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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
करणत्वः, स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते । अतः कर्मणः कर्तुर्नास्ति जीवः कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्म कर्तृ निश्चयेनेति ।।६२।। पोताने देवामां आवतुं होवाथी) संप्रदानपणाने पामेलो अने (६) धारी राखवामां आवता भावपर्यायनो आधार होवाथी जेणे अधिकरणपणाने ग्रह्युं छे एवो — स्वयमेव षट्कारकरूपे वर्ततो थको अन्य कारकनी अपेक्षा राखतो नथी.
माटे निश्चयथी कर्मरूप कर्ताने जीव कर्ता नथी अने जीवरूप कर्ताने कर्म कर्ता नथी. (ज्यां कर्म कर्ता छे त्यां जीव कर्ता नथी अने ज्यां जीव कर्ता छे त्यां कर्म कर्ता नथी.)
भावार्थः — (१) पुद्गल स्वतंत्रपणे द्रव्यकर्मने करतुं होवाथी पुद्गल पोते ज कर्ता छे; (२) पोते द्रव्यकर्मरूपे परिणमवानी शक्तिवाळुं होवाथी पुद्गल पोते ज करण छे; (३) द्रव्यकर्मने प्राप्त करतुं — पहोंचतुं होवाथी द्रव्यकर्म कर्म छे, अथवा द्रव्यकर्मथी पोते अभिन्न होवाथी पुद्गल पोते ज कर्म ( – कार्य) छे; (४) पोतानामांथी पूर्व परिणामनो व्यय करीने द्रव्यकर्मरूप परिणाम करतुं होवाथी अने पुद्गलद्रव्यरूपे ध्रुव रहेतुं होवाथी पुद्गल पोते ज अपादान छे; (५) पोताने द्रव्यकर्मरूप परिणाम देतुं होवाथी पुद्गल पोते ज संप्रदान छे; (६) पोतानामां अर्थात् पोताना आधारे द्रव्यकर्म करतुं होवाथी पुद्गल पोते ज अधिकरण छे.
ए ज प्रमाणे (१) जीव स्वतंत्रपणे जीवभावने करतो होवाथी जीव पोते ज कर्ता छे; (२) पोते जीवभावरूपे परिणमवानी शक्तिवाळो होवाथी जीव पोते ज करण छे; (३) जीवभावने प्राप्त करतो — पहोंचतो होवाथी जीवभाव कर्म छे, अथवा जीवभावथी पोते अभिन्न होवाथी जीव पोते ज कर्म छे; (४) पोतानामांथी पूर्व भावनो व्यय करीने (नवीन) जीवभाव करतो होवाथी अने जीवद्रव्यरूपे ध्रुव रहेतो होवाथी जीव पोते ज अपादान छे; (५) पोताने जीवभाव देतो होवाथी जीव पोते ज संप्रदान छे; (६) पोतानामां अर्थात् पोताना आधारे जीवभाव करतो होवाथी जीव पोते ज अधिकरण छे.
आ रीते, पुद्गलनी कर्मोदयादिरूपे के कर्मबंधादिरूपे परिणमवानी क्रियाने विषे खरेखर पुद्गल ज स्वयमेव छ कारकरूपे वर्ततुं होवाथी तेने अन्य कारकोनी अपेक्षा नथी तथा जीवनी औदयिकादि भावरूपे परिणमवानी क्रियाने विषे खरेखर जीव ज स्वयमेव छ कारकरूपे वर्ततो होवाथी तेने अन्य कारकोनी अपेक्षा नथी. पुद्गलनी अने
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कर्मजीवयोरन्योन्याकर्तृत्वेऽन्यदत्तफलान्योपभोगलक्षणदूषणपुरःसरः पूर्वपक्षो- ऽयम् ।।६३।। जीवनी उपरोक्त क्रियाओ एक ज काळे वर्तती होवा छतां पण पौद्गलिक क्रियाने विषे वर्ततां पुद्गलनां छ कारको जीवकारकोथी तद्दन भिन्न अने निरपेक्ष छे तथा जीवभावरूप क्रियाने विषे वर्ततां जीवनां छ कारको पुद्गलकारकोथी तद्दन भिन्न अने निरपेक्ष छे. खरेखर कोई द्रव्यनां कारकोने कोई अन्य द्रव्यनां कारकोनी अपेक्षा होती नथी. ६२.
अन्वयार्थः — [ यदि ] जो [ कर्म ] कर्म [ कर्म करोति ] कर्मने करे अने [ सः आत्मा ] आत्मा [ आत्मानम् करोति ] आत्माने करे तो [ कर्म ] कर्म [ फलम् कथं ददाति ] आत्माने फळ केम आपे [ च ] अने [ आत्मा ] आत्मा [ तस्य फलं भुङ्क्ते ] तेनुं फळ केम भोगवे?
टीकाः — जो कर्म अने जीवने अन्योन्य अकर्तापणुं होय, तो ‘अन्ये दीधेलुं फळ अन्य भोगवे’ एवो प्रसंग आवे; — आवो दोष बतावीने अहीं पूर्वपक्ष रजू करवामां आव्यो छे.
भावार्थः — शास्त्रोमां कह्युं छे के (पौद्गलिक) कर्म जीवने फळ आपे छे अने जीव (पौद्गलिक) कर्मनुं फळ भोगवे छे. हवे जो जीव कर्मने करतो ज न होय तो जीवथी नहि करायेलुं कर्म जीवने फळ केम आपे अने जीव पोताथी नहि करायेला कर्मना फळने केम भोगवे ? जीवथी नहि करायेलुं कर्म जीवने फळ आपे अने जीव ते फळ भोगवे ए कोई रीते न्याययुक्त नथी. आ रीते, ‘कर्म कर्मने ज करे छे अने आत्मा आत्माने ज करे छे’ ए वातमां पूर्वोक्त दोष आवतो होवाथी ए वात घटती नथी
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
कर्मयोग्यपुद्गला अञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोकव्यापित्वाद्यत्रात्मा तत्रानानीता एवावतिष्ठन्त इत्यत्रौक्त म् ।।६४।।
— एम अहीं पूर्वपक्ष रजू करवामां आव्यो छे. ६३.
