Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). 4. vyavahAr chAritra adhikAr; 5. parmArth pratikramaN adhikAr; 6. nishchay pratyAkhyAn adhikAr; 7. param AlochanA adhikAr; 8. shuddhanishchaya prayashchitt adhikAr; 9. param samAdhi adhikAr; 10 param bhakti adhikAr; 11. nishchay paramAvashyak adhikAr; 12. shuddhopayog adhikAr; AshtaprAbhut; 1. darshan prAbhrut; 2. sutra prAbhrut:.

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पूर्वोक्त भावो पर-दरव परभाव, तेथी हेय छे;
आत्मा ज छे आदेय, अंतःतत्त्वरूप निजद्रव्य जे. ५०.
श्रद्धान विपरीत-अभिनिवेशविहीन ते सम्यक्त्व छे;
संशय-विमोह-विभ्रांति विरहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान छे. ५१.
चल-मल-अगाढपणा रहित श्रद्धान ते सम्यक्त्व छे;
आदेय-हेय पदार्थनो अवबोध सम्यग्ज्ञान छे. ५२.
जिनसूत्र समकितहेतु छे, ने सूत्रज्ञाता पुरुष जे
ते जाण अंतर्हेतु, द्रग्मोहक्षयादिक जेमने. ५३.
सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान तेम ज चरण मुक्तिपंथ छे;
तेथी कहीश हुं चरणने व्यवहार ने निश्चय वडे. ५४.
व्यवहारनयचारित्रमां व्यवहारनुं तप होय छे;
तप होय छे निश्चय थकी, चारित्र ज्यां निश्चयनये. ५५.
४. व्यवहारचारित्र अधिकार
जीवस्थान, मार्गणस्थान, योनि, कुलादि जीवनां जाणीने,
आरंभथी निवृत्तिरूप परिणाम ते व्रत प्रथम छे. ५६.
विद्वेष-राग-विमोहजनित मृषा तणा परिणामने
जे छोडता मुनिराज, तेने सर्वदा व्रत द्वितीय छे. ५७.
नगरे, अरण्ये, ग्राममां को वस्तु परनी देखीने
छोडे ग्रहणपरिणाम जे, ते पुरुषने व्रत तृतीय छे. ५८.
स्त्रीरूप देखी स्त्री प्रति अभिलाषभावनिवृत्ति जे,
वा मिथुनसंज्ञारहित जे परिणाम ते व्रत तुर्य छे. ५९.

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निरपेक्ष भावन सहित सर्व परिग्रहोनो त्याग जे,
ते जाणवुं व्रत पांचमुं चारित्रभर वहनारने. ६०.
अवलोकी मार्ग धुराप्रमाण करे गमन मुनिराज जे
दिवसे ज प्रासुक मार्गमां, ईर्यासमिति तेहने. ६१.
निजस्तवन, परनिंदा, पिशुनता, हास्य, कर्कश वचनने
छोडी स्वपरहित जे वदे, भाषासमिति तेहने. ६२.
अनुमनन-कृत-कारितविहीन, प्रशस्त, प्रासुक अशनने
परदत्तने मुनि जे ग्रहे, एषणसमिति तेहने. ६३.
शास्त्रादि ग्रहतां-मूकतां मुनिना प्रयत परिणामने
आदाननिक्षेपण समिति कहेल छे आगम विषे. ६४.
जे भूमि प्रासुक, गूढ ने उपरोध ज्यां परनो नहीं,
मळत्याग त्यां करनारने समिति प्रतिष्ठापन तणी. ६५.
कालुष्य, संज्ञा, मोह, राग, द्वेष आदि अशुभना
परिहारने मनगुप्ति छे भाखेल नय व्यवहारमां. ६६.
स्त्री-राज-भोजन-चोरकथनी हेतु छे जे पापनी
तसु त्याग, वा अलीकादिनो जे त्याग, गुप्ति वचननी. ६७.
वध, बंध ने छेदनमयी, विस्तरण-संकोचनमयी
इत्यादि कायक्रिया तणी निवृत्ति तनगुप्ति कही. ६८.
मनमांथी जे रागादिनी निवृत्ति ते मनगुप्ति छे;
अलीकादिनी निवृत्ति अथवा मौन वाचागुप्ति छे. ६९.
जे कायकर्मनिवृत्ति कायोत्सर्ग ते तनगुप्ति छे;
हिंसादिनी निवृत्तिने वळी कायगुप्ति कहेल छे. ७०.

