Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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प्रश्नः– हा, पण आ एक आंगळी बीजी साथे जोडायेली तो छे? उत्तरः– जोडायेली नथी; ए तो बीजी आंगळीना अभावस्वरूप ज छे. जो एम न होय तो बे चीज सिद्ध नहि थाय. शुं बे चीज कदी एक थाय? न थाय; बे तो बे ज रहे. पण एम मान्युं क्यारे? के एक आंगळी बीजीपणे नथी, बीजीनुं कांई करे ज नहि- एम यथार्थ माने त्यारे. अहा! चैतन्यप्रकाशनो पुंज ज्ञानस्वरूपी भगवान, आत्मा छे; एना ज्ञानमां ज्ञेयपणे जे अनंता पर पदार्थो जणाय छे त्यां खरेखर तो एनुं ज्ञान ज एने जणाय छे. पोतानी स्वपरप्रकाशक ज्ञानदशा छे ते एने जणाय छे; अने ते ज्ञानपणे ज आत्मा छे, परज्ञेयपणे आत्मा नथी; परज्ञेयपणे तो आत्मा अतत्स्वभाव छे एम कहे छे. समजाणुं कांई...? भाई! आ तो एकलुं माखण छे बापु! वस्तुनुं अनेकान्तस्वरूप समजे तो न्याल थई जाय एवुं छे.

भाई! हुं-आत्मा स्वस्वरूपथी तत् छुं, तेम परथी पण जो तत् होउं तो पर अने आत्मा-पोते एक थई जाय. बधुं भेळसेळ थई जाय, अथवा कांई ज रहे नहि. पण एम वस्तु नथी भाई! हुं पोतापणे तत् छुं ने परथी अतत् स्वभाव ज छुं. माटे बहारनी सगवडता होय, ने धनादि संपत्ति होय तो मने धर्म थाय एम वात रहेती नथी, अर्थात् एवी मान्यता मिथ्या मान्यता छे, केमके परपणे तुं छो ज नहि तो परथी तारामां कांई थाय एम केम बने? भाई! आ बधी मिथ्या-ऊंधी मान्यता फेरवे ज छूटको छे.

आ अनेकान्त तो अमृत छे बापु! एने समजी स्वस्वरूपनी अंतर्दष्टि करे तेने आनंदनो-अमृतनो स्वाद आवे छे. आ मनुष्यपणुं पामीने करवा जेवुं कांई होय तो आ ज छे. मध्यस्थ थईने समजे तो आ समजाय एवुं छे. पोतानी चीज छे ते केम न समजाय? पण वादविवादथी आ पार पडे एम नथी. शास्त्रमां आम लख्युं छे ने तेम लख्युं छे, एम के व्यवहार परंपरा मोक्षनुं कारण छे ईत्यादि, पण भाई! शास्त्रमां लख्युं छे ते मूळ सत्यने राखीने छे के उडाडीने? मूळ सिद्धांतने (निश्चयने) राखीने व्यवहारनयना कथनना अर्थ करवा जोईए. समजाणुं कांई...?

अहा! ज्ञानस्वभावी आत्मा तत्पणे छे, ते ज अतत्पणे छे, ते-पणे छे ते ते-पणे नथी. आमां अपेक्षा समजवी जोईए बापु! शुं जे अपेक्षाए तत् छे ते ज अपेक्षा अतत् छे-एम छे? एम तो विरुद्ध थई जाय; पण एम नथी. पोते ज्ञानस्वरूपथी छे, ने अनंता बीजा ज्ञेयस्वरूपथी नथी एम वात छे. एनो अर्थ ए थयो के अहीं ज्ञाननी पर्याय परज्ञेयथी थाय छे एम नथी. वळी ज्ञाननी पर्यायमां परज्ञेय जणाय छे माटे परवस्तु ज्ञेयपणे परिणमे छे एम पण नथी. अहाहा....! ज्ञेय प्रमाण ज्ञान छे माटे ज्ञेय परिणमे छे तो अहीं ज्ञाननुं परिणमन छे एम नथी. जेमां


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ज्ञेयो झळके छे ते ज्ञान पोताना सहज परिणमनस्वभावथी ज परिणमे छे. केवळज्ञाननी पर्याय पण स्वपणे छे, ने परपणे नथी; माटे ज्ञेयो भिन्न भिन्न (समये-समये) परिणमे छे माटे ज्ञानने (केवळज्ञानने) भिन्न भिन्न पर्याये परिणमवुं पडे छे एम नथी. ज्ञेयना कारणे ज्ञान थाय छे एम कोई माने एने तो पोताना ज्ञानस्वभावनी अने एना परिणमनस्वभावनी खबर नथी, अर्थात् एने पोताना स्वभावनो ज निषेध-नकार वर्ते छे. भाई! जे-पणे आत्मा-ज्ञान नथी एनाथी ए जाणे ए केम बने! कदीय ना बने. ज्ञान परज्ञेयपणे नथी, तेथी परज्ञेयथी ज्ञाननुं परिणमन थाय एम त्रणकाळमां बनी शके नहि. प्रभु! तारा सत्त्वनो एम (मिथ्या मान्यता वडे) नकार न कराय. तने वस्तुना स्वरूपनी खबर नथी तेथी तुं मिथ्या तर्क वडे असत्य स्थापित करे पण तेथी कांई सत्य फरी नहि जाय. (तारे फरवुं पडशे).

वळी कोई अत्यारे कहे छे के-ज्ञान, जे पर्याय अप्रगट (अविद्यमान) छे (वर्तमान पर्यायनी जेम भूत-भविष्यनी पर्याय प्रगट नथी) तेने प्रगट जाणे तो ते जूठुं थई गयुं, केमके प्रगट नथी तेने वर्तमान प्रगटपणे जाणे ए तो जूठुं थई गयुं.

समाधानः– भाई! प्रगट नथी ए तो वर्तमान पर्यायनी अपेक्षाए कह्युं छे. भूत-भविष्यनी अपेक्षाए तो ते (भूत-भविष्यनी पर्यायो) प्रगट ज छे. ज्ञान (ज्ञेयोनी) त्रणकाळनी पर्यायोने, अने पर्यायो ज्ञानने ‘अडके’ छे -एम शास्त्रमां पाठ आवे छे; एनो अर्थ ए थयो के जाणवानी पर्याय तेमने जाणे छे. जेटली पर्यायो ज्ञेयपणे-निमित्तपणे छे ते बधी पर्यायो ज्ञानमां जणाई जाय छे, कारण के ज्ञेयोनो प्रमेयस्वभाव छे, ने ज्ञाननो प्रमाणस्वभाव छे. त्यां आटलुं छे के परज्ञेयोने जाणनारुं ज्ञान परज्ञेयपणे थतुं नथी, ने ज्ञानमां जणाई रहेला परज्ञेयो ज्ञानपणे थता नथी. आवी झीणी वात छे भाई!

अहो! आ तो टूंका शब्दोमां आचार्यदेवे तत्त्वनुं ऊंडुं रहस्य खोली दीधुं छे. कहे छे-तुं छो? तो कहे-हा; तो तुं ताराथी छो के परथी छो? कोई (अज्ञानी) कहे-परथी छुं. पण भाई परथी छुं एम मानतां ज पोतापणे छुं एम न रह्युं. मलिनता (दोष) थई गई. ज्ञानमात्र वस्तु ते-पणे छे, अने ते-पणे नथी, अतत् छे. मतलब के ते परपणे नथी. माटे छद्मस्थने पण ज्ञेयने लईने ज्ञान थाय एम कदी नथी. भले ज्ञेयनुं ज्ञान-एम कहेवाय (व्यवहारे), पण ज्ञेयने जाणनारुं ज्ञान आत्मानुं छे ते ज्ञान परपणे छे ज नहि, तो पछी परथी जणाणुं छे एम क्यां रह्युं? भाई? आत्माना द्रव्य-गुण तो त्रिकाळ ध्रुव छे, पण प्रतिसमय थती एनी पर्याय छे ते पण तत्-अतत्स्वभाव छे. अर्थात् ए पर्याय पर्यायपणे तत् छे, ने परपणे अतत् छे. माटे ए पर्याय परना-निमित्तना के कर्मना कारणे थाय छे एम कदीय नथी. समजाणुं कांई...?


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जे तत् छे ते ज अतत् छे. अहा! आटला शब्दोमां तो निमित्त-उपादान, निश्चय-व्यवहार ने क्रमबद्ध पर्याय-बधानो फेंसलो थई जाय छे. पर्याय स्वकाळे जे क्रमबद्ध प्रगट थई ते पोताथी ते-पणे छे, ने वळी ते ते-पणे नथी, अर्थात् परपणे नथी, पूर्वनी, भविष्यनी के परद्रव्यनी पर्यायपणे ते नथी. तेथी भूत-भविष्यनी पर्याय के परद्रव्यनी पर्याय आ पर्यायनुं शुं करे? कांई ज न करे. ए तो सहज ज स्वकाळे प्रगट थाय छे. आवी वात छे भाई! आमां कोई पंडिताई न चाले, आ तो अंतरनी रुचिनी चीज छे बापु! अंतरमां स्वरूपनी रुचि जागतां सहज समजाय एवी चीज छे भाई! ओहो! भगवाननी ॐध्वनिमां आव्युं के -तुं जे तत् छो ते तुं अतत् छो. आम छतां तने परने फेरववानी होंश केम आवे? परनी आश तने केम रहे? अहा! तारुं ज्ञान जे- पणे नथी ए बधी आ वळगाड क्यांथी आवी? (जरा विचार कर ने स्वमां प्रवृत्त था).

