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विषय
निर्वाण की प्राप्ति किस द्रव्य के ध्यान से होती है
जो मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसे स्वर्ग प्राप्ति सुलभ है
इसमें दृष्टांत
स्वर्ग मोक्ष के कारण
परमात्मस्वरूप प्राप्ति के कारण और उस विषय का दृष्टांत
दृष्टांत द्वारा श्रेष्ठ–अश्रेष्ठ का वर्णन
आत्मध्यान की विधि
ध्यानावस्थामें मौनका हेतुपूर्वक कथन
योगी का कार्य
कौन कहाँ सोता तथा जागता है
ज्ञानी योगीका कर्तव्य
ध्यान अध्ययनका उपदेश
आराधक तथा आराधनाकी विधिके फल का कथन
आत्मा कैसा है
योगी को रत्नत्रयकी आराधनासे क्या होता है
आत्मामें रत्नत्रय का सद्भाव कैसा
प्रकारान्तर से रत्नत्रयका कथन
सम्यग्दर्शनका प्राधान्य
सम्यग्ज्ञान का स्वरूप
सम्यक्चारित्र का लक्षण
परम पद को प्राप्त करने वाला कैसा हुआ होता है
कैसा हुआ आत्मा का ध्यान करता है
कैसा हुआ उत्तम सुख को प्राप्त करता है
कैसा हुआ मोक्ष सुखको प्राप्त नहीं करता
जिनमुद्रा क्या है
परमात्माके ध्यानसे योगीके क्या विशेषता होती है
जीव के विशुद्ध अशुद्ध कथन में दृष्टांत
सम्यक्त्व सहित सरागी योगी कैसा
कर्मक्षय की अपेक्षा अज्ञानी तपस्वी में विशेषता
अज्ञानी ज्ञानी का लक्षण
ऐसे लिंग ग्रहण से क्या सुख
सांख्यादि अज्ञानी क्यों और जैन में ज्ञानित्व किस कारण से
ज्ञानतप की संयुक्तता मोक्ष की साधक है पृथक् पृथक् नहीं
स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट कौन
ज्ञानभावना कैसी कार्यकारी है
किनको जीतकर निज आत्माका ध्यान करना
ध्येय आत्मा कैसा
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विषय
उत्तरोत्तर दुर्लभता से किनकी प्राप्ति होती है
जब तक विषयों में प्रवृत्ति है तब तक आत्मज्ञान नहीं
कैसा हुआ संसार में भ्रमण करता है
चतुर्गति का नाश कौन करते हैं?
अज्ञानी विषयक विशेष कथन
वास्तविक मोक्ष प्राप्ति कौन करते हैं?
कैसा राग संसार का कारण है
समभाव से चारित्र
ध्यान योगके समयके निषेधक कैसे हैं
पंचमकाल मेह धर्म ध्यान नहीं मानते हैं वे अज्ञानी हैं
इस समय भी रत्नत्रय शुद्धिपूर्वक आत्मध्यान इंद्रादि फलका दाता है
मोक्षमार्ग में च्युत कौन?
मोक्षमार्गी मुनि कैसे होते हैं?
मोक्ष प्रापक भावना
फिर मोक्षमार्गी कैसे?
निश्चयात्मक ध्यान का लक्षण तथा फल
पापरहित कैसा योगी होता है
श्रावकोंका प्रधान कर्तव्य निश्चलसम्यक्त्व प्राप्ति तथा उसका ध्यान और ध्यानका फल
जो सम्यक्त्वको मलिन नहीं करते वे कैसे कहे जाते हैं
सम्यक्त्व का लक्षण
सम्यक्त्व किसके है
मिथ्यादृष्टि का लक्षण
मिथ्या की मान्यता सम्यग्दृष्टि के नहीं तथा दोनोंका परस्पर विपरीत धर्म
कैसा हुआ मिथ्यादृष्टि संसारमें भ्रमता है
मिथ्यात्वी लिंगी की निर्थकता
जिनलिंग का विरोधक कौन?
आत्मस्वभावसे विपरीत कार्य सभी व्यर्थ है
ऐसा साधु मोक्ष की प्राप्ति करता है
देहस्थ आत्मा कैसा जानने योग्य है
पंच परमेष्ठी आत्मा में ही हैं अतः वही शरण हैं
चारों आराधना आत्मा में ही हैं अतः वही शरण हैं
मोक्ष पाहुड पढ़ने सुनने का फल
टीकाकार कृत मोक्षपाहुड का साररूप कथन
ग्रंथके अलावा टीकाकार कृत पंच नमस्कार मंत्र विषयक विशेष वर्णन
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विषय
अरहंतोंको नमस्कारपूर्वक लिंगपाहुड बनाने की प्रतीज्ञा
भावधर्म ही वास्तविक लिंग प्रधान है
पापमोहित दुबुद्धि नारदके समान लिंग की हंसी कराते हैं
लिंग धारण कर कुक्रिया करते हैं वे तिर्यंच हैं
ऐसा तिर्यंच योनि है मुनि नहीं
लिंगरूपमें खोटी क्रिया करनेवाला नरकगामी है
लिंगरूपमें अब्रह्म का सेवने वाला संसार में भ्रमण करता है
कौनसा लिंगी अनन्त संसारी है
किस कर्म का करने वाला लिंगी नरक गामी है
फिर कैसा हुआ तिर्यंच योनी है
केसा जिनमार्गी श्रमण नहीं हो सकता
चौर के समान कौन सा मुनि कहा जाता है
लिंगरूपमें कैसी क्रियायें तिर्यंचताकी द्योतक हैं
भावरहित भ्रमण नहीं है
स्त्रियोंका संसर्ग विशेष रखने वाला श्रमण नहीं पर्श्वस्थ से भी गिरा है
पुंश्चलकिे घर भोजन तथा उसकी प्रशंसा करनेवाला ज्ञानभाव रहित है श्रमण नहीं
लिंगपाहुड धारण करके न पालनेका तथा पालने का फल
महावीर स्वामी को नमस्कार और शीलपाहुड लिखने की प्रतीज्ञा
शील और ज्ञान परस्पर विरोध रहित हैं, शीलके बिना ज्ञान भी नहीं
ज्ञान होने पर भी भवना विषय विरक्त उत्तरोत्तर कठिन है
जब तक विषयोंमें प्रवृत्ति है तब तक ज्ञान नहीं जानता तथा कर्मोंका नाश भी नहीं
कैसा आचरण निरर्थक है
महाफल देनेवाला कैसा आचरण होता है
कैसे हुए संसार में भ्रमण करते हैं
ज्ञानप्राप्ति पूर्वक कैसे आचरण संसार का करते हैं
ज्ञान द्वारा शुद्धि में सुर्वण का दृष्टांत
विषयों में आसक्ति किस दोष से है
निर्वाण कैसे होता है
नियमसे मोक्ष प्राप्ति किसके है
किनका ज्ञान निरर्थक है
कैसे पुरुष आराधना रहित होते हैं
किनका मनुष्य जन्म निरर्थक है
शास्त्रोंका ज्ञान होने पर भी शील ही उत्तम है
शील मंडित देवों के भी प्रिय होते हैं
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विषय
मनुष्यत्व किनका सुजीवित है
शीलका परिवार
तपादिक सब शील ही है
