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प्रश्नः– व्यवहारनय परको उपदेश करनेमें ही कार्यकारी है या स्वयंका भी प्रयोजन साधता है?
उत्तरः– स्वयं भी जब तक निश्चयनयसे प्ररूपति वस्तुको नहीं जानता तबतक व्यवहारमार्ग द्वारा वस्तुका निश्चय करता है। इसलिये नीचली दशामें स्वयंको भी व्यवहारनय कार्यकारी है। परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तुका श्रद्धान बराबर किया जावे तो वह कार्यकारी हो, और यदि निश्चयकी भाँति व्यवहार भी सत्यभूत मानकर ‘वस्तु ऐसी ही है’ ऐसा श्रद्धान किया जावे तो वह उल्टा अकार्यकारी हो जाये। यही पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा हैः–
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।।
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।।
अर्थः– मुनिराज, अज्ञानीको समझानेके लिये असत्यार्थ जो व्यवहारनय उसको उपदेश देते हैं। जो केवळ व्यवहारको ही समझाता है, उसे तो उपदेश ही देना योग्य नहीं है। जिस प्रकार जो सच्चे सिंहको न समझता उसे तो बिलाव ही सिंह है, उसी प्रकार जो निश्चयको नहीं समझता उसके तो व्यवहार ही निश्चयपनेको प्राप्त होता है।
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अब, निश्चय–व्यवहार दोनों नयोंके आभासका अवलम्बन लेते हैं ऐसे मिथ्याद्रष्टियोंका निरूपण करते हैंः––
कोई ऐसा मानते हैं कि जिनमतमें निश्चय और व्यवहार दो नय कहे हैं इसलिये हमें उन दोनोंका अंगीकार करना चाहिये। ऐसा विचारकर, जिस प्रकार केवळनिश्चयभासके अवलिम्बयोंका कथन किया था तदनुसार तो वे निश्चयका अंगीकार करते हैं और जिस प्रकार केवलव्यवहाराभासके अवलिम्बयोंका कथन किया था तदनुसार व्यवहारका अंगीकार करते हैं। यद्यपि इस प्रकार अंगीकार करनेमें दोनों नयोंमें विरोध है, तथापि करें क्या? दोनों नयोंका सच्चा स्वरूप तो भासित हुआ नहीं है और जिनमतमें दो नय कहे हैं उनमेंसे किसीको छोड़ा भी नहीं जाता। इसलिये भ्रमपूर्वक दोनों नयोकां साधन साधते हैं। उन जीवोंको भी मिथ्याद्रष्टि जानना।
अब उनकी प्रवृत्तिकी विशेषता दर्शाते हैंः–
अंतरंगमें स्वयंको तो निर्धार करके यथावत् निश्चय–व्यवहार मोक्षमार्गको पहिचाना नहीं है परन्तु जिन–आज्ञा मानकर निश्चय–व्यवहाररूप दो प्रकारके मोक्षमार्ग मानते हैं। अब मोक्षमार्ग तो कहीं दो हैं नहीं, मोक्षमार्गका निरूपण दो प्रकारसे है। जहाँं सच्चे मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपण किया है वह निश्चयमोक्षमार्ग है, और जहाँंं मोक्षमार्ग तो है नहीं किन्तु मोक्षमार्गका निमित्त हैे अथवा सहचारी है, उसे उपचारसे मोक्षमार्ग कहें वह व्यवहारमोक्षमार्ग है; क्योंकि निश्चय–व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सच्चा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार। इसलिये निरूपणकी अपेक्षासे दो प्रकासे मोक्षमार्ग जानना। परंतु एक निश्चयमोक्षमार्ग है तथा एक व्यवहारमोक्षमार्ग है इस प्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है।
पुनश्च, वे निश्चय–व्यवहार दोनोंको उपादेय मानते हैं। वह भी भ्रम है, क्योंकि निश्चय और व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोध सहित है –
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विषय
१ षड्द्रव्यपंचास्तिकायवर्णन
षड्द्रव्यपंचास्तिकायके सामान्य
शास्त्रके आदिमें भावनमस्काररूप
असाधारण मंगल
समय अर्थात आगमको प्रणाम करके उसका कथन करने सम्बन्धी
अभाव
का उत्पाद नहीं होता उसका
श्रीमद्कुन्दकुन्दाचार्य देवकी प्रतिज्ञा
शब्दरूपसे, ज्ञानरूपसे और अर्थरूपसे
होने
ऐसे तीन प्रकारका ‘समय’ शब्दका
अर्थ तथा लोक–अलोकरूप विभाग
पाँच अस्तिकायोंकी विशेष संज्ञा, सामान्य
–विशेष अस्तित्व तथा कायत्वका कथन
पाँच अस्तिकायोंका अस्तित्व किस प्रकार
से है और कायत्व किस प्रकारसे है
उसका कथन
पाँच अस्तिकायोंको तथा कालको द्रव्य–
पनेका का कथन
छह द्रव्योंका परस्पर अत्यंत संकर होनेपर
भी वे अपने अपने निश्चित स्वरूपसे
च्युत नहीं होते ऐसा कथन
अस्तित्व का स्वरूप
सत्ता और द्रव्यका अर्थान्तरपना होनेका
खण्डन
तीन प्रकारसे द्रव्यका लक्षण
