Moksha-Marg Prakashak (Hindi). MokshamArg prakAshak; Introduction; Avrutti; Pujya Gurudevshri KanjiswAmi; Prakashakiy nivedan; Upodghat; Vishay Suchi; ManglacharaN; Pahala Adhyay.

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भगवानश्रीकुन्दकुन्द-कहानजैनशास्त्रमाला, पुष्प९९
मोक्षमार्गप्रकाशक
लेखक
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी
भाषा-परिवर्तन
श्री मगनलाल जैन
प्रकाशक
श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ़ ३६४२५० (जिला : भावनगरगुजरात)
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प्रकाशकीय निवेदन
‘भगवानश्रीकुन्दकुन्द-कहानजैनशास्त्रमाला’के ९९वें पुष्पका‘मोक्षमार्गप्रकाशक’
ग्रन्थकायह हिन्दी छठवाँ संस्करण प्रकाशित करते हुए अति प्रसन्नता अनुभूत हो रही है।
यह संस्करण भी पिछले पाँचवें संस्करणके अनुरूप ही रखा गया है। पूज्य गुरुदेव श्री
कानजीस्वामीने, ‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ पर अनेक बार प्रवचन देकर एवं उसके गम्भीर रहस्य
समझाकर, मुमुक्षुसमाज पर महान उपकार किया है। परमोपकारी पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी
एवं स्वानुभवविभूषित पूज्य बहिनश्री चम्पाबेनके पावन धर्मोपकारप्रतापसे, उन दोनोंकी पवित्र
साधनाभूमि सुवर्णपुरी (सोनगढ़)में अध्यात्मतत्त्वप्रधान अनेकविध धार्मिक गतिविधि चल रही हैं।
उनका लाभ लेने हेतु हिन्दीभाषी मुमुक्षुवृन्द, अपने आत्मार्थकी उजागरताके लिये, वर्षमें अनेक
बार सोनगढ़ आते रहते हैं। उन तत्त्वरसिक मुमुक्षुवृन्दकी भावनाको ध्यानमें लेकर यह ग्रन्थ
पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।
इस महान ग्रन्थके अध्ययनसे मुमुक्षु जीव, भवभीरुता सह तत्त्वज्ञानकी गहनता सम्प्राप्त
कर, अपने आत्मार्थको विशेष पुष्ट करेंयही प्रशस्त भावना।
वि. सं. २०५१, चैत्र कृष्णा १
(बहिनश्री-चम्पाबेन-६३वीं-सम्यक्त्वजयन्ती)
सत्साहित्यप्रकाशनसमिति,
श्री दि जैन स्वाध्यायमन्दिर ट्रस्ट,
सोनगढ़ ३६४२५०

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उपोद्घात
इस निकृष्ट कालमें संस्कृत-प्राकृत भाषाज्ञानकी अतिशय न्यूनतासा तथा श्री निर्ग्रंथ
वीतराग मार्गके ग्रंथोंके पठनपाठनका एक प्रकारसे अभावसा हो रहा था, उस समयमें (विक्रमकी
१८वीं शताब्दिके अन्तमें और १९वीं शताब्दिके आदिमें) ढुन्ढाहडदेश (राजस्थान)के सवाई
जयपुर नगरमें इस ‘मोक्षमार्ग-प्रकाशक’ ग्रंथके रचयिता, निर्ग्रन्थ-वीतरागमार्गके परमश्रद्धावान,
सातिशय बुद्धिके धारक और विद्वत्जनमनवल्लभ आचार्यकल्प पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीका
उदय हुआ था। आपके पिताका नाम जोगीदास तथा माताका नाम रंभादेवी था। आप
‘खंडेलवाल’ जाति व ‘गोदिका’ गोत्रज थे। (‘गोदिका’ वह संभवतः ‘भोंसा’ और ‘बड़जात्या’
नामक गोत्रका ही नामान्तर है।) आपका गृहस्थ जीवन साधन संपन्न था।
आपके शिक्षागुरुका नाम बंसीधर था। तीव्र बुद्धिमत्ताके कारण आप शास्त्रपाठ व
उसके अर्थका अवधारण शीघ्र ही कर लेते थे। कुशाग्र मेघाके कारण छोटी उम्रमें व अल्प
समयमें ही जैनसिद्धान्त उपरान्त, व्याकरण, काव्य, छंद, अलंकार, कोष आदि विविध विषयोंमें
आपने दक्षता प्राप्त कर ली थी। हिन्दी साहित्यके दिगम्बर जैन विद्वानोंमें आपका नाम खास
उल्लेखनीय है। हिन्दी साहित्यके गद्य लेखक विद्वानोंमें आप प्रथम कोटिके विद्वान गिने जाते
हैं। विद्वत्ताके अनुरूप आपका स्वभाव भी विनम्र व दयालु था। स्वाभाविक कोमलता,
सदाचारिता आदि सद्गुणोंसे आपका जीवन सुशोभित था। अहंकार तो आपको स्पर्श ही
नहीं क र सका था। सौम्यमुद्रा परसे आपकी आंतरीक भद्रता तथा वात्सल्यताका परिचय सहज
ही हो जाता था। आपका रहनसहन बहुत ही सादगीमय था। आध्यात्मिकता तो आपके
जीवनमें ओतप्रोत हो गई थी। श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यादि महर्षियोंके आध्यात्मिक ग्रंथोंका
उनके अध्ययन, मनन व परिशीलनसेआपके-जीवन पर बहुत ही प्रभाव पड़ा था।
अध्यात्मतत्त्वकी चर्चा करते आप आनंदसे उछल जाते थे और श्रोतागण भी सुनकर गद्गद्
हो जाते थे। संस्कृत तथा प्राकृत
दोनों भाषाओंके आप उस समयके अद्वितीय व सुयोग्य
विद्वान थे। आपका क्षयोपशम आश्चर्यकारी था तथा वस्तुस्वरूपके विश्लेषणमें अति ही दक्ष
था। आपका आचार व व्यवहार विवेकयुक्त तथा मृदु था। आपके द्वारा रचित गोम्मटसार,
लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार, आत्मानुशासन और पुरुषार्थसिद्धिउपाय आदिकी भाषाटीकायें
तथा इस ‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ नामक आपकी स्वतंत्र रचनाके अवलोकनसे यह ज्ञात होता है
कि उस समयमें आपके जैसा स्वमत-परमतका ज्ञाता शायद ही कोई हो।

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गोम्मटसार आदि करणानुयोग ग्रंथ इतने गहन हैं कि जिसका पठन-पाठन विशेष बुद्धि
व धारणाशक्तिवाले विद्वानोंको भी कष्टसाध्य है। इस संबंधमें विद्वानोंका अनुभव सह यह
कहना है कि
गोम्मटसारके पठनका कुछ रहस्य तो तब ही प्राप्त होता है जब कि जीव
आजन्म सर्व विषयोंका अभ्यास छोड़ इन्द्रियनिग्रहतासे मात्र एक उसीका अभ्यास रखें।
गोम्मटसारकी भाँति उन जैसे आपके अन्य टीकाग्रंथ भी इतने ही महान हैं। इस परसे इन
ग्रंथोंके भाषाटीकाकार कितने तीक्ष्णबुद्धिके धारक थे, यह स्वयमेव ही झलकता है। आपने
अपने छोटेसे जीवनकालमें इन महानग्रंथोंकी टीका लिखी है, इतना ही नहीं वरन् इतने अल्प
समयमें स्वमत
परमतके सैकड़ों ग्रंथोंके पठन-पाठनके साथ-साथ उनका मर्मस्पर्शी गहन मनन
भी किया था। यह बात आपके इस ‘मोक्षमार्ग-प्रकाशक’ ग्रंथरूप रचनाके मनन करनेसे
अभ्यासीयोंको स्वयं ही लक्षगत् हो जाय
ऐसा है।
गोम्मटसार आदि पर आपने लिखे भाषाटीकाग्रंथ इतने गहन हैं कि उनका अभ्यास
मात्र विशेष बुद्धिमान कर सकते हैं; परन्तु अल्प बुद्धिवंत जीवोंके लिये लिखा गया यह
सरल देशभाषामय ‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ ग्रंथ ऐसा अद्भुत है कि जिसकी रहस्यपूर्ण गंभीरता और
संकलनबुद्धि विषयरचनाको देख तीक्ष्ण बुद्धिवंतकी बुद्धि भी आश्चर्यचकित हो जाती है। इस
ग्रंथका निष्पक्ष
गंभीरतासे अवगाहन करने पर ज्ञात होता है कियह कोई साधारण ग्रंथ नहीं
है, परन्तु एक अति उच्चकोटिका महत्वपूर्ण अनोखा ग्रंथराज है और उसके रचयिता भी अनेक
आगमोंके मर्मज्ञ तथा प्रतिभासंपन्न विद्वान हैं। ग्रंथके विषयोंका प्रतिपादन सर्वको हितकर है
और महान गंभीर आशयपूर्वक हुआ है।
इस ‘मोक्षमार्ग-प्रकाशक’ ग्रंथमें नौ अधिकार हैं। उसमें नववाँ अधिकार अपूर्ण है,
शेष आठ अधिकार अपने विषय-निरूपणमें परिपूर्ण हैं। पहले अधिकारमें मंगलाचरण करनेके
पश्चात् उसका प्रयोजन बताकर बादमें ग्रंथकी प्रामाणिकताका दिग्दर्शन कराया है। तत्पश्चात्
श्रवण-पठन करनेयोग्य शास्त्रका, वक्ता तथा श्रोताके स्वरूपका सप्रमाण विवेचनकर ‘मोक्षमार्ग-
प्रकाशक’ ग्रंथकी सार्थकता बताई गई है।
दूसरे अधिकारमें संसार अवस्थाके स्वरूपका सामान्य दिग्दर्शन कराया है। उसमें
कर्मबंधननिदान, नूतन बंध विचार, कर्म और जीवका अनादि संबंध, अमूर्तिक आत्माके साथ
मूर्तिक कर्मोंका संबंध, उन कर्मोंके ‘घाति-अघाति’ ऐसे भेद, योग और कषायसे होनेवाले
यथायोग्य कर्मबंधका निर्देश, जड़-पुद्गल परमाणुओंका यथायोग्य कर्मप्रकृतिरूप परिणमनका
उल्लेख करके भावोंसे पूर्वबद्ध कर्मोंकी अवस्थामें होनेवाले परिवर्तनका निर्देश करनेमें आया
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है। साथमें कर्मोंके फलदानमें निमित्त-नैमित्तिकसंबंध और भावकर्मद्रव्यकर्मका स्वरूप भी
बताया है।
तीसरे अधिकारमें संसारदुःख और मोक्षसुखका निरूपण करते हुए समस्त दुःखोंका मूलतः
कारण ऐसे मिथ्यात्वके प्रभावका कथन किया गया है, विषयोंकी अभिलाषा जनित मोहसे उत्पन्न
दुःखको तथा मोही जीवके दुःखनिवृत्तिके उपायको निःसार बताकर दुःखनिवृत्तिका सच्चा उपाय
बताया है, अन्य कर्मोंके उदय तथा दर्शनमोह तथा चारित्रमोहके उदयसे होनेवाले दुःखका
व उनकी निवृत्तिका उल्लेख भी किया गया है। एकेन्द्रियादिक जीवोंके दुःखका वर्णन करके
नरकादि चारों गतियोंके घोर कष्ट और उनको दूर करनेका सामान्य-विशेष उपायोंका भी विवेचन
किया गया है। इस तरह उस अधिकारमें कर्मकी अपेक्षासे व गतियोंकी अपेक्षासे जीवके
दुःखका वर्णनकर उससे संपूर्ण निवृत्तिरूप (मोक्ष) सुखको सिद्धकर, उन दुःखोंसे निवृत्तिके
उपायका सामान्य स्वरूप दर्शाया गया है।
चौथे अधिकारमें मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जो कि दुःखके मूल कारण हैं, उनका विशेष
निरूपण करते हुए प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत पदार्थों तथा उनके आश्रयसे होती राग-द्वेषकी