हवे सिद्धांतसूत्रो छे (अर्थात् हवे ६३मी गाथामां कहेला पूर्वपक्षना निराकरण- पूर्वक सिद्धांतनुं प्रतिपादन करनारी गाथाओ कहेवामां आवे छे).
अन्वयार्थः — [ लोकः ] लोक [ सर्वतः ] सर्वतः [ विविधैः ] विविध प्रकारना, [ अनन्तानन्तैः ] अनंतानंत [ सूक्ष्मैः बादरैः च ] सूक्ष्म तेम ज बादर [ पुद्गलकायैः ] पुद्गलकायो (पुद्गलस्कंधो) वडे [ अवगाढगाढनिचितः ] (विशिष्ट रीते) अवगाहाईने गाढ भरेलो छे.
टीकाः — अहीं एम कह्युं छे के — कर्मयोग्य पुद्गलो (कार्माणवर्गणारूप पुद्गल- स्कंधो) अंजनचूर्णथी (आंजणना झीणा भूकाथी) भरेली डाबलीना न्याये आखा लोकमां व्यापेलां छे; तेथी ज्यां आत्मा छे त्यां, विना-लाव्ये ज (क्यांयथी लाववामां आव्या विना ज), तेओ रहेलां छे. ६४.
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बद्धत्वादनादिमोहरागद्वेषस्निग्धैरविशुद्धैरेव भावैर्विवर्तते । स खलु यत्र यदा मोहरूपं रागरूपं द्वेषरूपं वा स्वस्य भावमारभते, तत्र तदा तमेव निमित्तीकृत्य जीवप्रदेशेषु परस्परावगाहेनानुप्रविष्टाः स्वभावैरेव पुद्गलाः कर्मभावमापद्यन्त इति ।।६५।।
अन्वयार्थः — [ आत्मा ] आत्मा [ स्वभावं ] (मोहरागद्वेषरूप) पोताना भावने [ करोति ] करे छे; [ तत्र गताः पुद्गलाः ] (त्यारे) त्यां रहेलां पुद्गलो [ स्वभावैः ] पोताना भावोथी [ अन्योन्यावगाहावगाढाः ] जीवने विषे (विशिष्ट प्रकारे) अन्योन्य-अवगाहरूपे प्रवेश्यां थकां [ कर्मभावम् गच्छन्ति ] कर्मभावने पामे छे.
टीकाः — अन्य वडे करवामां आव्या विना कर्मनी उत्पत्ति कई रीते थाय छे तेनुं आ कथन छे.
आत्मा खरेखर संसार-अवस्थामां पारिणामिक चैतन्यस्वभावने छोड्या विना ज अनादि बंधन वडे बद्ध होवाथी अनादि मोहरागद्वेष वडे *स्निग्ध एवा अविशुद्ध भावोरूपे ज विवर्तन पामे छे ( – परिणमे छे). ते (संसारस्थ आत्मा) खरेखर ज्यां अने ज्यारे मोहरूप, रागरूप के द्वेषरूप एवा पोताना भावने करे छे, त्यां अने त्यारे ते ज भावने निमित्त करीने पुद्गलो पोताना भावोथी ज जीवना प्रदेशोमां (विशिष्टतापूर्वक) परस्पर अवगाहरूपे प्रवेश्यां थकां कर्मभावने पामे छे.
भावार्थः — आत्मा जे क्षेत्रे अने जे काळे अशुद्ध भावे परिणमे छे, ते ज क्षेत्रे रहेला कार्माणवर्गणारूप पुद्गलस्कंधो ते ज काळे स्वयं पोताना भावोथी ज जीवना प्रदेशोमां खास प्रकारे परस्पर-अवगाहरूपे प्रवेश्या थका कर्मपणाने पामे छे.
आ रीते, जीवथी कराया विना ज पुद्गलो स्वयं कर्मपणे परिणमे छे. ६५. *स्निग्ध = चीकणा; चीकाशवाळा. (मोहरागद्वेष कर्मबंधना निमित्तभूत होवाने लीधे मोहरागद्वेषने
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
पुद्गलस्क न्धविकल्पाः कर्त्रन्तरनिरपेक्षा एवोत्पद्यन्ते, तथा स्वयोग्यजीवपरिणामोपलम्भे ज्ञाना- वरणप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैः कर्माण्यपि कर्त्रन्तरनिरपेक्षाण्येवोत्पद्यन्ते इति ।।६६।।
अन्वयार्थः — [ यथा ] जेम [ पुद्गलद्रव्याणां ] पुद्गलद्रव्योनी [ बहुप्रकारैः ] बहु प्रकारे [ स्कन्धनिर्वृत्तिः ] स्कंधरचना [ परैः अकृता ] परथी कराया विना [ दृष्टा ] थती जोवामां आवे छे, [ तथा ] तेम [ कर्मणां ] कर्मोनी बहुप्रकारता [ विजानीहि ] परथी अकृत जाणो.
टीकाः — कर्मोनी विचित्रता (बहुप्रकारता) अन्य वडे करवामां आवती नथी एम अहीं कह्युं छे.
