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इह हि जीवैः स्पर्शनरसनध्राणचक्षुर्भिरिन्द्रियैस्तद्विषयभूताः स्पर्शरसगंधवर्णस्वभावा अर्था गृह्यंते।ः। श्रोत्रेन्द्रियेण तु त एव तद्विषयहेतुभूतशब्दाकारपरिणता गृह्यंते। ते कदाचित्स्थूल– स्कंधत्वमापन्नाः कदाचित्सूक्ष्मत्वमापन्नाः कदाचित्परमाणुत्वमापन्नाः इन्द्रियग्रहणयोग्यतासद्भावाद् गृह्यमाणा अगृह्यमाणा वा मूर्ता इत्युच्यंते। शेषमितरत् समस्तमप्यर्थजातं स्पर्शरस– गंधवर्णाभावस्वभावमिन्द्रियग्रहणयोग्यताया अभावादमूर्तमित्युच्यते। चित्तग्रहणयोग्यतासद्भाव– भाग्भवति तदुभयमपि, चितं, ह्यनियतविषयमप्राप्यकारि मतिश्रुतज्ञानसाधनीभूतं मूर्तममूर्तं च समाददातीति।। ९९।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, मूर्त और अमूर्तके लक्षणका कथन है।
इस लोकमें जीवों द्वारा स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, ध्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय द्वारा उनके [–उन इन्द्रियोंके] विषयभूत, स्पर्श–रस–गंध–वर्णस्वभाववाले पदार्थ [–स्पर्श, रस, गंध और वर्ण जिनका स्वभाव है ऐसे पदार्थ] ग्रहण होते हैं [–ज्ञात होते हैं]; और श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा वही पदार्थ उसके [श्रोत्रैन्द्रियके] १विषयहेतुभूत शब्दाकार परिणमित होते हुए ग्रहण होते हैं। वे [वे पदार्थ], कदाचित् स्थूलस्कन्धपनेको प्राप्त होते हुए, कदाचित् सूक्ष्मत्वको [सूक्ष्मस्कंधपनेको] प्राप्त होते हुए और कदाचित् परमाणुपनेको प्राप्त होते हुए इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होते हों या न होते हों, इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होनेकी योग्यताका [सदैव] सद्भाव होनेसे ‘मूर्त’ कहलाते हैं।
स्पर्श–रस–गंध–वर्णका अभाव जिसका स्वभाव है ऐसा शेष अन्य समस्त पदार्थसमूह इीनद्रयों द्वारा ग्रहण होनेकी योग्यताके अभावके कारण ‘अमूर्त’ कहलाता है।
वे दोनों [–पूर्वोक्त दोनों प्रकारके पदार्थ] चित्त द्वारा ग्रहण होनेकी योग्यताके सद्भाववाले हैं; चित्त– जो कि २ अनियत विषयवाला, ३अज्जाप्यकारी और मतिश्रुतज्ञानके साधनभूत [–मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानमें निमित्तभूत] है वह–मूर्त तथा अमूर्तको ग्रहण करता है [–जानता है]।। ९९।।
इस प्रकार चूलिका समाप्त हुई। -------------------------------------------------------------------------- ४। उन स्पर्श–रस–गंध–वर्णसवभाववाले पदार्थोहको [अर्थात् पुद्गलोंको] श्रोत्रैन्द्रियके विषय होनेमें हेतुभूत
हैं।
५। अनियत=अनिश्चित। [जिस प्रकार पाँच इन्द्रियोमेंसे प्रतयेक इन्द्रियका विषय नियत है उस प्रकार मनका
६। अज्जाप्यकारी=ज्ञेय विषयोंका स्पर्श किये बिना कार्य करनेवाला यजाननेवाला। [मन और चक्षु अज्जाप्यकारी
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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
अथ कालद्रव्यव्याख्यानम्।
दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो।। १००।।
द्वयोरेष स्वभावः कालः क्षणभङ्गुरो नियतः।। १००।।
व्यवहारकालस्य निश्चयकालस्य च स्वरूपाख्यानमेतत्।
त्त्र क्रमानुपाती समयाख्यः पर्यायो व्यवहारकालः, तदाधारभूतं द्रव्यं निश्चयकालः। त्त्र व्यवहारकालो निश्चयकालपर्यायरूपोपि जीवपुद्गलानां परिणामेनावच्छिद्यमानत्वात्तत्परिणामभव इत्युपगीयते, जीवपुद्गलानां परिणामस्तु बहिरङ्गनिमित्तभूतद्रव्यकालसद्भावे सति संभूतत्वाद्र्रव्य– ----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [कालः परिणामभवः] काल परिणामसे उत्पन्न होता है [अर्थात् व्यवहारकाल का माप जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा होता है]; [परिणामः द्रव्यकालसंभूतः] परिणाम द्रव्यकालसे उत्पन्न होता है।– [द्वयोः एषः स्वभावः] यह, दोनोंका स्वभाव है। [कालः क्षणभुङ्गुरः नियतः] काल क्षणभंगुर तथा नित्य है।
टीकाः– यह, व्यवहारकाल तथा निश्चयकालके स्वरूपका कथन है।
वहाँ, ‘समय’ नामकी जो क्रमिक पर्याय सो व्यवहारकाल है; उसके आधारभूत द्रव्य वह निश्चयकाल है।
वहाँ, व्यवहारकाल निश्चयकालकी पर्यायरूप होने पर भी जीव–पुद्गलोंके परिणामसे मापा जाता है – ज्ञात होता है इसलिये ‘जीव–पुद्गलोंके परिणामसे उत्पन्न होनेवाला’ कहलाता है; और जीव–पुद्गलोंके परिणाम बहिरंग–निमित्तभूत द्रव्यकालके सद्भावमें उत्पन्न होनेके कारण ‘द्रव्यकालसे उत्पन्न होनेवाले’ कहलाते हैं। वहाँ तात्पर्य यह है कि – व्यवहारकाल जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा --------------------------------------------------------------------------
–आ छे स्वभावो उभयना; क्षणभंगी ने ध्रुव काळ छे। १००।
