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द्विविधं किल तात्पर्यम्–सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यञ्चेति। तत्र सूत्रतात्पर्यं प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम्। शास्त्रतात्पर्यं त्विदं प्रतिपाद्यते। अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य, सकलपुरुषार्थ– सारभूतमोक्षतत्त्वप्रतिपत्तिहेतोः पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यस्वरूपप्रतिपादनेनोपदर्शितसमस्तवस्तुस्व– भावस्य, नवपदार्थप्रपञ्चसूचनाविष्कृतबन्धमोक्षसंबन्धिबन्धमोक्षायतनबन्धमोक्षविकल्पस्य, सम्यगा– वेदितनिश्चयव्यवहाररूपमोक्षमार्गस्य, साक्षन्मोक्षकारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य, परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति। तदिदं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये -----------------------------------------------------------------------------
तात्पर्य द्विविध होता हैः १सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य। उसमें, सूत्रतात्पर्य प्रत्येक सूत्रमें [प्रत्येक गाथामें] प्रतिपादित किया गया है ; और शास्त्रतात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता हैः–
सर्व षड्द्रव्यके स्वरूपके प्रतिपादन द्वारा समस्त वस्तुका स्वभाव दर्शाया गया है, नव पदार्थके विस्तृत कथन द्वारा जिसमें बन्ध–मोक्षके सम्बन्धी [स्वामी], बन्ध–मोक्षके आयतन [स्थान] और बन्ध– मोक्षके विकल्प [भेद] प्रगट किए गए हैं, निश्चय–व्यवहाररूप मोक्षमार्गका जिसमें सम्यक् निरूपण किया गया है तथा साक्षात् मोक्षके कारणभूत परमवीतरागपनेमें जिसका समस्त हृदय स्थित है–ऐसे इस सचमुच ३पारमेश्वर शास्त्रका, परमार्थसे वीतरागपना ही तात्पर्य है।
सो इस वीतरागपनेका व्यवहार–निश्चयके विरोध द्वारा ही अनुसरण किया जाए तो इष्टसिद्धि होती है, परन्तु अन्यथा नहीं [अर्थात् व्यवहार और निश्चयकी सुसंगतता रहे इस प्रकार वीतरागपनेका अनुसरण किया जाए तभी इच्छितकी सिद्धि होती है, ------------------------------------------------------------------------- १। प्रत्येक गाथासूत्रका तात्पर्य सो सूत्रतात्पर्य है और सम्पूर्ण शास्त्रका तात्पर्य सोे शास्त्रतात्पर्य है। २। पुरुषार्थ = पुरुष–अर्थ; पुरुष–प्रयोजन। [पुरुषार्थके चार विभाग किए जाते हैंः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष;
३। पारमेश्वर = परमेश्वरके; जिनभगवानके; भागवत; दैवी; पवित्र। ४। छठवें गुणस्थानमें मुनियोग्य शुद्धपरिणतिका निरन्तर होना तथा महाव्रतादिसम्बन्धी शुभभावोंका यथायोग्यरूपसे
शुद्धपरिणति निरन्तर होना तथा देशव्रतादिसम्बन्धी शुभभावोंका यथायोग्यरूपसे होना वह भी निश्चय–व्यवहारके
अविरोधका उदाहरण है।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
न पुनरन्यथा। व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनैवावतर–न्ति तीर्थं प्राथमिकाः। तथा हीदं श्रद्धेयमिदमश्रद्धेयमयं श्रद्धातेदं श्रद्धानमिदं ज्ञेयमिदमज्ञेयमयं ज्ञातेदं ज्ञानमिदं चरणीयमिदमचरणीयमयं चरितेदं चरणमिति कर्तव्याकर्तव्यकर्तृकर्मविभा– गावलोकनोल्लसितपेशलोत्साहाः शनैःशनैर्मोहमल्लमुन्मूलयन्तः, कदाचिदज्ञानान्मदप्रमादतन्त्रतया शिथिलितात्माधिकारस्यात्मनो ----------------------------------------------------------------------------- अन्य प्रकारसे नहीं होती]।
[उपरोक्त बात विशेष समझाई जाती हैः–]