हा, पण आ मंदिर आवुं मनोहर थयुं ते ईजनेरनी होशियारीथी थयुं के नहि? भाई! आ मंदिरनी जे काळे जे प्रकारे पर्याय थवायोग्य हती ते थई छे; ते पोताथी तत् छे, ने परथी अतत् छे, अर्थात् ईजनेरनी होशियारी-ज्ञानथी अतत् छे. ईजनेरनी होशियारीथी आ मंदिर बन्युं छे एम मानवानी अहीं ना पाडे छे; कारण के ते ते-पणे (ईजनेरपणे) नथी. आवी झीणी वात भाई! खरेखर तो जे पर्याय वस्तुनी छे ते अंश पोताथी छे, ने परथी-निमित्तथी नथी एम स्वीकारे त्यारे ज ए सत्पणे सिद्ध थाय छे. समजाणुं कांई...?

आ तो वीतरागनो मारग बापु! एमांथी तो वीतरागपणुं ज ऊभुं थाय छे. अहा! हुं मारापणे-ज्ञानमात्रपणे छुं एम जेने अंतरमां निर्णय थयो तेने पोतापणे रहेवामां कोई परपदार्थनी जरूर भासती नथी. पर प्रत्येनी तेनी इच्छामात्र विराम पामी जाय छे. हुं शुद्ध एक ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा छुं एवुं ज्यां पर्यायमां जाणपणुं थयुं त्यां एने शरीरादि अनुकूळ संयोगनी भावना रहेती नथी. अरे! एनी परम प्रीति-भक्तिनां भाजन एवा देव-गुरु-शास्त्रनी पण एने गरज (अपेक्षा) भासती नथी; केमके ए बधांने ए परज्ञेय जाणे छे. आकरी वात बापु! पण आ सत्य वात छे, धर्मीना अंतरनी वात छे.

प्रश्नः– आमां तो निमित्त उडी जाय छे. उत्तरः– ना, निमित्त उडतुं नथी, निमित्तनुं निमित्तपणे स्थापन थाय छे. निमित्तथी कार्य थाय एम माने त्यां निमित्त उडी जाय छे, केमके एम मानतां निमित्त निमित्तपणे रहेतुं नथी. परना कार्यना कर्तापणे निमित्तने घुसाडी देवाथी निमित्तनुं निमित्तपणुं रहेतुं नथी. भाई! हुं पोतापणे छुं, ने परपणे नथी आ परमार्थ छे.


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पर भले हो, एने लईने हुं नथी, तो पछी एने लईने मारामां कार्य थाय एम क्यां छे? एम छे ज नहि. समजाणुं कांई.....?

आत्मा ज्ञानमात्र छे एम कह्युं छे ने! एनो अर्थ ए थयो के अंदरमां (- पर्यायमां) जे राग छे ते-पणे पण आत्मा नथी. भगवान आत्मा ज्ञान.... ज्ञान... ज्ञानपणे तत् छे, अने ते ज अतत् छे अर्थात् ते रागपणे नथी; दया, दान, व्रत आदिनो जे राग के देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जे राग ते रागपणे आत्मा नथी. तेथी व्यवहारना रागथी आत्मामां कांई (ज्ञान) थाय एम छे नहि. व्यवहारनो राग नथी होतो एम वात नथी, एनाथी आत्मानुं (ज्ञानमय) कार्य नीपजे छे एम नथी. जेम परद्रव्यरूप निमित्त अकिंचित्कर छे तेम राग पण आत्माना स्वभावकार्य प्रति अकिंचित्कर छे. बापु! आ तो एकलुं अमृत झर्युं छे. आ वाणी तो मानो अमृत वरस्यां रे पंचमकाळमां!’

भाई! पर-निमित्तनुं ने व्यवहारनुं लक्ष मटाडीने तारी होंश (उत्साह, वीर्यनी स्फुरणा) अंदरमां जवी जोईए. तारो उत्साह जे वर्तमान पर्यायमां छे ते त्रिकाळी द्रव्यमां जवो जोईए, केमके हुं स्वपणे-ज्ञानमात्रपणे छुं एवो सम्यक् निर्णय, पर्याय त्रिकाळी द्रव्यमां ढळ्‌या विना क्यांथी थशे? हुं पूरण ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु छुं एवो यथार्थ निर्णय तो त्रिकाळी द्रव्यमां ढळवाथी ज थाय छे. आवी ज वस्तुस्थिति छे, अर्थात् वस्तु पोते ज आ पोकार करी कही छे. अहा! आ तत्-अतत्ना बोलमां केटलुं भर्युं छे! आखो दरियो भर्यो छे; भावो ब्रह्मांडना भर्या एम आवे छे ने! भाई! आ समजवा तारे खूब धीरज जोईशे. वस्तु वस्तुपणे तत् छे, ने ते अतत् छे अर्थात् परपणे नथी आ जैन दर्शननी मूळ वात छे अने ते महत्वना सिद्धांत स्थापित करे छे के-

- निमित्तथी उपादानमां कांई न थाय. - व्यवहारथी निश्चय न थाय. - बधुं ज क्रमबद्ध थाय. निमित्त निमित्तना स्थानमां, ने व्यवहार व्यवहारना स्थानमां हो, परंतु ए ज्ञानना परज्ञेयपणे ज छे, स्वज्ञेय नहि.

अहा! त्रणलोकना नाथ समोसरणमां बिराजे छे एने लईने हुं नहि, एने लईने मारुं ज्ञान नहि. गजब वात छे ने! हुं तो शुद्ध एक शाश्वत ज्ञायकस्वभावमात्र वस्तु छुं. हवे आवी वात काने पडे ने अंदर हकार आवे एय असाधारण चीज छे. बाकी (ज्ञानस्वरूपमां) तद्रूप थई परिणमे एनी तो शी वात! ए तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रपूर्वक सिद्धपदने पामशे.


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अरे! हजु तो लोकोने केवळज्ञानमांय वांधा छे; एम के ज्ञेय बदले छे एने लईने समये समये केवळज्ञान बदले छे. पण एम नथी भाई! एक समयनी केवळज्ञाननी पर्याय पोतापणे छे ने परज्ञेयपणे नथी. ज्ञानने पोताना उत्पाद-व्ययपणे क्षणेक्षणे थवुं ने ज्ञानपणे ध्रुव रहेवुं एवुं तत्पणुं पोताथी ज छे, ने परज्ञेयथी तेने अतत्पणुं ज छे. तेथी ज्ञेय बदलाय छे माटे केवळज्ञानने बदलवुं पडे छे एम छे नहि. तथा केवळज्ञान बदलाय छे माटे परज्ञेयोने बदलवुं पडे छे एमेय छे नहि. ज्ञान पोताना सामर्थ्यथी ज प्रतिसमय केवळज्ञानपणे परिणमे छे, तेने कोई परज्ञेयनी अपेक्षा नथी; अने निज सामर्थ्यथी स्वयं परिणमी रहेला परज्ञेयोने ज्ञाननी पण कोई अपेक्षा नथी. आवी स्वतंत्र वस्तुस्थिति छे. आ भगवाननी वाणीमां आवेलो स्वतंत्रतानो ढंढेरो छे. ल्यो, आवो आ तत्-अतत्नो एक बोल थयो.

हवे बीजो बोलः ‘जे (वस्तु) एक छे ते ज अनेक छे,.....’ शुं कीधुं आ? के ज्ञानमात्र वस्तु जे एक छे ते ज अनेक छे. जे-पणे एक छे ते- पणे अनेक छे एम नहि, ए तो एकांत थई गयुं. आ तो भगवान आत्मा द्रव्यपणे एक छे अने ते ज गुण-पर्यायपणे अनेक छे- एम वात छे, अनेक परवस्तुने लईने अनेक छे एमेय नहि. पण आत्मा अविनाशी वस्तु छे ते गुण-पर्यायने अभेद करीने द्रव्यपणे एक छे, अने ते ज अनेक गुण-पर्यायना भेदनी विवक्षाथी अनेक छे. एमां अनंत गुणो, अनंत पर्यायो छे के नहि? ए अपेक्षाए जे एक छे, ते ज अनेक छे. आनुं नाम स्याद्वाद छे.

एक छे एटले अनंत आत्माओ भेगा थईने एक छे एम नहि, तथा बधा आत्माओ भिन्न भिन्न छे ए अपेक्षाए अनेक छे एमेय नहि. वस्तु आत्मा ज्ञानस्वरूप छे एम कहेतां ज ते अनंतगुणनो पिंड द्रव्यपणे एक छे, ने ते ज गुण-पर्यायपणे अनेक छे एम आवी जाय छे. अनंत शक्तिओ अने अनंत पर्यायो छे ते एने अनेकपणुं छे. एक ने अनेक बन्ने आत्मामां ज छे, एक ज वस्तुमां छे. (एने परवस्तुथी संबंध नथी).

