Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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रागना प्रेममां अज्ञानीए चैतन्यस्वभावी आत्माने मरणतुल्य करी नाख्यो छे. परंतु पोतानी निर्मळ परिणति द्वारा ज्यारे ते जाणवामां आवे त्यारे ते जीवती ज्योत प्रगट ज छे-एम कहे छे, आवी वात छे जैनदर्शननी! अहो! जैनदर्शन अलौकिक छे! जैनधर्म एटले शुं? जैनधर्म अनुभूतिस्वरूप एटले के वीतरागतास्वरूप छे. अहाहा! जैन एने कहेवाय के जेणे रागने जीत्यो छे अने पर्यायमां वीतरागता प्रगट करी छे. आवो जैनधर्म! पण आव्यो वाणियाने हाथ, वाणिया वेपारमां कुशळ एटले बस धंधामां ज गरी गया. बिचाराओने समजवानी फुरसद नहि, एटले आ कर्युं अने ते कर्युं-एम बहारनी क्रियाओ करी; पण भाई! ए बधी अज्ञाननी होळी छे.

रंग-राग अने भेदना भावो तो पुद्गल छे. तो ए सर्वथी भिन्न भगवान आत्मा केवो छे? तो कहे छे ‘इदं चैतन्यम्’ आ एटले आ प्रगट चैतन्यस्वभावमय ज आत्मा छे. अहाहा! भगवान आत्मा एकला चैतन्यस्वभावथी भरेलो छे. अर्थात् चैतन्यस्वभाव ए ज आत्मा छे. आ (६८ मी) गाथानी टीकामां आवे छे के चैतन्यस्वभावथी व्याप्त आत्मा छे. आत्मामां चैतन्यस्वभाव व्याप्त छे एम न कहेतां चैतन्यस्वभावथी व्याप्त आत्मा छे एम कही शुं सिद्ध करवुं छे? ए के चैतन्यस्वभाव त्रिकाळ कायम रहेलो छे अने ए व्यापक छे अने आत्मा एनुं व्याप्य छे. मोक्ष अधिकारनी गाथा र९८-र९९ नी टीकामां पण आवे छे के चेतनाथी व्याप्त आत्मा छे, अर्थात् चेतना व्यापक अने चेतन आत्मा एनुं व्याप्य छे, आथी चैतन्यस्वभाव कायमी छे एम सिद्ध कर्युं छे.

आत्मा रंग-राग-भेदथी व्याप्त नथी, भिन्न छे, तो ते शुं छे? तो कहे छे के चैतन्यस्वभावथी व्याप्त आत्मा छे. आवो चैतन्यस्वभाव सदाय प्रगट छे, स्फुट छे, प्रत्यक्ष छे. अहाहा! शुद्ध चैतन्यनी परिणतिथी जणाय एवो ते वर्तमानमां प्रत्यक्ष छे. मति-श्रुतज्ञाननी पर्यायमां ए जणाय एवो वर्तमानमां प्रत्यक्ष, प्रगटपणे बिराजमान छे. रागनी अपेक्षाए ते चैतन्यस्वरूप आत्मा गुप्त छे, ढंकायेलो छे, केमके रागमां ते आवतो नथी, जणातो नथी. परंतु निर्मळ परिणति द्वारा ते स्फुट-प्रगट ज छे, छूपायेलो नथी. शुं कह्युं? के दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिना विकल्पकाळे वस्तु प्रसिद्ध नथी, गुप्त छे केमके ए विकल्पोमां वस्तु आवती नथी. वस्तु तो निर्विकल्प चैतन्यमय शुद्ध छे, अने ते शुद्ध परिणतिनी अपेक्षाए प्रगट-प्रत्यक्ष ज छे. चैतन्यतत्त्व निर्मळ परिणतिथी प्रसिद्ध-प्रगट ज छे. अहा! शैली तो जुओ! केवी स्पष्ट वात छे!

जुओ, आ आत्मा चैतन्यनी निर्मळ परिणति द्वारा जणाय छे अने ते जणाय छे त्यारे ते प्रत्यक्ष छे, प्रगट छे एम जणाय छे. ते परोक्ष छे, अप्रगट छे-ए तो जे रागनी रमतमां (प्रेममां) बेठो छे एने माटे छे. जे व्यवहाररत्नत्रयनी रमतमां (प्रेममां) पडयो छे तेने तो भगवान आत्मा अप्रत्यक्ष-गुप्त छे, केमके तेने ए जणातो ज नथी.


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छतां आत्मवस्तु ते काळे रागरूप थई जती नथी. रागना काळे आत्मवस्तु गुप्त छे, पण रागरूप थई जती नथी. तथा ज्यारे स्वसंवेदनज्ञाननी निर्मळ परिणति द्वारा ते जणाय छे त्यारे ते प्रत्यक्ष ज छे एम जणाय छे. आवुं स्वरूप छे, भाई! तो आवो आत्मा शुं जिनदेवनो हशे! भाई, जिनदेवनो एटले जिनस्वरूपी एवा आ भगवान आत्मानो. अहाहा! बधाय आत्मा निश्चये आवा छे. समयसार नाटकमां अंतिम प्रशस्तिमां ३१मा छंदमां बनारसीदासे कह्युं छे ने के-

“घट घट अंतर जिन बसै, घट घट अंतर जैन;
मत-मदिराके पानसौं, मतवाला समुझै न.”

चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मानुं आवुं स्वरूप छे के जे प्रगट छे, ढंकायेलुं नथी. अज्ञानदशामां ते गुप्त हतुं पण हवे ते ज्ञानदशामां प्रगट थई गयुं छे एम कहे छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना रागनी परिणतिमां तो ते चैतन्यवस्तु गुप्त हती, पण हवे स्व- परिणतिना वेदनथी ते प्रत्यक्ष-प्रगट थई छे. बहु टूंका शब्दोमां आत्माने प्रसिद्ध कर्यो छे. टीकानुं नाम पण आत्मख्याति छे ने! भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावमय वस्तु छे. ते स्वसंवेद्य छे. कजात एवा रागादि वडे ते जणाय एम नथी, केमके रागादि भाव चैतन्यना- आत्माना नथी, पण पुद्गलना छे. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो राग हो तो पण तेमां चैतन्यनो अंश नथी तेथी कजात छे, पुद्गलमय छे. तेथी रागादि वडे आत्मा जणाय एवो नथी. छतां चैतन्यस्वभाव तो त्रिकाळ जेवो छे तेवो ज छे. रागकाळे पण तेवो ज छे. परंतु तेने जाणवाना काळे-स्वसंवेदनना काळे ते जेवो छे तेवो प्रत्यक्ष अने प्रगट थाय छे एम कहे छे.

अहाहा! आ तो कळश चढाव्यो छे कळश! जेम मंदिर बनावीने एना उपर काट विनानो सोनानो कळश चढावे छे, तेम राग विनानो चैतन्य-चमत्कारस्वरूप भगवान आत्मा निर्मळ परिणति द्वारा-शुद्ध रत्नत्रय द्वारा जणाय छे त्यारे ते प्रत्यक्ष-प्रगट छे एम जणाय छे- आम टीका उपर कळश चढाव्यो छे. अरे, भाई! जरा पुरुषार्थ करीने मति-श्रुतज्ञानना उपयोगने सूक्ष्म कर तो चैतन्यतत्त्व मळे एवुं छे. ज्ञाननो उपयोग निज चैतन्यमां जोडवो ते सूक्ष्म उपयोग छे. ए सूक्ष्म उपयोग वडे वस्तु प्रगट छे एम भान थाय छे. स्थूळ रागना उपयोगथी चैतन्यवस्तु नहि मळे, भाई! केमके ए स्थूळ उपयोगनी पर्याय पुद्गलनी छे. अहा! आवी वात लोकोने एकांत लागे, पण भाई! मार्ग आ ज छे, बापु! आ सम्यक् एकांत ज छे.

श्रीमद् राजचंद्रे पण कह्युं छे के-‘अनेकान्त पण सम्यक् एकान्त एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए उपकारी नथी.’ सम्यक् एकान्तनुं (शुद्ध चैतन्यमय आत्मानुं) भान ज्यारे थाय छे त्यारे पर्याय अने रागनुं ज्ञान थाय छे-होय छे, अने तेने अनेकान्तनुं


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साचुं ज्ञान कहे छे. सम्यक् एकान्त तरफ ज्यारे ढळे छे त्यारे तेने जे ज्ञान थाय छे ते स्वनुं छे, अने ते ज काळे जे राग बाकी छे ते पर्यायनुं पण ज्ञान थाय छे अने ते साचुं अनेकान्त छे. सम्यक् एकान्त (शुद्ध चैतन्यमय वस्तु)नुं ज्ञान राखीने पर्यायनुं ज्ञान थाय ते अनेकान्त छे.

प्रमाणज्ञानमां पण, त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनुं-एकान्त निश्चयनुं ज्ञान थाय त्यारे पर्याय अने रागने पण जाणवां ए प्रमाणज्ञान छे. ते प्रमाणज्ञान पण खरेखर तो सद्भूत व्यवहारनयनो विषय छे, कारण के एमां बे (द्रव्य अने पर्याय) आव्यां ने? अने ते कारणे प्रमाण पूज्य नथी. जेमां पर्यायनो निषेध आवतो नथी एवुं प्रमाणज्ञान पूज्य नथी, ज्यारे निश्चयनयमां पर्यायनो निषेध आवे छे माटे ते पूज्य छे एम कह्युं छे. प्रमाणज्ञानमां, निश्चयथी द्रव्य अभेद छे एवुं ज्ञान राखीने एमां रागनुं, पर्यायनुं ज्ञान भेळव्युं छे. निश्चयना ज्ञानने उडाडीने रागनुं, पर्यायनुं ज्ञान भेळव्युं छे एम नथी. जो निश्चयनुं ज्ञान उडाडे तो ते प्रमाणज्ञान ज नथी, त्रिकाळी द्रव्य शुद्ध छे एवुं ज्ञान राखीने, ते उपरांत पर्यायनुं ज्ञान कर्युं त्यारे ज्ञान प्रमाणज्ञान-सम्यग्ज्ञान थयुं छे. ‘द्रव्य शुद्ध छे’ एवुं निश्चयनुं ज्ञान ते सम्यक् एकान्त छे. आ निश्चयना ज्ञानने उडाडीने, जो रागनुं ज्ञान थाय तो ते प्रमाणज्ञान ज नथी. आवो झीणो मार्ग छे, पण आ ज मार्ग छे. सूक्ष्म कहो के झीणो कहो; वस्तु आ ज छे.

