Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 1-6 ; Shaddravya panchastikayna samanaya vyakhyanroop pithika; Gatha: 1-8.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 3 of 15

 

Page 1 of 256
PDF/HTML Page 41 of 296
single page version

नमः श्रीसर्वज्ञवीतरागाय
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
पंचास्तिकायसंग्रह
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
श्रीमदमृतचन्द्राचार्यदेवविरचिता समयव्याख्या
सहजानन्दचैतन्यप्रकाशाय महीयसे
नमोऽनेकान्तविश्रान्तमहिम्ने परमात्मने ।।।।
मूळ गाथाओनो अने समयव्याख्या नामनी टीकानो
गुजराती अनुवाद

[प्रथम, ग्रंथना आदिमां श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत प्राकृतगाथाबद्ध आ पंचास्तिकायसंग्रह’ नामना शास्त्रनी ‘समयव्याख्या’ नामनी संस्कृत टीका रचनार आचार्य श्री अमृतचंद्राचार्यदेव श्लोक द्वारा मंगळ अर्थे परमात्माने नमस्कार करे छे]

[श्लोकार्थः] सहज आनंद अने सहज चैतन्यप्रकाशमय होवाथी जे अति महान छे अने अनेकांतमां स्थित जेनो महिमा छे, ते परमात्माने नमस्कार हो. [] पं. १


Page 2 of 256
PDF/HTML Page 42 of 296
single page version

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
दुर्निवारनयानीकविरोधध्वंसनौषधिः
स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः ।।।।
सम्यग्ज्ञानामलज्योतिर्जननी द्विनयाश्रया
अथातः समयव्याख्या संक्षेपेणाऽभिधीयते ।।।।
[हवे टीकाकार आचार्यदेव श्लोक द्वारा जिनवाणीनी स्तुति करे छे]
[श्लोकार्थः] स्यात्कार जेनुं जीवन छे एवी जैनी (जिनभगवाननी)

सिद्धांतपद्धतिके जे दुर्निवार नयसमूहना विरोधनो नाश करनारी औषधि छे ते जयवंत हो. []

[हवे टीकाकार आचार्यदेव श्लोक द्वारा आ पंचास्तिकायसंग्रह नामना शास्त्रनी टीका रचवानी प्रतिज्ञा करे छे]

[श्लोकार्थ] हवे अहींथी, जे सम्यग्ज्ञानरूपी निर्मळ ज्योतिनी जननी छे एवी द्विनयाश्रित (बे नयोनो आश्रय करनारी) समयव्याख्या (पंचास्तिकायसंग्रह नामना शास्त्रनी समयव्याख्या नामनी टीका) संक्षेपथी कहेवामां आवे छे. []

[हवे त्रण श्लोको द्वारा टीकाकार आचार्यदेव आ पंचास्तिकायसंग्रह नामना शास्त्रमां कया कया विषयोनुं निरूपण छे ते अति संक्षेपथी कहे छे] १. ‘स्यात्’ पद जिनदेवनी सिद्धांतपद्धतिनुं जीवन छे. (स्यात् = कथंचित्; कोई अपेक्षाथी; कोई

प्रकारे.) २. दुर्निवार = निवारवो मुश्केल; टाळवो मुश्केल. ३. दरेक वस्तु नित्यत्व, अनित्यत्व वगेरे अनेक अंतमय (धर्ममय) छे. वस्तुनी सर्वथा नित्यता तेम

ज सर्वथा अनित्यता मानवामां पूरेपूरो विरोध आवतो होवा छतां, कथंचित् (अर्थात् द्रव्य-
अपेक्षाए) नित्यता अने कथंचित् (अर्थात् पर्याय-अपेक्षाए) अनित्यता मानवामां जरा पण
विरोध आवतो नथी एम जिनवाणी स्पष्ट समजावे छे. आ रीते जिनभगवाननी वाणी स्याद्वाद
वडे (
अपेक्षाकथनथी) वस्तुनुं परम यथार्थ निरूपण करीने, नित्यत्व-अनित्यत्वादि धर्मोमां (अने
ते ते धर्म बतावनारा नयोमां) अविरोध (सुमेळ) अबाधितपणे सिद्ध करे छे अने धर्मो विना
वस्तुनी निष्पत्ति ज न होई शके एम निर्बाधपणे स्थापे छे.

४. समयव्याख्या=समयनी व्याख्या; पंचास्तिकायनी व्याख्या; द्रव्यनी व्याख्या; पदार्थनी व्याख्या.

[व्याख्या=व्याख्यान; स्पष्ट कथन; विवरण; स्पष्टीकरण.]

Page 3 of 256
PDF/HTML Page 43 of 296
single page version

कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यप्रकारेण प्ररूपणम्
पूर्वं मूलपदार्थानामिह सूत्रकृता कृतम् ।।।।
जीवाजीवद्विपर्यायरूपाणां चित्रवर्त्मनाम्
ततो नवपदार्थानां व्यवस्था प्रतिपादिता ।।।।
ततस्तत्त्वपरिज्ञानपूर्वेण त्रितयात्मना
प्रोक्ता मार्गेण कल्याणी मोक्षप्राप्तिरपश्चिमा ।।।।

[श्लोकार्थ] अहीं पहेलां *सूत्रकर्ताए मूळ पदार्थोनुं पंचास्तिकाय अने षड्द्रव्यना प्रकारथी प्ररूपण कर्युं छे (अर्थात् आ शास्त्रमां प्रथम अधिकारने विषे श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवे विश्वना मूळ पदार्थोनुं पांच अस्तिकाय अने छ द्रव्यनी पद्धतिथी निरूपण कर्युं छे). []

[श्लोकार्थ] पछी (बीजा अधिकारमां), जीव अने अजीव ए बेना पर्यायोरूप नव पदार्थोनीके जेमना मार्ग अर्थात् कार्य भिन्नभिन्न प्रकारना छे तेमनी व्यवस्था प्रतिपादित करी छे. []

[श्लोकार्थ] पछी (बीजा अधिकारना अंतमां) तत्त्वना परिज्ञानपूर्वक (पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य अने नव पदार्थना यथार्थ ज्ञानपूर्वक) त्रयात्मक मार्गथी (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक मार्गथी) कल्याणस्वरूप उत्तम मोक्षप्राप्ति कही छे. [] *आ शास्त्रना कर्ता श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव छे. तेमनां बीजां नामो पद्मनंदी, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य अने गृध्रपिच्छाचार्य छे. श्री जयसेनाचार्यदेव आ शास्त्रनी तात्पर्यवृत्ति नामनी टीकानो प्रारंभ करतां लखे छे केः ‘हवे श्री कुमारनंदी-सिद्धांतिदेवना शिष्य श्रीमत्कुंदकुंदाचार्यदेवेजेमनां

बीजां नामो पद्मनंदी वगेरे हतां तेमणेप्रसिद्धकथान्याये पूर्वविदेहमां जई वीतराग-सर्वज्ञ
सीमंधरस्वामी तीर्थंकरपरमदेवनां दर्शन करीने, तेओश्रीना मुखकमळथी नीकळेली दिव्य वाणीना
श्रवण वडे अवधारित पदार्थ द्वारा शुद्धात्मतत्त्वादि सारभूत अर्थने ग्रहीने, त्यांथी पाछा आवी
अंतःतत्त्व अने बहिःतत्त्वना गौण-मुख्य प्रतिपादन अर्थे अथवा शिवकुमारमहाराजादि संक्षेपरुचि
शिष्यना प्रतिबोधन अर्थे रचेला पंचास्तिकाय-प्राभृतशास्त्रनुं यथाक्रमे अधिकारशुद्धिपूर्वक
तात्पर्यार्थरूप व्याख्यान करवामां आवे छे.’

Page 4 of 256
PDF/HTML Page 44 of 296
single page version

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अथ सूत्रावतार :
इंदसदवंदियाणं तिहुवणहिदमधुरविसदवक्काणं
अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं ।।।।
इन्द्रशतवन्दितेभ्यस्त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः
अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः ।।।।

अथात्र ‘नमो जिनेभ्यः’ इत्यनेन जिनभावनमस्काररूपमसाधारणं शास्त्रस्यादौ मङ्गलमुपात्तम् अनादिना सन्तानेन प्रवर्तमाना अनादिनैव सन्तानेन प्रवर्तमानैरिन्द्राणां शतैर्वन्दिता ये इत्यनेन सर्वदैव देवाधिदेवत्वात्तेषामेवासाधारणनमस्कारार्हत्वमुक्तम्

हवे (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवविरचित) गाथासूत्रनुं अवतरण करवामां आवे छे

शत-इन्द्रवंदित, त्रिजगहित-निर्मळ-मधुर वदनारने,
निःसीम गुण धरनारने, जितभव नमुं जिनराजने. १.

