Page 97 of 394
PDF/HTML Page 121 of 418
single page version
चारित्रपाहुड][९७
अर्थः––हे भव्य! तू दर्शन–ज्ञान–चारित्र इन तीनोंको परमश्रद्धा जान, जिनको जानकर योगी मुनि थोड़े ही कालमें निर्वाण को प्राप्त करता है। भावार्थः––सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रयात्मक मोक्षमार्ग है, इसको श्रद्धापूर्वक जाननेका उपदेश है, क्योंकि इसको जाननेमें मुनियोंको मोक्षकी प्राप्ति होती है।। ४०।। आगे कहते हैं कि इसप्रकार निश्चयचारित्ररूप ज्ञानका स्वरूप कहा, जो इसको पाते हैं वे शिवरूप मन्दिरमें रहनेवाले होते हैंः––
अर्थः––जो पुरुष इस जिनभाषित ज्ञानरूप जलको पीकर अपने निर्मल भले प्रकार
विशुद्धभाव संयुक्त होते हैं वे पुरुष तीन भुवन के चूड़ामणि और शिवालय अर्थात् मोक्षरूपी
मन्दिर में रहेन वाले सिद्ध परमेष्ठि होते हैं।
भावार्थः––जैसे जलसे स्नान करके शुद्ध होकर उत्तम पुरुष महलमें निवास करते हैं
इसलिये इस ज्ञानरूप जलसे रागादिक मलको धोकर जो अपनी आत्मा को शुद्ध करते हैं वे
मुक्तिरूप महल में रहकर आनन्द भोगते हैं, उनको तीन भुवनके शिरोमणि सिद्ध कहते हैं।।
४१।।
आगे कहते हैं कि जो ज्ञानगुण से रहित हैं वे इष्ट वस्तुको नहीं पाते हैं, इसलिये गुण
१ पाठान्तरः– पीऊण।
२ पाठान्तरः– पीत्वा।
Page 98 of 394
PDF/HTML Page 122 of 418
single page version
९८] [अष्टपाहुड
इय णाउं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि।। ४२।।
इति ज्ञात्वा गुण दोषौ तत् सद्ज्ञानं विजानीहि।। ४२।।
अर्थः––ज्ञानगुण से हीन पुरुष अपनी इच्छित वस्तुके लाभको नहीं प्राप्त करते,
इसप्रकार जानकर हे भव्य! तू पूर्वोक्त सम्यग्ज्ञानको गुण–दोष के जानने के लिये जान।
भवार्थः––ज्ञान के बिना गुण–दोषका ज्ञान नहीं होता तब अपनी इष्ट तथा अनिष्ट
दोष जाने जाते हैं। क्योंकि सम्यग्ज्ञानके बिना हेय–उपादेय वस्तुओंका जानना नहीं होता और
हेय–उपादेय को जाने बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता है, इसलिये ज्ञान ही को चारित्रसे प्रधान
कहा है।। ४२।।
आगे कहते हैं कि जो सम्यग्ज्ञान सहित चारित्र धारण करता है वह थोड़े ही काल में
पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो।। ४३।।
पृ० ५४।
गुणदोष जाणी ए रीते, सद्ज्ञानने जाणो तमे। ४२।
ज्ञानी चरित्रारूढ थई निज आत्ममां पर नव चहे,
Page 99 of 394
PDF/HTML Page 123 of 418
single page version
चारित्रपाहुड][९९
अर्थः––जो पुरुष ज्ञानी है और चारित्र सहित है वह अपनी आत्मामें परद्रव्यकी इच्छा नहीं करता है, परद्रव्यमें राग–द्वेष–मोह नहीं करता है। वह ज्ञानी जिसकी उपमा नहीं है इसप्रकार, अविनाशी मुक्तिके सुखको पाता है। हे भव्य! तू निश्चय से इसप्रकार जान। यहाँ ज्ञानी होकर हेय–उपादेयको जानकर, संयमी बनकर परद्रव्यको अपने में नहीं मिलाता है वह परम सुख पाता है, –इसप्रकार बताया है।। ४३।। आगे इष्ट चारित्र के कथनका संकोच करते हैंः––
सम्मत्तसंजमासयदुण्हं पि उदेसियं चरणं।। ४४।।
सम्यक्त्वसंयमाश्रयद्वयोरपि उद्देशितं चरणम्।। ४४।।
अर्थः––एवं अर्थात् ऐसे पूर्वोक्त प्रकार संक्षेप से श्री वीतरागदेवने ज्ञानके द्वारा कहे
इसप्रकार सम्यक्त्व और संयम इन दोनोंके आश्रय चारित्र सम्यक्त्वचरणस्वरूप और
संयमचरणस्वरूप दो प्रकारसे उपदेश किया है, आचार्यने चारित्र के कथन को संक्षेपरूप से कह
कर संकोच किया है।। ४४।।
आगे इस चारित्रपाहुडको भाने का उपदेश ओर इसका फल कहते हैंः––