अहा! आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय ईत्यादिथी भिन्न होवापणे जे छे ते भगवान आत्माना होवापणाना बे प्रकारः वस्तु तरीके असंख्य प्रदेशोनो पिंड अभेद एक छे, अने एने ज गुण-पर्यायना भेदथी जोवामां आवे तो ते अनेक छे. अनेक छे माटे अनेकनो आश्रय लेवो ए प्रश्न अहीं नथी. आ तो अनेकान्तमय वस्तु आवी छे एम जाणवानी वात छे. एक छे ते ज अनेक छे, छतां वर्तमान पर्यायने आश्रय तो त्रिकाळी द्रव्यनो ज छे. भिन्न भिन्न पर्यायो अनेक छे ए तो खरुं, पण द्रष्टि तो त्रिकाळी शुद्ध एक द्रव्य पर रहे तो ज ‘जे एक छे ते ज अनेक छे’ -


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एम वस्तुनुं साचुं ज्ञान थाय छे. भाई! आ अंतरनी चीज छे बापु! वस्तु शुद्ध ज्ञायकस्वभावपणे एक छे एम एकनो निर्णय तो एकमां ढळेली अनेक एवी पर्याये कर्यो छे. त्यां एकना निर्णयमां आत्मवस्तु पर्याये अनेक छे एम आवी जाय छे. वस्तु-स्थिति ज आम छे, अर्थात् वस्तु ज आ पोकारीने सिद्ध करे छे.

हवे त्रीजो बोलः ‘जे सत् छे ते ज असत् छे,.....’ शुं कीधुं? के आत्मा स्वस्वरूपथी छे.... छे.... छे, पोताना होवापणे छे, अने ते ज परथी असत् छे अर्थात् परथी होवापणे नथी. अहाहा...! हुं स्वस्वरूपथी सत् छुं एम ज्यां स्वस्वरूपनी अस्तिनो निर्णय थयो त्यां परवस्तु मारामां नथी, परथी हुं असत् छुं एम भेगुं आवी जाय छे. जे पोताथी सत् छे ते ज परथी असत् छे एम अहीं टुंकामां लीधुं छे. आगळ स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी सत् छे ते ज परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी असत् छे एम आठ बोलथी विस्तारथी लेशे.

चोथो बोलः ‘जे नित्य छे ते ज अनित्य छे.....’ अहाहा.....! आ त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यमय प्रभु आत्मा छे ते द्रव्यरूपथी नित्य छे, अने ते ज पर्यायरूपथी अनित्य छे. पर्याय जे प्रतिसमय पलटे छे ते वडे ते अनित्य छे. अहाहा......! आ हुं त्रिकाळी ध्रुव छुं एम निर्णय कोण करे छे? तो कहे छे -अनित्य एवी पर्याय ते नित्यनो निर्णय करे छे. निर्णय पर्याय करे छे, ध्रुव कांई निर्णय करतुं नथी. नित्यनो-ध्रुवनो के अनित्यनो निर्णय नित्य-ध्रुव न करे, निर्णय तो अंदर ढळेली अनित्य-पर्यायमां ज थाय छे. आवी वात!

अहो! त्रिलोकीनाथ भगवाननी वाणीमां आवेलुं रहस्य संतोए बहु टुंका शब्दोमां जगत समक्ष जाहेर कर्युं छे. कहे छे-भाई तुं ध्रुव अविनाशी नित्य छो. पहेलां नित्य नहोतुं मान्युं, अने हवे मान्युं तो ते शेमां मान्युं? अंदर ढळेली अनित्य पर्यायमां मान्युं छे. भाई! वस्तु ज आवी नित्य-अनित्य छे, ने अनित्य पर्यायमां ज नित्यनुं ज्ञान- श्रद्धान थाय छे. समजाणुं कांई......?

आम एक वस्तुमां तत्-अतत्, एक-अनेक, सत्-असत् (आठ बोल) तथा नित्य-अनित्य एम कुल चौद बोल थया. हवे कहे छे-

‘एम एक वस्तुमां वस्तुपणानी निपजावनारी परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओनुं प्रकाशवुं ते अनेकान्त छे.’

जुओ, शुं कहे छे! के ‘वस्तुुमां वस्तुपणानी निपजावनारी....’ एटले शुं? एटले के वस्तुनुं गुणपर्याय ते वस्तुपणुं छे तेनी निपजावनारी अर्थात् वस्तुमां जे भावस्वभाव छे तेने प्रकाशनारी वस्तुने सिद्ध करनारी अर्थात् तेने यथार्थपणे अनुभवमां


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अहीं कहे छे-वस्तु जे तत्पणे जणाय छे ते ज अतत्पणे जणाय छे, जे एकपणे जणाय छे ते ज अनेकपणे जणाय छे, जे सत्पणे जणाय छे ते ज असत्पणे जणाय छे, जे नित्यपणे जणाय छे ते ज अनित्यपणे जणाय छे. आम वस्तुमां वस्तुपणानी - स्वभावपणानी सिद्ध करनारी एटले के अनुभवमां आववालायक करनारी परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओनुं प्रकाशवुं ते अनेकान्त छे. अहो! सर्वज्ञ परमेश्वरनी दिव्यध्वनिमां आवेला आ अमोघ मंत्रो छे. जेम घरमां साप गरी गयो होय तो कलमने मंत्रीने तेना माथा उपर नाखे के तरत ज साप बहार नीकळी जाय, तेम आ मंत्रो वस्तु जेवी छे तेवी तेने बहार लावे छे. ज्ञानमां प्रगट करे छे.

आ अनेकान्त तो एकलुं माखण छे भाई! वस्तुने वलोवी-वलोवीने एकलुं माखण काढयुं छे. कहे छे-भगवान! तुं वस्तु छो के नहि? छो तो एमां अनंत धर्मो वसेला छे. अनंत धर्मोनुं वास्तु प्रभु तुं छो. अहा! ते अनंत धर्मोमां परस्पर विरुद्ध बे धर्मोनुं प्रकाशवुं छे ते, कहे छे, अनेकान्त छे. पोतानी आत्मवस्तु ज्ञानमात्र होवा छतां आवा चौद बोलथी प्रकाशे ज छे. समजाय छे कांई....? भाई! आ समजवा माटे चित्तनी निर्मळता ने धीरज जोईए.

कहे छे- ‘पोतानी आत्मवस्तुने पण, ज्ञानमात्रपणुं होवा छतां, तत्-अतत्पणुं, एक-अनेकपणुं, सत्-असत्पणुं अने नित्य-अनित्यपणुं प्रकाशे ज छे; कारण के- तेने (ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने) अंतरंगमां चकचकाट प्रकाशता ज्ञानस्वरूप वडे तत्पणुं छे अने बहार प्रगट थता, अनंत ज्ञेयपणाने पामेला, स्वरूपथी भिन्न एवा पर रूप वडे (- ज्ञानस्वरूपथी भिन्न एवा परद्रव्यना रूप वडे) अतत्पणुं छे (अर्थात् ते-रूपे ज्ञान नथी);........’

शुं कह्युं? के भगवान आत्मा चैतन्यसूर्य प्रभु छे. ते अंतरंगमां चैतन्यना प्रकाशथी चकचकाट ज्ञानस्वरूप वडे तत् छे. अहा! निज ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव वडे


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आत्मा तत् छे. पर्यायमां पण जाणवा-देखवानी पर्याय वडे तत् छे; अने बहार प्रगट थता एटले के जाणवाना प्रकाशमां-तत्पणामां जणाय छे जे अनंता परज्ञेयो एनुं एमां (-ज्ञानप्रकाशमां) अतत्पणुं छे, अर्थात् ज्ञानस्वरूपमां ते परज्ञेयो नथी. आ बायडी, छोकरां, कुटुंब-परिवार, धंधा-वेपार ईत्यादि ज्ञानमां जणाय छे ने! ते, कहे छे, ज्ञानस्वरूपमां नथी. वास्तवमां तो ते ते पदार्थो नहि, पण ते वखते तेनी ज्ञाननी पर्याय जणाय छे, पण ए माने छे के मने आ (पर) पदार्थो जणाय छे. ते वखते आ मारुं ज्ञान जणाय छे एम माने तो ज्ञाननी पर्याय द्रव्य उपर ढळी जाय. आवी वात! समजाणुं कांई....?

अहा! ज्ञान पोताना स्वरूप वडे तत् छे, ने परज्ञेयपणे अतत् छे. एटले शुं? के ज्ञानमां जे बधा परज्ञेयो जणाय छे ते खरेखर परज्ञेयो नथी, पण ज्ञाननी ज दशा छे. ज्ञेय तो पर छे, भिन्न छे, खरेखर तो ज्ञेयसंबंधीनुं पोतानुं ज्ञान ज अंतरंगमां चकचकाट प्रकाशे छे. जे ज्ञान तत्पणे छे एनो ज ए प्रकाश छे. आ देव-गुरु-शास्त्र ईत्यादि जे ज्ञेय ज्ञानमां जणाय छे, वास्तवमां ते पोतानुं ज्ञान ज जणाय छे, ते ज्ञेय नहि. वळी ते ज्ञाननी पर्याय पोताथी ज प्रकाशे छे, ज्ञेयने लईने नहि; ज्ञेयनी तेने बिलकुल जरूर नथी अने ज्ञेयनुं तेमां कांई कर्तव्य पण नथी, कारण के ज्ञान पोते ज तत्पणे ज्ञानप्रकाशना सामर्थ्यरूप छे अने ते परज्ञेयथी अतत्पणे छे, अर्थात् परज्ञेयनो तत्स्वरूपमां- ज्ञानस्वरूपमां अभाव छे.

