजे छे अने ते आत्म सन्मुख वळी चैतन्यस्वरूपमां एकाग्र थवा लागे छे.

आम जीवने ज्यारे भेदविज्ञानद्वारा स्वपरनुं भान थाय छे, त्यारे ते पर भावथी हटी स्वसन्मुख थाय छे. २२

हवे आत्मामां स्त्री आदि लिंग ने एकत्वादि संख्या संबंधी विभ्रमनी निवृत्ति माटे तेनाथी विविक्त (भिन्न) असाधारण स्वरूप बतावतां कहे छेः

श्लोक २३

अन्वयार्थ : (येन आत्मना) जे आत्माथीचैतन्यस्वरूपथी (अहम्) हुं (आत्मनि) पोताना आत्मामां (आत्मना) आत्माद्वारास्वसंवेदनज्ञानद्वारा (आत्मना एव) पोताना

जे रूपे हुं अनुभवुं निज निजथी निजमांही,
ते हुं, नर-स्त्री-इतर नहि, एक-बहु-द्विक नाहि. २३.


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टीकायेनात्मना चैतन्यस्वरूपेण इत्थंभावे तृतीया अहमनुभूये केन कर्त्रा ? आत्मनैव अनन्येन केन करणभूतेन ? आत्मना स्वसंवेदस्वभावेन क्व ? आत्मनि स्वस्वरूपे सोऽहं इत्थंभूतस्वरूपोऽहं न तत् न नपुंसकं न सा न स्त्री नासौ न पुमान् अहं तथा नैको न द्वौ न वा बहुरहं स्त्रीत्वादिधर्माणां कर्मोत्पादितदेहस्वरूपत्वात् ।।२३।। आत्माने पोते (अनुभूये) अनुभवुं छुं. (सः) तेशुद्धात्मस्वरूप (अहं) हुं (न तत्) न तो नपुंसक छुं, (न सा) न स्त्री छुं, (न असौ) न पुरुष छुं; (न एकः) न एक छुं (न द्वै) न बे छुं, (वा) अथवा (न बहुः) न बहु छुं.

टीका : जे आत्मा वडेचैतन्य स्वरूप वडे हुं अनुभवमां आवुं छुंकोनाथी? आत्माथी जबीजा कोईथी नहि, कया करण (साधन) द्वारा? आत्माद्वारास्वसंवेदन स्वभाव द्वारा, क्यां? आत्मामांस्वस्वरूपमां, ते हुं छुंएवा स्वरूपवाळो छुं. न तो हुं नपुंसक छुं, न स्त्री छुं, न पुरुष छुं; तथा न हुं एक छुं, न बे छुं के न हुं बहु छुं; कारण के स्त्रीत्वादि धर्मो छे ते तो कर्मोपादित देहस्वरूपवाळा छे.

भावार्थ : हुं स्वसंवेदनज्ञानद्वारा पोते ज मारा आत्मस्वरूपने मारा आत्मामां अनुभवुं छुंअर्थात् हुं चैतन्यस्वरूप स्वसंवेदनगम्य छुं. तेमां स्त्रीपुरुषादि लिंगनो तथा एक, बे, वगेरे संख्याना विकल्पोनो अभाव छे.

अन्तरात्मा विचारे छे के जीवमां स्त्रीपुरुषादिनो व्यवहार केवळ शरीरने लीधे छे. एक, बे अने बहुवचननो व्यवहार पण शरीराश्रित छे. ज्यारे शरीर मारुं रूप ज नथी अने मारुं शुद्धस्वरूप निर्विकल्प छे, त्यारे मारामां लिंगभेद अने वचनभेदना विकल्पो केवी रीते घटी शके? आ स्त्रीत्वादि धर्मो तो कर्मोपादित देहनुं स्वरूप छे, मारुं स्वरूप नथी. मारुं चैतन्यस्वरूप तो ते बधांथी पर छे.

विशेष

आत्मा शुद्ध आनंदस्वभावी छे, एक छेएवो रागमिश्रित विचार पण स्वभावमां नथी. गुणगुणी तरीके बे छे ने ज्ञानदर्शनना उपयोगे बे छेएवो भेद स्वरूपमां नथी.

आत्मानुं शुद्ध स्वरूप अभेद, गुणगुणीना भेद विनानुं छे. तेमां लिंगभेद, वचन भेद, विकल्पभेदादि कंई नथी.

अहीं आचार्यनुं लक्ष अभेदअखंड आत्माना स्वरूप उपर छे; तेथी तेमणे कह्युं छे के, वास्तवमां आत्माने स्त्री, पुरुष, नपुंसकादि अवस्थाओ नथी, गुणोना भेदरूप अने कारकोना भेदरूप कल्पना नथी.


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येनात्मना त्वमनुभूयसे स कीदृशः इत्याह

यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भवे व्युत्थितः पुनः
अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।२४।।

टीकायस्य शुद्धस्य स्वसंवेद्यस्य रूपस्य अभावे अनुपलम्भे सुषुप्तो यथावत्पदार्थपरिज्ञानाभावलक्षणनिद्रया गाढाक्रान्तः यद् भावे यस्य तत्स्वरूपस्य भावे उपलम्भे पुनर्व्युत्थितः विशेषेणोत्थितो जागरितोऽहं यथावत्स्वरूपपरिच्छित्तिपरिणत इत्यर्थः किं विशिष्टं तत्स्वरूपं ? अतीन्द्रियं इन्द्रियैरजन्यमग्राह्यं च अनिर्देश्यं शब्दविकल्पागोचरत्वादिदंतयाऽनिदन्तया वा निर्देष्टुमशक्यम् तदेवंविधं स्वरूपं कुतः सिद्धमित्याह-तत्स्वसंवेद्यं तदुक्तप्रकारंस्वरूपं स्वसंवेद्य स्वसंवेदनग्राह्यं अहमस्मीति ।।२४।।

आवी समजणथी ज्ञानी भेदविज्ञान करी आत्मस्वरूपमां एकाग्र थवानी निरंतर भावना भावे छे. २३.

