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तथा कुन्दकुन्दाचार्यकृत ‘‘लिंगपाहुड़’’ है, उसमें मुनिलिंग धारण करके जो हिंसा,
तो नगरमें रहना तो निषिद्ध हुआ ही।
गई है
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वहाँ कहते हैं।
कराया, अनुमोदित भोजन लेना
दातारके प्राण पीड़ित करके आहारादिका ग्रहण करते हैं। तथा जो गृहस्थधर्ममें भी उचित
नहीं है व अन्याय, लोकनिंद्य, पापरूप कार्य करते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं।
हैं। इस प्रकार अपनी महिमा कराते हैं और गृहस्थ भोले उनके द्वारा प्रशंसादिकसे ठगाते
हुए धर्मका विचार नहीं करते, उनकी भक्तिमें तत्पर होते हैं; परन्तु बड़े पापको बड़ा धर्म
मानना इस मिथ्यात्वका फल कैसे अनन्त संसार नहीं होगा? शास्त्रमें एक जिनवचनको अन्यथा
माननेसे महापापी होना कहा है; यहाँ तो जिनवचनकी कुछ बात ही नहीं रखी, तो इसके
समान और पाप कौन है?
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ही नहीं और जो परमेश्वरको तो माने, परन्तु इस क्षेत्रमें परमेश्वरका लक्षण न देखकर किसीको
परमेश्वर न माने तो नास्तिक तो होता नहीं है; उसी प्रकार यह जानना।
तुम रहते हो उसी क्षेत्रमें सद्भाव मानोगे, तो जहाँ ऐसे भी गुरु नहीं मिलेंगे वहाँ जाओगे तब
किसको गुरु मानोगे? जिस प्रकार
कहा है, परन्तु मुनि दिखाई नहीं देते तो औरोंको तो मुनि माना नहीं जा सकता।
धर्म-अपेक्षा महंतता सम्भवित हो उसे गुरु जानना। परन्तु धर्म नाम चारित्रका है, ‘‘चारित्तं
खलु धम्मो’’
उसी प्रकार औरोंका भी नाम गुरु है तथापि यहाँ श्रद्धानमें निर्ग्रन्थका ही ग्रहण है। जैनधर्ममें
अर्हन्तदेव, निर्ग्रन्थगुरु ऐसा प्रसिद्ध वचन है।
उत्तरः
वस्त्रादि देनेसे महंत हुआ। यद्यपि बाह्यमें शास्त्र सुनानेवाला महंत रहता है, तथापि अन्तरंगमें
लोभी होता है; इसलिये सर्वथा महंतता नहीं हुई।
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जानना। इसलिये निर्ग्रन्थ ही सर्वप्रकार महंततायुक्त हैं; निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव सर्वप्रकार
गुणवान नहीं हैं; इसलिये गुणोंकी अपेक्षा महंतता और दोषोंकी अपेक्षा हीनता भासित होती
है, तब निःशंक स्तुति नहीं की जा सकती।
परिग्रहरहित निर्ग्रन्थ मुनि हैं उन्हींको गुरु जानना।
प्रकार अरहन्तादिककी पाषाणादिमें स्थापना बनाये तो उनका प्रतिपक्षी नहीं है, और कोई
सामान्य मनुष्य अपने को मुनि मनाये तो वह मुनियोंका प्रतिपक्षी हुआ। इस प्रकार भी स्थापना
होती हो तो अपनेको अरहन्त भी मनाओ! और यदि उनकी स्थापना हो तो बाह्यमें तो
वैसा ही होना चाहिये; परन्तु वे निर्ग्रन्थ, यह बहुत परिग्रहके धारी
नहीं थे। यदि सर्व व्रतधारी होते तो असंयत मनुष्योंकी अलग संख्या कही जाती, सो नहीं
कही है; इसलिये गृहस्थ जैन श्रावक नाम प्राप्त करता है। और मुनिसंज्ञा तो निर्ग्रन्थके सिवा
कहीं कही नहीं है।
परन्तु मुनिके अट्ठाईस मूलगुण हैं सो वेषियोंके दिखाई नहीं देते, इसलिये मुनिपना किसी भी
प्रकार सम्भव नहीं है। तथा गृहस्थ-अवस्थामें तो पहले जम्बूकुमारादिकने बहुत हिंसादि कार्य
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है, इसलिये ऐसी युक्ति कार्यकारी नहीं है।
दंडयोग्य हैं; वंदनादि-योग्य कैसे होंगे?