जेम पोताने योग्य चंद्र-सूर्यना प्रकाशनी उपलब्धि होतां, संध्या-वादळां-इंद्रधनुष- प्रभामंडळ इत्यादि घणा प्रकारे पुद्गलस्कंधभेदो अन्य कर्तानी अपेक्षा विना ज ऊपजे छे, तेम पोताने योग्य जीव-परिणामनी उपलब्धि होतां, ज्ञानावरणादि घणा प्रकारे कर्मो पण अन्य कर्तानी अपेक्षा विना ज ऊपजे छे.
भावार्थः — कर्मोनी विविध प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभागरूप विचित्रता पण जीवकृत नथी, पुद्गलकृत ज छे. ६६. पं. १४
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निश्चयेन जीवकर्मणोश्चैककर्तृत्वेऽपि व्यवहारेण कर्मदत्तफलोपलम्भो जीवस्य न विरुध्यत इत्यत्रोक्त म् ।
जीवा हि मोहरागद्वेषस्निग्धत्वात्पुद्गलस्कन्धाश्च स्वभावस्निग्धत्वाद्बन्धावस्थायां परमाणुद्वन्द्वानीवान्योन्यावगाहग्रहणप्रतिबद्धत्वेनावतिष्ठन्ते । यदा तु ते परस्परं वियुज्यन्ते, तदोदितप्रच्यवमाना निश्चयेन सुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेणेष्टानिष्टविषयाणां
अन्वयार्थः — [ जीवाः पुद्गलकायाः ] जीवो अने पुद्गलकायो [ अन्योन्यावगाढ- ग्रहणप्रतिबद्धाः ] (विशिष्ट प्रकारे) अन्योन्य-अवगाहने ग्रहवा वडे (परस्पर) बद्ध छे; [ काले वियुज्यमानाः ] काळे छूटा पडतां [ सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति ] सुखदुःख आपे छे अने भोगवे छे (अर्थात् पुद्गलकायो सुखदुःख आपे छे अने जीवो भोगवे छे).
टीकाः — निश्चयथी जीव अने कर्मने एकनुं (निज निज रूपनुं ज) कर्तापणुं होवा छतां, व्यवहारथी जीवने कर्मे दीधेला फळनो भोगवटो विरोध पामतो नथी (अर्थात् ‘कर्म जीवने फळ आपे छे अने जीव तेने भोगवे छे’ ए वात पण व्यवहारथी घटे छे) एम अहीं कह्युं छे.
जीवो मोहरागद्वेष वडे स्निग्ध होवाने लीधे अने पुद्गलस्कंधो स्वभावथी स्निग्ध होवाने लीधे, (तेओ) बंध-अवस्थामां — *परमाणुद्वंद्वोनी माफक — (विशिष्ट प्रकारे) अन्योन्य-अवगाहना ग्रहण वडे बद्धपणे रहे छे. ज्यारे तेओ परस्पर छूटा पडे छे त्यारे (नीचे प्रमाणे पुद्गलस्कंधो फळ आपे छे अने जीवो तेने भोगवे छे) — उदय पामीने खरी जता पुद्गलकायो सुखदुःखरूप आत्मपरिणामोना निमित्तमात्र होवानी *परमाणुद्वंद्व = बे परमाणुओनुं जोडकुं; बे परमाणुओनो बनेलो स्कंध; द्वि-अणुक स्कंध.
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निमित्तमात्रत्वात्पुद्गलकायाः सुखदुःखरूपं फलं प्रयच्छन्ति । जीवाश्च निश्चयेन निमित्त- मात्रभूतद्रव्यकर्मनिर्वर्तितसुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेण द्रव्यकर्मोदयापादितेष्टा- अपेक्षाए *निश्चयथी, अने इष्टानिष्ट विषयोना निमित्तमात्र होवानी अपेक्षाए *व्यवहारथी, +सुखदुःखरूप फळ आपे छे; तथा जीवो निमित्तमात्रभूत द्रव्यकर्मथी निष्पन्न थता सुख-दुःखरूप आत्मपरिणामोना भोक्ता होवानी अपेक्षाए निश्चयथी, अने (निमित्तमात्रभूत) द्रव्यकर्मना उदयथी संपादित इष्टानिष्ट विषयोना भोक्ता होवानी अपेक्षाए व्यवहारथी, ते प्रकारनुं (सुखदुःखरूप) फळ भोगवे छे (अर्थात् निश्चयथी सुखदुःखपरिणामरूप अने व्यवहारथी इष्टानिष्ट विषयरूप फळ भोगवे छे). *(१) सुखदुःखपरिणामोमां तथा (२) इष्टानिष्ट विषयोना संयोगमां शुभाशुभ कर्मो निमित्तभूत होय छे, तेथी ते कर्मोने तेमना निमित्तमात्रपणानी अपेक्षाए ज ‘‘(१) सुखदुःखपरिणामरूप (फळ)
भंगथी एम न समजवुं के ‘पौद्गलिक कर्म जीवने खरेखर फळ आपे छे अने जीव खरेखर
पासेथी फळ मेळवीने भोगवी शकतुं नथी. जो परमार्थे कोई द्रव्य अन्य द्रव्यने फळ आपे अने ते अन्य द्रव्य तेने भोगवे तो बंने द्रव्यो एक थई जाय. अहीं ए ध्यानमां राखवुं खास आवश्यक छे के टीकाना पहेला फकरामां आखी गाथाना कथननो सार कहेतां श्री टीकाकार आचार्यदेवे पोते ज, जीवने कर्मे दीधेला फळनो भोगवटो व्यवहारथी ज कह्यो छे, निश्चयथी नहि. +सुखदुःखना बे अर्थो थाय छेः (१) सुखदुःखपरिणामो, अने (२) इष्टानिष्ट विषयो. ज्यां ‘निश्चयथी’ कह्युं छे त्यां ‘सुखदुःखपरिणामो’ एवो अर्थ समजवो अने ज्यां ‘व्यवहारथी’ कह्युं
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निष्टविषयाणां भोक्तृ त्वात्तथाविधं फलं भुञ्जन्ते इति । एतेन जीवस्य भोक्तृत्वगुणोऽपि व्याख्यातः ।।६७।।
निश्चयेनात्मभावस्य कर्ता, व्यवहारेण कर्मण इति । यथात्रोभयनयाभ्यां कर्म कर्तृ, तथैकेनापि नयेन न भोक्तृ । कुतः ? चैतन्यपूर्वकानुभूतिसद्भावाभावात् । ततश्चेतनत्वात्
अन्वयार्थः — [ तस्मात् ] तेथी [ अथ जीवस्य भावेन हि संयुतम् ] जीवना भावथी संयुक्त एवुं [ कर्म ] कर्म (द्रव्यकर्म) [ कर्तृ ] कर्ता छे ( – निश्चयथी पोतानुं कर्ता अने व्यवहारथी जीवभावनुं कर्ता; परंतु ते भोक्ता नथी). [ भोक्ता तु ] भोक्ता तो [ जीवः भवति ] (मात्र) जीव छे [ चेतकभावेन ] चेतकभावने लीधे [ कर्मफलम् ] कर्मफळनो.