अहाहा! ‘इदम् चैतन्यम्’–इदम् एटले आ. आ एटले आ अनादि, अनंत, चळाचळता रहित, स्वसंवेद्य प्रगट वस्तु छे ते चैतन्यस्वभावमय छे. आत्मा वीतराग सर्वज्ञस्वरूप चैतन्यस्वभावमय छे अने ते चैतन्यनी निर्मळ परिणति द्वारा जणाय एवो प्रत्यक्ष छे. वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा त्रणलोकना नाथ सभामां इन्द्रोने एम कहेता हता के प्रभु! जेम अमे वीतराग सर्वज्ञ छीए एम तुं पण वीतराग सर्वज्ञस्वरूप छे. अमे वीतरागस्वभावमांथी ज वीतराग थया छीए. माटे कहीए छीए के वीतराग चैतन्यस्वरूप आत्मा वीतराग परिणति द्वारा जणाय एवो प्रत्यक्ष छे. अहाहा! वीतरागदेवे वस्तु वीतराग ज्ञ-स्वरूप कही छे अने एने जाणनारी परिणति पण वीतरागतामय ज कही छे. प्रभु! जो तुं जिनस्वरूप न होय तो जिनपणुं पर्यायमां कयांथी प्रगट थशे? अहा! तुं चैतन्यस्वभावी आत्मा जिनस्वरूप ज छो अने तेने जाणनारी पर्याय वीतराग-परिणति ज छे. आ वीतराग परिणति धर्म छे. लोकोने आ समजवानी नवराश न मळे एटले सामायिक, पोहा अने प्रतिक्रमण इत्यादि क्रियाकांड करे अने माने के धर्म थई गयो. पण बापु! ए तो बधा रागना प्रकार छे अने एनाथी चैतन्यस्वरूप आत्मा जणातो नथी.

हवे आगळ कहे छे के-आ चैतन्य केवुं छे? के ‘उच्चैः चकचकायते’ अत्यंतपणे


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चकचकाट प्रकाशी रह्युं छे. जेम सूर्य जाज्वल्यमान प्रकाशे छे तेम आ भगवान आत्मा चैतन्यना प्रकाश वडे अतिशयपणे चकचकाट प्रकाशी रह्यो छे.

प्रश्नः– तो ए देखातो तो नथी?

उत्तरः– भाई! रागना अंधारामां ए तने देखातो नथी. रागनां अंधारां तो अचेतन छे. दया, दान, व्रत, भक्ति-इत्यादि जे राग छे ए तो अंधारुं छे. ए अंधारामां चैतन्य केम देखाय? अचेतनमां चैतन्य केम जणाय? ए तो चकचकाट ज्ञानस्वभावनी वीतरागी परिणति द्वारा जणाय छे. अने त्यारे व्यवहार-रागनुं पण ज्ञान थाय छे. आवो वीतरागनो मार्ग यथार्थ समज्या विना लोको बिचारा कंईकनुं कंईक मानीने, कंईकनुं कंईक करीने जीवन अफळ करीने संसारमां-अनंतकाळनी रखडपट्टीमां चाल्या जाय छे!

चकचकाट प्रकाशी रह्युं छे ए चैतन्य ‘स्वयं जीवः’ स्वयं जीव छे. जेम रंग-राग अने भेदने पुद्गल सिद्ध कर्या तेम अतिशय चकचकाट प्रकाशी रहेलुं आ चैतन्य छे ते स्वयं जीव छे एम सिद्ध करे छे. एकलो चैतन्यस्वभाव अहीं सिद्ध नथी करवो, जीव सिद्ध करवो छे. एटले कहे छे के अनादि, अनंत, चळाचळतारहित, स्वसंवेद्य, प्रगट अने बहु ऊंचेथी अत्यंतपणे चकचकाट प्रकाशी रहेली आ चैतन्यस्वभावमय वस्तु छे ते स्वयं जीव छे. लोको तो चाले ते त्रसजीव अने स्थिर रहे ते स्थावर जीव एम माने छे. अरे भगवान! जीवनी ए व्याख्या ज खोटी छे. प्रभु! तुं त्रसेय नथी अने स्थावरेय नथी. तुं रागीय नथी अने द्वेषीय नथी. तुं पुण्यवाळो के पापवाळो, कर्मवाळो के शरीरवाळो ए कांई तुं नथी. तो तुं छो कोण? प्रभु! के हुं तो चैतन्यस्वभावी जीव छुं आम ज्यारे अंदर प्रतीतिमां आवे अने ज्ञानमां जणाय त्यारे जीवने यथार्थ मान्यो अने जाण्यो कहेवाय. नवतत्त्वमां भिन्नपणे रहेला आत्माने त्यारे जाण्यो कहेवाय.

नवतत्त्वमां अजीव तत्त्व तो भिन्न छे. पुण्य, पाप, आस्रव अने बंध तत्त्व पण भिन्न छे. ज्यारे जीव बीजा तत्त्वोथी भिन्न छे तो ते केवो छे? के ए तो चैतन्यस्वभावमय स्वयं जीव छे. आ (शुद्ध जीव) सम्यग्दर्शननो विषय छे. आवो चैतन्यस्वभावी जीव ज्यारे स्वसंवेदन ज्ञानमां जणाय त्यारे रागादि भावो व्यवहारे जाणेला प्रयोजनवान छे-जे वात बारमी गाथामां लीधेली छे.

आ अतिशयपणे चकचकाट प्रकाशमान वस्तु स्वयं जीव छे, जाणे जगतनो सूर्य. स्वयं प्रकाशे अने बीजी चीजने पण ‘छे’ एम प्रकाशे छे. धर्मास्ति, अधर्मास्ति ईत्यादि ‘छे’,रागादि ‘छे’-एम सर्वने छेपणे आ भगवान चैतन्यस्वभाव जाणे छे. भगवान आत्मा जेने जणायो छे ते जाणे छे के आ बीजी चीज छे. परंतु ते अन्य सर्वने परज्ञेय तरीके जाणे छे. रागादिने पण परज्ञेय तरीके जाणे छे.


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आ शास्त्रज्ञान छे ने ए परज्ञेय छे. जे शास्त्रज्ञानमां ज निमग्न छे ते परज्ञेय-निमग्न छे अने परज्ञेय-निमग्न छे ते स्वज्ञेयनो (चैतन्यस्वभावमय शुद्ध आत्मानो) अनादर करे छे. गजब वात! एने तो एम थाय के हुं आवो पंडित, आटलां तो हुं शास्त्र जाणुं अने ए कांई नहि! हा भाई, सांभळ. शास्त्रज्ञानने तो बंध अधिकारमां शब्दज्ञान कह्युं छे. शब्दज्ञान ए कांई आत्मज्ञान छे? शब्दज्ञान कहो के परज्ञेय कहो-एक ज चीज छे. ज्ञानी शास्त्रज्ञानने पण परज्ञेयपणे जाणे छे.

आम वर्णादि अने रागादि भावो जीव नथी. परंतु उपर कह्यो छे तेवो चैतन्यभाव ज जीव छे. ज्ञाननी पर्यायमां एने ज्ञेय बनावतां जीव आवो चैतन्यस्वभावमय प्रत्यक्ष-प्रगट छे एम जणाय छे ए संक्षेपमां एनो भावार्थ छे.

हवे, चेतनपणुं ज जीवनुं योग्य लक्षण छे एम कळशरूप काव्य द्वारा समजावे छेः-

* कळश ४२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

कहे छे के-‘यतः अजीवः अस्ति द्वेधा’ अजीव बे प्रकारे छे-‘वर्णाद्यैः सहितः’ वणादिसहित ‘तथा विरहितः’ अने वर्णादिरहित. वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, रागादि वर्णादिसहित छे अने बीजां अमूर्त द्रव्यो वर्णादिरहित छे. ‘ततः’ माटे ‘अमूर्तत्वम् उपास्य’ अमूर्तपणानो आश्रय करीने पण अर्थात् अमूर्तपणाने जीवनुं लक्षण मानीने पण ‘जीवस्य तत्त्वं’ जीवना यथार्थ स्वरूपने ‘जगत् न पश्यति’ जगत देखी शक्तुं नथी.

अहा! आ चैतन्यस्वभावमय जीव तो ज्ञानलक्षणथी लक्षित छे. अर्थात् ज्ञान वडे जणाय एवी ए चीज छे. ते रागथी के अमूर्तपणाथी जणाय एवो नथी. कारण के अमूर्त तो अन्य द्रव्यो पण छे तेथी अमूर्तपणावडे पण आत्मा जणातो नथी. ए तो ज्ञानना परिणमन वडे ज जणाय एवो छे. जे ज्ञान वडे निज आत्माने जाणे छे तेने धर्म थाय छे.

हिंसा, जूठ आदि अशुभ भावथी तो आत्मा जणाय नहि, पण दया, दान, व्रत, भक्ति आदि विकल्पोना शुभभावथी पण आत्मा जणातो नथी. शुभाशुभभाव तो चैतन्यना विकारो छे. तेओ अचेतन छे केमके शुद्ध चैतन्यमां तेओ व्यापता नथी. तेथी अचेतन एवा ते विकारो वडे चैतन्यवस्तु आत्मा केम जणाय? रागादि भाव ए कांई चैतन्यना लक्षणरूप नथी के ते वडे आत्मा जणाय, तथा अमूर्तपणुं बीजा द्रव्योमां पण छे. तेथी अमूर्तपणा वडे पण जीवने अन्य द्रव्योथी भिन्न जाणी शकातो नथी, आत्माने अन्य द्रव्यथी भिन्न जाणवो होय तो एक चैतन्यलक्षण वडे ज जाणी शकाय छे. परद्रव्यथी भिन्न निजस्वरूपनो अनुभव चैतन्यलक्षणथी ज थाय छे.

