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दर्शनपाहुड][३७
वोसट्टचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता।। ३६।।
व्युत्सर्गत्यक्तदेहा निर्वाणमनुत्तंर प्राप्ताः।। ३६।।
अर्थः––जो बारह प्रकारके तप से संयुक्त होते हुए विधिके बलसे अपने कर्मको नष्टकर ‘वोसट्टचत्तदेहा’ अर्थात् जिन्होंने भिन्न कर छोड़ दिया है देह, ऐसे होकर वे अनुत्तर अर्थात् जिससे आगे अन्य अवस्था नहीं है ऐसी निर्वाण अवस्था को प्राप्त होते हैं। भावार्थः––जो तप द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर जबतक विहार करें तब तक अवस्थान रहें, पीछे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी सामग्रीरूप विधिके बलसे कर्म नष्टकर व्युत्सर्ग द्वारा शरीरको छोड़कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। यहाँ आशय ऐसा है कि जब निर्वाण को प्राप्त होते हैं तब लोक शिखर पर जाकर विराजते हैं, वहाँ गमन में एक समय लगता है, उस समय जंगम प्रतिमा कहते हैं। ऐसे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसमें सम्यग्दर्शन प्रधान है। इस पाहुडमें सम्यग्दर्शनके प्रधान पने का व्याख्यान किया है ।।३६।। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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३८][अष्टपाहुड
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काल पंचमा आदिमें भए सूत्र करतार ।।१।।
इसप्रकार मंगल करके श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत प्राकृत गाथा बद्ध सूत्रपाहुडकी देशभाषामय वचनिका लिखते हैंः– प्रथम ही श्री कुन्दकुन्द आचार्य, सूत्रकी महिमागर्भित सूत्रका स्वरूप बताते हैंः–
सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहंति परमत्थं।। १।।
सूत्रार्थमार्गणार्थ श्रमणाः साध्यंति परमार्थम्।। १।।
अर्थः––जो गणधर देवोंने सम्यक् प्रकार पूर्वापरविरोध रहित गूंथा (रचना की) वह सूत्र है। वह सूत्र कैसा है?–सूत्रका जो कुछ अर्थ है उसको मार्गण अर्थात् ढूंढने–जानने का जिसमें प्रयोजन है और ऐसे ही सूत्रके द्वारा श्रमण (मुनि) परमार्थ अर्थात् उत्कृष्ट अर्थ प्रयोजन जो अविनाशी मोक्षको साधते हैं। यहाँ गाथामें ‘सूत्र’ इसप्रकार विशेष्य पद नहीं कहा तो भी विशेषणोंकी सामर्थ्यसे लिया है। भावार्थः––जो अरहंत सर्वज्ञ द्वारा भाषित है तथा गणधरदेवोंने अक्षर पद वाक्यमयी गूंथा है और सूत्रके अर्थको जाननेका ही जिसमें अर्थ–प्रयोजन है ऐसे सूत्रसे मुनि परमार्थ जो मोक्ष असको साधते हैं। अन्य जो अक्षपाद, जैमिनि, कपिल, सुगत आदि छद्यस्थोंके द्वारा रचे हुए कल्पित सूत्र हैं, उनसे परमार्थकी सिद्धि नहीं है, इसप्रकार आशय जानना ।।१।। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सूत्रार्थना शोधन वडे साधे श्रमण परमार्थने। १।
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४०] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार सूत्रका अर्थ आचार्योंकी परम्परासे प्रवर्तता है उसको जानकर मोक्षमार्गको साधते हैं वे भव्य हैंः–
णाऊण दुविह सुत्तं वट्टदि सिवमग्गे जो भव्वो।। २।।
ज्ञात्वा द्विविधं सूत्रं वर्त्तते शिवमार्गे यः भव्यः।। २।।
अर्थः––सर्वज्ञभाषित सूत्रमें जो कुछ भले प्रकार कहा है उसको आचार्योंकी परम्परारूप मार्गसे दो प्रकारके सूत्रको शब्दमय और अर्थमय जानकर मोक्षमार्गमें प्रवर्तता है वह भव्यजीव है, मोक्ष पाने के योग्य है। भावार्थः––यहाँ कोई कहे–अरहंत द्वारा भाषित और गणधर देवोंसे गूंथा हुआ सूत्र तो द्वादशांग रूप है, वह तो इस काल में दिखता नहीं है, तब परमार्थरूप मोक्षमार्ग कैसे सधे। इसका करने के लिये यह गाथा है–अरहंत भाषित, गणधर रचित सूत्र में जो उपदेश है उसको आचार्योंकी परम्परासे जानते हैं, उसको शब्द और अर्थके द्वारा जानकर जो मोक्षमार्ग को साधता है वह मोक्ष होने योग्य भव्य है। यहाँ फिर कोई पूछे कि–आचार्यों की परम्परा क्या है? अन्य ग्रन्थोंमें आचार्यों की परम्परा निम्नप्रकारसे कही गई हैः– श्री वर्धमान तीर्थंकर सर्वज्ञ देवके पीछे तीन केवलज्ञानी हुए–––१ गौतम, २ सुधर्म, ३ जम्बू। इनके पीछे पाँच श्रुतकेवली हुए; इनको द्वादशांग सूत्र का ज्ञान था, १ विष्णु, २ नंदिमित्र, ३ अपराजित, ४ गौवर्द्धन, ५ भद्रबाहु। इनके पीछे दस पूर्वके ज्ञाता ग्यारह हुएः १ विशाख, २ प्रौष्ठिल, ३ क्षत्रिय, ४ जयसेन, ५ नागसेन, ६ सिद्धार्थ, ७ धृतिषेण, ८ विजय, ९ बुद्धिल, १० गंगदेव, ११ धर्मसेन। इनके पीछे पाँच ग्यारह अंगों के धारक हुए; १ नक्षत्र, २ जयपाल, पांडु, ४ धर्वुवसेन, ५ कंस। इनके पीछे एक अंग के धारक चार हुए, १ सुभद्र, २ यशोभद्र, ३ भद्रबाहु, ४ लोहाचार्य। इनके पीछे एक अंगके पूर्णज्ञानी की तो व्युच्छित्ति (अभाव) हुई और अंगके एकदेश अर्थके ज्ञाता आचार्य हुए। इनमें से कुछ एक नाम ये हैं––अर्हद्बलि, माघनंदि, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समंतभद्र, शिवकोटि, पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, नेमिचन्द्र इत्यादि। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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सूत्रपाहुड][४१