तेथी (पूर्वोक्त कथनथी) एम नक्की थयुं के — कर्म निश्चयथी पोतानुं कर्ता छे, व्यवहारथी जीवभावनुं कर्ता छे; जीव पण निश्चयथी पोताना भावनो कर्ता छे, व्यवहारथी कर्मनो कर्ता छे.
जेम अहीं बंने नयोथी कर्म कर्ता छे, तेम एक पण नयथी ते भोक्ता नथी. शा कारणे? कारण के तेने *चैतन्यपूर्वक अनुभूतिनो सद्भाव नथी. तेथी चेतनपणाने *जे अनुभूति चैतन्यपूर्वक होय तेने ज अहीं भोक्तृत्व कहेल छे, ते सिवायनी अनुभूतिने नहि.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
केवल एव जीवः कर्मफलभूतानां कथञ्चिदात्मनः सुखदुःखपरिणामानां कथञ्चिदिष्टानिष्ट- विषयाणां भोक्ता प्रसिद्ध इति ।।६८।।
मोहावच्छन्नत्वादुपजातविपरीताभिनिवेशः प्रत्यस्तमितसम्यग्ज्ञानज्योतिः सान्तमनन्तं वा संसारं लीधे केवळ जीव ज कर्मफळनो — कथंचित् आत्माना सुखदुःखपरिणामोनो अने कथंचित् इष्टानिष्ट विषयोनो — भोक्ता प्रसिद्ध छे. ६८.
अन्वयार्थः — [ एवं ] ए रीते [ स्वकैः कर्मभिः ] पोतानां कर्मोथी [ कर्ता भोक्ता भवन् ] कर्ता-भोक्ता थतो [ आत्मा ] आत्मा [ मोहसंछन्नः ] मोहाच्छादित वर्ततो थको [ पारम् अपारं संसारं ] सांत अथवा अनंत संसारमां [ हिंडते ] परिभ्रमण करे छे.
ए रीते प्रगट प्रभुत्वशक्तिने लीधे जेणे पोतानां कर्मो वडे ( – निश्चयथी भावकर्मो अने व्यवहारथी द्रव्यकर्मो वडे) कर्तृत्व अने भोक्तृत्वनो अधिकार ग्रहण कर्यो छे एवा आ आत्माने, अनादि मोहाच्छादितपणाने लीधे विपरीत *अभिनिवेश ऊपज्यो होवाथी सम्यग्ज्ञानज्योति अस्त थई गई छे, तेथी ते सांत अथवा अनंत *अभिनिवेश = अभिप्राय; आग्रह.
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परिभ्रमतीति ।।६९।।
भिनिवेशः समुद्भिन्नसम्यग्ज्ञानज्योतिः कर्तृत्वभोक्तृ त्वाधिकारं परिसमाप्य सम्यक् - प्रकटितप्रभुत्वशक्ति र्ज्ञानस्यैवानुमार्गेण चरति, तदा विशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपमपवर्गनगरं संसारमां परिभ्रमण करे छे.
(आ प्रमाणे जीवना कर्मसहितपणानी मुख्यतापूर्वक प्रभुत्वगुणनुं व्याख्यान करवामां आव्युं.) ६९.
अन्वयार्थः — [ जिनभाषितेन मार्गं समुपगतः ] जे (पुरुष) जिनवचनथी मार्गने पामीने [ उपशान्तक्षीणमोहः ] उपशांतक्षीणमोह थयो थको (अर्थात् दर्शनमोहनो जेने उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम थयो छे एवो थयो थको) [ ज्ञानानुमार्गचारी ] ज्ञानानुमार्गे चरे छे ( – ज्ञानने अनुसरनारा मार्गे प्रवर्ते छे), [ धीरः ] ते धीर पुरुष [ निर्वाणपुरं व्रजति ] निर्वाणपुरने पामे छे.