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घनघातिकर्म विहीन ने चोत्रीश अतिशय युक्त छे,
कैवल्यज्ञानादिक परमगुण युक्त श्री अर्हंत छे. ७१.
छे अष्ट कर्म विनष्ट, अष्ट महागुणे संयुक्त छे,
शाश्वत, परम ने लोक-अग्रविराजमान श्री सिद्ध छे. ७२.
परिपूर्ण पंचाचारमां, वळी धीर गुणगंभीर छे,
पंचेन्द्रिगजना दर्पदलने दक्ष श्री आचार्य छे. ७३.
रत्नत्रये संयुक्त ने निःकांक्षभावथी युक्त छे,
जिनवरकथित अर्थोपदेशे शूर श्री उवझाय छे. ७४.
निर्ग्रंथ छे, निर्मोह छे, व्यापारथी प्रविमुक्त छे,
चौविध आराधन विषे नित्यानुरक्त श्री साधु छे. ७५.
आ भावनामां जाणवुं चारित्र नय व्यवहारथी;
आना पछी भाखीश हुं चारित्र निश्चयनय थकी. ७६.
५. परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
नारक नहीं, तिर्यंच-मानव-देवपर्यय हुं नहीं;
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहीं. ७७.
हुं मार्गणास्थानो नहीं, गुणस्थान-जीवस्थानो नहीं;
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहीं. ७८.
हुं बाळ-वृद्ध-युवान नहि, हुं तेमनुं कारण नहीं;
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहीं. ७९.
हुं राग-द्वेष न, मोह नहि, हुं तेमनुं कारण नहीं;
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहीं. ८०.

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हुं क्रोध नहि, नहि मान, तेम ज लोभ-माया छुं नहीं;
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहीं. ८१.
आ भेदना अभ्यासथी माध्यस्थ थई चारित बने;
प्रतिक्रमण आदि कहीश हुं चारित्रद्रढता कारणे. ८२.
रचना वचननी छोडीने, रागादिभाव निवारीने,
जे जीव ध्यावे आत्मने, ते जीवने प्रतिक्रमण छे. ८३.
छोडी समस्त विराधना, आराधनामां जे रहे,
ते प्रतिक्रमण कहेवाय छे, प्रतिक्रमणमयता कारणे. ८४.
जे छोडी अण-आचारने, आचारमां स्थिरता करे,
ते प्रतिक्रमण कहेवाय छे, प्रतिक्रमणमयता कारणे. ८५.
परित्यागी जे उन्मार्गने, जिनमार्गमां स्थिरता करे,
ते प्रतिक्रमण कहेवाय छे, प्रतिक्रमणमयता कारणे. ८६.
जे साधु छोडी शल्यने, निःशल्यभावे परिणमे,
ते प्रतिक्रमण कहेवाय छे, प्रतिक्रमणमयता कारणे. ८७.
जे साधु छोडी अगुप्तिभाव, त्रिगुप्तिगुप्तपणे रहे,
ते प्रतिक्रमण कहेवाय छे, प्रतिक्रमणमयता कारणे. ८८.
तजी आर्त तेम ज रौद्रने, ध्यावे धरमने, शुक्लने
ते प्रतिक्रमण कहेवाय छे, जिनवरकथित सूत्रो विषे. ८९.
मिथ्यात्व-आदिक भावने चिरकाळ भाव्या छे जीवे;
सम्यक्त्व-आदिक भाव रे! भाव्या नथी पूर्वे जीवे. ९०.
निःशेष मिथ्याज्ञान-दर्शन-चरणने परित्यागीने,
सुज्ञान-दर्शन-चरण भावे, जीव ते प्रतिक्रमण छे. ९१.

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आत्मा ज उत्तम-अर्थ छे, तत्रस्थ मुनि कर्मो हणे;
ते कारणे बस ध्यान उत्तम-अर्थनुं प्रतिक्रमण छे. ९२.
रही ध्यानमां तल्लीन, छोडे साधु दोष समस्तने;
ते कारणे बस ध्यान सौ अतिचारनुं प्रतिक्रमण छे. ९३.
प्रतिक्रमणनामक सूत्रमां ज्यम वर्णव्युं प्रतिक्रमणने
त्यम जाणी भावे भावना, तेने तदा प्रतिक्रमण छे. ९४.
६. निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
परित्यागी जल्प समस्तने, भावी शुभाशुभ वारीने,
जे जीव ध्यावे आत्मने, पचखाण छे ते जीवने. ९५.
केवलदरश, केवलवीरज, कैवल्यज्ञानस्वभावी छे,
वळी सौख्यमय छे जेह ते हुंएम ज्ञानी चिंतवे. ९६.
निजभावने छोडे नहीं, परभाव कंई पण नव ग्रहे,
जाणे-जुए जे सर्व, ते हुंएम ज्ञानी चिंतवे. ९७.
प्रकृति-स्थिति-परदेश-अनुभवबंध विरहित जीव जे
छुं ते ज हुंत्यम भावतो, तेमां ज ते स्थिरता करे. ९८.
परिवर्जुं छुं हुं ममत्व, निर्मम भावमां स्थित हुं रहुं;
अवलंबुं छुं मुज आत्मने, अवशेष सर्व हुं परिहरुं. ९९.
मुज ज्ञानमां आत्मा खरे, दर्शन-चरितमां आतमा,
पचखाणमां आत्मा ज, संवर-योगमां पण आतमा. १००.