लहु चउगइ चइऊणं अइरेणऽपुणब्भवा होई।। ४५।।
लघु चतुर्गतीः व्यक्त्वा अचिरेण अपुनर्भवाः भवत।। ४५।।
अर्थः––यहाँ आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवों! यह चरण अर्थात् चारित्रपाहुड हमने
स्फुट प्रगट करके बनाया है उसको तुम अपने शुद्ध भाव से भाओ। अपने भावोंमें
जे चरण भाख्युं ते कह्युं संक्षेपथी अहीं आ रीते। ४४।
Page 100 of 394
PDF/HTML Page 124 of 418
single page version
१००] [अष्टपाहुड बारंबार अभ्यास करो, इससे शीघ्र ही चार गतियोंको छोड़कर अपुनर्भव मोक्ष तुम्हें होगा, फिर संसार में जन्म नहीं पाओगे। भावार्थः––इस चारित्रपाहुडको वांचना, पढ़ना, धारण करना, बारम्बार भाना, अभ्यास करना यह उपदेश है, इससे चारित्रका स्वरूप जानकर धारण करने की रुचि हो, अंगीकार करे तब चार गतिरूप संसारके दुःख से रहित होकर निर्वाण को प्राप्त हो, फिर संसारमें जन्म धारण नहीं करे; इसलिये जो कल्याणको चाहते हों वे इसप्रकार करो।। ४५।।
ऐसे सम्यक्त्वचरण चारित्र और संयमचरण चारित्र ––दो प्रकारके चारित्रका स्वरूप इस प्राभृतमें कहा।
Page 101 of 394
PDF/HTML Page 125 of 418
single page version
जा प्रसाद भवि बोध ले, पालैं जीव निकाय।। १।।
इसप्रकार मंगलाचरणके द्वारा श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत प्राकृत गाथाबद्ध ‘बोधपाहुड’ की देश भाषामय वचनिकाका हिन्दी भाषानुवाद लिखते हैं, पहिले आचार्य ग्रन्थ करने की मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैंः––
बंदित्ता आयरिए कसायमलवज्जिदे सुद्धे।। १।।
वोच्छामि समासेण १छक्काचसुहंकरं सुणह।। २।।
वन्दित्वा आचार्यान् कषायमलवर्जितान् शुद्धान्।। १।।
सकलजनबोधनार्थं जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितम्।
वक्ष्यामि समासेन षट्काय सुखंकरं श्रृणु।। २।। युग्मम्।।
वर्जितकषाय, विशुद्ध छे, ते सूरिगणने वंदीने। १।
षट्कायसुखकर कथन करूं संक्षेपथी सुणजो तमे,
जे सर्वजनबोधार्थ जिनमार्गे कह्युं छे जिनवरे। २।
Page 102 of 394
PDF/HTML Page 126 of 418
single page version
१०२] [अष्टपाहुड
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि––मैं आचार्योंको नमस्कार कर, छहकायके जीवों को सुखके करने वाले, जिनमार्गमें जिनदेवने जैसा कहा है वैसे, जिसमें समस्त लोक के हितका ही प्रयोजन है ऐसा ग्रन्थ संक्षेपसे कहूँगा, उसको हे भव्य जीवों! तुम सुनो। जिन आचार्यों की वंदना की वे आचार्य कैसे हैं? बहुत शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले हैं, जिनका तपश्चरण सम्यक्त्व और संयमसे शुद्ध है, कषायरूप मलसे रहित हैं इसलिये शुद्ध हैं। भावार्थः––यहाँ आचार्यों की वंदना की, उनके विशेषणोंसे जाना जाता है कि– गणधरादिक से लेकर अपने गुरुपर्यंत सबकी वंदना है और ग्रन्थ करने की प्रतीज्ञा की उसके विशेषणों से जाना जाता है कि–– जो बोधपाहुड ग्रन्थ करेंगे वह लोगों को धर्ममार्ग में सावधान कर कुमार्ग छुड़ाकर अहिंसा धर्मका उपदेश करेगा।। ३।। आगे इस ‘बोधपाहुड’ में ग्यारह स्थल बांधे हैं उनके नाम कहते हैंः––
भणियं सुवीयरायं जिणमुद्रा णाणमादत्थं।। ३।।
पावज्जगुणविसुद्धा इय णायव्वा जहाकमसो।। ४।।
भणितं सुवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमात्मार्थ१।। ३।।
प्रव्रज्या गुणविशुद्धा इति ज्ञातव्याः यथाक्रमशः।। ४।।
वीतराग जिननुं बिंब, जिनमुद्रा, स्वहेतुक ज्ञान जे। ३।
Page 103 of 394
