Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). First Page; Avrutti; Arpan; Sadgurudev Stuti; Prakashkiy; Jinjini Vani; Samaysar Mahima; Upodghat; Ullekho.

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भगवानश्रीकुंदकुंद-कहानजैनशास्त्रमाळा, पुष्प६१
नमः परमात्मने ।
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
समयसार
मूळ गाथाओ, संस्कृत छाया, गुजराती पद्यानुवाद,
श्रीअमृतचंद्राचार्यदेवविरचित संस्कृत ‘आत्मख्याति’
टीका अने तेना गुजराती अनुवाद सहित
ः अनुवादकः
पंडितरत्न श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह
बी. एस सी.
ः प्रकाशकः
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ (सौराष्ट्र)-

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एकथी सात आवृत्तिः कुल प्रत १६,१०० आठमी आवृत्तिः प्रत २०००वीर सं. २५३२वि. सं. २०६२

परमागम श्री समयसार (गुजराती)ना
स्थायी प्रकाशन-पुरस्कर्ता
डॉ. कान्तिलाल जगजीवनदास शेठ - परिवार, मुंबई
हस्तेः अनसूयाबेन(पत्नी), विजयभाई(पुत्र), मालिनी(पुत्रवधू)
ॠषभ(पौत्र), तारिणी(पौत्री), मीनळबेन, सोनलबेन, देवयानीबेन(पुत्रीओ).
आ शास्त्रनी पडतर किंमत रुा. १३१=०० थाय छे. अनेक मुमुक्षुओनी आर्थिक
सहायथी आ आवृत्तिनी किंमत रुा. ६०=०० थाय छे. तेमांथी ५०% श्री कुंदकुंद-कहान
पारमार्थिक ट्रस्ट हस्ते स्व. श्री शांतिलाल रतिलाल शाह परिवार तरफथी किंमत
घटाडवामां आवतां आ ग्रंथनी वेचाण किंमत रुा. ३०=०० राखवामां आवी छे.
किंमतः रूा. ३०=००
ः मुद्रकः
कहान मुद्रणालय
जैन विद्यार्थी गृह कंपाउन्ड, सोनगढ-
: (02846) 244081


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अर्पण
जेमणे आ पामर पर अपार उपकार
कर्यो छे, जेमनी प्रेरणाथी समयसारनो आ
अनुवाद तैयार थयो छे, जेओ द्रव्ये अने भावे
समयसारनी महा प्रभावना करी रह्या छे,
समयसारमां प्ररूपेली निश्चय-व्यवहारनी
संधिपूर्वक जेमनुं जीवन छे, ते परमपूज्य
परम-उपकारी सद्गुरुदेव (श्री कानजीस्वामी)ने
आ अनुवाद-पुष्प अत्यंत भक्तिभावे अर्पण
करुं छुं.
अनुवादक

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श्री सद्गुरुदेव-स्तुति
(हरिगीत)
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो
! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्यो.
(अनुष्टुप)
अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुंदना!
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
(शिखरिणी)
सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
(शार्दूलविक्रीडित)
हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमांअंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं,
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
(स्रग्धरा)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति
! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,
मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!
रचयिताः हिंमतलाल जेठालाल शाह

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प्रकाशकीय निवेदन
[आठमी आवृत्ति प्रसंगे]

भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव प्रणीत सर्वोत्कृष्ट परमागम श्री समयसार गुजराती भाषामां प्रथम सं. १९९७मां प्रकाशित थयुं हतुं. तेनी द्वितीय आवृत्ति सं. २००९मां श्री अमृतचंद्राचार्यदेवनी ‘आत्मख्याति’ नामनी संस्कृत टीका सहित प्रगट थयेल हती. त्रीजी आवृत्तिमां श्री अमृतचंद्राचार्यदेवकृत कळशोनो मात्र सळंग गुजराती अर्थ न लखतां वचमां कौंसमां संस्कृत शब्दो मूकीने अर्थ भरेल हतो के जेथी कया संस्कृत शब्दोनो अर्थ छे ते वाचकोना ख्यालमां आवी शके. त्यार बाद अनुक्रमे चोथी, पांचमी, छठ्ठी, सातमी पछी आ आठमी आवृत्ति प्रसिद्ध करतां अत्यानंद अनुभवाय छे.

श्री परमश्रुतप्रभावक मंडळ तरफथी आ शास्त्र हिंदी भाषामां (संस्कृत टीकाओ सहित) सं. १९७५मां प्रकाशित थयुं हतुं. पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना हस्तमां आ परमागम सं. १९७८मां आव्युं. तेमना करकमळमां ए परमपावन चिंतामणि आवतां ते कुशळ झवेरीए एने पारखी लीधो अने समयसारनी कृपाथी तेओश्रीए निज चैतन्यमूर्ति भगवान समयसारनां दर्शन कर्यां. ए पवित्र प्रसंगनो उल्लेख पूज्य गुरुदेवना जीवनचरित्रमां आ प्रमाणे कर्यो छेः सं. १९७८मां वीरशासनना उद्धारनो, अनेक मुमुक्षुओना महान पुण्योदयने सूचवतो एक पवित्र प्रसंग बनी गयो. विधिनी कोई धन्य पळे श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यविरचित श्री समयसार नामनो महान ग्रंथ महाराजश्रीनां हस्तकमळमां आव्यो. समयसार वांचतां ज तेमना हर्षनो पार न रह्यो. जेनी शोधमां तेओ हता ते तेमने मळी गयुं. श्री समयसारजीमां अमृतनां सरोवर छलकातां महाराजश्रीना अंतर्नयने जोयां. एक पछी एक गाथा वांचतां महाराजश्रीए घूंटडा भरी भरीने ते अमृत पीधुं. ग्रंथाधिराज समयसारजीए महाराजश्री पर अपूर्व, अलौकिक, अनुपम उपकार कर्यो अने तेमना आत्मानंदनो पार न रह्यो. महाराजश्रीना अंतर्जीवनमां परमपवित्र परिवर्तन थयुं. भूली पडेली परिणतिए निज घर देख्युं. उपयोग-झरणानां वहेण अमृतमय थयां. जिनेश्वरदेवना सुनंदन गुरुदेवनी ज्ञानकळा हवे अपूर्व रीते खीलवा लागी. पूज्य गुरुदेव जेम जेम समयसारमां ऊंडा ऊतरता गया तेम तेम तेमां केवळज्ञानी पिताथी वारसामां आवेलां अद्भुत निधानो तेमना सुपुत्र भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे चीवटथी संघरी राखेलां तेमणे जोयां. घणां वर्षो सुधी समयसारनुं ऊंडुं मनन कर्या पछी, ‘कोई पण रीते जगतना जीवो सर्वज्ञपिताना आ अणमूल वारसानी किंमत समजे अने अनादिकाळनी दीनतानो अंत लावे!’