पण लोको (ने कोई पंडितो पण) राडो पाडे छे के- निमित्तथी थाय अने व्यवहारथी थाय?

शुं थाय? भाई! निमित्त तो परवस्तु छे, परज्ञेय छे. एनाथी आत्मा ज्ञानस्वरूपी प्रभु अतत् छे. हवे जेनाथी अतत् छे अर्थात् जे एमां नथी, एने स्पर्शतुं नथी, ते (-निमित्त) एनुं शुं करे? कांई ज न करे. समये समये जे ज्ञाननी अवस्था थई रही छे ते स्वयं पोताथी ज थई रही छे, एमां निमित्तनुं के व्यवहारनुं कांई कार्य नथी. निमित्तथी थाय एम कोई मानो तो मानो, पण ए तो एनुं अज्ञान ज छे. बाकी ज्ञाननी पर्याय सामे जेवुं निमित्त होय तेवुं जाणवारूप थाय छतां ते निमित्तने लईने नथी. अहा! ज्ञानस्वरूपी आत्मा प्रभु, समोसरणमां बिराजमान भगवानने ‘आ भगवान छे’ एम जाणे ते कांई भगवानने लईने जाणे छे एम नहि. ए तो जाणनार जाणनाररूपे जाणनारमां रहीने ‘आ भगवान छे’ एम व्यवहारे जाणे छे, बाकी निश्चये तो पोते पोताने ज जाणे छे. समजाणुं कांई....? आवी झीणी वात छे.

अहा! अंदरमां आ हुं ज्ञानस्वरूप छुं ते परपणे नथी एवो तत्पणानो ज्यां निर्णय करे त्यां अनंतगुणनी पर्याय निर्मळपणे प्रगट थाय छे. भाई! आ तो तारा


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अहा! हुं माराथी छुं ने परथी नथी एवो पोते पोताथी अनुभव ना कर्यो तो (मनुष्यदेह पामीने) शुं कर्युं? धूळेय ना कर्युं (कांई ज न कर्युं); खाली परनां अभिमान कर्यां. अरे भाई! हुं कोण, केवडो ने क्यां छुं एनो वास्तविक निर्णय कर्या विना तुं क्यां जईश? आ अवसरमां स्वस्वरूपनो निर्णय करवानुं छोडीने परनी तें मांडी छे पण भाई! ए तो तारो ‘घरनां छोकरां घंटी चाटे ने उपाध्यायने आटो’ एना जेवो घाट थयो छे. अहा! घरनां ठेकाणां न मळे ने पारकुं करवा तुं क्यां हाली नीकळ्‌यो! जरा विचार तो कर के परनुं तुं शुं करी शके? ने पर तारुं शुं करी शके? तुं एम जाणे छे के आ शरीर माराथी हाले छे, आ वाणी माराथी बोलाय छे ईत्यादि पण एम नथी बापु! केमके ए शरीर, वाणी आदिनी तो तारामां नास्ति छे, ने तारी एनामां नास्ति छे. जरा गंभीर थईने विचार कर ने एक ज्ञायकस्वरूप ज हुं छुं एम निर्णय कर, अन्यथा चोरासीना अवतारमां रझळवानी बुरी वले थशे. समजाणुं कांई....! श्रीमदे (आश्चर्य अने खेद प्रगट करीने) कह्युं छे ने के-

“घटपट आदि जाण तुं, तेथी तेने मान;
जाणनार ने मान नहि, कहीए केवुं ज्ञान!”

जुओ, अहीं कहे छे- ‘अने बहार प्रगट थता, अनंत ज्ञेयपणाने पामेला स्वरूपथी भिन्न एवा पररूप वडे अतत्पणुं छे.’ ‘अनंत ज्ञेयपणाने पामेला’ भाषा जुओ. अहा! आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, धन, कुटुंब-परिवार ने देव-गुरु-शास्त्र तथा तेना लक्षे थता पुण्य-पापना भाव- ए बधा परज्ञेय छे, बहारमां प्रगट थता एवा स्वरूपथी भिन्न छे. शुं कीधुं? आ दया, दान, व्रत, तप, भक्ति आदिना राग थाय छे ते बहारमां प्रगट थाय छे अंतरंगमां नहि, ने स्वरूपथी भिन्न छे; तेथी तेओ परज्ञेय छे. आवी वातु छे भाई! अरे! तारा घरनी वात तें कोई दि’ निरांते सांभळी नथी! तारां घर तो मोटानां (महान) छे भाई! बीजानी ओशियाळ न करवी पडे एवुं तारुं मोटुं (अनंत वैभवथी भरेलुं) घर छे बापु! अहा! स्वरूपनी साथे जेणे लग्न मांडयां तेने परनी ओशियाळ शुं? भगवान तुं पूर्णानंदनो नाथ ज्ञानस्वरूपे तत् छो, ने ज्ञेयस्वरूपे नथी माटे पैसाथी के रागथी तने सुख थाय एम छे नहि.


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तारो अंतःपुरुषार्थ तने सघळुं सुख पूरुं पाडे एवी तारी चीज अंदर छे. (तेमां एकाग्र था.) अहो! बहु टूंकामां आ तो गजबनी वात करी छे.

अहाहा....! अंतरंगमां चैतन्यना प्रकाशथी चकचकाट प्रकाशतो ज्ञानस्वभावी आत्मा निज ज्ञानस्वरूपथी तत् छे, ने परज्ञेयरूपथी अतत् छे. एटले आत्मानी वर्तमान दशामां परज्ञेयथी कांई थाय छे एम जरीय नथी. ’ ८३नी सालमां चर्चा चालेली. त्यारे सामेथी कहे- साहेब, पचास टका आत्माना पुरुषार्थना ने पचास टका कर्म-निमित्तना राखो; तो आपणे बधाने मेळ थई जाय. त्यारे कह्युं- आपणा मनमां आपणे गमे ते मानीए, पण वस्तुने (वस्तुना स्वरूपने) ए क्यां मंजुर छे? वस्तु तो कहे छे-सो ए सो टका पुरुषार्थना छे, अने कर्मनो एक टकोय नथी. भाई! आत्मामां निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान-आचरणनी जे जे पर्यायो थाय छे ते सो ए सो टका पोताथी-शुद्ध अंतःपुरुषार्थथी ज छे, परथी के रागथी जरीय नथी. समजाणुं कांई....? शुं थाय? वस्तु ज पोते आवी तत्-अतत्स्वभाव छे.

अरे! लोकोने बिचाराओने आ वेपार-धंधानुं ने बायडी-छोकरांनुं करवा आडे आ समजवानी फुरसद नथी!

हा, पण साहेब! परणती वखते बायडीनो हाथ पकडयो होय तेने केम तरछोडीए? सांभळ भाई! धीरो था बापु! ए परणेलीनो देह छे ए तो जड धूळ छे बापु! ए तो ताराथी भिन्न छे. एने मारो मान्यो छे ए तो तारी ऊंधी पकड छे. एना प्रति मने जवाबदारी छे एम मान्युं छे एय तारी ऊंधी पकड छे. अने ए ममता, ए पकड ज तने दुःख करे छे. जेनाथी तुं अतत् छो एनुं हुं करुं ए ममता चिरकाळ दुःख आपनारी छे भाई!

‘बहार प्रगट थता, अनंत ज्ञेयपणाने पामेला’ -एम कह्युं छे ने? मतलब के ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या’ -एवी आ वात नथी. स्त्री-पुत्र-परिवार, धन-संपत्ति, देह, मन, वाणी ईत्यादि परज्ञेयो जगतमां छे खरा, पण ते परज्ञेयो वडे तने अतत्पणुं छे, अर्थात् तेओ तारामां नथी, तेओ तने कांई करी शकता नथी, अने तुं एमनामां कांई करी शकतो नथी. तारा द्रव्य-गुण-पर्यायथी तुं तत् छो, ने परद्रव्यो वडे अतत् छो एनो आ आशय छे. समजाणुं कांई.....?

शुभाशुभ विकल्प पण तारी चीज नथी भाई! भगवाननी भक्ति, पूजा आदि करे छे ने? पण ए विकल्प तारा ज्ञानस्वरूपनी चीज नथी; अने एनाथी ज्ञानस्वरूपनी प्राप्ति थशे एम पण नथी, केमके ए वडे तुं अतत् छो.

प्रश्नः– तो पछी आ बधां मंदिरो तमे बीजाने देखाडवा करो छो?


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समाधानः– कोण करे, भाई! एना थवा काळे ए थाय छे, अने एनो कर्ता ए (पुद्गल) पदार्थ छे, बीजो कोई एनो कर्ता नथी, आत्मा एनो कर्ता नथी, केमके आत्मा एमां प्रवेशतो नथी. जेमां जे प्रवेशे तेने ते रचे. ते मंदिर आदिमां आत्मा क्यां प्रवेशे छे के आत्मा तेने रचे? वळी ते पदार्थो आत्मामां कयां छे के तेने लईने अहीं ज्ञान-दर्शननी रचना थाय? ते पदार्थो वडे तो आत्माने अतत्पणुं ज छे. आवी वात! समजाणुं कांई....!