इनके पीछे इनकी परिपाटी में आचार्य हुए, इनके अर्थका व्युच्छेद नहीं हुआ, ऐसी दिगम्बरों के संप्रदाय में प्ररूपणा यथार्थ है। अन्य श्वेताम्बरादिक वर्धमान स्वामीसे परम्परा मिलाते हैं वह कल्पित है क्योंकि भद्रबाहु स्वामीके पीछे कई मुनि अवस्था से भ्रष्ट हुए, ये अर्द्धफालक कहलाये। इनकी संप्रदाय में श्वेताम्बर हुए, इनमें ‘देवर्द्धिगणी’ नामक साधु इनकी संप्रदाय में हुआ है, इसने सूत्र बनाये हैं सो इनसे शिथिलाचारको पुष्ट करने के लिये कल्पित कथा तथा कल्पित आचरणका कथन किया है वह प्रमाणभूत नहीं है। पंचमकालमें जैसाभासोंके शिथिलाचारकी अधिकता है सो युक्त है, इस काल में सच्चे मोक्षमार्गी विरलता है, इसलिये शिथिलाचारियों के सच्चा मोक्षमार्ग कहाँसे हो–इसप्रकार जानना। अव यहाँ कुछ द्वादशांगसूत्र तथा अगंबाह्यश्रुत का वर्णन लिखते हैं–तीर्थंकरके मुखसे उत्पन्न हुई सर्व भाषामय दिव्यध्वनिको सुन करके चार ज्ञान, सप्तऋद्धिके धारक गणधर देवोंने अक्षर पदमय सूत्ररचना की। सूत्र दो प्राकर के हैं–––१ अंग, अंगबाह्य। इनके अपुनरुक्त अक्षरोंकी संख्या बीस अंक प्रमाण है। ये अंक– १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ इतने अक्षर हैं। इनके पद करें तब एक मध्यपदके अक्षर सोलहसौ चौंतीस करोड तियासी लाख सात हजार आठसौ अठयासी कहें हैं। इनका भाग देनेपर एकसौ बारह करोड़ तियासी लाख अट्ठावन हजार पाँच इतने पावें, ये पद बारह अंगरूप सूत्रके पद हैं ओर अविशेष बीस अंकोंमें अक्षर रहे, ये अंगबाह्य सूत्र कहलाते हैं। ये आठ करोड एक लाख आठ हजार एकसौ पिचहत्तर अक्षर हैं, इन अक्षरोंमें चौदह प्रकीर्णकरूप सूत्र रचना है। अब इन द्वादशांगरूप सूत्ररचनाके नाम और पद संख्या लिखते हैं–प्रथम अंग आचारांग है। इसमें मुनीश्वरोंके आचारका निरूपण है, इसके पद अठारह हजार है। दूसरा सूत्रकृत अंग है, इसमें ज्ञानका विनय आदिक अथवा धर्मक्रियामें स्वमत परमतकी क्रियाके विशेषका निरूपण है, इसके पद छत्तीस हजार हैं। तीसरा स्थानअंग है इसमें पदार्थोंके एक आदि स्थानोंका निरूपण है जैसे– जीव सामान्यरूप से एक प्रकार, विशेषरूपसे दो प्रकार , तीन प्रकार इत्यादि ऐसे स्थान कहे हैं, इसके पद बियालीस हजार हैं। चौथा समवाय अंग है, इसमें जीवादिक छह द्रव्योंका द्रव्य क्षेत्र कालादि द्वारा वणरन है, इसके पद एक लाख चौसठ हजार हैं।
पाँचवाँ व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग है, इसमें जीवके अस्ति–नास्ति आदिक साठ हजार प्रश्न गणधरदेवों ने तीर्थंकरोंके निकट किये उनका वर्णन है। इसके पद दो लाख अट्ठाईस हजार हैं।
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४२] [अष्टपाहुड छठा ज्ञातृधर्म कथा नाम का अंग है, इसमें तीर्थंकरोहके धर्म ही कथा, जीवादिक पदार्थोंके सवभाव का वर्णन तथा गणधरके प्रश्नोंके उत्तर का वर्णन है, इसके पद पाँच लाख छप्पन हजार हैं। सातवाँ उपासकाध्ययन नामक अंग है, इसमें ग्यारह प्रतिमा आदि श्रावकके आचारका वर्णन है, इसके पद ग्यारह लाख सत्तर हजार हैं। आठवाँ अन्तकृतदशांग नामका अंग है, इसमें एक एक तीर्थंकर के काल में दस दस अन्तकृत केवली हुए उनका वर्णन है, इसके पद तेईस लाख अट्ठाईस हजार हैं। नौवाँ अनुत्तरोपपादक नामक अंग है, इसमें एक–एक तीर्थंकरके कालमें दस–दस महामुनि घोर उपसर्ग सहकर अनुत्तर विमानमें उत्पन्न हुए उनका वर्णन है, इसके पद बाणवै लाख चवालीस हजार हैं। दसवाँ प्रश्नव्याकरण नामक अंग है, इसमें अतीत–अनागत काल सम्बन्धी शुभ–अशुभका प्रश्न कोई करे उसका उत्तर यथार्थ कहनेके उपायका वर्णन है तथा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्वेदनी इन चार कथाओंका भी इस अंगमें वर्णन है, इसके पद तिराणवे लाख सोलह हजार हैं। ग्यारहवाँ विपाकसूत्र नामका अंग है, इसमें कर्मके उदयका तीव्र–मंद अनुभागका, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा लिये हुए वर्णन है, इसके पद एक करोड चौरासी लाख हैं। इसप्रकार ग्यारह अंग हैं, इनके पदोंकी संख्याको जोड़ देने पर चार करोड़ पंद्रह लाख दो हजार पद होते हैं।