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कालसंभूत इत्यभिधीयते। तत्रेदं तात्पर्यं–व्यवहारकालो जीवपुद्गलपरिणामेन निश्चीयते, निश्चय– कालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्त्येति। तत्र क्षणभङ्गी व्यवहारकालः सूक्ष्मपर्यायस्य तावन्मात्रत्वात्, नित्यो निश्चयकालः खगुणपर्यायाधारद्रव्यत्वेन सर्वदैवाविनश्वरत्वादिति।। १००।।
उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई।। १०१।।
उत्पन्नप्रध्वंस्यपरो दीर्धांतरस्थायी।। १०१।।
----------------------------------------------------------------------------- निश्चित होता है; और निश्चयकाल जीव–पुद्गलोंके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा [अर्थात् जीव–पुद्गलोंके परिणाम अन्य प्रकारसे नहीं बन सकते इसलिये] निश्चित होता है।
वहाँ, व्यवहारकाल क्षणभंगी है, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय मात्र उतनी ही [–क्षणमात्र जितनी ही, समयमात्र जितनी ही] है; निश्चयकाल नित्य है, क्योंकि वह अपने गुण–पर्यायोंके आधारभूत द्रव्यरूपसे सदैव अविनाशी है।। १००।।
अन्वयार्थः– [कालः इति च व्यपदेशः] ‘काल’ ऐसा व्यपदेश [सद्गावप्ररूपकः] सद्भावका प्ररूपक है इसलिये [नित्यः भवति] काल [निश्चयकाल] नित्य है। [उत्पन्नध्वंसी अपरः] उत्पन्नध्वंसी ऐसा जो दूसरा काल [अर्थात् उत्पन्न होते ही नष्ट होनेवाला जो व्यवहारकाल] वह [दीर्धांतरस्थायी] [क्षणिक होने पर भी प्रवाहअपेक्षासे] दीर्ध स्थितिका भी [कहा जाता] है। -------------------------------------------------------------------------- क्षणभंगी=प्रति क्षण नष्ट होनेवाला; प्रतिसमय जिसका ध्वंस होता है ऐसा; क्षणभंगुर; क्षणिक।
उत्पन्नध्वंसी अन्य जे ते दीर्धस्थायी पण ठरे। १०१।
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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
नित्यक्षणिकत्वेन कालविभागख्यापनमेतत्।
यो हि द्रव्यविशेषः ‘अयं कालः, अयं कालः’ इति सदा व्यपदिश्यते स खलु स्वस्य सद्भावमावेदयन् भवति नित्यः। यस्तु पुनरुत्पन्नमात्र एव प्रध्वंस्यते स खलु तस्यैव द्रव्यविशेषस्य समयाख्यः पर्याय इति। स तूत्संगितक्षणभंगोऽप्युपदर्शित–स्वसंतानो नयबलाद्रीर्धातरस्थाय्युपगीयमानो न दुष्यति; ततो न खल्वावलिकापल्योपम–सागरोपमादिव्यवहारो विप्रतिषिध्यते। तदत्र निश्चयकालो नित्यः द्रव्यरूपत्वात्, व्यवहारकालः क्षणिकः पर्यायरूपत्वादिति।। १०१।।
लब्भंति दव्वसण्णं कालस्स दु णत्थि कायत्तं।। १०२।।
लभंते द्रव्यसंज्ञां कालस्य तु नास्ति कायत्वम्।। १०२।।
-----------------------------------------------------------------------------
‘यह काल है, यह काल है’ ऐसा करके जिस द्रव्यविशेषका सदैव व्यपदेश [निर्देश, कथन] किया जाता है, वह [द्रव्यविशेष अर्थात् निश्चयकालरूप खास द्रव्य] सचमुच अपने सद्भावको प्रगट करता हुआ नित्य है; और जो उत्पन्न होते ही नष्ट होता है, वह [व्यवहारकाल] सचमुच उसी द्रव्यविशेषकी ‘समय’ नामक पर्याय है। वह क्षणभंगुर होने पर भी अपनी संततिको [प्रवाहको] दर्शाता है इसलिये उसे नयके बलसे ‘दीर्घ काल तक टिकनेवाला’ कहनेमें दोष नहीं है; इसलिये आवलिका, पल्योपम, सागरोपम इत्यादि व्यवहारका निषेध नहीं किया जाता।
इस प्रकार यहाँ ऐसा कहा है कि–निश्चयकाल द्रव्यरूप होनेसे नित्य है, व्यवहारकाल पर्यायरूप होनेसे क्षणिक है।। १०१।।
--------------------------------------------------------------------------
छे ‘द्रव्य’ संज्ञा सर्वने, कायत्व छे नहि काळने । १०२।
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कालस्य द्रव्यास्तिकायत्वविधिप्रतिषेधविधानमेतत्।
यथा खलु जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानि सकलद्रव्यलक्षणसद्भावाद्र्रव्यव्यपदेशभाञ्जि भवन्ति, तथा कालोऽपि। इत्येवं षड्द्रव्याणि। किंतु यथा जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां द्वयादिप्रदेशलक्षणत्वमस्ति अस्तिकायत्वं, न तथा लोकाकाशप्रदेशसंख्यानामपि कालाणूनामेक–प्रदेशत्वादस्त्यस्तिकायत्वम्। अत एव च पञ्चास्तिकायप्रकरणे न हीह मुख्यत्वेनोपन्यस्तः कालः। जीवपुद्गलपरिणामावच्छिद्यमानपर्यायत्वेन तत्परिणामान्यथानुपपत्यानुमीयमानद्रव्यत्वेना– त्रैवांतर्भावितः।। १०२।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, कालको द्रव्यपनेके विधानका और अस्तिकायपनेके निषेधका कथन है [अर्थात् कालको द्रव्यपना है किन्तु अस्तिकायपना नहींं है ऐसा यहाँ कहा है]।
