कारतक : २४७२ भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक : ३ :
आत्मधर्म
शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक
वष ३ अक १
करतक २४७२२
श्री गुरु स्तुति
ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जिहाज;
आप तिरहिं पर तारहिं, एसे श्री ऋषिराज.ते गुरु०
मोह महारिपु जानि कै, छांडयो सब घरबार
होय दिगंबर वन बसे, आतम शुद्ध विचार.ते कुंद प्रभु०
रोग – उरग – विल वपु गिण्यो, भोग भुजंग समान
कदल तरु ससर ह, त्यग्य सब यह जान.त गरु०
रतनत्रय निधि उर धरै, अरु निरग्रंथ त्रिकाल
मार्यो काम खवीस को, स्वामी परम दयाल.ते कुंद प्रभु०
पंच महाव्रत आदरे, पांचों समिति समेत
तीन गुपति पालै सदा, अजर अमर पद हेत.ते गुरु०
धर्म धरैं दश लाछनी, भावै भावन सार
सहै परिषह बीस – द्वै, चारित रतन भंडार.ते कुंद प्रभु०
जेठ तपै रवि आकरो, सुखैं सर वर नीर
शैल – शिखर मुनि तप तपै, दाझैं नगन शरीर.ते गुरु०
पवस रन डरवन, बरस जल धरधर
तरुतल निवसै तब यती बाजे झंझा व्यार.ते कुंद प्रभु०
शीत पडै कपि – मद गलै, दाहै सब वन राय
ताल तरंगनि के तटैं, ढाडे ध्यान लगाय.ते गुरु०
ईहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों काल मंझार
लागे सहज सरूपमे, तनसों मत निवार.ते कुंद प्रभु०
पूरव भोग न चिंतवैं, आगम बांछै नाहिं
चहुं गति के दु:खसों डरै, सुरति लगी शिवमाहिं.ते गुरु०
रंग महलमें पौढते, कोमल सेज बिछाय
ते पच्छिम निशि भूमिैं, सोवें संवरि काय.ते कुंद प्रभु०
गज चढ चलत गरवसों, सन सजी चतरग
निरखि निरखि पग वे धरैं, पालैं करुणा अंग.ते गुरु०
वे गुरु चरण जहां धरै, जगमैं तीरथ जेह
सो रज म मस्तक चढो, ‘भूधर’ मांगे एह.ते कुंद प्रभु०
श्री जीनेन्द्र स्तवन मंजरी पानुं–३०४
सत्देव–गुरु अने शास्त्रनुं यथार्थ स्वरूप समजावनार
सत्पुरुष श्री कानजी स्वामीने नमस्कार हो