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सौख्यमित्यलं प्रपंचेन
सुखमित्यभिप्रायः
चुकी है
ही सुख है
[न श्रद्दधति ] जो श्रद्धा नहीं करते [ते अभव्याः ] वे अभव्य हैं; [भव्याः वा ] और भव्य [तत् ]
उसे [प्रतीच्छन्ति ] स्वीकार (-आदर) करते हैं
श्रद्धे न तेह अभव्य छे, ने भव्य ते संमत करे. ६२.
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श्रद्धेयम्
चारित्रमोहोदयेन मोहितः सन्निरुपरागस्वात्मोत्थसुखमलभमानः सन् सरागसम्यग्दृष्टिरात्मनिन्दादिपरिणतो
हेयरूपेण तदनुभवति
अपारमार्थिक रूढ़ि है; और जिनके घातिकर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे केवलीभगवानके,
स्वभावप्रतिघातके अभावके कारण और आकुलताके कारण सुखके यथोक्त
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[अभिद्रुताः ] पीड़ित वर्तते हुए [तद् दुःखं ] उस दुःखको [असहमानाः ] सहन न कर सकनेसे
[रम्येषु विषयेषु ] रम्य विषयोंमें [रमन्ते ] रमण करते हैं
ही) मैत्री प्रवर्तती है
नव सही शके ते दुःख तेथी रम्य विषयोमां रमे
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विषयेषु रतिरुपजायते
उस दुःखके वेगको सहन न कर सकनेसे उन्हें व्याधिके प्रतिकारके समान (-रोगमें थोड़ासा
आराम जैसा अनुभव करानेवाले उपचारके समान) रम्य विषयोंमें रति उत्पन्न होती है
पारमार्थिक सुख नहीं है
[तद् ] वह दुःख [स्वभावं न ] स्वभाव न हो तो [विषयार्थं ] विषयार्थमें [व्यापारः ] व्यापार
[न अस्ति ] न हो
जो ते न होय स्वभाव तो व्यापार नहि विषयो विषे
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प्रदीपार्चीरूप इव, कुरंगस्य मृगयुगेयस्वर इव, दुर्निवारेन्द्रियवेदनावशीकृतानामासन्ननिपातेष्वपि
विषयेष्वभिपातः
विनष्टकर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव, रूढव्रणस्यालेपनदानमिव, विषयव्यापारो न दृश्येत
है, क्योंकि उनकी विषयोंमें रति देखी जाती है
कमलके गंधकी ओर, पतंगा दीपककी ज्योतिके रूपकी ओर और हिरन शिकारीके संगीतके
स्वरकी ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं उसीप्रकार
ओर दौड़ते दिखाई देते हैं
आँखोंका दुःख दूर हो गया है वह वटाचूर्ण (-शंख इत्यादिका चूर्ण) आँजता तथा जिसका
कर्णशूल नष्ट हो गया हो वह कानमें फि र बकरेका मूत्र डालता दिखाई नहीं देता और
जिसका घाव भर जाता है वह फि र लेप करता दिखाई नहीं देता
ही है
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स्वाभाविक ही है
[परिणममानः ] परिणमन करता हुआ [आत्मा ] आत्मा [स्वयमेव ] स्वयं ही [सुख ] सुखरूप
(-इन्द्रियसुखरूप) होता है [देहः न भवति ] देह सुखरूप नहीं होती
जीव प्रणमतो स्वयमेव सुखरूप थाय, देह थतो नथी
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कारणतामुपागतेन स्वभावेन परिणममानः स्वयमेवायमात्मा सुखतामापद्यते
पण विषयवश स्वयमेव आत्मा सुख वा दुःख थाय छे
हुई इन्द्रियोंके द्वारा असमीचीन (अयोग्य) परिणतिका अनुभव करनेसे जिसकी
निश्चय -कारण न होता हुआ किंचित् मात्र भी सुखत्वको प्राप्त नहीं करता
ही है अर्थात् इन्द्रियसुखका भी वास्तविक कारण आत्माका ही अशुद्ध स्वभाव है
क्योंकि सुखरूप परिणति और शरीर सर्वथा भिन्न होनेके कारण सुख और शरीरमें निश्चयसे
किंचित्मात्र भी कार्यकारणता नहीं है
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तु ] परन्तु विषयोंके वशसे [सौख्यं दुःखं वा ] सुख अथवा दुःखरूप [स्वयं आत्मा भवति ]
स्वयं आत्मा होता है
अथवा दुःखरूप स्वयं ही होता है
ज्यां जीव स्वयं सुख परिणमे, विषयो करे छे शुं तहीं ?