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जीव एकलो ज मरे, स्वयं जीव एकलो जन्मे अरे!
जीव एकनुं नीपजे मरण, जीव एकलो सिद्धि लहे. १०१.
मारो सुशाश्वत एक दर्शनज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे. १०२.
जे कांई पण दुश्चरित मुज ते सर्व हुं त्रिविधे तजुं;
करुं छुं निराकार ज समस्त चरित्र जे त्रयविधनुं. १०३.
सौ भूतमां समता मने, को साथ वेर मने नहीं;
आशा खरेखर छोडीने प्राप्ति करुं छुं समाधिनी. १०४.
अकषाय, उद्यमी, दान्त छे, संसारथी भयभीत छे,
शूरवीर छे, ते जीवने पचखाण सुखमय होय छे. १०५.
जीव-कर्म केरा भेदनो अभ्यास जे नित्ये करे,
ते संयमी पचखाण-धारणमां अवश्य समर्थ छे. १०६.
७. परम-आलोचना अधिकार
ते श्रमणने आलोचना, जे श्रमण ध्यावे आत्मने,
नोकर्मकर्म-विभावगुणपर्यायथी व्यतिरिक्तने. १०७.
आलोचनानुं रूप चउविध वर्णव्युं छे शास्त्रमां,
आलोचना, आलुंछना, अविकृतिकरण ने शुद्धता. १०८.
समभावमां परिणाम स्थापी देखतो जे आत्मने,
ते जीव छे आलोचनाजिनवरवृषभ-उपदेश छे. १०९.
छे कर्मतरुमूलछेदनुं सामर्थ्य जे परिणाममां,
स्वाधीन ते समभाव-निजपरिणाम आलुंछन कह्या. ११०.

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अविकृतिकरण तेने कह्युं जे भावतां माध्यस्थने,
भावे विमळगुणधाम कर्मविभक्त आतमरामने. १११.
त्रण लोक तेम अलोकना द्रष्टा कहे छे भव्यने,
मदमानमायालोभवर्जित भाव भावविशुद्धि छे. ११२.
८. शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार
व्रत, समिति, संयम, शील, इन्द्रियरोधरूप छे भाव जे
ते भाव प्रायश्चित्त छे, जे अनवरत कर्तव्य छे. ११३.
क्रोधादि निज भावो तणा क्षय आदिनी जे भावना
ने आत्मगुणनी चिंतना निश्चयथी प्रायश्चित्तमां. ११४.
जीते क्षमाथी क्रोधने, निज मार्दवेथी मानने,
आर्जव थकी माया खरे, संतोष द्वारा लोभने. ११५.
उत्कृष्ट निज अवबोधने वा ज्ञानने वा चित्तने
धारण करे छे नित्य, प्रायश्चित्त छे ते साधुने. ११६.
बहु कथन शुं करवुं? अरे! सौ जाण प्रायश्चित्त तुं,
नानाकरमक्षयहेतु उत्तम तपचरण ॠषिराजनुं. ११७.
रे ! भव अनंतानंतथी अर्जित शुभाशुभ कर्म जे
ते नाश पामे तप थकी; तप तेथी प्रायश्चित्त छे. ११८.
आत्मस्वरूप अवलंबनारा भावथी सौ भावने
त्यागी शके छे जीव, तेथी ध्यान ते सर्वस्व छे. ११९.
छोडी शुभाशुभ वचनने, रागादिभाव निवारीने,
जे जीव ध्यावे आत्मने, तेने नियमथी नियम छे. १२०.

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कायादि परद्रव्यो विषे स्थिरभाव छोडी आत्मने
ध्यावे विकल्पविमुक्त, कायोत्सर्ग छे ते जीवने. १२१.
९. परम-समाधि अधिकार
वचनोच्चरणकिरिया तजी, वीतराग निज परिणामथी
ध्यावे निजात्मा जेह, परम समाधि तेने जाणवी. १२२.
संयम, नियम ने तप थकी, वळी धर्म-शुक्लध्यानथी,
ध्यावे निजात्मा जेह, परम समाधि तेने जाणवी. १२३.
वनवास वा तनक्लेशरूप उपवास विधविध शुं करे?
रे! मौन वा पठनादि शुं करे साम्यविरहित श्रमणने? १२४.
सावद्यविरत, त्रिगुप्त छे, इन्द्रियसमूह निरुद्ध छे,
स्थायी समायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने. १२५.
स्थावर अने त्रस सर्व भूतसमूहमां समभाव छे,
स्थायी समायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने. १२६.
संयम, नियम ने तप विषे आत्मा समीप छे जेहने,
स्थायी समायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने. १२७.
नहि राग अथवा द्वेषरूप विकार जन्मे जेहने,
स्थायी समायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने. १२८.
जे नित्य वर्जे आर्त तेम ज रौद्र बन्ने ध्यानने,
स्थायी समायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने. १२९.
जे नित्य वर्जे पुण्य तेम ज पाप बन्ने भावने,
स्थायी समायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने. १३०.