बारहवाँ दृष्टिवाद नामक अंग है, इसमें मिथ्यादर्शन संबंधी तीनसो त्रेसठ कुवादोंका वर्णन है। इसके पद एकसौ आठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पनहजार पाँच पद हैं। इस बारहवें अंगके पाँच अधिकार हैं। १ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्वगत, ५ चूलिका। परिकर्ममें गणितके करणसूत्र हैं; इसके पाँच भेद हैं–––प्रथम चंद्रप्रज्ञप्ति है, इसमें चन्द्रमाके गमनादिक, परिवार, वृद्धि–हानि, ग्रह आदिका वर्णन है, इसके पद छत्तीस लाख पाँच हजार हैं। दूसरा सूर्यप्रज्ञप्ति है, इसमें सूर्यकी ऋद्धि, परिवार, गमन आदिका वर्णन है, इसके पद पांच लाख तीन हजार हैं। तीसरा जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति है, इसमें जम्बूद्वीप संबंधी मेरु, गिरि, क्षेत्रे, कुलाचल आदिका वर्णन है, इसके पद तीन लाख पच्चीस हजार हैं। चौथा द्वीप–सागर प्रज्ञप्ति है, इसमें द्वीपसागरका स्वरूप तथा वहाँ स्थित ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी देवोंके आवास तथा वहाँ स्थित जिनमंदिरोंका वर्णन है, इसके पद बावनलाख छत्तीस हजार हैं। पाँचवाँ व्याख्या प्रज्ञाप्ति है, इसमें जीव, अजीव पदार्थोंके प्रमाणका वर्णन है, इसके पद चौरासी लाख छत्तीस हजार हैं। इस प्रकार परिकर्मके पांच भेदोंके पद जोड़ने पर एक करोड़ इक्यासी लाख पांच हजार होते हैं।
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सूत्रपाहुड][४३ बारहवें अंगका दूसरा भेद ‘सूत्र’ नामका है, इसमें मिथ्यादर्शन सम्बन्धी तीनसौ त्रेसठ कुवादोंका पूर्वपक्ष लेकर उनको जीव पदार्थ पर लगाने आदिका वर्णन है, इसके पद अट्ठाईस लाख हैं। बारहवें अंगका तीसरा भेद ‘प्रथमानुयोग’ है। इसमें प्रथम जीवके उपदेश योग्य तीर्थंकर आदि त्रेसठ शलाका पुरुषोंका वर्णन है, इसके पद पाँच हजार हैं। बारहवें अंगका चौथा भेद ‘पूर्वगत’ है, इसके चौदह भेद हैं–––प्रथम ‘उत्पाद’ नामका पूर्व है, इसमें जीव आदि वस्तुओंके उत्पाद–व्यय–ध्रौव्य आदि अनेक धर्मोंकी अपेक्षा भेद वर्णन है, इसके पद एक करोड़ हैं। दूसरा ‘अग्रायणी’ नामक पूर्व है, इसमें सातसौ सुनय, दुर्नयका और षट्द्रव्य, सप्ततत्त्व, नव पदार्थोंका वर्णन है, इसके छियानवे लाख पद हैं। तीसरा ‘वीर्यानुवाद’ नामका पूर्व है, इसमें छह द्रव्योंकी शक्तिरूप वीर्यका वर्णन है, इसके पद सत्तर लाख हैं। चौथा ‘अस्तिनास्तिप्रवाद’ नामक पूर्व है, इसमें जीवादिक वस्तुका स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा अस्ति, पररूप, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा नास्ति आदि अनेक धर्मोंमें विधि निषेध करके सप्तभंग द्वारा कथंचित् विरोध मेटनेरूप मुख्य– गौण करके वर्णन है, इसके पद साठ लाख हैं। पाँचवाँ ‘ज्ञानप्रवाद’ नामका पूर्व है, इसमें ज्ञानके भेदोंका स्वरूप, संख्या, विषय, फल आदिका वर्णन है, इसमें पद एक कम करोड़ हैं। छठा ‘सत्यप्रवाद’ नामक पूर्व है, इसमें सत्य, असत्य आदि वचनोंकी अनेक प्रकारकी प्रवृत्तिका वर्णन है, इसके पद एक करोड़ छह हैं। सातवाँ ‘आत्मप्रवाद’ नामक पूर्व है, इसमें आत्मा (जीव) पदार्थके कर्ता, भोक्ता आदि अनेक धर्मोंका निश्चय–व्यवहारनयकी अपेक्षा वर्णन है, इसके पद छब्बीस करोड़ हैं।
आठवाँ ‘कर्मप्रवाद’ नामका पूर्व है, इसमें ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोंके बंध, सत्व, उदय, उदीरणा आदिका तथा क्रियारूप कर्मोंका वर्णन है, इसके पद एक करोड़ अस्सी लाख हैं। नौंवाँ ‘प्रत्याख्यान’ नामका पूर्व है, इसमें पापके त्यागका अनेक प्रकारसे वर्णन है, इसके पद चौरासी लाख हैं। दसवाँ ‘विद्यानुवाद’ नामका पूर्व है। इसमें सातसौ क्षुद्र विद्या और पांचसौ महाविद्याओंके स्वरूप, साधन, मंत्रादिक और सिद्ध हुए इनके फलका वर्णन है तथा अष्टांग निमित्तज्ञानका वर्णन है, इनके पद एक करोड़ दस लाख हैं। ग्यारहवाँ ‘कल्याणवाद’ नामक पूर्व है, इसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदिके गर्भ आदि कल्याणकका उत्सव तथा उसके कारण षोडश भावनादिके, तपश्चरणादिक तथा चन्द्रमा, सूर्यादिकके गमन विशेष आदिका वर्णन है, इसके पद छब्बीस करोड़ हैं।
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४४] [अष्टपाहुड
