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हिन्दी
कन्नड
उनमें स्व. श्री शांतिलाल रतिलाल शाहकी ओरसे ५० % आर्थिक
रु. १०=०० रखा गया है।
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ॐ
‘बहिनश्रीके वचनामृत’ नामका यह लघुकाय प्रकाशन प्रशममूर्ति निजशुद्धात्मद्रष्टिसम्पन्न पूज्य बहिनश्री चंपाबेनके अध्यात्मरससभर प्रवचनोंमेंसे उनकी चरणोपजीवी कुछ कुमारिका ब्रह्मचारिणी बहिनोंने अपने लाभ हेतु झेले हुए — लिखे हुए — वचनामृतमेंसे चुने हुए बोलोंका संग्रह है ।
परमवीतराग सर्वज्ञदेव चरमतीर्थंकर परमपूज्य श्री महावीर- स्वामीकी दिव्यध्वनि द्वारा पुनः प्रवाहित हुए अनादिनिधन अध्यात्म- प्रवाहको श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने गुरुपरम्परासे आत्मसात् करके युक्ति , आगम और स्वानुभवमय निज वैभव द्वारा सूत्रबद्ध किया; और इस प्रकार समयसारादि परमागमोंकी रचना द्वारा उन्होंने जिनेन्द्रप्ररूपित विशुद्ध अध्यात्मतत्त्व प्रकाशित करके वीतराग मार्गका परम-उद्योत किया है । उनके शासनस्तम्भोपम परमागमोंकी विमल विभा द्वारा निज- शुद्धात्मानुभूतिमय जिनशासनकी मंगल उपासना करके हमारे सौभाग्यसे साधक संत आज भी उस पुनीत मार्गको प्रकाशित कर रहे हैं ।
परमोपकारी पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीको वि. सं. १९७८में भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत समयसार-परमागमका पावन योग हुआ । उससे उनके सुप्त आध्यात्मिक पूर्वसंस्कार जागृत हुए, अंतःचेतना विशुद्ध आत्मतत्त्व साधनेकी ओर मुड़ी — परिणति शुद्धात्माभिमुखी बनी; और उनके प्रवचनोंकी शैली अध्यात्मसुधासे सराबोर हो गई ।
जिनके तत्त्वरसपूर्ण वचनामृतोंका यह संग्रह है उन पूज्य बहिनश्री चंपाबेनकी आध्यात्मिक प्रतिभाका संक्षिप्त उल्लेख यहाँ देना उचित माना
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जायगा । उन्हें लघु वयमें ही पूज्य गुरुदेवश्रीकी शुद्धात्मस्पर्शी वज्रवाणीके श्रवणका परम सौभाग्य प्राप्त हुआ था । उससे उनके सम्यक्त्व-आराधनाके पूर्वसंस्कार पुनः साकार हुए । उन्होंने तत्त्वमंथनके अंतर्मुख उग्र पुरुषार्थसे १८ वर्षकी बालावयमें निज शुद्धात्मदेवके साक्षात्कारको प्राप्त कर निर्मल स्वानुभूति प्राप्त की । दिनोंदिन वृद्धिगत- धारारूप वर्तती उस विमल अनुभूतिसे सदा पवित्र प्रवर्तमान उनका जीवन, पूज्य गुरुदेवकी मांगलिक प्रबल प्रभावना-छायामें, मुमुक्षुओंको पवित्र जीवनकी प्रेरणा दे रहा है ।