कि
नहीं था; परन्तु आप ही मानादिकसे नमस्कारादि करे, वहाँ अन्तरंग कैसे न कहें? जैसे
तो उसे व्रती कैसे मानें? उसी प्रकार अन्तरंगमें तो कुगुरु-सेवनको बुरा जाने; परन्तु उनको
व लोगोंको भला मनवानेके लिये सेवन करे तो श्रद्धानी कैसे कहें? इसलिये बाह्यत्याग करने
पर ही अन्तरंगत्याग सम्भव है। इसलिये जो श्रद्धानी जीव हैं, उन्हें किसी प्रकारसे भी
कुगुरुओंकी सुश्रुषा आदि करना योग्य नहीं है।
यहाँ कोई कहे
सर्वथा नहीं करता। क्योंकि यह तो जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धानी हुआ है
उन्हें निषिद्ध जानकर कदापि नमस्कारादि नहीं करता।
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पर कुगुरुका सेवन किया, वहाँ तत्त्वश्रद्धानके कारण तो गुरु थे, उनसे यह प्रतिकूल हुआ।
सो लज्जादिकसे जिसने कारणमें विपरीतता उत्पन्न की उसके कार्यभूत तत्त्वश्रद्धानमें दृढ़ता कैसे
सम्भव है? इसलिये वहाँ दर्शनमोहका उदय सम्भव है।
विषय पोषण करे, उन जीवोंमें दुष्टबुद्धि करके रौद्रध्यानी हो, तीव्र लोभसे औरोंका बुरा करके
अपना कोई प्रयोजन साधना चाहे; और ऐसे कार्य करके वहाँ धर्म माने; सो कुधर्म है।
कुतूहलादिसे वहाँ कषायभाव बढ़ाता है और धर्म मानता है; सो कुधर्म है।
वस्तुओंको देता है। परन्तु संक्रान्ति आदि पर्व धर्मरूप नहीं हैं, ज्योतिषीके संचारादिक द्वारा
संक्रान्ति आदि होते हैं। तथा दुष्ट ग्रहादिकके अर्थ दिया
लोभी नाना असत्य युक्तियाँ करके ठगते हैं, किंचित् भला नहीं करते। भला तो तब होता
है जब इसके दानकी सहायतासे वह धर्म-साधन करे; परन्तु वह तो उल्टा पापरूप प्रवर्तता
है। पापके सहायकका भला कैसे होगा?
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ठठरीकी शोभा समान जानना। शोभा तो होती है, परन्तु मालिकको परम दुःखदायक होती
है; इसलिये लोभी पुरुषोंको दान देनेमें धर्म नहीं है।
करती है। सो स्त्री तो विषय-सेवन करनेसे सुख पाती ही है, शीलका उपदेश किसलिये
दिया? रतिकालके अतिरिक्त भी उसके मनोरथ न प्रवर्ते तो दुःख पाती है; सो ऐसी असत्य
युक्ति बनाकर विषय-पोषण करनेका उपदेश देते हैं।
तथा व्रतादिक करके वहाँ हिंसादिक व विषयादिक बढ़ाते हैं; परन्तु व्रतादिक तो उन्हें
करे वहाँ हिंसा विशेष हुई, स्वादादिक विषय विशेष हुए।
तथा कोई भक्ति आदि कार्योमें हिंसादिक पाप बढ़ाते हैं; गीत-नृत्यगानादिक व इष्ट
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हैं।
है।
हैं
आपघात करना कुधर्म है।
और व्रतादिकका नाम धारण करके वहाँ नाना श्रृंगार बनाते हैं, इष्ट-भोजनादिक करते हैं,
कुतूहलादि करते हैं व कषाय बढ़ानेके कार्य करते हैं, जुआ इत्यादि महान पापरूप प्रवर्तते हैं।
व थोड़े प्रवर्तते हैं; सो वहाँ नुकसान बहुत, नफा थोड़ा या कुछ नहीं। ऐसे कार्य करनेमें
तो बुरा ही दिखना होता है।
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तथा लोभी पुरुषको गुरु मानकर दानादिक देते हैं व उनकी असत्य स्तुति करके महंतपना