PDF/HTML Page 127 of 418
single page version
बोधपाहुड][१०३
अर्थः––१ – आयतन, २– चैत्यगृह, ३– जिनप्रतिमा, ४– दर्शन, ५– जिनबिंब। कैसा हैं जिनबिंब? भले प्रकार वीतराग है, ६– जिनमुद्रा राग सहित नहीं होती हैम ७– ज्ञान पद कैसा है? आत्मा ही है अर्थ अर्थात् प्रयोजन जिसमें, इसप्रकार सात तो ये निश्चय, वीरतागदेव ने कहे वैसे तथा अनुक्रम से जानना और ८– देव, ९– तीर्थ, १०– अरहंत तथा गुणसे विशुद्ध ११– प्रवज्या, ये चार जो अरहंत भगवानने कहे वैसे इस ग्रन्थमें जानना, इसप्रकार ये ग्यारह स्थल हुए।। ३–४।। भावार्थः––यहाँ आशय इसप्रकार जानना चाहिये कि––धर्ममार्गमें कालदोषसे अनेक मत हो गये हैं तथा जैनमतमें भी भेद हो गये हैं, उनमें आयतन आदि में विपर्यय (विपरीतपना) हुआ है, उनका परमार्थभूत सच्चा स्वरूप तो लोग जानते नहीं हैं और धर्मके लोभी होकर जैसी बाह्य प्रवृत्ति देखते हैं उसमें ही प्रवर्तने लग जाते हैं, उनको संबोधने के लिये यह ‘बोधपाहुड’ बनाया है। उसमें आयतन आदि ग्यारह स्थानोंका परमार्थभूत सच्चा स्वरूप जैसा सर्वज्ञदेवने कहा है वैसा कहेंगे, अनुक्रम से जैसे नाम कहें हैं वैसे ही अनुक्रमसे इनका व्यख्यान करेंगे सो जानने योग्य है।। ३–४।।
आयतनं जिनमार्गे निर्दिष्टं संयतं रूपम्।। ५।।
अर्थः––जिनमार्ग में संयमसहित मुनिरूप है उसे ‘आयतन’ कहा है। कैसा है मुनिरूप?
––जिसके मन–वचन–काय द्रव्यरूप है वे, तथा पांच इन्द्रियोंके स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द
ये विषय हैं वे, ‘आयत्ता’ अर्थात् अधीन हैं –वशीभूत हैं। उनके (मन–वचन–काय और पांच
Page 104 of 394
PDF/HTML Page 128 of 418
single page version
१०४] [अष्टपाहुड
पंचमहव्वयधारी आयदणं महरिसी भणियं।। ६।।
पंचमहाव्रतधारी आयतनं महर्षयो भणिताः।। ६।।
अर्थः––जिन मुनि के मद, राग, द्वेष, मोह, क्रोध, लोभ और चकारसे माया आदि ये
सब ‘आयत्ता’ निग्रह को प्राप्त हो गये और पाँच महाव्रत जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य
तथा परिग्रहका त्याग उनका धारी हो, ऐसा महामुनि ऋषीश्वर ‘आयतन’ कहा है।
भावार्थः––पहिली गाथा में तो बाह्य का स्वरूप कहा था। यहाँ बाह्य–आभ्यांतर दोनों
आगे फिर कहते हैंः––
सिद्धायदणं सिद्धं मुणिवरवसहस्स मुणिदत्थं।। ७।।
सिद्धायतनं सिद्धं मुनिवरवृषभस्य मुनितार्थम्।। ७।।
अर्थः––जिस मुनि के सदर्थ अर्थात् समीचीन अर्थ जो ‘शुद्ध आत्मा’ सो सिद्ध हो गया
हो वह सिद्धायतन है। कैसा है मुनि? जिसके विशुद्ध ध्यान है, धर्मध्यानको साध कर
शुक्लध्यानको प्राप्त हो गया है; ज्ञानसहित है, केवलज्ञानको प्राप्त हो गया है। घातियाकर्मरूप
मल से रहित है इसलिये मुनियोंमें ‘वृषभ’ अर्थात् प्रधान है, जिसने समस्त पदार्थ जान लिये
हैं। इसप्रकार मुनिप्रधानको ‘सिद्धायतन’ कहते हैं।
ऋषिवर्य पंचमहाव्रती ते आयतन निर्दिष्ट छे। ६।
सुविशुद्धध्यानी, ज्ञानयुत, जेने सुसिद्ध सदर्थ छे,
Page 105 of 394
PDF/HTML Page 129 of 418
single page version
बोधपाहुड][१०५