विषयरूपी विष ही प्रबल विष है
विषयासक्त हुआ कि फलको प्राप्त होता है
शीलवान तुष के समान विषयोंका त्याग करता है
अंगके सुन्दर अवयवोंसे भी शील ही सुन्दर है
मूढ़ तथा विषयी संसार में ही भ्रमण करते हैं
कर्मबंध कर्मनाशक गुण सब गुणों की शोभा शील से है
मोक्षका शोध करने वाले ही शोध्य हैं
शीलके बिना ज्ञान कार्यकारी नहीं उसका सोदाहरण वर्णन
नारकी जीवोंको भी शील अर्हद्–विभूतिसे भूषित करता है उसमें वर्धमान जिन का दृष्टांत
अग्निके समान पंचाचार कर्मका नाश करते हैं
कैसे हुए सिद्ध गति को प्राप्त करते हैं
शीलवान महात्माका जन्मवृक्ष गुणोंसे विस्तारित होता है
किसके द्वारा कौन बोधी की प्राप्ति करता है
कैसे हुए मोक्ष सुख को पाते हैं
आराधना कैसे गुण प्रगट करती है
ज्ञान वही है जो सम्यक्त्व और शील सहित है
टीकाकर कृत शीलपाहुड का सार
टीकाकार की प्रशस्ति
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–इस प्रकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करके श्री कुन्दकुन्द आचार्य कृत प्राकृत गाथा बद्ध पाहुड ग्रन्थोंमें से कुछ की देश भाषा वचनिका लिखते हैंः–
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२][अष्टपाहुड वहाँ प्रयोजन ऐसा है कि–इस हुण्डावसर्पिणी काल में मोक्षमार्गकी अन्यथा प्ररूपणा करनेवाले अनेक मत प्रवर्तमान हैं। उसमें भी इस पंचमकाल में केवली– श्रुतकेवलीका व्युचछेद होने से जिनमतकी भी जड़ वक्र जीवोंके निमित्तसे परम्परा मार्ग का उल्लंघन करके श्वेताम्बरादि बुद्धि कल्पितमत हुए हैं। उनका निराकरण करके यथार्थ स्वरूपकी स्थापनाके हेतु दिगमबर आम्नाय मूलसंघमें आचार्य हुए और उन्होंने सर्वज्ञकी परम्पराके अव्युच्छेदरूप प्ररूपणाके अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है; उनमें दिगम्बर संप्रदाय मूलसंघ नन्दिआम्नाय सरस्वतीगच्छमें श्री कुन्दकुन्दमुनि हुए और उन्होंने पाहुड ग्रन्थोंकी रचना की। उन्हें संस्कृत भाषामें प्राभृत कहते हैं और वे प्राकृत गाथाबद्ध हैं। कालदोषसे जीवों की बुद्धि मंद होती है जिससे वे अर्थ नहीं समझ सकते; इसलिये देशभाषामय वचनिका होगी तो सब पढ़ेंगे और अर्थ समझेंगे तथा श्रद्धान दृढ़ होगा– ऐसा प्रयोजन विचारकर वचनिका लिख रहें हैं, अन्य कोई ख्याति, बढ़ाई या लाभका प्रयोजन नहीं है। इसलिये हे भव्य जीवों! उसे पढ़कर, अर्थसमजकर, चित्तमें धारण करके यथार्थ मतके बाह्यलिंग एवं तत्त्वार्थका श्रद्धान दृढ़ करना। इसमें कुछ बुद्धि की मंदतासे तथा प्रमादके वश अन्यथा अर्थ लिख दूँ तो अधिक बुद्धिमान मूलग्रन्थको देखकर, शुद्ध करके पढ़े और मुझे अल्पबुद्धि जानकर क्षमा करें। अब यहाँ प्रथम दर्शनपाहुड की वचनिका लिखते हैंः–
अब ग्रन्थकर्ता श्री कुन्दकुन्दाचार्य ग्रन्थके आदिमें ग्रन्थकी उत्पत्ति और उसके ज्ञानका कारण जो परम्परा गुरु प्रवाह उसे मंगलके हेतु नमस्कार करते हैंः–
दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण।। १।।
दर्शनमार्गं वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन।। १।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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दर्शनपाहुड][३
इसका देशभाषामय अर्थः–आचार्य कहते हैं कि मैं जिनवर वृषभ ऐसे जो आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव तथा अन्तिम तीर्थंकर वद्धर्मान, उन्हें नमस्कार करके दर्शन अर्थात् मत का जो मार्ग है उसे यथानुक्रम संक्षेप में कहूँगा। भावार्थः––यहाँ ‘जिनवर वृषभ’ विशेषण है; उसमें जो जिन शब्द है उसका अर्थ ऐसा है कि–जो कर्मशत्रुको जीते सो जिन। वहाँँ सम्यग्दृष्टि अव्रतीसे लेकर कर्मकी गुणश्रेणीरूप निर्जरा करने वाले सभी जिन हैं उनमें वर अर्थात् श्रेष्ठ। इस प्रकार गणधरादि मुनियोंको जिनवर कहा जाता है; उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान ऐसे भगवान तीर्थंकर परम देव हैं। उनमें प्रथम तो श्री ऋषभदेव हुए और इस पंचमकालके प्रारंभ तथा चतुर्थकालके अन्तमें अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमानस्वामी हुए हैं। वे समस्त तीर्थंकर वृषभ हुए हैं उन्हें नमस्कार हुआ। वहाँ ‘वर्धमान’ ऐसा विशेषण सभीके लिये जानना; क्योंकि अन्तरंग बाह्य लक्ष्मीसे वर्धमान हैं। अथवा जिनवर वृषभ शब्दसे तो आदि तीर्शंकर श्री ऋषभदेव को और वर्धमान शब्द से अन्तिम तीर्थंकर को जानना। इसप्रकार आदि और अन्तके तीर्थंकरोंको नमस्कार करने से मध्यके तीर्थंकरोंको सामर्थ्यसे नमस्कार जानना। तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतरागको जो परमगुरु कहते हैं और उनकी परिपाटी में चले आ रहे गौतमादि मुनियोंको जिनवर विशेषण दिया, उन्हें अपर गुरु कहते हैं; ––इसप्रकार परापर गुरुओंका प्रवाह जानना। वे शास्त्रकी उत्पत्ति तथा ज्ञानके कारण हैं। उन्हें ग्रन्थके आदि में नमस्कार किया ।।१।। अब, धर्मका मूल दर्शन है, इसलिये जो दर्शन से रहित हो उसकी वंदना नहीं करनी चाहिये ––ऐसा कहते हैंः–
तं सोउण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।। २।।
तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः।। २।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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४][अष्टपाहुड
अर्थः––जिनवर जो सर्वज्ञ देव हैं उन्होंने शिष्य जो गणधर आदिकको धर्मका उपदेश दिया है; कैसा उपदेश दिया है?–––कि दर्शन जिसका मूल है। मूल कहाँ होता है कि–जैसे मंदिर के नींव और वृक्ष के जड़ होती है उसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन है। इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि–– हे सकर्ण अर्थात् सत्पुरुषों! सर्वज्ञ के कहे हुए उस दर्शनमूलरूप धर्म को अपने कानोंसे सुनकर जो दर्शनसे रहित हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं;इसलिये दर्शन हीन की वंदनामत करो। जिसके दर्शन नहीं है उसके धर्म भी नहीं है; क्योंकि मूल रहित वृक्षके स्कंध, शाखा, पुष्प, फलादिक कहाँ से होंगे? इसलिये यह उपदेश है कि– जिसके धर्म नहीं है उससे धर्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर धर्मके निमित्त उसकी वंदना किसलिये करें?–ऐसा जानना।
अब यहाँ धर्मका तथा दर्शन का स्वरूप जानना चाहिये। वह स्वरूप तो संक्षेपमें ग्रन्थकार ही आगे कहेंगे, तथापि कुछ अन्य ग्रन्थोंके अनुसार यहाँ भी दे रहें हैंः–‘धर्म’ शब्द का अर्थ यह है कि––जो आत्माको संसार से उबार कर सुख स्थान में स्थापित करे सो धर्म है। और दर्शन अर्थात् देखना। इसप्रकार धर्म की मूर्ति दिखायी दे वह दर्शन है तथा प्रसिद्धि में जिसमें धर्मका ग्रहण हो ऐसे मत को ‘दर्शन’ कहा है। लोक में धर्मकी तथा दर्शनकी मान्यता सामान्यरूप से तो सबके है, परन्तु सर्वज्ञ के बिना यथार्थ स्वरूपका जानना नहीं हो सकता; परन्तु छद्मस्थ प्राणी अपनी बुद्धि से अनेक स्वरूपों की कल्पना करके अन्यथा स्वरूप स्थापित करके उनकी प्रवृत्ति करते हैं। और जिनमत सवर्ज्ञ की परम्परा से प्रवर्तमान है इसलिये इसमें यथार्थ स्वरूपका प्ररूपण है।
वहाँ धर्मको निश्चय और व्यवहार––ऐसे दो प्रकार से साधा है। उसकी प्ररूपणा चार प्रकार से है––प्रथम वस्तुस्वभाव, दूसरे उत्तम क्षमादि दस प्रकार, तीसरे सम्यग्दर्शन–ज्ञान– चारित्ररूप और चौथे जीवों की रक्षारूप ऐसे चार प्रकार हैं। वहाँ निश्चय से सिद्ध किया जाये तब तो सबमें एक ही प्रकार है, इसलिये वस्तुस्वभाव का तात्पर्य तो जीव नामक वस्तुकी परमार्थरूप दर्शन–ज्ञान–परिणाममयी चेतना है, और वह चेतना सर्व विकारोंसे रहित शुद्ध– स्वभावरूप परिणमित हो वही जीव का धर्म है। तथा उत्तमक्षमादि दस प्रकार कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा क्रोधादि कषायरूप न होकर अपने स्वभाव में स्थिर हो वही धर्म है, यह भी शुद्ध चेतना रूप हुआ।
दर्शन–ज्ञान–चारित्र कहने का तात्पर्य यह है कि तीनों एक ज्ञान चेतना के ही परिणाम हैं, वही ज्ञान स्वभाव रूप धर्म है। और जीवों की रक्षाका तात्पर्य यह है कि– जीव क्रोधादि कषायोंके वश होकर अपनी या पर की पर्याय के विनाशरूप मरण तथा दुःख, संक्लेश परिणाम न करे–ऐसा अपना स्वभाव ही धर्म है। इसप्रकार शुद्ध द्रव्यार्थिकरूप निश्चय से साधा हुआ धर्म एक ही प्रकार है।
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दर्शनपाहुड][५
व्यवहारनय पर्यायाश्रित है इसलिये भेदरूप है, व्यवहारनयसे विचार करें तो जीवके पर्यायरूप परिणाम अनेक प्रकार हैं, इसलिये धर्मका भी अनेक प्रकार से वर्णन किया है। वहाँ (१)–प्रयोजनवश एकदेश का सर्वदेशसे कथन किया जाये सो व्यवहार है, (२)–अन्य वस्तुमें अन्यका आरोपण अन्यके निमित्त से और प्रयोजनवश किया जाये वह भी व्यवहार है, वहाँ वस्तुस्वाभाव कहने पर तात्पर्य तो निर्विकार चेतनाके शुद्धपरिणामके साधक रूप (३)–मंद कषायरूप शुभ परिणाम हैं तथा जो बाह्यक्रियाएँ हैं उन सभी को व्यवहार धर्म कहा जाता है। उसीप्रकार रत्नत्रयका तात्पर्य स्वरूपके भेद दर्शन–ज्ञान–चारित्र तथा उसके कारण बाह्य क्रियादिक हैं, उन सभी को व्यवहार धर्म कहा जाता है। उसीप्रकार –(४) जीवोंकी दया कहनेका तात्पर्य यह है कि क्रोधादि मंदकषाय होनेसे अपने या पर के मरण, दुःख, क्लेश आदि का न करना; १उसके साधक समस्त बाह्यक्रियादि को धर्म कहा जाता है। इस प्रकार जिनमत में निश्चय–व्यवहारनयसे साधा हुआ धर्म कहा है। वहाँ एक स्वरूप अनेक स्वरूप कहने में स्याद्वाद से विरोध नहीं आता, कथन्चित् विवक्षा से सर्व प्रमाण सिद्ध है। ऐसे धर्म का मूल दर्शन कहा है, इसलिये ऐसे धर्मकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि सहित आचरण करना ही दर्शन है, यह धर्म की मूर्ति है, इसी को मत (दर्शन) कहते हैं और यही धर्म का मूल है। तथा ऐसे धर्म की प्रथम श्रद्धा, प्रतीति, रुचि न हो तो धर्म का आचरण भी नहीं होता,––जैसे वृक्ष के मूल बिना स्कंधादिक नहीं होते। इसप्रकार दर्शनको धर्म का मूल कहना युक्त है। ऐसे दर्शनका सिद्धान्तोंमें जैसा वर्णन है तदनुसार कुछ लिखते हैं। वहाँ अंतरंग सम्यग्दर्शन तो जीवका भाव है वह निश्चय द्वारा उपाधि रहित शुद्ध जीव का साक्षात् अनुभव होना ऐसा एक प्रकार है। वह ऐसा अनुभव अनादिकाल से मिथ्यादर्शन नामक कर्मके उदय से अन्यथा हो रहा