एवी करुणाबुद्धिने लीधे पूज्य गुरुदेवश्रीए समयसार पर अपूर्व

प्रवचनोनो प्रारंभ कर्यो. जाहेर सभामां सौथी पहेलां सं. १९९०मां राजकोट चातुर्मास वखते समयसारनुं वांचन शरू कर्युं. पूज्य गुरुदेवश्रीए समयसार उपर कुल ओगणीस वखत प्रवचनो आप्यां छे. सोनगढ- ट्रस्ट तरफथी समयसार उपर पूज्य गुरुदेवश्रीनां प्रवचनोनां पांच पुस्तको छपाईने प्रसिद्ध थई गयां छे.


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जेम जेम पूज्य गुरुदेवश्री अनुभववाणी वडे आ शास्त्रना ऊंडागंभीर भावोने खोलता गया तेम तेम मुमुक्षु जीवोने तेनुं महत्त्व समजातुं गयुं, अने तेमनामां अध्यात्मरसिकतानी साथे साथे आ शास्त्र प्रत्ये भक्ति अने बहुमान पण वधतां गयां. सं. १९९४ना वैशाख वद आठमे, सोनगढमां श्री ‘जैन स्वाध्यायमंदिर’ना उद्घाटन प्रसंगे तेमां पूज्य प्रशममूर्ति भगवती बहेनश्री चंपाबेनना पवित्र हस्ते श्री समयसारजी शास्त्रनी विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवामां आवी हती.

आवुं महिमावंत आ परमागम गुजराती भाषामां प्रकाशित थाय तो जिज्ञासुओने महा लाभनुं कारण थाय एवी भावनाथी श्री जैन अतिथि सेवा समितिए सं. १९९७मां आ परमागमनुं गुजराती भाषामां प्रकाशन कर्युं. त्यार बाद तेनी द्वितीय आवृत्ति सं. २००९मां श्री दि. जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट तरफथी प्रसिद्ध करवामां आवी हती. आ तेनी आठमी आवृत्ति प्रसिद्ध थाय छे.

आ रीते आ प्रकाशन खरेखर पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रभावनी ज प्रसादी छे. अध्यात्मनुं रहस्य समजावीने पूज्य गुरुदेवश्रीए जे अपार उपकार कर्यो छेे तेनुं वर्णन वाणीथी व्यक्त करवा आ संस्था असमर्थ छे.

श्रीमान समीप समयवर्ती समयज्ञ श्रीमद् राजचंद्रजीए जनसमाजने अध्यात्म समजाव्युं तथा अध्यात्मप्रचार अर्थे श्री परमश्रुतप्रभावक मंडळ स्थाप्युं; ए रीते जनसमाज परमुख्यत्वे गुजरात - काठियावाड परतेमनो महा उपकार वर्ती रह्यो छे.

हवे गुजराती अनुवाद विषेः आ उच्च कोटिना अध्यात्मशास्त्रनो गुजराती अनुवाद करवानुं काम सहेलुं न हतुं. सूत्रकार अने टीकाकार आचार्यभगवंतोना गंभीर भावो यथार्थपणे जळवाई रहे एवी रीते तेने स्पर्शीने अनुवाद थाय तो ज प्रकाशन संपूर्णपणे समाजने लाभदायक नीवडे एम हतुं. सद्भाग्ये ऊंडा आदर्श आत्मार्थी पंडितरत्न भाईश्री हिंमतलाल जेठालाल शाहे, पूज्य गुरुदेवश्रीनी कृपाभीनी पवित्र आज्ञा तथा पूज्य बहेनश्री चंपाबेननी पावन प्रेरणा झीलीने, तेनो अनुवाद करी आपवा सहर्ष संमति आपीने ते काम हाथमां लीधुं, अने तेमणे आ अनुवादनुं काम रूडी रीते सांगोपांग पार उतार्युं.

आ पवित्र शास्त्रना गुजराती अनुवादनुं महान कार्य करनार भाईश्री हिंमतलालभाई अध्यात्मरसिक विद्वान होवा उपरांत गंभीर, वैराग्यशाळी, शांत अने विवेकी सज्जन हता तथा कवि पण हता. तेमणे समयसारना अनुवाद उपरांत तेनी मूळ गाथाओनो गुजराती पद्यानुवाद पण हरिगीत छंदमां कर्यो छे; ते घणो ज मधुर, स्पष्ट तेम ज सरळ छे अने दरेक गाथार्थ पहेलां छापवामां आव्यो छे. आ रीते आखोय अनुवाद तेम ज हरिगीत काव्यो जिज्ञासु जीवोने बहु ज उपयोगी अने उपकारी थयेल छे. आ माटे भाईश्री हिंमतलाल जेठालाल शाहनो जेटलो आभार मानवामां आवे तेटलो ओछो छे. आ समयसार जेवा उत्तम शास्त्रनो अनुवाद करवानुं परम सौभाग्य तेमने मळ्युं ते माटे तेओ खरेखर अभिनंदनीय छे.