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सुखतया परिणममानस्य सुखसाधनधिया अबुधैर्मुधाध्यास्यमाना अपि विषयाः किं हि नाम
कुर्युः
इत्यभिप्रायः
नहीं कर सकता, [तथा ] उसीप्रकार जहाँ [आत्मा ] आत्मा [स्वयं ] स्वयं [सौख्यं ] सुखरूप
परिणमन करता है [तत्र ] वहाँ [विषयाः ] विषय [किं कुर्वन्ति ] क्या कर सकते हैं ?
दीपक -प्रकाशादिसे कोई प्रयोजन नहीं होता, (उन्हें दीपक -प्रकाश कुछ नहीं करता,)
इसीप्रकार
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मेवौष्ण्यपरिणामापन्नत्वादुष्णः, यथा च देवगतिनामकर्मोदयानुवृत्तिवशवर्तिस्वभावतया देवः;
स्वयमेव लोके सिद्ध पण त्यम ज्ञान, सुख ने देव छे
[लोके ] लोकमें [सिद्धः अपि ] सिद्ध भगवान भी (स्वयमेव) [ज्ञानं ] ज्ञान [सुखं च ] सुख
[तथा देवः ] और देव हैं
कभी
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शक्तिसहजसंवेदनतादात्म्यात
निरन्तरं परमाराध्यं, तथैवानन्तज्ञानादिगुणस्तवनेन स्तुत्यं च यद्दिव्यमात्मस्वरूपं तत्स्वभावत्वात्तथैव
देवश्चेति
प्रकाशित करनेमें समर्थ निर्वितथ (
है ऐसे बुध जनोंके मनरूपी
बस हो
छोड़कर निरालम्बी परमानन्दस्वभावरूप परिणमन करना चाहिये
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केवलज्ञानं, ऋद्धिशब्देन समवसरणादिलक्षणा विभूतिः, सुखशब्देनाव्याबाधानन्तसुखं, तत्पदाभि-
लाषेण इन्द्रादयोऽपि भृत्यत्वं कुर्वन्तीत्येवंलक्षणमैश्वर्यं, त्रिभुवनाधीशानामपि वल्लभत्वं दैवं भण्यते
“
“
“
“
लीन आत्मा [शुभोपयोगात्मकः ] शुभोपयोगात्मक है
जीव रक्त उपवासादिके, शुभ -उपयोगस्वरूप छे
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सुखस्य साधनीभूतां शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत
मष्टादशगाथाभिः सुखप्रपञ्च इति समुदायेन द्वासप्ततिगाथाभिरन्तराधिकारचतुष्टयेन
समाप्तः
दशगाथापर्यन्तं प्रथमज्ञानकण्डिका कथ्यते
तदनन्तरमुपसंहाररूपेण गाथाद्वयं, इति स्थलत्रयपर्यन्तं क्रमेण व्याख्यानं क्रियते
शुभोपयोगं प्रतिपादयति, अथवा द्वितीयपातनिका --पीठिकायां यच्छुभोपयोगस्वरूपं सूचितं
तस्येदानीमिन्द्रियसुखविशेषविचारप्रस्तावे तत्साधकत्वेन विशेषविवरणं करोति ---
दाणम्मि वा सुसीलेसु देवतायतिगुरुपूजासु चैव दाने वा सुशीलेषु
उपवासादिकके प्रीतिस्वरूप धर्मानुरागको अंगीकार करता है तब वह इन्द्रियसुखकी साधनभूत
शुभोपयोगभूमिकामें आरूढ़ कहलाता है
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पूजा, आहारादिचतुर्विधदानं च आचारादिकथितशीलव्रतानि तथैवोपवासादिजिनगुणसंपत्त्यादिविधि-
विशेषाश्व
शुद्धात्मस्वरूपमें प्रयत्नपरायण वे यति हैं
उपवासादिक तपमें प्रीतिका होना वह धर्मानुराग है
उतने समय तक [विविधं ] विविध [ऐन्द्रियं सुखं ] इन्द्रियसुख [लभते ] प्राप्त करता
है