ज्यारे आ ज आत्मा जिनाज्ञा वडे मार्गने पामीने, उपशांतक्षीणमोहपणाने लीधे (दर्शनमोहना उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमने लीधे) जेने विपरीत अभिनिवेश नष्ट थयो होवाथी सम्यग्ज्ञानज्योति प्रगटी छे एवो थयो थको, कर्तृत्व अने भोक्तृत्वना अधिकारने समाप्त करीने सम्यक्पणे प्रगट प्रभुत्वशक्तिवाळो थयो थको ज्ञानने ज अनुसरनारा मार्गे चरे छे ( – प्रवर्ते छे, परिणमे छे, आचरण करे छे), त्यारे ते विशुद्ध
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विगाहत इति ।।७०।।
आत्मतत्त्वनी उपलब्धिरूप अपवर्गनगरने (मोक्षपुरने) पामे छे.
(आ प्रमाणे जीवना कर्मरहितपणानी मुख्यतापूर्वक प्रभुत्वगुणनुं व्याख्यान करवामां आव्युं.) ७०.
अन्वयार्थः — [ सः महात्मा ] ते महात्मा [ एकः एव ] एक ज छे, [ द्विविकल्पः ] बे भेदवाळो छे अने [ त्रिलक्षणः भवति ] त्रिलक्षण छे; [ चतुश्चङ्क्रमणः ] वळी तेने चतुर्विध भ्रमणवाळो [ च ] तथा [ पञ्चाग्रगुणप्रधानः ] पांच मुख्य गुणोथी प्रधानतावाळो [ भणितः ] कह्यो छे. [ उपयुक्तः जीवः ] उपयोगी एवो ते जीव [ षटकापक्रमयुक्तः ] छ *अपक्रम सहित, [ सप्तभङ्गसद्भावः ] सात भंगपूर्वक सद्भाववाळो, [ अष्टाश्रयः ] आठना आश्रयरूप, [ नवार्थः ] *अपक्रम = (संसारी जीवने अन्य भवमां जतां) अनुश्रेणी गमन अर्थात् विदिशाओ छोडीने गमन
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स खलु जीवो महात्मा नित्यचैतन्योपयुक्त त्वादेक एव, ज्ञानदर्शनभेदाद्दिव- विकल्पः, कर्मफलकार्यज्ञानचेतनाभेदेन लक्ष्यमाणत्वात्र्रिलक्षणः ध्रौव्योत्पादविनाश- भेदेन वा, चतसृषु गतिषु चङ्क्रमणत्वाच्चतुश्चङ्क्रमणः, पञ्र्चभिः पारिणामिकौदयिकादि- भिरग्रगुणैः प्रधानत्वात्पञ्चाग्रगुणप्रधानः, चतसृषु दिक्षूर्ध्वमधश्चेति भवान्तरसङ्क्रमण- षटकेनापक्रमेण युक्त त्वात्षटकापक्रमयुक्त :, अस्तिनास्त्यादिभिः सप्तभंगैः सद्भावो यस्येति सप्तभङ्गसद्भावः, अष्टानां कर्मणां गुणानां वा आश्रयत्वादष्टाश्रयः, नवपदार्थरूपेण वर्तनान्नवार्थः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसाधारणप्रत्येकद्वित्रिचतुःपञ्र्चेन्द्रियरूपेषु दशसु स्थानेषु गतत्वाद्दशस्थानग इति ।।७१ – ७२।।
नव-अर्थरूप अने [ दशस्थानगः ] दशस्थानगत [ भणितः ] कहेवामां आव्यो छे.
टीकाः — ते जीव महात्मा (१) खरेखर नित्यचैतन्य-उपयोगी होवाथी ‘एक ज’ छे; (२) ज्ञान ने दर्शन एवा भेदोने लीधे ‘बे भेदवाळो’ छे; (३) कर्मफळचेतना, कार्यचेतना ने ज्ञानचेतना एवा भेदो वडे अथवा ध्रौव्य, उत्पाद ने विनाश एवा भेदो वडे लक्षित होवाथी ‘त्रिलक्षण (त्रण लक्षणवाळो)’ छे; (४) चार गतिमां भमतो होवाथी ‘चतुर्विध भ्रमणवाळो’ छे; (५) पारिणामिक, औदयिक इत्यादि पांच मुख्य गुणो वडे प्रधानपणुं होवाथी ‘पांच मुख्य गुणोथी प्रधानतावाळो’ छे; (६) चार दिशाओमां, ऊंचे अने नीचे एम षड्विध भवांतरगमनरूप अपक्रमथी युक्त होवाथी (अर्थात् अन्य भवमां जतां उपरोक्त छ दिशाओमां गमन थतुं होवाथी) ‘छ अपक्रम सहित’ छे; (७) अस्ति, नास्ति आदि सात भंगो वडे जेनो सद्भाव छे एवो होवाथी ‘सात भंगपूर्वक सद्भाववाळो’ छे; (८) (ज्ञानावरणीयादि) आठ कर्मोना अथवा (सम्यक्त्वादि) आठ गुणोना आश्रयभूत होवाथी ‘आठना आश्रयरूप’ छे; (९) नव पदार्थरूपे वर्ततो होवाथी ‘नव-अर्थरूप’ छे; (१०) पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अने पंचेन्द्रियरूप दश स्थानोमां प्राप्त होवाथी ‘दशस्थानगत’ छे. ७१ – ७२.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
बद्धजीवस्य षडगतयः कर्मनिमित्ताः । मुक्त स्याप्यूर्ध्वगतिरेका स्वाभाविकी- त्यत्रोक्त म् ।।७३।।
अन्वयार्थः — [ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धैः ] प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध अने प्रदेशबंधथी [ सर्वतः मुक्तः ] सर्वतः मुक्त जीव [ ऊर्ध्वं गच्छति ] ऊर्ध्वगमन करे छे; [ शेषाः ] बाकीना जीवो (भवांतरमां जतां) [ विदिग्वर्जां गतिं यान्ति ] विदिशाओ छोडीने गमन करे छे.