है। सादि मिथ्यादृष्टिके उस मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं–– मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति। तथा उनकी सहकारिणी अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से चार कषाय नामक प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार यह सात प्रकृतियाँ ही सम्यग्दर्शन का घात करने वाली हैं; इसलिये इन सातोंका उपशम होने से पहले तो इस जीवके उपशमसम्यक्त्व होता है। इन प्रकृतियों का उपशम होने का बाह्य कारण सामान्यतः द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हैं। उनमें, द्रव्यमें तो साक्षात् तीर्थंकर के देखनादि प्रधान हैं, क्षेत्रमें समवसरणादिक प्रधान हैं, कालमें अर्धपुद्गलपरावर्तन संसार भ्रमण शेष रहे वह, तथा भावमें अधःप्रवृत्तकरण आदिक हैं। –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १॰ साथकरूप–– सहचर हेतुरूप निमित्तमात्र; अंतरंग कार्य हो तो बाह्य में इस प्रकार को निमित्तकारण कहा जाता है।
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६][अष्टपाहुड
बिम्बका देखना, कुछके जिनेन्द्रके कल्याणक आदिकी महिमा देखना, कुछके जातिस्मरण, कुछके वेदना का अनुभव, कुछके धर्म–श्रवण तथा कुछके देवोंकी ऋद्धिका देखना––इत्यादि बाह्य कारणों द्वारा मिथ्यात्वकर्म का उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व होता है। तथा इन सात प्रकृतियों में से छह का तो उपशम या क्षय हो और एक सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय हो तब क्षयोपक्षम सम्यक्त्व होता है। इस प्रकृति के उदय से किंचित् अतिचार– मल लगता है। तथा इन सात प्रकृतियोंका सत्ता में से नाश हो तब क्षायिक सम्यक्त्व होता है। इसप्रकार उपशमादि होनेपर जीवके परिणाम–भेदसे तीन प्रकार होते हैं; वे परिणाम अति सूक्ष्म हैं, केवलज्ञानगम्य हैं, इसलिये इन प्रकृतियोंके द्रव्य पुद्गल परमाणुओंके स्कंध हैं, वे अतिसूक्ष्म हैं और उनमें फल देने की शक्तिरूप अनुभाग है वह अतिसूक्ष्म हैं वह छद्मस्थके ज्ञानगम्य नहीं है। तथा उनका उपशमादि होनेसे जीवके परिणाम भी सम्यक्त्वरूप होते हैं, वे भी अतिसूक्ष्म होते हैं, वे भी केवलज्ञानगम्य हैं। तथापि जीवके कुछ परिणाम छद्मस्थके ज्ञान में आने योग्य होते हैं, वे उसे पहिचाननेके बाह्य चिन्ह हैं, उनकी परिक्षा करके निश्चय करने का व्यवहार है; ऐसा न होते छद्मस्थ वयवहारी जीवके सम्यक्त्वका निश्चय नहीं होगा और तब अस्तिक्यका अभाव सिद्ध होगा, व्यवहारका लोप होगा–यह महान दोष आयेगा। इसलिये बाह्य चिन्होंको आगम, अनुमान तथा स्वानुभवसे परीक्षा करके निश्चय करना चाहिये।
वे चिन्ह कौन से हैं सो लिखते हैंः–मुख्य चिन्ह तो उपाधिरहित शुद्ध ज्ञान–चेतना स्वरूप आत्मा की अनुभूति है। यद्यपि यह अनुभूति ज्ञानका विशेष है, तथापि वह सम्यक्त्व होनेपर होती है, इसलिये उसे बाह्य चिन्ह कहते हैं। ज्ञान तो अपना अपने को स्वसंवेदनरूप है; उसका, रागादि विकार रहित शुद्धज्ञानमात्र का अपने को आस्वाद होता है कि–‘जो यह शुद्ध ज्ञान है सो मैं हूँ और ज्ञान में जो रागादि विकार हैं वे कर्मके निमित्त से उत्पन्न होते हैं, वह मेरा स्वरूप नहीं हैं’–इसप्रकार भेद ज्ञानसे ज्ञानमात्र के आस्वादन को ज्ञान की अनुभूति कहते हैं, वही आत्माकी अनुभूति है, तथा वही शुद्धनय का विषय है। ऐसी अनुभूति से शुद्धनय से द्वारा ऐसा भी श्रद्धान होता है कि सर्व जीव कर्मजनित रागादि भाव से रहित अनंत चतुष्टय मेरा स्वरूप है, अन्य सब भाव संजोगजनित हैं; ऐसी आत्मा की अनुभूति सो सम्यक्त्वका मुख्य चिन्ह है। यह मिथ्यात्व अनंतानुबन्धी के अभावमें सम्यक्त्व होता है उसका चिन्ह है; उस चिन्ह को ही सम्यक्त्व कहना सो व्यवहार है।
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दर्शनपाहुड][७
उसकी परीक्षा सर्वज्ञ के आगम, अनुमान तथा स्वानुभव प्रत्यक्षप्रमाण इन प्रमाणोंसे की जाती है। इसीको निश्चय तत्वार्थश्रद्धान भी कहते हैं। वहाँ अपनी परीक्षा तो अपने स्वसंवेदन की प्रधानता से होती है और पर की परीक्षा तो पर के अंतरंग में होने की परीक्षा, पर के वचन, काय की क्रिया की परीक्षा से होती है यह व्यवहार है, परमार्थ सर्वज्ञ जानते हैं। व्यवहारी जीवको सर्वज्ञने भी व्यवहार के ही शरण का उपदेश दिया है। [नोंध–अनुभूति ज्ञानगुणकी पर्याय है वह श्रद्धागुण से भिन्न है, इसलिये ज्ञानके द्वारा श्रद्धानका निर्णय करना व्यवहार है, उसका नाम व्यवहारी जीवको व्यवहार ही शरण अर्थात् आलम्बन समझना।] अनेक लोग कहते हैं कि– सम्यक्त्व तो केवलीगम्य है, इसलिये अपने को सम्यक्त्व होने का निश्चय नहीं होता, इसलिये अपने को सम्यग्दृष्टि नहीं मान सकते? परन्तु इसप्रकार सर्वथा एकान्त से कहना तो मिथ्यादृष्टि है; सर्वथा ऐसा कहने से व्यवहार का लोप होगा, सर्व मुनि–श्रावकोंकी प्रवृत्ति मिथ्यात्वरूप सिद्ध होगी, और सब अपने को मिथ्यादृष्टि मानेंगे तो व्यवहार कहाँ रहेगा? इसलिये परीक्षा होने पश्चात् ऐसा श्रद्धान नहीं रखना नहीं चाहिये कि मैं मिथ्यादृष्टि ही हूँ। मिथ्यादृष्टि तो अन्यमती को कहते हैं और उसी के समान स्वयं भी होगा, इसलिये सर्वथा एकान्त पक्ष नहीं ग्रहण करना चाहिये। तथा तत्त्वार्थश्रद्धान तो बाह्य चिन्ह है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ऐसे सात तत्त्वार्थ हैं; उनमें पुण्य और पाप को जोड़ देनेसे नव पदार्थ होते हैं। उनकी श्रद्धा अर्थात् सन्मुखता, रुचि अर्थात् तद्रुप भाव करना तथा प्रतीति अर्थात् जैसे सर्वज्ञ ने कहे हैं तदनुसार ही अंगीकार करना और उनके आचरण रूप क्रिया,–इसप्रकार श्रद्धानादिक होना सो सम्यक्त्वका बाह्य चिन्ह है।