जगतना जीवो रागादिथी आत्माने जाणी शक्ता नथी, तेम ज अमूर्तपणाथी पण आत्माने जुदो पाडी शक्ता नथी-ओळखी शक्ता नथी. ‘इति आलोच्य’ आम परीक्षा


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करीने ‘विवेचकैः’ भेदज्ञानी पुरुषोए ‘न अव्यापि अतिव्यापि वा’ अव्याप्ति अने अतिव्याप्ति दूषणोथी रहित ‘चैतन्यम्’ चेतनपणाने जीवनुं लक्षण कह्युं छे. भेदज्ञानीओए एटले धर्मी जीवोए अनुभव करीने राग अने अमूर्तपणाथी भिन्न एवा चेतनपणाने जीवनुं लक्षण कह्युं छे. रागादि भावो जीवनी सर्व अवस्थाओमां व्यापता नथी. माटे रागादिने जीवनुं लक्षण मानतां अव्याप्तिनो दोष आवे छे. ज्यारे अमूर्तपणुं अन्य द्रव्योमां पण छे, तेथी तेने जीवनुं लक्षण कहेतां एमां अतिव्याप्तिनो दोष आवे छे.

आवुं समजवा मळे नहि एटले लोको तो दया पाळो, व्रत करो अने उपवास करो-एम क्रियाओ करवाथी आत्मलाभ थशे एम माने छे. पण भाई! ए तो बधी रागनी क्रियाओ छे. ए क्रियाओ तो अचेतन जड छे, ए क्रियाओ वडे चैतन्यनो-आत्मानो लाभ केम थाय? वळी अमूर्तपणा वडे पण आत्मा जाणी शकातो नथी केमके अमूर्तपणुं तो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ एम अन्य द्रव्योमां पण छे. तेथी आम जाणीने धर्मी जीवोए चैतन्यपणाने जीवनुं निर्दोष लक्षण कह्युं छे.

जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं-ए जाणक एवा चैतन्यतत्त्वनुं लक्षण छे. अर्थात् ज्ञानलक्षण वडे आत्माने लक्ष करीने तेनो अनुभव थई शके छे, सम्यग्दर्शन पामी शकाय छे. अहाहा! ज्ञानलक्षण वडे लक्ष्य एवा आत्माने पकडतां तेनो अनुभव थाय छे अने ते धर्म छे. परंतु दया, दान, व्रत के भक्तिथी आत्मा पकडाय एम नथी केमके ते कोई आत्मानुं लक्षण नथी. ए तो सर्व राग छे अने रागनी आत्मामां अव्याप्ति छे. आत्मानी सर्व अवस्थाओमां ए राग व्यापीने रहेता नथी, कदाचित् संसार अवस्थामां ते हो, पण मोक्ष अवस्थामां ते सर्वथा नथी. माटे राग आत्मानुं लक्षण नथी. तेथी गमे तेवो मंद राग होय तोपण ते वडे भगवान आत्मा जणातो नथी. तेवी रीते अमूर्तपणा वडे पण भगवान आत्मा जाणी शकातो नथी, केमके अमूर्तपणा वडे आत्माने जाणतां अतिव्याप्तिनो दोष आवे छे. आम विचारीने भेदज्ञानी जीवोए चैतन्यपणाने जीवनुं लक्षण कह्युं छे. अहाहा! ज्ञानना परिणमननी जे दशा छे ते लक्षण छे अने ते द्वारा आत्मा जाणी शकाय छे. त्रिकाळी चैतन्यतत्त्वने लक्ष करी ज्ञाननुं जे परिणमन थाय छे ते परिणमननी दशामां भगवान आत्मा जणाय छे अने ए ज्ञानना परिणमननी क्रिया ते धर्म छे.

हवे कहे छे के ‘समुचितम्’ ते योग्य छे. शुं? के चैतन्यपणाने जीवनुं लक्षण कहेवुं ते समुचित एटले योग्य छे, बराबर छे. केम? केमके ते अव्याप्ति अने अतिव्याप्ति दोषथी रहित छे. अहा! न्यायथी-युक्तिथी वात करे छे. कहे छे के आत्मा ज्ञान द्वारा जणाय एम छे केमके भगवान आत्मा त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छे. राग ए तारुं लक्षण नहि, केमके ते सर्व अवस्थाओमां व्यापतो नथी तेथी तेनी आत्मामां अव्याप्ति छे. परंतु ज्ञान ए तारुं-आत्मानुं लक्षण छे केमके आत्मा त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छे. जीवनी सर्व अवस्थाओमां ज्ञान प्रसरे छे, तेथी ज्ञानलक्षण अव्याप्ति-दोषरहित छे. वळी आत्माने


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छोडीने ज्ञान कोई अन्य द्रव्यमां छे नहि. तेथी आत्मानुं ज्ञानलक्षण अतिव्याप्ति दोषथी रहित छे. आ प्रमाणे चैतन्यपणाने जीवनुं लक्षण कहेवुं बराबर छे, व्याजबी छे.

अहाहा! भगवान आत्मा अंदर चैतन्यनुं बिंब प्रभु ज्ञाननो गांठडो छे. एमांथी अनंत अनंत केवळज्ञानादि प्रगटे तोपण कांई खूटे नहि एवो ए ज्ञाननो रसकंद छे. ए ए तो ज्ञाननुं मूळ छे जेमांथी ज्ञान अखूटपणे नीकळ्‌या ज करे. आवो आत्मा वर्तमान ज्ञाननी पर्याय वडे जणाय छे. एटले के वर्तमान ज्ञाननी पर्याय ज्ञायकस्वभावी आत्मानुं लक्ष करे त्यां ‘आ ज्ञायकबिंब छे’ एम आत्मा जणाय छे. आनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे. आ ज्ञाननी क्रिया ए धर्मनी क्रिया छे. आ प्रमाणे ज्ञानलक्षण ए आत्मानुं समुचित एटले योग्य लक्षण छे.

आगळ कहे छे के-‘व्यक्तम्’ ते चैतन्यलक्षण प्रगट छे. चैतन्यने जाणनारी पर्याय प्रगट छे माटे चैतन्यलक्षण प्रगट छे एम कहे छे. ए प्रगट चैतन्यलक्षण द्वारा ‘आत्मा ज्ञानस्वरूप त्रिकाळ’ छे एम जाणी शकाय छे. गजब वात! अहा! आत्मा तो ‘अजायबघर’ छे. ते अनंतगुणोरूप अजायबीओथी भरपुर छे. वर्तमान ज्ञानपर्याय तेने जाणे, पण त्यां जे जणाय छे ते ज्ञान (आत्मा) तो अहाहा! अनंत अने अमाप छे. आमां ‘मों-माथुं हाथ आवे नहि’ (समजण पडे नहि) एटले लोको बिचारा शुं करे? व्रत, तप, इत्यादिमां जोडाई जाय. आम ने आम तुं अनंतकाळथी करतो आव्यो छे, पण भाई! व्रत, तपना विकल्प ए आत्मानुं (एने जाणवानुं) लक्षण नथी. कहे छे के इन्द्रियोने बंध करी, इन्द्रियोना जे विषय थाय छे तेनुं लक्ष छोडी दईने तथा मनना लक्षे उपजता विकल्पोनुं पण लक्ष छोडी दईने अंदर चैतन्यस्वभावी भगवान आत्माने चैतन्यलक्षण वडे अनुभववो ते सम्यग्दर्शन पामवानी रीत छे. आत्मा चैतन्यबिंब छे. चैतन्यनी जे प्रगट ज्ञानदशा ते एनुं लक्षण छे. माटे प्रभु! ए लक्षण द्वारा अंदर जा अने जो तो तेनो अनुभव थशे. अहाहा! ज्ञाननी पर्याय अंतर्मुख थई स्वने जाणे छे त्यारे अंदर तो अद्भुत अनंतगुणनो चैतन्यगोळो जणाय छे. तथा जे अनंतगुणो भर्या छे एने पण ज्ञान देखी ले छे.

बापु! वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरे आम ज कह्युं छे अने संतो पण एम ज कहे छे. भाई! तुं तने पोताने पकडीने कयारे अनुभवी शके? के ज्ञाननी पर्यायने-लक्षणने पकडीने स्वमां जाय त्यारे. आ सिवाय गमे तेवा मंदरागथी-दानादि क्रियाथी आत्मा जणाय एम नथी.

प्रश्नः– तो अमारे दान करवुं के नहि?

उत्तरः– भाई! ए दान करवानो-रागनी मंदतानो भावो आवे ए जुदी वात छे.


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पण तेथी कांई आत्मा न जणाय, सम्यग्दर्शन न थाय. आत्मा तो चैतन्यलक्षण जे प्रगट ज्ञाननी पर्याय छे तेने अंदर वाळतां जणाय.

हवे कहे छे के-चैतन्यलक्षण व्यक्त-प्रगट छे अने ‘व्यञ्जित–जीव–तत्त्वम्’ तेणे जीवना यथार्थ स्वरूपने प्रगट कर्युं छे, एटले के जाणवानी जे दशा छे-जे लक्षण छे -ते प्रगट छे अने तेणे आखा चैतन्यतत्त्वने प्रगट कर्युं छे, अहाहा! ज्ञाननी पर्यायने ज्ञायकभाव तरफ वाळतां- ढाळतां, तेणे ज्ञायकने प्रगट कर्यो छे एम कहे छे. वर्तमान ज्ञाननी पर्यायने अंतरमां वाळतां शुद्ध चैतन्यस्वभावमय जीवनो अनुभव थाय छे अने तेथी तेणे जीवना यथार्थ स्वरूपने प्रगट कर्युं छे एम कहे छे.