जिस प्रकार वास्तवमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशको द्रव्यके समस्त लक्षणोंका सद्भाव होनेसे वे ‘द्रव्य’ संज्ञाको प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार काल भी [उसे द्रव्यके समस्त लक्षणोंका सद्भाव होनेसे] ‘द्रव्य’ संज्ञाको प्राप्त करता है। इस प्रकार छह द्रव्य हैं। किन्तु जिस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशको १द्वि–आदि प्रदेश जिसका लक्षण है ऐसा अस्तिकायपना है, उस प्रकार कालाणुओंको– यद्यपि उनकी संख्या लोकाकाशके प्रदेशोंं जितनी [असंख्य] है तथापि – एकप्रदेशीपनेके कारण अस्तिकायपना नहीं है। और ऐसा होनेसे ही [अर्थात् काल अस्तिकाय न होनेसे ही] यहाँ पंचास्तिकायके प्रकरणमें मुख्यरूपसे कालका कथन नहीं किया गया है; [परन्तु] जीव–पुद्गलोंके परिणाम द्वारा जो ज्ञात होती है – मापी जाती है ऐसी उसकी पर्याय होनेसे तथा जीव–पुद्गलोंके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है ऐसा वह द्रव्य होनेसे उसे यहाँ २अन्तर्भूत किया गया है।। १०२।।
इस प्रकार कालद्रव्यका व्याख्यान समाप्त हुआ। -------------------------------------------------------------------------- १। द्वि–आदि=दो या अधिक; दो से लेकर अनन्त तक। २। अन्तर्भूत करना=भीतर समा लेना; समाविष्ट करना; समावेश करना [इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रमें
पुद्गलास्तिकायके परिणामोंका वर्णन करते हुए, उन परिणामोंं द्वारा जिसके परिणाम ज्ञात होते है– मापे जाते
हैं उस पदार्थका [कालका] तथा उन परिणामोंकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है उस
पदार्थका [कालका] गौणरूपसे वर्णन करना उचित है – ऐसा मानकर यहाँ पंचास्तिकायप्रकरणमें गौणरूपसे
कालके वर्णनका समावेश किया गया है।]
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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
जो मुयदि रागदासे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं।। १०३।।
यो मुञ्चति रागद्वेषौ स गाहते दुःखपरिमोक्षम्।। १०३।।
तदवबोधफलपुरस्सरः पञ्चास्तिकायव्याख्योपसंहारोऽयम्।
न खलु कालकलितपञ्चास्तिकायेभ्योऽन्यत् किमपि सकलेनापि प्रवचनेन प्रतिपाद्यते। ततः प्रवचनसार एवायं पञ्चास्तिकायसंग्रहः। यो हि नामामुं समस्तवस्तुतत्त्वाभिधायिनमर्थतोऽ– र्थितयावबुध्यात्रैव जीवास्तिकायांतर्गतमात्मानं स्वरूपेणात्यंतविशुद्धचैतन्यस्वभावं निश्चित्य पर– -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [एवम्] इस प्रकार [प्रवचनसारं] प्रवचनके सारभूत [पञ्चास्तिकायसंग्रहं] ‘पंचास्तिकायसंग्रह’को [विज्ञाय] जानकर [यः] जो [रागद्वेषौ] रागद्वेषको [मुञ्चति] छोड़ता है, [सः] वह [दुःखपरिमोक्षम् गाहते] दुःखसे परिमुक्त होता है।
टीकाः– यहाँ पंचास्तिकायके अवबोधका फल कहकर पंचास्तिकायके व्याख्यानका उपसंहार किया गया है।
वास्तवमें सम्पूर्ण [द्वादशांगरूपसे विस्तीर्ण] प्रवचन काल सहित पंचास्तिकायसे अन्य कुछ भी प्रतिपादित नहीं करता; इसलिये प्रवचनका सार ही यह ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ है। जो पुरुष समस्तवस्तुतत्त्वका कथन करनेवाले इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ को १अर्थतः २अर्थीरूपसे जानकर, -------------------------------------------------------------------------- १। अर्थत=अर्थानुसार; वाच्यका लक्षण करके; वाच्यसापेक्ष; यथार्थ रीतिसे। २। अर्थीरूपसे=गरजीरूपसे; याचकरूपसे; सेवकरूपसे; कुछ प्राप्त करने के प्रयोजनसे [अर्थात् हितप्राप्तिके
जे जीव छोडे रागद्वेष, लहे सकलदुखमोक्षने। १०३।
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स्परकार्यकारणीभूतानादिरागद्वेषपरिणामकर्मबंधसंतति–समारोपितस्वरूपविकारं तदात्वेऽनुभूयमानमवलोक्य तत्कालोन्मीलितविवेकज्योतिः कर्मबंधसंतति–प्रवर्तिकां रागद्वेषपरिणतिमत्यस्यति, स खलु जीर्यमाणस्नेहो जघन्यस्नेहगुणाभिमुखपरमाणु– बद्भाविबंधपराङ्मुखः पूर्वबंधात्प्रच्यवमानः शिखितप्तोदकदौस्थ्यानुकारिणो दुःखस्य परिमोक्षं विगाहत इति।। १०३।। -----------------------------------------------------------------------------
इसीमें कहे हुए जीवास्तिकायमें १अन्तर्गत स्थित अपनेको [निज आत्माको] स्वरूपसे अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभाववाला निश्चित करके २परस्पर कार्यकारणभूत ऐसे अनादि रागद्वेषपरिणाम और कर्मबन्धकी परम्परासे जिसमें ३स्वरूपविकार ४आरोपित है ऐसा अपनेको [निज आत्माको] उस काल अनुभवमें आता देखकर, उस काल विवेकज्योति प्रगट होनेसे [अर्थात् अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभावका और विकारका भेदज्ञान उसी काल प्रगट प्रवर्तमान होनेसे] कर्मबन्धकी परम्पराका प्रवर्तन करनेवाली रागद्वेषपरिणतिको छोड़ता है, वह पुरुष, वास्तवमें जिसका ५स्नेह जीर्ण होता जाता है ऐसा, जघन्य ६स्नेहगुणके सन्मुख वर्तते हुए परमाणुकी भाँति भावी बन्धसे पराङ्मुख वर्तता हुआ, पूर्व बन्धसे छूटता हुआ, अग्नितप्त जलकी ७दुःस्थिति समान जो दुःख उससे परिमुक्त होता है।। १०३।। -------------------------------------------------------------------------- १। जीवास्तिकायमें स्वयं [निज आत्मा] समा जाता है, इसलिये जैसा जीवास्तिकायके स्वरूपका वर्णन किया