प्रशमः––––अनंतानुबंधी क्रोधादिक कषाय के उदय का अभाव सो प्रशम चिन्ह है। उसके बाह्य चिन्ह जैसे कि––सर्वथा एकान्त तत्त्वार्थ का कथन करने वाले अन्य मतों का श्रद्धान, बाह्य वेश में सत्यार्थपने का अभिमान करना, पर्यायों में एकान्त के कारण आत्मबुद्धि से अभिमान तथा प्रीति करना वह अनंतानुबंधीका कार्य है– वह जिसके न हो , तथा किसी ने अपना बुरा किया तो उसका घात करना आदि मिथ्यादृष्टि की भाँति विकार बुद्धि अपने को उत्पन्न न हो, तथा वह ऐसा विचार करे कि मैंने अपने परिणामों
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८][अष्टपाहुड से कर्म बाँधे थे वे ही बुरा करने वाले हैं, अन्य तो निमित्तमात्र हैं,–ऐसी बुद्धि अपने को उत्पन्न हो–ऐसे मंदकषाय हैं। तथा अनंतानुबंधी के बिना अन्य चारित्रमोह की प्रकृतियों के उदय से आरम्भादिक क्रियामें हिंसादिक होते हैं उनको भी भला नहीं जानता इसलिये उससे प्रशम का अभाव नहीं कहते। (२) संवेगः––––धर्ममें और धर्मके फलमें परम उत्साह हो वह संवेग है। तथा साधर्मियोंसे अनुराग और परमेष्ठियोंमें प्रीति वह भी संवेग ही है। इस धर्ममें तथा धर्मके फल में अनुरागको अभिलाष नहीं करना चाहिये, क्योंकि अभिलाष तो उसे कहते हैं जिसे इन्द्रियविषयोंकी चाह हो? अपने स्वरूपकी प्राप्तिमें अनुराग को अभिलाष नहीं कहते। तथा
धर्म की प्राप्ति में अनुराग हुआ तब अन्यत्र सभी अभिलाष का त्याग हुआ, सर्व परद्रव्योंसे वैराग्य हुआ, वही निर्वेद है। तथा
तथा मध्यस्थ भाव होने से सम्यग्दृष्टि के शल्य नहीं हैं, किसी से वैरभाव नहीं होता, सुख– दुःख, जीवन–मरण अपना परके द्वारा और परका अपने द्वारा नहीं मानता है। तथा पर में जो अनुकम्पा है सो अपने में ही है, इसलिये परका बुरा करने का विचार करेगा तो अपने कषायभाव से स्वयं अपना ही बुरा हुआ; पर का बुरा नहीं सोचेगा तब अपने कषाय भाव नहीं होंगे इसलिये अपनी अनुकम्पा ही हुई।
पदार्थोंका स्वरूप सर्वज्ञ के आगम से जानकर उसमें ऐसी बुद्धि हो कि–जैसे सर्वज्ञ ने कहे वैसे ही यह हैं–अन्यथा नहीं हैं वह आस्तिक्य भाव है।
सम्यक्त्वके आठ गुण हैंः––––संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वासतलय और अनुकम्पा। यह सब प्रशमादि चार में ही आ जाते हैं संवेगमें निर्वेद, वातसल्य और भक्ति–ये आ गये तथा प्रशममें निन्दा, गर्हा आ गई।
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दर्शनपाहुड][९
सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग कहे हैं। उन्हें लक्षण भी कहते हैं और गुण भी। उनके नाम हैं––––निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वासतलय और प्रभावना। वहाँ शंका नाम संशय का भी है। और भय का भी। वहाँ धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालाणुद्रव्य, परमाणु इत्यादि तो सूक्ष्म वस्तु हैं, तथा द्वीप, समुद्र, मेरूपर्वत आदि दूरवर्ती पदार्थ हैं, तथा तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि अंतरित पदार्थ हैं; वे सर्वज्ञ के आगम में जैसे कहे हैं वैसे है या नहीं हैं? अथवा सर्वज्ञदेव ने वस्तुका स्वरूप अनेकान्तात्मक कहा है सो सत्य है या असत्य?–ऐसे सन्देह को शंका कहते हैं। तथा यह जो शंका होती है सो मिध्यात्वकर्मके उदय से (उदयमें युक्त होने से) होती है; परमें आत्मबुद्धि होना उसका कार्य है। जो परमें आत्मबुद्धि है सो पर्याय बुद्धि है, पर्याय बुद्धि भय भी उत्पन्न करती है, शंका भय को भी कहते हैं, उसके सात भेद हैंः– इस लोक का भय, परलोकका भय, मृत्युका भय, अरक्षाका भय, अगुप्तिका भय, वेदना का भय। अकस्मात् का भय। जिनके यह भय हों उसे मिथ्यात्वकर्म का उदय समझना चाहिये; सम्यग्दृष्टि होने पर यह नहीं होते। प्रश्नः––भय प्रकृतिका उदय तो आठवें गुणस्थान तक है; उसके निमित्त से सम्यग्दृष्टि को भय होता ही है, फिर भय का अभाव कैसा?––––समाधानः––कि यद्यपि सम्यग्दृष्टिके चारित्रमोह के भेदरूप भय प्रकृति के उदय से भय होता है तथापि उसे निर्भय ही कहते हैं, क्योंकि उसके कर्मके उदयका स्वामित्व नहीं है और परद्रव्यके कारण अपने द्रव्य स्वभावका नाश नहीं मानता। पर्याय का स्वभाव विनाशीक मानता है इसलिये भय होने पर भी उसे निर्भय ही कहते हैं। भय होने पर उसका उपचार भागना इत्यादि करता है; वहाँ वर्तमान की पीड़ा सहन न होने से वह इलाज (–उपचार) करता है वह निर्बलता का दोष है। इसप्रकार सम्यग्दृष्टि संदेह तथा भय रहित होने से उसके निःशंकित अङ्ग होता है ।।१।।