प्रवृत्तिका स्वरूप बताया गया है।
पाँचवें अधिकारमें आगम व युक्तिके आधारसे विविध मतोंकी समीक्षा करके गृहीत
मिथ्यात्वका बहुत ही मार्मिक विवेचन किया है; साथमें ही अन्यमतके प्राचीन ग्रंथोंके उदाहरणों
द्वारा जैनधर्मकी प्राचीनता तथा महत्ता पुष्ट की है, श्वेताम्बर संप्रदाय संमत अनेक कल्पनाओं
तथा मान्यताओंकी समीक्षा की गई है; ‘अछेरां (आश्चर्य)’का निराकरण करते हुए
केवलीभगवानके आहार-निहारका प्रतिषेध तथा मुनिको वस्त्र-पात्रादि उपकरण रखनेका निषेध
किया है; साथ ही साथ ढूँढ़कमत (स्थानकवासी)की समीक्षा करते हुए मुहपट्टीका निषेध और
प्रतिमाधारी श्रावक नहीं होनेकी मान्यताका तथा मूर्तिपूजाके प्रतिषेधका निराकरण भी किया
गया है।
छट्ठवें अधिकारमें गृहीत मिथ्यात्वके निमित्त कुगुरु, कुदेव और कुधर्मका स्वरूप बताकर
उनकी सेवाका प्रतिषेध किया गया है; तदुपरांत अनेक युक्तियों द्वारा ग्रह, सूर्य, चन्द्र, गाय
और सर्पादिककी पूजाका भी निराकरण किया है।
सातवें अधिकारमें जैन मिथ्यादृष्टिका सांगोपांग विवेचन किया है। इसमें सर्वथा एकान्त
निश्चयावलंबी जैनाभास तथा सर्वथा एकान्त व्यवहारावलंबी जैनाभासोंका युक्तिपूर्ण कथन करनेमें
आया है; जिसको पढ़ते ही जैनदृष्टिका जो सत्यस्वरूप है, वह उपस आता है और वस्तुस्थितिको
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अथवा निश्चय-व्यवहारनयोंकी दृष्टिको नहीं समझनेसे खड़ी होती विपरीत कल्पनायें निर्मूल हो
जाती हैं। इस महत्वपूर्ण प्रकरणमें पंडितजीने जैनोंके अभ्यंतर मिथ्यात्वके निरसनका बहुत
ही रोचक और सिद्धान्तिक विवेचन किया है तथा उभय नयोंकी सापेक्ष दृष्टि स्पष्ट करते
हुए देव-शास्त्र-गुरु संबंधी भक्तिकी अन्यथा प्रवृत्तिका निराकरण किया है। अन्तमें सम्यक्त्व
सन्मुख मिथ्यादृष्टिका स्वरूप तथा क्षयोपशम, विशुद्ध, देशना, प्रायोग्य और करण
यह पाँच
लब्धियोंका निर्देश करते हुए यह अधिकार पूर्ण किया है।
आठवें अधिकारमें प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगइन चार
अनुयोगोंका प्रयोजन, स्वरूप, विवेचन शैली दर्शाते हुए उनके संबंधमें होनेवाली दोष
कल्पनाओंका निराकरण करते हुए, अनुयोगोंकी सापेक्ष कथनशैलीका समुल्लेख किया है; साथमें
ही आगमाभ्यासकी प्रेरणा भी दी है।
नववें अधिकारमें मोक्षमार्गका स्वरूप-निरूपणका आरंभ करते हुए मोक्षके कारणभूत
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रइन तीनोंमेंसे मोक्षमार्गके मूलकारणभूत सम्यग्दर्शनका
भी पूरा विवेचन नहीं लिखा जा सका है। खेद है कि अकालिक मृत्यु हो जानेसे ग्रंथकर्ता
इस अधिकार व इस ग्रंथको पूरा नहीं कर सकें; यह अपना दुर्भाग्य है। किन्तु इस अधिकारमें
जो कुछ कथन किया है वह बहुत ही सरल और सुगम है। उसे हृदयगंम करनेसे सम्यग्दर्शनके
विभिन्न लक्षणोंका समन्वय सहज ही हो जाता है और उनके स्वरूपका भी सामान्य परिचय
प्राप्त होता है।
इस तरह इस ग्रंथमें चर्चित सभी विषय अथवा प्रमेय ग्रंथकर्ताके विशाल अध्ययन,
अनुपम प्रतिभा और सिद्धान्तिक अनुभवका सफल परिणाम है और वह ग्रंथकर्ताकी जो
आंतरिक भद्रताकी महत्ताका द्योतक है।
इस ग्रंथकी खास विशेषता यह है कि उसमें गंभीर व दुरूह चर्चाको अति सरल
शब्दोंमें अनेक द्रष्टान्त और युक्तियों द्वारा समझानेका प्रयत्न किया गया है। स्वयंने ही प्रश्न
उठाकर उसका मार्मिक उत्तर दिया है कि, जिससे अध्ययनकर्ताको बादमें कोई संदेहका अवकाश
न रहे। इस ग्रंथमें जो कुछ वस्तुविवेचन है वह अनेक विषयों पर प्रकाश डालनेवाला सुसंबद्ध,
आश्चर्यकारक और जैनदर्शनके मार्मिक रहस्योंको समझानेके लिये एक अद्वितीय चाबीके समान
है, अर्थात् इसमें निर्ग्रन्थ प्रवचनके गहन मार्मिक रहस्योंको ग्रंथकारने जगह-जगह प्रगट किया
है।
अन्यमतनिराकरणके विषयमें लिखनेका हेतु कोई परमतके प्रति द्वेष परिणति करानेका
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नहीं है, किन्तु अपने अभिप्रायमें उस उस मत सम्बन्धीत जो कोई धर्मबुद्धिरूप अभिप्राय हो,
वह अभिप्राय छुड़ानेका है। वे स्वयं ही इस संबंधमें इस प्रकार लिखते हैं कि : ‘‘यहाँ
नाना प्रकारके मिथ्यादृष्टियोंका कथन किया है, उसका प्रयोजन इतना ही जानना कि
इन
प्रकारोंको पहचानकर अपनेमें कोई ऐसा दोष हो तो उसे दूर करके सम्यक्श्रद्धानयुक्त होना,
परन्तु अन्यके ऐसे दोष देख कषायी नहीं होना; क्योंकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामोंसे
होता है; यदि अन्यको रुचिवान देखे तो कुछ उपदेश देकर उनका भी भला करे।’’
श्रीमान पंडितप्रवर टोडरमलजी दिगंबर जैनधर्मके प्रभावक विशिष्ट महापुरुष थे। उन्होंने
मात्र छ मासमें सिद्धान्तकौमुदी जैसे कठिन व्याकरणग्रंथका अभ्यास किया था। अपनी
कुशाग्रबुद्धिके प्रभावसे उन्होंने षड्दर्शनके ग्रंथ, बौद्ध, मुस्लिम तथा अन्य अनेक मतमतान्तरोंके
ग्रंथोंका अध्ययन किया था, श्वेताम्बर
स्थानकवासीके सूत्रों तथा ग्रंथोंका भी अवलोकन किया
था, तथा दिगंबर जैन ग्रंथोंमें श्री समयसार, पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार, नियमसार,
गोम्मटसार, तत्त्वार्थसूत्र, अष्टपाहुड़, आत्मानुशासन, पद्मनंदिपंचविंशतिका, श्रावकमुनिधर्मके प्ररूपक
अनेक शास्त्रोंका तथा कथा-पुराणादिक अनेक शास्त्रोंका अभ्यास किया था। इन सर्व शास्त्रोंके
अभ्याससे आपकी बुद्धि बहुत ही प्रखर बनी थी। शास्त्रसभा, व्याख्यानसभा और विवादसभामें
आप बहुत ही प्रसिद्ध थे। इस असाधारण प्रभावकपनेके कारण आप तत्कालीन राजाको
भी अतिशय प्रिय हो गये थे। इस राजप्रियता तथा पांडित्यप्रखरताके कारण अन्यधर्मी आपके
साथ मत्सरभाव करने लगे थे, क्योंकि आपके सामने उन अन्यधर्मीयोंके बड़े-बड़े विद्वान भी
पराभव हो जाते थे। यद्यपि आप स्वयं किसी भी विधर्मीयोंका अनुपकार नहीं करते थे;
परन्तु बने जहाँ तक उनका उपकार ही किया करते थे, तो भी मात्सर्ययुक्त मनुष्योंका
मत्सरताजन्य कृत्य करनेका ही स्वभाव है; उनके मत्सर व वैरभावके कारण ही पंडितजीका
अकालिक देहान्त हो गया था।
पंडित टोडरमलजीकी मृत्युके संबंधमें एक दुःखद घटनाका उल्लेख पं. बखतराम शाहके
‘बुद्धिविलास’ ग्रंथमें निम्न प्रकारसे किया गया है
‘‘तब बाह्मणनु मतौ यह कियो, शिव उठावको टौना दियो।
तामै सबै श्रावगी कैद, करिके दंड किये नृप कैद।।
गुरु तेरह-पंथनुको भ्रमी, टोडरमल्ल नाम साहिमी।
ताहि भूप मार्यो पल मांहि, गाडयो महि गंदगी ताहि।।’’
इसमें स्पष्ट किया है कि संवत् १८८८के बाद जयपुरमें जब जैनधर्मका पुनः विशेष
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उद्योत होने लगा, तब जैनधर्मके प्रति द्वेष रखनेवाले ब्राह्मण वह सहन न कर सके और
इसलिये उन्होंने एक गुप्त ‘षड़यंत्र’ रचा। उन्होंने शिवपिंडीको उखाड़कर जैनों पर ‘उखाड़
डालनेका’ आरोप लगाया और राजा माधवसिंहको, जैनोंके विरुद्ध उकसाकर क्रोधित किया।
राजाने सत्यासत्यकी कुछ भी जानकारी प्राप्त किये बिना ही क्रोधवश सभी जैनोंको रात्रिमें
कैदकर लिया तथा उनके प्रसिद्ध विद्वान पंडित टोडरमल्लजीको पकड़कर मार डालनेका हुकम
दे दिया। तदनुसार पंडितजीको हाथीके पाँवके नीचे कचरवाकर मरवा डाला और उनके शबको
शहरकी गंदकीमें दटवा दिया।
यह बात प्रचलित है कि जब पंडितजीको हाथीके पाँवके नीचे ड़ालनेमें आया और
अंकुशके प्रहारपूर्वक हाथीको, उनके शरीरको कचर डालनेको, प्रेरित करनेमें आया तब हाथी
एकदम चिल्लाकर रुक गया। इस तरह दो बार वह अंकुशके प्रहार खा चुका, परन्तु पंडितजी
पर अपने पाँवका प्रहार नहीं किया। उस पर अंकुशके तीसरे प्रहार पड़नेकी तैयारी थी,
वहाँ पंडितजीने हाथीकी दशा देखकर कहा कि
हे गजेन्द्र! तेरा कोई अपराध नहीं; जहाँ
प्रजाके रक्षकने ही अपराधीनिरपराधीकी परीक्षा किये बिना मार डालनेका हुकम दे दिया
है, वहाँ तु क्यों व्यर्थ ही अंकुशके प्रहार सहता है? संकोच छोड़ और तेरा कार्य कर।
यह वाक्य सुनकर हाथीने अपना काम किया। राजा माधवसिंह (प्रथम)को जब इस
‘षड़यंत्र’के बारेमें ज्ञात हुआ तब उन्हें बहुत ही दुःख हुआ और अपने अधम कृत्य पर
वे बहुत पछताये।
पंडितजीके जीवनका मुख्य ध्येय एक स्व-पर कल्याणका ही था। अन्तरंगमें
क्षयोपशमविशेषसे तथा बाह्यमें तर्क वितर्क पूर्वक अनेक शास्त्रोंके अध्ययनसे आपका वीतराग-
विज्ञान भाव इतना बढ़ गया था कि सांसारिक कार्योंसे वे स्वयं प्रायः विरक्त ही रहा करते
थे; और धार्मिक कार्योंमें इतने तल्लीन रहा करते थे कि बाह्य जगतकी और आस्वाद्य पदार्थोंकी
उनको कुछ भी सुध नहीं रहती थी। इस विषयमें एक जनश्रुति ऐसी भी है कि
जिस समय
आप ग्रंथ रचना कर रहे थे, उस कालमें आपकी माताजीने खाद्य पदार्थोंमें छह माससे नमक
डालना छोड़ दिया था। छ मास पश्चात् शास्त्ररचनाकी ओरसे आपका उपयोग कुछ हटते
एक दिन आपने माताजीसे पूछा : ‘माजी! आज आपने दालमें नमक क्यों नहीं डाला?’