२। रागद्वेषपरिणाम और कर्मबन्ध अनादि कालसे एक–दूसरेको कार्यकारणरूप हैं। ३। स्वरूपविकार = स्वरूपका विकार। [स्वरूप दो प्रकारका हैः [१] द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत स्वरूप, और
होता है, द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत स्वरूपमें नहीं; वह [द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत] स्वरूप तो सदैव अत्यन्त
विशुद्ध चैतन्यात्मक है।]
४। आरोपित = [नया अर्थात् औपाधिकरूपसे] किया गया। [स्फटिकमणिमें औपाधिकरूपसे होनेवाली रंगित
५। स्नेह = रागादिरूप चिकनाहट। ६। स्नेह = स्पर्शगुणकी पर्यायरूप चिकनाहट। [जिस प्रकार जघन्य चिकनाहटके सन्मुख वर्तता हुआ परमाणु
है।]
७। दुःस्थिति = अशांत स्थिति [अर्थात् तले–उपर होना, खद्बद् होना]ः अस्थिरता; खराब–बुरी स्थिति। [जिस
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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरापरो जीवो।। १०४।।
प्रशमितरागद्वेषो भवति हतपरापरो जीवः।। १०४।।
दुःखविमोक्षकरणक्रमाख्यानमेतत्।
एतस्य शास्त्रस्यार्थभूतं शुद्धचैतन्यस्वभाव मात्मानं कश्चिज्जीवस्तावज्जानीते। ततस्तमे– वानुगंतुमुद्यमते। ततोऽस्य क्षीयते द्रष्टिमोहः। ततः स्वरूपपरिचयादुन्मज्जति ज्ञानज्योतिः। ततो रागद्वेषौ प्रशाम्यतः। ततः उत्तरः पूर्वश्च बंधो विनश्यति। ततः पुनर्बंधहेतुत्वाभावात् स्वरूपस्थो नित्यं प्रतपतीति।। १०४।।
इति समयव्याख्यायामंतर्नीतषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायवर्णनः प्रथमः श्रुतस्कंधः समाप्तः।। १।। -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [जीवः] जीव [एतद् अर्थं ज्ञात्वा] इस अर्थको जानकर [–इस शास्त्रके अर्थंभूत शुद्धात्माको जानकर], [तदनुगमनोद्यतः] उसके अनुसरणका उद्यम करता हुआ [निहतमोहः] हतमोह होकर [–जिसे दर्शनमोहका क्षय हुआ हो ऐसा होकर], [प्रशमितरागद्वेषः] रागद्वेषको प्रशमित [निवृत्त] करके, [हतपरापरः भवति] उत्तर और पूर्व बन्धका जिसे नाश हुआ है ऐसा होता है ।
टीकाः– इस, दुःखसे विमुक्त होनेके क्रमका कथन है।
प्रथम, कोई जीव इस शास्त्रके अर्थभूत शुद्धचैतन्यस्वभाववाले [निज] आत्माको जानता है; अतः [फिर] उसीके अनुसरणका उद्यम करता है; अतः उसे द्रष्टिमोहका क्षय होता है; अतः स्वरूपके परिचयके कारण ज्ञानज्योति प्रगट होती है; अतः रागद्वेष प्रशमित होते हैं – निवृत्त होते हैं; अतः उत्तर और पूर्व [–पीछेका और पहलेका] बन्ध विनष्ट होता है; अतः पुनः बन्ध होनेके हेतुत्वका अभाव होनेसे स्वरूपस्थरूपसे सदैव तपता है––प्रतापवन्त वर्तता है [अर्थात् वह जीव सदैव स्वरूपस्थित रहकर परमानन्दज्ञानादिरूप परिणमित है]।। १०४।। --------------------------------------------------------------------------
प्रशमावी रागद्वेष, जीव उत्तर–पूरव विरहित बने। १०४।
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इस प्रकार [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रकी श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित] समयव्याख्या नामक टीकामें षड्द्रव्यपंचास्तिकायवर्णन नामका प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ।
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शुद्धं बुधानामिह तत्त्वमुक्तम्।
पदार्थभङ्गेन कृतावतारं
प्रकीर्त्यते संप्रति वर्त्म तस्य।। ७।।
तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि।। १०५।।
-----------------------------------------------------------------------------
[प्रथम, श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव पहले श्रुतस्कन्धमें क्या कहा गया है और दूसरे श्रुतस्कन्धमें क्या कहा जाएगा वह श्लोक द्वारा अति संक्षेपमें दर्शाते हैंः]
पुरुषोंको [बुद्धिमान जीवोंको] शुद्ध तत्त्व [शुद्धात्मतत्त्व] का उपदेश दिया गया। अब पदार्थभेद द्वारा उपोद्घात करके [–नव पदार्थरूप भेद द्वारा प्रारम्भ करके] उसके मार्गका [–शुद्धात्मतत्त्वके मार्गका अर्थात् उसके मोक्षके मार्गका] वर्णन किया जाता है। [७]
[अब इस द्वितीय श्रुतस्कन्धमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित गाथासूत्रका प्रारम्भ किया जाता हैः] --------------------------------------------------------------------------
भाखुं पदार्थविकल्प तेम ज मोक्ष केरा मार्गने। १०५।
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तेषां पदार्थभङ्गं मार्गं मोक्षस्य वक्ष्यामि।। १०५।।
आप्तस्तुतिपुरस्सरा प्रतिज्ञेयम्।
अमुना हि प्रवर्तमानमहाधर्मतीर्थस्य मूलकर्तृत्वेनापुनर्भवकारणस्य भगवतः परमभट्टारक– महादेवाधिदेवश्रीवर्द्धमानस्वामिनः सिद्धिनिबंधनभूतां भावस्तुतिमासूक्र्य, कालकलितपञ्चास्ति–कायानां पदार्थविकल्पो मोक्षस्य मार्गश्च वक्तव्यत्वेन प्रतिज्ञात इति।। १०५।।