पूज्य बहिनश्रीकी स्वानुभूतिजन्य पवित्रताकी छाप पूज्य गुरुदेवश्रीके हृदयमें सर्वप्रथम तब उठी कि जब संवत् १९८९ में राजकोटमें उन्हें ज्ञात हुआ कि बहिनश्रीको सम्यग्दर्शन एवं तज्जन्य निर्विकल्प आत्मानुभूति प्रगट हुई है; ज्ञात होने पर उन्होंने अध्यात्मविषयक गम्भीर कसोटीप्रश्न पूछकर बराबर परीक्षा की; और परिणामतः पूज्य गुरुदेवने सहर्ष स्वीकार करके प्रमोद व्यक्त करते हुए कहा : ‘बहिन ! तुम्हारी द्रष्टि और निर्मल अनुभूति यथार्थ है ।’
असंग आत्मदशाकी प्रेमी पूज्य बहिनश्रीको कभी भी लौकिक व्यवहारके प्रसंगोंमें रस आया ही नहीं है । उनका अंतर्ध्येयलक्षी जीवन सत्श्रवण, स्वाध्याय, मंथन और आत्मध्यानसे समृद्ध है । आत्मध्यानमयी विमल अनुभूतिमेंसे उपयोग बाहर आने पर एक बार [(गुजराती) सं. १९९३की चैत्र कृष्णा अष्टमीके दिन] उनको उपयोगकी निर्मलतामें भवांतरों सम्बन्धी सहज स्पष्ट जातिस्मरणज्ञान प्रगट हुआ । धर्मसम्बन्धी अनेक प्रकारोंकी स्पष्टताका — सत्यताका वास्तविक बोध देनेवाला उनका वह सातिशय स्मरणज्ञान आत्मशुद्धिके साथ-साथ क्रमशः बढ़ता गया, जिसकी पुनीत प्रभासे पूज्य गुरुदेवके मंगल प्रभावना-उदयको चमत्कारिक वेग मिला है ।
सहज वैराग्य, शुद्धात्मरसीली भगवती चेतना, विशुद्ध आत्मध्यानके प्रभावसे पुनःप्राप्त निज-आराधनाकी मंगल डोर तथा ज्ञायकउद्यानमें
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क्रीड़ाशील विमल दशामें सहजस्फु टित अनेक भवका जातिस्मरणज्ञान इत्यादि विविध आध्यात्मिक पवित्र विशेषताओंसे विभूषित पूज्य बहिनश्री चंपाबेनके असाधारण गुणगम्भीर व्यक्ति त्वका परिचय देते हुए पूज्य गुरुदेव स्वयं प्रसन्नहृदयसे अनेक बार प्रकाशित करते हैं कि : —
‘‘बहिनोंका महान भाग्य है कि चंपाबेन जैसी ‘धर्मरत्न’ इस काल पैदा हुई हैं । बहिन तो भारतका अनमोल रतन है । अतीन्द्रिय आनन्दका नाथ उनको अंतरसे जागृत हुआ है । उनकी अंतरकी स्थिति कोई और ही है । उनकी सुद्रढ़ निर्मल आत्मद्रष्टि तथा निर्विकल्प स्वानुभूतिका जोड़ इस काल मिलना कठिन है ।....असंख्य अरब वर्षका उन्हें जातिस्मरणज्ञान है । बहिन ध्यानमें बैठती हैं तब कई बार वह अंतरमें भूल जाती हैं कि ‘मैं महाविदेहमें हूँ या भरतमें’ ! !....बहिन तो अपने अंतरमें — आत्माके कार्यमें — ऐसी लीन हैं कि उन्हें बाहरकी कुछ पड़ी ही नहीं है । प्रवृत्तिका उनको जरा भी रस नहीं है । उनकी बाहर प्रसिद्धि हो वह उन्हें स्वयंको बिलकुल पसन्द नहीं है । परन्तु हमें ऐसा भाव आता है कि बहिन कई वर्ष तक छिपी रहीं, अब लोग बहिनको पहिचानें ।....’’