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जे नित्य वर्जे हास्यने, रति अरति तेम ज शोकने,
स्थायी समायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने. १३१.
जे नित्य वर्जे भय जुगुप्सा, वर्जतो सौ वेदने,
स्थायी समायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने. १३२.
जे नित्य ध्यावे धर्म तेम ज शुक्ल उत्तम ध्यानने,
स्थायी समायिक तेहने भाख्युं श्री केवळीशासने. १३३.
१०. परम-भक्ति अधिकार
श्रावक श्रमण सम्यक्त्व-ज्ञान-चरित्रनी भक्ति करे,
निर्वाणनी छे भक्ति तेने एम जिनदेवो कहे. १३४.
वळी मोक्षगत पुरुषो तणो गुणभेद जाणी तेमनी
जे परम भक्ति करे, कही शिवभक्ति त्यां व्यवहारथी. १३५.
शिवपंथ स्थापी आत्मने निर्वाणनी भक्ति करे,
ते कारणे असहायगुण निज आत्मने आत्मा वरे. १३६.
रागादिना परिहारमां जे साधु जोडे आत्मने,
छे योगभक्ति तेहने; कई रीत संभव अन्यने ? १३७.
सघळा विकल्प अभावमां जे साधु जोडे आत्मने,
छे योगभक्ति तेहने; कई रीत संभव अन्यने ? १३८.
विपरीत आग्रह छोडीने, जैनाभिहित तत्त्वो विषे
जे जीव जोडे आत्मने, निज भाव तेनो योग छे. १३९.
वृषभादि जिनवर ए रीते करी श्रेष्ठ भक्ति योगनी,
शिवसौख्य पाम्या; तेथी कर तुं भक्ति उत्तम योगनी. १४०.

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११. निश्चय-परमावश्यक अधिकार
नथी अन्यवश जे जीव, आवश्यक करम छे तेहने;
आ कर्मनाशनयोगने निर्वाणमार्ग कहेल छे. १४१.
वश जे नहीं ते ‘अवश’, ‘आवश्यक’ अवशनुं कर्म छे;
ते युक्ति अगर उपाय छे, अशरीर तेथी थाय छे. १४२.
वर्ते अशुभ परिणाममां, ते श्रमण छे वश अन्यने;
ते कारणे आवश्यकात्मक कर्म छे नहि तेहने. १४३.
संयत रही शुभमां चरे, ते श्रमण छे वश अन्यने;
ते कारणे आवश्यकात्मक कर्म छे नहि तेहने. १४४.
जे चित्त जोडे द्रव्य-गुण-पर्यायनी चिंता विषे,
तेनेय मोहविहीन श्रमणो अन्यवश भाखे अरे! १४५.
परभाव छोडी, आत्मने ध्यावे विशुद्धस्वभावने,
छे आत्मवश ते साधु, आवश्यक करम छे तेहने. १४६.
आवश्यकार्थे तुं निजात्मस्वभावमां स्थिरता करे;
तेनाथी सामायिक तणो गुण पूर्ण थाये जीवने. १४७.
आवश्यके विरहित श्रमण चारित्रथी प्रभ्रष्ट छे;
तेथी यथोक्त प्रकार आवश्यक करम कर्तव्य छे. १४८.
आवश्यके संयुक्त योगी अंतरात्मा जाणवो;
आवश्यके विरहित श्रमण बहिरंग आत्मा जाणवो. १४९.
जे बाह्य-अंतर जल्पमां वर्ते, अरे! बहिरात्म छे;
जल्पो विषे वर्ते नहीं, ते अंतरात्मा जीव छे. १५०.
वळी धर्मशुक्लध्यानपरिणत अंतरात्मा जाणजे;
ने ध्यानविरहित श्रमणने बहिरंग आत्मा जाणजे. १५१.