जे आत्माथी तुं अनुभवमां आवे छे ते केवो छे ते कहे छेः

श्लोक २४

अन्वयार्थ : (यत् अभावे) जेनाशुद्धात्मस्वरूपनाअभावे (अहं) हुं (सुषुप्तः) सूतो पडी रह्यो हतोअज्ञान अवस्थामां हतो, (पुनः) वळी (यत् भावे) जेनाशुद्धात्मस्वरूपना सद्भावमां हुं (व्युत्थितः) जागी गयोयथावत् वस्तुस्वरूपने जाणवा लाग्यो, (तत्) ते शुद्धात्मस्वरूप (अतीन्द्रियम्) इन्द्रियो द्वारा अग्राह्य (अनिर्देश्यम्) वचनोथी अगोचर (वचनोथी न कही शकाय तेवुं) अने (स्वसंवेद्यम्) स्वानुभवगम्य छे; ते (अहं अस्मि) हुं छुं.

टीका : जे शुद्ध स्वसंवेद्यरूपना अभावे एटले तेनी अनुपलब्धिमांअप्राप्तिमां हुं सूतो हतोअर्थात् यथावत् पदार्थपरिज्ञाननो अभाव जेनुं लक्षण छे एवी निद्रामां हुं गाढ घेरायेलो हतो (लपेटायेलो हतो) अने जेना सद्भावमां अर्थात् जेना तत्स्वरूपना सद्भावमांप्राप्तिमां (जे स्वरूपनो अनुभव थतां) हुं जाग्योविशेषपणे जागृत थयो, अर्थात् यथावत् स्वरूपना परिज्ञानस्वरूपे हुं परिणम्योएवो अर्थ छे.

नहि पाम्ये निद्रित हतो, पाम्ये निद्रामुक्त,
ते निजवेद्य, अतीन्द्रि ने अवाच्य छे मुज रूप. २४.


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तत्स्वरूपं स्वसंवेदयतो रागादिप्रक्षयान्न क्वविच्छत्रुमित्रव्यवस्था भवतीति दर्शयन्नाह

क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यतः
बोधात्मानं ततः कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः ।।२५।।

टीकाअत्रैव नकेवलमग्रे किन्तु अत्रैव जन्मनि क्षीयन्ते के ते ? रागाद्याः आदौ भवः

तत्स्वरूप केवा प्रकारनुं छे? ते अतीन्द्रिय छे अर्थात् इन्द्रियजन्य नथी, इन्द्रियग्राह्य नथी अने वचनअगोचर अर्थात् शब्दविकल्पोथी अगोचर होवाथी (शब्दो द्वारा कहेवामां नहि आवतुं होवाथी) आ के ते स्वरूपादिरूपे कही शकाय तेवुं नथी. तो एवा प्रकारनुं स्वरूप क्यांथी सिद्ध थाय ते कहे छे‘‘ते स्वसंवेद्य स्वरूप अर्थात् ते उक्त प्रकारनुं स्वसंवेदनथी ग्राह्य स्वरूप ते हुं छुं.’’

भावार्थ : जे शुद्धात्मस्वरूप अतीन्द्रिय, वचनअगोचर अने स्वानुभवगम्य छे ते हुं छुंएवुं ज्यां सुधी जीवने ज्ञान न हतुं त्यां सुधी ते अज्ञाननिद्रामां सूतो हतो, परंतु ज्यारे तेने पोताना उक्त प्रकारना स्वरूपनुं यथावत् भान थयुं त्यारे ते वास्तवमां जागृत थयो अर्थात् तेना परिज्ञानरूपे परिणम्यो.

जेने शुद्धात्मानी उपलब्धि छे ते ज जागे छे अने जेने शुद्धात्मानी उपलब्धि नथी ते ऊंघे छे. ज्यारथी ते चिदानंदस्वरूपने स्वसंवेदन द्वारा अनुभवे छे, त्यारथी ते सदाय जागृत ज छे एम समजवुं. २४

ते स्वरूपनुं स्वसंवेदन करनारने रागादिनो विशेष क्षय थवाथी क्वचित् पण शत्रुमित्रनी व्यवस्था (कल्पना) रहेती नथी ते दर्शावतां कहे छेः

श्लोक २५

अन्वयार्थ : (यतः) कारण के (बोधात्मानं) शुद्ध ज्ञानस्वरूप एवा (मां) अनेमारा आत्माने (तत्त्वतः प्रपश्यतः) वास्तवमां अनुभव करनार जीवने (अत्र एव) अहीं ज (रागाद्याः) रागादि दोषो (क्षीयन्ते) नाश पामे छे; (ततः) तेथी (मे) मारो (न कः चित्) न कोई (शत्रुः) शत्रु छे (न च) अने न कोई (प्रियः) मित्र छे.

टीका : अहीं जनहीं के केवळ आगळ (बीजा जन्ममां) ज परंतु आ ज जन्ममां

ज्ञानात्मक मुज आत्म ज्यां परमार्थे वेदाय,
त्यां रागादिविनाशथी नहि अरि-मित्र जणाय. २५.


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आद्यः राग आद्यो येषां द्वेषादिनां ते तथोक्ताः किं कुर्वन्तस्ते क्षीयन्ते ? तत्त्वतो मां प्रपश्यतः कथम्भूतं मां ? बोधात्मानं ज्ञानस्वरूपं तत इत्यादियतो यथावदात्मानं पश्यतो रागादयः प्रक्षीणास्ततस्तस्मात् कारणात् न मे कश्चिच्छत्रुः न च नैव प्रियो मित्रम् ।।२५।। (तेओ) क्षय पामे छे. कोण ते? रागादिअर्थात् राग जेनी आदिमां छे तेवा द्वेषादि (दोषो). शुं करतां ते क्षीण थाय छे? तत्त्वतः (परमार्थपणे) मने देखतां (अनुभवतां). केवा मने? बोधात्मा एटले ज्ञानस्वरूप (एवा मने). यथावत् आत्मानो अनुभव करतां रागादि क्षीण थाय छे; ते कारणथी न कोई मारो शत्रु छे अने कोई मारो प्रिय एटले मित्र छे.