— ऐसे वात्सल्योर्मिभरे भावोद्गारभरी पूज्य गुरुदेवकी मंगल वाणीमें जिनकी आध्यात्मिक पवित्र महिमा सभामें अनेक बार प्रसिद्ध हुई है उन पूज्य बहिनश्री चंपाबेनके, उन्होंने महिला-शास्त्रसभामें उच्चारे हुए — उनकी अनुभवधारामेंसे प्रवाहित — आत्मार्थपोषक वचन लिपिबद्ध हों तो अनेक मुमुक्षु जीवोंको महान आत्मलाभका कारण होगा, ऐसी उत्कट भावना बहुत समयसे समाजके बहुत भाई-बहिनोंमें वर्तती थी । उस शुभ भावनाको साकार करनेमें, कुछ ब्रह्मचारिणी बहिनोंने पूज्य बहिनश्री चंपाबेनकी प्रवचनधारामेंसे अपनेको विशेष लाभकारी हों ऐसे जो वचनामृत लिख लिये थे वे उपयोगी हुए हैं । उन्हींमेंसे यह अमूल्य वचनामृतसंग्रह तैयार हुआ है । जिनके लेख यहाँ उपयोगी हुए हैं वे बहिनें अभिनन्दनीय हैं ।
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पूज्य बहिनश्रीके श्रीमुखसे प्रवाहित प्रवचनधारामेंसे झेले गये अमृतबिन्दुओंके इस लघु संग्रहकी तात्त्विक वस्तु अति उच्च कोटिकी है । उसमें आत्मार्थप्रेरक अनेक विषय आ गये हैं । कहीं न रुचे तो आत्मामें रुचि लगा; आत्माकी लगन लगे तो जरूर मार्ग हाथ आये; ज्ञानीकी सहज परिणति; अशरण संसारमें वीतराग देव-गुरु-धर्मका ही शरण; स्वभावप्राप्तिके लिये यथार्थ भूमिकाका स्वरूप; मोक्षमार्गमें प्रारम्भसे लेकर पूर्णता तक पुरुषार्थकी ही महत्ता; द्रव्यद्रष्टि और स्वानुभूतिका स्वरूप तथा उसकी चमत्कारिक महिमा; गुरुभक्ति की तथा गुरुदेवकी भवान्तकारिणी वाणीकी अद्भुत महिमा; मुनिदशाका अंतरंग स्वरूप तथा उसकी महिमा; निर्विकल्पदशा – ध्यानका स्वरूप; केवलज्ञानकी महिमा; शुद्धाशुद्ध समस्त पर्याय विरहित सामान्य द्रव्यस्वभाव वह द्रष्टिका विषय; ज्ञानीको भक्ति - शास्त्रस्वाध्याय आदि प्रसंगोंमें ज्ञातृत्वधारा तो अखण्डितरूपसे अंदर अलग ही कार्य करती रहती है; अखण्ड परसे द्रष्टि छूट जाये तो साधकपना ही न रहे; शुद्ध शाश्वत चैतन्यतत्त्वके आश्रयरूप स्ववशपनेसे शाश्वत सुख प्रगट होता है; — इत्यादि विविध अनेक विषयोंका सादी तथापि प्रभावशाली सचोट भाषामें सुन्दर निरूपण हुआ है ।
इस ‘बहिनश्रीके वचनामृत’ पुस्तकके गुजराती भाषामें अभी तक सात संस्करण (४७,१०० प्रतियाँ) प्रकाशित हुए हैं। इसका गुजराती प्रथम संस्करण पढ़कर हिन्दीभाषी अनेक मुमुक्षुओंने यह भावना प्रगट की थी कि — पूज्य बहिनश्रीके मुखारविन्दसे निकले हुए इस स्वानुभवसयुक्त अध्यात्मपीयूषका — इस वचनामृतसंग्रका--हिन्दी भाषान्तर कराकर प्रकाशित किया जाय तो हिन्दीभाषी अध्यात्मतत्त्वपिपासु जनता इससे बहुत लाभान्वित हो । उस माँगके फलस्वरूप, ‘आत्मधर्म’ हिन्दी पत्रके भूतपूर्व अनुवादक श्री मगनलालजी जैनके पास सरल एवं रोचक हिन्दी भाषान्तर कराकर अभी तक इसके चार संस्करण (२६,००० प्रतियां) प्रकाशित हो चूके हैं । अब यह पुस्तक अप्राप्य होनेसे तथा उसके लिये मुमुक्षुओंकी माँगको लेकर इसका पंचम संस्करण (१०००
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प्रति) पुनः प्रकाशित करते हुए प्रसन्नता अनुभूत होती है ।
इस प्रस्तुत पंचम संस्करणक मुद्रणकार्य ‘कहान-मुद्रणालय’ के मालिक श्री ज्ञानचन्दजी जैनने सुन्दरतया कर दिया है । अतः वे धन्यवादके पात्र है ।