अन्वयार्थः[इन्द्रशतवन्दितेभ्यः] सो इन्द्रोथी जे वंदित छे, [त्रिभुवनहित- मधुरविशदवाक्येभ्यः] त्रण लोकने हितकर, मधुर अने विशद (निर्मळ, स्पष्ट) जेमनी वाणी छे, [अन्तातीतगुणेभ्यः] (चैतन्यना अनंत विलासस्वरूप) अनंत गुण जेमने वर्ते छे अने [जितभवेभ्यः] भव उपर जेमणे जय मेळव्यो छे, [जिनेभ्यः] ते जिनोने [नमः] नमस्कार हो.

टीकाअहीं (आ गाथामां) ‘जिनोने नमस्कार हो’ एम कहीने शास्त्रना आदिमां जिनने भावनमस्काररूप असाधारण मंगळ कह्युं. ‘जेओ अनादि प्रवाहथी प्रवर्तता (-चाल्या आवता) थका अनादि प्रवाहथी ज प्रवर्तता (-चाल्या आवता) सो सो इंद्रोथी वंदित छे’ एम कहीने सदाय देवाधिदेवपणाने लीधे तेओ ज (जिनो ज) असाधारण नमस्कारने योग्य छे एम कह्युं. ‘जेमनी वाणी अर्थात् दिव्य ध्वनि त्रण १. मळने अर्थात् पापने गाळेनष्ट करे ते मंगळ छे, अथवा सुखने प्राप्त करेलावे ते मंगळ छे. २. भवनवासी देवोना ४० इन्द्रो, व्यंतर देवोना ३२, कल्पवासी देवोना २४, ज्योतिष्क देवोना २,

मनुष्योनो १ अने तिर्यंचोनो १एम कुल १०० इन्द्रो अनादि प्रवाहरूपे चाल्या आवे छे.

Page 5 of 256
PDF/HTML Page 45 of 296
single page version

कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन

त्रिभुवनमूर्ध्वाधोमध्यलोकवर्ती समस्त एव जीवलोकस्तस्मै निर्व्याबाधविशुद्धात्म- तत्त्वोपलम्भोपायाभिधायित्वाद्धितं, परमार्थरसिकजनमनोहारित्वान्मधुरं, निरस्तसमस्त- शंकादिदोषास्पदत्वाद्विशदं वाक्यं दिव्यो ध्वनिर्येषामित्यनेन समस्तवस्तुयाथात्म्योप- देशित्वात्प्रेक्षावत्प्रतीक्ष्यत्वमाख्यातम् अन्तमतीतः क्षेत्रानवच्छिन्नः कालानवच्छिन्नश्च परमचैतन्यशक्तिविलासलक्षणो गुणो येषामित्यनेन तु परमाद्भुतज्ञानातिशयप्रकाश- नादवाप्तज्ञानातिशयानामपि योगीन्द्राणां वन्द्यत्वमुदितम् जितो भव आजवंजवो यैरित्यनेन तु कृतकृत्यत्वप्रकटनात्त एवान्येषामकृतकृत्यानां शरणमित्युपदिष्टम् इति सर्वपदानां तात्पर्यम् ।।।। लोकनेऊर्ध्व-अधो-मध्य लोकवर्ती सघळाय जीवसमूहनेनिर्बाध विशुद्ध आत्मतत्त्वनी उपलब्धिनो उपाय कहेनार होवाथी हितकर छे, परमार्थरसिक जनोनां मनने हरनार होवाथी मधुर छे अने समस्त शंकादि दोषोनां स्थान दूर करवामां आव्यां होवाथी विशद (निर्मळ, स्पष्ट) छे’ एम कहीने (जिनो) समस्त वस्तुना यथार्थ स्वरूपनो उपदेश करनारा होवाथी विचारवंत डाह्या पुरुषोना बहुमानने योग्य छे (अर्थात जेमनो उपदेश विचारवंत डाह्या पुरुषोए बहुमानपूर्वक विचारवो जोईए एवा छे) एम कह्युं. ‘अनंतक्षेत्रथी अंत रहित अने काळथी अंत रहितपरमचैतन्यशक्तिना विलासस्वरूप गुण जेमने वर्ते छे’ एम कहीने (जिनोने) परम अद्भुत ज्ञानातिशय प्रगट थयो होवाथी ज्ञानातिशयने पामेला योगींद्रोथी पण वंद्य छे एम कह्युं. ‘भव अर्थात् संसार उपर जेमणे जय मेळव्यो छे’ एम कहीने कृतकृत्यपणुं प्रगट थयुं होवाथी तेओ ज (जिनो ज) बीजा अकृतकृत्य जीवोनुं शरण छे एम उपदेश्युं. आ प्रमाणे सर्व पदोनुं तात्पर्य छे.

भावार्थअहीं जिनभगवंतोनां चार विशेषणो वर्णवीने तेमने भावनमस्कार कर्यो छे. (१) प्रथम तो, जिनभगवंतो सो इन्द्रोथी वंद्य छे. आवा असाधारण नमस्कारने योग्य बीजुं कोई नथी, कारण के देवोने अने असुरोने युद्ध थतुं होवाथी (देवाधिदेव जिनभगवान सिवाय) अन्य कोई पण देव सो इन्द्रोथी वंदित नथी. (२) बीजुं, जिनभगवाननी वाणी त्रण लोकने शुद्ध आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय दर्शावती होवाथी हितकर छे; वीतराग निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न सहज-अपूर्व- परमानंदरूप पारमार्थिकसुखरसास्वादना रसिक जनोनां मनने हरती होवाथी (अर्थात परम समरसीभावना रसिक जीवोने मुदित करती होवाथी) मधुर छे; शुद्ध


Page 6 of 256
PDF/HTML Page 46 of 296
single page version

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
समणमुहुग्गदमट्ठं चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं
एसो पणमिय सिरसा समयमिणं सुणह वोच्छामि ।।।।

जीवास्तिकायादि सात तत्त्व, नव पदार्थ, छ द्रव्य अने पांच अस्तिकायनुं संशय-विमोह- विभ्रम रहित निरूपण करती होवाथी अथवा पूर्वापरविरोधादि दोष रहित होवाथी अथवा युगपद् सर्व जीवोने पोतपोतानी भाषामां स्पष्ट अर्थनुं प्रतिपादन करती होवाथी विशद-स्पष्ट-व्यक्त छे. आ रीते जिनभगवाननी वाणी ज प्रमाणभूत छे; एकांते अपौरुषेय वचन के विचित्र कथारूप कल्पित पुराणवचनो प्रमाणभूत नथी. (३) त्रीजुं, अनंत द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावने जाणनारो अनंत केवळज्ञानगुण जिनभगवंतोने वर्ते छे. आ रीते बुद्धि आदि सात ॠद्धि तेम ज मतिज्ञानादि चतुर्विध ज्ञानथी संपन्न गणधरदेवादि योगींद्रोने पण तेओ वंद्य छे. (४) चोथुं, पांच प्रकारना संसारने जिनभगवंतोए जीत्यो छे. आ रीते कृतकृत्यपणाने लीधे तेओ ज बीजा अकृतकृत्य जीवोनुं शरण छे, अन्य कोई नहि. आ प्रमाणे चार विशेषणोथी युक्त जिनभगवंतोने ग्रंथना आदिमां भाव- नमस्कार करीने मंगळ कर्युं.

प्रश्नजे शास्त्र पोते ज मंगळ छे, तेनुं मंगळ शा माटे करवामां आवे छे?

उत्तरभक्ति अर्थे मंगळनुं पण *मंगळ करवामां आवे छे. सूर्यने दीपकथी, महासागरने जळथी, वागीश्वरीने (सरस्वतीने) वाणीथी अने मंगळने मंगळथी अर्चवामां आवे छे. १.