मानते हैं।
अब, इसमें मिथ्यात्वभाव किस प्रकार हुआ सो कहते हैंः
जिन-आज्ञासे प्रतिकूल हुआ। रागादिकभाव तो पाप हैं, उन्हें धर्म माना सो यह झूठा श्रद्धान
हुआ; इसलिये कुधर्मके सेवनमें मिथ्यात्वभाव है।
इसलिये इनका अवश्य त्याग करना।
संकट पाया जाता है, सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति महा दुर्लभ हो जाती है।
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जो पापके फलसे डरते हैं; अपने आत्माको दुःखसमुद्रमें नहीं डुबाना चाहते, वे जीव इस
मिथ्यात्वको अवश्य छोड़ो; निन्दा
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्
न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः
न्यायमार्गसे एक डग भी चलित नहीं होते।
कुगुरु-कुधर्मका त्यागी होना योग्य है।
मिथ्यात्वभाव छोड़कर अपना कल्याण करो।
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हैं :
भ्रमसे अपनेको सिद्ध मानते हैं, वही मिथ्यादृष्टि हैं।
समान हैं, परन्तु सिद्धपने और संसारीपनेकी अपेक्षा तो समान नहीं हैं। तथापि ये तो जैसे
सिद्ध शुद्ध हैं, वैसा ही अपनेको शुद्ध मानते हैं। परन्तु वह शुद्ध-अशुद्ध अवस्था पर्याय
है; इस पर्याय-अपेक्षा समानता मानी जाये तो यही मिथ्यादृष्टि है।
कर्मका क्षय हुए बिना ही क्षायिकभाव मानते हैं, सो यही मिथ्यादृष्टि है।
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जाती है।
वस्तुको जानता है; कर्म आड़े आने पर वह कैसे अटकेगा? इसलिये कर्मके निमित्तसे
केवलज्ञानका अभाव ही है। यदि इसका सर्वदा सद्भाव रहता तो इसे पारिणामिकभाव कहते,
परन्तु यह तो क्षायिकभाव है। ‘सर्वभेद जिसमें गर्भित हैं ऐसा चैतन्यभाव, सो पारिणामिकभाव
है।’ इसकी अनेक अवस्थाएँ मतिज्ञानादिरूप व केवलज्ञानादिरूप हैं, सो यह पारिणामिकभाव
नहीं हैं। इसलिये केवलज्ञानका सर्वदा सद्भाव नहीं मानता।
होता। तथा ऐसे भाव नहीं लेना कि जैसे सूर्यमें प्रकाश रहता है वैसे आत्मामें केवलज्ञान
रहता है; क्योंकि दृष्टान्त सर्व प्रकारसे मिलता नहीं है। जैसे
अवस्था होने पर अन्य अवस्थाका अभाव ही है।
प्रकार जानना।
पर शीतलता ही हो जाती है; इसलिये सदाकाल जलका स्वभाव शीतल कहा जाता है, क्योंकि
ऐसी शक्ति सदा पायी जाती है और व्यक्त होने पर स्वभाव व्यक्त हुआ कहते हैं। कदाचित्
व्यक्तरूप होता है। उसी प्रकार आत्माको कर्मका निमित्त होने पर अन्यरूप हुआ, वहाँ
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इससिये सदाकाल आत्माका स्वभाव केवलज्ञान कहा जाता है, क्योंकि ऐसी शक्ति सदा पायी
जाती है। व्यक्त होने पर स्वभाव व्यक्त हुआ कहा जाता है।
करे तो दुःखी होगा।
तथा रागादिक भाव अपनेको प्रत्यक्ष होने पर भी भ्रमसे आत्माको रागादिरहित मानते
यदि शरीर या कर्मरूप पुद्गलके अस्तित्वमें हों तो ये भाव अचेतन या मूर्तिक होंगे; परन्तु