भावार्थः––इसप्रकार तीन गाथा में ‘आयतन’ का स्वरूप कहा। पहिली गाथा में तो संयमी सामान्यका बाह्यरूप प्रधानता से कहा। दूसरीमें अंतरंग–बाह्य दोनोंकी शुद्धतारूप ऋद्धिधारी मुनि ऋषीश्वर कहा और इस तीसरी गाथामें केवलज्ञानीको, जो मुनियोंमें प्रधान है, ‘सिद्धायतन’ कहा है। यहाँ इसप्रकार जानना जो ‘आयतन’ अर्थात् जिसमें बसे, निवास करे उसको आयतन कहा है, इसलिये धर्मपद्धतिमें जो धर्मात्मा पुरुषके आश्रय करने योग्य हो वह ‘धर्मायतन’ है। इसप्रकार मुनि ही धर्मके आयतन हैं, अन्य कोई भेषधारी, पाखंडी, (–ढ़ोंगी) विषय–कषायोंमें आसक्त, परिग्रहधारी धर्मके आयतन नहीं हैं, तथा जैन मतमें भी जो सूत्रविरुद्ध प्रवर्तते हैं वे भी आयतन नहीं हैं, वे सब ‘अनायतन’ हैं। बौद्धमतमें पाँच इन्द्रिय, उनके पाँच विषय, एक मन, एक धर्मायतन शरीर ऐसे बारह आयतन कहे हैं वे भी कल्पित हैं, इसलिये जैसा यहाँ आयतन कहा वैसा ही जानना; धर्मात्मा को उसी का आश्रय करना, अन्यकी स्तुति, प्रशंसा, विनयादिक न करना, यह बोधपाहुड ग्रन्थ करने का आशय है। जिसमें इसप्रकार के निर्ग्रंन्थ मुनि रहते हैं ऐसे क्षेत्रको भी ‘आयतन’ कहते हैं, जो व्यवहार है।। ७।।
पंचमहव्वय सुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं।। ८।।
पंचमहाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं जानीहि चैत्यगृहम्।। ८।।
अर्थः––जो मुनि ‘बद्ध’ अर्थात् ज्ञानमयी आत्माको जानता हो, अन्य जीवोंको ‘चैत्य’
अर्थात् चेतना स्वरूप जानता हो, आप ज्ञानमयी हो और पाँच महाव्रतहोसे शुद्ध हो, निर्मल हो,
उस मुनिको हे भव्य! तू ‘चैत्यगृह’ जान।
भावार्थः–– जिसमें अपनेको और दूसरे को जाननेवाला ज्ञानी, निष्पाप–निर्मल इसप्रकार
मुनि है, अन्य पाषाण आदिके मंदिरको ‘चैत्यगृह’ कहना व्यवहार है।। ८।।
Page 106 of 394
PDF/HTML Page 130 of 418
single page version
१०६] [अष्टपाहुड
चेइहरं जिणमग्गे छक्कार्याहयंकरं भणियं।। ९।।
चैत्यगृहं जिनमार्गे षड्कायहितंकरं भणितम्।। ९।।
अर्थः––जिसके बंध और मोक्ष, सुख और दुःख हो उस आत्माको चैत्य कहते हैं–अर्थात्
ये चिन्ह जिसके स्वरूपमें हों उसे ‘चैत्य’ कहते हैं, क्योंकि जो चैतन्यस्वरूप हो उसी के बंध,
मोक्ष, सुख, दुःख संभव है। इसप्रकार चैत्य का जो गृह हो वह ‘चैत्यगृह’ है। जिनमार्ग में
इसप्रकार चैत्यगृह छहकायका हित करनेवाला होता है। वह इसप्रकार का ‘मुनि’ है। पाँच
स्थावर और त्रसमें विकलत्रय और असैनी पँचेन्द्रिय तक केवल रक्षा ही करने योग्य हैं,
इसलिये उनकी रक्षा करने का उपदेश करता है, तथा आप उनका घात नहीं करता है यही
उनका हित है; और सैनी पँचेन्द्रिय जीव हैं उनकी रक्षा भी करता है, रक्षाका उपदेश भी
करता है तथा उनको संसार से निवृत्तिरूप मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश करते हैं। इसप्रकार
मुनिराज को ‘चैत्यगृह’ कहते हैं।
भावार्थः––लौकिक जन चैत्यगृह का स्वरूप अन्यथा अनेक प्रकार मानते हैं उनको
‘चैत्यगृह’ है; अन्यको चैत्यगृह कहना, मानना व्यवहार है। इसप्रकार चैत्यगृहका स्वरूप कहा।।
९।।
[३] आगे जिनप्र्रतिमा का निरूपण करते हैंः–– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
Page 107 of 394
PDF/HTML Page 131 of 418
single page version
बोधपाहुड][१०७
णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा।। १०।।
निर्ग्रन्थ वीतरागा जिनमार्गे ईद्दशी प्रतिमा।। १०।।
अर्थः––जिनका चारित्र, दर्शन–ज्ञानसे शुद्ध निर्मल है, उनकी स्व–परा अर्थात् अपनी
और परकी चलती हुई देह है, वह जिनमार्ग में ‘जंगम प्रतिमा’ है; अथवा स्वपरा अर्थात्
आत्मासे ‘पर’ यानी भिन्न है ऐसी देह है। वह कैसी है? जिसका निर्ग्रन्थ स्वरूप है, कुछ भी
परिग्रह का लेश भी नहीं है ऐसी दिगम्बर मुद्रा है। जिसका वीतराग स्वरूप है, किसी वस्तुसे
राग–द्वेष–मोह नहीं है, जिनमार्ग में ऐसी ‘प्रतिमा’ कही हैं। जिनके दर्शन–ज्ञान से निर्मल