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प्रतिक्रमण आदि क्रियाचरण निश्चय तणुंकरतो रहे,
तेथी श्रमण ते वीतराग चरित्रमां आरूढ छे. १५२.
रे ! वचनमय प्रतिक्रमण, नियमो, वचनमय पचखाण जे,
जे वचनमय आलोचना, सघळुंय ते स्वाध्याय छे. १५३.
करी जो शके, प्रतिक्रमण आदि ध्यानमय करजे अहो!
कर्तव्य छे श्रद्धा ज, शक्तिविहीन जो तुं होय तो. १५४.
प्रतिक्रमण-आदि स्पष्ट परखी जिन-परमसूत्रो विषे,
मुनिए निरंतर मौनव्रत सह साधवुं निज कार्यने. १५५.
छे जीव विधविध, कर्म विधविध, लब्धि छे विधविध अरे !
ते कारणे निजपरसमय सह वाद परिहर्तव्य छे. १५६.
निधि पामीने जन कोई निज वतने रही फळ भोगवे,
त्यम ज्ञानी परजनसंग छोडी ज्ञाननिधिने भोगवे. १५७.
सर्वे पुराण जनो अहो ए रीत आवश्यक करी,
अप्रमत्त आदि स्थानने पामी थया प्रभु केवळी. १५८.
१२. शुद्धोपयोग अधिकार
जाणे अने देखे बधुं प्रभु केवळी व्यवहारथी;
जाणे अने देखे स्वने प्रभु केवळी निश्चय थकी. १५९.
जे रीत ताप-प्रकाश वर्ते युगपदे आदित्यने,
ते रीत दर्शन-ज्ञान युगपद होय केवळज्ञानीने. १६०.
दर्शन प्रकाशक आत्मनुं, परनुं प्रकाशक ज्ञान छे,
निजपरप्रकाशक जीव,ए तुज मान्यता अयथार्थ छे. १६१.

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परने ज जाणे ज्ञान तो द्रग ज्ञानथी भिन्न ज ठरे,
दर्शन नथी परद्रव्यगतए मान्यता तुज होईने. १६२.
परने ज जाणे जीव तो द्रग जीवथी भिन्न ज ठरे,
दर्शन नथी परद्रव्यगतए मान्यता तुज होईने. १६३.
व्यवहारथी छे परप्रकाशक ज्ञान, तेथी द्रष्टि छे;
व्यवहारथी छे परप्रकाशक जीव, तेथी द्रष्टि छे. १६४.
निश्चयनये छे निजप्रकाशक ज्ञान, तेथी द्रष्टि छे;
निश्चयनये छे निजप्रकाशक जीव, तेथी द्रष्टि छे. १६५.
प्रभु केवळी देखे निजात्माने, न लोकालोकने,
जो कोई भाखे एम तो तेमां कहो शो दोष छे? १६६.
मूर्तिक-अमूर्तिक चेतनाचेतन स्वपर सौ द्रव्यने
जे देखतो तेने अतीन्द्रिय ज्ञान छे, प्रत्यक्ष छे. १६७.
विधविध गुणो ने पर्ययो संयुक्त द्रव्य समस्तने
देखे न जे सम्यक् प्रकार, परोक्ष द्रष्टि तेहने. १६८.
प्रभु केवळी जाणे त्रिलोक-अलोकने, नहि आत्मने,
जो कोई भाखे एम तो तेमां कहो शो दोष छे? १६९.
छे ज्ञान जीवस्वरूप, तेथी जीव जाणे जीवने;
जीवने न जाणे ज्ञान तो ए जीवथी जुदुं ठरे! १७०.
रे! जीव छे ते ज्ञान छे, ने ज्ञान छे ते जीव छे;
ते कारणे निजपरप्रकाशक ज्ञान तेम ज द्रष्टि छे. १७१.
जाणे अने देखे छतां इच्छा न केवळीजिनने;
ने तेथी ‘केवळज्ञानी’ तेम ‘अबंध’ भाख्या तेमने. १७२.

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परिणामपूर्वक वचन जीवने बंधकारण थाय छे;
परिणाम विरहित वचन तेथी बंध थाय न ज्ञानीने. १७३.
अभिलाषपूर्वक वचन जीवने बंधकारण थाय छे;
अभिलाष विरहित वचन तेथी बंध थाय न ज्ञानीने. १७४.
अभिलाषपूर्व विहार, आसन, स्थान नहि जिनदेवने,
तेथी नथी त्यां बंध; बंधन मोहवश साक्षार्थने. १७५.
आयुक्षये त्यां शेष सर्वे कर्मनो क्षय थाय छे;
पछी समयमात्रे शीघ्र ते लोकाग्र पहोंची जाय छे. १७६.
कर्माष्टवर्जित, परम, जन्मजरामरणहीन, शुद्ध छे,
ज्ञानादि चार स्वभाव छे, अक्षय, अनाश, अछेद्य छे. १७७.
अनुपम, अतीन्द्रिय, पुण्यपापविमुक्त, अव्याबाध छे,
पुनरागमन विरहित, निरालंबन, सुनिश्चळ, नित्य छे. १७८.
ज्यां दुःख नहि, सुख ज्यां नहीं, पीडा नहीं, बाधा नहीं,
ज्यां मरण नहि, ज्यां जन्म छे नहि, त्यां ज मुक्ति जाणवी. १७९.
नहि इन्द्रियो, उपसर्ग नहि, नहि मोह, विस्मय ज्यां नहीं,
निद्रा नहीं, न क्षुधा, तृषा नहि, त्यां ज मुक्ति जाणवी. १८०.
ज्यां कर्म नहि, नोकर्म, चिंता, आर्तरौद्रोभय नहीं,
ज्यां धर्मशुक्लध्यान छे नहि, त्यां ज मुक्ति जाणवी. १८१.
द्रग-ज्ञान केवळ, सौख्य केवळ, वीर्य केवळ होय छे,
अस्तित्व, मूर्तिविहीनता, सप्रदेशमयता होय छे. १८२.
निर्वाण छे ते सिद्ध छे ने सिद्ध ते निर्वाण छे;
सौ कर्मथी प्रविमुक्त आत्मा लोक-अग्रे जाय छे. १८३.