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विषय
जीवद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान
सांसारदशावाले आत्माका सौपाधि और
निरुपाधि स्वरूप
मुक्तदशावाले आत्माका निरुपाधि स्वरूप
सिद्धके निरुपाधि ज्ञान दर्शन और
सुखका समर्थन
जीवत्वगुणकी व्याख्या
जीवोंका स्वाभाविक प्रमाण तथा उनका
मुक्त और अमुक्त ऐसा विभाग
जीवके देहप्रमाणपनेके द्रष्टान्तका कथन
जीवका देहसे देहान्तरमें अस्तित्व, देह से पृथकत्व तथा देहान्तरमें गमन का
पूर्वक, द्रव्य और गुणोंके अभिन्न–
कारण
सिद्ध भगवन्तोंके जीवत्व एवं देह– प्रमाणत्वकी व्यवस्था
सिद्धभगवानको कार्यपना और
कारणपना होनेका निराकरण
‘जीवका अभाव सो मुक्ति’ –इस बात
का खण्डन
चेतयितृत्व गुणकी व्याख्या
किस जीवको कौनसी चेतना होती है
उसका कथन
उपयोग गुणके व्याख्यानका प्रारम्भ
ज्ञानोपयोगके भेदोंके नाम और
स्वरूपका कथन
दर्शनोपयोगके भेदोंके नाम और
स्वरूपका कथन
एक आत्मा अनेक ज्ञानात्मक होनेका
समर्थन
द्रव्यका गुणोंसे भिन्नत्व और गुणोंका
द्रव्यसे भिन्नत्व होनेमें दोष
द्रव्य और गुणोंका स्वोचित अनन्यपना
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विषय
कर्मको जीवभावका कर्तापना होनेके
सम्बन्धमेंं पूर्वपक्ष
५९ वीं गाथामें कहे हुए पूर्वपक्षके
समाधानरूप सिद्धान्त
निश्चनय से जीव को अपने भावों का
कर्तापना और पुद्गलकर्मोंका अकर्तापना
निश्चनयसे अभिन्न कारक होनेसे कर्म
और जीव स्वयं अपने–अपने रूपके
कर्ता हैं– तत्सम्बन्धी निरूपण
यदि कर्म जीवको अनयोन्य अकर्तापना
हो, तो अन्यका दिया हुआ फल अन्य
भोगे, ऐसा प्रसंग आयेगा, –ऐसा दोष
बतलाकर पूर्वपक्षका निरूपण
कर्मयोग्य पुद्गल समस्त लोकमें व्याप्त
हैं; इसलिये जहाँ आत्मा है वहाँ, बिना
लाये ही, वे विद्यमान हैं–––तत्सम्बन्धी
कथन
अन्य द्वारा किये बिना कर्म की उत्त्पत्ति
किस प्रकार होती है उसका कथन
कर्मोंकी विचित्रता अन्य द्वारा नहीं की
जाती ––––तत्सम्बन्धी कथन
निश्चयसे जीव और कर्मको निज–निज
रूपका ही कर्तापना होने पर भी,
व्यवहारसे जीवको कर्म द्वारा दिये गये
फल का उपभोग विरोधको प्राप्त नहीं
होता––– तत्सम्बन्धी कथन
कर्तृत्व और भोक्तृत्वकी व्याख्यान का
उपसंहार
कर्मसंयुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्वगुण
का व्याख्यान
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विषय
धर्म और अधर्मके उदासीनपने सम्बन्धी
हेतु
आकाशद्रव्यास्तिकाय व्याख्यान
आकाशका स्वरूप
लेाकके बाहर भी आकाश होनेकी सूचना
आकाशमें गतिहेतुत्व होनेमें
दोषका निरूपण
९२ वीं गाथा में गतिपक्षसम्बन्धी कथन
करनेके पश्चात स्थितिपक्षसम्बन्धी कथन
आकाशको गतिस्थितिहेतुत्वका अभाव
होनेके सम्बन्धमें हेतु
आकाशको गतिस्थितिहेतुत्व होनेके
खण्डन सम्बन्धी कथनका उपसंहार
धर्म, अ धर्म और लोकाकाशका
अवगाहकी अपेक्षासे एकत्व होनेपर भी
वस्तुरूपसे अन्यत्व
द्रव्योंका मूर्तामूर्तपना और
चेतनाचेतनपना
द्रव्योंका सक्रिय– निष्क्रियपना
मूर्त और अमूर्तके लक्षण
व्यवहारकाल तथा निश्चयकालका स्वरूप
कालके ‘नित्य’ और ‘क्षणिक’ ऐसे
दो विभाग
कालको द्रव्यपनेका विधान और
अस्तिकायपनेका निषेध
पंचास्तिकातके अवबोधका फल कहकर
उसके व्याख्यानका उपसंहार
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विषय
जीवव्याख्यानके उपसंहारकी तथा
अजीवव्याख्यानके प्रारंभकी सूचना
अजीवपदार्थका व्याख्यान
आकाशादिका अजीवपना दर्शानेके
हेतु
आकाशादिका अचेतनत्वसामान्य
निश्चित करनेके लिये अनुमान
जीव–पुद्गलके संयोगमें भी, उनके
भेदके कारणभूत स्वरूपका कथन
२७
जीव–पुद्गलके संयोगसे निष्पन्न
होनेवाले अन्य सात पदार्थोंके
उपोद्घात हेतु जीवकर्म और
पुद्कर्मके चक्रका वर्णन
३०
पुण्य–पापपदार्थका व्याख्यान
पुण्य–पापको योग्य भावके
स्वभावका कथन
पुण्य–पापका स्वरूप
मूर्तकर्मका समर्थन
मूर्तकर्मका मूर्तकर्मके साथ जो बन्ध–
प्रकार तथा अमूर्त जीवका मूर्त–कर्मके
साथ जो बन्ध प्रकार उसकी सूचना
आस्त्रवपदार्थका व्याख्यान
पुण्यास्त्रवका स्वरूप
प्रशस्त रागका स्वरूप
अनुकम्पाका स्वरूप
चित्तकी कलुशताका स्वरूप
पापास्त्रवका स्वरूप
पापास्त्रवभूत भावोंका विस्तार