ये रागादिक तो प्रत्यक्ष चेतनतासहित अमूर्तक भाव भासित होते हैं। इसलिये ये भाव आत्माके
ही हैं।
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः
है, क्योंकि ऐसा हो तो अचेतन कर्मप्रकृतिको भी उस भावकर्मका फल
उसके अचेतनपना प्रगट है। इसलिये इस रागादिकका जीव ही कर्ता है और यह रागादिक
जीवका ही कर्म है; क्योंकि भावकर्म तो चेतनाका अनुसारी है, चेतना बिना नहीं होता, और
पुद्गल ज्ञाता है नहीं।
अब, जो रागादिभावोंका निमित्त कर्मको ही मानकर अपनेको रागादिकका अकर्ता मानते
ही दोष ठहराते हैं, सो यह दुःखदायक भ्रम है।
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कर्म ही कर्ता है
रहा; तब स्वच्छन्द होकर खोटे कर्मोंका बन्ध करके अनन्त संसारमें रुलता है।
किसलिये करेगा? इसलिये यह श्रद्धान भी विपरीत है। उसे छुड़ानेके लिये स्वभावकी अपेक्षा
रागादिकको भिन्न कहा है और निमित्तकी मुख्यतासे पुद्गलमय कहा है। जैसे
यदि आतापकी अधिकता देखता है तब शीतल औषधि बतलाता है। उसी प्रकार श्रीगुरु
रागादिक छुड़ाना चाहते हैं; जो रागादिकको परका मानकर स्वच्छन्द होकर निरुद्यमी होता
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मुख्यतासे रागादिक परभाव हैं
पर्यायरूपसे उत्पन्न होते हैं, निमित्त मिटने पर इनका नाश होनेसे स्वभावभाव रह जाता है;
इसलिये इनके नाशका उद्यम करना।
है। जैसे
उसी प्रकार विभाव दूर करनेके कारण बुद्धिपूर्वक तो तत्त्वविचारादि हैं, और अबुद्धिपूर्वक
मोहकर्मके उपशमादिक हैं, सो उसका अर्थी तत्त्वविचारादिकका तो उद्यम करे, और मोहकर्मके
उपशमादिक स्वयमेव हों तब रागादिक दूर होते हैं।
किसलिये उपदेश दें?
होता है कि तेरा अनुराग यहाँ नहीं है, मानादिकसे ऐसी झूठी बातें बनाता है।
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अनुसार अवस्थाएँ होती देखी जाती हैं, फि र बन्धन कैसे नहीं है? यदि बन्धन न हो तो
मोक्षमार्गी इनके नाशका उद्यम किसलिये करे?
कहा है। अथवा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धकी अपेक्षा बन्धन है ही, उनके निमित्तसे आत्मा
अनेक अवस्थाएँ धारण करता ही है; इसलिये अपनेको सर्वथा निर्बन्ध मानना मिथ्यादृष्टि है।
हुआ जो जीव बँधा-मुक्त हुआ मानता है वह बँधता है। तथा यदि सर्वथा ही बन्ध-मुक्ति
न हो तो यह जीव बँधता है
है और पर्यायदृष्टिसे अनेक अवस्थाएँ होती हैं
जिनवाणीमें तो नाना नयोंकी अपेक्षासे कहीं कैसा, कहीं कैसा निरूपण किया है; यह
है, और चारित्रमें रागादिक दूर करना चाहिये उसका उद्यम नहीं है; एक अपने आत्माके शुद्ध
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चिंतवन करता रहता है कि ‘मैं सिद्धसमान शुद्ध हूँ, केवलज्ञानादि सहित हूँ, द्रव्यकर्म-नोकर्म
रहित हूँ, परमानंदमय हूँ, जन्म-मरणादि दुःख मेरे नहीं हैं’; इत्यादि चिंतवन करता है।
करते हो तो तुम्हारे तो वर्तमान अशुद्ध पर्याय है; तुम अपनेको शुद्ध कैसे मानते हो?