अनादि कालसे भेदवासित बुद्धि होनेके कारण प्राथमिक जीव व्यवहारनयसे १भिन्नसाध्यसाधनभावका अवलम्बन लेकर २सुखसे तीर्थका प्रारम्भ करते हैं [अर्थात् सुगमतासे मोक्षमार्गकी प्रारम्भभूमिकाका सेवन करते हैं]। जैसे कि ‘[१] यह श्रद्धेय [श्रद्धा करनेयोग्य] है, [२] यह अश्रद्धेय है, [३] यह श्रद्धा करनेवाला है और [४] यह श्रद्धान है; [१] यह ज्ञेय [जाननेयोग्य] है, [२] यह अज्ञेय है, [३] यह ज्ञाता है और [४] यह ज्ञान हैे; [१] यह आचरणीय [आचरण करनेयोग्य] है, [२] यह अनाचरणीय है, [३] यह आचरण करनेवाला है और [४] यह आचरण है;’–इस प्रकार [१] कर्तव्य [करनेयोग्य], [२] अकर्तव्य, [३] कर्ता और [४] कर्मरूप विभागोंके अवलोकन द्वारा जिन्हें कोमल उत्साह उल्लसित होता है ऐसे वे [प्राथमिक जीव] धीरे–धीरे मोहमल्लको [रागादिको] उखाड़ते जाते हैं; कदाचित् अज्ञानके कारण [स्व– संवेदनज्ञानके अभावके कारण] मद [कषाय] और प्रमादके वश होनेसे अपना आत्म–अधिकार ------------------------------------------------------------------------- १। मोक्षमार्गप्राप्त ज्ञानी जीवोंको प्राथमिक भूमिकामें, साध्य तो परिपूर्ण शुद्धतारूपसे परिणत आत्मा है और उसका
इस प्रकार उन जीवोंको व्यवहारनयसे साध्य और साधन भिन्न प्रकारके कहे गए हैं। [निश्चयनयसे साध्य और
साधन अभिन्न होते हैं।]
२। सुखसे = सुगमतासे; सहजरूपसे; कठिनाई बिना। [जिन्होंने द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपके
भूमिकामें] आंशिक शुद्धिके साथ–साथ श्रद्धानज्ञानचारित्र सम्बन्धी परावलम्बी विकल्प [भेदरत्नत्रय] होते हैं,
क्योंकि अनादि कालसे जीवोंको जो भेदवासनासे वासित परिणति चली आ रही है उसका तुरन्त ही सर्वथा
नाश होना कठिन है।]
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न्याय्यपथप्रवर्तनाय प्रयुक्तप्रचण्डदण्डनीतयः, पुनः पुनः दोषानुसारेण दत्तप्रायश्चित्ताः सन्त–तोद्यताः सन्तोऽथ तस्यैवात्मनो भिन्नविषयश्रद्धानज्ञानचारित्रैरधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्य–साधनभावस्य रजकशिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतविहितोषपरिष्वङ्गमलिनवासस इव मनाङ्मनाग्विशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावाद्दर्शनज्ञानचारित्रसमाहितत्व–रूपे विश्रान्तसकलक्रियाकाण्डाडम्बरनिस्तरङ्गपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्या–त्मनि विश्रान्तिमासूत्रयन्तः क्रमेण समुपजात समरसीभावाः परमवीतरागभावमधिगम्य, साक्षान्मोक्षमनुभवन्तीति।। ----------------------------------------------------------------------------- [आत्मामें अधिकार] शिथिल हो जानेपर अपनेको न्यायमार्गमें प्रवर्तित करनेके लिए वे प्रचण्ड दण्डनीतिका प्रयोग करते हैं; पुनःपुनः [अपने आत्माको] दोषानुसार प्रायश्चित्त देते हुए वे सतत उद्यमवन्त वर्तते हैं; और भिन्नविषयवाले श्रद्धान–ज्ञान–चारित्रके द्वारा [–आत्मासे भिन्न जिसके विषय हैं ऐसे भेदरत्नत्रय द्वारा] जिसमें संस्कार आरोपित होते जाते हैं ऐसे भिन्नसाध्यसाधनभाववाले अपने आत्मामें –धोबी द्वारा शिलाकी सतह पर पछाड़े जानेवाले, निर्मल जल द्वारा भिगोए जानेवाले और क्षार [साबुन] लगाए जानेवाले मलिन वस्त्रकी भाँति–थोड़ी–थोड़ी विशुद्धि प्राप्त करके, उसी अपने आत्माको निश्चयनयसे भिन्नसाध्यसाधनभावके अभावके कारण, दर्शनज्ञानचारित्रका समाहितपना [अभेदपना] जिसका रूप है, सकल क्रियाकाण्डके आडम्बरकी निवृत्तिके कारण [–अभावके कारण] जो निस्तरंग परमचैतन्यशाली है तथा जो निर्भर आनन्दसे समृद्ध है ऐसे भगवान आत्मामें विश्रांति रचते हुए [अर्थात् दर्शनज्ञानचारित्रके ऐकयस्वरूप, निर्विकल्प परमचैतन्यशाली है तथा भरपूर आनन्दयुक्त ऐसे भगवान आत्मामें अपनेको स्थिर करते हुए], क्रमशः समरसीभाव समुत्पन्न होता जाता है इसलिए परम वीतरागभावको प्राप्त करके साक्षात् मोक्षका अनुभव करते हैं।