संवरपदार्थका व्याख्यान
पपके संवरका कथन
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विषय
स्वचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेका
स्वरूप
शुद्ध स्वचारित्रप्रवृत्तिका मार्ग
निश्चयमोक्षमार्गके साधनरूपसे,
पूर्वोदिष्ट व्यवहारमोक्षमार्गका निर्देश
व्यवहारमोक्षमार्गके साध्यरूपसे,
निश्चयमोक्षमार्गका कथन
आत्माके चारित्र–ज्ञान–दर्शनपनेका
प्रकाशन
सर्व संसारी आत्मा मोक्षमार्गके योग्य
होनेका निराकरण
दर्शन–ज्ञान चारित्रका कथंचित्
बंधहेतुपना और जीवस्वभावमें नियत
चारित्रका साक्षात मोक्षहेतुपना
सूक्ष्म परसमयका स्वरूप
शुद्धसम्प्रयोगको कथंचित बंधहेतुपना
होनेसे उसे मोक्षमार्गपनेका निषेध
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कामदं मोक्षदं चैव ૐ काराय नमो नमः।। १ ।।
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान्।। २ ।।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। ३ ।।
।। श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ।।
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री पंचास्तिकायनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया श्रृणवन्तु।।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।। ९ ।।
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्।। २ ।।
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नमोऽनेकान्तविश्रान्तमहिम्ने परमात्मने।। १।।
[प्रथम, ग्रन्थके आदिमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत प्राकृतगाथाबद्ध इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ नामक शास्त्रकी ‘समयव्याख्या’ नामक संस्कृत टीका रचनेवाले आचार्य श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव श्लोक द्वारा मंगलके हेतु परमात्माको नमस्कार करते हैंः–– [श्लोकार्थः––] सहज आनन्द एवं सहज चैतन्यप्रकाशमय होनेसे जो अति महान है तथा अनेकान्तमें स्थित जिसकी महिमा है, उस परमात्माको नमस्कार हो। [१]
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२
स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः।। २।।
सम्यग्ज्ञानामलज्योतिर्जननी द्विनयाश्रया।
अथातः समयव्याख्या संक्षेपेणाऽभिधीयते।। ३।।
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
[अब टीकाकार आचार्यदेव श्लोक द्वारा जिनवाणीकी स्तुति करते हैंः––]
[श्लोकार्थः–] १स्यात्कार जिसका जीवन है ऐसी जैनी [–जिनभगवानकी] सिद्धांतपद्धति – जो कि २दुर्निवार नयसमूहके ३विरोधका नाश करनेवाली औषधि है वह– जयवंत हो। [२]
[अब टीकाकार आचार्यदेव श्लोक द्वारा इस पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रकी टीका रचने की प्रतिज्ञा करते हैं]
[श्लोकार्थः–] अब यहाँसे, जो सम्यग्ज्ञानरूपी निर्मल ज्योतिकी जननी है ऐसी द्विनयाश्रित [दो नयोंका आश्रय करनारी] ४समयव्याख्या [पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रकी समयव्याख्या नामक टीका] संक्षेपसे कही जाती है। [३]
[अब, तीन श्लोकों द्वारा टीकाकार आचार्यदेव अत्यन्त संक्षेपमें यह बतलाते हैं कि इस पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रमें किन–किन विषयोंका निरूपण हैः–––] ------------------------------------------------------- १ ़ ‘स्यात्’ पद जिनदेवकी सिद्धान्तपद्धतिका जीवन है। [स्यात् = कथंचित; किसी अपेक्षासे; किसी प्रकारसे।] २ ़ दुर्निवार = निवारण करना कठिन; टालना कठिन। ३ ़ प्रत्येक वस्तु नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक अन्तमय [धर्ममय] है। वस्तुकी सर्वथा नित्यता तथा सर्वथा
पर्याय– अपेक्षासे] अनित्यता माननेमें किंचित विरोध नहींं आता–ऐसा जिनवाणी स्पष्ट समझाती है। इसप्रकार
जिनभगवानकी वाणी स्याद्वाद द्वारा [अपेक्षा–कथनसे] वस्तुका परम यथार्थ निरूपण करके, नित्यत्व–
अनित्यत्वादि धर्मोंमें [तथा उन–उन धर्मोंको बतलानेवाले नयोंमें] अविरोध [सुमेल] अबाधितरूपसे सिद्ध
करती है और उन धर्मोंके बिना वस्तुकी निष्पत्ति ही नहीं हो सकती ऐसा निर्बाधरूपसे स्थापित करती है।