कांक्षा अर्थात् भोगों की इच्छा– अभिलाषा। वहाँ पूर्वकाल में किये भोगोंकी वांछा तथा उन भोगों की मुख्य क्रिया में वांछा कर्म और कर्मके फल की वांछा तथा मिथ्यादृष्टियों के भोगों की प्राप्ति देखकर उन्हें अपने मन में भला जानना अथवा जो इन्द्रियोंको न रुचें ऐसे विषयों में उद्वेग होना– यह भोगाभिलाष के चिन्ह हैं। यह भोगाभिलाष मिथ्यात्वकर्म के उदय से होता है, और जिसके यह न हो वह निःकाक्षित अङ्गयुक्त सम्यग्दृष्टि होता है। वह सम्यग्दृष्टि यद्यपि शुभक्रिया – व्रतादिक आचरण
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१०][अष्टपाहुड करता है और उसका फल शुभ कर्मबन्ध है, किन्तु उसकी वह वांछा नहीं करता। व्रतादिक को स्वरूपका साधक जानकर उसका आचरण करता है, कर्मके फल की वांछा नहीं करता। –ऐसा निःकांक्षित अङ्ग है ।।२।। अपने में अपने गुण की महत्ता की बुद्धि से अपने को श्रेष्ठ मानकर पर में हीनता की बुद्धि हो उसे विचिकित्सा कहते हैं; वह जिसके न हो सो निर्विचिकित्सा अंगयुक्त सम्यग्दृष्टि होता है। उसके चिन्ह ऐसे हैं कि –यदि कोई पुरुष पाप के उदय से दुःखी हो, असाता के उदय से ग्लानियुक्त शरीर हो तो उसमें ग्लानिबुद्धि नहीं करता। ऐसी बुद्धि नहीं करता कि– मैं सम्पदावान हूँ, सुन्दर शरीरवान हूँ, यह दीन रङ्क मेरी बराबरी नहीं कर सकता। उलटा ऐसा विचार करता है कि– प्राणियों के कर्मोदय से अनेक विचित्र अवस्थाएँ होती हैं। जब मेरे ऐसे कर्मका उदय आवे तब मैं भी ऐसा ही हो जाऊँ। ––ऐसे विचार से निर्विचिकित्सा अङ्ग होता है ।।३।। अतत्त्वमें तत्त्वपनेका श्रद्धान मूढ़दृष्टि है। ऐसी मूढ़दृष्टि जिसके न हो सो अमूढ़दृष्टि है। मिथ्यादृष्टियों द्वारा मिथ्या हेतु एवं मिथ्या दृष्टांत से साधित पदार्थ हैं वह सम्यग्दृष्टि को प्रीति उत्पन्न नहीं कराते हैं तथा लौकिक रूढ़ि अनेक प्रकार की है, वह निःसार है, निःसार पुरुषों द्वारा ही उसका आचरण होता है, जो अनिष्ट फल देनेवाली है तथा जो निष्फल है; जिसका बुरा फल है तथा उसका कुछ हेतु नहीं है, कुछ अर्थ नहीं है; जो कुछ लोक रूढ़ि चल पड़ती है उसे लोग अपना लेते हैं और फिर उसे छोड़ना कठिन हो जाता है –इत्यादि लोकरूढि है। अदेव में देव बुद्धि, अधर्ममें धर्मबुद्धि, अगुरुमें गुरुबुद्धि इत्यादिक देवादि मूढ़ता है वह कल्याणकारी नहीं है। सदोष देव को देव मानना, तथा उनके निमित्त हिंसादि द्वारा अधर्म को धर्म मानना, तथा मिथ्या आचारवान, शल्यवान, परिग्रहवान, सम्यक्त्व व्रत रहित को गुरु मानना इत्यादि मूढ़दृष्टि के चिन्ह हैं। अब, देव–धर्म–गुरु कैसे होते हैं, उनका स्वरूप जानना चाहिये, सो कहते हैंः––
रागादि दोष और ज्ञानावरणादिक कर्म ही आवरण हैं; यह दोनों जिसके नहीं हैं वह देव है। उसके केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य –ऐसे अनन्तचतुष्टय होते हैं। सामान्यरूप से तो देव एक ही है और विशेषरूप से अरहंत, सिद्ध ऐसे दो भेद हैं; तथा इनके नामभेदके भेदसे भेद करें तो हजारों नाम हैं। तथा गुण भेद किये जायें तो अनन्त गुण हैं। परम औदारिक देह में विद्यमान घातिया कर्म रहित अनन्त चतुष्टय सहित धर्म का उपदेश करने वाले ऐसे तो अरिहंत देव हैं तथा
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दर्शनपाहुड][११ पुद्गलमयी देह से लोक के शिखर पर विराजमान सम्यक्त्वादि अष्टगुण मंडित अष्ट कर्म रहित ऐसे सिद्ध देव हैं। इनके अनेकों नाम हैंः–अरहंत, जिन, सिद्ध, परमात्मा, महादेव, शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, हरि, बुद्ध, सर्वज्ञ, वीतराग परमात्मा इत्यादि अर्थ सहित अनेक नाम हैं;–ऐसा देव का स्वरूप है। गुरुका भी अर्थ से विचार करें तो अरिहंत देव ही हैं, क्योंकि मोक्षमार्ग का उपदेश करनेवाले अरिहंत ही हैं, वे ही साक्षात् मोक्षमार्ग का प्रवर्तन कराते हैं, तथा अरिहंत के पश्चात् छद्मस्थ ज्ञान के धारक उन्ही का निर्ग्रन्थ रूप धारण करने वाले मुनि है सो गुरु हैं, क्योंकि अरिहंत की सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र की एकदेश शुद्धता उनके पायी जाती है और वे ही संवर, निर्जरा, मोक्षका कारण हैं, इसलिये अरिहंत की भाँति एकदेश रूप से निर्दोष हैं वे मुनि भी गुरु हैं, मोक्ष मागर का उपदेश करने वाले हैं। ऐसा मुनिपना सामान्यरूप से एक प्रकार का है और विशेष रूप से वही तीन प्रकार का है –आचार्य, उपाध्याय, साधु। इसप्रकार यह पदवी की विशेषता होने पर भी उनके मुनिपने की क्रिया समान ही है; बाह्य लिंग भी समान है, पंव महाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति –ऐसे तेरह प्रकार का चारित्र भी समान ही हैं, चर्या, स्थान, आसनादि भी समान हैं, मोक्षमागर की साधना, सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र भी समान हैं। ध्याता, ध्यान, ध्येयपना भी समान है, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयपना समान हैं, चार आराधना की आराधना, क्रोधादिक कषायोंका जीतना इत्यादि मुनियों की प्रवृत्ति है वह सब समान है। विशेष यह है कि –जो आचार्य हैं वे पंचाचार अन्य को ग्रहण कराते हैं तथा अन्य को दोष लगे तो उसके प्रायश्चित्तकी विधि बतलाते हैं, धर्मोपदेश, दीक्षा, शिक्षा देते हैं; –ऐसे आचार्य गुरु वंदना करने योग्य हैं।