मोक्षस्य भवति मार्गो भव्यानां लब्धबुद्धीनाम्।। १०६।।
-----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [अपुनर्भवकारणं] अपुनर्भवके कारण [महावीरम्] श्री महावीरको [शिरसा अभिवंद्य] शिरसा वन्दन करके, [तेषां पदार्थभङ्गं] उनका पदार्थभेद [–काल सहित पंचास्तिकायका नव पदार्थरूप भेद] तथा [मोक्षस्य मार्गं] मोक्षका मार्ग [वक्ष्यामि] कहूँगा।
टीकाः– यह, आप्तकी स्तुतिपूर्वक प्रतिज्ञा है।
प्रवर्तमान महाधर्मतीर्थके मूल कर्तारूपसे जो अपुनर्भवके कारण हैं ऐसे भगवान, परम भट्टारक, महादेवाधिदेव श्री वर्धमानस्वामीकी, सिद्धत्वके निमित्तभूत भावस्तुति करके, काल सहित पंचास्तिकायका पदार्थभेद [अर्थात् छह द्रव्योंका नव पदार्थरूप भेद] तथा मोक्षका मार्ग कहनेकी इन गाथासूत्रमें प्रतिज्ञा की गई है।। १०५।। -------------------------------------------------------------------------- अपुनर्भव = मोक्ष। [परम पूज्य भगवान श्री वर्धमानस्वामी, वर्तमानमें प्रवर्तित जो रत्नत्रयात्मक महाधर्मतीर्थ
ते होय छे निर्वाणमारग लब्धबुद्धि भव्यने। १०६।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
मोक्षमार्गस्यैव तावत्सूचनेयम्।
सम्यक्त्वज्ञानयुक्तमेव नासम्यक्त्वज्ञानयुक्तं, चारित्रमेव नाचारित्रं, रागद्वेषपरिहीणमेव न रागद्वेषापरिहीणम्, मोक्षस्यैव न भावतो बंधस्य, मार्ग एव नामार्गः, भव्यानामेव नाभव्यानां, लब्धबुद्धीनामेव नालब्धबुद्धीनां, क्षीणकषायत्वे भवत्येव न कषायसहितत्वेभवतीत्यष्टधा नियमोऽत्र द्रष्टव्यः।। १०६।। -----------------------------------------------------------------------------
[रागद्वेषपरिहीणम्] कि जो रागद्वेषसे रहित हो वह, [लब्धबुद्धीनाम्] लब्धबुद्धि [भव्यानां] भव्यजीवोंको [मोक्षस्य मार्गः] मोक्षका मार्ग [भवति] होता है।
सम्यक्त्व और ज्ञानसे युक्त ही –न कि असम्यक्त्व और अज्ञानसे युक्त, चारित्र ही – न कि अचारित्र, रागद्वेष रहित हो ऐसा ही [चारित्र] – न कि रागद्वेष सहित होय ऐसा, मोक्षका ही – १भावतः न कि बन्धका, मार्ग ही – न कि अमार्ग, भव्योंको ही – न कि अभव्योंको , २लब्धबुद्धियों को ही – न कि अलब्धबुद्धियोंको, ३क्षीणकषायपनेमें ही होता है– न कि कषायसहितपनेमें होता है। इस प्रकार आठ प्रकारसे नियम यहाँ देखना [अर्थात् इस गाथामें उपरोक्त आठ प्रकारसे नियम कहा है ऐसा समझना]।। १०६।। -------------------------------------------------------------------------- १। भावतः = भाव अनुसार; आशय अनुसार। [‘मोक्षका’ कहते ही ‘बन्धका नहीं’ ऐसा भाव अर्थात् आशय स्पष्ट
२। लब्धबुद्धि = जिन्होंने बुद्धि प्राप्त की हो ऐसे। ३। क्षीणकषायपनेमें ही = क्षीणकषायपना होते ही ; क्षीणकषायपना हो तभी। [सम्यक्त्वज्ञानयुक्त चारित्र – जो
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चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं।। १०७।।
चारित्रं समभावो विषयेषु विरूढमार्गाणाम्।। १०७।।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां सूचनेयम्।
भावाः खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्थाः। तेषां मिथ्यादर्शनोदया– वादिताश्रद्धानाभावस्वभावं भावांतरं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, शुद्धचैतन्यरूपात्म– -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [भावानां] भावोंका [–नव पदार्थोंका] [श्रद्धानं] श्रद्धान [सम्यक्त्वं] वह सम्यक्त्व है; [तेषाम् अधिगमः] उनका अवबोध [ज्ञानम्] वह ज्ञान है; [विरूढमार्गाणाम्] [निज तत्त्वमें] जिनका मार्ग विशेष रूढ हुआ है उन्हें [विषयेषु] विषयोंके प्रति वर्तता हुआ [समभावः] समभाव [चारित्रम्] वह चारित्र है।
टीकाः– यह, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी सूचना है।
काल सहित पंचास्तिकायके भेदरूप नव पदार्थ वे वास्तवमें ‘भाव’ हैं। उन ‘भावों’ का मिथ्यादर्शनके उदयसे प्राप्त होनेवाला जो अश्रद्धान उसके अभावस्वभाववाला जो १भावान्तर–श्रद्धान [अर्थात् नव पदार्थोंका श्रद्धान], वह सम्यग्दर्शन है– जो कि [सम्यग्दर्शन] शुद्धचैतन्यरूप -------------------------------------------------------------------------- १। भावान्तर = भावविशेष; खास भाव; दूसरा भाव; भिन्न भाव। [नव पदार्थोंके अश्रद्धानका अभाव जिसका स्वभाव है ऐसा भावान्तर [–नव पदार्थोंके श्रद्धानरूप भाव] वह सम्यग्दर्शन है।]
वधु रूढ मार्ग थतां विषयमां साम्य ते चारित्र छे। १०७।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