इस पुस्तकका लागत मूल्य करीब ४४ रुपये होता है, परन्तु अनेक मुमुक्षुओं द्वारा उत्साहपूर्वक दानकी धारा प्रवाहित की गई होनेसे इसका मूल्य कम करके २२ रुपया रखा गया है ।
अंतमें, हमें आशा है कि अध्यात्मरसिक जीव पूज्य बहिनश्रीकी स्वानुभवरसधारामेंसे प्रवाहित इस आत्मस्पर्शी वचनामृत द्वारा आत्मार्थकी प्रबल प्रेरणा पाकर अपने साधनापथको सुधास्यंदी बनायेंगे । फाल्गुन वदी दसमी १५-८-२०००
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प्रकार स्पष्टरूपसे समझाया है । मार्गकी खूब छानबीन
की है । द्रव्यकी स्वतंत्रता, द्रव्य-गुण-पर्याय, उपादान-
निमित्त, निश्चय-व्यवहार, आत्माका शुद्ध स्वरूप,
सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति, मोक्षमार्ग इत्यादि सब कुछ
उनके परम प्रतापसे इस काल सत्यरूपसे बाहर आया
है । गुरुदेवकी श्रुतकी धारा कोई और ही है ।
उन्होंने हमें तरनेका मार्ग बतलाया है । प्रवचनमें
कितना मथ-मथकर निकालते हैं ! उनके प्रतापसे सारे
भारतमें बहुत जीव मोक्षमार्गको समझनेका प्रयत्न कर
रहे हैं । पंचम कालमें ऐसा सुयोग प्राप्त हुआ वह
अपना परम सद्भाग्य है । जीवनमें सब उपकार
गुरुदेवका ही है । गुरुदेव गुणोंसे भरपूर हैं,
महिमावन्त हैं । उनके चरणकमलकी सेवा हृदयमें
बसी रहे ।
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भवारण्यभीमभ्रमीया सुकृत्यैः ।
प्रदेयात् स मेऽनन्तकल्याणबीजम् ।।
समं भान्ति ध्रौव्यव्ययजनिलसन्तोऽन्तरहिताः ।
महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ।।
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ।
तुभ्यं नमो जिन भवोदधिशोषणाय ।।
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गुरुदेवका अपार उपकार है। वह उपकार कैसे भूला
जाय ?
भवोदधितारणहार हैं, महिमावन्त गुणोंसे भरपूर हैं।
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हे जीव ! तुझे कहीं न रुचता हो तो अपना उपयोग पलट दे और आत्मामें रुचि लगा । आत्मामें रुचे ऐसा है । आत्मामें आनन्द भरा है; वहाँ अवश्य रुचेगा । जगतमें कहीं रुचे ऐसा नहीं है परन्तु एक आत्मामें अवश्य रुचे ऐसा है । इसलिये तू आत्मामें रुचि लगा ।।११।।
अंतरकी गहराईसे अपना हित साधनेको जो आत्मा जागृत हुआ और जिसे आत्माकी सच्ची लगन लगी, उसकी आत्मलगन ही उसे मार्ग कर देगी । आत्माकी सच्ची लगन लगे और अंतरमें मार्ग न हो जाय ऐसा हो ही नहीं सकता । आत्माकी लगन ब. व. १
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लगनी चाहिये; उसके पीछे लगना चाहिये । आत्माको ध्येयरूप रखकर दिन-रात सतत प्रयत्न करना चाहिये । ‘मेरा हित कैसे हो?’ ‘मैं आत्माको कैसे जानूँ?’ — इस प्रकार लगन बढ़ाकर प्रयत्न करे तो अवश्य मार्ग हाथ लगे ।।२२।।
ज्ञानीकी परिणति सहज होती है । हर एक प्रसंगमें भेदज्ञानको याद करके उसे घोखना नहीं पड़ता, परन्तु उनके तो ऐसा सहज परिणमन ही हो जाता है – आत्मामें धारावाही परिणमन वर्तता ही रहता है ।।३३।।