चारित्र पाया जाता है, इसप्रकार मुनियोंकी गुरु–शिष्य अपेक्षा अपनी तथा परकी चलती हुई
देह निर्ग्रन्थ वीतरागमुद्रा स्वरूप है, वह जिनमार्ग में ‘प्रतिमा’ हैं अन्य कल्पित है और घातु–
पाषाण आदिसे बनाये हुए दिगम्बर मुद्रा स्वरूप को ‘प्रतिमा’ कहते हैं जो व्यवहार है। वह भी
बाह्य आकृति तो वैसी ही हो वह व्यवहार में मान्य है।। १०।।
आगे फिर कहते हैंः––
सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा।। ११।।
सा भवति वंदनीया निर्ग्रन्था संयता प्रतिमा।। ११।।
अर्थः––जो शुद्ध आचरण का आचरण करते हैं तथा सम्यग्ज्ञानसे यथार्थ वस्तुको जानते
हैं और सम्यग्दर्शनसे अपने स्वरूपको देखते हैं इसप्रकार शुद्धसम्यक्त्व जिनके पाया जाता है
ऐसी निर्ग्रन्थ संयमस्वरूप प्रतिमा है वह वंदन करने योग्य है।
निर्ग्रंथ ने वीतराग, ते प्रतिमा कही जिनशासने। १०।
जाणे–जुए निर्मळ सुदृग सह, चरण निर्मळ आचरे,
Page 108 of 394
PDF/HTML Page 132 of 418
single page version
१०८] [अष्टपाहुड
भावार्थः––जाननेवाला, देखनेवाला, शुद्धसम्यक्त्व, शुद्धचारित्रस्वरूप, निग्रन्र्थ संयमसहित, इसप्रकार मुनिका स्वरूप है वही ‘प्रतिमा’ है, वही वंदन करने योग्य है; अन्य कल्पित चंदन करने योग्य नहीं है और वैसे ही रूपसदृश घातु–पाषाण ही प्रतिमा हो वह व्यवहारसे वंदने योग्य है।। ११।। आगे फिर कहते हैंः––
सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मट्ठबंधेहिं।। १२।।
सिद्धठ्ठाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा।। १३।।
शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ताः कर्माष्टकबंधैः।। १२।।
सिद्धस्थाने स्थिताः व्युत्सर्गप्रतिमा ध्रुवाः सिद्धाः।। १३।।
अर्थः––जो अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनंतसुख सहित हैं; शाश्वत अविनाशी
सुखस्वरूप हैं, अदेह हैं–कर्म नोकर्मरूप पुद्गलमयी देह जिनके नहीं है; अष्टकर्म के बंधनसे
रहित हैं, उपमा रहित हैं––जिसकी उपमा दी जाय ऐसी लोक में वस्तु नहीं है; अचल हैं––
प्रदेशोंका चलना जिनके नहीं है; अक्षोभ हैं––जिनके उपयोग में कुछ क्षोभ नहीं है, निश्चल
हैं––जंगमरूप से निर्मित हैं; कर्मसे निर्मुक्त होनेके बाद एक समयमात्र गमनरूप हैं, इसलिये
जंगमरूप से निर्मापित हैं; सिद्धस्थान जो लोकका अग्रभाग उसमें स्थित हैं; व्युत्सर्ग अर्थात्
कायरहित हैं––जैसा पूर्व शरीर में अकार था वैसा ही प्रदेशोंका आकार–चरम शरीर से कुछ
कम है;
शाश्वतसुखी, अशरीरने कर्माष्टबंधविमुक्त जे। १२।
अक्षोभ–निरूपम–अचल–ध्रुव, उत्पन्न जंगम रूपथी,
Page 109 of 394
PDF/HTML Page 133 of 418
single page version
बोधपाहुड][१०९ धु्रव है––संसारसे मुक्त हो (उसी समय) एक समयमात्र गमन कर लोकके अग्रभाग जाकर स्थित होजाते हैं, फिर चलाचल नहीं होते हैं ऐसी प्रतिमा ‘सिद्ध भगवान’ हैं। भावार्थः––पहिले दो गाथाओंमें तो जंगम प्रतिमा संयमी मुनियोंकि देह सहित कही। इन दो गाथाओंमें ‘ थिरप्रतिमा’ सिद्धोंकी कही, इसप्रकार जंगम थावर प्रतिमा का स्वरूप कहा। अन्य कई अन्यथा बहुत प्रकारसे कल्पना करते हैं वह प्रतिमा वंदन करने योग्य नहीं है। यहाँ प्रश्नः –––––यह तो परमार्थरूप कहा और बाह्य व्यवहार में पाषाणादिक की प्रतिमा की वंदना करते हैं वह कैसे? उसका समाधानः ––जो बाह्य व्यवहार में मतान्तरके भेद से अनेक रीति प्रतिमा की प्रवृत्ति है यहाँ परमार्थ को प्रधान कर कहा है और व्यवहार है वहाँ जैसी प्रतिमाका परमार्थरूप हो उसी को सूचित करता हो वह निर्बाध है। जैसा परमार्थरूप आकार कहा वैसा ही आकाररूप व्यवहार हो वह व्यवहार भी प्रशस्त है; व्यवहारी जीवोंके यह भी वंदन करने योग्य है। स्याद्वाद न्यायसे सिद्ध किये गये परमार्थ और व्यवहार में विरोध नहीं है।। १२–१३।। इसप्रकार जिनप्रतिमा का स्वरूप कहा।