भगवान आत्मा ज्ञानानंदनो कंद प्रभु छे, ते अनादिनो एवो ने एवो छे. तेने वर्तमान ज्ञानलक्षण-ज्ञाननी पर्याय ‘आ चीज आवी छे’ एम प्रगट करे छे.

प्रश्नः– पण आवो आत्मा देखातो नथी ने?

उत्तरः– भाई! एने तुं अंदर देखवा जाय छे ज कयां? देखवा जाय तो देखाय ने? ज्ञाननेत्र उघाडीने अंदर जुए तो देखाय ने? भाई! ‘आत्मा नथी देखातो,’ ‘मने हुं नथी देखातो’ एवो निर्णय कर्यो कोणे? एवो निर्णय कर्यो शामां? एवो निर्णय पोते ज्ञाननी पर्यायमां कर्यो छे, अने ए ज ज्ञान आत्मा छे. ए ज्ञाननी पर्यायने पकडीने अंदर जा तो आनंदनो नाथ भगवान जरूर देखाशे. बापु! आ तो जन्म-मरणना चक्रावानो अंत लाववानी अपूर्व वात छे. बाकी बीजुं बधुं (व्रत, तप आदि) तो घणुं कर्युं छे.

अहीं तो कहे छे के भगवान आत्मा त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छे, अने तेनी वर्तमान पर्यायमां पण ज्ञानअंश प्रगट छे. हवे जे ज्ञानअंश प्रगट छे ते ज्ञानलक्षण वडे त्रिकाळी ज्ञायकस्वभावने पकड अने तेनो अनुभव कर. ए ज्ञानलक्षणथी अनुभव थई शकशे कारण के ते ज्ञायकनुं वास्तविक लक्षण छे. शुं कहे छे? जाणवानी पर्याय वर्तमानमां प्रगट छे के नहि? न होय तो ‘आ शरीर छे, राग छे’ एम जाणे कोण? माटे ज्ञानपर्याय प्रगट छे. परंतु ए ज्ञानपर्याय परने जाणे छे. छतां ते एनुं-परनुं लक्षण नथी. ज्ञानपर्याय तो स्वद्रव्यनुं लक्षण छे. एने अंतरमां वाळीने जो तो तने आत्मा देखाशे, सम्यग्दर्शन थशे. आवो मार्ग कदी सांभळ्‌यो होय नहि एटले ‘अहिंसा परमो धर्मः’ -कोई जीवने न मारवो ए धर्म छे अने ए बधा सिद्धांतनो सार छे-एम प्ररूपणा करे छे. आ मळ्‌युं ज नथी एटले बिचारा शुं करे?

प्रश्नः– तो अमारे पर जीवोनी दया पाळवी के नहि?

उत्तरः– भाई! पर जीवनी दया आत्मा कयां पाळी शके छे? पर जीवनी दया हुं पाळी शकुं छुं ए भाव तो मिथ्यात्व छे. तथा पर जीवनी दया पाळवानो जे


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शुभभाव छे ते बंधनुं कारण छे. पर जीवनी दयाना भावथी कांई आत्मा जणातो नथी एम अहीं कहे छे. पर जीवनी दया पाळवानो भाव तो राग छे. अने राग छे ए तो आकुळतामय दुःखरूप दशा छे. ज्यारे भगवान आत्मा तो त्रिकाळ निराकुळ आनंदस्वरूप छे, तो आकुळताना भावथी निराकुळ तत्त्व केम प्राप्त थाय? (न थाय). परंतु ए रागना काळे, रागथी भिन्न जे ज्ञाननी पर्याय छे एनाथी आत्मा जणाय एवो छे. अहाहा! ज्ञाननी पर्याय रागने पण जाणे छे छतां ज्ञान ए रागनुं लक्षण नथी. ज्ञाननुं, राग लक्षण नथी अने रागनुं, ज्ञान लक्षण नथी. ज्ञान तो भगवान चैतन्यस्वभावमय आत्मानुं लक्षण छे अने तेणे (ज्ञान पर्याये) जीव तत्त्वने प्रगट कर्युं छे. अहाहा! केवी अजब वात!

प्रश्नः– तो ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’ एम कह्युं छे ने?

उत्तरः– पण भाई! ज्ञानक्रियाभ्याम् एटले शुं? आत्मा जे त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छे एनुं ज्ञान करवुं अने ते ज्ञानमां ठरवुं एनुं नाम ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’ छे. अहीं तो संतो एम जाहेर करे छे के-प्रभो! तुं पोते पोताने ज्ञाननी पर्यायथी जणाय एवुं तारुं स्वरूप छे. लाख वातनी वात के क्रोड वातनी वात आ ज छे. जे ज्ञाननी पर्याय परने जाणवानुं काम करे छे ते कांई परनुं लक्षण नथी. माटे जाणनारी वर्तमान पर्यायने, ते जेनुं लक्षण छे एवा ज्ञायकस्वभावमां वाळ. तेथी तने ज्ञायकनुं स्वरूप व्यंजित एटले प्रगट थशे-जणाशे. आवी वात छे.

अहीं बे वात करी छे. जीवतत्त्वने चैतन्यलक्षणे करीने जाणवुं केमके चैतन्यपणाने जीवनुं लक्षण कह्युं छे अने ते योग्य छे-एक वात; तथा ते लक्षण प्रगट छे-बीजी वात. शुं कह्युं? के जाणवानी जे पर्याय प्रगट छे ते जाणवाना परिणामथी आत्मा जणाय छे अने एनाथी जे जणाय छे ते आत्मा पण प्रगट छे. वर्तमान ज्ञाननी पर्याय जे प्रगट छे ते द्वारा जाणतां ज्ञायक जे शक्तिरूपे छे ते ‘आ प्रगट छे’ एम प्रगट जणाय छे. अहाहा! केटलुं समाव्युं छे! थोडा शब्दोमां ‘गागरमां सागर’ भरी दीधो छे. दिगंबर संतोए-केवळीना केडायतीओए शुं गजब काम कर्यां छे! तेओ जिनेश्वरपद अल्पभवमां ज पामवाना छे.

अहीं कहे छे के-प्रभु! तुं तने रागथी नहीं जाणी शके कारणके राग तारुं स्वरूप नथी. तेम ज तुं अमूर्त छे तोपण, अन्य धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यो अमूर्त छे तेथी अमूर्तपणा वडे आत्माने जाणवा जतां अन्य द्रव्यो पण आत्मानी साथे एक थई जशे. ते कारणे अमूर्तपणाथी पण आत्माने परथी भिन्न जाणी शकाशे नहि. मात्र एक चैतन्यलक्षण वडे आत्माने भिन्न पाडी शकाय छे अने ए चैतन्यलक्षण तने प्रगट छे. ते प्रगट लक्षण जीवना स्वरूपने प्रगट करे छे. माटे ए चैतन्यलक्षण जे पर्यायमां प्रगट छे ते वडे आत्माने जाण तो द्रव्य तने व्यंजित एटले प्रगट थशे.


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प्रश्नः– परंतु हमणां ते केम जणातो नथी?

उत्तरः– तेने जाणवा माटे जेटली गरज जोईए तेटली गरज कयां छे? जे उपयोगथी ते पकडाय ते उपयोग कयां प्रगट करे छे? स्थूळ उपयोगथी आत्मा पकडातो नथी पण सूक्ष्म उपयोगथी ते पकडाय छे. अज्ञानी उपयोगने सूक्ष्म करतो नथी तेने आत्मा जणातो नथी. न्यायथी वात छे ने! ज्ञायक तरफ ढळेली मति-श्रुतज्ञाननी पर्याय ते सूक्ष्मउपयोग छे. ए सूक्ष्म-उपयोग वडे ज ज्ञायक आत्मा पकडाय छे. अरे! केटलाक तो व्रत-तप करवामां अटकया छे, तो वळी केटलाक देव-गुरु-शास्त्रनी भक्तिमां कल्याण छे एम मानी अटकया छे. बन्नेय एक जातना मिथ्यात्वमां अटकेला छे. तेने कहे छे के भाई! वर्तमान ज्ञानपर्याय, जे लक्षण छे तेने ज्ञायक भणी वाळी दे तो तने आत्मा अवश्य जणाशे.

अहाहा! त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरदेवनो आ हुकम छे के तारुं चैतन्यलक्षण तो तने प्रगट छे. प्रभु! जो बिलकुल लक्षण प्रगट ज न होय तो लक्ष्यने पकडवुं मुश्केल पडे. परंतु एम तो नथी. चैतन्यलक्षण तो वर्तमान प्रगट ज छे. माटे प्रगट ज्ञानलक्षण वडे लक्ष्य एवा ज्ञायकने पकड. तेथी ज्ञायकवस्तु जे गुप्त छे ते प्रगट थशे एटले जणाशे. अहाहा! शुं श्लोक छे! आवी वात बीजे कयांय नथी. अहीं लक्षण जे ज्ञाननी पर्याय ते द्वारा लक्ष्य-त्रिकाळी ज्ञायकवस्तुने पकडतां ज्ञायकवस्तु प्रगट थाय छे एटले ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञायक आखो आवी जाय छे एम अर्थ नथी; परंतु ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञायकवस्तुनुं सामर्थ्य केटलुं छे ते भासे छे. ज्ञायकद्रव्य जो पर्यायमां आवी जाय तो पर्यायना नाशे द्रव्यनो पण नाश थाय, परंतु द्रव्य तो ध्रुव छे, अने पर्याय तो अंश छे. तेथी पर्यायमां आखुं द्रव्य केम आवे? ज्ञायकस्वभाव तरफ ढळेली ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञायकनुं सामर्थ्य भासे-जणाय तेने ज्ञायक प्रगट थाय छे एम कहे छे. ज्ञायकवस्तु तो त्रिकाळ जेवी छे तेवी ज छे. पण एनी द्रष्टि करतां ज्ञानपर्यायमां एम भासे छे के वस्तु महाप्रभु आनंदनुं दळ ज्ञायकभावपणे आवी छे. प्रगट पर्याय ज्यां ज्ञायक तरफ वळी त्यां ते प्रगट देखाय छे. आवी वात छे.