आ समयने शिरनमनपूर्वक भाखुं छुं, सुणजो तमे;
जिनवदननिर्गत-अर्थमय, चउगतिहरण, शिवहेतु छे. २.

* आ गाथानी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामां, शास्त्रनुं मंगळ, शास्त्रनुं निमित्त, शास्त्रनो हेतु (फळ), शास्त्रनुं परिमाण, शास्त्रनुं नाम अने शास्त्रना कर्ताए छ बाबतोनुं विस्तृत विवेचन कर्युं छे.

वळी श्री जयसेनाचार्यदेवे आ गाथाना शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ अने भावार्थ समजावीने, ‘ए रीते व्याख्यानकाळे सर्वत्र शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ अने भावार्थ योजवायोग्य छे’ एम कह्युं छे.


Page 7 of 256
PDF/HTML Page 47 of 296
single page version

कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
श्रमणमुखोद्गतार्थं चतुर्गतिनिवारणं सनिर्वाणम्
एष प्रणम्य शिरसा समयमिमं शृणुत वक्ष्यामि ।।।।

समयो ह्यागमः तस्य प्रणामपूर्वकमात्मनाभिधानमत्र प्रतिज्ञातम् युज्यते हि स प्रणन्तुमभिधातुं चाप्तोपदिष्टत्वे सति सफलत्वात तत्राप्तोपदिष्टत्वमस्य श्रमणमुखोद्- गतार्थत्वात श्रमणा हि महाश्रमणाः सर्वज्ञवीतरागाः अर्थः पुनरनेकशब्दसम्बन्धे- नाभिधीयमानो वस्तुतयैकोऽभिधेयः सफलत्वं तु चतसृणां नारकतिर्यग्मनुष्यदेवत्वलक्षणानां गतीनां निवारणत्वात् पारतंत्र्यनिवृत्तिलक्षणस्य निर्वाणस्य शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपस्य परम्परया कारणत्वात् स्वातंत्र्यप्राप्तिलक्षणस्य च फलस्य सद्भावादिति ।।।।

अन्वयार्थः[श्रमणमुखोद्गतार्थं] श्रमणना मुखमांथी नीकळेल अर्थमय (सर्वज्ञ महामुनिना मुखथी कहेवायेला पदार्थोने कहेनार), [चतुर्गतिनिवारणं] चार गतिनुं निवारण करनार अने [सनिर्वाणम्] निर्वाण सहित (-निर्वाणना कारणभूत) [इमं समयं] एवा आ समयने [शिरसा प्रणम्य] शिरसा प्रणमीने [एष वक्ष्यामि] हुं तेनुं कथन करुं छुं; [शृणुत] ते श्रवण करो.

टीकासमय एटले आगम; तेने प्रणाम करीने पोते तेनुं कथन करशे एम अहीं (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवे) प्रतिज्ञा करी छे. ते (समय) प्रणाम करवाने अने कथन करवाने योग्य छे, कारण के ते *आप्त वडे उपदिष्ट होवाथी सफळ छे. त्यां, तेनुं आप्त वडे उपदिष्टपणुं एटला माटे छे के जेथी ते ‘श्रमणना मुखमांथी नीकळेल अर्थमय’ छे. ‘श्रमणो’ एटले महाश्रमणोसर्वज्ञवीतरागदेवो; अने ‘अर्थ’ एटले अनेक शब्दोना संबंधथी कहेवामां आवतो, वस्तुपणे एक एवो पदार्थ. वळी तेनुं (-समयनुं) सफळपणुं एटला माटे छे के जेथी ते समय (१) ‘नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व अने देवत्वस्वरूप चार गतिओनुं निवारण’ करवाने लीधे अने (२) शुद्धात्मतत्त्वनी उपलब्धिरूप ‘निर्वाणनुं परंपराए कारण होवाने लीधे (१) परतंत्रतानिवृत्ति जेनुं लक्षण छे अने (२) स्वतंत्रताप्राप्ति जेनुं *आप्त = विश्वासपात्र; प्रमाणभूत; यथार्थ वक्ता. [सर्वज्ञदेव समस्त विश्वने प्रत्येक समये संपूर्णपणे

जाणी रह्या छे अने तेओ वीतराग (मोहरागद्वेषरहित) होवाथी तेमने असत्य कहेवानुं लेशमात्र
प्रयोजन रह्युं नथी; तेथी वीतराग-सर्वज्ञदेव खरेखर आप्त छे. आवा आप्त वडे आगम
उपदेशवामां आव्युं होवाथी ते (
आगम) सफळ छे.]

Page 8 of 256
PDF/HTML Page 48 of 296
single page version

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
समवाओ पंचण्हं समउ त्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं
सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं ।।।।
समवादः समवायो वा पंचानां समय इति जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्

स च एव भवति लोकस्ततोऽमितोऽलोकः खम् ।।।।

अत्र शब्दज्ञानार्थरूपेण त्रिविधाऽभिधेयता समयशब्दस्य लोकालोकविभाग- श्चाभिहितः लक्षण छे एवा +फळथी सहित छे.

भावार्थःवीतरागसर्वज्ञ महाश्रमणना मुखथी नीकळेला शब्दसमयने कोई आसन्नभव्य पुरुष सांभळीने, ते शब्दसमयना वाच्यभूत पंचास्तिकायस्वरूप अर्थसमयने जाणे छे अने तेनी अंदर आवी जता शुद्धजीवास्तिकायस्वरूप अर्थमां (पदार्थमां) वीतराग निर्विकल्प समाधि वडे स्थित रहीने चार गतिनुं निवारण करी, निर्वाणने पामी, स्वात्मोत्पन्न, अनाकुळतालक्षण, अनंत सुखने प्राप्त करे छे. आ कारणथी द्रव्यागमरूप शब्दसमय नमस्कार करवाने अने व्याख्यान करवाने योग्य छे. २.

समवाद वा समवाय पांच तणो समयभाख्युं जिने;
ते लोक छे, आगळ अमाप अलोक आभस्वरूप छे. ३.

अन्वयार्थ[पंचानां समवादः] पांच अस्तिकायनुं समभावपूर्वक निरूपण [वा] अथवा [समवायः] तेमनो समवाय (-पंचास्तिकायनो सम्यक् बोध अथवा समूह) [समयः] ते समय छे [इति] एम [जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्] जिनवरोए कह्युं छे. [सः च एव लोक : भवति] ते ज लोक छे (-पांच अस्तिकायना समूह जेवडो ज लोक छे); [ततः] तेनाथी आगळ [अमितः अलोकः] अमाप अलोक [खम्] आकाशस्वरूप छे.

टीकाअहीं (आ गाथामां) शब्दरूपे, ज्ञानरूपे अने अर्थरूपे (शब्दसमय, *मूळ गाथामां समवाओ शब्द छे; संस्कृत भाषामां तेनो अर्थ समवादः पण थाय अने समवायः

पण थाय. +चार गतिनुं निवारण (अर्थात् परतंत्रतानी निवृत्ति) अने निर्वाणनी उत्पत्ति (अर्थात् स्वतंत्रतानी

प्राप्ति) ते समयनुं फळ छे.

Page 9 of 256
PDF/HTML Page 49 of 296
single page version

कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन

तत्र च पञ्चानामस्तिकायानां समो मध्यस्थो रागद्वेषाभ्यामनुपहतो वर्णपद- वाक्यसन्निवेशविशिष्टः पाठो वादः शब्दसमयः शब्दागम इति यावत तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयोच्छेदे सति सम्यगवायः परिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानागम इति यावत तेषामेवाभिधानप्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवायः संघातोऽर्थसमयः सर्वपदार्थसार्थ इति यावत तदत्र ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थं शब्दसमयसम्बन्धेनार्थसमयोऽभिधातुमभिप्रेतः अथ तस्यैवार्थसमयस्य द्वैविध्यं लोकालोकविकल्पात स एव पञ्चास्तिकायसमवायो यावांस्तावाँल्लोकस्ततः परममितोऽनन्तो ह्यलोकः, स तु नाभावमात्रं किन्तु ज्ञानसमय अने अर्थसमय)एम त्रण प्रकारनो ‘समय’शब्दनो अर्थ कह्यो छे तथा लोक-अलोकरूप विभाग कह्यो छे.