जो उपाध्याय हैं वे वादित्व, वाग्मित्व, कवित्व, गमकत्व –इन चार विद्याओंमें प्रवीण होते हैं; उसमें शास्त्र का अभ्यास प्रधान कारण है। जो स्वयं शास्त्र पढ़ते हैं और अन्य को पढ़ाते हैं ऐसे उपाध्याय गुरु वंदन करने योग्य हैं; उनके अन्य मुनिव्रत, मूलगुण, उत्तरगुण की क्रिया आचार्य समान ही होती है। तथा साधु रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग की साधना करते हैं सो साधु हैं; उनके दीक्षा, शिक्षा, उपदेशादि देने की प्रधानता नहीं है, वे तो अपने स्वरूप की साधना में ही तत्पर होते हैं; जिनागम में जैसी निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि की प्रवृत्ति कही है वैसी प्रवृत्ति उनके होती है –ऐसे साधु वंदना के
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१२][अष्टपाहुड योग्य हैं। अन्यलिंगी–वेषी व्रतादिक से रहित परिग्रहवान, विषयों में आसक्त गुरु नाम धारण करते हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं। इस पंचमकाल में जिनमत में भी भेषी हुए हैं। वे श्वेताम्बर, यापनीयसंघ, गोपुच्छपिच्छसंघ, निःपिच्छसंघ, द्राविड़संघ आदि अनेक हुये हैं; यह सब वन्दन योग्य नहीं हैं। मूलसंघ नग्नदिगम्बर, अट्ठाईस मूलगुणोंके धारक, दयाके और शौचके उपकरण–मयूरपिच्छक, कमण्डल धारण करने वाले, यथोक्त विधि आहार करने वाले गु्रु वंदन योग्य हैं, क्योंकि जब तीर्थंकर देव दीक्षा लेते हैं तब ऐसा ही रूप धारण करते हैं अन्य भेष धारण नहीं करते; इसी को जिनदर्शन कहते हैं। धर्म उसे कहते हैं जो जीव को संसार के दुःखरूप नीच पदसे मोक्षके सुखरूप उच्च पद में धारण करे; –ऐसा धर्म मुनि–श्रावकके भेद से, दर्शन–ज्ञान–चारित्रात्मक एकदेश– सर्वदेशरूप निश्चय–व्यवहार द्वारा दो प्रकार कहा है; उसका मूल सम्यग्दर्शन है; उसके बिना धर्म की उत्पत्ति नहीं होती। इसप्रकार देव–गुरु–धर्म तथा लोक में यथार्थ दृष्टि हो और मूढ़ता न हो सो अमूढ़दृष्टि अङ्ग है ।।४।। अपने आत्मा की शक्तिको बढ़ाना सो उपबृंहण अङ्ग है। सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र को अपने पुरुषार्थ द्वारा बढ़ाना ही उपबृंहण है। इसे उपगुहन भी कहते हैं। उसका ऐसा अर्थ जानना चाहिये कि जिनमार्ग स्वयं सिद्ध है; उसमें बालकके तथा असमर्थ जन के आश्रय से जो न्यूनता हो उसे अपनी बुद्धि से गुप्त कर दूर ही करे वह उपगूहन अङ्ग है ।।५।। जो धर्म से च्युत होता हो उसे दृढ़ करना सो स्थितिकरण अङ्ग है। स्वयं कर्म उदय के वश होकर कदाचित् श्रद्धान से तथा क्रिया–आचार से च्युत होता हो तो अपने को पुरुषार्थ पूर्वक पुनः श्रद्धान में दृढ़ करे, उसीप्रकार अन्य कोई धर्मात्मा धर्म से च्युत हो तो उसे उपदेशादिक द्वारा स्थापित करे––––वह स्थितिकरण अङ्ग है ।।६।।
अरिहंत, सिद्ध, उनके बिम्ब, चैत्यालय, चतुर्विध संघ और शास्त्र में दासत्व हो –जैसे स्वामी का भृत्य दास होता है तदनुसार –वह वात्सल्य अङ्ग है। धर्म के स्थानोंको पर उपसर्गादि आयें उन्हें अपनी शक्ति अनुसार दूर करें, अपने शक्ति को न छिपायें; –यह सब धर्म में अति प्रीति हो तब होता है ।।७।।
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दर्शनपाहुड][१३
धर्मका उद्योत करना सो प्रभावना अङ्ग है। रत्नत्रय द्वारा अपने अपने आत्मा का उद्योत करना तथा दान, तप, पूजा–विधान द्वारा एवं विद्या, अतिशय–चमत्कारादि द्वारा जिनधर्मका उद्योत करना वह प्रभावना अङ्ग है ।।८।। ––इसप्रकार यह सम्यक्त्व के आठ अंग हैं; जिसके यह प्रगट हों उसके सम्यक्त्व है ऐसा जानना चाहिये। प्रश्न––यदि यह सम्यक्त्व के चिन्ह मिथ्यादृष्टि के भी दिखाई दें तो सम्यक्–मिथ्याका विभाग कैसे होगा? समाधान–– जैसे सम्यक्त्वी के होते हैं वैसे मिथ्यात्वी के तो कदापि नहीं होते, तथापि अपरीक्षक को समान दिखाई दें तो परीक्षा करके भेद जाना जा सकता है। परीक्षा में अपना स्वानुभव प्रधान है। सर्वज्ञ के आगम में जैसा आत्मा का अनुभव होना कहा है वैसा स्वयं को हो तो उसके होने से अपनी वचन–कायकी प्रवृत्ति भी तदनुसार होती है। उस प्रवृत्ति के अनुसार अन्य की वचन–काय की प्रवृत्ति पहचानी जाती है;– इसप्रकार परीक्षा करने से विभाग होते हैं। तथा यह व्यवहार मार्ग है, इसलिये व्यवहारी छद्मस्थ जीवों के अपने ज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति है; यर्थाथ सर्वज्ञ देव जानते हैं। व्यवहारी को सर्वज्ञ देव ने व्यवहारी का आश्रय बतलाया है १। यह अन्तरंग सम्यक्त्वभाव रूप सम्यक्त्व है वही सम्यग्दर्शन है, बाह्यदर्शन, व्रत, समिति, गुप्तिरूप चारित्र और तपसहित अट्ठईस मूलगुण सहित नग्न दिगम्बर मुद्रा उसकी मूर्ति है, उसे जिनदर्शन कहते हैं, इसप्रकार धर्मका मूल सम्यग्दर्शन जानकर जो सम्यग्दर्शन रहित है उनके वंदन–पूजन निषेध किया है। –––ऐसा यह उपदेश भव्य जीवोंको अंगीकार करने योग्य है ।।२।। –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १ स्वानुभूति ज्ञानगुणकी पर्याय है, ज्ञान के द्वारा सम्यक्त्व का निर्णय करना उसका नाम व्यवहारका आश्रय समझना, किन्तु भेदरूप व्यवहार के आश्रय से वीतराग अंशरूप धर्म होगा ऐसा अर्थ कहीं पर नहीं समझना।