------------------------------------------------------------------------- १। व्यवहार–श्रद्धानज्ञानचारित्रके विषय आत्मासे भिन्न हैं; क्योंकि व्यवहारश्रद्धानका विषय नव पदार्थ है,
२। जिस प्रकार धोबी पाषाणशिला, पानी और साबुन द्वारा मलिन वस्त्रकी शुद्धि करता जाता है, उसी पकार
शुद्धि करता जाता है ऐसा व्यवहारनसे कहा जाता है। परमार्थ ऐसा है कि उस भेदरत्नत्रयवाले ज्ञानी जीवको
शुभ भावोंके साथ जो शुद्धात्मस्वरूपका आंशिक आलम्बन वर्तता है वही उग्र होते–होते विशेष शुद्धि करता
जाता है। इसलिए वास्तवमें तो, शुद्धात्मस्वरूकां आलम्बन करना ही शुद्धि प्रगट करनेका साधन है और उस
आलम्बनकी उग्रता करना ही शुद्धिकी वृद्धि करनेका साधन है। साथ रहे हुए शुभभावोंको शुद्धिकी वृद्धिका
साधन कहना वह तो मात्र उपचारकथन है। शुद्धिकी वृद्धिके उपचरितसाधनपनेका आरोप भी उसी जीवके
शुभभावोंमें आ सकता है कि जिस जीवने शुद्धिकी वृद्धिका यथार्थ साधन [–शुद्धात्मस्वरूपका यथोचित
आलम्बन] प्रगट किया हो।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
अथ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते खलु भिन्नसाध्यसाधनभावावलोकनेनाऽनवरतं नितरां खिद्यमाना मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्धानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतसः प्रभूतश्रुतसंस्काराधिरोपितवि– चित्रविकल्पजालकल्माषितचैतन्यवृत्तयः, समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतपःप्रवृत्तिरूपकर्मकाण्डोड्डम– राचलिताः, कदाचित्किञ्चिद्रोचमानाः, कदाचित् किञ्चिद्विकल्पयन्तः, कदाचित्किञ्चिदाचरन्तः, दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्तः, कदाचित्संविजमानाः, कदाचिदनुकम्पमानाः, कदाचिदा– स्तिक्यमुद्वहन्तः, शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामूढद्रष्टितानां व्युत्थापननिरोधाय नित्यबद्धपरिकराः, उपबृंहण स्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनां भावयमाना ----------------------------------------------------------------------------- [अब केवलव्यवहारावलम्बी (अज्ञानी) जीवोंंको प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता हैः–]
परन्तु जो केवव्यवहारावलम्बी [मात्र व्यवहारका अवलम्बन करनेवाले] हैं वे वास्तवमें १ भिन्नसाध्यसाधनभावके अवलोकन द्वारा निरन्तर अत्यन्त खेद पाते हुए, [१] पुनःपुनः धर्मादिके श्रद्धानरूप अध्यवसानमें उनका चित्त लगता रहनेसे, [२] बहुत श्रुतके [द्रव्यश्रुतके] संस्कारोंसे ऊठने वाले विचित्र [अनेक प्रकारके] विकल्पोंके जाल द्वारा उनकी चैतन्यवृत्ति चित्र–विचित्र होती है इसलिए और [३] समस्त यति–आचारके समुदायरूप तपमें प्रवर्तनरूप कर्मकाण्डकी धमालमें वे अचलित रहते हैं इसलिए, [१] कभी किसीको [किसी विषयकी] रुचि करते हैं, [२] कभी किसीके [ किसी विषयके] विकल्प करते हैं और [३] कभी कुछ आचरण करते हैं; दर्शनाचरण के लिए–वे कदाचित् प्रशमित होते है, कदाचित् संवेगको प्राप्त होते है, कदाचित् अनुकंपित होते है, कदाचित् आस्तिकयको धारण करते हैं, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा और मूढद्रष्टिताके उत्थानको रोकनेके लिए नित्य कटिबद्ध रहते हैं, उपबृंहण, स्थिति– करण, वात्सल्य और प्रभावनाको भाते ------------------------------------------------------------------------- १। वास्तवमें साध्य और साधन अभिन्न होते हैं। जहाँ साध्य और साधन भिन्न कहे जायें वहाँ ‘यह सत्यार्थ
केवलव्यवहारावलम्बी जीव इस बातकी गहराईसे श्रद्धा न करते हुए अर्थात् ‘वास्तवमें शुभभावरूप साधनसे ही
शुद्धभावरूप साध्य प्राप्त होगा’ ऐसी श्रद्धाका गहराईसे सेवन करते हुए निरन्तर अत्यन्त खेद प्राप्त करते हैं।