त्यां, (१) ‘सम’ एटले मध्यस्थ अर्थात् रागद्वेषथी विकृत नहि बनेलो; ‘वाद’ एटले वर्ण (अक्षर), पद (शब्द) अने वाक्यना समूहवाळो पाठ. पांच अस्तिकायनो ‘समवाद’ अर्थात् मध्यस्थ (-रागद्वेषथी विकृत नहि बनेलो) पाठ (-मौखिक के शास्त्रारूढ निरूपण) ते शब्दसमय छे, एटले के शब्दागम ते शब्दसमय छे. (२) मिथ्यादर्शनना उदयनो नाश होतां, ते पंचास्तिकायनो ज *सम्यक् अवाय अर्थात सम्यक् सम्यक् ज्ञान ते ज्ञानसमय छे, एटले के ज्ञानागम ते ज्ञानसमय छे. (३) कथनना निमित्ते जणायेला ते पंचास्तिकायनो ज वस्तुरूपे *समवाय अर्थात जथ्थो ते अर्थसमय छे, एटले के सर्वपदार्थसमूह ते अर्थसमय छे. तेमां, अहीं ज्ञानसमयनी प्रसिद्धि अर्थे शब्दसमयना संबंधथी अर्थसमय कहेवानो (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवनो) इरादो छे.

हवे, ते ज अर्थसमयनुं, लोक अने अलोकना भेदने लीधे द्विविधपणुं छे. ते ज पंचास्तिकायसमूह जेवडो छे, तेवडो लोक छे. तेनाथी आगळ अमाप अर्थात् अनंत अलोक छे. ते अलोक अभावमात्र नथी परंतु पंचास्तिकायसमूह जेटलुं क्षेत्र बाद करीने समवाय=(१) सम्+अवाय; सम्यक् अवाय; सम्यक् ज्ञान. (२) जथ्थो; समूह. [आ पंचास्तिकाय-

संग्रह शास्त्रमां अहीं काळद्रव्य के जे द्रव्य होवा छतां अस्तिकाय नथी तेने विवक्षामां गौण करीने
पंचास्तिकायनो समवाय ते समय छे’ एम कह्युं छे; माटे ‘छ द्रव्यनो समवाय ते समय छे
एवा कथनना भाव साथे आ कथनना भावनो विरोध न समजवो, मात्र विवक्षाभेद छे एम
समजवुं. वळी ए ज प्रमाणे अन्य स्थळे पण विवक्षा समजी अविरुद्ध अर्थ समजी लेवो
].

लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोकः अर्थात् ज्यां जीवादिपदार्थो जोवामां आवे छे ते

लोक छे. पं. २


Page 10 of 256
PDF/HTML Page 50 of 296
single page version

१०

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

तत्समवायातिरिक्त परिमाणमनन्तक्षेत्रं खमाकाशमिति ।।।।

जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आगासं
अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता ।।।।
जीवाः पुद्गलकाया धर्माधर्मौ तथैव आकाशम्
अस्तित्वे च नियता अनन्यमया अणुमहान्तः ।।।।
अत्र पञ्चास्तिकायानां विशेषसंज्ञा सामान्यविशेषास्तित्वं कायत्वं चोक्तम्
तत्र जीवाः पुद्गलाः धर्माधर्मौ आकाशमिति तेषां विशेषसंज्ञा अन्वर्थाः

प्रत्येयाः सामान्यविशेषास्तित्वञ्च तेषामुत्पादव्ययध्रौव्यमय्यां सामान्यविशेषसत्तायां नियत- बाकीना अनंत क्षेत्रवाळुं आकाश छे (अर्थात् अलोक शून्यरूप नथी परंतु शुद्ध आकाशद्रव्यरूप छे). ३.

जीवद्रव्य, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म ने आकाश ए
अस्तित्वनियत, अनन्यमय ने अणुमहान पदार्थ छे. ४.

अन्वयार्थ[जीवाः] जीवो, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकायो, [धर्माधर्मौ] धर्म, अधर्म [तथा एव] तेम ज [आकाशम्] आकाश [अस्तित्वे नियताः] अस्तित्वमां नियत, [अनन्यमयाः] (अस्तित्वथी) अनन्यमय [] अने [अणुमहान्तः] *अणुमहान (प्रदेशे मोटां) छे.

टीकाअहीं (आ गाथामां) पांच अस्तिकायोनी विशेषसंज्ञा, सामान्यविशेष- अस्तित्व तथा कायत्व कहेल छे.

त्यां, जीवो, पुद्गलो, धर्म, अधर्म अने आकाशए तेमनी विशेषसंज्ञाओ +अन्वर्थ जाणवी.

तेओ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सामान्यविशेषसत्तामां नियतव्यवस्थित (निश्चित *अणुमहान=(१) प्रदेशे मोटां अर्थात् अनेकप्रदेशी; (२) एकप्रदेशी (व्यक्ति-अपेक्षाए) तेम ज

अनेकप्रदेशी (शक्ति-अपेक्षाए). +अन्वर्थ=अर्थने अनुसरती; अर्थ प्रमाणे. (पांच अस्तिकायोनां नामो तेमना अर्थ अनुसार छे.)


Page 11 of 256
PDF/HTML Page 51 of 296
single page version

कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
११

त्वाद्वयवस्थितत्वादवसेयम् अस्तित्वे नियतानामपि न तेषामन्यमयत्वम्, यतस्ते सर्व- दैवानन्यमया आत्मनिर्वृत्ताः अनन्यमयत्वेऽपि तेषामस्तित्वनियतत्वं नयप्रयोगात द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौद्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किन्तु तदुभयायत्ता ततः पर्यायार्थादेशादस्तित्वे स्वतः कथंचिद्भिन्नेऽपि व्यवस्थिताः द्रव्यार्थादेशात्स्वयमेव सन्तः सतोऽनन्यमया भवन्तीति कायत्वमपि तेषामणु- महत्त्वात अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्ताऽमूर्ताश्च निर्विभागांशास्तैः महान्तोऽणुमहान्तः प्रदेशप्रचयात्मका इति सिद्धं तेषां कायत्वम् अणुभ्यां महान्त इति व्युत्पत्त्या रहेलां) होवाथी तेमने सामान्यविशेष-अस्तित्व पण छे एम नक्की करवुं. तेओ अस्तित्वमां नियत होवा छतां (जेम वासणमां रहेलुं घी वासणथी अन्यमय छे तेम) अस्तित्वथी अन्यमय नथी; कारण के तेओ सदाय पोताथी निष्पन्न (अर्थात् पोताथी सत) होवाने लीधे (अस्तित्वथी) अनन्यमय छे (जेम अग्नि उष्णताथी अनन्यमय छे तेम). ‘अस्तित्वथी अनन्यमय’ होवा छतां तेमनुं ‘अस्तित्वमां नियतपणुं नयप्रयोगथी छे. बे नयो भगवाने कह्या छेद्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक. त्यां कथन एक नयने आधीन होतुं नथी परंतु ते बन्ने नयोने आधीन होय छे. माटे तेओ पर्यायार्थिक कथनथी जे पोताथी कथंचित् भिन्न पण छे एवा अस्तित्वमां व्यवस्थित (निश्चित रहेलां) छे अने द्रव्यार्थिक कथनथी स्वयमेव सत् (-विद्यमान, हयात) होवाने लीधे अस्तित्वथी अनन्यमय छे.