यह सुन माताजी बोली : ‘बेटा, मैं तो छ माससे नमक नहीं डालती हूँ’। यह सब लिखनेका
तात्पर्य इतना ही है कि, आपके समयमें आप एक महान धर्मात्मा, श्रेष्ठ, परोपकारी, निरभिमानी
तथा अद्वितीय विद्वान थे। जैनसमाजके दुर्भाग्यसे ही ऐसे महात्माका असमय ही वियोग हुआ,
परन्तु आपने स्वयंने तो जीवनपर्यन्त जैन समाज पर अनन्य उपकार किया है और इसलिये
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ही समाजमें आपका स्थान अविस्मरणीय है। मुमुक्षु जीव तो आज भी आपका व आपके
गुणोंका स्मरण कर परम संतुष्ट होते हैं।
पंडित श्री टोड़रमलजी द्वारा रचित यह ‘मोक्षमार्ग-प्रकाशक’ ग्रंथ ढुंढ़ारी तथा हिन्दी
भाषामें अनेकबार प्रकाशित हो चुका है। ‘श्री दि. जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्टने भी इसे गुजरातीमें
नौ बार प्रकाशित किया है। पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीके करकमलमें यह ग्रंथ सर्वप्रथम
विक्रम संवत १९८२में आया। उन्होंने बहुत ही मननपूर्वक इस ग्रंथका गहरा अवगाहन किया
था। इसका अवगाहन करते समय पूज्य गुरुदेवश्रीकी परिणति इतनी तल्लीन हो गई थी
कि
उनको न भाये खाना, न भाये पीना या न भाये अन्य कुछ भी कार्य और न भाये
अन्य कुछ भी बातचीत। स्थानकवासी साधुपर्यायमें वे पुस्तक साथमें नहीं रखते थे, परन्तु
मोक्षमार्ग-प्रकाशकका सातवाँ अधिकार विशेष अच्छा लगनेसे (हाथसे बारिक अक्षरोंसे लिखा)
उसे पुनः पुनः स्वाध्याय करने हेतु साथमें रखा था।
इस तरह पूज्य गुरुदेवश्रीको मोक्षमार्ग-प्रकाशक पर अत्यन्त भक्ति होनेसे इस ग्रंथके
भावोंमें कोई परिवर्तन न हो जाय इस तरह प्रमाणिक अनुवाद करानेका पूज्य गुरुदेवश्रीके
अनुरोधसे निर्णय लिया गया। अतः पंडितजीकी स्वहस्तलिखित प्रति कि जिसकी फोटो-प्रिन्ट
कोपी दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ द्वारा कराई गई थी, उसीके आधारसे ग्रंथके
भावोंको अक्षुण्ण बनाये रखनेकी दृष्टिको मुख्य रखते हुए, आधुनिक हिन्दी भाषामें परिवर्तन
कराया गया।
अनुवादका संशोधन-कार्य श्री पं हिम्मतलाल जेठालाल शाह, B.Sc. स्व श्री
रामजीभाई, ब्र चन्दुभाई आदिने अपना अमूल्य समय देकर पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी समक्ष
बैठकर किया है। जिसके लिये ट्रस्ट उन सबका आभारी है।
अनुवादक श्री मगनलालजी जैनने बहुत दिन तक सोनगढ़में रहकर यह अनुवाद कर
दिया था, अतः ट्रस्ट उनका भी आभारी है।
पं श्री टोडरमलजीने प्रथम अधिकारके अन्तमें आगम-अभ्यासकी जो प्रेरणा दी है।
उसका उल्लेख करके यह उपोद्घात पूर्ण करनेमें आता है‘‘इस जीवका मुख्य कर्तव्य तो
आगमज्ञान है। उसके होनेसे तत्त्वोंका श्रद्धान होता है, तत्त्वोंका श्रद्धान होनेसे संयम भाव
होता है और उस आगमज्ञानसे आत्मज्ञानकी भी प्राप्ति होती है; तब सहज ही मोक्षकी प्राप्ति
होती है। धर्मके अनेक अंग हैं, उनमें एकध्यान बिना उससे ऊँचा और धर्मका अंग नहीं
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है; इसलिये जिस-तिस प्रकार आगम-अभ्यास करना योग्य है। पुनश्च, इस ग्रंथका वाँचना,
सुनना, विचारना बहुत सुगम है
कोई व्याकरणादिकका भी साधन नहीं चाहिये; इसलिये
अवश्य इसके अभ्यासमें प्रवर्तो। तुम्हारा कल्याण होगा।’’
अमृत-जयन्ति-महोत्सव
वि. सं. २०४४ श्रावण (गुजराती) वद-२
(बहिनश्री चम्पाबेनकी-७५वीं जन्म-जयन्ती)
दि. २९-८-८८
साहित्यप्रकाशनसमिति
श्री दि जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ़३६४ २५०
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पहला अधिकार [पीठबंध प्ररूपण]
मंगलाचरण -----------------------------------------१
अरहंतोंका स्वरूप---------------------------------२
सिद्धोंका स्वरूप -----------------------------------२
आचार्य-उपाध्याय-साधुका सामान्य स्वरूप -----३
आचार्यका स्वरूप ---------------------------------३
उपाध्यायका स्वरूप -------------------------------४
साधुका स्वरूप ------------------------------------४
पूज्यत्वका कारण ---------------------------------४
अरहंतादिकसे प्रयोजनसिद्धि ---------------------६
मंगलाचरण करनेका कारण ---------------------८
ग्रन्थकी प्रामाणिकता और आगम-परम्परा -----९
अपनी बात--------------------------------------११
असत्यपद रचना प्रतिषेध ----------------------११
वांचने-सुनने योग्य शास्त्र ----------------------१४
वक्ताका स्वरूप----------------------------------१४
श्रोताका स्वरूप --------------------------------- १७
मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थकी सार्थकता-----------१८
दूसरा अधिकार [संसार अवस्थाका स्वरूप]
कर्मबन्धका निदान -----------------------२२-३२
कर्मोंके अनादिपनेकी सिद्धि -------------------२२
जीव और कर्मोंकी भिन्नता -------------------२३
अमूर्तिक आत्मासे मूर्तिक कर्मोंका बंधान
किस प्रकार होता है? ---------------------२४
घाति-अघाति कर्म और उनका कार्य -------२४
निर्बल जड़कर्मों द्वारा स्वभावका
घात तथा बाह्य सामग्री मिलना ----२५
नवीन बन्ध विचार
योग और उससे होनेवाले प्रकृतिबन्ध,
प्रदेशबन्ध --------------------------------------२६
कषायसे स्थिति और अनुभागबन्ध ---------- २७
ज्ञानहीन जड़-पुद्गल परमाणुओंका यथायोग्य
प्रकृतिरूप परिणमन---------------------------२८
सत्तारूप कर्मोंकी अवस्था----------------------२९
कर्मोंकी उदयरूप अवस्था ---------------------२९
द्रव्यकर्म व भावकर्मका स्वरूप और प्रवृत्ति३०
नोकर्मका स्वरूप और प्रवृत्ति ----------------३१
नित्यनिगोद और इतरनिगोद ------------------३१
कर्मबन्धनरूप रोगके निमित्तसे
होनेवाली जीवकी अवस्था -------------३२-४४
ज्ञानावरण दर्शनावरणकर्मोदयजन्य अवस्था --३२