बारहवाँ ‘प्राणवाद’ नामक पूर्व है, इसमें आठ प्रकार वैद्यक तथा भूतादिककी व्याधिके दूर करनेके मंत्रादिक तथा विष दूर करनेके उपाय और स्वरोदय आदिका वर्णन है, इसके तेरह करोड़ पद हैं। तेरहवाँ ‘क्रियाविशाल’ नामक पूर्व है, इसमें संगीतशास्त्र, छंद, अलंकारादिक तथा चौसठ कला, गर्भाधानादि चौरासी क्रिया, सम्यग्दर्शन आदि एकसौ आठ क्रिया, देव वंदनादि पच्चीस क्रिया, नित्य–नैमित्तिक क्रिया इत्यादिका वर्णन है, इसके पद नौ करोड़ हैं। चौदहवाँ ‘त्रिलोकबिंदुसार’ नामक पूर्व है, इसमें तीनलोकका स्वरूप और बीजगणितका तथा मोक्षका स्वरूप तथा मोक्षकी कारणभूत क्रियाका स्वरूप ईत्यादिका वर्णन है, इसके पद बारह करोड़ पचास लाख हैं। ऐसे चौदह पूर्व हैं, इनके सब पदोंका जोड़ पिच्याणवे करोड़ पचास लाख है। बारहवें अंगका पाँचवाँ भेद चूलिका है, इसके पाँच भेद हैं, इनके पद दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ हैं। इसके प्रथम भेद जलगता चूलिकामें जलका स्तंभन करना, जलमें गमन करना; अग्निगता चूलिकामें अग्नि स्तंभन करना, अग्निमें प्रवेश करना, अग्निका भक्षण करना इत्यादिका कारणभूत मंत्र–तंत्रादिकका प्ररूपण है, इसके पद दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ हैं। इतने इतने ही पद अन्य चार चूलिका के जानने। दूसरा भेद स्थलगता चूलिका है, इसमें मेरु, पर्वत, भूमि इत्यादिमें प्रवेश करना, शीघ्र गमन करना इत्यादि क्रियाके कारण मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादिकका प्ररूपण है। तीसरा भेद मायागता चूलिका है, इसमें मायामयी इन्द्रजाल विक्रियाके कारणभूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादिकका प्ररूपण है। चौथा भेद रूपगता चूलिका है, इसमें सिंह, हाथी, घोड़ा, बैल, हिरण इत्यादि अनेक प्रकारके रूप बना लेनेके कारणभूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरण आदिका प्ररूपण है, तथा चित्राम, काष्ठलेपादिकका लक्षण वर्णन है और धातु रसायनका निरूपण है। पाँचवाँ भेद आकाशगता चूलिका है, इसमें आकाशमें गमनादिकके कारणभूत मंत्र, तंत्र, तंत्रादिकका प्ररूपण है। ऐसे बारहवाँ अंग है। इस प्रकारसे बारह अंगसूत्र हैं।
अंगबाह्य श्रुतके चौदह प्रकीर्णक हैं। प्रथम प्रकीर्णक सामायिक नामक है, इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके भेदसे छह प्रकार इत्यादि सामायिकका विशेषरूपसे वर्णन है। दूसरा चतुर्विंशतिस्तव नामका प्रकीर्णक है, इसमें चौबीस तीर्थंकरोंकी महिमाका वर्णन है। तीसरा वंदना नामका प्रकीर्णक है, उसमें एक तीर्थंकर के आश्रय वंदना स्तुतिका वर्णन है। चौथा प्रतिक्रमण नामका प्रकीर्णक है, इसमें सात प्रकारके प्रतिक्रमणके वर्णन हैं।
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सूत्रपाहुड][४५ पाँचवां वैनयिक नामका प्रकीर्णक है, इसमें पाँच प्रकारके विनयका वर्णन है।–छठा कृतिकर्म के नामका प्रकीर्णक है, इसमें अरिहंत आदिकी वंदनाकी क्रियाका वर्णन है। सातवाँ दशवैकालिक नामका प्रकीर्णक है, इसमें मुनिका आचार, आहारकी शुद्धता आदिका वर्णन है। आठवाँ उत्तराध्ययन नामका प्रकीर्णक है। इसमें परीषह–उपसर्गको सहनेके विधानका वर्णन है। नवमाँ कल्पव्यवहार नामका प्रकीर्णक है, इसमें मुनिके योग्य आचरण और अयोग्य सेवनके प्रायश्चितोंका वर्णन है। दसवाँ कल्पाकल्प नामक प्रकीर्णक है, इसमें मुनिको यह योग्य है यह अयोग्य है ऐसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा वर्णन है। ग्यारहवाँ महाकल्प नामका प्रकीर्णक है, इसमें जिनकल्पी मुनिके प्रतिमायोग, त्रिकालयोगका प्ररूपण है तथा स्थविरकल्पी मुनिओंकी प्रवृत्तिका वर्णन है। बारहवाँ पुंडरीक नामका प्रकीर्णक है, इसमें चार प्रकारके देवोमें उत्पन्न होनेके कारणोंका वर्णन है। तेरहवाँ महापुंडरीक नामका प्रकीर्णक है, इसमें इन्द्रादिक बड़ी ऋद्धिके धारक देवोंमें उत्पन्न होनेके कारणोंका प्ररूपण है। चौदहवाँ निषिद्धिका नामक प्रकीर्णक है, इसमें अनेक प्रकारके दोषोकी शुद्धताके निमित्त प्रायश्चितोंका प्ररूपण है, यह प्रायश्चित शास्त्र है, इसका नाम निसितिका भी है। इसप्रकार अंगबाह्यश्रुत चौदह प्रकारका है।
पूर्वोंकी उत्पत्ति पर्यायसमास ज्ञानसे लगाकर पूर्वज्ञान पर्यंत बीस भेद हैं इनका विशेष वर्णन, श्रुतज्ञान का वर्णन गोम्मटसार नामके ग्रंथमें विस्तार पूर्वक है वहाँ से जानना ।। २।।
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४६] [अष्टपाहुड
सूची यथा असूत्रा नश्यति सूत्रेण सह नापि।।३।।
अर्थः––जो पुरुष सूत्र को जानने वाला है, प्रवीण है वह संसारमें जन्म होने का नाश करता है। जैसे लोहे की सुई सूत्र (डोरे) के बिना हो तो नष्ट हो जाये और डोरा सहित हो तो नष्ट नहीं हो यह दृष्टांत है। भावार्थः––सूत्रका ज्ञाता हो वह संसारका नाश करता है, जैसे सुई डोरा सहित हो तो दृष्टिगोचर होकर मिल जाये, कभी भी नष्ट न हो और डोरे के बिना हो तो नष्ट हो तो दिखे नहीं, नष्ट हो जाये इसप्रकार जानना ।।३।।