[विशेषके लिए २३० वें पृष्ठका पाँचवाँ और २३१ वें पृष्ठका तीसरा तथा चौथा पद टिप्पण देखें।]
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वारंवारमभिवर्धितोत्साहा, ज्ञानाचरणाय स्वाध्याय–कालमवलोकयन्तो, बहुधा विनयं प्रपञ्चयन्तः, प्रविहितदुर्धरोपधानाः, सुष्ठु बहुमानमातन्वन्तो, निह्नवापत्तिं नितरां निवारयन्तोऽर्थव्यञ्जनतदुभयशुद्धौ नितान्तसावधानाः, चारित्राचरणाय हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहसमस्तविरतिरूपेषु पञ्चमहाव्रतेषु तन्निष्ठवृत्तयः, सम्यग्योगनिग्रहलक्षणासु गुप्तिषु निवान्तं गृहीतोद्योगा ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गरूपासु समितिष्वत्यन्तनिवेशितप्रयत्नाः, तपआचरणायानशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायकॢेशेष्वभीक्ष्णमुत्सह– मानाः, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गस्वाध्यायध्यानपरिकरांकुशितस्वान्ता, वीर्याचरणाय कर्म–काण्डे सर्वशक्तया व्याप्रियमाणाः, कर्मचेतनाप्रधानत्वाद्दूरनिवारिताऽशुभकर्मप्रवृत्तयोऽपि समुपात्त– शुभकर्मप्रवृत्तयः, सकलक्रियाकाण्डाडम्बरोत्तीर्णदर्शनज्ञानचारित्रैक्यपरिणतिरूपां ज्ञान चेतनां ----------------------------------------------------------------------------- हुए बारम्बार उत्साहको बढ़ाते हैं; ज्ञानाचरणके लिये–स्वाध्यायकालका अवलोकन करते हैं, बहु प्रकारसे विनयका विस्तार करते हैं, दुर्धर उपधान करते हैं, भली भाँति बहुमानको प्रसारित करते हैं, निह्नवदोषको अत्यन्त निवारते हैं, अर्थ, व्यंजन और तदुभयकी शुद्धिमें अत्यन्त सावधान रहते हैं; चारित्राचरणके लिये–हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रहकी सर्वविरतिरूप पंचमहाव्रतोंमें तल्लीन वृत्तिवाले रहते हैं, सम्यक् योगनिग्रह जिसका लक्षण है [–योगका बराबर निरोध करना जिनका लक्षण है] ऐसी गुप्तियोंमें अत्यन्त उद्योग रखते हैं, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्गरूप समितियोंमें प्रयत्नको अत्यन्त जोड़ते हैं; तपाचरण के लियेे–अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेशमें सतत उत्साहित रहते हैं, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यानरूप परिकर द्वारा निज अंतःकरणको अंकुशित रखते हैं; वीर्याचरणके लिये–कर्मकांडमें सर्व शक्ति द्वारा व्यापृत रहते हैं; ऐसा करते हुए, कर्मचेतनाप्रधानपनेके कारण – यद्यपि अशुभकर्मप्रवृत्तिका उन्होंने अत्यन्त निवारण किया है तथापि– शुभकर्मप्रवृत्तिको जिन्होंने बराबर ग्रहण किया है ऐसे वे, सकल क्रियाकाण्डके आडम्बरसे पार उतरी हुई दर्शनज्ञानचारित्रकी ऐकयपरिणतिरूप ज्ञानचेतनाको किंचित् भी उत्पन्न नहीं करते हुए,
------------------------------------------------------------------------- १। तदुभय = उन दोनों [अर्थात् अर्थ तथा व्यंजन दोनों] २। परिकर = समूह; सामग्री। ३। व्यापृत = रुके; गुँथे; मशगूल; मग्न।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
मनागप्यसंभावयन्तः प्रभूतपुण्यभारमन्थरितचित्तवृत्तयः, सुरलोकादिकॢेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं संसारसागरे भ्रमन्तीति। उक्तञ्च–‘‘चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावारा। चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति’’।।
-----------------------------------------------------------------------------