आजथी लगभग बसो वर्ष पहेलां श्रीमान पंडित जयचंद्रजीए आ परमागमनुं हिंदी भाषांतर करीने जैनसमाज पर उपकार कर्यो छे. आ अनुवाद श्री परमश्रुतप्रभावक मंडळ तरफथी प्रसिद्ध थयेल हिंदी समयसारना आधारे करवामां आव्यो छे, ते माटे आ संस्था ते मंडळनो आभार माने छे. [त्रीजी आवृत्ति प्रसंगेे संशोधन, कळशोना गुजराती अर्थनी वच्चे संस्कृत शब्दो यथास्थाने गोठववानुं कार्य, प्रूफरीडिंग,


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शुद्धिपत्रक, गाथासूची, कळशसूची वगेरे अनेकविध कार्योमां पूज्य गुरुदेवश्रीना अंतेवासी बाळब्रह्मचारी भाईश्री चंदुलाल खीमचंद झोबाळियाए अत्यंत काळजी, परिश्रम अने उल्लासपूर्वक जे सहाय करी छे ते माटे आ संस्था तेमनी आभारी छे. ब्र

श्री चंदुभाईना आ कार्यमां सद्धर्मवत्सल पं भाईश्री

हिंमतलालभाईए अनेकविध सहाय करी छे तेम ज आखरी प्रूफसंशोधन पण तेमणे ज करी आप्युं छे, तेथी तेमनो अंतःकरणपूर्वक आभार मानवामां आवे छे.] ऊंडा आदर्श आत्मार्थी पंडितरत्न श्री हिंमतलालभाई शाहनो उपोद्घात शब्दशः आ आवृत्तिमां लीधेल छे. अने आ आवृत्तिनुं मुद्रणसंशोधन ब्र

श्री चंदुभाई झोबाळिया, ब्र श्री व्रजलालभाई शाह (वढवाण), श्री प्रवीणभाई साराभाई शाह

(सोनगढ) तथा श्री अनंतराय व्रजलाल शाहे (जलगांव) करी आपेल छे ते बदल ते सर्व महानुभावोनो आभार मानीए छीए.

आ आवृत्तिनुं सुंदर मुद्रणकार्य ‘कहान मुद्रणालय’ना मालिक श्री ज्ञानचंदजी जैने तथा तेमना सुपुत्र चि० निलये करी आपेल छे, तेथी तेमनो पण आभार मानीए छीए. आ उपरांत जेमनी सहाय होय ते सर्वनो पण आभार मानवामां आवे छे.

आ समयसार खरेखर एक उत्तमोत्तम शास्त्र छे. साधक जीवोने माटे तेमां आध्यात्मिक मंत्रोनो भंडार भर्यो छे. कुंदकुंदाचार्यदेव पछी रचायेलां लगभग बधां अध्यात्मशास्त्रो उपर समयसारनो प्रभाव पड्यो छे. सर्व अध्यात्मनां बीजडां समयसारमां समायेलां छे. सर्वे जिज्ञासु जीवोए गुरुगमपूर्वक आ परमागमनो अभ्यास अवश्य करवा योग्य छे. परम महिमावंत एवा निज शुद्ध आत्मस्वरूपने अनुभवगम्य करवा माटे आ शास्त्रमां अद्वितीय उपदेश छे, अने ए ज दरेक जिज्ञासु जीवनुं एकमात्र परम कर्तव्य छे. श्री पद्मनंदी मुनिराज कहे छे के

तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।।२३।।
( पद्मनंदिपंचविंशतिकाएकत्व अधिकार)

अर्थजे जीवे प्रसन्नचित्तथी आ चैतन्यस्वरूप आत्मानी वात पण सांभळी छे ते भव्य पुरुष भविष्यमां थनारी मुक्तिनुं अवश्य भाजन थाय छे.

उपर प्रमाणे सुपात्र जीवो गुरुगमे शुद्धचैतन्यतत्त्वनी वार्तानुं प्रीतिपूर्वक श्रवण करो अने आ परमागमनी पांचमी गाथामां आचार्यभगवाननी आज्ञा-अनुसार ते एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्माने स्वानुभवप्रत्यक्षथी प्रमाण करो.

साहित्यप्रकाशनसमिति
वैशाख सुद बीज
पूज्य गुरुदेवश्रीनो ११७मो जन्म-महोत्सव
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
वि. संवत २०६२ इ.स. २००६
सोनगढ (सौराष्ट्र)–364250

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जिनजीनी वाणी
[राग-आशाभर्या अमे आविया]
सीमंधर मुखथी फूलडां खरे,
एनी कुंदकुंद गूंथे माळ रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वाणी भली, मन लागे रळी,
जेमां सार-समय शिरताज रे,
जिनजीनी वाणी भली रे......सीमंधर०
गूंथ्यां पाहुड ने गूंथ्युं पंचास्ति,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
गूंथ्युं नियमसार, गूंथ्युं रयणसार,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.......सीमंधर०
स्याद्वाद केरी सुवासे भरेलो
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वंदुं जिनेश्वर, वंदुं हुं कुंदकुंद,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.......सीमंधर०
हैडे हजो, मारा भावे हजो,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
जिनेश्वरदेवनी वाणीना वायरा
वाजो मने दिनरात रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.......सीमंधर०
रचयिताः हिंमतलाल जेठालाल शाह