भावार्थ : ज्ञानस्वरूप आत्माने यथार्थस्वरूपे अवलोकतांअनुभवतां रागद्वेषादि दोषोनो (भूमिकानुसार) अहीं ज अभाव थाय छे; तेथी ज्ञानी कहे छे के, ‘‘आ जगतमां मने कोई शत्रुमित्ररूपे भासतो नथीअर्थात् वास्तवमां कोई कोईनो शत्रुमित्र थई शकतो नथी.’’

ज्यारे आत्मा प्रबुद्ध थई यथार्थ वस्तुस्थितिनो अनुभव करे छे, त्यारे तेनी राग द्वेषरूप इष्टअनिष्टनी कल्पना मटी जाय छे अने बाह्य सामग्रीना बाधकसाधक मनाता जीवो प्रत्ये तेने उपेक्षाबुद्धि रहे छे; तेथी ते न कोईने शत्रु समजे छे के न तो कोईने मित्र माने छे. ए रीते आत्मस्वरूपनी भावनाना बळे तेना रागद्वेषादिनो नाश थतां तेने कोई प्रत्ये शत्रु-मित्रपणुं रहेतुं नथी.

विशेष

ज्ञानभावनारूपे परिणमेलो ज्ञानी विचारे छे केः

‘‘निश्चयथी हुं एक छुं, शुद्ध छुं, ममतारहित छुं, ज्ञानदर्शनथी पूर्ण छुं; ते स्वभावमां रहेतो, तेमांते चैतन्यअनुभवमां लीन थतो हुं आ क्रोधादिक सर्व आस्रवोने क्षय पमाडुं छुं.’’

सारांश ए छे के ज्यारे ज्ञानी पोताना आत्मस्वरूपने यथार्थपणे जाणी तेमां लीन थाय छे, त्यारे तेना आस्रवभावो रागद्वेषादि विकारो स्वयं उत्पन्न थता नथी. आवी स्थितिमां तेने कोई शत्रुमित्र भासतो नथी; तेने सर्व प्रत्ये समभाव प्रगटे छे. २५. १.हुं एक शुद्ध, ममत्वहीन हुं, ज्ञानदर्शनपूर्ण छुं; एमां रही स्थित, लीन एमां, शीघ्र आ सौ क्षय करुं.

(श्री समयसारगु. आवृत्ति, गाथा७३)


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यदि त्वमन्यस्य कस्यचिन्न शत्रुर्मित्रं वा तथापि तवान्यः कश्चिद्भविष्यतीत्याशंक्याह

मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः
मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः ।।२६।।

टीकाआत्मस्वरूपे प्रतिपन्नेवाऽयंलोको मयि शत्रुमित्रभावं प्रतिपद्यते ? न तावद् प्रतिपन्ने यतः मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः अप्रतिपन्ने हि वस्तुस्वरूपे रागाद्युत्पत्तावतिप्रसङ्गः नापि प्रतिपन्ने यतः मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः आत्मस्वरूपप्रतीतौ रागादिकप्रक्षयात् कथं क्व चिदपि शत्रुमित्रभावः स्यात् ।।२६।।

भले तुं बीजा कोईनो शत्रुमित्र न हो, तो पण बीजो कोई तो तारो शत्रुमित्र हशे ने? एवी आशंका करी तेनुं समाधान करे छेः

श्लोक २६

अन्वयार्थ : (मां) मनेमारा आत्मस्वरूपने (अपश्यन्) नहि देखतो (अयं लोकः) आ लोकअज्ञानी प्राणिगण (न मे शत्रुः) मारो शत्रु नथी (न च प्रियः) अने मित्र नथी, तथा (मां) मनेमारा आत्मस्वरूपने (प्रपश्यन्) यथार्थपणे देखतो (अयं लोकः) आ लोक ज्ञानी जीवगण (न मे शत्रुः) न मारो शत्रु छे (न च प्रियः) अने न मित्र छे.

टीका : आत्मस्वरूप समजाय के न समजाय तो पण आ लोक मारा प्रत्ये शत्रु मित्रभाव केम करे? प्रथम तो (आत्मस्वरूप) न समजाय तो पण ते न करे, कारण के आ लोक मने देखतो नथी तेथी ते मारो शत्रु नथी ने मारो मित्र नथी; ज्यां वस्तुस्वरूप न समजाय त्यां पण रागादिनी उत्पत्ति थाय तो अतिप्रसंग आवे.

(वस्तुस्वरूप) समजवामां आवतां पण न (कोई मारो शत्रुमित्र छे), कारण के आ (ज्ञानी) लोक मने देखतो (जाणतो) होवाथी, ते नथी मारो शत्रु ने नथी मारो मित्र.

आत्मस्वरूपनी प्रतीति थतां रागादिनो क्षय (अभाव) थवाथी क्वचित् पण शत्रु मित्रभाव केवी रीते होई शके?

भावार्थ : अंतरात्मा समाधान करे छे के, ‘अज्ञानी जनो तो मारा आत्माने देखता

देखे नहि मुजने जनो, तो नहि मुज अरि-मित्र;
देखे जो मुजने जनो, तो नहि मुज अरि-मित्र. २६.