टीकाः — बद्ध जीवने कर्मनिमित्तक षड्विध गमन (अर्थात् कर्म जेमां निमित्तभूत छे एवुं छ दिशाओमां गमन) होय छे; मुक्त जीवने पण स्वाभाविक एवुं एक ऊर्ध्वगमन होय छे. — आम अहीं कह्युं छे.
भावार्थः — समस्त रागादिविभाव रहित एवुं जे शुद्धात्मानुभूतिलक्षण ध्यान तेना बळ वडे चतुर्विध बंधथी सर्वथा मुक्त थयेलो जीव पण, स्वाभाविक अनंत ज्ञानादि गुणोथी युक्त वर्ततो थको, एकसमयवर्ती अविग्रहगति वडे (लोकाग्रपर्यंत) स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन करे छे. बाकीना संसारी जीवो मरणांते विदिशाओ छोडीने पूर्वोक्त षट्- अपक्रमस्वरूप (कर्मनिमित्तक) अनुश्रेणीगमन करे छे. ७३.
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प्रदेशपर्यायेण, कदाचित्परमाणुत्वेनात्र तिष्ठन्ति । नान्या गतिरस्ति । इति तेषां चतुर्विकल्प- त्वमिति ।।७४।।
अन्वयार्थः — [ ते पुद्गलकायाः ] पुद्गलकायना [ चतुर्विकल्पाः ] चार भेद [ ज्ञातव्याः ] जाणवाः[ स्कन्धाः च ] स्कंधो, [ स्कन्धदेशाः ] स्कंधदेशो, [ स्कन्धप्रदेशाः ] स्कंधप्रदेशो [ च ] अने [ परमाणवः भवन्ति इति ] परमाणुओ.
पुद्गलद्रव्यो कदाचित् स्कंधपर्याये, कदाचित् स्कंधदेशरूप पर्याये, कदाचित् स्कंधप्रदेशरूप पर्याये अने कदाचित् परमाणुपणे अहीं (लोकमां) होय छे; बीजी कोई गति नथी. ए प्रमाणे तेमना चार भेदो छे. ७४.
अन्वयार्थः — [ सकलसमस्तः ] सकळ-समस्त (पुद्गलपिंडात्मक आखी वस्तु) ते [ स्क न्धः ] स्कंध छे, [ तस्य अर्धं तु ] तेना अर्धने [ देशः इति भणन्ति ] देश कहे छे, [ अर्धार्धं च ] अर्धनुं अर्ध ते [ प्रदेशः ] प्रदेश छे [ च ] अने [ अविभागी ] अविभागी ते [ परमाणुः एव ] खरेखर परमाणु छे.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
अनन्तानन्तपरमाण्वारब्धोऽप्येकः स्कन्धो नाम पर्यायः । तदर्धं स्कन्धदेशो नाम पर्यायः । तदर्धार्धं स्कन्धप्रदेशो नाम पर्यायः । एवं भेदवशात् द्वयणुकस्कन्धादनन्ताः स्कन्धप्रदेशपर्यायाः । निर्विभागैकप्रदेशः स्कन्धस्यान्त्यो भेदः परमाणुरेकः । पुनरपि द्वयोः परमाण्वोः सङ्घातादेको द्वयणुकस्कन्धपर्यायः । एवं सङ्घातवशादनन्ताः स्कन्धपर्यायाः । एवं भेदसङ्घाताभ्यामप्यनन्ता भवन्तीति ।।७५।।
अनंतानंत परमाणुनो बनेलो होवा छतां जे एक होय ते स्कंध नामनो पर्याय छे; तेनुं अर्ध ते स्कंधदेश नामनो पर्याय छे; ते अर्धनुं जे अर्ध ते स्कंधप्रदेश नामनो पर्याय छे. ए प्रमाणे भेदने लीधे (छूटा पडवाने लीधे) द्वि-अणुक स्कंधपर्यंत अनंत स्कंधप्रदेशरूप पर्यायो होय छे. निर्विभाग-एक-प्रदेशवाळो, स्कंधनो छेल्लो भाग ते एक परमाणु छे. (आ रीते *भेदथी थता पुद्गलविकल्पोनुं वर्णन थयुं.)
वळी, बे परमाणुओना संघातथी (भेगा थवाथी) एक द्विअणुक-स्कंधरूप पर्याय थाय छे. ए रीते संघातने लीधे (द्विअणुक-स्कंधनी माफक त्रिअणुक-स्कंध, चतुरणुक-स्कंध इत्यादि) अनंत स्कंधरूप पर्यायो थाय छे. (आ रीते संघातथी थता पुद्गलविकल्पनुं वर्णन थयुं.)
ए प्रमाणे भेद-संघात बंनेथी पण (एकीसाथे भेद अने संघात बंने थवाथी पण) अनंत (स्कंधरूप पर्यायो) थाय छे. (आ रीते भेद-संघातथी थता पुद्गलविकल्पनुं वर्णन थयुं.) ७५. *भेदथी थता पुद्गलविकल्पोनुं (पुद्गलभेदोनुं) टीकाकार श्री जयसेनाचार्यदेवे जे वर्णन कर्युं छे तेनो
के १६ परमाणुनो बनेलो एक पुद्गलपिंड छे अने ते तूटीने तेना ककडा थाय छे. त्यां १६
परमाणुना आखा पुद्गलपिंडने ‘स्कंध’ गणीए तो ८ परमाणुवाळो तेनो अर्धभागरूप ककडो ते
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व्यक्त्याविर्भावतिरोभावाभ्यामपि च पूरणगलनोपपत्तेः परमाणवः पुद्गला इति निश्चीयन्ते । स्कन्धास्त्वनेकपुद्गलमयैकपर्यायत्वेन पुद्गलेभ्योऽनन्यत्वात्पुद्गला इति व्यवह्रियन्ते, तथैव च
अन्वयार्थः — [ बादरसौक्ष्म्यगतानां ] बादर ने सूक्ष्मपणे परिणत [ स्कन्धानां ] स्कंधोने [ पुद्गलः ] ‘पुद्गल’ [ इति ] एवो [ व्यवहारः ] व्यवहार छे. [ ते ] तेओ [ षट्प्रकाराः भवन्ति ] छ प्रकारना छे, [ यैः ] जेमनाथी [ त्रैलोक्यं ] त्रण लोक [ निष्पन्नम् ] निष्पन्न छे.