अहा! कुंदकुंदाचार्य दिगंबर संत हता. संवत ४९ मां थया हता. अने तेओ त्रिलोकनाथ परमात्मा भगवान सीमंधर प्रभु ज्यां महाविदेहमां बिराजे छे त्यां गया हता. त्यां आठ दिवस रहीने समवसरणमां साक्षात् भगवाननी वाणी सांभळी हती तेम ज श्रुतकेवळी साथे चर्चा करी हती. पछी त्यांथी आवीने आ शास्त्रो बनाव्यां छे. त्यांथी तेओ शुं लाव्या? आ लाव्या के चैतन्यलक्षणे जणाय एवो आत्मा छे. आ देह, वाणीनी जे क्रिया छे ए तो जड छे. माटे एनाथी जीव जणाय नहि. पुण्य-पापना भाव पण जड विपरीतस्वभाववाळा अंधकारमय छे, माटे एनाथी पण जीव जणाय एम नथी, तो


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जीव केम करीने जणाय? तो कहे छे के जीव चैतन्यलक्षणे करीने जणाय छे अने ते चैतन्यलक्षण प्रगट छे.

हवे कहे छे के ते ‘अचलम्’ अचळ छे. ते चैतन्यलक्षण चळाचळतारहित छे अने सदा मोजूद छे. अहाहा! ते चैतन्यलक्षण स्वमांथी खसीने जडमां के रागमां जाय एवुं नथी, अने ते सदा हयाती धरावे छे, त्रिकाळी ज्ञानलक्षण तो ध्रुव छे. तेने वर्तमान ज्ञानलक्षणथी- ज्ञानपर्यायथी जाणतां जणाय एवो छे, माटे कहे छे. के-हे जगतना जीवो! ‘आलम्ब्यताम्’ तेनुं ज अवलंबन करो. लक्षणनी पर्यायने आलंबन द्रव्यनुं आपो. जेनुं ते लक्षण छे एवा ज्ञायक द्रव्यनुं एने आलंबन आपो. जगतना जीवो ज्ञानलक्षणनुं ज आलंबन करो, केमके ते वडे ज यथार्थ जीवनुं ग्रहण थाय छे.

हे जगतना जीवो, त्रिकाळी शुद्ध चैतन्य भगवाननुं आलंबन लो अने राग अने निमित्तनुं आलंबन छोडो, केमके राग अने परना आलंबनथी कल्याण थतुं नथी. ज्ञाननी पर्याय द्वारा अंदर जतां यथार्थ जीवनुं-ज्ञायकतत्त्वनुं ग्रहण थाय छे माटे एनुं आलंबन लो.

* कळश ४२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

कहे छे के-वर्णादि भावो जीवमां कदी व्यापता नथी. वर्ण कहेतां रंग अने आदि एटले रागादि भावो. तेओ जीवमां निश्चयथी कदी व्यापता नथी, तेथी तेओ निश्चयथी जीवनां लक्षण छे ज नहि. तेओ एक समयनी पर्यायमां छे, परंतु अंदर द्रव्यमां कयां व्यापे छे? भगवान ज्ञानस्वरूपी आत्मामां रंग अने रागादि कयां छे? माटे तेओ निश्चयथी जीवनां लक्षण छे ज नहि. आ दया, दान, व्रतादिना भाव छे ए तो राग छे, अने राग जीवनुं लक्षण नथी, तेथी ए वडे जीव जणातो नथी. अर्थात् एनाथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी.

वर्णादि भाव निश्चयथी जीवमां व्यापता नथी. जो तेओ व्यवहारथी व्यापे छे एम मानवामां आवे तोपण दोष आवे छे. सिद्धोमां तो ते भावो व्यवहारथी पण नथी माटे अव्याप्ति दोष आवे छे. जो वर्णादि भावो जीवना होय तो सदाय जीवमां रहेवा जोईए, परंतु तेओ सिद्ध अवस्थामां व्यवहारे पण होता नथी. माटे तेओ सदाय जीवमां व्यापता नथी, माटे वर्णादि भावोनो आश्रय करवाथी जीवनुं यथार्थ स्वरूप ओळखातुं नथी. अर्थात् रंग, राग आदि भावोनो आश्रय करवाथी जीवस्वरूपनुं सम्यग्ज्ञान थतुं नथी.

हवे कहे छे के अमूर्तपणुं सर्व जीवोमां व्यापे छे. तेथी ‘आत्मा अमूर्त छे’ एम लईए तो? तोपण दोष आवे छे, कारण के धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश


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अने काळ ए चार द्रव्यो पण अमूर्त छे. भगवाने छ द्रव्य जोयां छे. तेमां आत्मा उपरांत धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ ए चार द्रव्यो पण अरूपी-अमूर्त जोयां छे. एटले अमूर्तपणुं लक्षण तरीके लेवामां आवे तो, अमूर्तपणुं पोतामां अने अन्य द्रव्योमां पण छे ते कारणे, एना वडे आत्मा जणाय एवो नथी. अमूर्तपणुं जेम जीवमां व्यापे छे तेम अन्य चार द्रव्योमां पण व्यापे छे. तेथी अमूर्तपणुं जीवनुं लक्षण मानतां अतिव्याप्ति नामनो दोष आवे छे. माटे अमूर्तपणानो आश्रय करवाथी पण जीवनुं यथार्थ स्वरूप ग्रहण थतुं नथी.

हवे कहे छे के चैतन्यलक्षण सर्व जीवोमां व्यापतुं होवाथी, एटले के जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं-एवुं जे लक्षण छे ते सर्व जीवोमां व्यापतुं होवाथी अव्याप्ति दोषथी रहित छे. कोई वखते ते लक्षण होय अने कोई वखते ते न होय एम नथी. ए सर्व जीवमां सदा व्यापे छे. तथा चैतन्यलक्षण जीव सिवाय अन्य कोई द्रव्यमां व्यापतुं नथी, माटे अतिव्याप्ति दोषथी पण ते रहित छे. तेमज ते चैतन्यलक्षण प्रगट छे. माटे एनो ज आश्रय करवो. वर्णादिभावोनो आश्रय करवाथी यथार्थ स्वरूप ओळखातुं नथी एम नकार कर्यो हतो. हवे अस्तिथी लीधुं के चैतन्यलक्षणनो ज आश्रय करवो केमके ते वडे जीवना यथार्थ स्वरूपनुं ग्रहण थई शके छे.

अहाहा! आत्मा त्रिकाळ ज्ञायकस्वभावी प्रभु छे. ते ज्ञानलक्षण वडे एटले वर्तमान ज्ञाननी पर्याय द्वारा जणाय छे. ज्ञाननी पर्याय ज्ञायक तरफ ढळतां एमां ज्ञायकना स्वरूपनुं यथार्थ ग्रहण थाय छे. अहाहा! केवी वात करी छे! बहारनां व्रत पाळवाथी, भक्ति करवाथी के तप करवाथी आत्मा न जणाय. भाई, ए तो बधो राग छे, ए कांई जीवनुं लक्षण नथी के एनाथी जीव जणाय.

शंकाः– व्यवहारथी पण थाय अने निश्चयथी पण थाय; नहींतर एकांत थई जशे.

समाधानः– भाई! एम नथी. पूर्ण वीतराग न होय त्यां सुधी व्यवहार होय छे, पण ए व्यवहारथी निश्चय पमाय छे एम नथी. सम्यग्ज्ञान अने चारित्रमां अल्पता छे. तेथी साधकने राग-व्यवहार होय छे. पण ते राग साधन छे अने तेथी आत्माने लाभ थाय छे एम नथी. मंदराग पण राग ज छे. मंदरागथी शुं लाभ थाय? पुण्य बंधाय पण तेथी अबंध स्वभाव हाथ आवे नहि. ज्ञायकवस्तु तो ज्ञाननी निर्मळ परिणति वडे ज जणाय छे अने रागथी नहि. आवुं ज स्वरूप छे.

भाई! आ तो जीवन चाल्युं जाय छे. घणा जीवो तो मरीने तिर्यंच थता होय छे. कारण के आर्य मनुष्यने मांस-दारू इत्यादि तो होतां नथी तेथी नरकमां तो न जाय. वळी धर्म तो छे नहि अने जेथी पुण्य बंधाय एवां सत् शास्त्रोनां पठन-पाठन, श्रवण-चिंतवन-मनन इत्यादिनी पण फुरसद मळे नहि, आखो दिवस संसारमां पापनी प्रवृत्तिओ


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करे अने एम ने एम देह छूटी जाय. तेथी भगवान तो एम कहे छे के घणा जीवो अहींथी मरीने पशुमां-ढोरमां अवतरे छे. तिर्यंचनी संख्या पण मोटी छे. भाई! आवां टाणां मळ्‌यां छे तोपण जो आ न समज्यो अने बहारमां रोकायो तो अवसर चाल्यो जशे. अरेरे! धर्मना नामे पण लोकोने कुधर्म मळ्‌यो छे!

प्रश्नः– पण अमारे देशनुं भलुं तो करवुं ने?

उत्तरः– भाई! कोण देशनुं भलुं करी शके छे? ‘हुं देशनुं भलुं करी शकुं छुं’ ए मान्यता ज मिथ्या छे. कोनो देश? आ देश कयां तारो छे? ए तो परक्षेत्र छे. तारो देश तो असंख्यातप्रदेशी चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा छे.

त्यारे ते कहे छे-व्यवहारथी तो छे?