तेमने कायपणुं पण छे कारण के तेओ अणुमहान छे. अहीं अणुओ एटले प्रदेशोमूर्त अने अमूर्त निर्विभाग (नानामां नाना) अंशो; ‘तेमना वडे (-बहु प्रदेशो वडे) महान होय’ ते अणुमहान; एटले के प्रदेशप्रचयात्मक (-प्रदेशोना समूहमय) होय ते अणुमहान. आ रीते तेमने (उपर्युक्त पांच द्रव्योने) कायत्व सिद्ध थयुं. (उपर जे अणुमहाननी व्युत्पत्ति करी तेमां अणुओने अर्थात् प्रदेशोने माटे बहुवचन वापर्युं छे अने संस्कृत भाषाना नियम प्रमाणे बहुवचनमां द्विवचन समातुं नथी तेथी हवे व्युत्पत्तिमां जरा भाषानो फेर करीने द्वि-अणुक स्कंधोने पण अणुमहान बतावीने तेमनुं कायत्व सिद्ध करवामां आवे छे) ‘बे अणुओ (-बे प्रदेशो) वडे महान होय’ ते अणुमहानएवी व्युत्पत्तिथी द्वि-अणुक पुद्गलस्कंधोने पण (अणु- महानपणुं होवाथी) कायत्व छे. (हवे परमाणुओने अणुमहानपणुं कई रीते छे ते बतावीने परमाणुओनुं पण कायत्व सिद्ध करवामां आवे छे) व्यक्ति अने शक्तिरूपे


Page 12 of 256
PDF/HTML Page 52 of 296
single page version

१२

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

द्वयणुकपुद्गलस्कन्धानामपि तथाविधत्वम् अणवश्च महान्तश्च व्यक्तिशक्तिरूपाभ्या- मिति परमाणूनामेकप्रदेशात्मकत्वेऽपि तत्सिद्धिः व्यक्त्यपेक्षया शक्त्यपेक्षया च प्रदेश- प्रचयात्मकस्य महत्त्वस्याभावात्कालाणूनामस्तित्वनियतत्वेऽप्यकायत्वमनेनैव साधितम् अत एव तेषामस्तिकायप्रकरणे सतामप्यनुपादानमिति ।।।। अणु तेम ज महान’ होवाथी (अर्थात् परमाणुओ व्यक्तिरूपे एकप्रदेशी अने शक्तिरूपे अनेकप्रदेशी होवाथी) परमाणुओने पण, तेमने एकप्रदेशात्मकपणुं होवा छतां पण, (अणुमहानपणुं सिद्ध थवाथी) कायत्व सिद्ध थाय छे. काळाणुओने व्यक्ति- अपेक्षाए तेम ज शक्ति-अपेक्षाए प्रदेशप्रचयात्मक महानपणानो अभाव होवाथी, जोके तेओ अस्तित्वमां नियत छे तोपण, तेमने अकायत्व छे एम आनाथी ज (-आ कथनथी ज) सिद्ध थयुं. माटे ज, जोके तेओ सत् (विद्यमान) छे तोपण, तेमने अस्तिकायना प्रकरणमां लीधा नथी.

भावार्थपांच अस्तिकायोनां नाम जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म अने आकाश छे. आ नामो तेमना अर्थ प्रमाणे छे.

आ पांचे द्रव्यो पर्यायार्थिक नये पोताथी कथंचित् भिन्न एवा अस्तित्वमां रहेलां छे अने द्रव्यार्थिक नये अस्तित्वथी अनन्य छे.

वळी आ पांचे द्रव्यो कायत्ववाळां छे कारण के तेओ अणुमहान छे. तेओ अणुमहान कई रीते छे ते बताववामां आवे छेअणुमहान्तःनी व्युत्पत्ति त्रण प्रकारे छेः(१) अणुभिः महान्तः अणुमहान्तः अर्थात् जेओ बहु प्रदेशो वडे (-बेथी वधारे प्रदेशो वडे) मोटा होय तेओ अणुमहान छे. आ व्युत्पत्ति प्रमाणे जीवो, धर्म अने अधर्म असंख्यप्रदेशी होवाथी अणुमहान छे; आकाश अनंतप्रदेशी होवाथी अणुमहान छे; अने त्रि-अणुक स्कंधथी मांडीने अनंताणुक स्कंध सुधीना बधा स्कंधो बहुप्रदेशी होवाथी अणुमहान छे. (२) अणुभ्याम् महान्तः अणुमहान्तः अर्थात् जेओ बे प्रदेशो वडे मोटा होय तेओ अणुमहान छे. आ व्युत्पत्ति प्रमाणे द्वि-अणुक स्कंधो अणुमहान छे. (३) अणवश्च महान्तश्च अणुमहान्तः अर्थात् जेओ अणुरूप (-एकप्रदेशी) पण होय अने महान (-अनेकप्रदेशी) पण होय तेओ अणुमहान छे. आ व्युत्पत्ति प्रमाणे परमाणुओ अणुमहान छे, कारण के व्यक्ति-अपेक्षाए तेओ एकप्रदेशी छे अने शक्ति-अपेक्षाए अनेकप्रदेशी पण (उपचारथी) छे. आ रीते उपर्युक्त पांचे द्रव्यो अणुमहान होवाथी कायत्ववाळां छे एम सिद्ध थयुं.


Page 13 of 256
PDF/HTML Page 53 of 296
single page version

कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१३
जेसिं अत्थि सहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविहेहिं
ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तेल्लोक्कं ।।।।
येषामस्ति स्वभावः गुणैः सह पर्ययैर्विविधैः
ते भवन्त्यस्तिकायाः निष्पन्नं यैस्त्रैलोक्यम् ।।।।
अत्र पञ्चास्तिकायानामस्तित्वसंभवप्रकारः कायत्वसंभवप्रकारश्चोक्त :

अस्ति ह्यस्तिकायानां गुणैः पर्यायैश्च विविधैः सह स्वभावो आत्मभावोऽ नन्यत्वम् वस्तुनो विशेषा हि व्यतिरेकिणः पर्याया गुणास्तु त एवान्वयिनः तत

काळाणुने अस्तित्व छे परंतु कोई प्रकारे पण कायत्व नथी, तेथी ते द्रव्य छे पण अस्तिकाय नथी. ४.

विधविध गुणो ने पर्ययो सह जे अनन्यपणुं धरे
ते अस्तिकायो जाणवा, त्रैलोक्यरचना जे वडे. ५.

अन्वयार्थ[येषाम्] जेमने [विविधैः] विविध [गुणैः] गुणो अने [पर्ययैः] *पर्यायो (-प्रवाहक्रमना तेम ज विस्तारक्रमना अंशो) [सह] साथे [ स्वभावः ] पोतापणुं [अस्ति] छे [ते] ते [अस्तिकायाः भवन्ति] अस्तिकायो छे [यैः] के जेमनाथी [त्रैलोक्यम्] त्रण लोक [निष्पन्नम्] निष्पन्न छे.

टीकाअहीं, पांच अस्तिकायोने अस्तित्व कया प्रकारे छे अने कायत्व कया प्रकारे छे ते कह्युं छे.

खरेखर अस्तिकायोने विविध गुणो अने पर्यायो साथे स्वपणुंपोतापणुं अनन्यपणुं छे. वस्तुना व्यतिरेकी विशेषो ते पर्यायो छे अने अन्वयी विशेषो ते *पर्यायो =(प्रवाहक्रमना तेम ज विस्तारक्रमना ) निर्विभाग अंशो. [ प्रवाहक्रमना अंशो तो दरेक

द्रव्यने होय छे, परंतु विस्तारक्रमना अंशो अस्तिकायने ज होय छे.] १. व्यतिरेक=भेद; एकनुं बीजारूप नहि होवुं ते; ‘आ ते नथी’ एवा ज्ञानना निमित्तभूत

भिन्नरूपपणुं. [एक पर्याय बीजा पर्यायरूप नहि होवाथी पर्यायोमां परस्पर व्यतिरेक छे, तेथी
पर्यायो द्रव्यना व्यतिरेकी (व्यतिरेकवाळा) विशेषो छे.]