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अन्तरात्मनो बहिरात्मत्वत्यागे परमात्मत्वप्राप्तौ चोपायत्वं दर्शयन्नाह

त्यक्त्वैवं बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः
भावयेत्परमात्मानं सर्वसंकल्पवर्जितम् ।।२७।।

टीकाएवमुक्तप्रकारेणान्तरात्मव्यवस्थितः सन् बहिरात्मानं त्यक्त्वा परमात्मानं भावयेत् कथंभूतं ? सर्वसंकल्पवर्जितं विकल्पजालरहितं अथवा सर्वसंकल्पवर्जितः सन् भावयेत् ।।२७।। जाणता नथी. मारुं आत्मस्वरूप अतीन्द्रिय होवाथी तेमनी इन्द्रियोने अगोचर छे, तेथी तेओ मारा विषयमां शत्रुमित्रनी कल्पना केवी रीते करी शके? तेओ मारा जड शरीरने ज देखे छे, शरीरथी अत्यंत भिन्न एवो मारो आत्मा तो देखातो नथी, तो भले तेओ मारा शरीरने शत्रुमित्र माने; मने (मारा आत्माने) तेथी शुं?

ज्ञानी जनो मारा शुद्धात्मस्वरूपने यथावत् जाणता होवाथी तेमनामां रागद्वेषादिनो अभाव छे, तेथी मारा प्रत्ये तेमनामां शत्रुमित्रभाव केवी रीते होई शके?

आ रीते ज्ञानी के अज्ञानीकोई जीव मारो शत्रु नथी के मित्र नथी. २६.

अन्तरात्माने बहिरात्मपणाना त्यागनो अने परमात्मपणानी प्राप्तिनो उपाय दर्शावतां कहे छेः

श्लोक २७

अन्वयार्थ : (एवं) आवी रीते (बहिरात्मानं) बहिरात्माने (त्यक्त्वा) तजी (अंतरात्मव्यवस्थितः) अंतरात्मामां व्यवस्थित थई तथा (सर्वसंकल्पवर्जितं) सर्व संकल्पोथी रहित थईने (परमात्मानं) परमात्माने (भावयेत्) भाववो.

टीका : एवी रीते एटले उक्त प्रकारे अंतरात्मामां व्यवस्थित थईने अने बहिरात्मानो त्याग करीने परमात्मानी भावना करवी, केवा थईने? सर्व संकल्पोथी रहित थईनेविकल्पजालरहित थईने अर्थात् सर्व संकल्पोथी मुक्त थईने (परमात्मानी भावना करवी). (२७).

भावार्थ : प्रथम जीव बहिरात्मपणाने छोडी आत्मस्वरूपनी सन्मुख थतां अंतरात्मा

एम तजी बहिरात्मने, थई मध्यात्मस्वरूप;
सौ संकल्पविमुक्त थई, भावो परमस्वरूप. २७.


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तद्भावनायाः फलं दर्शयन्नाह

सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः
तत्रैव दृढ़संस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् ।।२८।।

टीकायोऽनन्तज्ञानाद्यात्मकः प्रसिद्धः परमात्मा सोऽहमित्येवमात्तसंस्कारः आत्तो गृहीतः संस्कारो वासना येन कया कस्मिन् ? भावनया तस्मिन् परमात्मनि भावनया सोऽहमित्यभेदाभ्यासेन पुनरित्यन्तर्गर्भितवीप्सार्थः पुनः पुनस्तस्मिन् भावनया तत्रैव परमात्मन्यैव दृढ़संस्कारात् अविचभावनावशात् लभते प्राप्नोति ध्याता हि स्फु टम् आत्मनि स्थितिं थाय छे. त्यारबाद क्रमे क्रमे पुरुषार्थ वधारी सर्व विकल्पोथी रहित थई ज्ञानानंदस्वरूप परमात्मानी आराधना करे छे, अर्थात् तेमां लीन थई तद्रूप बनवानी भावना भावे छे. ए परमात्मपदनी प्राप्तिनो उपाय छे. २७.

ते भावनानुं फळ दर्शावतां कहे छेः

श्लोक २८

अन्वयार्थ : (तस्मिन्) तेमांपरमात्मपदमां (भावनया) भावना करता रहेवाथी (सः अहं) तेअनन्तज्ञानस्वरूप परमात्मा‘हुं छुं’ (इति) एवा (आत्तसंस्कारः) संस्कार पामेलो तेज्ञानी पुरुष(पुनः) वारंवार (तत्र एव) तेमां जआत्मस्वरूपमां ज (दृढ संस्कारात्) द्रढ संस्कारने लीधे (हि) निश्चयथी (आत्मनि) आत्मामां (स्थितिं लभते) स्थिरता प्राप्त करे छे.

टीका : जे अनंतज्ञानादिस्वरूप प्रसिद्ध परमात्मा छे ते ‘हुं छुं’ एवो संस्कार पामी अर्थात् एवो संस्कार एटले वासना ग्रहीने, शा वडे? शामां? तेनी भावना वडे अर्थात् परमात्मानी भावना वडे ते ‘हुं छुं’ एवा अभेद अभ्यास वडे, तेनी वारंवार भावनाथी तेना ज एटले परमात्माना जद्रढ संस्कारने लीधे अविचल भावनाने लीधेध्याता खरेखर आत्मामां स्थिति पामे छेप्राप्त करे छेअर्थात् आत्मामां अचलता वा अनंतज्ञानादिचतुष्टयरूपता प्राप्त करे छे.

ते भाव्ये ‘सोहम्’ तणा जामे छे संस्कार;
तद्गत द्रढ संस्कारथी आत्मनिमग्न थवाय. २८.


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आत्मन्यचलतां अनन्तज्ञानादिचतुष्टयरूपतां वा ।।२८।।

नन्वात्मभावनाविषये कष्टपरम्परासद्भावेन भयोत्पत्तेः कथं कस्यचित्तत्र प्रवृत्तिरित्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह

मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम्
यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मनः ।।२९।।

भावार्थ : अनंतज्ञानस्वरूप परमात्मा ते ज ‘हुं छुं’ एवी वारंवार अभेद भावना भाववाथी तेना संस्कार द्रढ थाय छे अने तेवा संस्कारने लीधे आत्मस्वरूपमां स्थिर थई जीव अनंतचतुष्टयरूप परमपदनी प्राप्ति करे छे.