४ ़ समयव्याख्या = समयकी व्याख्या; पंचास्तिकायकी व्याख्या; द्रव्यकी व्याख्या; पदार्थकी व्याख्या। [व्याख्या = व्याख्यान; स्पष्ट कथन; विवरण; स्पष्टीकरण।]
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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
पूर्वं मूलपदार्थानामिह सूत्रकृता कृतम्।। ४।।
ततोनवपदार्थानां व्यवस्था प्रतिपादिता।। ५।।
ततस्तत्त्वपरिज्ञानपूर्वेण त्रितयात्मना।
प्रोक्ता मार्गेण कल्याणी मोक्षप्राप्तिरपश्चिमा।। ६।।
----------------------------------------------------------------------------------------------------------
प्ररूपण किया है [अर्थात् इस शास्त्रके प्रथम अधिकारमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने विश्वके मूल पदार्थोंका पाँच अस्तिकाय और छह द्रव्यकी पद्धतिसे निरूपण किया है]। [४]
[श्लोकार्थः–] पश्चात् [दूसरे अधिकारमें], जीव और अजीव– इन दो की पर्यायोंरूप नव पदार्थोंकी–कि जिनके मार्ग अर्थात् कार्य भिन्न–भिन्न प्रकारके हैं उनकी–व्यवस्था प्रतिपादित की है। [५]
[श्लोकार्थः–] पश्चात् [दूसरे अधिकारके अन्तमें] , तत्त्वके परिज्ञानपूर्वक [पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य तथा नव पदार्थोंके यथार्थ ज्ञानपूर्वक] त्रयात्मक मार्गसे [सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रात्मक मार्गसे] कल्याणस्वरूप उत्तम मोक्षप्राप्ति कही है। [६] -------------------------------------------------------------------------- इस शास्त्रके कर्ता श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव हैं। उनके दूसरे नाम पद्मनंदी, वक्रग्रीवाचार्य,
करते हुए लिखते हैं किः–– ‘अब श्री कुमारनंदी–सिद्धांतिदेवके शिष्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने–
जिनके दूसरे नाम पद्मनंदी आदि थे उन्होंने – प्रसिद्धकथान्यायसे पूर्वविदेहमें जाकर वीतराग–
सर्वज्ञ सीमंधरस्वामी तीर्थंकरपरमदेवके दर्शन करके, उनके मुखकमलसे नीकली हुई दिव्य वाणीके
श्रवणसे अवधारित पदार्थ द्वारा शुद्धात्मतत्त्वादि सारभूत अर्थ ग्रहण करके, वहाँसे लौटकर
अंतःतत्त्व एवं बहिःतत्त्वके गौण–मुख्य प्रतिपादनके हेतु अथवा शिवकुमारमहाराजादि संक्षेपरुचि
शिष्योंके प्रतिबोधनार्थ रचे हुए पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रका यथाक्रमसे अधिकारशुद्धिपूर्वक
तात्पर्यार्थरूप व्याख्यान किया जाता है।
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] पंचास्तिकायसंग्रह
४
अथ सूत्रावतारः–
अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं।। १।।
अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः।। १।।
अथात्र ‘नमो जिनेभ्यः’ इत्यनेन जिनभावनमस्काररूपमसाधारणं शास्त्रस्यादौ मङ्गलमुपात्तम्। अनादिना संतानेन प्रवर्त्तमाना अनादिनैव संतानेन प्रवर्त्तमानैरिन्द्राणां शतैर्वन्दिता ये इत्यनेन सर्वदैव ---------------------------------------------------------------------------------------------------------
अब [श्रीमद्भगत्वकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित] गाथासूत्रका अवतरण किया जाता हैः–––
अन्वयार्थः– [इन्द्रशतवन्दितेभ्यः] जो सो इन्द्रोंसे वन्दित हैं, [त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः] तीन लोकको हितकर, मधुर एवं विशद [निर्मल, स्पष्ट] जिनकी वाणी है, [अन्तातीतगुणेभ्यः] [चैतन्यके अनन्त विलासस्वरूप] अनन्त गुण जिनको वर्तता है और [जितभवेभ्यः] जिन्होंने भव पर विजय प्राप्त की है, [जिनेभ्यः] उन जिनोंको [नमः] नमस्कार हो।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] ‘जिनोंको नमस्कार हो’ ऐसा कहकर शास्त्रके आदिमें जिनको भावनमस्काररूप असाधारण १मंगल कहा। ‘जो अनादि प्रवाहसे प्रवर्तते [–चले आरहे ] हुए अनादि प्रवाहसे ही प्रवर्तमान [–चले आरहे] २सौ सौ इन्द्रोंसेंवन्दित हैं’ ऐसा कहकर सदैव देवाधिदेवपनेके कारण वे ही [जिनदेव ही] असाधारण नमस्कारके योग्य हैं ऐसा कहा। --------------------------------------------------------------------------
और तिर्यंचोंका १– इसप्रकार कुल १०० इन्द्र अनादि प्रवाहरूपसें चले आरहे हैं ।