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[समयसारनो महिमा]
मोख चलिवेकौ सौंन करमकौ करै बौन,
जाके रस-भौन बुध लौन ज्यौं घुलत है
गुनकौ गरंथ निरगुनकौं सुगम पंथ,
जाकौ जस क हत सुरेश अकुलत है
याहीके जु पच्छी ते उड़त ज्ञानगगनमें,
याहीके विपच्छी जगजालमें रुलत है
हाटक सौ विमल विराटक सौ विसतार,
नाटक सुनत हीये फाटक खुलत है ।।
पं. बनारसीदासजी
अर्थःश्री समयसार मोक्ष पर चडवाने सीडी छे (अथवा मोक्ष
तरफ चालवाने शुभ शुकन छे), कर्मनुं ते वमन करे छे अने जेम जळमां
लवण ओगळी जाय छे तेम समयसारना रसमां बुधपुरुषो लीन थई
जाय छे. ते गुणनी गांठ छे (अर्थात् सम्यग्दर्शनादि गुणोनो समूह छे),
मुक्तिनो सुगम पंथ छे अने तेनो (अपार) यश वर्णवतां इन्द्र पण
आकुलित थई जाय छे. समयसाररूपी पांखवाळा (अथवा समयसारना
पक्षवाळा) जीवो ज्ञानगगनमां ऊडे छे अने समयसाररूपी पांख विनाना
(अथवा समयसारथी विपक्ष) जीवो जगजाळमां रझळे छे. समयसारनाटक
(अर्थात् श्री समयसार-परमागम के जेने श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे नाटकनी
उपमा आपी छे ते) शुद्ध सुवर्ण समान निर्मळ छे, विराट (ब्रह्मांड)
समान तेनो विस्तार छे अने तेनुं श्रवण करतां हृदयनां कपाट खूली
जाय छे.


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नमः सद्गुरवे
उपोद्घात
[प्रथम आवृत्ति प्रसंगे]

भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत आ ‘समयप्राभृत’ अथवा ‘समयसार’ नामनुं शास्त्र ‘द्वितीय श्रुतस्कंध’मांनुं सर्वोत्कृष्ट आगम छे.

‘द्वितीय श्रुतस्कंध’नी उत्पत्ति कई रीते थई ते आपणे पट्टावलिओना आधारे संक्षेपमां प्रथम जोईए.

आजथी २४६६ वर्ष पहेलां आ भरतक्षेत्रनी पुण्यभूमिमां जगत्पूज्य परम भट्टारक भगवान श्री महावीरस्वामी मोक्षमार्गनो प्रकाश करवा माटे समस्त पदार्थोनुं स्वरूप पोताना सातिशय दिव्यध्वनि द्वारा प्रगट करता हता. तेमना निर्वाण पछी पांच श्रुतकेवळी थया, जेमां छेल्ला श्रुतकेवळी श्री भद्रबाहुस्वामी थया. त्यां सुधी तो द्वादशांगशास्त्रना प्ररूपणथी व्यवहार- निश्चयात्मक मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्ततो रह्यो. त्यार पछी काळदोषथी क्रमे क्रमे अंगोना ज्ञाननी व्युच्छित्ति थती गई. एम करतां अपार ज्ञानसिंधुनो घणो भाग विच्छेद पाम्या पछी बीजा भद्रबाहुस्वामी आचार्यनी परिपाटीमां बे समर्थ मुनिओ थयाएकनुं नाम श्री धरसेन आचार्य अने बीजानुं नाम श्री गुणधर आचार्य. तेमनी पासेथी मळेला ज्ञान द्वारा तेमनी परंपरामां थयेला आचार्योए शास्त्रो गूंथ्यां अने वीर भगवानना उपदेशनो प्रवाह वहेतो राख्यो.

श्री धरसेन आचार्यने अग्रायणीपूर्वना पांचमां ‘वस्तु’ अधिकारना महाकर्मप्रकृति नामना चोथा प्राभृतनुं ज्ञान हतुं. ते ज्ञानामृतमांथी अनुक्रमे त्यार पछीना आचार्यो द्वारा षट्खंडागम तथा तेनी धवला-टीका, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रो रचायां. आ रीते प्रथम श्रुतस्कंधनी उत्पत्ति छे. तेमां जीव अने कर्मना संयोगथी थयेला आत्माना संसारपर्यायनुंगुणस्थान, मार्गणास्थान आदिनुंसंक्षिप्त वर्णन छे, पर्यायार्थिक नयने प्रधान करीने कथन छे. आ नयने अशुद्धद्रव्यार्थिक पण कहे छे अने अध्यात्मभाषाथी अशुद्धनिश्चयनय अथवा व्यवहार कहे छे.

श्री गुणधर आचार्यने ज्ञानप्रवादपूर्वना दशमा वस्तुना त्रीजा प्राभृतनुं ज्ञान हतुं. ते ज्ञानमांथी त्यार पछीना आचार्योए अनुक्रमे सिद्धांतो रच्या. एम सर्वज्ञ भगवान महावीरथी चाल्युं आवतुं ज्ञान आचार्योनी परंपराथी भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवने प्राप्त थयुं. तेमणे पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड आदि शास्त्रो रच्यां. आ रीते द्वितीय श्रुतस्कंधनी उत्पत्ति थई. तेमां


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ज्ञानने प्रधान करीने शुद्धद्रव्यार्थिक नयथी कथन छे, आत्माना शुद्ध स्वरूपनुं वर्णन छे.

भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव विक्रम संवतनी शरूआतमां थई गया छे. दिगंबर जैन परंपरामां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनुं स्थान सर्वोत्कृष्ट छे.

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुंदकुंदार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।

आ श्लोक दरेक दिगंबर जैन, शास्त्राध्ययन शरू करतां मंगळाचरणरूपे बोले छे. आ परथी सिद्ध थाय छे के सर्वज्ञ भगवान श्री महावीरस्वामी अने गणधर भगवान श्री गौतमस्वामी पछी तुरत ज भगवान कुंदकुंदाचार्यनुं स्थान आवे छे. दिगंबर जैन साधुओ पोताने कुंदकुंदाचार्यनी परंपराना कहेवराववामां गौरव माने छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनां शास्त्रो साक्षात् गणधरदेवनां वचनो जेटलां ज प्रमाणभूत मनाय छे. तेमना पछी थयेला ग्रंथकार आचार्यो पोताना कोई कथनने सिद्ध करवा माटे कुंदकुंदाचार्यदेवनां शास्त्रोनुं प्रमाण आपे छे एटले ए कथन निर्विवाद ठरे छे. तेमना पछी लखायेला ग्रंथोमां तेमनां शास्त्रोमांथी थोकबंध अवतरणो लीधेलां छे. खरेखर भगवान कुंदकुंदाचार्ये पोतानां परमागमोमां तीर्थंकरदेवोए प्ररूपेला उत्तमोत्तम सिद्धांतोने जाळवी राख्या छे अने मोक्षमार्गने टकावी राख्यो छे. वि. सं. ९९०मां थई गयेला श्री देवसेनाचार्यवर तेमना दर्शनसार नामना ग्रंथमां