विशेष

ज्यारे अंतरात्मा स्वसन्मुख थई पोताने सिद्ध समान शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यघन, सुख धाम अने अनंतचतुष्टयादिरूप ध्यावे छेवारंवार भावे छे, त्यारे अभेद अविचल भावनाना बळे ते शुद्धात्मस्वरूपमां तन्मय थई जाय छे. ते वखते तेने अनिर्वचनीय आनंदनो अनुभव थाय छे. परमात्मस्वरूपमां लीन थतां ते स्वयं परमात्मा थई जाय छे. आ परमात्मस्वरूपनी द्रढ भावनानुं फल छे.

‘‘जे परमात्मा छे ते ज हुं छुंएवी वारंवार भावना भावतां शुद्धस्वात्मामां जे लीनता थाय छे, ते कोई वचनअगोचर योग छेसमाधिरूप ध्यान छे.’’

आवी रीते परमात्मभावनाना द्रढ संस्कारथी आत्मा परमात्मा थई जाय छे. २८. आत्मभावनाना विषयमां कष्टपरंपराना सद्भावने लीधे भयनी उत्पत्तिनी संभावना रहे छे, तो तेमां कोईनी केवी रीते प्रवृत्ति थाय? एवी आशंकानुं निराकरण करतां कहे छेः

श्लोक २९

अन्वयार्थ : (मूढात्मा) अज्ञानी बहिरात्मा (यत्र) जेमांशरीरपुत्रमित्रादि बाह्य पदार्थोमां (विश्वस्तः) विश्वास करे छे (ततः) तेनाथीशरीरादि बाह्य पदार्थोथी (अन्यत्) बीजुं को (भयास्पदं न) भयनुं स्थान नथी अने (यतः) जेनाथीपरमात्मस्वरूपना अनुभवथी १. जुओः ‘अध्यात्मरहस्य’श्लोक ५७.

मूढ जहीं विश्वस्त छे, तत्सम नहि भयस्थान;
जेथी डरे तेना समुं कोई न निर्भय धाम. २९.


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टीकामूढात्मा बहिरात्मा यत्र शरीरपुत्रकलत्रादिषु विश्वस्तोऽवंचकाभिप्रायेण विश्वासं प्रपिपन्नः मदीया एते अहमेतेषामितिअभेदबुद्धिं गत इत्यर्थः ततो नान्यद्भयास्पदं ततः शरीरादेर्नान्यद्भयास्पदं संसारदुःखात्रसस्यास्पदं स्थानम् यतो भीतः यतः परमात्मस्वरूपसंवेदनाद्भीतः त्रस्त ततो नान्यदभयस्थानं ततः स्वसंवेदनात् नान्यत् अभयस्य संसारदुःखत्रासाभावस्य स्थानमास्पदम् सुखास्पदं ततो नान्यदित्यर्थः ।।२९।। (भीतः) ते डरे छे (ततः अन्यत्) तेनाथी बीजुं कांई (आत्मनः) आत्माने (अभयस्थानं न) निर्भयतानुं स्थान नथी.

टीका : मूढात्मा एटले बहिरात्मा ज्यां एटले शरीरपुत्रभार्यादिमां विश्वास करे छेअवंचक अभिप्रायथी (तेओ मने ठगशे नहि एवा अभिप्रायथी) विश्वास पामे छे‘ते मारां छे अने हुं तेमनो छुं’ एवी अभेदबुद्धि करे छेएवो अर्थ छे. तेनाथी बीजुं कोई भयनुं स्थान नथीतेनाथी एटले शरीरादिथी बीजुं भयनुं स्थानअर्थात् संसारदुःखना त्रासनुं स्थान नथी.

जेनाथी भय पामे छेजेनाथी एटले परमात्मस्वरूपना संवेदनथी भय पामे छेत्रासे छे, तेनाथी बीजुं कोई अभयस्थान नथीतेनाथी एटले स्वसंवेदनथी बीजुं अभयनुं संसारदुःखना त्रासना अभावनुं स्थान नथी. तेनाथी बीजुं सुखनुं स्थान नथीएवो अर्थ छे.

भावार्थ : शरीरपुत्रादि जे भयनुं स्थान छेदुःखनुं कारण छे तेमां बहिरात्मा आत्मबुद्धि करी विश्वास करे छे अने परमात्मस्वरूप जे निर्भय स्थान छे, परमशरणरूप छे अने सुखनुं कारण छे, तेना संवेदनने कष्टरूप मानी डरे छे.

अज्ञानी बाह्य शरीरादिमां सुख मानी तेमां निःशंकपणे प्रवर्ते छे, पण वास्तवमां तेओ मृगजळ समान छे. तेमां कांई सुख नथी; ते कोईनुं शरण नथी के कोईनुं विश्वासनुं अभयनुं स्थान नथी. एक शुद्धात्मस्वरूप ज अभयरूप छे, ते ज शरणनुं स्थान छे अने ते ज जगतना जीवोने भवभयमांथी रक्षा करनार परम तत्त्व छे.

विशेष

जेम पित्तज्वरवाळा रोगीने मीठुं दूध पण कडवुं लागे छे, तेम बहिरात्माने परम सुखदायी परमात्मस्वरूपनी भावना पण कष्टदायी लागे छे; तेथी ते आत्मस्वरूपनी भावनाने भावतो नथी पण विषयकषायनी ज भावना भावे छे.

वळी, ‘‘रागादि प्रगट ए दुःख दैन, तिनहीको सेवत गिनत चैन;

.... ...... ..... .... .......(२/५)


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तस्यात्मनः कीदृशः तत् प्रतिपत्त्युपाय इत्याह

सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना
यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मनः ।।३०।।

आत्महितहेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपकुं कष्टदान.’’(२/६)

रागादि विषयकषायो आत्माने अहितरूप छेदुःखदायक छे, छतां अज्ञानी तेमां हित मानीसुख मानीप्रवर्ते छे अने ज्ञानवैराग्य जे आत्माने हितकर छे तेने अहितकर कष्टरूप माने छे.