निःसीम गुण धरनारने, जितभव नमुं जिनराजने। १।
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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
देवधिदेवत्वात्तेषामेवासाधारणनमस्कारार्हत्वमुक्तम्। त्रिभुवनमुर्ध्वाधोमध्यलोकवर्ती समस्त एव जीवलोकस्तस्मै निर्व्योबाधविशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भो–पायाभिधायित्वाद्धितं परमार्थरसिकजनमनोहारित्वान्मधुरं, निरस्तसमस्तशंकादिदोषास्पदत्वाद्वि–शदं वाक्यं दिव्यो ध्वनिर्येषामित्यनेन समस्तवस्तुयाथात्म्योपदेशित्वात्प्रेक्षावत्प्रतीक्ष्यत्वमाख्यातम्। अन्तमतीतः क्षेत्रानवच्छिन्नः कालानवच्छिन्नश्च परमचैतन्यशक्तिविलासलक्षणो गुणो येषामित्यनेन तु परमाद्भुतज्ञानातिशयप्रकाशनादवाप्तज्ञानातिशयानामपि योगीन्द्राणां वन्धत्वमुदितम्। जितो भव आजवंजवो यैरित्यनेन तु कुतकृत्यत्वप्रकटनात्त एवान्येषामकृतकृत्यानां शरणमित्युपदिष्टम्। इति सर्वपदानां तात्पर्यम्।। १।। --------------------------------------------------------------------------------------------- ‘जिनकी वाणी अर्थात दिव्यध्वनि तीन लोकको –ऊर्ध्व–अधो–मध्य लोकवर्ती समस्त जीवसमुहको– निर्बाध विशुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका उपाय कहनेवाली होनेसे हितकर है, परमार्थरसिक जनोंके मनको हरनेवाली होनेसे मधुर है और समस्त शंकादि दोषोंके स्थान दूर कर देनेसे विशद [निर्मल, स्पष्ट] है’ ––– ऐसा कहकर [जिनदेव] समस्त वस्तुके यथार्थ स्वरूपके उपदेशक होनेसे विचारवंत बुद्धिमान पुरुषोंके बहुमानके योग्य हैं [अर्थात् जिनका उपदेश विचारवंत बुद्धिमान पुरुषोंको बहुमानपूर्वक विचारना चाहिये ऐसे हैं] ऐसा कहा। ‘अनन्त–क्षेत्रसे अन्त रहित और कालसे अन्त रहित–––परमचैतन्यशक्तिके विलासस्वरूप गुण जिनको वर्तता है’ ऐसा कहकर [जिनोंको] परम अदभुत ज्ञानातिशय प्रगट होनेके कारण ज्ञानातिशयको प्राप्त योगन्द्रोंसे भी वंद्य है ऐसा कहा। ‘भव अर्थात् संसार पर जिन्होंने विजय प्राप्त की है’ ऐसा कहकर कृतकृत्यपना प्रगट हो जानेसे वे ही [जिन ही] अन्य अकृतकृत्य जीवोंको शरणभूत हैं ऐसा उपदेश दिया।– ऐसा सर्व पदोंका तात्पर्य है।
भावार्थः– यहाँ जिनभगवन्तोंके चार विशेषणोंका वर्णन करके उन्हें भावनमस्कार किया है। [१] प्रथम तो, जिनभगवन्त सौ इन्द्रोंसे वंद्य हैं। ऐसे असाधारण नमस्कारके योग्य अन्य कोई नहीं है, क्योंकि देवों तथा असुरोंमें युद्ध होता है इसलिए [देवाधिदेव जिनभगवानके अतिरिक्त] अन्य कोई भी देव सौ इन्द्रोंसे वन्दित नहीं है। [२] दूसरे, जिनभगवानकी वाणी तीनलोकको शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका उपाय दर्शाती है इसलिए हितकर है; वीतराग निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न सहज –अपूर्व परमानन्दरूप पारमार्थिक सुखरसास्वादके रसिक जनोंके मनको हरती है इसलिए [अर्थात् परम समरसीभावके रसिक जीवोंको मुदित करती है इसलिए] मधुर है;
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६
शुद्ध जीवास्तिकायादि सात तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य और पाँच अस्तिकायका संशय–विमोह– विभ्रम रहित निरूपण क्रती है इसलिए अथवा पूर्वापरविरोधादि दोष रहित होनेसे अथवा युगपद् सर्व जीवोंको अपनी–अपनी भाषामें स्पष्ट अर्थका प्रतिपादन करती है इसलिए विशद–स्पष्ट– व्यक्त है। इसप्रकार जिनभगवानकी वाणी ही प्रमाणभूत है; एकान्तरूप अपौरुषेय वचन या विचित्र कथारूप कल्पित पुराणवचन प्रमाणभूत नहीं है। [३] तीसरे, अनन्त द्रव्य–क्षेत्र–काल–भावका जाननेवाला अनन्त केवलज्ञानगुण जिनभगवन्तोंको वर्तता है। इसप्रकार बुद्धि आदि सात ऋद्धियाँ तथा मतिज्ञानादि चतुर्विध ज्ञानसे सम्पन्न गणधरदेवादि योगन्द्रोंसे भी वे वंद्य हैं। [४] चौथे, पाँच प्रकारके संसारको जिनभगवन्तोंने जीता है। इसप्रकार कृतकृत्यपनेके कारण वे ही अन्य अकृतकृत्य जीवोंको शरणभूत है, दूसरा कोई नहीं।– इसप्रकार चार विशेषणोंसे युक्त जिनभगवन्तोंको ग्रंथके आदिमें भावनमस्कार करके मंगल किया।
प्रश्नः– जो शास्त्र स्वयं ही मंगल हैं, उसका मंगल किसलिए किया जाता है?