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धर्मास्ति ज्यां लगी, त्यां लगी जीव-पुद्गलोनुं गमन छे;
धर्मास्तिकाय-अभावमां आगळ गमन नहि थाय छे. १८४.
प्रवचन-सुभक्ति थकी कह्यां में नियम ने तत्फळ अहो!
यदि पूर्व-अपर विरोध हो, समयज्ञ तेह सुधारजो. १८५.
पण कोई सुंदर मार्गनी निंदा करे ईर्षा वडे,
तेनां सुणी वचनो करो न अभक्ति जिनमारग विषे. १८६.
निजभावना अर्थे रच्युं में नियमसार-सुशास्त्रने,
सौ दोष पूर्वापर रहित उपदेश जिननो जाणीने. १८७.

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श्री
अष्टप्राभृत
(पद्यानुवाद)
१. दर्शनप्राभृत
(हरिगीत)
प्रारंभमां करीने नमन जिनवरवृषभ महावीरने,
संक्षेपथी हुं यथाक्रमे भाखीश दर्शनमार्गने. १.
रे! धर्म दर्शनमूल, उपदेश्यो जिनोए शिष्यने;
ते धर्म निज कर्णे सुणी दर्शनरहित नहि वंद्य छे. २.
द्रग्भ्रष्ट जीवो भ्रष्ट छे, द्रग्भ्रष्टनो नहि मोक्ष छे;
चारित्रभ्रष्ट मुकाय छे, द्रग्भ्रष्ट नहि मुक्ति लहे. ३.
सम्यक्त्वरत्नविहीन जाणे शास्त्र बहुविधने भले,
पण शून्य छे आराधनाथी तेथी त्यां ने त्यां भमे. ४.
सम्यक्त्व विण जीवो भले तप उग्र सुष्ठु आचरे,
पण लक्ष कोटि वर्षमांये बोधिलाभ नहीं लहे. ५.
१. जिनवरवृषभ = तीर्थंकर.
२. दर्शनमूल = सम्यग्दर्शन जेनुं मूळ छे एवो.
३. द्रग्भ्रष्ट = सम्यग्दर्शनरहित.
४. सुष्ठु = सारी रीते.

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सम्यक्त्व-दर्शन-ज्ञान-बळ-वीर्ये अहो! वधता रहे
कलिमलरहित जे जीव, ते वरज्ञानने अचिरे लहे. ६.
सम्यक्त्वनीरप्रवाह जेना हृदयमां नित्ये वहे,
तस बद्धकर्मो वालुका-आवरण सम क्षयने लहे. ७.
द्रग्भ्रष्ट, ज्ञाने भ्रष्ट ने चारित्रमां छे भ्रष्ट जे,
ते भ्रष्टथी पण भ्रष्ट छे ने नाश अन्य तणो करे. ८.
जे धर्मशील, संयम-नियम-तप-योग-गुण धरनार छे,
तेनाय भाखी दोष, भ्रष्ट मनुष्य दे भ्रष्टत्वने. ९.
ज्यम मूळनाशे वृक्षना परिवारनी वृद्धि नहीं,
जिनदर्शनात्मक मूळ होय विनष्ट तो सिद्धि नहीं. १०.
ज्यम मूळ द्वारा स्कंध ने शाखादि बहुगुण थाय छे,
त्यम मोक्षपथनुं मूळ जिनदर्शन कह्युं जिनशासने. ११.
द्रग्भ्रष्ट जे निज पाय पाडे द्रष्टिना धरनारने,
ते थाय मूंगा, खंडभाषी, बोधि दुर्लभ तेमने. १२.
वळी जाणीने पण तेमने गारव-शरम-भयथी नमे,
तेनेय बोधि-अभाव छे पापानुमोदन होईने. १३.
ज्यां ज्ञान ने संयम त्रियोगे, उभयपरिग्रहत्याग छे,
जे शुद्ध स्थितिभोजन करे, दर्शन तदाश्रित होय छे. १४.
१. वरज्ञान = उत्कृष्ट ज्ञान अर्थात् केवळज्ञान.
२. वालुका-आवरण = वेळुनुं आवरण; रेतीनी पाळ.
३. खंडभाषी = अस्पष्ट भाषावाळा; तूटक-भाषावाळा.
४. गारव = (रस-ॠद्धि-शाता संबंधी) गर्व; मस्ताई.
५. त्रियोग = (मनवचनकायाना) त्रण योग. ६. शुद्ध स्थितिभोजन = त्रण
करणथी शुद्ध (कृत-कारित-अनुमोदन विनानुं) एवुं ऊभां ऊभां भोजन.