वळी अज्ञानी जीवने उद्देशीने श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे के‘‘अरे जीव!

‘‘अनंत सुख नाम दुःख, त्यां रही न मित्रता,
अनंत दुःख नाम सुख, प्रेम त्यां विचित्रता!
उघाड न्याय
नेत्रने, निहाळ रे! निहाळ तुं,
निवृत्ति शीघ्रमेव धारी, ते प्रवृत्ति बाळ तुं.’’

‘‘अहा! जे अनंतसुखनुं धाम छे एवा चैतन्यस्वभावमां तो तने मित्रता न रही तेमां उत्साह अने प्रेम न आव्यो अने अनंत दुःखनुं धाम एवा जे बाह्य विषयोतेमां तने सुखबुद्धि थईप्रेम आव्योउत्साह आव्यो, ए केवी विचित्रता छे! अरे जीव! हवे तारां ज्ञानचक्षुने उघाडीने जो, रे जो, के, ‘तारो स्वभाव दुःखरूप नथी, पण बाह्य विषयो तरफनुं तारुं वलण एकांत दुःखरूप छे. तेमां स्वप्नेय सुख नथी.’ आम विवेकथी विचारी तारा अंतर स्वभाव तरफ वळ अने बाह्य विषयोमां सुखबुद्धि छोडीने तेमनाथी निवृत्त था, नित्य निर्भय स्थान अने सुखनुं धाम तो तारो आत्मा ज छे.’’

तेथी शुद्धात्मस्वरूपना स्वसंवेदन सिवाय अन्य कोई अभय स्थान नथी. संसार दुःखना त्रासना अभावनुं ते एक ज स्थान छे, अर्थात् सुखनुं ए एक ज स्थान छे, शरीर पुत्रादि बाह्य पदार्थोकोई सुखनुं स्थान नथी. २९.

ते आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय केवो छे ते कहे छेः १. जुओः श्री दौलतरामजीकृत ‘छहढाला’ २// // /

५; २//
//
/
इन्द्रिय सर्व निरोधीने, मन करीने स्थिररूप,
क्षणभर जोतां जे दीसे, ते परमात्मस्वरूप. ३०.
१०


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टीकासंयम्य स्वविषये गच्छन्ति निरुध्य कानि ? सर्वेन्द्रियाणि पञ्चापीन्द्रियाणि तदनन्तरं स्तिमिते स्थिरीभूतेन अन्तरात्मना मनसा यत्स्वरूपं भाति किं कुर्वतः ? क्षणं पश्यतः क्षणमात्रमनुभवतः बहुतरकालं मनसा स्थिरीकर्तुमशक्यत्वात् स्तोककालं मनोनिरोधं कृत्वा पश्यतो यच्चिदानन्दस्वरूपं प्रतिभाति तत्तत्त्वं तद्रूपं तत्त्वं स्वरूपं परमात्मनः ।।३०।।

कस्मिन्नाराधिते तत्स्वरूपप्राप्तिर्भविष्यतीत्याशङ्कयाह

श्लोक ३०

अन्वयार्थ : (सर्वेन्द्रियाणि) सर्व इन्द्रियोने (संयम्य) रोकीने (स्तिमितेन) स्थिर थयेला (अन्तरात्माना) अन्तरात्मा द्वारा (क्षणं प्रपश्यतः) क्षण मात्र जोनारनेअनुभव करनार जीवने (यत्) जेचिदानंदस्वरूप (भाति) प्रतिभासे छे (तत्) ते (परमात्मनः तत्त्वम्) परमात्मानुं स्वरूप छे.

टीका : पोतपोताना विषयोमां जतीप्रवर्ततीकोण (प्रवर्तती)? सर्व इन्द्रियो, एटले पांचे इन्द्रियो, तेने रोकीनेनिरोधीने, त्यारबाद स्थिर थएला अन्तरात्मा वडे एटले मन वडे जे स्वरूप भासे छे, शुं करतां? क्षण वार जोतांक्षणमात्र अनुभवतांअर्थात् बहु काल सुधी मनने स्थिर करवुं अशक्य होवाथी थोडा कलाक सुधी मननो निरोध करीने देखतां जे चिदानंदस्वरूप प्रतिभासे छे, ते परमात्मानुं तत्त्वतद्रूप तत्त्वस्वरूप छे.

भावार्थ : सर्व इन्द्रियोना विषयोमां भमतीप्रवर्तती चित्तवृत्तिने रोकीने अर्थात् अन्तर्जल्पादि संकल्पविकल्पोथी रहित थईने, उपयोगने पोताना चिदानंद स्वरूपमां स्थिर करवो. ते आत्मस्वरूपमां स्थिर थतां परमात्मस्वरूपनो प्रतिभास थाय छे.

पांच इन्द्रियोना विषयो तरफनुं वलण छोडी अने मनना संकल्पविकल्पो तोडी ज्ञानानंद स्वभावमां एकाग्र थवुंस्थिर थवुं ते परमात्मप्राप्तिनो उपाय छे.

विशेष

आत्मा अतीन्द्रिय सुखनो भंडार छे एवी द्रष्टि थतां रागनीविकारनी रुचि तथा इन्द्रियोना विषयो तरफनी प्रवृत्ति अटकी जाय छे. पर तरफनी वृत्ति रोकाई जतां, उपयोग आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे, अने आत्माना आनंदकंदनो अनुभव थाय छे. आ सम्यग्दर्शन छे ने ते ज समाधि छे. ते वडे ज परमात्मपद पमाय छे. ३०.