उत्तरः– भक्तिके हेतुसे मंगलका भी मंगल किया जाता है। सूर्यकी दीपकसे , महासागरकी जलसे, वागीश्वरीकी [सरस्वती] की वाणीसे और मंगलकी मंगलसे अर्चना की जाती है ।। १।।
-------------------------------------------------------------------------- इस गाथाकी श्रीजयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें, शास्त्रका मंगल शास्त्रका निमित्त, शास्त्रका हेतु [फल], शास्त्रका
पुनश्च, श्री जयसेनाचार्यदेवने इस गाथाके शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ एवं भावार्थ समझाकर, ‘इसप्रकार व्याख्यानकालमे सर्वत्र शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ प्रयुक्त करने योग्य हैं’ ––– ऐसा कहा है।
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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
समयो ह्यागमः। तस्य प्रणामपूर्वकमात्मनाभिधानमत्र प्रतिज्ञातम्। युज्यते हि स प्रणन्तुमभिधातुं चाप्तोपदिष्ठत्वे सति सफलत्वात्। तत्राप्तोपदिष्टत्वमस्य श्रमणमुखोद्गतार्थत्त्वात्। श्रमणा हि महाश्रमणाः सर्वज्ञवीतरागाः। अर्थः पुनरनेकशब्दसंबन्धेनाभिधीयमानो वस्तुतयैकोऽभिधेय। सफलत्वं तु चतसृणां ---------------------------------------------------------------------------------------------
मुखसे कहे गये पदार्थोंका कथन करनेवाले], [चतुर्गतिनिवारणं] चार गतिका निवारण करनेवाले और [सनिर्वाणम्] निर्वाण सहित [–निर्वाणके कारणभूत] – [इमं समयं] ऐसे इस समयको [शिरसा प्रणम्य] शिरसा नमन करके [एषवक्ष्यामि] मैं उसका कथन करता हूँ; [श्रृणुत] वह श्रवण करो।
[श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने] प्रतिज्ञा की है। वह [समय] प्रणाम करने एवं कथन करने योग्य है, क्योंकि वह आप्त द्वारा उपदिष्ट होनेसे सफल है। वहाँ, उसका आप्त द्वारा उपदिष्टपना इसलिए है कि जिससे वह ‘श्रमणके मुखसे निकला हुआ अर्थमय’ है। ‘श्रमण’ अर्थात् महाश्रमण– सर्वज्ञवीतरागदेव; और ‘अर्थ’ अर्थात् अनेक शब्दोंके सम्बन्धसे कहा जानेवाला, वस्तुरूपसे एक ऐसा पदार्थ। पुनश्च उसकी [–समयकी] सफलता इसलिए है कि जिससे वह समय
--------------------------------------------------------------------------
हैं और वे वीतराग [मोहरागद्वेषरहित] होनेके कारण उन्हें असत्य कहनेका लेशमात्र प्रयोजन नहीं रहा है;
इसलिए वीतराग–सर्वज्ञदेव सचमुच आप्त हैं। ऐसे आप्त द्वारा आगम उपदिष्ट होनेसे वह [आगम] सफल
हैं।]
जिनवदननिर्गत–अर्थमय, चउगतिहरण, शिवहेतु छे। २।
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८
नारकतिर्यग्मनुष्यदेवत्वलक्षणानां गतीनां निवारणत्वात् पारतंक्र्यनिवृत्तिलक्षणस्य निर्वाणस्य शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपस्य परम्परया कारणत्वात् स्वातंक्र्यप्राप्तिलक्षणस्य च फलस्य सद्भावादिति।। २।।
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[१] ‘नारकत्व’ तिर्यचत्व, मनुष्यत्व तथा देवत्वस्वरूप चार गतियोंका निवारण’ करने के कारण और [२] शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप ‘निर्वाणका परम्परासे कारण’ होनेके कारण [१] परतंत्रतानिवृति जिसका लक्षण है और [२] स्वतंत्रताप्राप्ति जिसका लक्षण है –– ऐसे १फल सहित है।
भावार्थः– वीतरागसर्वज्ञ महाश्रमणके मुखसे नीकले हुए शब्दसमयको कोई आसन्नभव्य पुरुष सुनकर, उस शब्दसमयके वाच्यभूत पंचास्तिकायस्वरूप अर्थ समयको जानता है और उसमें आजाने वाले शुद्धजीवास्तिकायस्वरूप अर्थमें [पदार्थमें] वीतराग निर्विकल्प समाधि द्वारा स्थित रहकर चार गतिका निवारण करके, निर्वाण प्राप्त करके, स्वात्मोत्पन्न, अनाकुलतालक्षण, अनन्त सुखको प्राप्त करता है। इस कारणसे द्रव्यागमरूप शब्दसमय नमस्कार करने तथा व्याख्यान करने योग्य है।।२।।