तत्त्वविनिश्चयबीजम्। तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयान्नौयानसंस्कारादि स्वरूपविपर्ययेणाध्यवसीय–मानानां तन्निवृत्तौ समञ्जसाध्यवसायः सम्यग्ज्ञानं, मनाग्ज्ञानचेतनाप्रधानात्मतत्त्वोपलंभबीजम्। सम्यग्दर्शनज्ञानसन्निधानादमार्गेभ्यः समग्रेभ्यः परिच्युत्य स्वतत्त्वे विशेषेण रूढमार्गाणां सता– मिन्द्रियानिन्द्रियविषयभूतेष्वर्थेषु रागद्वेषपूर्वकविकाराभावान्निर्विकारावबोधस्वभावः समभावश्चारित्रं, तदात्वायतिरमणीयमनणीयसोऽपुनर्भवसौख्यस्यैकबीजम्। इत्येष त्रिलक्षणो मोक्षमार्गः पुरस्ता– न्निश्चयव्यवहाराभ्यां व्याख्यास्यते। इह तु सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्विषयभूतानां नवपदार्थानामु– पोद्धातहेतुत्वेन सूचित इति।। १०७।। ----------------------------------------------------------------------------- आत्मतत्त्वके १विनिश्चयका बीज है। २नौकागमनके संस्कारकी भाँति मिथ्यादर्शनके उदयके कारण जो स्वरूपविपर्ययपूर्वक अध्यवसित होते हैं [अर्थात् विपरीत स्वरूपसे समझमें आते हैं – भासित होते हैं] ऐसे उन ‘भावों’ का ही [–नव पदार्थोंका ही], मिथ्यादर्शनके उदयकी निवृत्ति होने पर, जो सम्यक् अध्यवसाय [सत्य समझ, यथार्थ अवभास, सच्चा अवबोध] होना, वह सम्यग्ज्ञान है – जो कि [सम्यग्ज्ञान] कुछ अंशमें ज्ञानचेतनाप्रधान आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका [अनुभूतिका] बीज है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके सद्भावके कारण समस्त अमार्गोंसे छूटकर जो स्वतत्त्वमें विशेषरूपसे ३रूढ़ मार्गवाले हुए हैं उन्हें इन्द्रिय और मनके विषयभूत पदार्थोंके प्रति रागद्वेषपूर्वक विकारके अभावके कारण जो निर्विकारज्ञानस्वभाववाला समभाव होता है, वह चारित्र है – जो कि [चारित्र] उस कालमें और आगामी कालमें रमणीय है और अपुनर्भवके [मोक्षके] महा सौख्यका एक बीज है।
–ऐसे इस त्रिलक्षण [सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रात्मक] मोक्षमार्गका आगे निश्चय और व्यवहारसे व्याख्यान किया जाएगा। यहाँ तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके विषयभूत नव पदार्थोंके ४उपोद्घातके हेतु रूपसे उसकी सूचना दी गई है।। १०७।। -------------------------------------------------------------------------- यहाँ ‘संस्कारादि’के बदले जहाँ तक सम्भव है ‘संस्कारादिव’ होना चाहिये ऐसा लगता है। १। विनिश्चय = निश्चय; द्रढ़ निश्चय। २। जिस प्रकार नावमें बैठे हुए किसी मनुष्यको नावकी गतिके संस्कारवश, पदार्थ विपरीत स्वरूपसे समझमें आते
भी गतिमान समझमें आते हैं], उसी प्रकार जीवको मिथ्यादर्शनके उदयवश नव पदार्थ विपरीत स्वरूपसे
समझमें आते हैं।
३। रूढ़ = पक्का; परिचयसे द्रढ़ हुआ। [सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके कारण जिनका स्वतत्त्वगत मार्ग विशेष
समभाव वह चारित्र है ]।
४। उपोद्घात = प्रस्तावना [सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्गके प्रथम दो अंग जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान उनके विषय नव पदार्थ हैं; इसलिये अब अगली गाथाओंमें नव पदार्थोंका व्यख्यान किया जाता है। मोक्षमार्गका विस्तृत व्यख्यान आगे जायेगा। यहाँ तो नव पदार्थोंके व्यख्यानकी प्रस्तावना के हेतुरूपसे उसकी मात्र सूचना दी गई है।]
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१६६
संवरणं णिज्जरणं बंधो मोक्खो य ते अट्ठा।। १०८।।
संवरनिर्जरबंधा मोक्षश्च ते अर्थाः।। १०८।।
पदार्थानां नामस्वरूपाभिधानमेतत्।
जीवः, अजीवः, पुण्यं, पापं, आस्रवः, संवरः, निर्जरा, बंधः, मोक्ष इति नवपदार्थानां नामानि। तत्र चैतन्यलक्षणो जीवास्तिक एवेह जीवः। चैतन्याभावलक्षणोऽजीवः। स पञ्चधा पूर्वोक्त एव– पुद्गलास्तिकः, धर्मास्तिकः, अधर्मास्तिकः, आकाशास्तिकः, कालद्रव्यञ्चेति। इमौ हि जीवाजीवौ पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वेन -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [जीवाजीवौ भावौ] जीव और अजीव–दो भाव [अर्थात् मूल पदार्थ] तथा [तयोः] उन दो के [पुण्यं] पुण्य, [पापं च] पाप, [आस्रवः] आस्रव, [संवरनिर्जरबंधः] संवर, निर्जरा, बन्ध [च] और [मोक्षः] मोक्ष–[ते अर्थाः ] वह [नव] पदार्थ हैं।
टीकाः– यह, पदार्थोंके नाम और स्वरूपका कथन है।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष–इस प्रकार नव पदार्थोंके नाम हैं।
उनमें, चैतन्य जिसका लक्षण है ऐसा जीवास्तिक ही [–जीवास्तिकाय ही] यहाँ जीव है। चैतन्यका अभाव जिसका लक्षण है वह अजीव है; वह [अजीव] पाँच प्रकारसे पहले कहा ही है– पुद्गलास्तिक, धर्मास्तिक, अधर्मास्तिक, आकाशास्तिक और कालद्रव्य। यह जीव और अजीव [दोनों] पृथक् अस्तित्व द्वारा निष्पन्न होनेसे भिन्न जिनके स्वभाव हैं ऐसे [दो] मूल पदार्थ हैं । --------------------------------------------------------------------------
आसरव, संवर, निर्जरा, वळी बंध, मोक्ष–पदार्थ छे। १०८।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