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सम्यक्त्वथी सुज्ञान, जेथी सर्व भाव जणाय छे,
ने सौ पदार्थो जाणतां अश्रेय-श्रेय जणाय छे. १५.
अश्रेय-श्रेयसुजाण छोडी कुशील धारे शीलने,
ने शीलफळथी होय अभ्युदय, पछी मुक्ति लहे. १६.
जिनवचनरूप दवा विषयसुखरेचिका, अमृतमयी,
छे व्याधि-मरण-जरादिहरणी, सर्व दुःखविनाशिनी. १७.
छे एक जिननुं रूप, बीजुं श्रावकोत्तम-लिंग छे,
त्रीजुं कह्युं आर्यादिनुं, चोथुं न कोई कहेल छे. १८.
पंचास्तिकाय, छ द्रव्य ने नव अर्थ, तत्त्वो सात छे,
श्रद्धे स्वरूपो तेमनां, जाणो सुद्रष्टि तेहने. १९.
जीवादिना श्रद्धानने सम्यक्त्व भाख्युं छे जिने
व्यवहारथी, पण निश्चये आत्मा ज निज सम्यक्त्व छे. २०.
ए जिनकथित दर्शनरतनने भावथी धारो तमे,
गुणरत्नत्रयमां सार ने जे प्रथम शिवसोपान छे. २१.
थई जे शके करवुं अने नव थइ शके ते श्रद्धवुं;
सम्यक्त्व श्रद्धावंतने सर्वज्ञ जिनदेवे कह्युं. २२.
द्रग, ज्ञान ने चारित्र, तप, विनये सदाय सुनिष्ठ जे,
ते जीव वंदनयोग्य छेगुणधर तणा गुणवादी जे. २३.
१. अभ्युदय = तीर्थंकरत्वादिनी प्राप्ति.
२. विषयसुखरेचिका = विषयसुखनुं विरेचन करनारी.
३. जिननुं रूप = जिनना रूप समान मुनिनुं यथाजात रूप.
४. प्रथम शिवसोपान = मोक्षनुं पहेलुं पगथियुं.
५. सुनिष्ठ = सुस्थित.
६. गुणधर = गुणना धरनारा.
७. गुणवादी = गुणोने प्रकाशनारा.

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ज्यां रूप देखी साहजिक, आदर नहीं मत्सर वडे,
संयम तणो धारक भले ते होय पण कु द्रष्टि छे. २४.
जे अमरवंदित शीलयुत मुनिओ तणुं रूप जोईने
मिथ्याभिमान करे अरे! ते जीव द्रष्टिविहीन छे. २५.
वंदो न अणसंयत, भले हो नग्न पण नहि वंद्य ते;
बंने समानपणुं धरे, एक्के न संयमवंत छे. २६.
नहि देह वंद्य, न वंद्य कुल, नहि वंद्य जन जाति थकी;
गुणहीन क्यम वंदाय? ते साधु नथी, श्रावक नथी. २७.
सम्यक्त्वसंयुत शुद्धभावे वंदुं छुं मुनिराजने,
तस ब्रह्मचर्य, सुशीलने, गुणने तथा शिवगमनने. २८.
चोसठ चमर संयुक्त ने चोत्रीस अतिशय युक्त जे,
बहुजीवहितकर सतत, कर्मविनाशकारण-हेतु छे. २९.
संयम थकी, वा ज्ञान-दर्शन-चरण-तप छे चार जे
ए चार केरा योगथी, मुक्ति कही जिनशासने. ३०.
रे ! ज्ञान नरने सार छे, सम्यक्त्व नरने सार छे;
सम्यक्त्वथी चारित्र ने चारित्रथी मुक्ति लहे. ३१.
द्रग-ज्ञानथी, सम्यक्त्वयुत चारित्रथी ने तप थकी,
ए चारना योगे जीवो सिद्धि वरे, शंका नथी. ३२.
कल्याणश्रेणी साथ पामे जीव समकित शुद्धने;
सुर-असुर केरा लोकमां सम्यक्त्वरत्न पुजाय छे. ३३.
१. साहजिक = स्वाभाविक; नैसर्गिक; यथाजात.
२. मत्सर = ईर्षा; द्वेष; गुमान. ३.
अमरवंदित = देवोथी वंदित.
४. शिवगमन = मोक्षप्राप्ति.५.द्रगज्ञान = दर्शन अने ज्ञान.
६. कल्याणश्रेणी = सुखोनी परंपरा; विभूतिनी हारमाळा.