कहे छे के ‘‘विदेहक्षेत्रना वर्तमान तीर्थंकर सीमंधरस्वामीना समवसरणमां

जईने श्री पद्मनंदीनाथे (कुंदकुंदाचार्यदेवे) पोते प्राप्त करेला ज्ञान वडे बोध न आप्यो होत तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?’’ बीजो एक उल्लेख आपणे जोईए, जेमां कुंदकुंदाचार्यदेवने कळिकाळसर्वज्ञ कहेवामां आव्या छे. ‘‘पद्मनंदी, कुंदकुंदाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृध्रपिच्छाचार्य ए पांच नामोथी विराजित, चार आंगळ ऊंचे आकाशमां गमननी जेमने ॠद्धि हती, जेमणे पूर्व- विदेहमां जईने सीमंधरभगवानने वंदन कर्युं हतुं अने तेमनी पासेथी मळेला श्रुतज्ञान वडे जेमणे भारतवर्षना भव्य जीवोने प्रतिबोध कर्यो छे एवा जे श्री जिनचंद्रसूरिभट्टारकना पट्टना आभरणरूप कळिकाळसर्वज्ञ (भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव) तेमणे रचेला आ षट्प्राभृतग्रंथमां......सूरीश्वर श्री श्रुतसागरे रचेली मोक्षप्राभृतनी टीका समाप्त थई.’’ आम षट्प्राभृतनी श्री श्रुतसागरसूरिकृत टीकाना अंतमां लखेलुं छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनी महत्ता बतावनारा आवा अनेकानेक उल्लेखो जैन साहित्यमां मळी आवे छे;

शिलालेखो पण अनेक छे. आ रीते आपणे जोयुं के सनातन

जैन संप्रदायमां कळिकाळसर्वज्ञ भगवान कुंदकुंदाचार्यनुं स्थान अजोड छे.

भगवान कुंदकुंदाचार्यनां रचेलां अनेक शास्त्रो छे, जेमांथी थोडांक हालमां उपलब्ध छे. त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवना मुखमांथी वहेली श्रुतामृतनी सरितामांथी भरी लीधेलां ते अमृतभाजनो हालमां पण अनेक आत्मार्थीओने आत्मजीवन अर्पे छे. तेमनां पंचास्तिकाय, प्रवचनसार अने समयसार नामनां त्रण उत्तमोत्तम शास्त्रो ‘प्राभृतत्रय’ कहेवाय छे. आ त्रण परमागमोमां हजारो १ मूळ श्लोक माटे १८ मुं पानुं जुओ. २ शिलालेखोना नमूना माटे १७ मुं पानुं जुओ.


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शास्त्रोनो सार आवी जाय छे. भगवान कुंदकुंदाचार्य पछी लखायेला घणा ग्रंथोनां बीजडां आ त्रण परमागमोमां रहेलां छे एम सूक्ष्म द्रष्टिथी अभ्यास करतां जणाय छे. पंचास्तिकायमां छ द्रव्यनुं अने नव तत्त्वनुं स्वरूप संक्षेपमां कह्युं छे. प्रवचनसारने ज्ञान, ज्ञेय अने चरणानुयोगना त्रण अधिकारोमां विभाजित कर्युं छे. समयसारमां नव तत्त्वोनुं शुद्धनयनी द्रष्टिथी कथन छे.

श्री समयसार अलौकिक शास्त्र छे. आचार्यभगवाने आ जगतना जीवो पर परम करुणा करीने आ शास्त्र रच्युं छे. तेमां मोक्षमार्गनुं यथार्थ स्वरूप जेम छे तेम कहेवामां आव्युं छे. अनंत काळथी परिभ्रमण करता जीवोने जे कांई समजवुं बाकी रही गयुं छे ते आ परमागममां समजाव्युं छे. परम कृपाळु आचार्यभगवान आ शास्त्र शरू करतां पोते ज कहे छेः‘कामभोगबंधनी कथा बधाए सांभळी छे, परिचय कर्यो छे, अनुभवी छे पण परथी जुदा एकत्वनी प्राप्ति ज केवळ दुर्लभ छे. ते एकत्वनीपरथी भिन्न आत्मानीवात हुं आ शास्त्रमां समस्त निज विभवथी (आगम, युक्ति, परंपरा अने अनुभवथी) कहीश.’ आ प्रतिज्ञा प्रमाणे आचार्यदेव आ शास्त्रमां आत्मानुं एकत्वपरद्रव्यथी अने परभावोथी भिन्नतासमजावे छे. तेओश्री कहे छे के ‘जे आत्माने अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त देखे छे ते समग्र जिनशासनने देखे छे.’ वळी तेओ कहे छे के ‘आवुं नहि देखनार अज्ञानीना सर्व भावो अज्ञानमय छे.’ आ रीते, ज्यां सुधी जीवने पोतानी शुद्धतानो अनुभव थतो नथी त्यां सुधी ते मोक्षमार्गी नथी; पछी भले ते व्रत, समिति, गुप्ति आदि व्यवहार चारित्र पाळतो होय अने सर्व आगमो पण भणी चूक्यो होय. जेने शुद्ध आत्मानो अनुभव वर्ते छे ते ज सम्यग्द्रष्टि छे. रागादिना उदयमां समकिती जीव कदी एकाकाररूप परिणमतो नथी परंतु एम अनुभवे छे के ‘आ, पुद्गलकर्मरूप रागना विपाकरूप उदय छे; ए मारो भाव नथी, हुं तो एक ज्ञायकभाव छुं.’ अहीं प्रश्न थशे के रागादिभावो थता होवा छतां आत्मा शुद्ध केम होई शके? उत्तरमां स्फटिकमणिनुं द्रष्टांत आपवामां आव्युं छे. जेम स्फटिकमणि लाल कपडाना संयोगे लाल देखाय छे