भाई! व्यवहार तो कहेवामात्र छे. एनो अर्थ ज ए के ए तारो नथी. लोको मात्र ‘आ मारुं गाम छे’ एम नथी कहेता? (हा, कहे छे). तो शुं ते गाम एमनुं छे? जराय नहि. गाम तो गामनुं छे. तेम भाई! कोना देश अने कोना पादर? प्रभु! ज्यां (भलुं करवानो) राग तारो नथी त्यां देश तारो कयांथी आव्यो? राग छे ए तो उपाधि-संयोगीभाव छे, ते कांई स्वभावभाव नथी, स्वभावभाव तो चैतन्यलक्षण छे.

अहीं आनंदने जीवनुं लक्षण कह्युं नथी केमके ते प्रगट नथी. ज्यारे चैतन्यनी पर्याय तो प्रगट छे तेथी चैतन्यने जीवनुं लक्षण कह्युं छे.

आम तो पंचास्तिकायमां ‘उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य’ लक्षण कह्युं छे. ए तो वस्तुने सिद्ध करवा कह्युं छे. त्यां राग-द्वेष, पुण्य-पापने जीवनुं लक्षण कह्युं छे केमके ते जीवनी पर्यायमां थाय छे एम त्यां सिद्ध करवुं छे. ज्यारे अहीं तो वास्तविक धर्म जेनाथी थाय ए लक्षण छे एम लेवुं छे.

‘उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तम् सत्’ एम कह्युं छे त्यां विकारी उत्पादने जीवनुं लक्षण कह्युं छे. परंतु ए जुदी चीज छे. ए लक्षण द्वारा तो वस्तुनी स्थिति-मोजूदगी सिद्ध करवी छे. परंतु अहीं तो त्रिकाळी चैतन्यस्वभाव ज्ञाननी पर्यायथी ज जणाय एवो छे, रागथी नहि, माटे ज्ञानने ज एनुं लक्षण कह्युं छे.

हवे आत्मानो जाणक...जाणक...जाणकस्वभाव ज्ञानलक्षण वडे प्रगट छे, अर्थात् ज्ञानलक्षणथी जीव जणाय एवो छे, छतां लोको अज्ञानमां आ लक्षणने केम जाणता नथी? - आम आचार्य आश्चर्य अने खेद प्रगट करे छे. हजी विकल्प छे ने? तेथी आचार्य आश्चर्य अने खेद बतावे छेः-

* कळश ४३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इति लक्षणतः’ आम पूर्वोक्त जुदां लक्षणने लीधे ‘जीवात् अजीवम् विभिन्नम्’


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जीवथी अजीव भिन्न छे एटले के राग जे अजीव छे तेथी जीव-भगवान आत्मा भिन्न छे. तथा ‘स्वयं उल्लसन्तम्’ तेने (अजीवने) पोतानी मेळे स्वतंत्रपणे जीवथी भिन्न विलसतुं- परिणमतुं ‘ज्ञानीजनः’ ज्ञानी पुरुष ‘अनुभवति’ अनुभवे छे.

शुं कह्युं? के ज्ञानी रागने आत्माना चैतन्यस्वभावथी भिन्न अनुभवे छे. अर्थात् धर्मी जीव ज्ञानस्वभावी आत्माने अनुभवे छे त्यारे, अनुभवमां राग आवतो नथी पण ते भिन्न रही जाय छे, ते भिन्न छे एम जणाय छे. माटे ते राग जीव नथी, अजीव छे. राग एटले देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धा, शास्त्रना भणतरनो विकल्प, अने पंचमहाव्रतनो भाव इत्यादि. कहे छे के धर्मात्माने ज्ञानलक्षणे लक्षित आत्मानो अनुभव थतां, ते रागने ज्ञानना अनुभवथी भिन्न जाणे छे. धर्मीपुरुष अजीवने पोतानी मेळे स्वतंत्रपणे जीवथी भिन्नपणे परिणमतुं जाणे छे. अनुभव विना राग जुदो छे-जुदो छे एम कोई कहे ए वात नहि. आ तो स्वानुभवनी ज्ञानपरिणतिमां ते राग-अजीव आवतो नथी माटे एने ज्ञानी जुदो जाणे छे एम कहे छे.

दया, दान, व्रत, आदिना विकल्प अजीव केम छे? केमके चैतन्यलक्षणे आत्माने अनुभवतां, ज्ञानना वेदनमां आनंदनुं वेदन जोतां, रागनुं वेदन आवतुं नथी पण ते भिन्न रही जाय छे. माटे ते दया, दान आदिना विकल्प अजीव छे, जीवथी भिन्न छे. हवे कहे छे के आवुं स्वरूप छे ‘तत्’ तोपण ‘अज्ञानिनः’ अज्ञानीने ‘निरवधि–प्रविजृम्भितः अयं मोहः तु’ अमर्यादपणे फेलायेलो आ मोह ‘कथम् नानटीति’ केम नाचे छे? ज्ञान अने राग ए बेना एकपणानी भ्रांति केम नाचे छे? तुं तो ज्ञायकस्वभावी भगवान छो ने! अने आ राग तो अचेतन छे. प्रभु! तने ए बेना एकपणानो भ्रमरूप मोह केम नाचे छे? तने आ शुं थयुं छे? एम कहे छे.

अहा! आत्मा शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे. ज्ञानलक्षणे तेने अनुभवतां अनुभवथी राग भिन्न रही जाय छे. तेथी राग छे ए तो मडदुं-लाश छे, एमां चैतन्य नथी. आम छे तोपण अज्ञानीने आवुं मडदुं केम नाची रह्युं छे? आ चैतन्यनी साथे मडदाने केम एकमेक कर्युं छे? अरे भाई! जीवती ज्योत् प्रभु चैतन्यमय आत्माने भूलीने आ राग साथे तने एक्ताबुद्धि केम थई छे? ‘अहो बत’ आम आचार्यश्री अमृतचंद्राचार्यने करुणाना भावपूर्वक प्रशस्त खेद अने आश्चर्य थाय छे. कुंदकुंदाचार्य महाराज-दिगंबर संत २००० वर्ष पहेलां थई गया. अने तेमना पछी तेमनी परंपरामां अमृतचंद्राचार्य १००० वर्षे थया. तेओ खेद दर्शावतां आ कळशमां कहे छे के-जेमां चैतन्यपणुं नथी एवा रागादि भावोथी अज्ञानीने एक्तानो मोह- भ्रान्ति केम थई रह्यां छे?

भाई! शुं शास्त्र वांचवाथी ज्ञान थाय छे? ना, वांचवाथी ज्ञान थतुं नथी. जे ज्ञाननी पर्याय थाय छे ए तो एनो जन्मकाळ छे तेथी थाय छे, शब्दोथी थती नथी.


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तथा ए परलक्षी ज्ञान कांई सम्यग्ज्ञान नथी. सम्यग्ज्ञान तो ज्ञानलक्षणे करीने ज्ञायकने अनुभवतां जे ज्ञान थाय छे ते छे. जेवुं स्वरूप ज्ञाननुं छे तेनो नमूनो प्रगटे ते सम्यग्ज्ञान छे. अहा! आत्मा तो विज्ञानघन छे. एमां कोईनो प्रवेश नथी. आ लोढानुं टांकणुं छे ने, एनी अंदर पण अवकाश छे. लोढुं छे छतां एमां थोडो अवकाश-आकाशना प्रदेशो छे. तद्न लोढुं घन-एकमेक नथी. ज्यारे आ भगवान आत्मा तो ज्ञान अने आनंदथी संपूर्ण एकमेक छे. तेमां जराय अवकाश नथी. हीरा, माणेकमां पण अंदर अवकाश-आकाशना प्रदेशो होय छे, पण आ ज्ञानानंदघन प्रभु आत्मामां जराय अवकाश नथी. आवो होवा छतां आचार्य कहे छे के तेने राग सहित मानवारूप निरवधि फेलायेलो मोह-स्वपरनी भ्रान्ति केम नाचे छे? आचार्य पोते धर्मात्मा संत छे अने अल्पकाळमां मोक्ष जवाना छे. पण हजी विकल्प छे ने! तेथी आ आश्चर्य साथे खेद दर्शावे छे के-आ चैतन्यघनस्वरूप आत्मामां रागनो प्रवेश नथी छतां राग साथे एकपणुं मानीने तने आ शुं थयुं छे?

आश्चर्य-मह्द आश्चर्य छे के शुद्ध चैतन्यनुं बिंब प्रभु आत्मा त्रिकाळ ध्रुव अंदर अस्तिपणे बिराजमान छे अने ते ज्ञानलक्षणे करीने जणाय एवो छे छतां एने नहि जाणतां, अरेरे! अज्ञानी राग साथे एकपणुं करीने मोहथी नाचे छे!

वळी, फरी मोहनो प्रतिषेध करे छे अने कहे छे के अज्ञानीनी मान्यतामां स्व-परनी एक्ताबुद्धिथी जो मोह नाचे छे तो नाचो, तोपण भगवान ज्ञायक तो ज्ञायकस्वरूप ज छे. वस्तु तो वस्तुपणे आम ज छेः-

* कळश ४४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अस्मिन् अनादिनि महति अविवेक–नाटये’ आ अनादिकाळना मोटा अविवेकना नाटकमां ‘वर्णादिमान् पुद्गलः एव नटति’ वर्णादिमान पुद्गल ज नाचे छे. शुं कहे छे? के राग अने आत्मा एक छे एवी जे मान्यता छे ते अविवेकनुं मोटुं नाटक छे. अविवेकनुं नाटक एटले स्वपरनी एक्तानुं नाटक. चैतन्यब्रह्म प्रभु आत्मा आनंदनो नाथ छे. आवा नाथ साथे रागना एकपणानो भाव ते अविवेकनुं नाटक छे अने एमां पुद्गल ज नाचे छे.