हवे कहे छे- ‘सहभूत (-साथे) प्रवर्तता अने क्रमे प्रवर्तता अनंत चैतन्यअंशोना समुदायरूप अविभाग द्रव्य वडे एकपणुं छे, अने अविभाग एक द्रव्यमां व्यापेला, सहभूत प्रवर्तता अने क्रमे प्रवर्तता अनंत चैतन्य-अंशोरूप (-चैतन्यना अनंत अंशोरूप) पर्यायो वडे अनेकपणुं छे;.....’

भाई, धर्म केम थाय एनी आ वात चाले छे. कहे छे- आत्मा वस्तु छे तेमां ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंत गुणो सहभूत एटले साथे-अक्रमे रहेला छे, अने पर्यायो क्रमे प्रवर्ते छे. जेम सोनामां पीळाश, चीकाश, वजन वगेरे गुणो साथे रहेला छे, अने कडां, कुंडळ आदि अवस्थाओ क्रमे प्रगट थाय छे तेम आत्मा वस्तु छे तेने ज्ञान, दर्शन, अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनंत गुणो त्रिकाळ एक साथे रहेला छे, अने पर्यायो एक पछी एक एम क्रमे प्रवर्ते छे. जेमके ज्ञाननी एक समये एक पर्याय, पछी बीजा समये बीजी, पछी त्रीजी ईत्यादि.

हवे कहे छे- आ साथे रहेनारा ज्ञान, दर्शन आदि अनंत गुणो अने क्रमे एक पछी एक प्रगट थनारी पर्यायो -ए बधा चैतन्यना अंशो छे. एना समुदायरूप अभेद- अविभाग-जेना भंग-भेद न पडे -एवी द्रव्य-वस्तु ते वडे आत्माने एकपणुं छे; अर्थात् ते वडे आत्मा एक छे. जुओ, आत्मा एक छे एनी आ व्याख्या करी. बधां द्रव्यो मळीने एक छे एम नहि. अनेक द्रव्यो तो बधां अनेक पृथक् ज छे. अहीं तो आत्मामां अनंत गुण तथा तेनी क्रमे थती पर्यायो ते तेना अंशो छे अने तेना समुदायरूप अभेद एकरूप तेने एकपणुं कहे छे. अहा! (अनंतगुणोथी) अभेद एक उपर नजर पडतां द्रव्यद्रष्टि प्रगट थाय छे ने त्यारे पर्याय जे अनेक छे एमां अमृतनो स्वाद आवे छे. भाई! आ अनेकान्त तो वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरे कहेला जैनदर्शननो महा-सिद्धांत छे.

भगवाननो मार्ग अहिंसा छे एम लोको कहे छे ने? पण एनुं रहस्य शुं? भगवान आत्मा अनंतगुणनो अभेद एक पिंड प्रभु छे एनी सन्मुख थतां जे निर्मळ, वीतरागी दशा प्रगट थाय तेने भगवान अहिंसा कहे छे; अने परद्रव्यना लक्षे थती शुभ के अशुभ रागनी उत्पत्तिने हिंसा कहे छे.


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आत्मा पोते वस्तु छे ते अस्ति छे, सत् छे. तो वस्तु सत् छे तेनो स्वभाव होय के नहि? जेम साकर वस्तु छे तेनो गळपण आदि स्वभाव छे, तेम आत्मा वस्तु छे तेना ज्ञान-दर्शन आदि अनंत स्वभावो छे. अहाहा....! अनंत स्वभावोनुं एक प्रभु आत्मा छे. अहा! आवा अखंड एक चैतन्यस्वभावी प्रभु आत्माने लक्षमां लेतां पर्यायमां शुद्ध चैतन्यस्वभावमय वीतराग दशा प्रगट थाय छे अने तेने सर्वज्ञ परमेश्वरे अहिंसा परमो धर्म कह्यो छे, अने एमां अनेकान्त अने अपरिग्रह आदि भावो समाई जाय छे. कई रीते? ते आ रीते के-परथी खसीने निज चैतन्यमय द्रव्य जेवुं अभेद एक कह्युं तेनी द्रष्टि-तेनी एकाग्रता थतां पर्याय स्वभावमां तद्रूप थई परिणमी अने ते ज अहिंसा धर्म ने ते ज अनेकान्तनी सिद्धि थई गई; अने ए ज मिथ्यात्व जे परिग्रह हतो तेना नाशरूप अपरिग्रह छे. आ रीते अहिंसा धर्ममां अनेकान्त ने अपरिग्रह आदि भावो समाई जाय छे. परथी खसीने स्वमां वसे ते अनेकान्तनुं अमृत छे, ते अहिंसा छे ने ते ज परमां ममत्वना अभावरूप अपरिग्रह छे. समजाणुं कांई-?

अहाहा...! अनंत अनंत आनंदनुं धाम प्रभु आत्मा छे तेमां एकाग्रलीन थई परिणमवुं ते वीतरागी परिणामरूप अहिंसा छे, अने एनुं ज नाम परने पर जाणी, परथी खसी स्वमां वसवारूप-स्वने अनुभववारूप अनेकान्त छे तथा ते ज अपरिग्रहवाद छे. तेवी ज रीते सत्यस्वरूप प्रभु आत्मा छे तेनो सत्कार-स्वीकार करवो ते ज सत्य छे, आथी विरुद्ध राग जे परवस्तु छे तेनो सत्कार-स्वीकार करवो ते असत्य छे; वळी रागथी खसी ब्रह्म नाम आनंदस्वरूप भगवान आत्मामां चरवुं-रमवुं ते ब्रह्मचर्य छे, एनाथी विपरीत रागमां चरवुं-रमवुं ते अब्रह्मचर्य छे. ल्यो, आवी वात. (एक वीतराग परिणाममां पांचे व्रत ने अनेकान्त समाई जाय छे).

वळी कहे छे- ‘अविभाग एक द्रव्यमां व्यापेला, सहभूत प्रवर्तता अने क्रमे प्रवर्तता अनंत चैतन्य-अंशोरूप पर्यायो वडे अनेकपणुं छे.’

अहाहा....! जोयुं? अनंत गुण-पर्यायोना समुदायरूप अभेद जे द्रव्य ते वडे एक छे, ने गुण-पर्यायोना भेदथी जोतां ते वडे अनेकपणुं छे. त्यां ज्यां अनेकरूप एवी पर्याय एकनो (ध्रुव द्रव्यनो) निर्णय करे छे त्यां पर्यायथी अनेकपणुं छे एम भेगुं ज्ञान थई ज जाय छे. आ अपेक्षाए एक छे, ने आ अपेक्षाए अनेक छे एम धारणामां लई लीधुं ते कांई वस्तु नथी. परंतु वर्तमान पर्यायमां एकनो निर्णय-प्रतीति आवी जाय त्यां अनेकपणानुं-पर्यायनुं ज्ञान थई ज जाय छे. भाई! आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरनो मारग अनेकान्तमय वस्तु जेम छे तेम तेनां ज्ञान-श्रद्धान करावे छे. अहा! वस्तु द्रव्यरूपथी जे एक छे ते ज द्रवती थकी पर्यायरूपे अनेकपणे थाय छे, माटे ते ज अनेक छे. आवी वात! समजाणुं कांई....?


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हवे कहे छे- ‘पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावरूपे होवानी शक्तिरूप जे स्वभाव ते स्वभाववानपणा वडे (अर्थात् एवा स्वभाववाळी होवाथी) सत्पणुं छे, अने परना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावरूपे नहि होवानी शक्तिरूप जे स्वभाव ते स्वभाववानपणा वडे असत्पणुं छे.’

अहाहा....! अनंत आत्माओ, अनंतानंत परमाणुओ, असंख्य कालाणुओ, एक धर्मास्तिकाय, एक अधर्मास्तिकाय ने एक आकाश-एम छ पदार्थ भगवाने लोकमां जोया छे. ए छए पदार्थ पोताना द्रव्यपणे, क्षेत्रपणे समयसमयनी अवस्थापणे अने गुणपणे अस्ति छे. तेम अहीं आत्मा-एनुं द्रव्य एटले एनी वस्तु-द्रव्यमान त्रिकाळ, क्षेत्र एटले पहोळाई (त्रिकाळ), भाव एटले शक्ति-गुण त्रिकाळ-ए त्रणेनुं अस्तिपणुं एकरूप छे ते पोताथी छे ने परथी नथी. तेम त्रिकाळनो वर्तमान जे एक समयनो स्वकाळरूप अंश छे ते पण स्वथी छे ने परथी नथी. अहाहा....! एनो वर्तमान वर्ततो जे अंश छे ते स्वकाळे थाय छे अने ते स्वथी छे, परथी नथी. जे पर्याय जे समये सुनिश्चित थवायोग्य छे ते ते समये ज प्रगट थाय छे. आम प्रतिसमय पर्याय नियत-क्रमबद्ध प्रगट थाय छे. आम द्रव्यनो प्रत्येक समये वर्ततो वर्तमान-वर्तमान अंश-