थाय छे तोपण स्फटिकमणिना

स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां स्फटिकमणिए निर्मळपणुं छोड्युं नथी, तेम आत्मा रागादि कर्मोदयना संयोगे रागी देखाय छेथाय छे तोपण शुद्धनयनी द्रष्टिथी तेणे शुद्धता छोडी नथी. पर्यायद्रष्टिए अशुद्धता वर्ततां छतां द्रव्यद्रष्टिए शुद्धतानो अनुभव थई शके छे. ते अनुभव चोथे गुणस्थाने थाय छे. आ परथी वाचकने समजाशे के सम्यग्दर्शन केटलुं दुष्कर छे. सम्यग्द्रष्टिनुं परिणमन ज फरी गयुं होय छे. ते गमे ते कार्य करतां शुद्ध आत्माने अनुभवे छे. जेम लोलुपी माणस मीठाना अने शाकना स्वादने जुदा पाडी शकतो नथी तेम अज्ञानी ज्ञानने अने रागने जुदां पाडी शकतो नथी; जेम अलुब्ध माणस शाकथी मीठानो जुदो स्वाद लई शके छे तेम सम्यग्द्रष्टि रागथी ज्ञानने जुदुं अनुभवे छे. हवे ए प्रश्न थाय छे के आवुं सम्यग्दर्शन कई रीते प्राप्त करी शकाय अर्थात् राग ने आत्मानी भिन्नता कई रीते अनुभवांशे समजाय? आचार्यभगवान उत्तर आपे छे के, प्रज्ञारूपी छीणीथी छेदतां ते बन्ने जुदा पडी जाय छे, अर्थात् ज्ञानथी ज

वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी

ओळखाणथी ज, अनादि काळथी रागद्वेष साथे एकाकाररूपे परिणमतो आत्मा भिन्नपणे


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परिणमवा लागे छे; आ सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. माटे दरेक जीवे वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी ओळखाण करवानो प्रयत्न सदा कर्तव्य छे.

यथार्थ आत्मस्वरूपनी ओळखाण कराववी ते आ शास्त्रनो मुख्य उद्देश छे. ते उद्देशने पहोंची वळवा आ शास्त्रमां आचार्यभगवाने अनेक विषयोनुं निरूपण कर्युं छे. जीव अने पुद्गलने निमित्तनैमित्तिकपणुं होवा छतां बन्नेनुं तद्दन स्वतंत्र परिणमन, ज्ञानीने रागद्वेषनुं अकर्ता- अभोक्तापणुं, अज्ञानीने रागद्वेषनुं कर्ता-भोक्तापणुं, सांख्यदर्शननी एकांतिकता, गुणस्थान- आरोहणमां भावनुं अने द्रव्यनुं निमित्तनैमित्तिकपणुं, विकाररूपे परिणमवामां अज्ञानीनो पोतानो ज दोष, मिथ्यात्वादिनुं जडपणुं तेम ज चेतनपणुं, पुण्य अने पाप बन्नेनुं बंधस्वरूपपणुं, मोक्षमार्गमां चरणानुयोगनुं स्थान

इत्यादि अनेक विषयो आ शास्त्रमां प्ररूप्या छे. ए बधानो

हेतु भव्य जीवोने यथार्थ मोक्षमार्ग बताववानो छे. आ शास्त्रनी महत्ता जोईने उल्लास आवी जतां श्री जयसेन आचार्यवर कहे छे के ‘जयवंत वर्तो ते पद्मनंदी आचार्य अर्थात् कुंदकुंद आचार्य के जेमणे महातत्त्वथी भरेलो प्राभृतरूपी पर्वत बुद्धिरूपी शिर पर उपाडीने भव्य जीवोने समर्पित कर्यो छे.’ खरेखर आ काळे आ शास्त्र मुमुक्षु भव्यजीवोनो परम आधार छे. आवा दुःषम काळमां पण आवुं अद्भुत अनन्य-शरणभूत शास्त्रतीर्थंकरदेवना मुखमांथी नीकळेलुं अमृतविद्यमान छे ते आपणुं महा सद्भाग्य छे. निश्चय-व्यवहारनी संधिपूर्वक यथार्थ मोक्षमार्गनी आवी संकलनाबद्ध प्ररूपणा बीजा कोई पण ग्रंथमां नथी. परम पूज्य सद्गुरुदेवना शब्दोमां कहुं तो ‘आ समयसार शास्त्र आगमोनुं पण आगम छे; लाखो शास्त्रोनो निचोड एमां रहेलो छे; जैन शासननो ए स्तंभ छे; साधकनी ए कामधेनु छे, कल्पवृक्ष छे. चौद पूर्वनुं रहस्य एमां समायेलुं छे. एनी दरेक गाथा छठ्ठा-सातमा गुणस्थाने झूलता महामुनिना आत्म-अनुभवमांथी नीकळेली छे. आ शास्त्रना कर्ता भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव महाविदेह क्षेत्रमां सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमंधरभगवानना समवसरणमां गया हता अने त्यां तेओ आठ दिवस रह्या हता ए वात यथातथ्य छे, अक्षरशः सत्य छे, प्रमाणसिद्ध छे, तेमां लेशमात्र शंकाने स्थान नथी. ते परम उपकारी आचार्यभगवाने रचेला आ समयसारमां तीर्थंकरदेवना निरक्षर ॐकारध्वनिमांथी नीकळेलो ज उपदेश छे.’