भिन्नस्वभावभूतौ मूलपदार्थौ। जीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिर्वृत्ताः सप्तान्ये पदार्थाः। शुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानाञ्च पुण्यम्। अशुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्म– परिणामः पुद्गलानाञ्च पापम्। मोहरागद्वेषपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाञ्चास्रवः। मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानाञ्च संवरः। कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गांतरङ्गतपोभिर्बृंहित–शुद्धोपयोगो जीवस्य, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानाञ्च निर्जरा। मोहरागद्वेषस्निग्धपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तेन कर्मत्वपरिणतानां जीवेन सहान्योन्यसंमूर्च्छनं पुद्गलानाञ्च बंधः। अत्यंतशुद्धात्मोपलम्भो जीवस्य, जीवेन सहात्यंत– विश्लेषः कर्मपुद्गलानां च मोक्ष इति।। १०८।। -----------------------------------------------------------------------------
जीव और पुद्गलके संयोगपरिणामसे उत्पन्न सात अन्य पदार्थ हैं। [उनका संक्षिप्त स्वरूप निम्नानुसार हैः–] जीवके शुभ परिणाम [वह पुण्य हैं] तथा वे [शुभ परिणाम] जिसका निमित्त हैं ऐसे पुद्गलोंके कर्मपरिणाम [–शुभकर्मरूप परिणाम] वह पुण्य हैं। जीवके अशुभ परिणाम [वह पाप हैं] तथा वे [अशुभ परिणाम] जिसका निमित्त हैं ऐसे पुद्गलोंके कर्मपरिणाम [–अशुभकर्मरूप परिणाम] वह पाप हैं। जीवके मोहरागद्वेषरूप परिणाम [वह आस्रव हैं] तथा वे [मोहरागद्वेषरूप परिणाम] जिसका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके कर्मपरिणाम वह आस्रव हैं। जीवके मोहरागद्वेषरूप परिणामका निरोध [वह संवर हैं] तथा वह [मोहरागद्वेषरूप परिणामका निरोध] जिसका निमित्त हैं ऐसा जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके कर्मपरिणामका निरोध वह संवर है। कर्मके वीर्यका [–कर्मकी शक्तिका] १शातन करनेमें समर्थ ऐसा जो बहिरंग और अन्तरंग [बारह प्रकारके] तपों द्वारा वृद्धिको प्राप्त जीवका शुद्धोपयोग [वह निर्जरा है] तथा उसके प्रभावसे [–वृद्धिको प्राप्त शुद्धोपयोगके निमित्तसे] नीरस हुए ऐसे उपार्जित कर्मपुद्गलोंका एकदेश २संक्षय वह निर्जरा हैे। जीवके, मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध परिणाम [वह बन्ध है] तथा उसके [–स्निग्ध परिणामके] निमित्तसे कर्मरूप परिणत पुद्गलोंका जीवके साथ अन्योन्य अवगाहन [–विशिष्ट शक्ति सहित एकक्षेत्रावगाहसम्बन्ध] वह बन्ध है। जीवकी अत्यन्त शुद्ध आत्मोपलब्धि [वह मोक्ष है] तथा कर्मपुद्गलोंका जीवसे अत्यन्त विश्लेष [वियोग] वह मोक्ष है।। १०८।। -------------------------------------------------------------------------- १। शातन करना = पतला करना; हीन करना; क्षीण करना; नष्ट करना। २। संक्षय = सम्यक् प्रकारसे क्षय।
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अथ जीवपदार्थानां व्याख्यानं प्रपञ्चयति।
उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा।। १०९।।
उपयोगलक्षणा अपि च देहादेहप्रवीचाराः।। १०९।।
जीवस्यरूपोद्देशोऽयम्।
जीवाः हि द्विविधाः, संसारस्था अशुद्धा निर्वृत्ताः शुद्धाश्च। ते खलूभयेऽपि चेतना–स्वभावाः, चेतनापरिणामलक्षणेनोपयोगेन लक्षणीयाः। तत्र संसारस्था देहप्रवीचाराः, निर्वृत्ता अदेहप्रवीचारा इति।। १०९।। -----------------------------------------------------------------------------
अब जीवपदार्थका व्याख्यान विस्तारपूर्वक किया जाता है।
अन्वयार्थः– [जीवाः द्विविधाः] जीव दो प्रकारके हैं; [संसारस्थाः निर्वृत्ताः] संसारी और सिद्ध। [चेतनात्मकाः] वे चेतनात्मक [–चेतनास्वभाववाले] [अपि च] तथा [उपयोगलक्षणाः] उपयोगलक्षणवाले हैं। [देहादेहप्रवीचाराः] संसारी जीव देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित हैं और सिद्ध जीव देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।
टीकाः– यह, जीवके स्वरूपका कथन है।
जीव दो प्रकारके हैंः – [१] संसारी अर्थात् अशुद्ध, और [२] सिद्ध अर्थात् शुद्ध। वे दोनों वास्तवमें चेतनास्वभाववाले हैं और चेतनापरिणामस्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होनेयोग्य [– पहिचानेजानेयोग्य] हैं। उनमें, संसारी जीव देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित हैं और सिद्ध जीव देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।। १०९।। -------------------------------------------------------------------------- चेतनाका परिणाम सो उपयोग। वह उपयोग जीवरूपी लक्ष्यका लक्षण है।
उपयोगलक्षण उभय; एक सदेह, एक अदेह छे। १०९।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं।। ११०।।