आगे सुई के दृष्टान्त का दार्ष्टांत कहते हैं––– पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणासइ सो गओ वि संसारे। सच्चेदण पच्चक्खं णासदि तं सो अदिस्समाणो वि।। ४।। पुरुषोऽपि यः ससूत्रः न विनश्यति स गतोऽपि संसारे।
अर्थः––जैसे सूत्रसहित सूई नष्ट नहीं होती है वैसे ही जो पुरुष भी संसार में
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सूत्रपाहुड][४७ गत हो रहा है, अपना रूप अपने दृष्टिगोचर नहीं है तो भी सूत्रसहित हो (सूत्रका ज्ञाता हो) तो उसके आत्मा सत्तारूप चैतन्य चमत्कारमयी स्वसंवेदनसे प्रत्यक्ष अनुभव में आती है इसलिये गत नहीं है नष्ट नहीं हुआ है, वह जिस संसार में गत है उस संसारका नाश करता है। भावार्थः––यद्यपि आत्मा इन्द्रियगोचर नहीं है तो भी सूत्रके ज्ञाताके स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अनुभवगोचर है, वह सूत्रका ज्ञाता संसार का नाश करता है, आप प्रगट होता है, इसलिये सुईका दृष्टांत युक्त है ।।४।। आगे सूत्रमें अर्थ क्या है वह कहते हैं–––
हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्रिट्ठी।। ५।।
हेयाहेयं च तथा यो जानाति स हि सद्दृष्टिः।। ५।।
अर्थः––सूत्रका अर्थ जिन सर्वज्ञ देवने कहा है, और सूत्र का अर्थ जीव अजीव बहुत
प्रकार का है तथा हेय अर्थात् त्यागने योग्य और अहेय अर्थात् त्यागने योग्य नहीं, इसप्रकार
आत्माको जो जानता है वह प्रगट सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थः––सर्वज्ञ भाषित सूत्र में जीवादिक नव पदार्थ और इनमें हेय उपादेय इसप्रकार
आगे कहते हैं कि जिनभाषित सूत्र व्यवहार–परमाथररूप दो प्रकार है, –सको जानकर
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४८] [अष्टपाहुड
तं जाणिऊण जोई लहइ सुहं खवइ मलपुंजं।। ६।।
तं ज्ञात्वा योगी लभते सुखं क्षिपते मलपुंजं।। ६।।
अर्थः––जो जिन भाषित सूत्र है, वह व्यवहार तथा परमार्थरूप है, उसको योगीश्वर
जानकर सुख पाते हैं और मलपुंज अर्थात् द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मका क्षेपण करते हैं।
भावार्थः––जिन सूत्र को व्यवहार–परमार्थरूप जानकर योगीश्वर (मुनि) कर्मों का
हैः एक आगमरूप और दूसरा अध्यात्मरूप। वहाँ सामान्य–विशेष रूप से सब पदार्थों का
प्ररूपण करते हैं सो आगमरूप है, परन्तु जहाँ एक आत्मा ही के आश्रय निरूपण करते हैं सो
अध्यात्म है। अहेतुमत् और हेतुमत् ऐसे भी दो प्रकार हैं, वहाँ सर्वज्ञ की आज्ञा ही से केवल
प्रमाणता मानना अहेतुमत् है और प्रमाण –नयके द्वारा वस्तुकी निर्बाध सिद्धि करके मानना सो
हेतुमत् है। इसप्रकार दो प्रकार आगम में निश्चय–व्यवहार से व्यख्यान है, वह कुछ लिखने में
आ रहा है।
जब आगमरूप सब पदार्थोंकी व्याख्यान पर लगाते हैं तब तो वस्तुका स्वरूप सामान्य–
और विशेषरूप जितने हैं उनको भेदरूप करके भिन्न भिन्न कहे वह व्यवहारनय का विषय है,
उसको द्रव्य–पर्यायस्वरूप भी कहते हैं। जिस वस्तु को विवक्षित करके सिद्ध करना हो उसके
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे जो कुछ सामान्य– विशेषरूप वस्तुका सर्वस्व हो वह तो, निश्चय–
व्यवहार से कहा है वैसे, सिद्ध होता है और उस वस्तुके कुछ अन्य वस्तु के संयोग जो
अवस्था हो उसको उस वस्तुरूप कहना भी व्यवहार है, इसको उपचार भी कहते हैं। इसका
उदाहरण ऐसे है––जैसे एक विवक्षित घट नामक वस्तु पर लगावें तब जिस घटका द्रव्य–
क्षेत्र–काल–भावरूप सामान्य –विशेषरूप जितना सर्वस्व है उतना कहा, वैसे निश्चय–व्यवहार
से कहना वह तो
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सूत्रपाहुड][४९ निश्चय–व्यवहार है और घटके कुछ अन्य वस्तु का लेप करके उस घटको उस नामसे कहना तथा अन्य पटादि में घटका आरोपण करके घट कहना भी व्यवहार है। व्यवहार के दो आश्रय हैं––एक प्रयोजन दूसरा निमित्त। प्रयोजन साधनेको किसी वस्तुको घट कहना वह तो प्रयोजनाश्रित है और किसी अन्य वस्तुके निमित्तसे घट में अवस्था हुई उसको घट स्वरूप कहना वह निमित्ताश्रित है। इसप्रकार विवक्षित जीव–अजीव वस्तुओं पर लगाना। एक आत्मा ही को प्रधान करके लगाना अध्यात्म है। जवि सामान्यको भी आत्मा कहते हैं। जो जीव अपने को सब जीवोंसे भिन्न अनुभव करे उसको भी आत्मा कहते हैं। जब अपने को सबसे भिन्न अनुभव करके, अपने पर निश्चय लगावे तब इसप्रकार जो आप अनादि– अनन्त अविनाशी