कोनी आराधना करवाथी ते स्वरूपनी प्राप्ति थाय? एवी आशंका करी कहे छेः


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यः परमात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः ।।३१।।

टीकायः प्रसिद्धः पर उत्कृष्ट आत्मा स एवाहं योऽहं यः स्वसंवेदनेन प्रसिद्धोऽलमन्तरात्मा स परमः परमात्मा ततो यतो मया सह परमात्मनोऽभेदस्ततोऽहमेव मया उपास्य आराध्यः नान्यः कश्चिन्मयोपास्य इति स्थितिः एवं स्वरूप एवाराध्याराधकभाव- व्यवस्था ।।३१।।

श्लोक ३१

अन्वयार्थ :(यः) जे (परमात्मा) परमात्मा छे (सः एव) ते ज (अहं) हुं छुं, तथा (यः) जे (अहं) हुं छुं (सः) ते (परमः) परमात्मा छे; (ततः) तेथी (अहं एव) हुं (मया) मारा वडे (उपास्यः) उपासवा योग्य छुं, (कः चित् अन्यः न) बीजो कोई (उपास्य) नथी, (इति स्थितिः) एवी वस्तुस्थिति छे.

टीका : जे प्रसिद्ध पर एटले उत्कृष्ट आत्मा छे ते ज हुं छुं. जे हुंअर्थात् जे स्वसंवेदनथी प्रसिद्ध हुं अंतरात्माते परम एटले परमात्मा छे. मारी साथे परमात्मानो अभेद छे, तेथी हुं ज मारा वडे उपासना करवा योग्यआराधवा योग्य छुं, बीजो कोई मारा वडे उपासवा योग्य नथी. एवी स्थिति छेअर्थात् एवुं स्वरूप ज छेएवी आराध्य आराधकनी व्यवस्था छे.

भावार्थ : अंतरात्मा विचारे छे के, ‘‘मारो अंतरात्मा स्वसंवेदनथी प्रसिद्ध छे. वास्तवमां ते अरिहंत अने सिद्ध समान छे अर्थात् परमात्मा छे. तेनी अभेदपणे उपासना करवाथी हुं पोते ज परमात्मा थई शकुं तेम छुं. माटे हुं ज (मारो शुद्धात्मा ज) मारे पोताने उपास्य छुं; बीजो कोई उपासना करवा योग्य नथी. हुं पोते ज उपास्य अने उपासक छुं.’

विशेष

‘‘खरेखर अर्हंतने द्रव्यपणे, गुणपणे अने पर्यायपणे जाणे छे ते खरेखर आत्माने जाणे छे, कारण के बन्नेमां निश्चयथी तफावत नथी.’’

१. जे जाणतो अर्हंतने गुण, द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. (८०) (जुओः टीकाश्री प्रव.सार, गु. आवृत्ति - गा.८०)
जे परमात्मा ते ज हुं, जे हुं ते परमात्म;
हुं ज सेव्य मारा वडे, अन्य सेव्य नहि जाण. ३१.


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एतदेव दर्शयन्नाह

प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं मां मयैव मयि स्थितम्
बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानन्दनिर्वृतम् ।।३२।।

टीकामामात्मानमहं प्रपन्नोऽस्मि भवामि किं कृत्वा ? प्रच्याव्य व्यावृत्य केभ्यः ? विषयेभ्यः केन कृत्वा ? मयैवात्मस्वरूपेणैव करणात्मना क्व स्थितं माम् प्रपन्नोऽहं ? मयि स्थितं

ज्यारे अंतरात्मा पोताने सिद्ध समान शुद्ध, बुद्ध अने ज्ञाताद्रष्टारूप अनुभवे छे अने अभेद भावनाना बळे शुद्धात्मस्वरूपमां तन्मय थई जाय छे त्यारे ते सर्व कर्मबंधनथी मुक्त थई परमात्मा बनी जाय छे तेटला माटे पोते उपासक अने पोतानुं शुद्धात्मस्वरूप उपास्य छे, एम समजी अने निर्णय करी अंतर्मुख थईने पोताना स्वसंवेदन ज्ञान वडे निज शुद्धात्मानी उपासना करवी ते परमात्मपदनी प्राप्तिनो उपाय छे.

‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’सिद्धना जेवुं ज परिपूर्ण मारुं स्वरूप शक्तिरूपे छे. परमात्मपद बहारमां नथी. ते तो मारामां ज छे, एवी निरंतर भावनाना बळथी आत्मा परमात्मा बनी शके छे. तेवी तेनी शक्ति छे. जे आ शक्तिनुं श्रद्धाज्ञान करे छे ते ज पोताना शुद्धात्मामां रमणता करी परमात्मपदने प्राप्त करे छे.

आ ज आराध्यआराधक भावनी व्यवस्थानुं स्वरूप छे. ३१.

ते ज बतावीने कहे छेः

श्लोक ३२

अन्वयार्थ : (मां) मनेमारा आत्माने (विषयेभ्यः) पंचेन्द्रियना विषयोथी (प्रच्याव्य) हठावीने (मया एव) मारा ज वडेपोताना ज आत्मा वडे (अहं) हुं (मयि स्थितं) मारामां स्थित (परमानंतनिर्वृत्तम्) परम आनंदथी निर्वृत्त (रचायेला) (बोधात्मानं) ज्ञानस्वरूप आत्माने (प्रपन्नोऽस्मि) प्राप्त थयो छुं.

टीका : हुं मने एटले मारा आत्माने प्राप्त थयो छुं. शुं करीने? (मारा आत्माने) छोडावीनेपाछो वाळीने, शानाथी? विषयोथी. शा वडे करीने? मारा ज वडे एटले करण

विषयमुक्त थई मुज थकी ज्ञानात्मक मुजस्थित,
मुजने हुं अवलंबुं छुं परमानंदरचित. ३२.