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रे! गोत्र उत्तमथी सहित मनुजत्वने जीव पामीने,
संप्राप्त करी सम्यक्त्व, अक्षय सौख्य ने मुक्ति लहे. ३४.
चोत्रीस अतिशययुक्त, अष्ट सहस्र लक्षणधरपणे
जिनचंद्र विहरे ज्यां लगी, ते बिंब स्थावर उक्त छे. ३५.
द्वादश तपे संयुक्त, निज कर्मो खपावी विधिबळे,
व्युत्सर्गथी तनने तजी, पाम्या अनुत्तम मोक्षने. ३६.
२. सूत्रप्राभृत
अर्हंतभाषित-अर्थमय, गणधरसुविरचित सूत्र छे;
सूत्रार्थना शोधन वडे साधे श्रमण परमार्थने. १.
सूत्रे सुदर्शित जेह, ते १०सूरिगणपरंपर मार्गथी
जाणी ११द्विधा, शिवपंथ वर्ते जीव जे ते भव्य छे. २.
१२सूत्रज्ञ जीव करे विनष्ट भवो तणा उत्पादने;
खोवाय सोय १३असूत्र, सोय ससूत्र नहि खोवाय छे; ३.
१. मनुजत्व = मनुष्यपणुं.२. अष्ट सहस्र = एक हजार ने आठ.
३. बिंब = प्रतिमा.४. द्वादश = बार.
५. व्युत्सर्गथी = (शरीर प्रत्ये) संपूर्ण उपेक्षापूर्वक.
६. अनुत्तम = सर्वोत्तम.
७. सूत्रार्थ = सूत्रोना अर्थ.
८. शोधन = शोधवुं
खोजवुं ते.
९. सुदर्शित = सारी रीते दर्शाववामांकहेवामां आवेलुं.
१०. सूरिगणपरंपर मार्ग = आचार्योनी परंपरामय मार्ग.
११. द्विधा = (शब्दथी अने अर्थथी
एम) बे प्रकारे.
१२. सूत्रज्ञ = शास्त्रनो जाणनार. १३. असूत्र = दोरा विनानी.

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आत्माय तेम ससूत्र नहि खोवाय, हो भवमां भले;
अद्रष्ट पण ते स्वानुभवप्रत्यक्षथी भवने हणे. ४.
जिनसूत्रमां भाखेल जीव-अजीव आदि पदार्थने
हेयत्व-अणहेयत्व सह जाणे, सुद्रष्टि तेह छे. ५.
जिन-उक्त छे जे सूत्र ते व्यवहार ने परमार्थ छे;
ते जाणी योगी सौख्यने पामे, दहे मळपुंजने. ६.
सूत्रार्थपदथी भ्रष्ट छे ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे;
करपात्रभोजन रमतमांय न योग्य होय सचेलने. ७.
हरितुल्य हो पण स्वर्ग पामे, कोटि कोटि भवे भमे,
पण सिद्धि नव पामे, रहे संसारस्थितआगम कहे. ८.
स्वच्छंद वर्ते तेह पामे पापने मिथ्यात्वने,
गुरुभारधर, उत्कृष्ट सिंहचरित्र, बहुतपकर भले. ९.
निश्चेल-करपात्रत्व परमजिनेन्द्रथी उपदिष्ट छे;
ते एक मुक्तिमार्ग छे ने शेष सर्व अमार्ग छे. १०.
जे जीव संयमयुक्त ने आरंभपरिग्रहविरत छे,
ते देव-दानव-मानवोना लोकत्रयमां वंद्य छे. ११.
१. ससूत्र = शास्त्रनो जाणनार.
२. अद्रष्ट पण = देखातो नहि होवा छतां (अर्थात् इन्द्रियोथी नहि जणातो
होवा छतां).३.दहे = बाळे.
४. सूत्रार्थपद = सूत्रोनां अर्थो अने पदो.
५. करपात्रभोजन = हाथरूपी पात्रमां भोजन करवुं ते.
६. सचेल = वस्त्रसहित.
७. हरि = नारायण.
८. निश्चेल-करपात्रत्व = वस्त्ररहितपणुं अने हाथरूपी पात्रमां भोजन करवापणुं.