२. अन्वय=एकरूपता; सद्रशता; ‘आ ते ज छे’ एवा ज्ञानना कारणभूत एकरूपपणुं. [गुणोमां


Page 14 of 256
PDF/HTML Page 54 of 296
single page version

१४

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

एकेन पर्यायेण प्रलीयमानस्यान्येनोपजायमानस्यान्वयिना गुणेन ध्रौव्यं बिभ्राणस्यै- कस्याऽपि वस्तुनः समुच्छेदोत्पादध्रौव्यलक्षणमस्तित्वमुपपद्यत एव गुणपर्यायैः सह सर्वथान्यत्वे त्वन्यो विनश्यत्यन्यः प्रादुर्भवत्यन्यो ध्रुवत्वमालम्बत इति सर्वं विप्लवते ततः साध्वस्तित्वसंभवप्रकारकथनम् कायत्वसंभवप्रकारस्त्वयमुपदिश्यते अवयविनो हि जीव- पुद्गलधर्माधर्माकाशपदार्थास्तेषामवयवा अपि प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्यायाः उच्यन्ते तेषां तैः सहानन्यत्वे कायत्वसिद्धिरुपपत्तिमती निरवयवस्यापि परमाणोः सावयवत्वशक्तिसद्भावात् कायत्वसिद्धिरनपवादा न चैतदाशङ्कयम् पुद्गलादन्येषाम- गुणो छे. तेथी एक पर्यायथी प्रलय पामती, अन्य पर्यायथी ऊपजती अने अन्वयी गुणथी ध्रुव रहेती एक ज वस्तुने व्यय-उत्पाद-ध्रौव्यलक्षण अस्तित्व घटे छे ज. अने जो गुणो ने पर्यायो साथे (वस्तुने) सर्वथा अन्यत्व होय तो तो अन्य कोई विनाश पामे, अन्य कोई प्रादुर्भाव (उत्पाद) पामे अने वळी अन्य कोई ध्रुव रहेए रीते बधुं विप्लव पामे. तेथी (पांच अस्तिकायोने) अस्तित्व कया प्रकारे छे ते संबंधी आ (उपर्युक्त) कथन साचुंयोग्यन्याययुक्त छे.

हवे (तेमने) कायत्व कया प्रकारे छे ते उपदेशवामां आवे छेजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, अने आकाश ए पदार्थो अवयवी छे. प्रदेशो नामना तेमना जे अवयवो छे तेओ पण परस्पर व्यतिरेकवाळा होवाथी पर्यायो कहेवाय छे. तेमनी साथे ते (पांच) पदार्थोने अनन्यपणुं होवाथी कायत्वसिद्धि घटे छे. परमाणु (व्यक्ति-अपेक्षाए) निरवयव होवा छतां तेने सावयवपणानी शक्तिनो सद्भाव होवाथी कायत्वसिद्धि निरपवाद छे. त्यां

सदाय सद्रशता रहेती होवाथी तेमनामां सदाय अन्वय छे, तेथी गुणो द्रव्यना अन्वयी विशेषो (अन्वयवाळा भेदो) छे.] १. अस्तित्वनुं लक्षण अथवा स्वरूप व्यय-उत्पाद-ध्रौव्य छे. २. विप्लव=अंधाधूंधी; ऊथलपाथल; गोटाळो; विरोध. ३. अवयवी=अवयववाळा; सावयव; अंशवाळा; अंशी; जेमने अवयवो (अर्थात् एकथी वधारे

प्रदेशो) होय एवा. ४. पर्यायनुं लक्षण परस्पर व्यतिरेक छे. आ लक्षण प्रदेशोमां पण व्यापे छे, कारण के एक प्रदेश

बीजा प्रदेशरूप नहि होवाथी प्रदेशोमां परस्पर व्यतिरेक छे; तेथी प्रदेशो पण पर्यायो कहेवाय छे. ५. निरवयव=अवयव वगरनो; अंश वगरनो; निरंश; एकथी वधारे प्रदेश विनानो. ६. निरपवाद=अपवाद रहित. [पांच अस्तिकायोने कायपणुं होवामां एक पण अपवाद नथी, कारण

के (उपचारथी) परमाणुने पण शक्ति-अपेक्षाए अवयवोप्रदेशो छे.]

Page 15 of 256
PDF/HTML Page 55 of 296
single page version

कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१५

मूर्तत्वादविभाज्यानां सावयवत्वकल्पनमन्याय्यम् दृश्यत एवाविभाज्येऽपि विहायसीदं घटाकाशमिदमघटाकाशमिति विभागकल्पनम् यदि तत्र विभागो न कल्पेत तदा यदेव घटाकाशं तदेवाघटाकाशं स्यात न च तदिष्टम् ततः कालाणुभ्योऽन्यत्र सर्वेषां कायत्वाख्यं सावयवत्वमवसेयम् त्रैलोक्यरूपेण निष्पन्नत्वमपि तेषामस्ति- कायत्वसाधनपरमुपन्यस्तम् तथाचत्रयाणामूर्ध्वाऽधोमध्यलोकानामुत्पादव्ययध्रौव्यवन्त- स्तद्विशेषात्मका भावा भवन्तस्तेषां मूलपदार्थानां गुणपर्याययोगपूर्वकमस्तित्वं साधयन्ति अनुमीयते च धर्माधर्माकाशानां प्रत्येकमूर्ध्वाऽधोमध्यलोकविभागरूपेण परिणमनात्कायत्वाख्यं सावयवत्वम् जीवानामपि प्रत्येकमूर्ध्वाधोमध्यलोकविभागरूपेण एवी आशंका करवी योग्य नथी के पुद्गल सिवायना पदार्थो अमूर्तपणाने लीधे अविभाज्य होवाथी तेमना सावयवपणानी कल्पना न्यायविरुद्ध (गेरवाजबी) छे. आकाश अविभाज्य होवा छतां तेमां ‘आ घटाकाश छे, आ अघटाकाश (अथवा पटाकाश) छे एवी विभागकल्पना जोवामां आवे छे ज. जो त्यां (कथंचित) विभाग न कल्पवामां आवे तो जे घटाकाश छे ते ज (सर्वथा) अघटाकाश थाय; अने ते तो इष्ट (मान्य) नथी. माटे काळाणुओ सिवाय बीजा बधाने विषे कायत्व नामनुं सावयवपणुं नक्की करवुं.

तेमनुं जे त्रण लोकरूपे निष्पन्नपणुं (-रचावुं) कह्युं ते पण तेमनुं अस्तिकायपणुं (-अस्तिपणुं तथा कायपणुं) सिद्ध करवाना साधन तरीके कह्युं छे. ते आ प्रमाणे

(१) ऊर्ध्व-अधो-मध्य त्रण लोकना उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाळा भावोके जेओ त्रण लोकना विशेषस्वरूप छे तेओभवता थका (परिणमता थका) तेमना मूळ पदार्थोनुं गुणपर्याययुक्त अस्तित्व सिद्ध करे छे. (त्रण लोकना भावो सदाय कथंचित् सद्रश रहे छे अने कथंचित् पलटाया करे छे ते एम सिद्ध करे छे के त्रण लोकना मूळ पदार्थो कथंचित् सद्रश रहे छे अने कथंचित् पलटाया करे छे अर्थात् ते मूळ पदार्थोने उत्पाद- व्यय-ध्रौव्यवाळुं अथवा गुणपर्यायवाळुं अस्तित्व छे.)

(२) वळी धर्म, अधर्म अने आकाशए प्रत्येक पदार्थ ऊर्ध्व-अधो-मध्य एवा लोकना (त्रण) विभागरूपे परिणत होवाथी तेमने कायत्व नामनुं सावयवपणुं छे एम अनुमान करी शकाय छे. दरेक जीवने पण ऊर्ध्व-अधो-मध्य एवा लोकना (त्रण) १. अविभाज्य=जेना विभाग न करी शकाय एवा. २. जो लोकना ऊर्ध्व, अधः अने मध्य एवा त्रण भाग छे तो पछी ‘आ ऊर्ध्वलोकनो आकाशभाग

छे, आ अधोलोकनो आकाशभाग छे अने आ मध्यलोकनो आकाशभाग छे’ एम आकाशना

Page 16 of 256
PDF/HTML Page 56 of 296
single page version

१६

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

परिणमनाल्लोकपूरणावस्थाव्यवस्थितव्यक्तेस्सदा सन्निहितशक्तेस्तदनुमीयत एव । पुद्गला- नामप्यूर्ध्वाधोमध्यलोकविभागरूपपरिणतमहास्कन्धत्वप्राप्तिव्यक्तिशक्ति योगित्वात्तथाविधा सावयव- त्वसिद्धिरस्त्येवेति ।।।।

ते चेव अत्थिकाया तेक्कालियभावपरिणदा णिच्चा
गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुत्ता ।।।।
ते चैवास्तिकायाः त्रैकालिकभावपरिणता नित्याः
गच्छन्ति द्रव्यभावं परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः ।।।।

अत्र पञ्चास्तिकायानां कालस्य च द्रव्यत्वमुक्त म् विभागरूपे परिणत +लोकपूरण अवस्थारूप व्यक्तिनी शक्तिनो सदा सद्भाव होवाथी जीवोने पण कायत्व नामनुं सावयवपणुं छे एम अनुमान करी ज शकाय छे. पुद्गलो पण ऊर्ध्व-अधो-मध्य एवा लोकना (त्रण) विभागरूपे परिणत महास्कंधपणानी प्राप्तिनी व्यक्तिवाळां अथवा शक्तिवाळां होवाथी तेमने पण तेवी (कायत्व नामनी) सावयवपणानी सिद्धि छे ज. ५.