सब अन्य द्रव्यों से भिन्न, एक सामान्य–विशेषरूप, अनन्तधर्मात्मक, द्रव्य– पर्यायात्मक जीव नामक शुद्ध वस्तु है, वह कैसा है––– शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप असाधारण धर्म को लिये हुए, अनन्त शक्तिका धारक है, उसमें सामान्य भेद चेतना अनन्त शक्ति का समूह द्रव्य है। अनन्तज्ञान–दर्शन–सुख–वीर्य ये चेतना के विशेष हैं वह तो गुण हैं और अगुरुलघु गुणके द्वारा षट्स्थानपतित हानिवृद्धिरूप परिणमन करते हुए जीवके त्रिकालात्मक अनन्त पर्यायें हैं। इसप्रकार शुद्ध जीव नामक वस्तु को सर्वज्ञ ने देखा, जैसा आगम में प्रसिद्ध है, वह तो एक अभेद रूप शुद्ध निश्चयनयका विषयभूत जीव है, इस दृष्टि से अनुभव करे तब तो ऐसा है और अनन्त धर्मों में भेदरूप किसी एक धर्म को लेकर कहना व्यवहार है।
आत्मवस्तु के अनादि ही से पुद्गल कर्मका संयोग है, इसके निमित्त से राग–द्वेष रूप विकार की उत्पत्ति होती है उसको विभाव परिणति कहते हैं, इससे फिर आगामी कर्मका बंध होता है। इसप्रकार अनादि निमित्त–नैमित्तिक भाव के द्वारा चतुर्गतिरूप संसार भ्रमण की प्रवृत्ति होती है। जिस गति को प्राप्त हो वैसा ही नामका जीव कहलाता है तथा जैसा रागादिक भाव हो वैसा नाम कहलाता है। जब द्रव्य–क्षेत्र–काल–भावकी बाह्यअंतरंग सामग्रीके निमित्त से अपने शुद्धस्वरूप शुद्धनिश्चयनयके विषय स्वरूप अपनेको जानकर श्रद्धान करे और कर्म संयोगको तथा उसके निमित्त से अपने भाव होते हैं उनका यथार्थ स्वरूप जाने तब भेदज्ञान होता है, तब ही परभावोंसे विरक्ति होती है। फिर उनको दूर करने का उपाय सर्वज्ञके आगम से यथार्थ समझकर उसको कर्मोंका क्षय करके लोकशिखर पर जाकर विराजमान जो जाता है तब मुक्त या सिद्ध कहलाता है।
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५०] [अष्टपाहुड
इसप्रकार जितनी संसार की अवस्था और यह मुक्त अवस्था इसप्रकार भेदरूप आत्माका निरूपण है वह भी व्यवहार नयका विषय है, इसको अध्यात्मशास्त्रमें अभूतार्थ असत्यार्थ नामसे कहकर वर्णन किया है, क्योंकि शुद्ध आत्मा में सहयोगजनित अवस्था हो सो तो असत्यार्थ ही है, कुछ शुद्ध वस्तुका तो यह स्वभाव नहीं है इसलिये असत्य ही है। जो निमित्त से अवस्था हुई वह भी आत्मा ही का परिणाम है, जो आत्मा का परिणाम है वह आत्मामें ही है, इसलिये कथंचित् इसको सत्य भी कहते हैं, परन्तु जब तक भेदज्ञान नहीं होता है तब तक ही यह दृष्टि है, भेदज्ञान होने पर जैसे है वैसा ही जानता है। जो द्रव्यरूप पुद्गल कर्म हैं वे आत्मा से भिन्न ही हैं, उनसे शरीरादिका संयोग है वह आत्मासे प्रगट ही भिन्न है, इनको आत्मा का कहते हैं सो वह व्यवहार प्रसिद्ध है ही, इसको असत्यार्थ या उपचार कहते हैं। यहाँ कर्मके संयोगजनित भाव हैं वे सब निमित्ताश्रित व्यवहार के विषय हैं और उपदेश अपेक्षा इसको प्रयोजनाश्रित भी कहते हैं, इसप्रकार निश्चय– व्यवहारका संक्षेप है। सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रको मोक्षमार्ग कहा, यहाँ ऐसे समझना कि ये तीनों एक आत्मा ही के भाव हैं, इसप्रकार इनरूप आत्माही का अनुभव हो सो निश्चय मोक्षमार्ग है, इनमें भी जबतक अनुभव की साक्षात् पूर्णता नहीं हो तबतक एकदेशरूप होता है उसको कथंचित् सर्वदेशरूप कहकर कहना व्यवहार है और एकदेश नाम से कहना निश्चय है। दर्शन, ज्ञान, चारित्रको भेदरूप कहकर मोक्षमार्ग कहे तथा इनके बाह्य परद्रव्य स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव निमित्त हैं उनको दर्शन, ज्ञान, चारित्रके नामसे कहे वह व्यवहार है। देव, गुरु, शास्त्रकी श्रद्धाको सम्यग्दर्शन कहते हैं, जीवादिक तत्त्वोंकी श्रद्धाको सम्यग्दर्शन कहते हैं। शास्त्रके ज्ञान अर्थात् जीवादिक पदार्थोंके ज्ञान को ज्ञान कहते हैं इत्यादि। पांच महाव्रत, पांच समिति, तीव गुप्तिरूप प्रवृत्तिको चारित्र कहते हैं। बारह प्रकारके तपको तप कहते हैं। ऐसे भेदरूप तथा परद्रव्यके आलम्बनरूप प्रवृत्तियाँ सब अध्यात्मशास्त्रकी अपेक्षा व्यवहारके नामसे कही जाती है क्योंकि वस्तुके नाम से कहना वह भी व्यवहार है।
अध्यात्म शास्त्रमें इसप्रकार भी वर्णन है कि वस्तु अनन्त धर्मरूप है इसलिये सामान्य– विशेषरूपसे तथा द्रव्य–पर्याय से वर्णन करते हैं। द्रव्यमात्र कहना तथा पर्यायमात्र कहना व्यवहार का विषय है। द्रव्यका भी तथा पर्याय का भी निषेध करके वचन–अगोचर कहना निश्चयनयका विषय है। जो द्रव्यरूप है वही पर्यायरूप है इसप्रकार दोनों को ही प्रधान करके कहना प्रमाण का विषय है, इसका उदाहरण इसप्रकार है––