मतिज्ञानकी पराधीन प्रवृत्ति--------------------३३
श्रुतज्ञानकी पराधीन प्रवृत्ति --------------------३४
अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञानकी
प्रवृत्ति ------------------------------------------३५
चक्षु-अचक्षु-अवधि-केवलदर्शनकी
प्रवृत्ति ------------------------------------------३५
मोहनीयकर्मोदयजन्य अवस्था ------------------ ३७
दर्शनमोहरूप जीवकी अवस्था-----------------३८
चारित्रमोहरूप जीवकी अवस्था ---------------३८
अंतरायकर्मोदयजन्य अवस्था-------------------४१
वेदनीयकर्मोदयजन्य अवस्था -------------------४१
आयुकर्मोदयजन्य अवस्था ----------------------४२
नामकर्मोदयजन्य अवस्था -----------------------४३
गोत्रकर्मोदयजन्य अवस्था ----------------------४४
[ १२ ]
विषय-सूची

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तीसरा अधिकार
[संसारदुःख तथा मोक्षसुखका निरूपण]
संसारदुःख और उसका मूलकारण ------४६-७१
(क) कर्मोंकी अपेक्षासे
ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयोपशमसे
होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति -------४६
मोहनीयकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख और
उससे निवृत्ति ---------------------------------५०
दर्शनमोहसे दुःख और उससे निवृत्ति -------५०
चारित्रमोहसे दुःख और उससे निवृत्ति ------५२
अन्तरायकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख और
उससे निवृत्ति --------------------------------- ५७
वेदनीयकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख
और उससे निवृत्ति --------------------------५८
आयुकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख
और उससे निवृत्ति --------------------------६१
नामकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख
और उससे निवृत्ति --------------------------६१
गोत्रकर्मके उदयसे होनेवाला दुःख
और उससे निवृत्ति --------------------------६२
(ख) पर्यायकी अपेक्षासे --------------------- ६२
एकेन्द्रिय जीवोंके दुःख ------------------------६२
विकलत्रय व असंज्ञी पंचेन्द्रिय
जीवोंके दुःख-----------------------------६५
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके दुःख
नरकगतिके दुःख -----------------------------६६
तिर्यंचगतिके दुःख ------------------------------६६
मनुष्यगतिके दुःख ------------------------------ ६७
देवगतिके दुःख ---------------------------------६८
(ग) दुःखका सामान्य स्वरूप --------------- ७०
चार प्रकारकी इच्छाएँ ------------------------- ७०
मोक्षसुख और उसकी प्राप्तिका उपाय --७२-७५
चौथा अधिकार
[मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका निरूपण]
मिथ्यादर्शनका स्वरूप---------------------७६-८४
प्रयोजनभूत-अप्रयोजनभूत पदार्थ -------------- ७८
मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति ---------------------------८०
जीव-अजीवतत्त्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान --८०
आस्रवतत्त्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान --------८२
बंधतत्त्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान ------------८३
संवरतत्त्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान -----------८३
निर्जरातत्त्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान ---------८३
मोक्षतत्त्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान -----------८४
पुण्य-पाप संबंधी अयथार्थ श्रद्धान -----------८४
मिथ्याज्ञानका स्वरूप ---------------------८५-८८
मिथ्याचारित्रका स्वरूप --------------------८८-९४
इष्ट-अनिष्टकी मिथ्या कल्पना ------------------८९
राग-द्वेषका विधान व विस्तार ---------------९१
मोहकी महिमा -----------------------------------९३
पाँचवां अधिकार [विविधमत-समीक्षा]
सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्म ------------------ ९६-१२४
सृष्टिकर्तावादका निराकरण ---------------------९९
लोकके अनादिनिधनपनेकी पुष्टि ----------- ११०
ब्रह्मसे कुलप्रवृत्ति आदिका प्रतिषेध ------- १११
अवतार मीमांसा ------------------------------ ११२
योगमीमांसा :
भक्तियोग मीमांसा ---------------------------- ११५
ज्ञानयोग मीमांसा ----------------------------- ११८
अन्यमत कल्पित मोक्षमार्गकी मीमांसा----- १२२
मुस्लिममत संबंधी विचार ------------------- १२३
अन्यमत निरूपित तत्त्व-विचार ------- १२५-१३७
सांख्यमत -------------------------------------- १२५
शिवमत : नैयायिकमत ---------------------- १२७
वैशेषिकमत------------------------------------ १२८
[ १३ ]

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मीमांसकमत ----------------------------------- १३१
जैमिनीयमत ----------------------------------- १३२
बौद्धमत --------------------------------------- १३२
चार्वाकमत ------------------------------------- १३४
अन्यमत निराकरण उपसंहार --------------- १३६
अन्यमतोंसे जैनमतकी तुलना -------- १३७-१४४
अन्यमतके ग्रन्थोद्धरणोंसे जैनधर्मकी
समीचीनता और प्राचीनता------------------ १३९
श्वेताम्बरमत विचार ------------------ १४५-१६७
अन्यलिंगसे मुक्तिका निषेध :
गृहस्थमुक्तिका निषेध ------------------------ १४६
स्त्रीमुक्तिका निषेध ---------------------------- १४७
शूद्रमुक्तिका निषेध ---------------------------- १४७
अछेरोंका निराकरण ------------------------- १४८
श्वेताम्बरमत कथित देव-गुरु-धर्मका
अन्यथा स्वरूप
देवका अन्यथा स्वरूप ---------------------- १४९
गुरुका अन्यथा स्वरूप---------------------- १५२