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१४][अष्टपाहुड
सिज्झंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।। ३।।
सिध्यन्ति चारित्र भ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टाः न सिध्यन्ति।। ३।।
अर्थः–––जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं; जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं परन्तु जो दर्शन भ्रष्ट हैं वे सिद्धिको प्राप्त नहीं होते। भावार्थः–––जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं उन्हें भ्रष्ट कहते हैं; और जो श्रद्धा से भ्रष्ट नहीं हैं, किन्तु कदाचित् उदयसे चारित्रभ्रष्ट हुये हैं उन्हें भ्रष्ट नहीं कहते; क्योंकि जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती; जो चारित्र से भ्रष्ट होते हैं और श्रद्धान दृढ़ रहते हैं उनके तो शीघ्र ही पुनः चारित्र का ग्रहण होता है, और मोक्ष होता है। तथा दर्शन–श्रद्धा से भ्रष्ट होय उसके फिर चारित्र का ग्रहण फिर कठिन होता है इसलिये निर्वाण की प्राप्ति दुर्लभ होती है। जैसे –वृक्ष की शाखा आदि कट जाये और जड़ बनी रहे तो शाखा आदि शीघ्र ही पुनः उग आयेंगे और फल लगेंगे, किन्तु जड़ उखड़ जाने पर शाखा आदि कैसे होंगे? उसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन जानना ।।३।। अब, जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और शास्त्रोंको अनेक प्रकार से जानते हैं तथापि संसारमें भटकते हैं; ––ऐसे ज्ञानसे भी दर्शन को अधिक कहते हैंः–––– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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दर्शनपाहुड][१५
आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव।। ४।।
आराधना विरहिताः भ्रमंति तत्रैव तत्रैव।। ४।।
अर्थः––जो पुरुष सम्यक्त्वरूप रत्न से भ्रष्ट हैं तथा अनेक प्रकारोंके शास्त्रोंको जानते हैं, तथापि वह आराधना से रहित होते हुए संसार में ही भ्रमण करते हैं। दो बार कह कर बहुत परिभ्रमण बतलाया है। भावार्थः––जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं और शब्द, न्याय, छंद, अलंकार आदि अनेक प्रकार के शास्त्रोंको जानते हैं तथापि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप आराधना उनके नहीं होती; इसलिये कुमरणसे चतुगरतिरूप संसार में ही भ्रमण करते हैं –मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते; इसलिये सम्यक्त्वरहित ज्ञान को आराधना नाम नहीं देते।।४।। अब कहते हैं कि––जो तप भी करते हैं ओर सम्यक्त्वरहित होते हैं उन्हें स्वरूप का लाभ नहीं होताः––
ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं।। ५।।
न लभन्ते बोधिलाभं अपि वर्षसहस्रकोटिभिः।। ५।।
अर्थः––जो पुरुष सम्यक्त्वसे रहित हैं वे सुष्ठु अर्थात् भलीभाँति उग्र तपका आचरण करते हैं तथापि वे बोधी अर्थात् सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमय जो अपना स्वरूप है उसका लाभ प्राप्त नहीं करते; यदि हजार कोटी वर्ष तप करते रहें तब भी स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। यहाँ गाथामें दो स्थानोंपर ‘णं’ शब्द है वह प्राकृत में अव्यय है, उसका अर्थ वाक्यका अलंकार है। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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१६][अष्टपाहुड
भावार्थः––सम्यक्त्व के बिना हजार कोटी वर्ष तप करने पर भी मोक्षमार्गकी प्राप्ति नहीं होती। यहाँ हजार कोटी कहने का तात्पर्य उतने ही वर्ष नहीं समझना, किन्तु काल का बहुतपना बतलाया है। तप मनुष्य पर्याय में ही होता है, इसलिये मनुष्य काल भी थोड़ा है, इसलिये तप का तात्पर्य यह वर्ष भी बहुत कहे हैं ।।५।। –––ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके बिना चारित्र, तप को निष्फल कहा है। अब सम्यक्त्व सहित सभी प्रवृत्ति सफल है––––ऐसा कहते हैंः–––
कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होंति अइरेण।। ६।।
कलिकलुषपापरहिताः वरज्ञानिनः भवंति अचिरेण।। ६।।
अर्थः––जो पुरुष सम्यक्त्व ज्ञान, दर्शन, बल, वीर्यसे, वर्द्धमान हैं तथा कलिकलुषपाप अर्थात् इस पंचमकाल में मलिन पापसे रहित हैं वे सभी अल्पकाल में वरज्ञानी अर्थात् केवलज्ञानी होते हैं। भावार्थः––इस पंचमकाल में जड़–वक्र जीवोंके निमित्तसे यथार्थ मार्ग अपभ्रंश हुआ है। उसकी वासना से जो जवि रहित है हुए वे यथार्थ जिनमार्ग के श्रद्धानरूप सम्यक्त्व सहित ज्ञान–दर्शनके अपने पराक्रम– बलको न छिपाकर तथा अपने वीर्य अर्थात् शक्तिसे वर्द्धमान होते हुए प्रवर्तते हैं, वे अल्पकालमें ही केवलज्ञानी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ।। ६।। अब कहते हैं कि ––सम्यक्त्वरूपी जलका प्रवाह आत्माको कर्मरज नहीं लगने देताः– –
कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्स।। ७।।
कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य।। ७।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––