बहुत पुण्यके भारसे मंथर हुई चित्तवृत्तिवाले वर्तते हुए, देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिकी परम्परा द्वारा दीर्घ कालतक संसारसागरमें भ्रमण करते हैं। कहा भी है कि – चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कावावारा। चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति।। [अर्थात् जो चरणपरिणामप्रधान है और स्वसमयरूप परमार्थमें व्यापाररहित हैं, वे चरणपरिणामका सार जो निश्चयशुद्ध [आत्मा] उसे नहीं जानते।]
[अब केवलनिश्चयावलम्बी [अज्ञानी] जीवोंका प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता हैः–]
अब, जो केवलनिश्चयावलम्बी हैं, सकल क्रियाकर्मकाण्डके आडम्बरमें विरक्त बुद्धिवाले वर्तते ------------------------------------------------------------------------- १। मंथर = मंद; जड़; सुस्त। २। इस गाथाकी संस्कृत छाया इस प्रकार हैः चरणकरणप्रधानाः स्वसमयपरमार्थमुक्तव्यापाराः। चरणकरणस्य सारं
३। श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति–टीकामें व्यवहार–एकान्तका निम्नानुसार स्पष्टीकरण किया गया हैः–
परम्परा प्राप्त करते हुए संसारमें परिभ्रमण करते हैंः किन्तु यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षण निश्चयमोक्षमार्गको माने
और निश्चयमोक्षमार्गका अनुष्ठान करनेकी शक्तिके अभावके कारण निश्चयसाधक शुभानुष्ठान करें, तो वे सराग
सम्यग्द्रष्टि हैं और परम्परासे मोक्ष प्राप्त करते हैं। –इस प्रकार व्यवहार–एकान्तके निराकरणकी मुख्यतासे दो
वाक्य कहे गये।
और उन्हें जो शुभ अनुष्ठान है वह मात्र उपचारसे ही ‘निश्चयसाधक [निश्चयके साधनभूत]’ कहा गया
है ऐसा समझना।
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विलोचनपुटाः किमपि स्वबुद्धयावलोक्य यथासुखमासते, ते खल्ववधीरितभिन्नसाध्यसाधनभावा अभिन्नसाध्यसाधनभावमलभमाना अन्तराल एव प्रमादकादम्बरीमदभरालसचेतसो मत्ता इव, मूर्च्छिता इव, सुषुप्ता इव, प्रभूतघृतसितोपलपायसासादितसौहित्या इव, ससुल्बणबल–सञ्जनितजाडया इव, दारुणमनोभ्रंशविहित मोहा इव, मुद्रितविशिष्टचैतन्या वनस्पतय इव,
-----------------------------------------------------------------------------
हुए, आँखोंको अधमुन्दा रखकर कुछभी स्वबुद्धिसे अवलोक कर यथासुख रहते हैं [अर्थात् स्वमतिकल्पनासे कुछ भी भासकी कल्पना करके इच्कानुसार– जैसे सुख उत्पन्न हो वैसे–रहते हैं], वे वास्तवमें भिन्नसाध्यसाधनभावको तिरस्कारते हुए, अभिन्नसाध्यसाधनभावको उपलब्ध नहीं करते हुए, अंतरालमें ही [–शुभ तथा शुद्धके अतिरिक्त शेष तीसरी अशुभ दशामें ही], प्रमादमदिराके मदसे भरे हुए आलसी चित्तवाले वर्तते हुए, मत्त [उन्मत्त] जैसे, मूर्छित जैसे, सुषुप्त जैसे, बहुत घी–शक्कर खीर खाकर तृप्तिको प्राप्त हुए [तृप्त हुए] हों ऐसे, मोटे शरीरके कारण जड़ता [– मंदता, निष्क्रियता] उत्पन्न हुई हो ऐसे, दारुण बुद्धिभ्रंशसे मूढ़ता हो गई हो ऐसे, जिसका विशिष्टचैतन्य मुँद
------------------------------------------------------------------------- १। यथासुख = इच्छानुसार; जैसे सुख उत्पन्न हो वैसे; यथेच्छरूपसे। [जिन्हें द्रव्यार्थिकनयके [निश्चयनयके]
ऐसा होने पर भी जो निज कल्पनासे अपनेमें किंचित भास होनेकी कल्पना करके निश्चिंतरूपसे स्वच्छंदपूर्वक
वर्तते हैं। ‘ज्ञानी मोक्षमार्गी जीवोंको प्राथमिक दशामें आंशिक शुद्धिके साथ–साथ भूमिकानुसार शुभ भाव भी
होते हैं’–इस बातकी श्रद्धा नहीं करते, उन्हें यहाँ केवल निश्चयावलम्बी कहा है।]
२। मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवोंको सविकल्प प्राथमिक दशामें [छठवें गुणस्थान तक] व्यवहारनयकी अपेक्षासे
श्रावक–मुनिके आचार सम्बन्धी शुभ भाव होते हैं।–यह वात केवलनिश्चयावलम्बी जीव नहीं मानता अर्थात्
[आंशिक शुद्धिके साथकी] शुभभाववाली प्राथमिक दशाको वे नहीं श्रद्धते और स्वयं अशुभ भावोंमें वर्तते होने