णिग्गंधं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं।। १४।।
निर्ग्रंथं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम्।। १४।।
अर्थः––जो मोक्ष मार्ग को दिखाता है वह ‘दर्शन’ है, मोक्षमार्ग कैसा है?––सम्यक्त्व
अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वस्वरूप है, संयम अर्थात् चारित्र–पंचमहाव्रत, पंचसमिति,
तीन गुप्ति ऐसे तेरह प्रकार चारित्ररूप है, सुधर्म अर्थात् उत्तम–क्षमादिक दसलक्षण धर्मरूप है,
निर्ग्रन्थरूप है–बाह्याभ्यंतर परिग्रह रहित है,
Page 110 of 394
PDF/HTML Page 134 of 418
single page version
११०] [अष्टपाहुड ज्ञानमयी है–––जीव अजीवादि पदार्थोंको जानने वाला है। यहाँ ‘निर्ग्रन्थ’ और ‘ज्ञानमयी’ ये दो विशेषण दर्शन के भी होते हैं, क्योंकि दर्शन है सो बाह्य तो इसकी मूर्ति निर्ग्रन्थ है और अंतरंग ज्ञानमयी है। इसप्रकार मुनिके रूपको जिनागम में ‘दर्शन’ कहा है तथा ऐसे रूपके श्रद्धानरूप सम्यक्त्वस्वरूप को ‘दर्शन’ कहते हैं। भावार्थः––परमार्थरूप ‘अंतरंग दर्शन’ तो सम्यक्त्व है और ‘बाह्य’ उसकी मूर्ति, ज्ञानसहित ग्रहण किया निर्ग्रन्थ रूप, इसप्रकार मुनिका रूप है सो ‘दर्शन’ है, क्योंकि मतकी मूर्तिको दर्शन कहना लोकमें प्रसिद्ध है।। १४।। आगे फिर कहते हैंः––
तह दंसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रूवत्थं।। १५।।
तथा दर्शनं हि सम्यक् ज्ञानमयं भवति रूपस्थम्।। १५।।
अर्थः––जैसे फूल गंधमयी है, दूध घृतमयी है वैसे ही दर्शन अर्थात् मत में सम्यक्त्व है।
कैसा है दर्शन? अंतरंग में ज्ञानमयी है और बाह्य रूपस्थ है––मुनि का रूप है तथा उत्कृष्ट
श्रावक, अर्जिकाका रूप है।
भावार्थः––‘दर्शन’ नाम का मत प्रसिद्ध है। यहाँ जिनदर्शन में मुनि श्रावक और
जानना। ये होनों ही ज्ञानमयी हैं, यथार्थ तत्त्वार्थका जाननेरूप सम्यक्त्व जिसमें पाया जाता है,
इसीलिये फूलमें गंधका और दूधमें घृतका दृष्टांत युक्त है; इसप्रकार दर्शनका रूप कहा।
अन्यमतमें तथा कालदोष से जिनमतमें जैनाभास भेषी अनेक प्रकार अन्यथा कहते हैं जो
कल्याणरूप नहीं हैं, संसारका कारण है।। १५।।
[५] आगे जिनबिम्बका निरूपण करते हैंः–––
Page 111 of 394
PDF/HTML Page 135 of 418
single page version
बोधपाहुड][१११
जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा।। १६।।
यत् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे।। १६।।
अर्थः––जिनबिंब कैसा है? ज्ञानमयी है, संयमसे शुद्ध है, अतिशयकर वीतराग है,
कर्मके क्षयका कारण और शुद्ध है––इसप्रकार की दीक्षा और शिक्षा देता है।
भावार्थः––जो ‘जिन’ अर्थात् अरहन्त सर्वज्ञका प्रतिबिंब कहलाता है; उसकी जगह
अर्थात् विधान बताना, ये दोनों भव्य जीवोंको देते हैं। इसलिये १––प्रथम तो वह आचार्य
ज्ञानमयी हो, जिनसूत्रका उनको ज्ञान हो, ज्ञान बिना यथार्थ दीक्षा–शिक्षा कैसे हो? और २–
–आप संयम से शुद्ध हो, यदि इसप्रकार न हो तो अन्य को भी संयमसे शुद्ध नहीं करा
सकते। ३––अतिशय–विशेषतया वीतराग न हो तो कषायसहित हो, तब दीक्षा, शिक्षा यथार्थ