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सूत्रपाहुड][५१ जैसे जीवको चैतन्यरूप, नित्य, एक, अस्तिरूप इत्यादि अभेदमात्र कहना वह तो द्रव्यार्थिक नय का विषय है और ज्ञान–दर्शनरूप अनित्य, अनेक, नास्तित्वरूप इत्यादि भेदरूप कहना पर्यायार्थिक नयका विषय है। दोनों ही प्रकारकी प्रधानताका निषेधमात्र वचन–अगोचर कहना निश्चय नयका विषय है। दोनों ही प्रकारको प्रधान करके कहना प्रमाण का विषय है इत्यादि। इसप्रकार निश्चय–व्यवहारका सामान्य अर्थात् संक्षेप स्वरूप है, उसको जानकर जैसा आगम–अध्यात्म शास्त्रोंमें विशेषरूप से वर्णन हो उसको सूक्ष्मदृष्टि जानना। जिनमत अनेकांत स्वरूप स्याद्धाद है और नयोंके आश्रित कथन है। नयोंके परस्पर विरोधको स्याद्धाद दूर करता है, इसके विरोधका तथा अविरोधका स्वरूप अच्छी तरह जानना। यथार्थ तो गुरु आम्नाय ही से होता है, परन्तु गुरुका निमित्त इसकालमें विरल हो गया, इसलिये अपने ज्ञानका बल चले तब तक विशेषरूप से समझते ही रहना, कुछ ज्ञानका लेश पाकर उद्धत नहीं होना, वर्तमान कालमें अल्पज्ञानी बहुत हैं इसलिये उनसे कुछ अभ्यास करके उनमें महनत बनकर उद्धत होनेपर मद आ जाता है तब ज्ञान थकित हो जाता है और विशेष समझने की अभिलाषा नहीं रहती हे तब विपरीत होकर यद्वातद्वा– मनमाना कहने लग जाता है, उससे अन्य जीवोंका श्रद्धान विपरीत हो जाता है, तब अपने अपराध का प्रसंग आता है, इसलिये शास्त्रको समुद्र जानकर, अल्पज्ञरूप ही अपना भाव रखना जिससे विशेष समझने की अभिलाषा बनी रहे, इससे ज्ञान की वृद्धि होती है।
अल्प ज्ञानियों में बैठकर महंतबृद्धि रखे तब अपना प्राप्त ज्ञान भी नष्ट हो जाता है, इसप्रकार जानकर निश्चय–व्यवहाररूप आगम की कथन पद्धति को समझकर उसका श्रद्धान करके यथाशक्ति आचरण करना। इस काल में गुरु सम्प्रदायके बिना महन्त नहीं बनना, जिन आज्ञा का लोप नहीं करना। कोई कहते हैं–हम तो परीक्षा करके जिनमत को मानेंगे वे वृथा बकते हैं–स्वल्प बुद्धि का परीक्षा करने के योग्य नहीं है। आज्ञा को प्रधान रखकरके बने जितनी परीक्षा करने में दोष नहीं है, केवल परीक्षा ही को प्रधान रखने में जिनमत से च्युत हो जाये तो बड़ा दोष आवे। इसलिये जिनकी अपने हित–अहित पर दृष्टि है वे तो इसप्रकार जानो, और जिनको अल्पज्ञानियों में महंत बनकर अपने मान, लोभ, बड़ाई, विषय–कषाय पुष्ट करने हों उनकी बात नहीं है, वे तो जैसे अपने विषय–कषाय पुष्ट होंगे वैसे ही करेंगे, उनको मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं लगता है, विपरीत को किसका उपदेश? इसप्रकार जानना चाहिये ।।६।।
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५२] [अष्टपाहुड
खेडे वि ण कायव्वं पाणिप्पत्तं१ सचेलस्स।। ७।।
अर्थः––जिसके सूत्र का अर्थ और पद विनष्ट है वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है, इसलिये जो
सचेल है, वस्त्र सहित है उसको ‘खेडे वि’ अर्थात् हास्य कुतूहल में भी पाणिपात्र अर्थात्
हस्तरूप पात्र से आहार नहीं करना।
भावार्थः––सूत्र में मुनि का रूप नग्न दिगम्बर कहा है। जिसके ऐसा सूत्रका अर्थ तथा
हुआ प्रगट मिथ्यादृष्टि है, इसलिये वस्त्र सहित को हास्य–कुतूहलसे पाणिपात्र अर्थात् हस्तरूप
पात्र से आहारदान नहीं करना तथा इसप्रकार भी अर्थ होता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टि को
पाणिपात्र आहारदान लेना योग्य नहीं है, ऐसा भेष हास्य–कुतूहलसे भी धारण करना योग्य
नहीं है, वस्त्र सहित रहना और पाणिपात्र भोजन करना, इसप्रकार से तो क्रीड़ा मात्र भी नहीं
करना ।।७।।
सूत्रार्थपदथी भ्रष्ट छे ते जीव मिथ्यादृष्टि छे;
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सूत्रपाहुड][५३
आगे कहते हैं कि जिन सूत्र से भ्रष्ट हरिहरादिक के तुल्य हो तो भी मोक्ष नहीं पाता है–––
तइ वि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।। ८।।
अर्थः––जो मनुष्य सूत्र के अर्थ पद से भ्रष्ट है वह हरि अर्थात् नारायण, हर अर्थात्
रुद्र, इनके समान भी हो, अनेक ऋद्धि संयुक्त हो, तो भी सिद्धि अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं
होता है। यदि कदाचित् दान पूजादिक करके पुण्य उपार्जन कर स्वर्ग चला जावे तो भी वहाँ
से चय कर, करोड़ों भव लेकर संसार ही में रहता है, ––इस प्रकार जिनागम में कहा है।
भावार्थः––श्वेताम्बरादिक इसप्रकार कहते हैं कि––गृहस्थ आदि वस्त्र सहित को भी
हरिहरादिक बड़ी सामर्थ्य के धारक भी हैं तो भी वस्त्र सहित तो मोक्ष नहीं पाते हैं।
श्वेताम्बरोंने सूत्र कल्पित बनाये हैं, उनमें यह लिखा है सो प्रमाण भूत नहीं है; वे श्वेताम्बर,