पर भी अपनेमें उच्च शुद्ध दशाकी कल्पना करके स्वच्छंदी रहते हैं।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
मौनीन्द्रीं कर्मचेतनां पुण्यबन्धभयेनानवलम्बमाना अनासादितपरमनैष्कर्म्यरूपज्ञानचेतनाविश्रान्तयो व्यक्ताव्यक्तप्रमादतन्त्रा अरमागतकर्म–फलचेतनाप्रधानप्रवृत्तयो वनस्पतय इव केवलं पापमेव बध्नन्ति। उक्तञ्च–‘‘णिच्छयमालम्बंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता। णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा केई’’।। -----------------------------------------------------------------------------
गया है ऐसी वनस्पति जैसे, मुनींद्रकी कर्मचेतनाको पुण्यबंधके भयसे नहीं अवलम्बते हुए और परम नैष्कर्म्यरूप ज्ञानचेतनामें विश्रांतिको प्राप्त नहीं होते हुए, [मात्र] व्यक्त–अव्यक्त प्रमादके आधीन वर्तते हुए, प्राप्त हुए हलके [निकृःष्ट] कर्मफलकी चेतनाके प्रधानपनेवाली प्रवृत्ति जिसे वर्तती है ऐसी वनस्पतिकी भाँति, केवल पापको ही बाँधते है। कहा भी है किः–– णिच्छयमालम्बंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता। णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा केई।। [अर्थात् निश्चयका अवलम्बन लेने वाले परन्तु निश्चयसे [वास्तवमें] निश्चयको नहीं जानने वाले कई जीव बाह्य चरणमें आलसी वर्तते हुए चरणपरिणामका नाश करते हैं।]
------------------------------------------------------------------------- १। केवलनिश्चयावलम्बी जीव पुण्यबन्धके भयसे डरकर मंदकषायरूप शुभभाव नहीं करते और पापबन्धके
२। इस गाथाकी संस्कृत छाया इस प्रकार हैेः निश्चयमालम्बन्तो निश्चयतो निश्चयमजानन्तः। नाशयन्ति चरणकरणं
३। श्री जयसेनाचार्यदेवरचित टीकामें [व्यवहार–एकान्तका स्पष्टीकरण करनेके पश्चात् तुरन्त ही] निश्चयएकान्तका
[व्यवहारसे] आचरनेयोग्य दानपूजादिरूप अनुष्ठानको दूषण देते हैं, वे भी उभयभ्रष्ट वर्तते हुए, निश्चयव्यवहार–
अनुष्ठानयोग्य अवस्थांतरको नहीं जानते हुए पापको ही बाँधते हैं [अर्थात् केवल निश्चय–अनुष्ठानरूप शुद्ध
अवस्थासे भिन्न ऐसी जो निश्चय–अनुष्ठान और व्यवहारअनुष्ठानवाली मिश्र अवस्था उसे नहीं जानते हुए पापको
ही बाँधते हैं], परन्तु यदि शुद्धात्मानुष्ठानरूप मोक्षमार्गको और उसके साधकभूत [व्यवहारसाधनरूप]
व्यवहारमोक्षमार्गको माने, तो भले चारित्रमोहके उदयके कारण शक्तिका अभाव होनेसे शुभ–अनुष्ठान रहित हों
तथापि – यद्यपि वे शुद्धात्मभावनासापेक्ष शुभ–अनुष्ठानरत पुरुषों जैसे नहीं हैं तथापि–सराग सम्यक्त्वादि द्वारा
व्यवहारसम्यग्द्रष्टि है और परम्परासे मोक्ष प्राप्त करते हैं।––इस प्रकार निश्चय–एकान्तके निराकरणकी
मुख्यतासे दो वाक्य कहे गये।
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ये तु पुनरपुनर्भवाय नित्यविहितोद्योगमहाभागा भगवन्तो निश्चयव्यवहारयोरन्यत– रानवलम्बनेनात्यन्तमध्यस्थीभूताः -----------------------------------------------------------------------------
[अब निश्चय–व्यवहार दोनोंका सुमेल रहे इस प्रकार भूमिकानुसार प्रवर्तन करनेवाले ज्ञानी जीवोंका प्रवर्तन और उसका फल कहा जाता हैः–