-------------------------------------------------------------------------- मूल गाथामें ‘समवाओ’ शब्द हैे; संस्कृत भाषामें उसका अर्थ ‘समवादः’ भी होता है और ‘ समवायः’ भी
१। चार गतिका निवारण [अर्थात् परतन्त्रताकी निवृति] और निर्वाणकी उत्पत्ति [अर्थात् स्वतन्त्रताकी प्राप्ति]
ते लोक छे, आगळ अमाप अलोक आभस्वरूप छे। ३।
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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
तत्र च पञ्चानामस्तिकायानां समो मध्यस्थो रागद्वेषाभ्यामनुपहतो वर्णपदवाक्य–सन्निवेशविशिष्टः पाठो वादः शब्दसमयः शब्दागम इति यावत्। तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयोच्छेदे सति सम्यग्वायः परिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानगम इति यावत्। तेषामेवाभिधानप्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवायः संधातोऽर्थसमयः सर्वपदार्थसार्थ इति यावत्। तदत्र ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थ शब्दसमयसम्बन्धेनार्थसमय ोऽभिधातुमभिप्रेतः। अथ तस्यैवार्थसमयस्य द्वैविध्यं लोकालोक–विकल्पात्।
--------------------------------------------------------------------------------------------- उनका समवाय [–पंचास्तिकायका सम्यक् बोध अथवा समूह] [समयः] वह समय है [इति] ऐसा [जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्] जिनवरोंने कहा है। [सः च एव लोकः भवति] वही लोक है। [–पाँच अस्तिकायके समूह जितना ही लोक है।]; [ततः] उससे आगे [अमितः अलोकः] अमाप अलोक [खम्] आकाशस्वरूप है।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें शब्दरूपसे, ज्ञानरूपसे और अर्थरूपसे [–शब्दसमय, ज्ञानसमय और अर्थसमय]– ऐसे तीन प्रकारसे ‘समय’ शब्दका अर्थ कहा है तथा लोक–अलोकरूप विभाग कहा है।
वहाँ, [१] ‘सम’ अर्थात् मध्यस्थ यानी जो रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ; ‘वाद’ अर्थात् वर्ण [अक्षर], पद [शब्द] और वाक्यके समूहवाला पाठ। पाँच अस्तिकायका ‘समवाद’ अर्थात मध्यस्थ [–रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ] पाठ [–मौखिक या शास्त्रारूढ़ निरूपण] वह शब्दसमय है, अर्थात् शब्दागम वह शब्दसमय है। [२] मिथ्यादर्शनके उदयका नाश होने पर, उस पंचास्तिकायका ही सम्यक् अवाय अर्थात् सम्यक् ज्ञान वह ज्ञानसमय है, अर्थात् ज्ञानागम वह ज्ञानसमय है। [३] कथनके निमित्तसे ज्ञात हुए उस पंचास्तिकायका ही वस्तुरूपसे समवाय अर्थात् समूह वह अर्थसमय है, अर्थात् सर्वपदार्थसमूह वह अर्थसमय है। उसमें यहाँ ज्ञान समयकी प्रसिद्धिके हेतु शब्दसमयके सम्बन्धसे अर्थसमयका कथन [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव] करना चाहते हैं। -------------------------------------------------------------------------- समवाय =[१] सम्+अवाय; सम्यक् अवाय; सम्यक् ज्ञान। [२] समूह। [इस पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रमें यहाँ
समवाय वह समय है।’ ऐसा कहा है; इसलिये ‘छह द्रव्यका समवाय वह समय है’ ऐसे कथनके भावके साथ
इस कथनके भावका विरोध नहीं समझना चाहिये, मात्र विवक्षाभेद है ऐसा समझना चाहिये। और इसी प्रकार
अन्य स्थान पर भी विवक्षा समझकर अविरुद्ध अर्थ समझ लेना चाहिये]
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१०
स एव पञ्चास्तिकायसमवायो यावांस्तावाँल्लोकस्ततः परममितोऽनन्तो ह्यलोकः, स तु नाभावमात्रं किन्तु तत्समवायातिरिक्तपरिमाणमनन्तक्षेत्रं खमाकाशमिति।। ३।।
अस्तित्वे च नियता अनन्यमया अणुमहान्तः।। ४।।