(१) जेमां षट्स्थानपतित (छ स्थानोमां समावेश पामती) वृद्धिहानि थाय छे एवा स्पर्श-रस-गंध-वर्णरूप गुणविशेषोने लीधे (परमाणुओ) ‘पूरणगलन’ धर्मवाळा होवाथी तथा (२) स्कंधव्यक्तिना ( – स्कंधपर्यायना) आविर्भाव अने तिरोभावनी अपेक्षाए पण (परमाणुओमां) ‘पूरण-गलन’ घटतां होवाथी परमाणुओ निश्चये ‘१पुद्गलो’ छे. स्कंधो तो २अनेकपुद्गलमय एकपर्यायपणाने लीधे पुद्गलोथी अनन्य १. जेमां (स्पर्श-रस-गंध-वर्णनी अपेक्षाए तथा स्कंधपर्यायनी अपेक्षाए) पूरण अने गलन थाय ते
कृशता; हानि; घटाडो. [(१) परमाणुओना विशेष गुणो जे स्पर्श-रस-गंध-वर्ण छे तेमनामां थती
पूरण-गलनधर्मवाळा छे. (२) परमाणुओमां स्कंधरूप पर्यायनो आविर्भाव थवो ते पूरण छे अने
तिरोभाव थवो ते गलन छे; ए रीते पण परमाणुओमां पूरण-गलन घटे छे.] २. स्कंध अनेकपरमाणुमय एकपर्याय छे तेथी ते परमाणुओथी अनन्य छे; अने परमाणुओ तो पुद्गलो
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
बादरसूक्ष्मत्वपरिणामविकल्पैः षट्प्रकारतामापद्य त्रैलोक्यरूपेण निष्पद्य स्थितवन्त इति । तथाहि — बादरबादराः, बादराः, बादरसूक्ष्माः, सूक्ष्मबादराः, सूक्ष्माः, सूक्ष्मसूक्ष्मा इति । तत्र छिन्नाः स्वयं सन्धानासमर्थाः काष्ठपाषाणादयो बादरबादराः । छिन्नाः स्वयं सन्धानसमर्थाः क्षीरघृततैलतोयरसप्रभृतयो बादराः । स्थूलोपलम्भा अपि छेत्तुं भेत्तुमादातुमशक्याः छायातपतमोज्योत्स्नादयो बादरसूक्ष्माः । सूक्ष्मत्वेऽपि स्थूलोपलम्भाः स्पर्शरसगन्धशब्दाः सूक्ष्मबादराः । सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्याः कर्मवर्गणादयः सूक्ष्माः । अत्यन्तसूक्ष्माः कर्मवर्गणाभ्योऽधो द्वयणुकस्कन्धपर्यन्ताः सूक्ष्मसूक्ष्मा इति ।।७६।।
प्रमाणे छेः— (१) बादरबादर; (२) बादर; (३) बादरसूक्ष्म; (४) सूक्ष्मबादर;
स्पर्शनेंद्रियथी स्पर्शी शकाय छे, जीभथी आस्वादी शकाय छे, नाकथी सूंघी शकाय छे
अथवा कानथी सांभळी शकाय छे ) ते ‘सूक्ष्मबादर’ छे; (५) कर्मवर्गणा वगेरे (स्कंधो))
(६) कर्मवर्गणाथी नीचेना (कर्मवर्गणातीत) द्विअणुक-स्कंध सुधीना (स्कंधो) के जे अत्यंत
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भावादविभागी, निर्विभागैकप्रदेशत्वादेकः, मूर्तद्रव्यत्वेन सदाप्यविनश्वरत्वान्नित्यः, अनादि- निधनरूपादिपरिणामोत्पन्नत्वान्मूर्तिभवः, रूपादिपरिणामोत्पन्नत्वेऽपि शब्दस्य परमाणु- गुणत्वाभावात्पुद्गलस्कन्धपर्यायत्वेन वक्ष्यमाणत्वाच्चाशब्दो निश्चीयत इति ।।७७।।
अन्वयार्थः — [ सर्वेषां स्क न्धानां ] सर्व स्कंधोनो [ यः अन्त्यः ] जे अंतिम भाग [ तं ] तेने [ परमाणुम् विजानीहि ] परमाणु जाणो. [ सः] ते [ अविभागी ] अविभागी, [ एकः ] एक, [ शाश्वतः ] शाश्वत, [ मूर्तिभवः ] मूर्तिप्रभव (मूर्तपणे ऊपजनारो) अने [ अशब्दः ] अशब्द छे.
पूर्वोक्त स्कंधरूप पर्यायोनो जे अंतिम भेद (नानामां नानो भाग) ते परमाणु छे. अने ते तो, विभागना अभावने लीधे अविभागी छे; निर्विभाग-एकप्रदेशवाळो होवाथी एक छे; मूर्तद्रव्यपणे सदाय अविनाशी होवाथी नित्य छे; अनादि-अनंत रूपादिना परिणामे ऊपजतो होवाथी *मूर्तिप्रभव छे; अने रूपादिना परिणामे ऊपजता होवा छतां पण अशब्द छे एम निश्चित छे, कारण के शब्द परमाणुनो गुण नथी तथा तेनुं (शब्दनुं) हवे पछी (७९मी गाथामां) पुद्गलस्कंधपर्यायपणे कथन छे. ७७.