१. एनाथी-स्वथी छे, परथी-निमित्तथी नथी. २. ते स्वकाळे प्रगट थाय छे. जेम त्रिकाळ (द्रव्य-क्षेत्र-भाव) निश्चित छे तेम वर्तमान वर्तती पर्याय पण निश्चित ज छे; हा; पण एनो यथार्थ निर्णय निज त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव पर नजर-द्रष्टि जाय त्यारे ज थाय छे. (अन्यथा क्रमबद्धनो यथार्थ निर्णय थतो नथी)

अत्यारे लोकमां विवाद चाले छे ने! एम के पर्यायो क्रमबद्ध नथी, कार्य निमित्त होय तो एटले के निमित्तथी थाय अने व्यवहारथी निश्चय थाय. आ बधा वांधाना आमां खुलासा आवी जाय छे. केवी रीते? ते आ प्रमाणे-

अनंतगुणनो पिंड प्रभु आत्मा छे. तेनी प्रत्येक समये थती पर्याय स्वथी छे, परथी नथी एनो अर्थ ज ए छे के पर निमित्तने लईने पर्याय थती नथी. पर निमित्त नथी एम नहि, परंतु जेम अनंत द्रव्यो त्रिकाळ अस्तिपणे छे एने कोईनी अपेक्षा नथी, तेम एनी पर्यायनुं एक समयनुं अस्तित्व छे तेने कोईनी अपेक्षा नथी. एक समयनी पर्याय पण स्वसहाय ज प्रगट थाय छे. अहा! पर्यायना एक समयना अस्तित्वने निमित्तनी अपेक्षा तो नथी, खरेखर तो पोताना द्रव्य-क्षेत्र-भावनीय एने अपेक्षा नथी. जुओ, द्रव्य-क्षेत्र-भाव तो सदा एकरूप एकसद्रश छे, छतां पर्यायमां तो विविधता- अनेकविधता छे; माटे पर्याय पर्यायना कारणे ज प्रगट थाय छे ए निश्चय छे.


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अहाहा....! भगवान आत्मा अने अनंता अन्य पदार्थो-रजकण-रजकण सुद्धां अनंतगुणथी भरेलुं तत्त्व छे. एना गुण जे त्रिकाळ छे एनुं परिणमन अर्थात् वर्तमान अवस्थारूपे थवुं ते जे काळे जे थवानुं छे ते थाय ज छे; ए स्वकाळ पोताथी छे, परथी नथी. निमित्त बीजी चीज हो, पण निमित्त छे माटे आ परिणमन छे एम नथी. जे स्वयं सत् छे तेने परनी शुं अपेक्षा? सत्ने परनी अपेक्षा होई शके नहि. व्यवहार अने पर निमित्त ए तो कार्यकाळे एक बीजी चीज छे बस एटलुं ज, बाकी एनाथी आमां (उपादानमां) कांई थाय छे एम छे नहि. माटे हुं होशियार छुं, ने में आ कर्युं एम परनुं करवानां अभिमान जवा दे भाई!

अहा! प्रत्येक द्रव्यमां द्रव्य-क्षेत्र-भाव कायम रहीने पर्याय समये समये क्रमबद्ध प्रगट थाय छे, केमके ते पर्याय पोताथी थाय छे, परथी-निमित्तथी नहि. धर्मी पुरुषने स्वद्रव्यना लक्षपूर्वक जे सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्याय थई छे ते पण एना स्वकाळे थई छे, अने साथे किंचित् राग रही गयो छे ते पण एनो स्वकाळ छे. अहो! इन्द्रो, गणधरो ने मुनिवरोनी उपस्थितिमां धर्मसभामां ईच्छा विना ज भगवाननी वाणी खरी एमां आ वात आवी छे.

अहा! भगवान! तुं कोण छो? अनंतगुणनो पिंड निर्मळानंदनो नाथ प्रभु छो ने! अहा! त्यां नजर करतां ज पर्यायमां शान्ति-वीतरागता आवशे. ए वीतरागता साथे किंचित् शुभराग रही जाय तेने व्यवहार कहीए. शुं कीधुं? जे वीतरागता थई ते निश्चय अने जे राग रह्यो ते व्यवहार. एक समयमां वीतरागता अने राग बन्ने छे. माटे पहेलो व्यवहार ने पछी निश्चय, वा व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात यथार्थ नथी. आ वात द्रव्यसंग्रहमां लीधी छे के-ध्यानमां निश्चय अने व्यवहार एक ज काळे होय छे. (जुओ, द्रव्यसंग्रह गाथा ४७).

वळी कोई विवाद करे छे के- कर्मने लईने विकार थाय, कर्म ज विकार करावे छे. पण भाई! कर्म तो जड छे, ए तो आत्माने अडतां सुद्धां नथी तो ए आत्माने विकार केम करावे? एने लईने आत्मामां शुं थाय? जे अडे नहि ते आत्मामां शुं करे? आत्मानी पर्यायमां विकार थाय ए तो पोतानो पोतावडे थयेलो अपराध छे; कर्म तो तेमां बाह्य निमित्तमात्र छे. अरे, लोको शान्ति अने धीरजथी विचार करता नथी ने आ नवुं काढयुं एम राडो पाडे छे, पण बापु! आ नवुं नथी, आ तो अनादि परंपरामां चाली आवती वात छे.

आत्मा ध्रुवद्रव्यपणे सदा टकतुं तत्त्व छे तो पर्यायपणे पलटे छे. पर्याय अपेक्षाए आत्मा नित्यपरिणामी पदार्थ छे. आ बधुं स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव कीधा तेमां समाई जाय छे. वस्तु त्रिकाळ, क्षेत्र त्रिकाळ, भाव-गुण त्रिकाळ अकृत्रिम पोतावडे पोतापणे


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श्रीमदे एक पत्रमां लख्युं छे के- चैतन्य हो के परमाणु हो, कोईपण पदार्थने नक्की करवो होय तो ते वस्तु-द्रव्य, तेनी पहोळाई-क्षेत्र, तेनो भाव-गुण तथा तेनी वर्तमान दशा शुं छे- एम चार प्रकारथी नक्की करी शकाय, ते विना पदार्थ सिद्ध न थाय. तेम अहीं कहे छे- पोतानुं द्रव्य-वस्तु जे आत्मा छे ते, एना भाव-गुण, एनुं शरीर प्रमाण (छतां शरीरथी भिन्न) असंख्य प्रदेशी क्षेत्र, अने एनी अवस्था-काळ-आम चार खूंटथी वस्तु सिद्ध थाय छे. आम न होय तो एनी दशामां परिणमवुं, एना क्षेत्रमां कायम रहेवुं, गुणोनुं त्रिकाळ टकवुं, ने द्रव्यपणे कायम रहेवुं सिद्ध नहि थाय. भाई! सर्वज्ञना ज्ञानमां सर्व पदार्थ आ रीते (चार खूंटथी) जाणवामां आव्या छे. पदार्थना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव पोताना कारणे सत् होवाथी तेनुं वर्तमान परिणमन-स्वकाळ बीजी चीज होय तो थाय एम छे नहि. एक समयमां विकारी पर्याय प्रगट थाय के अविकारी के विकारी-अविकारी (साधकने चारित्रगुणनी पर्याय विकारी-अविकारी होय छे) -ते एनो स्वकाळ छे. पुण्यथी धर्म थाय इत्यादि मान्यतारूप मिथ्याभ्रम, अज्ञान ने राग-द्वेष अज्ञानीने थाय छे ते ते पर्यायनो स्वकाळ छे, ते काळे निमित्त छे खरुं, मोहनीय कर्मनो उदय छे खरो, पण कर्मने लईने ते पर्याय थाय छे एम नथी. कर्मना द्रव्य-क्षेत्र-काळ- भाव कर्ममां छे, कर्मना उदयने लईने अहीं विकारी पर्याय थाय छे एम नथी. अहा! जेने आ वात बेसी जाय तेनुं शुं कहेवुं? तत्काल एनी द्रष्टि द्रव्यस्वभाव उपर जईने निर्मळ पर्यायनो स्वकाळ तेने प्रगट थाय छे.

अरे! लोको धर्मने साधारण चीज मानी बेठा छे. पण धर्म ए तो कोई महान अपूर्व चीज छे भाई! अहा! अनंतकाळमां अनंतवार ए हजारो राणीओ छोडीने नग्न दिगंबर साधु थयो छे, पण एने धर्म थयो नहि. वस्तुनी स्थिति शुं? तेनी हद-मर्यादा शुं? एनी हदमां परनो प्रवेश नथी, अने परनी हदमां एनो प्रवेश नथी- आवुं यथार्थ समज्या विना बधुं छोडीने त्यागी थाय पण एथी शुं? वस्तुना सत्यार्थ ज्ञान-श्रद्धान विना बधुं ज थोथेथोथां छे. समजाणुं कांई.....!

प्रश्नः– धर्म तो सहेलो हतो, पण आपे मोंघो करी नाख्यो.


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उत्तरः– अरे भाई! धर्मनी सत्यार्थ रीत ज आ छे. आनाथी विपरीत माने आचरे ए बधुं मोंघुं छे, केमके बीजी रीते धर्म हाथ आवे एम छे ज नहि. बापु! स्वस्वरूपनां ज्ञान-श्रद्धान विना तुं व्रत, तप आदि करे पण एमां तो विकल्प ज विकल्प देखाय, एमां कांई अंतःतत्त्व हाथ न आवे, ने धर्म न थाय.