--------------------------------------------------------------------------------------------- अब, उसी अर्थसमयका, १लोक और अलोकके भेदके कारण द्विविधपना है। वही पंचास्तिकायसमूह जितना है, उतना लोक है। उससे आगे अमाप अर्थात अनन्त अलोक है। वह अलोक अभावमात्र नहीं है किन्तु पंचास्तिकायसमूह जितना क्षेत्र छोड़ कर शेष अनन्त क्षेत्रवाला आकाश है [अर्थात अलोक शून्यरूप नहीं है किन्ंतु शुद्ध आकाशद्रव्यरूप है।। ३।।
अन्वयार्थः– [जीवाः] जीव, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकाय, [धर्माधर्मौ] धर्म, अधर्म [तथा एव] तथा [आकाशम्] आकाश [अस्तित्वे नियताः] अस्तित्वमें नियत, [अनन्यमयाः] [अस्तित्वसे] अनन्यमय [च] और [अणुमहान्तः] अणुमहान [प्रदेशसे बडे़] हैं। -------------------------------------------------------------------------- १। ‘लोक्यन्ते द्रश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोकः’ अर्थात् जहाँ जीवादिपदार्थ दिखाई देते हैं, वह लोक है। अणुमहान=[१] प्रदेशमें बडे़ अर्थात् अनेकप्रदेशी; [२] एकप्रदेशी [व्यक्ति–अपेक्षासे] तथा अनेकप्रदेशी
अस्तित्वनियत, अनन्यमय ने अणुमहान पदार्थ छे। ४।
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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
अत्र पञ्चास्तिकायानां विशेषसंज्ञा सामान्यविशेषास्तित्वं कायत्वं चोक्तम्। तत्र जीवाः पुद्गलाः धर्माधर्मौ आकाशमिति तेषां विशेषसंज्ञा अन्वर्थाः प्रत्येयाः। सामान्यविशेषास्तित्वञ्च तेषामुत्पादव्ययध्रौव्यमय्यां सामान्यविशेषसत्तायां नियतत्वाद्वय वस्थितत्वादवसेयम्। अस्तित्वे नियतानामपि न तेषामन्यमयत्वम्, यतस्ते सर्वदैवानन्य–मया आत्मनिर्वृत्ताः। अनन्यमयत्वेऽपि तेषामस्तित्वनियतत्वं नयप्रयोगात्। द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ– द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च। तत्र न खल्वेकनयायत्तादेशना किन्तु तदुभयायता। ततः पर्यायार्थादेशादस्तित्वे स्वतः कथंचिद्भिन्नऽपि व्यवस्थिताः द्रव्यार्थादेशात्स्वयमेव सन्तः सतोऽनन्यमया भवन्तीति। कायत्वमपि तेषामणुमहत्त्वात्। अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्तोऽमूर्ताश्च निर्विभागांशास्तैः महान्तोऽणुमहान्तः प्रदेशप्रचयात्मका इति सिद्धं तेषां कायत्वम्। अणुभ्यां। महान्त इतिः व्यत्पत्त्या ---------------------------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] पाँच अस्तिकायोंकी विशेषसंज्ञा, सामान्य विशेष–अस्तित्व तथा कायत्व कहा है।
वहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश–यह उनकी विशेषसंज्ञाएँ अन्वर्थ जानना।
उनके सामान्यविशेष–अस्तित्व भी है ऐसा निश्चित करना चाहिये। वे अस्तित्वमें नियत होने पर भी [जिसप्रकार बर्तनमें रहनेवाला घी बर्तनसे अन्यमय है उसीप्रकार] अस्तित्वसे अन्यमय नहीं है; क्योंकि वे सदैव अपनेसे निष्पन्न [अर्थात् अपनेसे सत्] होनेके कारण [अस्तित्वसे] अनन्यमय है [जिसप्रकार अग्नि उष्णतासे अनन्यमय है उसीप्रकार]। ‘अस्तित्वसे अनन्यमय’ होने पर भी उनका ‘अस्तित्वमें नियतपना’ नयप्रयोगसे है। भगवानने दो नय कहे है – द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वहाँ कथन एक नयके आधीन नहीं होता किन्तु उन दोनों नयोंके आधीन होता है। इसलिये वे पर्यायार्थिक कथनसे जो अपनेसे कथंचित् भिन्न भी है ऐसे अस्तित्वमें व्यवस्थित [निश्चित स्थित] हैं और द्रव्यार्थिक कथनसे स्वयमेव सत् [–विद्यमान] होनेके कारण अस्तित्वसे अनन्यमय हैं। --------------------------------------------------------------------------- अन्वर्थ=अर्थका अनुसरण करती हुई; अर्थानुसार। [पाँच अस्तिकायोंके नाम उनके अर्थानुसार हैं।]