जिन सूत्र के अर्थ–पद से च्युत हो गये हैं, ऐसा जानना चाहिये।।८।।
आगे कहते हैं कि––जो जिनसूत्र से च्युत हो गये हैं वे स्वच्छंद होकर प्रवर्तते हैं, वे
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५४] [अष्टपाहुड
बो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छंदि होदि मिच्छतं।। ९।।
अर्थः––जो मुनि होकर उत्कृष्ट, सिंह के समान निर्भय हुआ आचरण करता है और
बहुत परिकर्म अर्थात् तपश्चरणादि क्रिया विशेषोंसे युक्त है तथा गुरुके भार अर्थात् बड़ा
पदस्थरूप है, संघ–नायक कहलाता है परन्तु जिनसूत्र से च्युत होकर स्वच्छंद प्रवर्तता है तो
वह पाप ही को प्राप्त होता है और मिथ्यात्वको प्राप्त होता है।
भावार्थः––जो धर्मका नायकपना लेकर, गुरु बनकर, निर्भय हो तपश्चरणादिक से बड़ा
पापी मिथ्यादृष्टि ही है, उसका प्रसंग भी श्रेष्ठ नहीं है।।९।।
आगे कहते हैं कि––जिनसूत्र में ऐसा मोक्षमार्ग कहा है–––
एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे।। १०।।
एकोऽपि मोक्षमार्गः शेषाश्च अमार्गा सर्वे।। १०।।
अर्थः––जो निश्चेल अर्थात् वस्त्ररहित दिगम्बर मुद्रास्वरूप और पाणिपात्र अर्थात् हाथरूपी पात्र में खड़े–खड़े आहार करना, इसप्रकार एक अद्वितीय मोक्षमार्ग तीर्थंकर परमदेव जिनेन्द्रने उपदेश दिया है, इसके सिवाय अन्य रीति सब अमार्ग हैं। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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सूत्रपाहुड][५५
भावार्थः––जो मृगचर्म, वृक्षके बल्कल, कपास पट्ट दुकूल, रोमवस्त्र, टाटके और तृणके वस्त्र इत्यादिक रखकर अपने को मोक्षमार्गी मानते हैं तथा इसकाल में जिनसूत्र से च्युत हो गये हैं, उन्होंने अपनी इच्छा से अनेक भेष चलाये हैं, कई श्वेत वस्त्र रखते हैं, कई रक्त वस्त्र, कई पीले वस्त्र, कई टाटके वस्त्र आदि रखते हैं, उनके मोक्षमार्ग नहीं क्योंकि जिनसूत्र में तो एक नग्न दिगम्बर स्वरूप पाणिपात्र भोजन करना इसप्रकार मोक्ष मार्ग में कहा है, अन्य सब भेष मोक्षमार्ग नहीं है ओर जो मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं ।।१०।। आगे दिगम्बर मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति करते हैंः––
सो होइ वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए।। ११।।
सः भवति वंदनीयः ससुरासुरमानुषे लोके।। ११।।
अर्थः––जो दिगम्बर मुद्रा का धारक मुनि इन्द्रिय–मनको वशमें करना, छहकायके जीवोंकी दया करना, इसप्रकार संयम सहित हो और आरम्भ अर्थात् गृहस्थके सब आरम्भों से तथा बाह्य–अभ्यन्तर परिग्रह विरक्त हो, इनमें नहीं प्रवर्ते तथा ‘अपि’ शब्द से ब्रह्मचर्य आदि गुणोंसे युक्त हो वह देव–दानव सहित मनुष्यलोक में वंदने योग्य है, अन्य भेषी परिग्रह– आरंभादिसे युक्त पाखंण्डी (ढोंगी) वंदने योग्य नहीं है।।११।। आगे फिर उनकी प्रवृत्तिका विशेष कहते हैंः––
ते होंदि१ वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू।। १२।।
–––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १ पाठान्तर– होंदि
ते देव–दानव –मानवोना लोकत्रयमां वंद्य छे। ११।
बावीश परिषहने सहे छे, शक्तिशतसंयुक्त जे,
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५६] [अष्टपाहुड
ते भवंति वंदनीयाः कर्मक्षय निर्जरा साधवः।। १२।।
अर्थः––जो साधु मुनि अपनी शक्तिके सैकड़ों से युक्त होते हुए क्षुधा, तृषाधिक बाईस परिषहोंको सहते हैं और कर्मोंकी क्षयरूप निर्जरा करने में प्रवीण हैं वे साधु वंदने योग्य हैं। भावार्थः––जो बड़ी शक्तिके धारक साधु हैं वे परीषहों को सहते हैं, परीषह आने पर अपने पदसे च्युत नहीं होते हैं। उनके कर्मों की निर्जरा होती है और वे वन्दने योग्य हैं।।१२।। आगे कहते हैं कि जो दिगम्बर मुद्रा सिवाय कोई वस्त्र धारण करें, सम्यग्दर्शन–ज्ञान से युक्त हों वे इच्छाकार करने योग्य हैंः––
चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जा य।। १३।।
चेलेन च परिगृहीताः ते भणिता इच्छाकारे योग्यः।। १३।।
अर्थः––दिगम्बर मुद्रा सिवाय जो अविशेष लिंगी भेष संयुक्त और सम्यक्त्व सहित
दर्शन–ज्ञान संयुक्त हैं तथा वस्त्र से परिगृहीत हैं, वस्त्र धारण करते हैं वे इच्छाकार करने
योग्य हैं।
भावार्थः––जो सम्यर्ग्शन–ज्ञान संयुक्त हैं और उत्कृष्ट श्रावकका भेष धारण करते हैं,
कहते हैं। इसका अर्थ है कि– मैं आपको इच्छू हूँ, चाहता हूँ ऐसा इच्छामि शब्दका अर्थ है।
इसप्रकारसे इच्छाकार करना जिनसूत्र में कहा है।।१३।।
आगे इच्छाकार योग्य श्रावक का स्वरूप कहते हैंः––