तो हमणां हमणां विकल्पथी शून्य थई जाओ -एवुं चाल्युं छे ए शुं छे? विकल्पथी शून्य थई जाओ- ए तो बराबर छे, पण पोतानुं- आत्मानुं अस्तित्व केवुं ने केवडुं छे तेना ज्ञान विना, तेनी अंतर्दष्टि विना विकल्पनी एकता तूटे केवी रीते? आ चैतन्यमात्र चिद्रूप वस्तु हुं छुं एम स्वसंवेदनमां अस्तिस्वरूप जणाय त्यारे विकल्पनी नास्ति-अभाव थाय ने! ए विना विकल्प कदी तूटे नहि. भाई! अंतर्द्रष्टि विना विकल्पथी शून्य थवा जईश तो जड जेवो (मूढ) थई जईश.

एक वार तुं सांभळ प्रभु! तुं छो के नहि? छो तो केवी रीते छो? तो कहे छे- द्रव्य-क्षेत्र-भावथी अने वर्तमान अवस्थाथी-एम चारेथी तुं सत् छो. मतलब के तारी पर्याय परने लईने नथी. वळी तारुं सत् जो प्रतीतिमां आव्युं तो पर्यायमां अवश्य प्रगट थशे ज.

आत्मा अनंतगुणरत्नाकर प्रभु छे. तेनो संप्रदान नामनो गुण छे. गुणना धरनार गुणी-द्रव्यनी ज्यां प्रतीति थई त्यां वर्तमान पर्यायमां ‘उपाय’ (मोक्षमार्ग) प्रगट थयो, अने ते पर्याये ज ते राख्यो अने नवी पर्याय उपायनुं फळ जे ‘उपेय’ (मोक्ष) थशे एने पण प्रतीतिमां लई लीधो. शुं कीधुं? विशेष खुलासोः के पोतानां द्रव्य-क्षेत्र-भाव तथा एनी वर्तमान दशा -एम चार वडे हुं सत् छुं एम ज्यां नक्की थयुं त्यां एने सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान प्रगट थयां, साथे सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी स्वभावनो अंतरमां स्वीकार थयो. हुं सर्वज्ञ थवाने लायक छुं एम एने प्रतीति थई. अहा! मारो सर्वज्ञ-सर्वदर्शी स्वभाव छे एम प्रतीति थतां साथे ‘भाव-अभाव’ शक्तिनी प्रतीति थई. शुं? के वर्तमान अवस्थामां जे अल्पज्ञपणुं ने किंचित् दुःख छे तेनो अभाव थई, जेनो वर्तमान अभाव छे एवुं सर्वज्ञपणुं अने अनंतसुखनो भाव थशे ज. अहा! पर्यायमां सर्वज्ञता अने सर्वदर्शिता थवामां थोडी वार छे एटलुं, पण ए थशे ज एम श्रद्धान उदय पामे छे. जेम चंद्रनी बीज उगे ते पूनम थाय ज तेम भगवान पूर्णानंदना नाथने प्रतीति ने अनुभवमां लीधो तेने पूरण केवळज्ञान आदि पूर्णदशा थाय ज, न थाय एम कदीय बने नहि. भाई! आ तो रामबाण उपाय बापु! जेम रामनुं बाण फरे नहि तेम भगवाननो मारग फरे नहि एवो अफर छे. जेम देवोए समुद्र वलोवीने एकवार लक्ष्मी ने बीजी वार झेर काढयुं’ तुं ने! (आ लौकिक कथा छे). तेम आत्मा-चैतन्यरत्नाकरने वलोवीने आचार्य अमृतचंद्रदेवे


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भाई! पोतानो सर्वज्ञ-सर्वदर्शी स्वभाव नक्की कर्या विना धर्म थई शके ज नहि. एक समयनी पर्यायमां जेने सर्वज्ञपणुं अने सर्वदर्शीपणुं प्रगट थयुं छे एनो निर्णय करवा जाय एने अंतरंगमां सर्वज्ञ-सर्वदर्शी निज स्वभाव छे एनी द्रष्टि अने निर्णय थाय छे अने एनुं नाम धर्म छे, अंतर्द्रष्टि थवी ते प्रथम धर्म छे. लोको तो भगवाननी भक्ति करे ने उपवास करे ने एमां धर्म माने; पण बापु! तुं जेने उपवास माने छे ते उपवास नथी. उपवास कोने कहीए? ‘उपवसति ईति उपवासः’ शुद्ध चैतन्यनी समीपमां वसवुं ते उपवास छे, बाकी तो उपवास नहि पण ‘अपवास’ नाम माठो वास छे. शुभरागमां वास ते माठो वास (दुर्गतिमां वास) छे. अहा! पुण्यभावने ज्यां सुधी पोतानो माने, करवा जेवो माने, करतां करतां धर्म थशे एम हितरूप माने त्यां सुधी निज चैतन्यस्वरूप शुद्ध अंतःतत्त्वनी द्रष्टि थती ज नथी, अने एना विना बधुं थोथेथोथां ज छे. अरे, लोकोने आत्म-व्यवहार शुं छे एनीय खबर नथी. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य ते निश्चय, ने तेना आश्रये प्रगट थती निर्मळ रत्नत्रयनी परिणति ते व्यवहार. आ आत्मव्यवहार छे. तेने गौण करी शुद्ध एक निश्चयने आदरवो-बस ए ज कर्तव्य छे. बाकी तो “बुद्धि विनाना बावा बने, ने भवसागरमां डूबी मरे” एना जेवी वात छे.

वळी अहीं कहे छे- ‘परना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावरूपे नहि होवानी शक्तिरूप जे स्वभाव ते स्वभाववानपणा वडे असत्पणुं छे.’

जोयुं? परनुं द्रव्य, परनुं क्षेत्र, परनो भाव ने परनी पर्यायरूपे नहि थवानी शक्तिरूप आत्मानो स्वभाव छे. आ शरीर छे ने? ते रूपे-शरीरनी अवस्थारूपे नहि थवानी शक्तिरूप आत्मानो स्वभाव छे. ते ज प्रमाणे कर्मना उदयरूपे नहि थवानी शक्तिरूप आत्मानो स्वभाव छे. आ एक आंगळी छे ने! तेनो बीजी आंगळीरूपे नहि थवानी शक्तिरूप स्वभाव छे. हवे आवी वात छे त्यां लोको तो बीजाने मारुं, ने बीजाने जीवाडुं, ने पैसा कमाउं ने पैसा दउं ईत्यादि परनुं करवानुं माने छे. पण बापु! परनी अवस्थापणे नहि थवानी शक्तिरूप तारो स्वभाव छे. अहाहा....! कर्म शुं? के शरीर शुं? कुटुंब-परिवार शुं? के देव-गुरु-शास्त्र शुं? सर्व परद्रव्यना, एना क्षेत्रना, एना भाव- गुणना अने एनी वर्तमान अवस्थाना स्वरूपे नहि थवानी शक्तिरूप आत्मस्वभाव छे. स्त्रीना देहनी अवस्थापणे के मकाननी अवस्थापणे आत्मा कदीय न थाय एवो एनो स्वभाव छे. अहाहा...! आत्मानो पोतानी पर्यायरूपे थवानो जेम शक्तिरूप स्वभाव छे, तेम तेनो परनी पर्यायरूपे नहि थवानी शक्तिरूप स्वभाव छे.

पण पुरुष पोतानी पत्नीनो पति तो खरो ने?


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अरे भाई! प्रत्येक आत्मा पोतानो पति-स्वामी छे; बाकी परनो पति-स्वामी कोई होई शके नहि; केमके परना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी आत्माने असत्पणुं छे.

आ बधा उद्योगपतिओ कहेवाय छे ए तो साचुं ने? ना, एय साचुं नथी. उद्योग नाम पुरुषार्थ पोतानो पोतामां हाले, पण परमां शुं हाले? परमां कांई ए न करे. अरे, मिथ्या भ्रममां जीव एम ने एम चार गतिमां रखडी मरे छे. बाकी परनी अवस्थापणे तुं थतो नथी तो स्त्रीनो पति ने उद्योगपति क्यांथी थई गयो?

हा, पण पोतानो ६०-७० वर्षनो अनुभव तो बाप दीकराने आपे के नहि? धूळेय आपे नहि सांभळने. ए रागनो अनुभव पोतानो पोतानी पासे रहे, परने कोई दई शके नहि. एक द्रव्य बीजा द्रव्यमां करे शुं? आ शब्दो नीकळे छे ने? ते पुद्गलना स्कंधनी अवस्था छे; आत्मा ते अवस्थाने करे एम त्रणकाळमां बनी शके नहि. अरे! जेने अंदर वस्तुनुं-आत्मानुं परथी भिन्नपणुं भास्युं नथी तेने आत्मा-पोते शुं छे, अने पोतानुं होवापणुं-न होवापणुं शुं छे एनी खबर नथी. साचुं ज्ञान थये, मारी अवस्था परथी छे, ने हुं परपणे छुं एम एने भासतुं नथी. भाई! तारी दशामां परदशापणे थवानी ताकात ज नथी. जेम परद्रव्य-क्षेत्र-भावथी आत्मा असत् छे तेम परना स्वकाळथी अर्थात् परनी पर्यायथी आत्मा असत् छे, अने पोताथी सत् छे. तेथी परनुं करवा आत्मा पंगु-पांगळो छे. आवी वात! समजाणुं कांई.....?