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आत्मस्वरूप एव स्थितम् कथम्भूतं मां ? बोधात्मानं ज्ञानस्वरूपम् पुनरपि कथम्भूतम् ? परमानन्दनिर्वृतं परमश्चासावानन्दश्च सुखं तेन निर्वृतं सुखीभूतम् अथवा परमानन्दनिर्वृतोऽहम् ।।३२।।

एवमात्मानं शरीराद्भिन्नं यो न जानाति तं प्रत्याह (साधन)रूप आत्मस्वरूप वडे ज; क्यां रहेला एवा मने हुं प्राप्त थयो छुं? मारामां रहेलाने अर्थात् आत्मस्वरूमां ज रहेलाने. केवा मने? बोधात्माने एटले ज्ञानस्वरूपने. वळी केवा मने? परम आनंदथी निर्वृत्त (रचायेला)नेपरम आनंद एटले सुख, तेनाथी निर्वृत्त (रचायेला)सुख थयेलाने (एवा मने एटले आत्माने प्राप्त थयो छुं); अथवा, हुं परम आनंदथी निर्वृत्त (परिपूर्ण) छुं.

भावार्थ : बाह्य इन्द्रियोना विषयोथी मारा आत्माने छोडावीने मारामां रहेला परम आनंदथी परिपूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्माने, हुं मारा ज पुरुषार्थथी पाम्यो छुं.

विशेष

आ श्लोकमां ‘मया एव’ अने ‘मयि स्थितं’ए शब्दो बहु अर्थसूचक छे ते बतावे छे के परमात्मपद मारामांआत्मामां छे, बीजे बहार कोई ठेकाणे नथी अने ते पद हुं आत्म सन्मुख थईने पुरुषार्थ करुं तो ज प्राप्त थाय, बीजा कोई बाह्य साधनथी के कोईनी कृपाथी ते प्राप्त थाय नहि. परमात्मपदनी प्राप्ति माटे ते स्वावलंबननुं ग्रहण अने परावलंबननो त्याग सूचवे छे.

वळी आचार्ये दर्शाव्युं छे के आत्मस्वरूपनी प्राप्ति में मारा आत्मबळ वडे ज करी छे. एम पोतानो आत्मवैभव बतावी मुमुक्षु जीवोने प्रेरणा करी छे के, ‘तमे पण स्वतः एटले पोताना आत्मसामर्थ्यथी ज परम पदनी प्राप्ति करो.’

आत्मा अने परपदार्थोने (इन्द्रियोना विषयोने) भिन्न करवामां अने आत्माने ग्रहण करवामां करण (साधन) जुदां नथी; प्रज्ञे एक ज करण छे, ते वडे ज आत्माने भिन्न कराय छे अने ते वडे ज तेने ग्रहण कराय छे.

अहीं साध्य साधन एक ज छे ‘भिन्न भिन्न नथी’एम बताव्युं छे. ३२.

एवी रीते आत्माने शरीरथी भिन्न जे जाणतो नथी तेना प्रति कहे छेः १. जुओः श्री समयसार गु. आवृत्तिगाथा २९४, २९६

‘प्रज्ञा छीणी थकी छेदतां, बन्ने जुदा पडी जाय छे.’ (२९४)
.... ...... ......
‘प्रज्ञाथी जेम जुदो कर्यो, त्यम ग्रहण पण प्रज्ञा वडे.’ (२९६)


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यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्
लभते स न निर्वाणं तप्त्वाऽपि परमं तपः ।।३३।।

टीकायः प्रतिपन्नाद्देहात्परं भिन्नमात्मानमेवमुक्तप्रकारेण न वेत्ति किं विशिष्टम् ? अव्ययं अपरित्यक्तानन्तचतुष्टयस्वरूपम् स प्रतिपन्नान निर्वाणं लभते किं कृत्वा ? तप्त्वाऽपि किं तत् ? परमं तपः ।।३३।।

श्लोक ३३

अन्वयार्थ : (एवं) उक्त प्रकारे (यः) जे (अव्ययं) अविनाशी (आत्मानं) आत्माने (देहात्) शरीरथी (परं न वेत्ति) भिन्न जाणता नथी (सः) ते (परमं तपः तप्त्वापि) घोर तपश्चरण करवा छतां (निर्वाणं) मोक्ष (न लभते) प्राप्त करतो नथी.

टीका : जे प्राप्त थयेला देहथी आत्माने, ए रीतेउक्त प्रकारे भिन्न जाणतो नथी, केवा आत्माने? अव्यय अर्थात् जेणे अनंतचतुष्टय स्वरूपनो त्याग कर्यो नथी तेवा (आत्माने), ते प्राप्त थयेला देहथी निर्वाण पामतो नथी. शुं करीने? तप्या छतां, शुं तपीने? परम तपने.

भावार्थ : जे जीव अविनाशी आत्माने देहथी भिन्न जाणतो नथीअनुभवतो नथी, ते घोर तप करे तो पण सम्यक्त्व के निर्वाणने पामतो नथी.

आत्मा अविनाशी चैतन्यस्वरूप ज्ञानानंदमय छे अने शरीर इन्द्रियादि अचेतनजड छे. बन्नेनां लक्षण भिन्न भिन्न छे, तेथी तेओ एकबीजाथी भिन्न छे. आम जे जीव जाणतो नथी ते अज्ञानी छे, स्वपरना भेदविज्ञानथी रहित छे. शरीरादिनी जड क्रियाने जीव करी शके छे एम मानी ते रागद्वेष करे छे अने तेथी घोर तप करवा छतां ते धर्म पामतो नथी.

विशेष

ज्ञानस्वरूप आत्माना भान विना जीव भले व्रततपनियमशीलादि आचरे तो पण ते कर्मबंधनथी छूटशे नहिनिर्वाण पामशे नहि. १. परमार्थमां अणस्थित जे तपने करे, व्रतने धरे,

सघळुंय ते तप बाळ ने व्रत बाळ सर्वज्ञो कहे. (१५२)
व्रतनियमने धारे भले, तपशीलने पण आचरे,
परमार्थथी जे बाह्य, ते निर्वाणप्राप्ति नहि करे. (१५३) (श्री समयसार गु. आवृत्ति)
एम न जाणे देहथी भिन्न जीव अविनाश;
ते तपतां तप घोर पण, पामे नहि शिववास. ३३.