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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
वस्तुतस्तु यथा तस्य स एव प्रदेश आदिः, स एव मध्यः, स एवान्तः इति, एवं द्रव्यगुणयोरविभक्त प्रदेशत्वात् य एव परमाणोः प्रदेशः, स एव स्पर्शस्य, स एव रसस्य, स एव गन्धस्य, स एव रूपस्येति । ततः क्वचित्परमाणौ गन्धगुणे, क्वचित् गन्धरसगुणयोः, क्वचित् गन्धरसरूपगुणेषु अपकृष्यमाणेषु तदविभक्त प्रदेशः परमाणुरेव विनश्यतीति । न तदपकर्षो युक्त : । ततः पृथिव्यप्तेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यैक एव
अन्वयार्थः — [ यः तु ] जे [ आदेशमात्रमूर्त्तः ] आदेशमात्रथी मूर्त छे (अर्थात् मात्र भेदविवक्षाथी मूर्तत्ववाळो कहेवाय छे) अने [ धातुचतुष्कस्य कारणं ] जे (पृथ्वी आदि) चार धातुओनुं कारण छे [ सः] ते [ परमाणुः ज्ञेयः ] परमाणु जाणवो — [ परिणामगुणः ] के जे परिणामगुणवाळो छे अने [ स्वयम् अशब्दः ] स्वयं अशब्द छे.
मूर्तत्वना कारणभूत स्पर्श-रस-गंध-वर्णनो, परमाणुथी *आदेशमात्र वडे ज भेद करवामां आवे छे; वस्तुतः तो जेवी रीते परमाणुनो ते ज प्रदेश आदि छे, ते ज प्रदेश मध्य छे अने ते ज प्रदेश अंत छे, तेवी रीते द्रव्य अने गुणना अभिन्न प्रदेश होवाथी, जे परमाणुनो प्रदेश छे, ते ज स्पर्शनो छे, ते ज रसनो छे, ते ज गंधनो छे, ते ज रूपनो छे. तेथी कोई परमाणुमां गंधगुण ओछो होय, कोई परमाणुमां गंधगुण अने रसगुण ओछा होय, कोई परमाणुमां गंधगुण, रसगुण अने रूपगुण ओछा होय, तो ते गुणथी अभिन्न प्रदेशवाळो परमाणु ज विनाश पामे. माटे ते गुणनी ओछप युक्त (
अभिन्न प्रदेशवाळो परमाणु ज नाश पामे; माटे बधा परमाणुओ समान गुणवाळा ज छे, एटले के तेओ भिन्न भिन्न जातिना नथी.] तेथी पृथ्वी, पाणी, अग्नि अने वायुरूप चार धातुओनुं, परिणामने लीधे, एक ज परमाणु कारण छे (अर्थात् *आदेश = कथन. [मात्र भेदकथन द्वारा ज परमाणुथी स्पर्श-रस-गंध-वर्णनो भेद पाडवामां आवे
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परमाणुः कारणं परिणामवशात् । विचित्रो हि परमाणोः परिणामगुणः क्वचित्कस्यचिद्गुणस्य व्यक्ताव्यक्त त्वेन विचित्रां परिणतिमादधाति । यथा च तस्य परिणामवशादव्यक्तो गन्धादि- गुणोऽस्तीति प्रतिज्ञायते, न तथा शब्दोऽप्यव्यक्तोऽस्तीति ज्ञातुं शक्यते, तस्यैकप्रदेशस्यानेक- प्रदेशात्मकेन शब्देन सहैकत्वविरोधादिति ।।७८।।
बने छे); केम के विचित्र एवो परमाणुनो परिणामगुण क्यांक कोई गुणनी
वळी जेवी रीते परमाणुने परिणामने लीधे +अव्यक्त गंधादिगुण छे एम जणाय छे तेवी रीते शब्द पण अव्यक्त छे एम जाणी शकातुं नथी, कारण के एकप्रदेशी परमाणुने अनेकप्रदेशात्मक शब्द साथे एकत्व होवामां विरोध छे. ७८.
अन्वयार्थः — [ शब्दः स्कन्धप्रभवः ] शब्द स्कंधजन्य छे. [ स्कन्धः परमाणु- सङ्गसङ्घातः ] स्कंध परमाणुदळनो संघात छे, [ तेषु स्पृष्टेषु ] अने ते स्कंधो स्पर्शातां — अथडातां [ शब्दः जायते ] शब्द उत्पन्न थाय छे; [ नियतः उत्पादिकः ] ए रीते *व्यक्ताव्यक्तता = व्यक्तता अथवा अव्यक्तता; प्रगटता अथवा अप्रगटता. [पृथ्वीमां स्पर्श, रस, गंध,
व्यक्त होय छे अने गंध अव्यक्त होय छे; अग्निमां स्पर्श ने वर्ण व्यक्त होय छे अने बाकीना बे अव्यक्त होय छे; वायुमां स्पर्श व्यक्त होय छे अने बाकीना त्रण अव्यक्त होय छे.] +जेवी रीते परमाणुमां गंधादिगुण भले अव्यक्तपणे पण होय छे तो खरो ज तेवी रीते परमाणुमां शब्द पण अव्यक्तपणे रहेतो हशे एम नथी, शब्द तो परमाणुमां व्यक्तपणे के अव्यक्तपणे बिलकुल होतो ज नथी.