व्यवहारमेंसे किसी एकका ही अवलम्बन नहीं लेनेसे [–केवलनिश्चयावलम्बी या केवलव्यवहारावलम्बी नहीं होनेसे] अत्यन्त मध्यस्थ वर्तते हुए, ------------------------------------------------------------------------- [यहाँ जिन जीवोंको ‘व्यवहारसम्यग्द्रष्टि कहा है वे उपचारसे सम्यग्द्रष्टि हैं ऐसा नहीं समझना। परन्तु वे वास्तवमें सम्यग्द्रष्टि हैं ऐसा समझना। उन्हें चारित्र–अपेक्षासे मुख्यतः रागादि विद्यमान होनेसे सराग सम्यक्त्ववाले कहकर ‘व्यवहारसम्यग्द्रष्टि’ कहा है। श्री जयसेनाचार्यदेवने स्वयं ही १५०–१५१ वीं गाथाकी टीकामें कहा है कि – जब यह जीव आगमभाषासे कालादिलब्धिरूप और अध्यात्मभाषासे शुद्धात्माभिमुख परिणामरूप स्वसंवेदनज्ञानको प्राप्त करता है तब प्रथम तो वह मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियोंके उपशम और क्षयोपशम द्वारा सराग–सम्यग्द्रष्टि होता है।] १। निश्चय–व्यवहारके सुमेलकी स्पष्टताके लिये पृष्ठ २५८का पद टिप्पण देखें। २। महाभाग = महा पवित्र; महा गुणवान; महा भाग्यशाली। ३। मोक्षके लिये नित्य उद्यम करनेवाले महापवित्र भगवंतोंको [–मोक्षमार्गी ज्ञानी जीवोंको] निरन्तर
तरतमतानुसार सविकल्प दशामें भूमिकानुसार शुद्धपरिणति तथा शुभपरिणतिका यथोचित सुमेल [हठ रहित]
होता है इसलिये वे जीव इस शास्त्रमें [२५८ वें पृष्ठ पर] जिन्हें केवलनिश्चयावलम्बी कहा हैे ऐसे
केवलनिश्चयावलम्बी नहीं हैं तथा [२५९ वें पृष्ठ पर] जिन्हें केवलव्यवहारावलम्बी कहा है ऐसे
केवलव्यवहारावलम्बी नहीं हैं।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
शुद्धचैतन्यरूपात्मतत्त्वविश्रान्तिविरचनोन्मुखाः प्रमादोदयानुवृत्ति–निवर्तिकां क्रियाकाण्डपरिणतिंमाहात्म्यान्निवारयन्तोऽत्यन्तमुदासीना यथाशक्तयाऽऽत्मानमात्म–नाऽऽत्मनि संचेतयमाना नित्योपयुक्ता निवसन्ति, ते खलु स्वतत्त्वविश्रान्त्यनुसारेण क्रमेण कर्माणि संन्यसन्तोऽत्यन्तनिष्प्रमादानितान्तनिष्कम्पमूर्तयो वनस्पतिभिरूपमीयमाना अपि दूरनिरस्तकर्मफलानुभूतयःकर्मानुभूतिनिरुत्सुकाःकेवलज्ञानानुभूतिसमुपजाततात्त्विका– नन्दनिर्भरतरास्तरसा संसारसमुद्रमुत्तीर्य शब्द–ब्रह्मफलस्य शाश्वतस्य भोक्तारो भवन्तीति।। १७२।।
भणियं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं सुत्तं।। १७३।।
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शुद्धचैतन्यरूप आत्मतत्त्वमें विश्रांतिके अनुसरण करती हुई वृत्तिका निवर्तन करनेवाली [टालनेवाली] क्रियाकाण्डपरिणतिको माहात्म्यमेंसे वारते हुए [–शुभ क्रियाकाण्डपरिणति हठ रहित सहजरूपसे भूमिकानुसार वर्तती होने पर भी अंतरंगमें उसे माहात्म्य नहीं देते हुए], अत्यन्त उदासीन वर्तते हुए, यथाशक्ति आत्माको आत्मासे आत्मामें संचेतते [अनुभवते] हुए नित्य–उपयुक्त रहते हैं, वे [–वे महाभाग भगवन्तों], वास्तवमें स्वतत्त्वमें विश्रांतिके अनुसार क्रमशः कर्मका संन्यास करते हुए [–स्वतत्त्वमें स्थिरता होती जाये तदनुसार शुभ भावोंको छोड़ते हुए], अत्यन्त निष्प्रमाद वर्तते हुए, अत्यन्त निष्कंपमूर्ति होनेसे जिन्हें वनस्पतिकी उपमा दी जाती है तथापि जिन्होंनेे कर्मफलानुभूति अत्यन्त निरस्त [नष्ट] की है ऐसे, कर्मानुभूतिके प्रति निरुत्सुक वर्तते हुए, केवल [मात्र] ज्ञानानुभूतिसे उत्पन्न हुए तात्त्विक आनन्दसे अत्यन्त भरपूर वर्तते हुए, शीघ्र संसारसमुद्रको पार उतरकर, शब्दब्रह्मके शाश्वत फलके [– निर्वाणसुखके] भोक्ता होते हैं।। १७२।। ------------------------------------------------------------------------- १। विरचन = विशेषरूपसे रचना; रचना।
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कर्तुः प्रतिज्ञानिर्व्यूढिसूचिका समापनेयम् । मार्गो हि परमवैराग्यकरणप्रवणा पारमेश्वरी परमाज्ञा; तस्या प्रभावनं प्रख्यापनद्वारेण प्रकृष्टपरिणतिद्वारेण वा समुद्योतनम्; तदर्थमेव परमागमानुरागवेगप्रचलितमनसा संक्षेपतः समस्तवस्तुतत्त्वसूचकत्वादतिविस्तृतस्यापि -----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [प्रवचनभक्तिप्रचोदितेन मया] प्रवचनकी भक्तिसे प्रेरित ऐसे मैने [मार्गप्रभावनार्थं] मार्गकी प्रभावके हेतु [प्रवचनसारं] प्रवचनके सारभूत [पञ्चास्तिकसंग्रहं सूत्रम्] ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ सूत्र [भणितम्] कहा।