ते पर्यये तावत्समय इन्द्रियसुख विधविध लहे
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समासादयतीति
तिर्यग्मनुष्यदेवरूपो भूत्वा
समय तक अनेक प्रकारका इन्द्रियसुख प्राप्त करता है
[देहवेदनार्ता ] (पंचेन्द्रियमय) देहकी वेदनासे पीड़ित होनेसे [रम्येसु विषयेसु ] रम्य विषयोंमें
[रमन्ते ] रमते हैं
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भृगुप्रपातस्थानीयान् मनोज्ञविषयानभिपतन्ति
स्थानीयमहारण्ये मिथ्यात्वादिकुमार्गे नष्टः सन् मृत्युस्थानीयहस्तिभयेनायुष्कर्मस्थानीये साटिकविशेषे
शुक्लकृष्णपक्षस्थानीयशुक्लकृष्णमूषकद्वयछेद्यमानमूले व्याधिस्थानीयमधुमक्षिकावेष्टिते लग्नस्तेनैव
तो जीवनो उपयोग ए शुभ ने अशुभ कई रीत छे ?. ७२
पिशाचकी पीड़ासे परवश होनेसे
अशुभोपयोगसे अविशेषता प्रगट करते हैं :
तो जीवोंका [सः उपयोगः ] वह (शुद्धोपयोगसे विलक्षण -अशुद्ध) उपयोग [शुभः वा
अशुभः ] शुभ और अशुभ
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मेवानुभवन्ति, ततः परमार्थतः शुभाशुभोपयोगयोः पृथक्त्वव्यवस्था नावतिष्ठते
व्यवस्थापयति
पञ्चेन्द्रियात्मकशरीरोत्पन्नं निश्चयनयेन दुःखमेव भजन्ते सेवन्ते,
उदयगत पापकी आपदावाले नारकादिक
तब फि र परमार्थसे शुभ और अशुभ उपयोगकी पृथक्त्वव्यवस्था नहीं रहती
(अर्थात् उसमें दोष दिखानेके लिये) उस पुण्यको (-उसके अस्तित्वको) स्वीकार करके
उसकी (पुण्यकी) बातका खंडन करते हैं :
पुष्टि करे देहादिनी, सुखी सम दीसे अभिरत रही
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पुण्यान्यवलोक्यन्ते
इवासक्ताः सुखाभासेन देहादीनां वृद्धिं कुर्वन्ति
[देहादीनां ] देहादिकी [वृद्धिं कुर्वन्ति ] पुष्टि करते हैं और [अभिरताः ] (इसप्रकार) भोगोंमें
रत वर्तते हुए [सुखिताः इव ] सुखी जैसे भासित होते हैं
अस्तित्व दिखाई देता है)
बतायेंगे)
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समुत्पादयन्ति
विद्यमान हैं, [देवतान्तानां जीवानां ] तो वे देवों तकके जीवोंको [विषयतृष्णां ] विषयतृष्णा
[जनयन्ति ] उत्पन्न करते हैं
विषयतृष्णा अवश्यमेव उत्पन्न करते हैं (ऐसा भी स्वीकार करना पड़ता है) वास्तवमें तृष्णाके
बिना; जैसे जोंक (गोंच)को दूषित रक्तमें उसीप्रकार समस्त संसारियोंको विषयोंमें प्रवृत्ति
दिखाई न दे; किन्तु वह तो दिखाई देती है
तो पुण्य ए देवान्त जीवने विषयतृष्णोद्भव करे. ७४.
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विषयाकाङ्क्षाग्निजनितपरमदाहविनाशिकां स्वरूपतृप्तिमलभमानानां देवेन्द्रप्रभृतिबहिर्मुखसंसारि-
जीवानामिति
सौख्यानि इच्छन्ति ] विषयसुखोंको चाहते हैं [च ] और [दुःखसन्तप्ताः ] दुःखोंसे संतप्त होते
हुए (-दुःखदाहको सहन न करते हुए) [अनुभवंति ] उन्हें भोगते हैं
इच्छे अने आमरण दुःखसंतप्त तेने भोगवे. ७५.