ज्ञान और वैराग्य एक-दूसरेको प्रोत्साहन देनेवाले हैं । ज्ञान रहित वैराग्य वह सचमुच वैराग्य नहीं है किन्तु रुंधा हुआ कषाय है । परन्तु ज्ञान न होनेसे जीव कषायको पहिचान नहीं पाता । ज्ञान स्वयं मार्गको जानता है, और वैराग्य है वह ज्ञानको कहीं फँसने नहीं देता किन्तु सबसे निस्पृह एवं स्वकी मौजमें ज्ञानको टिका रखता है । ज्ञान सहित जीवन नियमसे वैराग्यमय ही होता है ।।४४।।
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अहो ! इस अशरण संसारमें जन्मके साथ मरण लगा हुआ है । आत्माकी सिद्धि न सधे तब तक जन्म-मरणका चक्र चलता ही रहेगा । ऐसे अशरण संसारमें देव-गुरु-धर्मका ही शरण है । पूज्य गुरुदेवके बताये हुए चैतन्यशरणको लक्षगत करके उसके द्रढ़ संस्कार आत्मामें जम जायँ — यही जीवनमें करने योग्य है ।।५५।।
स्वभावकी बात सुनते ही सीधी हृदय पर चोट लग जाय । ‘स्वभाव’ शब्द सुनते ही शरीरको चीरता हुआ हृदयमें उतर जाय, रोम-रोम उल्लसित हो जाय — इतना हृदयमें हो, और स्वभावको प्राप्त किये बिना चैन न पड़े, सुख न लगे, उसे लेकर ही छोड़े । यथार्थ भूमिकामें ऐसा होता है ।।६६।।
जगतमें जैसे कहते हैं कि कदम-कदम पर पैसेकी जरूरत पड़ती है, उसी प्रकार आत्मामें पग-पग पर अर्थात् पर्याय-पर्यायमें पुरुषार्थ ही आवश्यक है । पुरुषार्थके बिना एक भी पर्याय प्रगट नहीं होती ।
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अर्थात् रुचिसे लेकर ठेठ केवलज्ञान तक पुरुषार्थ ही आवश्यक है ।।७७।।
आजकल पूज्य गुरुदेवकी बात ग्रहण करनेके लिये अनेक जीव तैयार हो गये हैं । गुरुदेवको वाणीका योग प्रबल है; श्रुतकी धारा ऐसी है कि लोगोंको प्रभावित करती है और ‘सुनते ही रहें’ ऐसा लगता है । गुरुदेवने मुक्ति का मार्ग दरशाया और स्पष्ट किया है । उन्हें श्रुतकी लब्धि है ।।८८।।
पुरुषार्थ करनेकी युक्ति सूझ जाय तो मार्गकी उलझन टल जाय । फि र युक्ति से कमाये । पैसा पैसेको खींचता है — धन कमाये तो ढेर हो जाये, तदनुसार आत्मामें पुरुषार्थ करनेकी युक्ति आ गई, तो कभी तो अंतरमें ढेरके ढेर लग जाते हैं और कभी सहज जैसा हो वैसा रहता है ।।९९।।
हम सबको सिद्धस्वरूप ही देखते हैं, हम तो सबको चैतन्य ही देख रहे हैं । हम किन्हींको राग-द्वेषवाले देखते ही नहीं । वे अपनेको भले ही चाहे जैसा मानते
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बहिनश्रीके वचनामृत
हों, परन्तु जिसे चैतन्य — आत्मा प्रकाशित हुआ उसे सब चैतन्यमय ही भासित होता है ।।१०।।
मुमुक्षुओं तथा ज्ञानियोंको अपवादमार्गका या उत्सर्गमार्गका आग्रह नहीं होता, परन्तु जिससे अपने परिणाममें आगे बढ़ा जा सके उस मार्गको ग्रहण करते हैं । किन्तु यदि एकान्त उत्सर्ग या एकान्त अपवादकी हठ करे तो उसे वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी ही खबर नहीं है ।।११।।
जिसे द्रव्यद्रष्टि प्रगट हुई उसकी द्रष्टि अब चैतन्यके तल पर ही लगी है । उसमें परिणति एकमेक हो गई है । चैतन्य-तलमें ही सहज द्रष्टि है। स्वानुभूतिके कालमें या बाहर उपयोग हो तब भी तल परसे द्रष्टि नहीं हटती, द्रष्टि बाहर जाती ही नहीं । ज्ञानी चैतन्यके पातालमें पहुँच गये हैं; गहरी-गहरी गुफामें, बहुत गहराई तक पहुँच गये हैं; साधनाकी सहज दशा साधी हुई है ।।१२।।