आ शास्त्रमां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनी प्राकृत गाथाओ पर आत्मख्याति नामनी संस्कृत टीका लखनार (लगभग विक्रम संवतना १०मा सैकामां थई गयेला) श्रीमान अमृतचंद्राचार्यदेव छे. जेम आ शास्त्रना मूळ कर्ता अलौकिक पुरुष छे तेम तेना टीकाकार पण महासमर्थ आचार्य छे. आत्मख्याति जेवी टीका हजु सुधी बीजा कोई जैन ग्रंथनी लखायेली नथी. तेमणे पंचास्तिकाय तथा प्रवचनसारनी पण टीका लखी छे अने तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय आदि स्वतंत्र ग्रंथो पण लख्या छे. तेमनी एक आ आत्मख्याति टीका वांचनारने ज तेमनी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपने न्यायथी सिद्ध करवानी तेमनी असाधारण शक्ति अने उत्तम काव्यशक्तिनो पूरो ख्याल आवी जशे. अति संक्षेपमां गंभीर रहस्योने गोठवी देवानी तेमनी अजब शक्ति विद्वानोने आश्चर्यचकित करे छे. तेमनी आ दैवी टीका श्रुतकेवळीनां वचनो जेवी छे.


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जेम मूळ शास्त्रकर्ताए आ शास्त्र समस्त निज वैभवथी रच्युं छे तेम टीकाकारे पण अत्यंत होंशपूर्वक सर्व निज वैभवथी आ टीका रची छे एम आ टीका वांचनारने सहेजे लाग्या विना रहेतुं नथी. शासनमान्य भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे आ कळिकाळमां जगद्गुरु तीर्थंकरदेव जेवुं काम कर्युं छे अने श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे, जाणे के तेओ कुंदकुंदभगवानना हृदयमां पेसी गया होय ते रीते तेमना गंभीर आशयोने यथार्थपणे व्यक्त करीने, तेमना गणधर जेवुं काम कर्युं छे. आ टीकामां आवतां काव्यो (

कळशो) अध्यात्मरसथी अने आत्मानुभवनी मस्तीथी भरपूर छे. श्री पद्मप्रभदेव जेवा समर्थ मुनिवरो पर ते कळशोए ऊंडी छाप पाडी छे अने आजे पण ते तत्त्वज्ञानथी ने अध्यात्म- रसथी भरेला मधुर कळशो, अध्यात्मरसिकोना हृदयना तारने झणझणावी मूके छे, अध्यात्मकवि तरीके श्री अमृतचंद्राचार्यदेवनुं स्थान जैन साहित्यमां अद्वितीय छे.

समयसारमां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे ४१५ गाथाओ प्राकृतमां रची छे. तेना पर श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे आत्मख्याति नामनी अने श्री जयसेनाचार्यदेवे तात्पर्यवृत्ति नामनी संस्कृत टीका लखी छे. पंडित जयचंद्रजीए मूळ गाथाओनुं अने आत्मख्यातिनुं हिंदीमां भाषांतर कर्युं अने तेमां पोते थोडो भावार्थ पण लख्यो. ते पुस्तक ‘समयप्राभृत’ना नामे वि. सं. १९६४मां प्रकाशित थयुं हतुं. त्यार पछी पंडित मनोहरलालजीए ते पुस्तकने प्रचलित हिंदीमां परिवर्तित कर्युं अने श्री परमश्रुतप्रभावक मंडळ द्वारा ‘समयसार’ना नामे वि. सं. १९७५मां प्रकाशन पाम्युं. ते हिंदी ग्रंथना आधारे, तेम ज संस्कृत टीकाना शब्दो तथा आशयने वळगी रहीने, आ गुजराती अनुवाद तैयार करवामां आव्यो छे.

आ अनुवाद करवानुं महा भाग्य मने प्राप्त थयुं ते मने अति हर्षनुं कारण छे. परम पूज्य सद्गुरुदेवना आश्रय तळे आ गहन शास्त्रनो अनुवाद थयो छे. अनुवाद करवानी समस्त शक्ति मने पूज्यपाद सद्गुरुदेव पासेथी ज मळी छे. मारी मारफत अनुवाद थयो तेथी ‘आ अनुवाद में कर्यो छे’ एम व्यवहारथी भले कहेवाय, परंतु मने मारी अल्पतानुं पूरुं भान होवाथी अने अनुवादनी सर्व शक्तिनुं मूळ श्री सद्गुरुदेव ज होवाथी हुं तो बराबर समजुं छुं के सद्गुरुदेवनी अमृतवाणीनो धोध जतेमना द्वारा मळेलो अणमूल उपदेश जयथाकाळे आ अनुवादरूपे परिणम्यो छे. जेमनी हूंफथी आ अति गहन शास्त्रनो अनुवाद करवानुं में साहस खेड्युं हतुं अने जेमनी कृपाथी ते निर्विघ्ने पार पड्यो छे ते परम उपकारी सद्गुरुदेवनां चरणारविंदमां अति भक्तिभावे वंदन करुं छुं.

आ अनुवादमां अनेक भाईओनी मदद छे. भाईश्री अमृतलाल माणेकलाल झाटकियानी आमां सौथी वधारे मदद छे. तेओ आखो अनुवाद अति परिश्रम वेठीने घणी ज बारीकाईथी अने उमंगथी तपासी गया छे, घणी अति-उपयोगी सूचनाओ तेमणे करी छे, संस्कृत टीकानी हस्तलिखित प्रतो मेळवीने पाठान्तरो शोधी आप्या छे, शंकास्थानोनां समाधान पंडितो पासेथी मेळवी आप्यां छे इत्यादि अनेक रीते तेमणे जे सर्वतोमुखी सहाय करी छे ते माटे हुं तेमनो अत्यंत आभारी छुं. जेओ पोताना विशाळ शास्त्रज्ञानथी, आ अनुवादमां पडती नानीमोटी मुश्केलीओनो निवेडो करी


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आपता ते मुरब्बी श्री वकील रामजीभाई माणेकचंद दोशीनो हुं हृदयपूर्वक आभार मानुं छुं. ज्यारे ज्यारे भाषांतर करतां कोई अर्थ बराबर न बेसता होय त्यारे त्यारे हुं (अमृतलालभाई मारफत) पत्र द्वारा पं

गणेशप्रसादजी वर्णी अने पं रामप्रसादजी शास्त्रीने ते अर्थो पुछावतो. तेमणे मने

दरेक वखते विनासंकोचे प्रश्नोना उत्तरो आप्या छे. तेमनी सलाह मने भाषांतरमां घणी उपयोगी थई छे. आ रीते तेमणे करेली मदद माटे हुं तेमनो अंतःकरणपूर्वक आभार मानुं छुं. आ सिवाय जे जे भाईओनी आ अनुवादमां सहाय छे ते सर्वनो हुं आभारी छुं.