धर्मका अन्यथा स्वरूप ----------------------- १५७
ढूढ़कमत विचार :
प्रतिमाधारी श्रावक न होनेकी
मान्याताका निषेध ------------------------- १६०
मुखपट्टी आदिका निषेध -------------------- १६१
मूर्तिपूजा निषेधका निराकरण -------------- १६२
छठवाँ अधिकार
[ कुदेव, कुगुरु और कुधर्मका प्रतिषेध ]
कुदेवका निरूपण और उसके
श्रद्धानादिकका निषेध ---------------- १६८-२७५
व्यन्तरादिका स्वरूप और उनके
पूजनेका निषेध------------------------------- १६९
क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि पूजनेका निषेध १७३
कुगुरुका निरूपण और उसके
श्रद्धानादिकका निषेध -------------- १७५-१८७
कुलादि अपेक्षा गुरुपनेका निषेध ---------- १७५
शिथिलाचारकी पोषक युक्तियाँ और
उनका निराकरण -------------------------- १८४
कुधर्मका निरूपण और उसके
श्रद्धानादिकका निषेध ---------------- १८८-१९२
सातवाँ अधिकार
[ जैन मिथ्यादृष्टियोंका विवेचन ]
निश्चयाभासी मिथ्यादृष्टि -------------- १९३-२१३
निश्चयाभासीकी स्वच्छन्दता और
उसका निषेध ------------------------------ २००
केवल निश्चयाभासके अवलम्बी
जीवकी प्रवृत्ति ------------------------------- २०६
व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टि ------------- २१३-२४८
कुलअपेक्षा धर्मधारक व्यवहाराभासी------- २१४
परीक्षारहित आज्ञानुसारी धर्मधारक
व्यवहाराभासी ------------------------------- २१५
सांसारिक प्रयोजनार्थ धर्मधारक
व्यवहाराभासी ------------------------------- २१८
उक्त व्यवहाराभासी धर्मधारकोंकी
सामान्य प्रवृत्ति ----------------------------- २२०
धर्मबुद्धिसे धर्मधारक व्यवहाराभासी ------- २२१
सम्यग्दर्शनका अन्यथारूप ------------------- २२१
देवभक्तिका अन्यथारूप---------------------- २२१
गुरुभक्तिका अन्यथारूप --------------------- २२३
शास्त्रभक्तिका अन्यथारूप ------------------- २२३
सप्ततत्त्वका अन्यथारूप ---------------------- २२४
जीव-अजीवतत्त्वका अन्यथारूप ------------ २२५
आस्रवतत्त्वका अन्यथारूप ------------------ २२६
बन्धतत्त्वका अन्यथारूप ---------------------- २२७
संवरतत्त्वका अन्यथारूप --------------------- २२७
गुप्ति-------------------------------------------- २२८
समिति ----------------------------------------- २२८
[ १४ ]

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-
धर्म -------------------------------------------- २२८
अनुप्रेक्षा --------------------------------------- २२९
परीषहजय------------------------------------- २२९
चारित्र ----------------------------------------- २२९
निर्जरातत्त्वका अन्यथारूप ------------------- २३०
मोक्षतत्त्वका अन्यथारूप --------------------- २३३
सम्यग्ज्ञानका अन्यथारूप -------------------- २३५
सम्यक्चारित्रका अन्यथारूप ----------------- २३८
उभयाभासी मिथ्यादृष्टि --------------- २४८-२५१
सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्यादृष्टि ----------- २५७-२६७
पाँच लब्धियोंका स्वरूप -------------------- २६१
आठवाँ अधिकार [ उपदेशका स्वरूप ]
अनुयोगोंका प्रयोजन ----------------- २६८-२७१
प्रथमानुयोगका प्रयोजन ---------------------- २६८
करणानुयोगका प्रयोजन --------------------- २६९
चरणानुयोगका प्रयोजन----------------------- २७०
द्रव्यानुयोगका प्रयोजन------------------------ २७१
अनुयोगोंके व्याख्यानका विधान ----- २७१-२८६
प्रथमानुयोगके व्याख्यानका विधान---------- २७१
करणानुयोगके व्याख्यानका विधान --------- २७५
चरणानुयोगके व्याख्यानका विधान --------- २७७
द्रव्यानुयोगके व्याख्यानका विधान --------- २८४
अनुयोगोंके व्याख्यानकी पद्धति ------ २८६-२८७
व्याकरण-न्यायादि शास्त्रोंका प्रयोजन ------- २८७
अनुयोगोंमें दोष-कल्पनाओंका
निराकरण ----------------------------- २८८-२९४
प्रथमानुयोगमें दोष कल्पनाका निराकरण - २८८
करणानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण -- २९०
चरणानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण -- २९१
द्रव्यानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण --- २९२
व्याकरण-न्यायादि शास्त्रोंकी उपयोगिता -- २९४
अनुयोगोंमें दिखाई देनेवाले परस्पर
विरोधका निराकरण ------------------ २९४-३०३
अनुयोगोंका अभ्यासक्रम--------------------- ३०४
नौवाँ अधिकार [ मोक्षमार्गका स्वरूप ]
आत्माका हित मोक्ष ही है ---------------- ३०५
पुरुषार्थसे ही मोक्षप्राप्ति --------------------- ३०९
मोक्षमार्गका स्वरूप : ---------------- ३१३-३३९
सम्यग्दर्शनका सच्चा लक्षण :
तत्त्वार्थ सात ही क्यों? ------------------- ३१६
तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें अव्याप्ति,
अतिव्याप्ति और असंभवदोषका
परिहार----------------------------------------- ३१९
सम्यक्त्वके विभिन्न लक्षणोंका समन्वय ---- ३२३
सम्यक्त्वके भेद और उनका स्वरूप------ ३३०
सम्यग्दर्शनके आठ अंग -------------------- ३३८
सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष ------------------- ३३९
[ १५ ]
परिशिष्ट
परिशिष्ट १समाधिमरण स्वरूप ----------------- :पंडित गुमानीरामजी३४०
परिशिष्ट २रहस्यपूर्ण चिठ्ठी --------------------- :पंडित टोडरमलजी३४१
परिशिष्ट ३परमार्थवचनिका ---------------------- :पंडित बनारसीदासजी३५०
परिशिष्ट ४उपादान-निमित्तकी चिठ्ठी------------ :पंडित बनारसीदासजी३५६

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[ १६ ]
श्री सर्वज्ञजिनवाणी नमस्तस्यै
शास्त्र-स्वाध्यायका प्रारम्भिक मंगलाचरण
ॐ नमः सिद्धेभ्यः, ॐ जय जय, नमोस्तु! नमोस्तु!! नमोस्तु!!!