ते अस्तिकाय त्रिकाळभावे परिणमे छे, नित्य छे;
ए पांच तेम ज काळ वर्तनलिंग सर्वे द्रव्य छे. ६.

अन्वयार्थ[त्रैकालिकभावपरिणताः] जे त्रण काळना भावरूपे परिणमे छे तेम ज [नित्याः] नित्य छे [ते च एव अस्तिकायाः] एवा ते ज अस्तिकायो, [परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः] परिवर्तनलिंग (काळ) सहित, [द्रव्यभावं गच्छन्ति] द्रव्यपणाने पामे छे (अर्थात् ते छये द्रव्यो छे).

टीकाअहीं पांच अस्तिकायोने तथा काळने द्रव्यपणुं कह्युं छे.
पण विभाग करी शकाय छे अने तेथी ते सावयव अर्थात् कायत्ववाळुं छे एम सिद्ध थाय छे.
ए ज रीते धर्म अने अधर्म पण सावयव अर्थात् कायत्ववाळां छे.

+लोकपूरण=लोकव्यापी. [केवळसमुद्घात वखते जीवने त्रिलोकव्यापी अवस्था थाय छे. ते वखते ‘आ

ऊर्ध्वलोकनो जीवभाग छे, आ अधोलोकनो जीवभाग छे अने आ मध्यलोकनो जीवभाग छे’
एम विभाग करी शकाय छे. आवी त्रिलोकव्यापी अवस्थानी शक्ति तो जीवोमां सदाय छे तेथी
जीवो सदा सावयव अर्थात
् कायत्ववाळा छे एम सिद्ध थाय छे.]

Page 17 of 256
PDF/HTML Page 57 of 296
single page version

कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१७

द्रव्याणि हि सहक्रमभुवां गुणपर्यायाणामनन्यतयाधारभूतानि भवन्ति ततो वृत्तवर्तमानवर्तिष्यमाणानां भावानां पर्यायाणां स्वरूपेण परिणतत्वादस्तिकायानां परिवर्तन- लिङ्गस्य कालस्य चास्ति द्रव्यत्वम् न च तेषां भूतभवद्भविष्यद्भावात्मना परिणममाना- नामनित्यत्वम्, यतस्ते भूतभवद्भविष्यद्भावावस्थास्वपि प्रतिनियतस्वरूपापरित्यागान्नित्या एव अत्र कालः पुद्गलादिपरिवर्तनहेतुत्वात्पुद्गलादिपरिवर्तनगम्यमानपर्यायत्वाच्चास्तिकायेष्वन्तर्भावार्थं स परिवर्तनलिङ्ग इत्युक्त इति ।।।।

द्रव्यो खरेखर सहभावी गुणोने तथा क्रमभावी पर्यायोने अनन्यपणे आधारभूत छे. तेथी वर्ती चूकेला, वर्तता अने भविष्यमां वर्तनारा भावोनापर्यायोना स्वरूपे परिणमता होवाने लीधे (पांच) अस्तिकायो अने परिवर्तनलिंग काळ (ते छये) द्रव्यो छे. भूत, वर्तमान ने भावी भावोस्वरूपे परिणमता होवाथी तेओ कांई अनित्य नथी, कारण के भूत, वर्तमान ने भावी भावरूप अवस्थाओमां पण प्रतिनियत (-पोतपोताना निश्चित) स्वरूपने नहि छोडता होवाथी तेओ नित्य ज छे.

अहीं काळ पुद्गलादिना परिवर्तननो हेतु होवाथी तेम ज पुद्गलादिना परिवर्तन द्वारा तेना पर्यायो गम्य थता (जणाता) होवाथी, तेनो अस्तिकायोमां समावेश करवा अर्थे, तेने ‘परिवर्तनलिंग’ कह्यो छे. [पुद्गलादि अस्तिकायोनुं वर्णन करतां तेमनुं परिवर्तन (परिणमन) वर्णववुं जोईए अने तेमनुं परिवर्तन वर्णवतां ते परिवर्तनमां निमित्तभूत पदार्थने (काळने) अथवा ते परिवर्तन द्वारा जेना पर्यायो व्यक्त थाय छे ते पदार्थने (काळने) वर्णववो अस्थाने न गणाय. आ रीते पंचास्तिकायना वर्णननी अंदर काळना वर्णननो समावेश करवो अनुचित नथी एम दर्शाववा अर्थे आ गाथासूत्रमां काळ माटे ‘परिवर्तनलिंग’ शब्द वापर्यो छे.] ६. १. अनन्यपणे=अभिन्नपणे. [जेम अग्नि आधार छे अने उष्णता आधेय छे छतां तेओ अभिन्न

छे, तेम द्रव्य आधार छे अने गुणपर्यायो आधेय छे छतां तेओ अभिन्न छे.] २. परिवर्तनलिंग=पुद्गलादिनुं परिवर्तन जेनुं लिंग छे ते; पुद्गलादिना परिणमन द्वारा जे जणाय

छे ते. (लिंग=चिह्न; सूचक; गमक; गम्य करावनार; जणावनार; ओळखावनार.) ३. (१) जो पुद्गलादिनुं परिवर्तन थाय छे तो तेनुं कोई निमित्त होवुं जोईएएम परिवर्तनरूपी चिह्न

द्वारा काळनुं अनुमान थाय छे (जेम धुमाडारूपी चिह्न द्वारा अग्निनुं अनुमान थाय छे तेम), तेथी
काळ ‘
परिवर्तनलिंग’ छे. (२) वळी पुद्गलादिना परिवर्तन द्वारा काळना पर्यायो (‘थोडो वखत’,

घणो वखत’ एवी काळनी अवस्थाओ) गम्य थाय छे तेथी पण काळ ‘परिवर्तनलिंग’ छे. पं. ३


Page 18 of 256
PDF/HTML Page 58 of 296
single page version

१८

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अण्णोण्णं पविसंता देंता ओगासमण्णमण्णस्स
मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति ।।।।
अन्योऽन्यं प्रविशन्ति ददन्त्यवकाशमन्योऽन्यस्य
मिलन्त्यपि च नित्यं स्वकं स्वभावं न विजहन्ति ।।।।
अत्र षण्णां द्रव्याणां परस्परमत्यन्तसंकरेऽपि प्रतिनियतस्वरूपादप्रच्यवनमुक्त म्
अत एव तेषां परिणामवत्त्वेऽपि प्राग्नित्यत्वमुक्त म् अत एव च न तेषामेकत्वापत्तिर्न

च जीवकर्मणोर्व्यवहारनयादेशादेकत्वेऽपि परस्परस्वरूपोपादानमिति ।।।।

सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया
भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ।।।।
अन्योन्य थाय प्रवेश, ए अन्योन्य दे अवकाशने,
अन्योन्य मिलन, छतां कदी छोडे न आपस्वभावने. ७.

अन्वयार्थ[अन्योऽन्यं प्रविशन्ति] तेओ एकबीजामां प्रवेश करे छे, [अन्योऽन्यस्य] अन्योन्य [अवकाशम् ददन्ति] अवकाश आपे छे, [मिलन्ति] परस्पर (क्षीरनीरवत) मळी जाय छे, [अपि च] तोपण [नित्यं] सदा [स्वकं स्वभावं] पोतपोताना स्वभावने [न विजहन्ति] छोडतां नथी.

टीकाअहीं छ द्रव्योने परस्पर अत्यंत *संकर होवा छतां तेओ प्रतिनियत (-पोतपोताना निश्चित) स्वरूपथी च्युत थतां नथी एम कह्युं छे.