नहीं दे सकते हैं; अतः इसप्रकार आचार्य को जिनका प्रतिबिम्ब जानना।। १६।।
आगे फिर कहते हैंः––
जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणाभावो।। १७।।
यस्य च दर्शनंज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः।। १७।।
दीक्षा तथा शिक्षा करमक्षयहेतु आपे शुद्ध जे। १६।
तेनी करो पूजा विनय–वात्सल्य–प्रणमन तेहने,
Page 112 of 394
PDF/HTML Page 136 of 418
single page version
११२] [अष्टपाहुड
अर्थः––इसप्रकार पूर्वोक्त जिनबिंब को प्रणाम करो और सर्वप्रकार पूजा करो, विनय करो, वात्सल्य को, क्योंकि – उसके ध्रुव अर्थात् निश्चयसे दर्शन–ज्ञान पाया जाता है और चेतनाभाव है। भावार्थः––दर्शन–ज्ञानमयी चेतनाभाव सहित जिनबिंब आचार्य हैं, उनको प्रणामादिक करना। यहाँ परमार्थ प्रधान कहा है, जड़ प्रतिबिंब की गौणता है ।। १७।। आगे फिर कहते हैंः––
अरहन्तमुद्द एसा दायारी दिक्खसिक्खा य।। १८।।
अर्हन्मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिक्षाणां च।। १८।।
अर्थः––जो तप, व्रत और गुण अर्थात् उत्तर गुणोंसे शुद्ध हों, सम्यग्ज्ञान से पदार्थों हो
जानते हों, सम्यग्दर्शनसे पदार्थोंको देखते हों इसीलिये जिनके शुद्ध सम्यक्त्व है इसप्रकार
जिनबिंब आचार्य हैं। यह दीक्षा – शिक्षा की देनेवाली अरहंत मुद्रा है।
भावार्थः––इसप्रकार जिनबिंब है वह जिन मुद्रा ही है––––ऐसा जिनबिंब का स्वरूप
मुद्रा इह णाणाए जिणमुद्रा एरिसा भणिया।। १९।।
मुद्रा इह ज्ञानेन जिनमुद्रा ईद्रशी भणिता।। १९।।
दीक्षा–सुशिक्षादायिनी अर्हंतमुद्रा तेह छे। १८।
इन्द्रिय–कषायनिरोधमय मुद्रा सुद्रढ संयममयी,
Page 113 of 394
PDF/HTML Page 137 of 418
single page version
बोधपाहुड][११३
अर्थः––दृढ़ अर्थात् वज्रवत चलाने पर भी न चले ऐसा संयम इन्द्रिय मनका वश करना, षट्जीव निकाय की रक्षा करना, इसप्रकार संयमरूप मुद्रा से तो पाँच इन्द्रियोंको विषयों में न प्रवर्ताना, उनका संकोच करना यह तो इन्द्रियमुद्रा है ओर इसप्रकार संयम द्वारा ही जिसमें कषायोंकी प्रवृत्ति नहीं है ऐसी कषायदृढ़ मुद्रा है, तथा ज्ञानका स्वरूप में लगाना, इसप्रकार ज्ञान द्वारा सब बाह्यमुद्रा शुद्ध होती है। इसप्रकार जिनशासन में ऐसी ‘जिनमुद्रा’ होती है। भावार्थः––१– जो संयम सहित हो, २–जिनके इन्द्रियाँ वश में हों, ३–कषायोंकी प्रवृत्ति न होती हो और ४–ज्ञानको स्वरूप में लगाता हो, ऐसा मुनि हो सो ही ‘जिनमुद्रा’ है।। १९।। [७] आगे ज्ञान का निरूपण करते हैं।
णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं।। २०।।
अर्थः––संयम से संयुक्त और ध्यान के योग्य इसप्रकार जो मोक्षमार्ग उसका लक्ष्य
अर्थात् लक्षणे योग्य–जाननेयोग्य निशाना जो अपना निजस्वरूप वह ज्ञान द्वारा पाया जाता है,
इसलिये इसप्रकार के लक्ष्यको जानने के ज्ञान को जानना।
भावार्थः––संयम अंगीकार कर ध्यान करे और आत्माका स्वरूप न जाने तो मोक्षमार्ग
।।२०।।
आगे इसी को दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैंः––
Page 114 of 394
PDF/HTML Page 138 of 418
single page version
११४] [अष्टपाहुड
तह णवि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स।। २१।।
अर्थः––जैसे वेधने वाला (वेधक) जो बाण, उससे रहित ऐसा जो पुरुष है वह कांड
रहित अज्ञानी है वह दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जो मोक्षमार्ग उसका लक्ष्य अर्थात् स्वलक्षण जानने