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमोआइरियाणं,
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।
ओंकारं विन्दुसंयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः।
कामदं मोक्षदं चैव, ओंकाराय नमोनमः।।१।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलमलकलंका।
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान्।।२।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः।।३।।
।। श्री परमगुरुवे नमः; परम्पराचार्यगुरवे नमः।।
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमनः-
प्रतिबोधकारकमिदं ग्रन्थ श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक नामधेयं, तस्यमूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचोनुसारमासाद्य
श्री आचार्यकल्प पंडितप्रवर श्री टोडरमलजी विरचितं।
श्रोतारः सावधानतया श्रृण्वन्तु।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दार्द्यो, जैनधर्मोस्तु मङ्गलम्।।

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नमः सिद्धेभ्यः
आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी कृत
मोक्षमार्गप्रकाशक
पहला अधिकार
पीठबंध प्ररूपण
अथ, मोक्षमार्ग प्रकाशक नामक शास्त्र लिखा जाता है।
[ मंगलाचरण ]
दोहामंगलमय मंगलकरण, वीतराग-विज्ञान
नमौं ताहि जातैं भये, अरहंतादि महान।।।।
करि मंगल करिहौं महा, ग्रंथकरनको काज
जातैं मिलै समाज सब, पावै निजपद राज।।।।
अथ, मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रका उदय होता है। वहाँ मंगल करते हैं :
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
यह प्राकृतभाषामय नमस्कारमंत्र है सो महामंगलस्वरूप है। तथा इसका संस्कृत ऐसा
होता है :
नमोऽर्हद्भ्यः। नमः सिद्धेभ्यः, नमः आचार्येभ्यः, नमः उपाध्यायेभ्यः, नमो लोके
सर्वसाधुभ्यः। तथा इसका अर्थ ऐसा हैःनमस्कार अरहंतोंको, नमस्कार सिद्धोंको, नमस्कार
आचार्योंको, नमस्कार उपाध्यायोंको, नमस्कार लोकमें समस्त साधुओंको। इसप्रकार इसमें
नमस्कार किया, इसलिये इसका नाम नमस्कारमंत्र है।
अब, यहाँ जिनको नमस्कार किया उनके स्वरूपका चिन्तवन करते है :
पहला अधिकार ][ १

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-
२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अरहंतोंका स्वरूप
वहाँ प्रथम अरहंतोंके स्वरूपका विचार करते हैंःजो गृहस्थपना त्यागकर, मुनिधर्म
अंगीकार करके, निजस्वभावसाधन द्वारा चार घातिकर्मोंका क्षय करकेअनंतचतुष्टयरूप
विराजमान हुए; वहाँ अनंतज्ञान द्वारा तो अपने अनंतगुण-पर्याय सहित समस्त जीवादि द्रव्योंको
युगपत् विशेषपनेसे प्रत्यक्ष जानते हैं, अनंतदर्शन द्वारा उनका सामान्य अवलोकन करते हैं,
अनंतवीर्य द्वारा ऐसी सामर्थ्यको धारण करते हैं, अनंतसुख द्वारा निराकुल परमानन्दका अनुभव
करते हैं। पुनश्च, जो सर्वथा सर्व राग-द्वेषादि विकारभावोंसे रहित होकर शांतरसरूप परिणमित
हुए हैं; तथा क्षुधा-तृषादि समस्त दोषोंसे मुक्त होकर देवाधिदेवपनेको प्राप्त हुए हैं; तथा आयुध-
अंबरादिक व अंगविकारादिक जो काम-क्रोधादि निंद्यभावोंके चिह्न उनसे रहित जिनका परम
औदारिक शरीर हुआ है; तथा जिनके वचनोंसे लोकमें धर्मतीर्थ प्रवर्तता है, जिसके द्वारा
जीवोंका कल्याण होता है; तथा जिनके लौकिक जीवोंको प्रभुत्व माननेके कारणरूप अनेक
अतिशय और नानाप्रकारके वैभवका संयुक्तपना पाया जाता है; तथा जिनका अपने हितके
अर्थ गणधर
इन्द्रादिक उत्तम जीव सेवन करते हैं।
ऐसे सर्वप्रकारसे पूजने योग्य श्री
अरहंतदेव हैं, उन्हें हमारा नमस्कार हो।
सिद्धोंका स्वरूप
अब, सिद्धोंका स्वरूप ध्याते हैंःजो गृहस्थ-अवस्थाको त्यागकर, मुनिधर्मसाधन द्वारा
चार घातिकर्मोंका नाश होने पर अनंतचतुष्टय स्वभाव प्रगट करके, कुछ काल पीछे चार
अघातिकर्मोंके भी भस्म होने पर परम औदारिक शरीरको भी छोड़कर ऊर्ध्वगमन स्वभावसे
लोकके अग्रभागमें जाकर विराजमान हुए; वहाँ जिनको समस्त परद्रव्योंका सम्बन्ध छूटनेसे
मुक्त अवस्थाकी सिद्धि हुई, तथा जिनके चरम शरीरसे किंचित् न्यून पुरुषाकारवत् आत्मप्रदेशोंका
आकार अवस्थित हुआ, तथा जिनके प्रतिपक्षी कर्मोंका नाश हुआ, इसलिये समस्त सम्यक्त्व-
ज्ञान-दर्शनादिक आत्मिक गुण सम्पूर्णतया अपने स्वभावको प्राप्त हुए हैं, तथा जिनके नोकर्मका
सम्बन्ध दूर हुआ, इसलिये समस्त अमूर्त्तत्वादिक आत्मिक धर्म प्रगट हुए हैं, तथा जिनके
भावकर्मका अभाव हुआ, इसलिये निराकुल आनन्दमय शुद्धस्वभावरूप परिणमन हो रहा है;
तथा जिनके ध्यान द्वारा भव्य जीवोंको स्वद्रव्य
परद्रव्यका और औपाधिकभाव
स्वभावभावोंका
विज्ञान होता है, जिसके द्वारा उन सिद्धोंके समान स्वयं होनेका साधन होता है। इसलिये
साधने योग्य जो अपना शुद्धस्वरूप उसे दर्शानेको प्रतिबिम्ब समान हैं तथा जो कृतकृत्य हुए
हैं, इसलिये ऐसे ही अनंतकाल पर्यंत रहते हैं।
ऐसे निष्पन्न हुए सिद्धभगवानको हमारा
नमस्कार हो।