टीकाः– यह, कर्ताकी प्रतिज्ञाकी पूर्णता सूचितवाली समाप्ति है [अर्थात् यहाँ शास्त्रकर्ता श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव अपनी प्रतिज्ञाकी पूर्णता सूचित करते हुए शास्त्रसमाप्ति करते हैं]।
मार्ग अर्थात् परम वैराग्य की ओर ढलती हुई पारमेश्वरी परम आज्ञा [अर्थात् परम वैराग्य करनेकी परमेश्वरकी परम आज्ञा]; उसकी प्रभावना अर्थात् प्रख्यापन द्वारा अथवा प्रकृष्ट परिणति द्वारा उसका समुद्योत करना; [परम वैराग्य करनेकी जिनभगवानकी परम आज्ञाकी प्रभावना अर्थात् [१] उसकी प्रख्याति–विज्ञापन–करने द्वारा अथवा [२] परमवैराग्यमय प्रकृष्ट परिणमन द्वारा, उसका सम्यक् प्रकारसे उद्योत करना;] उसके हेतु ही [–मार्गकी प्रभावनाके लिये ही], परमागमकी ओरके अनुरागके वेगसे जिसका मन अति चलित होता था ऐसे मैंने यह ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ नामका सूत्र कहा–जो कि भगवान सर्वज्ञ द्वारा उपज्ञ होनेसे [–वीतराग सर्वज्ञ जिनभगवानने स्वयं जानकर प्रणीत किया होनेसे] ‘सूत्र’ है, और जो संक्षेपसे समस्तवस्तुतत्त्वका [सर्व वस्तुओंके यथार्थ स्वरूपका] प्रतिपादन करता होनेसे, अति विस्तृत ऐसे भी प्रवचनके सारभूत हैं [–द्वादशांगरूपसे विस्तीर्ण ऐसे भी जिनप्रवचनके सारभूत हैं]।
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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
प्रवचनस्य सारभूतं पञ्चास्तिकायसंग्रहा–भिधानं भगवत्सर्वज्ञोपज्ञत्वात् सूत्रमिदमभिहितं मयेति। अथैवं शास्त्रकारः प्रारब्धस्यान्त–मुपगम्यात्यन्तं कृतकृत्यो भूत्वा परमनैष्कर्म्यरूपे शुद्धस्वरूपे विश्रान्त इति श्रद्धीयते।। १७३।।
र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः।
स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः।। ८।।
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इस प्रकार शास्त्रकार [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव] प्रारम्भ किये हुए कार्यके अन्तको पाकर, अत्यन्त कृतकृत्य होकर, परमनैष्कर्म्यरूप शुद्धस्वरूपमें विश्रांत हुए [–परम निष्कर्मपनेरूप शुद्धस्वरूपमें स्थिर हुए] ऐसे श्रद्धे जाते हैं [अर्थात् ऐसी हम श्रद्धा करते हैं]।। १७३।।
इस प्रकार [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रहशास्त्रकी श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित] समयव्याख्या नामकी टीकामें नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन नामका द्वितीय श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। [अब, ‘यह टीका शब्दोने की है, अमृतचन्द्रसूरिने नहीं’ ऐसे अर्थका एक अन्तिम श्लोक कहकर अमृतचन्द्राचार्यदेव टीकाकी पूर्णाहुति करते हैंः]
ऐसे शब्दोंने यह समयकी व्याख्या [–अर्थसमयका व्याख्यान अथवा पंचास्तिकायसंग्रहशास्त्रकी टीका] की है; स्वरूपगुप्त [–अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमें गुप्त] अमृतचंद्रसूरिका [उसमें] किंचित् भी कर्तव्य नही हैं ।। [८]।।
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इति पंचास्तिकायसंग्रहाभिधानस्य समयस्य व्याख्या समाप्ता। -----------------------------------------------------------------------------
इस प्रकार [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत] श्री पंचास्तिकायसंग्रह नामक समयकी अर्थात् शास्त्रकी [श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित समयव्याख्या नामकी] टीकाके श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती अनुवादका हिन्दी रूपान्तर समाप्त हुआ।