तेथी ज (-पोतपोताना स्वभावथी च्युत नहि थतां होवाथी ज), परिणामवाळां होवा छतां पण, तेओ नित्य छे एम पूर्वे (छठ्ठी गाथामां) कह्युं हतुं; अने तेथी ज तेओ एकपणुं पामतां नथी, अने जोके जीव तथा कर्मने व्यवहारनयना कथनथी एकपणुं (कहेवामां आवे) छे तोपण तेओ (जीव तथा कर्म) एकबीजाना स्वरूपने ग्रहतां नथी. ७.

सर्वार्थप्राप्त, सविश्वरूप, अनंतपर्ययवंत छे,
सत्ता जनम-लय-ध्रौव्यमय छे, एक छे, सविपक्ष छे. ८.
*संकर=मिलन; मेळाप; (अन्योन्य-अवगाहरूप) मिश्रितपणुं.

Page 19 of 256
PDF/HTML Page 59 of 296
single page version

कहानजैनशास्त्रमाळा ]

षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१९
सत्ता सर्वपदार्था सविश्वरूपा अनंतपर्याया
भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका सप्रतिपक्षा भवत्येका ।।।।
अत्रास्तित्वस्वरूपमुक्त म्
अस्तित्वं हि सत्ता नाम सतो भावः सत्त्वम् न सर्वथा नित्यतया सर्वथा क्षणिकतया

वा विद्यमानमात्रं वस्तु सर्वथा नित्यस्य वस्तुनस्तत्त्वतः क्रमभुवां भावानामभावात्कुतो विकारवत्त्वम् सर्वथा क्षणिकस्य च तत्त्वतः प्रत्यभिज्ञानाभावात् कुत एकसन्तानत्वम् ततः प्रत्यभिज्ञानहेतुभूतेन केनचित्स्वरूपेण ध्रौव्यमालम्ब्यमानं काभ्यांचित्क्रमप्रवृत्ताभ्यां स्वरूपाभ्यां प्रलीयमानमुपजायमानं चैककालमेव परमार्थतस्त्रितयीमवस्थां बिभ्राणं वस्तु सदवबोध्यम् अत एव सत्ताप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मिकाऽवबोद्धव्या, भावभाववतोः कथञ्चिदेकस्वरूपत्वात सा च

अन्वयार्थ[सत्ता] सत्ता [भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका] उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, [एका] एक, [सर्वपदार्था] सर्वपदार्थस्थित, [सविश्वरूपा] सविश्वरूप, [अनन्तपर्याया] अनंतपर्यायमय अने [सप्रतिपक्षा] सप्रतिपक्ष [भवति] छे.

टीकाअहीं अस्तित्वनुं स्वरूप कह्युं छे.
अस्तित्व एटले सत्ता नामनो सत्नो भाव अर्थातसत्त्व.
विद्यमानमात्र वस्तु नथी सर्वथा नित्यपणे होती के नथी सर्वथा क्षणिकपणे होती.

सर्वथा नित्य वस्तुने खरेखर क्रमभावी भावोनो अभाव थवाथी विकार (-फेरफार, परिणाम) क्यांथी थाय? अने सर्वथा क्षणिक वस्तुने विषे खरेखर प्रत्यभिज्ञाननो अभाव थवाथी एकप्रवाहपणुं क्यांथी रहे? माटे प्रत्यभिज्ञानना हेतुभूत कोई स्वरूपथी ध्रुव रहेती अने कोई बे क्रमवर्ती स्वरूपोथी नष्ट थती ने ऊपजतीए रीते एक ज काळे परमार्थे त्रेवडी (त्रण अंशवाळी) अवस्थाने धरती वस्तु सत् जाणवी. तेथी ज सत्ता’ पण ‘उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक (त्रिलक्षणा) जाणवी, कारण के भाव अने भाववाननुं कथंचित् एक स्वरूप होय छे. वळी ते (सत्ता) ‘एक’ छे, कारण के ते १. सत्त्व=सत्पणुं; हयातपणुं; विद्यमानपणुं; हयातनो भाव; ‘छे’ एवो भाव. २. वस्तु सर्वथा क्षणिक होय तो ‘जे पूर्वे जोवामां (-जाणवामां) आवी हती ते ज आ वस्तु छे

एवुं ज्ञान न थई शके. ३. सत्ता भाव छे अने वस्तु भाववान छे.


Page 20 of 256
PDF/HTML Page 60 of 296
single page version

२०

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

त्रिलक्षणस्य समस्तस्यापि वस्तुविस्तारस्य साद्रश्यसूचकत्वादेका सर्वपदार्थस्थिता च त्रिलक्षणस्य सदित्यभिधानस्य सदिति प्रत्ययस्य च सर्वपदार्थेषु तन्मूलस्यैवोपलम्भात सविश्वरूपा च विश्वस्य समस्तवस्तुविस्तारस्यापि रूपैस्त्रिलक्षणैः स्वभावैः सह वर्तमानत्वात अनन्तपर्याया चानन्ताभिर्द्रव्यपर्यायव्यक्ति भिस्त्रिलक्षणाभिः परिगम्यमानत्वात एवंभूतापि सा न खलु निरंकुशा किन्तु सप्रतिपक्षा प्रतिपक्षो ह्यसत्ता सत्तायाः, अत्रिलक्षणत्वं त्रिलक्षणायाः, अनेकत्वमेकस्याः, एकपदार्थस्थितत्वं सर्वपदार्थस्थितायाः, एकरूपत्वं सविश्वरूपायाः, एकपर्यायत्वमनन्तपर्यायाया इति द्विविधा हि सत्तामहासत्ता- त्रिलक्षणवाळा समस्त वस्तुविस्तारनुं साद्रश्य सूचवे छे. वळी ते (सत्ता) ‘सर्वपदार्थस्थित छे, कारण के तेना कारणे ज (-सत्ताने लीधे ज) सर्व पदार्थोमां त्रिलक्षणनी (-उत्पादव्ययध्रौव्यनी), ‘सत्’ एवा कथननी अने ‘सत्’ एवी प्रतीतिनी उपलब्धि थाय छे. वळी ते (सत्ता) ‘सविश्वरूप’ छे, कारण के ते विश्वनां रूपो सहित अर्थात् समस्त वस्तुविस्तारना त्रिलक्षणवाळा स्वभावो सहित वर्ते छे. वळी ते (सत्ता) अनंतपर्यायमय’ छे, कारण के ते त्रिलक्षणवाळी अनंत द्रव्यपर्यायरूप व्यक्तिओथी व्याप्त छे. (आ प्रमाणे सामान्य-विशेषात्मक सत्तानुं तेना सामान्य पडखानी अपेक्षाए अर्थात महासत्तारूप पडखानी अपेक्षाए वर्णन थयुं.)

आवी होवा छतां ते खरेखर निरंकुश नथी परंतु सप्रतिपक्ष छे. (१) सत्ताने असत्ता प्रतिपक्ष छे; (२) त्रिलक्षणाने अत्रिलक्षणपणुं प्रतिपक्ष छे; (३) एकने अनेकपणुं प्रतिपक्ष छे; (४) सर्वपदार्थस्थितने एकपदार्थस्थितपणुं प्रतिपक्ष छे; (५) सविश्वरूपने एकरूपपणुं प्रतिपक्ष छे; (६) अनंतपर्यायमयने एकपर्यायमयपणुं प्रतिपक्ष छे.

(उपर्युक्त सप्रतिपक्षपणुं स्पष्ट समजाववामां आवे छे) सत्ता द्विविध छे महासत्ता अने अवान्तरसत्ता. तेमां, सर्वपदार्थसमूहमां व्यापनारी, साद्रश्यअस्तित्वने १. अहीं ‘सामान्यात्मक’नो अर्थ ‘महा’ समजवो अने ‘विशेषात्मक’नो अर्थ ‘अवान्तर’ समजवो.

सामान्य-विशेषना बीजा अर्थो अहीं न समजवा. २. निरंकुश=अंकुश विनानी; विरुद्ध पक्ष विनानी; निःप्रतिपक्ष. [सामान्यविशेषात्मक सत्ता उपर वर्णवी

तेवी होवा छतां सर्वथा तेवी नथी, कथंचित् (सामान्य-अपेक्षाए) तेवी छे अने कथंचित् (विशेष-
अपेक्षाए) विरुद्ध प्रकारनी छे.]

३. सप्रतिपक्ष=प्रतिपक्ष सहित; विपक्ष सहित; विरुद्ध पक्ष सहित.