वस्तु तो त्रिकाळ ज्ञायकस्वभावी ज छे. परंतु आ रंग-रागादि भावो, निगोदथी मांडीने पंचेन्द्रिय सुधीना भावो जे छे ते बधायमां पुद्गल ज नाचे छे. भगवान आत्मा तो एक ज्ञायकपणे ज रहे छे. रंग-रागादि भावोमां ए कयां प्रसरे छे? चैतन्यदेव तो सदाय चैतन्यपणे ज रह्यो छे. आ रागादि भावो छे ए तो पुद्गलनो ज नाच छे. तेओ पुद्गलपूर्वक ज थया छे अने तेथी तेमां पुद्गल ज नाचे छे एम कहे छे. अहाहा! अनंतकाळमां जे शुभभाव थयो ए पुद्गलनुं परिणमन छे. अशुभभाव थयो ते पुद्गलनुं परिणमन छे; तथा शुभभावनुं फळ जे स्वर्ग आव्युं ए पण पुद्गलमय छे अने अशुभ-


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भावनुं फळ जे नरक-तिर्यंच आव्युं ए पण पुद्गलमय छे. आम रागादि भावोमां सर्वत्र पुद्गल ज नाची रह्युं छे.

आत्मा तो जेवो छे तेवो सदाय ज्ञायकपणे छे. प्रवचनसारनी गाथा २००नी टीकामां पण छे के अनादिनो जीव ज्ञायक ज रह्यो छे. आ रागादि भावोमां ए ज्ञायक नाचतो नथी पण पुद्गल ज नाचे छे. आ पुण्य-पापना भाव अने एनां चारगतिरूप फळ तथा शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय इत्यादिनो संयोग-ए बधामां ‘पुद्गलः एव नटति’ पुद्गल ज नाचे छे.

प्रश्नः– रागनी परिणति तो जीवनी छे ने?

उत्तरः– रागनी परिणति जीवनी एक समयनी पर्यायमां छे तेथी तेने व्यवहारथी जीवनी कही छे, तोपण निश्चयथी ते चैतन्यस्वभावमय नथी. रागादिमां चैतन्य प्रसरतुं नथी माटे ते अचेतन पुद्गलमय छे. भाई! जे भावथी तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भाव पण अचेतन- पुद्गल छे केमके ते चैतन्यनी जातिनो नथी. जुओने, आमां शुं लख्युं छे? के अनादिकाळना मोटा अविवेकना नाटकमां वर्णादिमान पुद्गल ज नाचे छे.

जेम नाटकमां पडदा पडे तेम पुण्य-पापना फळरूपे स्वर्गमांथी पशुमां जवुं अने पशुमांथी नरकमां जवुं-एम चारगतिमां परिभ्रमण करवुं ए बधा अनेकरूप पडदामां पुद्गलना ज ठाठ छे, एमां शुद्धचैतन्यमय जीव छे ज नहि. ए तो शुद्ध चैतन्यपणे त्रिकाळ ज्ञायकपणे ज रहे छे, कदीय शुभाशुभभावपणे थतो ज नथी. छठ्ठी गाथानी टीकामां पण आवे छे के भगवान आत्मा शुभाशुभभावना स्वभावे कदीय थयो नथी. जो ते-रूपे थाय तो जड थई जाय केमके शुभाशुभभाव तो जडस्वभावी छे. तेथी कहे छे के पुण्य-पापना भावपणे अने तेना फळपणे पुद्गल ज नाची रह्युं छे. गजब वात छे!

हवे आगळ कहे छे ‘न अन्यः’ अन्य कोई नहि. अभेदज्ञानमां पुद्गल ज अनेक प्रकारनुं देखाय छे, जीव तो अनेक प्रकारनो छे नहि. भगवान आत्मा तो शुद्ध बुद्ध एकस्वभावी अभेदस्वभावी चैतन्यमय छे. अहाहा! सदाय पवित्र चैतन्यस्वभावमय एकरूप वस्तुमां अनेकपणुं नथी. एटले के शुभाशुभभाव अने तेना फळरूप संयोगनुं अनेकपणुं आत्मामां नथी. कहे छे के राजा थाय, रंक थाय, नारकी थाय, देव थाय, तिर्यंच थाय, कीडी, कबुतर के कागडो थाय-ए अनेकपणामां पुद्गलनो नाच छे. एमां सदाय एकरूप चैतन्य कयां प्रसर्यो छे? सत्य समजवुं होय एने आ वात कहे छे. एमां वादविवादथी कांई पार पडे एम नथी.

प्रश्नः– अहीं पुण्य-पाप आदि भावो पुद्गलथी थया छे एम कह्युं छे; तोपण निमित्तथी थया नथी एम आप केम कहो छो?


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उत्तरः– भाई! ज्यां जे अपेक्षा होय ते बराबर समजवी जोईए. राग पुद्गलनो आश्रय करीने थयो छे तेथी ते पुद्गलनी जातनो छे एम कह्युं छे. राग छे तो जीवनी पर्याय पण ते निमित्तने वशे-वश थवाथी थयेली छे, अने निमित्त तो पुद्गल छे. माटे पुद्गलना वशे थयेला भावने पुद्गलमां नाख्यो छे, केम के ते चैतन्यस्वभावमय नथी. अहीं प्रयोजन त्रिकाळी स्वभावनो आश्रय कराववानुं छे. तेथी विकार थाओ तो थाओ, ए तो पुद्गलमय छे-एम स्वच्छंदपणे न प्रवर्तवुं. राग पोतानी पर्यायमां थाय छे ते अशुद्ध उपादान छे. ए अशुद्ध उपादानने व्यवहार गणीने तथा निमित्त जे कर्म छे तेने पण व्यवहार गणीने-बन्नेने एक गणीने, जीवमांथी काढी नाख्या छे.

अहाहा! आ टीका जे थई छे ए टीकाना शब्दो अने तेनो विकल्प-ए बधुं पुद्गल छे एम कहे छे. ए विकल्पमां सदाय एकरूप ज्ञायकस्वभावी भगवान कयां आव्यो छे? टीका लखवानो विकल्प अने टीकाना शब्दो बन्नेने एक गणीने पुद्गल नाचे छे एम कह्युं छे.

आत्मा ज्ञाताद्रष्टास्वभावी-ज्ञाताद्रष्टाना भावथी परिपूर्ण भाववाळी एकस्वभावी वस्तु छे. ए सिवाय जे अनेक प्रकारे थता पुण्य-पापना विकारी भाव अने एनां फळ-ए बधामां पुद्गल नाचे छे. जो एमां शुद्ध चैतन्य होय तो, अर्थात् जो ते चैतन्यनी जातिना होय तो कदीय नीकळे नहि. पण तेओ तो नीकळी जाय छे. तेथी तेमने अजीव गणीने पुद्गलना कह्या छे, केम के तेओ पुद्गलना विपाकपूर्वक थाय छे. पण तेथी करीने एम न समजवुं के पुद्गलकर्मनो उदय आव्यो माटे विकार थयो छे. कर्म-निमित्तने वश थवाना विपरीत पुरुषार्थथी विकार तो थयो छे, परंतु ते विपरीत पुरुषार्थनी दशा स्वभावमां नथी माटे तेने पुद्गल कह्यो छे.

हवे कहे छे के ‘अयं जीवः’ आ जीव ते ‘रागादि–पुद्गल–विकार–विरुद्ध–शुद्ध चैतन्य–धातुमय–मृर्तिः’ रागादिक पुद्गल-विकारोथी विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति छे. अहाहा! भगवान ज्ञायकस्वरूप तो एकलुं चैतन्यनुं दळ छे. एमां विकल्पनो प्रवेश थाय एवुं पोलाण नथी. दया, दान, व्रत, आदि पुद्गल-विकारो पामे नहि एवी शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप मूर्ति छे. ज्ञायक सदा ज्ञायक ज छे.

* कळश ४४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आत्मामां चिद्विकारने-चैतन्यना विकारोने देखीने एवो भ्रम न करवो के ए पण चैतन्य ज छे. जीवनी पर्यायमां दया, दान, व्रत, भक्ति, आदिना जे परिणाम थाय छे ते चैतन्यना विकार छे. ते चैतन्यमय आत्माना छे एम भ्रम न करवो. एनो अर्थ ए थयो के जे व्यवहार-रागने साधन कह्युं छे ते खरेखर साधन छे एवो भ्रम न करवो. व्यवहार-राग साधन छे ज नहि. व्यवहार कोने कहेवाय? अज्ञानीए तो रागने पोतानो


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मान्यो छे, अने राग तो बंधनुं ज कारण छे; तेथी तेने ए साधन कयांथी थाय? अंतर- स्वरूपनुं जेने भान थयुं छे तेने व्यवहारे व्यवहार छे. (अज्ञानीने तो व्यवहारे पण व्यवहार साधन नथी).

भगवान आत्मा आनंदनो नाथ ज्ञ-स्वभावी-सर्वज्ञस्वभावी प्रभु छे. तेना विरुद्धनो विकार देखीने ते चैतन्यनो छे एम भ्रम न करवो. तथा ते चैतन्यस्वभावनुं साधन छे एम भ्रम न करवो. चैतन्यस्वभावनुं साधन तो तेनो निराकुळ अनुभव करवो ते छे. अहाहा! स्वानुभवनुं कार्य ए चैतन्य परमात्मानुं साधन छे.

प्रश्नः– व्यवहार साधन कह्युं छे ने?

उत्तरः– भाई! एनी स्पष्टता तो पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए मोक्षमार्गप्रकाशकना सातमा अधिकारमां करी छे के-‘हवे मोक्षमार्ग तो बे नथी पण मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गने मोक्षमार्ग निरूपण कर्यो छे ते निश्चयमोक्षमार्ग छे तथा ज्यां जे मोक्षमार्ग तो नथी परंतु मोक्षमार्गनुं निमित्त छे वा सहचारी छे तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए ते व्यवहार मोक्षमार्ग छे, कारण के निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र एवुं ज लक्षण छे.’