हैं तो यह मतिज्ञानादिक किसके हैं? और द्रव्यकर्म, नोकर्मरहित हो तो ज्ञानादिककी व्यक्त्तता
क्यों नहीं है? परमानन्दमय हो तो अब कर्तव्य क्या रहा? जन्म-मरणादि दुःख नहीं हैं तो
दुःखी कैसे होते हो?
उत्तरः
द्रव्य-अपेक्षा शुद्धपना ग्रहण किया है। वही समयसार व्याख्यामें कहा है :
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पर्यायमें अवस्था-विशेष अवधारण करना।
करता है।
व्रतादिक धारण करनेको बन्धनमें पड़ना ठहराता है, पूजनादिक कार्योंको शुभास्रव जानकर
हेय प्ररूपित करता है;
स्थान उपयोग लगाने योग्य नहीं हैं। तथा शास्त्राभ्यास द्वारा तत्त्वोंको विशेष जाननेसे
सम्यग्दर्शन-ज्ञान निर्मल होता है। तथा वहाँ जब तक उपयोग रहे तब तक कषाय मन्द
रहे और आगामी वीतरागभावोंकी वृद्धि हो; ऐसे कार्यको निरर्थक कैसे मानें?
आत्मस्वरूपका निर्णय तो हो चुका, तब तो ज्ञानकी निर्मलताके अर्थ व उपयोगको मन्दकषायरूप
रखनेके अर्थ अन्य शास्त्रोंका अभ्यास मुख्य चाहिये। तथा आत्मस्वरूपका निर्णय हुआ है, उसे
स्पष्ट रखनेके अर्थ अध्यात्म-शास्त्रोंका भी अभ्यास चाहिये; परन्तु अन्य शास्त्रोंमें अरुचि तो नहीं
होना चाहिये। जिसको अन्य शास्त्रोंकी अरुचि है उसे अध्यात्मकी रुचि सच्ची नहीं है।
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व विषयके स्वरूपको भी पहिचाने; उसी प्रकार जिसके आत्मरुचि हुई हो
भी जाने। तथा आत्म-आचरणमें जो व्रतादिक साधन हैं उनको भी हितरूप माने तथा आत्माके
स्वरूपको भी पहिचाने। इसलिये चारों ही अनुयोग कार्यकारी हैं।
आत्मस्वरूपमें प्रवर्ते तो योग्य ही है, और न रहा जाय तो प्रशस्त शास्त्रादि परद्रव्योंको छोड़कर
अप्रशस्त विषयादिमें लगे तो महानिन्दनीय ही होगी। सो मुनियोंकी भी स्वरूपमें बहुत काल
बुद्धि नहीं रहती, तो तेरी कैसे रहा करे?
तथा यदि द्रव्यादिकके और गुणस्थानादिकके विचारको विकल्प ठहराता है, सो विकल्प
वे बहुत रागादि गर्भित होते हैं। तथा निर्विकल्पदशा सदा रहती नहीं है; क्योंकि छद्मस्थका
उपयोग एकरूप उत्कृष्ट रहे तो अन्तर्मुर्हूत रहता है।
गुणस्थान, मार्गणा, शुद्ध-अशुद्ध अवस्था इत्यादि विचार होगा।
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जीव-अजीवके विशेष तथा कर्मके आस्रव-बन्धादिकके विशेष अवश्य जानने योग्य हैं, जिनसे
सम्यग्दर्शन-ज्ञानकी प्राप्ति हो।
है। इसलिये सम्यग्दृष्टि होनेके पश्चात् भी यहाँ ही उपयोग लगाना।
जानना तथा त्रिलोकके आकार
तत्त्वज्ञान निर्मल हो, इसलिये आगामी रागादिक घटानेको ही कारण हैं, इसलिये कार्यकारी
हैं।
शक्ति हो उससे तो यह नहीं कहा कि बहुत जाननेसे बुरा होगा? जितना बहुत जानेगा
उतना प्रयोजनभूत जानना निर्मल होगा। क्योंकि शास्त्रमें ऐसा कहा है :