आ अनुवाद भव्य जीवोने जिनदेवे प्ररूपेलो आत्मशांतिनो यथार्थ मार्ग बतावो, ए मारी अंतरनी भावना छे. श्री अमृतचंद्राचार्यदेवना शब्दोमां ‘आ शास्त्र आनंदमय विज्ञानघन आत्माने प्रत्यक्ष देखाडनारुं अद्वितीय जगतचक्षु छे.’ जे कोई तेना परम गंभीर अने सूक्ष्म भावोने हृदयगत करशे तेने ते जगतचक्षु आत्मानुं प्रत्यक्ष दर्शन करावशे. ज्यां सुधी ते भावो यथार्थ रीते हृदयगत न थाय त्यां सुधी रातदिवस ते ज मंथन, ते ज पुरुषार्थ कर्तव्य छे. श्री जयसेनाचार्यदेवना शब्दोमां समयसारना अभ्यास आदिनुं फळ कहीने आ उपोद्घात पूर्ण करुं छुंः‘स्वरूपरसिक पुरुषोए वर्णवेला आ प्राभृतनो जे कोई आदरथी अभ्यास करशे, श्रवण करशे, पठन करशे, प्रसिद्धि करशे, ते पुरुष अविनाशी स्वरूपमय, अनेक प्रकारनी विचित्रतावाळा, केवळ एक ज्ञानात्मक भावने पामीने अग्र पदने विषे मुक्तिललनामां लीन थशे.’ दीपोत्सवी, वि. सं. १९९६ हिंमतलाल जेठालाल शाह

[द्वितीय आवृत्ति प्रसंगे]

प्रथम आवृत्तिमां श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवकृत संस्कृत टीका छपाववामां आवी नहोती; आ द्वितीय आवृत्तिमां ते उमेरवामां आवी छे. आ संस्कृत टीका वि. सं. १९७५मां श्री परमश्रुतप्रभावक मंडळ द्वारा प्रकाशित समयसार प्रमाणे छपाववामां आवी छे; तेमां (वि. सं. १९७५नी मुद्रित टीकामां) क्यांक अशुद्धिओ जणाई ते घणीखरी (हस्तलिखित प्रतोना आधारे) सुधारी लेवामां आवी छे, तेम ज क्यांक मुद्रित पाठो करतां हस्तलिखित प्रतोना पाठांतरो विशेष बंधबेसता लाग्या त्यां हस्तलिखित प्रतो प्रमाणे पाठ लेवामां आव्या छे.

गुजराती अनुवाद प्रथम आवृत्ति प्रमाणे राखवामां आव्यो छे; मात्र कोईक जूज स्थळोए अल्प फेरफार कर्यो छे.

जे जे भाईओए काममां मदद करी छे ते सौनो ॠणी छुं. फागण सुद ११ हिं. जे. शाह वि. सं. २००९


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[तृतीय आवृत्ति प्रसंगे]

प्रथमनी बे आवृत्तिओमां संस्कृत टीकाना कलशरूप श्लोकोनो सळंग गुजराती अनुवाद छपाववामां आव्यो हतो. आ त्रीजी आवृत्तिमां ते श्लोकोनां गुजराती अनुवादनी वच्चे वच्चे संस्कृत शब्दो कौंसमां छपाववामां आव्या छे के जेथी कया संस्कृत शब्दनो कयो गुजराती अर्थ छे ते सहेलाईथी वाचकना ख्यालमां आवी शके. आ रीते ‘श्लोकार्थ’मां संस्कृत शब्दो यथास्थाने गोठववानुं काम ब्र

भाईश्री चंदुलालभाई झोबाळियाए पोतानी स्वयंस्फुरित भावनाथी घणी चोकसाईपूर्वक कर्युं छे.

उपरोक्त विशेषता सिवाय, (तेम ज अनुवादमां मात्र क्यांक करायेल नजीवा फेरफार सिवाय,) आ तृतीय आवृत्तिनी सर्व सामग्रीसंस्कृत टीका, अनुवाद वगेरे बधुंद्वितीय आवृत्ति प्रमाणे ज छे. फागण वद दशम हिं. जे. शाह वि. सं. २०२५

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भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव
विषे
उल्लेखो
वन्द्यो विभुर्भ्भुवि न कै रिह कौण्डकुन्दः
कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः
यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीक -
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्
।।
[ चंद्रगिरि पर्वत परनो शिलालेख ]
अर्थःकुन्दपुष्पनी प्रभा धरनारी जेमनी कीर्ति वडे दिशाओ विभूषित
थई छे, जेओ चारणोनांचारणॠद्धिधारी महामुनिओनांसुंदर हस्तकमळोना
भ्रमर हता अने जे पवित्रात्माए भरतक्षेत्रमां श्रुतनी प्रतिष्ठा करी छे, ते विभु
कुंदकुंद आ पृथ्वी पर कोनाथी वंद्य नथी?
................कोण्डकु न्दो यतीन्द्रः ।।
रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त-
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः
रजःपदं भूमितलं विहाय
चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः
।।
[ विंध्यगिरिशिलालेख ]

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