योग्य परमात्मा का स्वरूप, उसको नहीं प्राप्त कर सकता।
भावार्थः––धनुष धारी धनुष के अभ्यास से रहित और ‘वेधक’ जो बाण उससे रहित
जो परमात्मा का स्वरूप है उसको न पहिचाने तब मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती है, इसलिये
ज्ञान को जानना चाहिये। परमात्मारूप निशाना ज्ञानरूपबाण द्वारा वेधना योग्य है।। २१।।
आगे कहते हैं कि इसप्रकार ज्ञान–विनयसंयुक्त पुरुष होवे वही मोक्षको प्राप्त करता
णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स।। २२।।
ज्ञानेन लभते लक्ष्यं लक्षयन् मोक्षमार्गस्य।। २२।।
अर्थः––ज्ञान पुरुषको होता है और पुरुष ही विनयसंयुक्त हो सो ज्ञानको प्राप्त करता
है; जब ज्ञानको प्राप्त करता है तब उस ज्ञान द्वारा ही मोक्षमार्ग का लक्ष्य जो ’परमात्मा
स्वरूप’ उसको लक्षता–देखता–ध्यान करता हुआ उस लक्ष्यको प्राप्त करता है।
अज्ञानी तेम करे न लक्षित मोक्षपथना लक्ष्यने। २१।
Page 115 of 394
PDF/HTML Page 139 of 418
single page version
बोधपाहुड][११५
भावार्थः––ज्ञान पुरुषके होता है और पुरुष ही विनयवान होवे सो ज्ञानको प्राप्त करता है, उस ज्ञान द्वारा ही शुद्ध आत्माका स्वरूप जाना जाता है, इसलिये विशेष ज्ञानियों के विनय द्वारा ज्ञान की प्राप्ति करनी–क्योंकि निज शुद्ध स्वरूपको जानकर मोक्ष प्राप्त किया जाता है। यहाँ जो विनयरहित हो, यथार्थ सूत्रपदसे चिगा हो, भ्रष्ट हो गया हो उसका निषेध जानना।। २२।। आगे इसी को दृढ़ करते हैः––
परमत्थ बद्धलक्खो णवि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स।। २३।।
परमार्थबद्धलक्ष्यः नापि स्खलति मोक्षमार्गस्य।। २३।।
अर्थः––जिस मुनिके मतिज्ञानरूप धनुष स्थिर हो, श्रुतज्ञानरूप गुण अर्थात् प्रत्यंचा हो,
रत्नत्रयरूप उत्तम बाण हो और परमार्थस्वरूप निजशुद्धात्मस्वरूपका संबंधरूप लक्ष्य हो, वह
मुनि मोक्षमार्ग को नहीं चूकता है।
भावार्थः––धनुषकी सब सामग्री यथावत् मिले तब निशाना नहीं चूकता है, वैसे ही
मोक्षको प्राप्त होता है। यह ज्ञान का महात्म्य है, इसलिये जिनागमके अनुसार सत्यार्थ
ज्ञानियोंका विनय करके ज्ञानका साधन करना।। २३।।
इसप्रकार ज्ञानका निरूपण किया।
[८] आगे देवका स्वरूप कहते हैः––
Page 116 of 394
PDF/HTML Page 140 of 418
single page version
११६] [अष्टपाहुड
सो देइ जस्स अत्थि हु अत्थो धम्मो य पव्वमज्जा।। २४।।
सः ददाति यस्य अस्ति तु अर्थः धर्मः च प्रव्रज्या।। २४।।
अर्थः––देव उसको कहते हैं जो अर्थ अर्थात् धन, काम अर्थात् इच्छा का विषय–ऐसा
पास हो सो देवे और जिसके पास न हो सो कैसे देवे? इस न्याय से अर्थ, धर्म, स्वर्गादिके
भोग और मोक्ष सुख का कारण प्रवज्या अर्थात् दीक्षा जिसका हो उसको ‘देव’ जानना।। २४।।
आगे धर्मादि का स्वरूप कहते हैं, जिनके जानने से देवादि का स्वरूप जाना जाता हैः–
देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं।। २५।।
देवः व्यपगतमोहः उदयकरः भव्यजीवानाम्।। २५।।
अर्थः––जो दया से विशुद्ध है वह धर्म है, जो सर्व परिग्रह से रहित है वह प्रवज्या है,
भावार्थः––लोक में यह प्रसिद्ध है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुष के
कि जिसके पास जो वस्तु हो वह दूसरे को देवे, न हो तो कहाँ से लावे? इसलिये यह चार
पुरुषार्थ जिन देव के पाये जाते हैं।
ते वस्तु दे छे ते ज, जेने धर्म–दीक्षा–अर्थ छे। २४।
ते धर्म जेह दयाविमळ, दीक्षा परिग्रहमुक्त जे,