ददति खलु मोहबहुलं स्पर्शं बहुका अपि ते तेषाम्।। ११०।।
पृथिवीकायिकादिपञ्चभेदोद्देशोऽयम्।
पृथिवीकायाः, अप्कायाः, तेजःकायाः, वायुकायाः, वनस्पतिकायाः इत्येते पुद्गल–परिणामा बंधवशाज्जीवानुसंश्रिताः, अवांतरजातिभेदाद्बहुका अपि स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशम–भाजां जीवानां बहिरङ्गस्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तिभूताः कर्मफलचेतनाप्रधान– -----------------------------------------------------------------------------
[च] और [वनस्पतिः] वनस्पतिकाय–[कायाः] यह कायें [जीवसंश्रिताः] जीवसहित हैं। [बहुकाः अपि ते] [अवान्तर जातियोंकी अपेक्षासे] उनकी भारी संख्या होने पर भी वे सभी [तेषाम्] उनमें रहनेवाले जीवोंको [खलु] वास्तवमें [मोहबहुलं] अत्यन्त मोहसे संयुक्त [स्पर्शं ददति] स्पर्श देती हैं [अर्थात् स्पर्शज्ञानमें निमित्त होती हैं]।
बन्धवशात् [बन्धके कारण] जीवसहित हैं। २अवान्तर जातिरूप भेद करने पर वे अनेक होने पर भी वे सभी [पुद्गलपरिणाम], स्पर्शनेन्द्रियावरणके क्षयोपशमवाले जीवोंको बहिरंग स्पर्शनेन्द्रियकी -------------------------------------------------------------------------- १। काय = शरीर। [पृथ्वीकाय आदि कायें पुद्गलपरिणाम हैं; उनका जीवके साथ बन्ध होनेकेे कारण वे
२। अवान्तर जाति = अन्तर्गत–जाति। [पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजःकाय और वायुकाय–इन चारमेंसे प्रत्येकके
भू–जल–अनल–वायु–वनस्पतिकाय जीवसहित छे;
बहु काय ते अतिमोहसंयुत स्पर्श आपे जीवने। ११०।
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१७०
त्वान्मोहबहुलमेव स्पर्शोपलंभं संपादयन्तीति।। ११०।।
मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया।। १११।।
मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः।। १११।।
मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया।। ११२।।
-----------------------------------------------------------------------------
रचनाभूत वर्तते हुए, कर्मफलचेतनाप्रधानपनेके कारणे अत्यन्त मोह सहित ही स्पर्शोपलब्धि संप्राप्त कराते हैं।। ११०।।
अन्वयार्थः– [तेषु] उनमें, [त्रयः] तीन [पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक] जीव [स्थावरतनुयोगाः] स्थावर शरीरके संयोगवाले हैं [च] तथा [अनिलानलकायिकाः] वायुकायिक और अग्निकायिक जीव [त्रसाः] त्रस हैं; [मनःपरिणामविरहिताः] वे सब मनपरिणामरहित [एकेन्द्रियाः जीवाः] एकेन्द्रिय जीव [ज्ञेयाः] जानना।। १११।।
-------------------------------------------------------------------------- १। स्पर्शोपलब्धि = स्पर्शकी उपलब्धि; स्पर्शका ज्ञान; स्पर्शका अनुभव। [पृथ्वीकायिक आदि जीवोंको
रचनारूप होती हैं, इसलिये वे–वे कायें उन–उन जीवोंको स्पर्शकी उपलब्धिमें निमित्तभूत होती हैं। उन
जीवोंको होनेवाली स्पर्शोपलब्धि प्रबल मोह सहित ही होती हैं, क्योंकि वे जीव कर्मफलचेतनाप्रधान होते हैं।]
२। वायुकायिक और अग्निकायिक जीवोंको चलनक्रिया देखकर व्यवहारसे त्रस कहा जाता है; निश्चयसे तो वे भी
त्यां जीव त्रण स्थावरतनु, त्रस जीव अग्नि–समीरना;
ए सर्व मनपरिणामविरहित एक–इन्द्रिय जाणवा। १११।
आ पृथ्वीकायिक आदि जीवनिकाय पाँच प्रकारना,
सघळाय मनपरिणामविरहित जीव एकेन्द्रिय कह्या। ११२।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया भणिताः।। ११२।।
पृथिवीकायिकादयो हि जीवाः स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये
नोइन्द्रियावरणोदये च सत्येकेन्द्रियाअमनसो भवंतीति।। ११२।।
जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया।। ११३।।
याद्रशास्ताद्रशा जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः।। ११३।।
-----------------------------------------------------------------------------
[जीवनिकायाः] जीवनिकायोंको [मनःपरिणामविरहिताः] मनपरिणामरहित [एकेन्द्रियाः जीवाः] एकेन्द्रिय जीव [भणिताः] [सर्वज्ञने] कहा है।
पृथ्वीकायिक आदि जीव, स्पर्शनेन्द्रियके [–भावस्पर्शनेन्द्रियके] आवरणके क्षयोपशमके कारण तथा शेष इन्द्रियोंके [–चार भावेन्द्रियोंके] आवरणका उदय तथा मनके [–भावमनके] आवरणका उदय होनेसे, मनरहित एकेन्द्रिय है।। ११२।।
अन्वयार्थः– [अंडेषु प्रवर्धमानाः] अंडेमें वृद्धि पानेवाले प्राणी, [गर्भस्थाः] गर्भमें रहे हुए प्राणी [च] और [मूर्च्छा गताः मानुषाः] मूर्छा प्राप्त मनुष्य, [याद्रशाः] जैसे [बुद्धिपूर्वक व्यापार रहित] हैं, [ताद्रशाः] वैसे [एकेन्द्रियाः जीवाः] एकेन्द्रिय जीव [ज्ञेयाः] जानना।
टीकाः– यह, एकेन्द्रियोंको चैतन्यका अस्तित्व होने सम्बन्धी द्रष्टान्तका कथन है। --------------------------------------------------------------------------
तेवा बधा आ पंचविध एकेंद्रि जीवो जाणजे। ११३।