हवे कहे छे- ‘अनादिनिधन अविभाग एक वृत्तिरूपे परिणतपणा वडे नित्यपणुं छे, अने क्रमे प्रवर्तता, एक समयनी मर्यादावाळा अनेक वृत्ति-अंशोरूपे परिणतपणा वडे अनित्यपणुं छे. (आ रीते ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने पण, तत्-अतत्पणुं वगेरे बब्बे विरुद्ध शक्तिओ स्वयमेव प्रकाशती होवाथी, अनेकान्त स्वयमेव प्रकाशे ज छे.)

जोयुं? अनादि अनंत अखंड एक द्रव्यरूपे आत्मा नित्य छे, अने समयसमयनी पलटती पर्यायपणे आत्मा अनित्य छे. आ रीते, कहे छे, ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने तत्- अतत् आदि परस्पर विरुद्ध बब्बे शक्तिओ स्वयमेव प्रकाशित होवाथी अनेकान्त स्वयमेव प्रकाशे ज छे.

प्रश्नः– ‘जो आत्मवस्तुने, ज्ञानमात्रपणुं होवा छतां, स्वयमेव अनेकान्त प्रकाशे छे तो पछी अर्हंत भगवंतो तेना साधन तरीके अनेकान्तने (-स्याद्वादने) शा माटे उपदेशे छे?’

जुओ, आ शिष्यनो प्रश्न छे के -आत्मा जगतनी एक अस्ति-हयातीवाळी वस्तु छे ते ज्ञानमात्र छे एम आप कहो छो, अने ज्ञानमात्र कहेतां ज तेने अनेकान्त स्वयमेव


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उत्तरः- ‘अज्ञानीओने ज्ञानमात्र आत्मवस्तुनी प्रसिद्धि करवा माटे उपदेशे छे एम अमे कहीए छीए.’

जुओ, कहे छे- अज्ञानीओने ज्ञानमात्र आत्मा प्रसिद्ध नथी. तेथी निज आत्मवस्तुनी प्रसिद्धि अर्थे अनेकान्त-स्याद्वाद वडे तेने उपदेशवामां आवे छे. अहाहा....! आत्मा प्रज्ञाब्रह्म स्वरूप प्रभु ज्ञानस्वरूपथी छे ने परज्ञेयस्वरूपथी नथी एम उपदेशतां एने आत्मा ज्ञानमात्र सिद्ध-प्रसिद्ध थाय छे माटे स्याद्वादथी उपदेश छे. समजाणुं कांई....!

अहा! आत्मा ज्ञानमात्र वस्तु छे एनो निर्णय थवा स्याद्वादथी उपदेश छे. त्यां उपदेशने ग्रहण करी हुं ज्ञानमात्र आत्मा छुं एम जे चालती दशामां निर्णय थयो ते ज दशामां परवस्तुनो मारामां अभाव छे एम नक्की थई जाय छे. अहा! ज्ञानमात्र आत्मानो निर्णय थतां हुं द्रव्यस्वरूपे एक छुं अने गुण-पर्यायोना स्वरूपथी अनेक छुं, तथा स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी सत् छुं ने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी असत् छुं एम पण भेगुं आवी जाय छे. वळी वस्तुनी पर्यायो सहज ज क्रमथी (क्रमबद्ध) प्रगट थाय छे, ने हुं तो जाणनार ज छुं एम पण एमां सिद्ध थई जाय छे. आवी वात! समजाणुं कांई.....?

अहा! अंतरमां आत्मा ज्ञानमात्र छे एम ज्यां द्रष्टिमां बेठुं त्यां ज्ञाननी साथे अस्तिपणे अनंतगुणो अक्रमे छे एनुं ज्ञान थयुं, तथा अनंतगुणनी पर्यायो क्षणेक्षणे क्रमबद्ध प्रगट थाय छे एम ज्ञाने जाणी लीधुं. साथे चारित्र अने आनंदगुणनी दशामां किंचित् विकार छे अने ए विकार स्वथी छे, परथी नहि एवुं अंदर भान थतां क्रमे जे जे अवस्थाओ थाय तेनो सर्वज्ञनी जेम आ पण जाणनार-देखनार (ज्ञाताद्रष्टा) थई रहे छे (पर्यायोमां हेराफेरी करवानी बुद्धि करतो नथी). समजाणुं कांई...? आ तो एकदम अंदरनो कस छे.

अहा! ज्ञानमात्र वस्तुपोताथी (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी) छे, ने परथी (परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी) नथी एम ज्यां अंतरंगमां निर्णय थयो त्यां पर्यायना उत्पन्न थवामां परनी-निमित्तनी अपेक्षा-आलंबन रह्यां नहि, ने वस्तु ज्ञानस्वभावमात्र ज छे एम निर्णय थतां पर्यायने फेरववी छे एम पण रह्युं नहि. एटले ज्ञाता-द्रष्टापणे ज प्रवर्तन थयुं. आम अनेकान्त-स्याद्वाद वडे वस्तुने-आत्माने समजतां-साधतां महान आत्मलाभ थाय छे.

भाई! जेओ एम माने छे के आत्मानी अवस्था परथी थाय छे तेओने आत्मा


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ज्ञानमात्र छे एम बेठुं ज नथी. खरेखर भगवान सर्वज्ञदेवे जोयेलो ने कहेलो आत्मा ज्ञानस्वभावमात्र वस्तु छे एम जेने द्रष्टिमां आव्युं तेने स्वभाव अने स्वभावनो पुरुषार्थ थई गयां, कर्मनो अभाव पण थई गयो तथा जे स्वभावना निर्णयरूप दशा थवा योग्य हती ते ज थई अने ते स्वकाळे क्रमबद्ध ज थई एम भवितव्यता अने काळलब्धि पण थई गयां, आम पांचे समवाय अने तेनो यथार्थ निर्णय एक साथे थई जाय छे. समजाणुं कांई.....?

जुओ, शिष्यनो प्रश्न छे के- आत्मा ज्ञानमात्र छे एम कहेतां ज तेमां अनेक धर्मो सिद्ध थई जाय छे तो भगवान केवळीए अनेकान्तने साधन केम कह्युं? तो कहे छे- अज्ञानीने ज्ञानमात्र आत्मानी खबर नथी, तेथी अनेकान्त-स्याद्वाद वडे तेने उपदेश करवामां आवे छे. एम के आत्मा ज्ञानस्वरूपथी तत् छे, अने परज्ञेयरूपथी नथी, अतत् छे एम जाणतां मारुं ज्ञान परज्ञेयने लईने नथी एम निर्णय थाय छे अने तेथी परावलंबन-निमित्तनुं आलंबन मटी जाय छे, अर्थात् स्वावलंबन प्रगट थाय छे अर्थात् ज्ञान स्वभावी निज स्वरूपनो यथार्थ निर्णय थाय छे.

अरे! लोकोने तत्त्वनो अभ्यास नथी तेथी तेओ स्वतत्त्वने यथार्थ जाणता नथी. कोई तो आ आत्मा सर्वथा एक छे एम माने छे, तो कोई एकांते सर्वव्यापक माने छे, वळी कोई एकांते कर्ता माने छे, तो कोई एकांते नित्य माने छे ईत्यादि. आ प्रमाणे तेओ अवळे चीले चढी गया छे, अने अनंत जन्म-मरण कर्या करे छे. अहा! तेमने सर्वज्ञे कहेलुं तत्त्व-आत्मस्वरूप जे रीते छे ए रीते स्याद्वाद वडे उपदेशवामां आवे छे; केमके वस्तुना यथार्थ ज्ञान ने भान विना एनां सर्व अनुष्ठान-क्रिया संसार अर्थे ज फळे छे.

ज्ञानमात्र आत्मा पोतापणे-ज्ञानस्वभावपणे छे, ने परपणे-जडस्वभावपणे नथी एवुं भान थतां प्रत्येक समये प्रगट थती पर्याय परने लईने नथी, पराधीन नथी पण स्वाधीन प्रगट थाय छे. विकारी परिणमन जे थाय छे ते पण स्वाधीनपणे थाय छे, पण एम नथी के बीजी चीज-निमित्त-कर्म एने पराधीन करे छे. आवुं ज्ञानमात्र वस्तुनुं यथार्थ भान थतां तेने क्रमशः परावलंबी परिणमन मटी जाय छे अने अंते पूर्ण स्वाधीन परिणमन प्रगट थाय छे. आ स्याद्वादनुं फळ छे.

तेथी कहे छे- ‘खरेखर अनेकान्त (स्याद्वाद) विना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ज प्रसिद्ध थई शकती नथी. ते नीचे प्रमाणे समजाववामां आवे छे’ -

‘स्वभावथी ज बहु भावोथी भरेला आ विश्वमां सर्व भावोनुं स्वभावथी अद्वैत होवा छतां, द्वैतनो निषेध करवो अशक्य होवाथी समस्त वस्तु स्वरूपमां प्रवृत्ति अने