जुओ, जे व्यवहार-मोक्षमार्ग कह्यो छे ते छे तो बंधमार्ग, पण ज्यां आत्माना आश्रये निराकुळ आनंदना अनुभवरूप निश्चय-मोक्षमार्ग-साचो मोक्षमार्ग प्रगटयो छे त्यां, तेने निमित्त देखीने उपचारथी मोक्षमार्ग कह्यो छे. आटली तो स्पष्ट वात करी छे! व्यवहारथी-उपचारथी जे कह्युं छे ते निमित्त आदिनी अपेक्षाए कह्युं छे एम जाणवुं. निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र आवुं ज लक्षण छे. व्यवहारने जे साधन कह्युं छे ए तो धर्मी-ज्ञानी निजस्वरूपनो ज्यारे उग्र आश्रय ले छे त्यारे जे राग छे ते टळी जाय छे ते अपेक्षाए व्यवहारथी आरोप करीने व्यवहारने परंपरा साधन कह्युं छे. अहीं तो ए सिद्ध करवुं छे के ए राग आत्मानो स्वभाव ज नथी. जुओ, लख्युं छे ने के-‘रागादि चिद्विकारने देखी एवो भ्रम न करवो के ए पण चैतन्य ज छे.’

रागादि चैतन्य ज छे एम न मानवुं, कारण के चैतन्यनी बधी अवस्थाओमां व्यापे- रहे तेने चैतन्यना कहेवाय छे. ज्ञानदशा चैतन्यनी प्रत्येक अवस्थामां व्यापे छे, माटे ज्ञानने चैतन्यनुं स्वरूप अने लक्षण कहेवाय छे. परंतु राग सर्व अवस्थाओमां व्यापतो नथी, माटे राग चैतन्यनुं लक्षण नथी. अरे! अज्ञानीने समक्ति नथी अने तेथी ते व्रत, तप, आदि क्रियाकांडमां साधन माने छे; परंतु भाई! वीतराग-मार्गमां ए (अनीति) न चाले. वीतराग- मार्गमां तो वीतरागी परिणतिथी ज धर्म थाय छे, रागथी नहीं.

अहीं कहे छे के रागादि विकारो जीवनी सर्व अवस्थाओमां व्यापता नथी कारण के


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मोक्ष-अवस्थामां तेमनो अभाव छे. हवे कहे छे-वळी तेमने अनुभव पण आकुळतामय दुःखरूप छे. जुओ, चैतन्यमां राग नथी एम सिद्ध करवा आ न्याय आप्यो छे. चाहे तो दया, दान, व्रत, भक्ति, तपनो विकल्प हो तो पण ते आकुळतामय दुःखरूप छे. आवी वात कठण पडे पण आ ज सिद्धांत छे. रागनो अनुभव-जे वडे तीर्थंकर-गोत्र बंधाय एवा शुभरागनो अनुभव पण आकुळतामय दुःखरूप छे.

जेने तीर्थंकर गोत्र बंधायुं छे तेनी दशा ज एवी होय छे के ते आगळ वधीने केवळज्ञान पामे छे. तीर्थंकरना जीवनुं समक्ति अप्रतिहत ज होय छे. भले ते कदाच क्षयोपशम भावे होय, तो पण ते समक्ति अप्रतिहत ज होय छे. श्रेणीक राजाने क्षायिक समक्ति छे, परंतु जो कोई त्रीजा नरकमांथी आवे तो तेने क्षयोपशम समक्ति होय छे अने छतां ते पडतुं नथी. हा, त्रीजा नरके जाय छे त्यारे एक क्षण ते पडी जाय छे ए जुदी वात छे. तो पण ए क्षयोपशम समकित क्षायिकपणाने ज प्राप्त करे छे. आवी ज स्थिति तीर्थंकरोनी होय छे. पोताना स्वभावनो उग्र आश्रय लईने तेओ क्षायिक सम्यक्त्वने पामे छे. तीर्थंकरने क्षायिक समकित थवामां श्रुतकेवळी के अन्य तीर्थंकरनुं निमित्त होतुं नथी. ज्यारे अन्य जीवोने क्षायिक समकित थाय त्यारे श्रुतकेवळी के तीर्थंकरनी हाजरी होय छे. तोपण तीर्थंकर के श्रुतकेवळीनी हाजरी छे माटे क्षायिक समकित थाय छे एम नथी, कारण के जो निमित्तथी क्षायिक समकित थतुं होय तो क्षयोपशम-समकिती तो घणा बेठा होय छे, पण ते सर्वने क्षायिक समकित थतुं नथी. जे जीवनी आत्माना उग्र-आश्रय सहित तैयारी होय तेने क्षायिक समकित थाय छे. तेथी निमित्त हो भले पण निमित्तथी समकित पामे छे एम नथी. निमित्त-उपादानना दोहामां पण आ वात लीधी छे.

अहीं एम कहे छे के रागनो अनुभव दुःखरूप छे. जे व्यवहाररत्नत्रयनो अनुभव छे ते दुःखरूप छे. जे दुःखरूप छे ते मोक्षनुं कारण केम थाय? न थाय. मोक्ष तो परमानंदमय पूर्ण दशा छे. माटे तेनुं कारण पण अनाकुळ आनंदमय अनुभवनी दशा छे. रागादिनो अनुभव दुःखरूप छे, माटे तेओ चेतन नथी. तो चैतन्य कोण छे? जे सम्यग्दर्शननुं परिणमन निराकुळ आनंदमय छे ते चैतन्य छे. जुओने! केटली स्पष्टता करी छे! आमां पोतानो आग्रह चाले नहि. सर्वज्ञ परमात्माना मार्गमां तेनी जे रीत होय एम ज जाणवुं जोईए. अरे! पोताना स्वार्थ माटे पोते जेम मान्युं होय तेम अर्थ खोटा करवा ए चाले नहि. अहाहा! परमात्मा महाविदेहमां बिराजे छे. तेमनी वाणी कुंदकुंदाचार्य लाव्या छे. तेमांथी आ शास्त्रो बन्या छे तथा तेना आ अर्थो छे.

अहीं बहु सरस वात लीधी छे. कहे छे के-रागनो अनुभव तो आकुळतामय


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दुःखरूप छे माटे ते चैतन्य ज नथी. पंचमहाव्रतना परिणाम, दया, दान, व्रत, भक्तिना परिणाम राग छे अने ते दुःखना अनुभवनी दशा छे. माटे ते चेतन नथी पण जड छे. दुःखनो अनुभव छे ते जड छे. अहाहा! केवो न्याय मूकयो छे! देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धानो के नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धानो राग छे ते दुःखरूप छे. माटे ते अचेतन छे केमके ते चैतन्यनी जातिमांथी आवतो नथी. व्यवहाररत्नत्रयना भावने पुण्य-पाप-अधिकारमां पापभाव कह्यो छे, केमके अनाकुळ शांतिनो सागर जे आनंदनो नाथ भगवान आत्मा छे एमांथी ते आवतो नथी. अनाकुळ आनंदनो जे अनुभव थाय ते मोक्षमार्ग छे अने ते पूर्ण न थाय त्यां सुधी वच्चे व्यवहाररत्नत्रयनो राग आवे छे, पण ते दुःखरूप छे तेथी जड छे. केवी स्पष्टता छे!

प्रश्नः– परंतु सम्यग्द्रष्टिने दुःखनुं वेदन होय ज नहि एम आवे छे ने?

उत्तरः– अरे, वेदन केम न होय? ज्ञानीने दुःख ज नथी एम मानवुं ए तो एकांत छे. हा, सम्यग्दर्शन अने स्वभावनी वात चाले त्यारे (स्वभावनी द्रष्टिमां) एम कहेवाय के ज्ञानीने दुःखनुं वेदन नथी; पण त्यारे साथे जे ज्ञान छे ते जाणे छे के दुःखनुं वेदन छे. छठ्ठे गुणस्थाने गणधर होय ते पण जेटलो राग छे ते दुःख छे एम जाणे छे. भाई! शुभराग पण दुःखरूप छे, हों. विषयनी वासना, रळवा-कमावाना भाव, के अनुकूळ चीजमां खुशीपणुं अने प्रतिकूळतामां नाखुशीना भाव-ए बधा जे पापभाव छे ए तो तीव्र दुःख ज छे. परंतु अहीं तो कहे छे के रागनी जे मंदतानो भाव-देव गुरु-शास्त्र प्रत्येनो प्रशस्त मंद राग के गुण- गुणीना भेदनो विकल्प-सर्व दुःखरूप छे अने एमां आकुळतानो ज अनुभव छे. भाई! मार्ग तो आवो छे. तेने जेवो छे तेवो मान. अहा! सत्ने सत्नी रीते जो; नहींतर अज्ञानमां रखडपट्टी ज रहेशे.

चैतन्यनो अनुभव निराकुळ छे. कहे छे के परमानंदस्वरूप ज्ञ-स्वभावी-सर्वज्ञस्वभावी भगवान आत्मानो आश्रय लेतां जे ज्ञान-दर्शन-चारित्रनी पर्याय प्रगट थाय छे ते अनाकुळ दशा छे, शांतरसना अनुभवनी दशा छे, अने ते धर्म छे. तथा ते ज जीवनो स्वभाव छे. आ स्वभावपर्यायनी वात छे. भगवान आत्मा अनाकुळ आनंदनी मूर्ति छे. तेनी सन्मुख थईने तेमां एकाग्र थतां जे निराकुळ आनंदनी दशा-उपशमरसनी दशा प्रगट थाय छे ए स्वभावनी दशा छे अने ए धर्म छे. भाई! वस्तुने वस्तु तरीके राख. तेने फेरववा जईश तो सत्य हाथ नहि आवे.

जेम सक्करकंदमां तेना उपरनी लाल छाल सिवायनो आखो साकरनो कंद छे ते मीठाशनो पिंड छे अने तेनी मीठाशनो स्वाद आवे ते सक्करकंद छे. तेम आ आत्मा पुण्य- पापना विकल्पनी छाल सिवायनो आखो अनाकुळ आनंदनो कंद छे. तेना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव आवे ते आत्मा छे. पुण्य-पापना विकल्प तो छाल जेवा