Moksha-Marg Prakashak (Hindi). Satava Adhyay.

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छठवाँ अधिकार ][ १८३
और भी गाथासूत्र वहाँ उस श्रद्धानको दृढ़ करनेके लिये कहे हैं वे वहाँसे जानना।
तथा कुन्दकुन्दाचार्यकृत ‘‘लिंगपाहुड़’’ है, उसमें मुनिलिंग धारण करके जो हिंसा,
आरम्भ, यंत्र-मंत्रादि करते हैं उनका बहुत निषेध किया है।
तथा गुणभद्राचार्यकृत ‘‘आत्मानुशासन’’ में ऐसा कहा हैः
इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभाववर्य्यां यथा मृगाः
वनाब्दसन्त्युग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः।।१९७।।
अर्थःकलिकालमें तपस्वी मृगकी भाँति इधर-उधरसे भयभीत होकर वनसे नगरके
समीप वास करते हैं, यह महाखेदकारी कार्य है। यहाँ नगरके समीपही रहनेका निषेध किया,
तो नगरमें रहना तो निषिद्ध हुआ ही।
वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः
सुस्त्रीकटाक्षलुण्टाकैर्लुप्तवैराग्यसम्पदः।।२००।।
अर्थःहोनेवाला है अनन्त संसार जिससे ऐसे तपसे गृहस्थपना ही भला है। कैसा
है वह तप? प्रभात होते ही स्त्रियोंके कटाक्षरूपी लुटेरों द्वारा जिसकी वैराग्य-सम्पदा लुट
गई है
ऐसा है।
तथा योगीन्द्रदेवकृत ‘‘परमात्मप्रकाशमें’’ ऐसा कहा हैः
चिल्लाचिल्लीपुत्थियहिं, तूसइ मूढु णिभंतु
एयहिं लज्जइ णाणियउ, बंधहं हेउ मुणंतु।।२१५।।
चेला-चेली और पुस्तकों द्वारा मूढ़ संतुष्ट होता है; भ्रान्तिरहित ऐसा ज्ञानी उन्हें बन्धका
कारण जानता हुआ उनसे लज्जायमान होता है।
केणवि अप्पउ वंचियउ, सिरुलुंचिवि छारेण
सयलवि संग ण परिहरिय, जिणवरलिंगधरेण।।२१७।।
किसी जीव द्वारा अपना आत्मा ठगा गया, वह कौन? कि जिस जीवने जिनवरका
लिंग धारण किया और राखसे सिरका लोंच किया; परन्तु समस्त परिग्रह नहीं छोड़ा।
जे जिणलिंगु धरेवि मुणि, इट्ठपरिग्गह लिंति
छद्दि करेविणु ते जि जिय, सा पुणु छद्दि गिलंति।।२१८।।
अर्थःहे जीव! जो मुनि जिनलिंग धारण करके इष्ट परिग्रहको ग्रहण करते हैं,

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वे छर्दि (उल्टी) करके उसी छर्दिका पुनः भक्षण करते हैं अर्थात् निन्दनीय हैं। इत्यादिक
वहाँ कहते हैं।
इस प्रकार शास्त्रोंमें कुगुरुका व उनके आचरणका व उनकी सुश्रुषाका निषेध किया
है सो जानना।
तथा जहाँ मुनिको धात्रीदूत आदि छयालीस दोष आहारादिकमें कहे हैं; वहाँ गृहस्थोंके
बालकोंको प्रसन्न करना, समाचार कहना, मंत्र-औषधि-ज्योतिषादि कार्य बतलाना तथा किया-
कराया, अनुमोदित भोजन लेना
इत्यादिक क्रियाओंका निषेध किया है; परन्तु अब कालदोषसे
इन्हीं दोषोंको लगाकर आहारादि ग्रहण करते हैं।
तथा पार्श्वस्थ, कुशीलादि भ्रष्टाचारी मुनियोंका निषेध किया है, उन्हींके लक्षणोंको धारण
करते हैं। इतना विशेष है किवे द्रव्यसे तो नग्न रहते हैं, यह नाना परिग्रह रखते हैं।
तथा वहाँ मुनियोंके भ्रामरी आदि आहार लेनेकी विधि कही है; परन्तु यह आसक्त होकर,
दातारके प्राण पीड़ित करके आहारादिका ग्रहण करते हैं। तथा जो गृहस्थधर्ममें भी उचित
नहीं है व अन्याय, लोकनिंद्य, पापरूप कार्य करते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं।
तथा जिनबिम्ब, शास्त्रादिक सर्वोत्कृष्ट पूज्य उनकी तो अविनय करते हैं और आप
उनसे भी महंतता रखकर ऊपर बैठना आदि प्रवृत्तिको धारण करते हैंइत्यादिक अनेक
विपरीतताएँ प्रत्यक्ष भासित होती हैं और अपनेको मुनि मानते हैं, मूलगुण आदिके धारी कहलाते
हैं। इस प्रकार अपनी महिमा कराते हैं और गृहस्थ भोले उनके द्वारा प्रशंसादिकसे ठगाते
हुए धर्मका विचार नहीं करते, उनकी भक्तिमें तत्पर होते हैं; परन्तु बड़े पापको बड़ा धर्म
मानना इस मिथ्यात्वका फल कैसे अनन्त संसार नहीं होगा? शास्त्रमें एक जिनवचनको अन्यथा
माननेसे महापापी होना कहा है; यहाँ तो जिनवचनकी कुछ बात ही नहीं रखी, तो इसके
समान और पाप कौन है?
शिथिलाचारकी पोषक युक्तियाँ और उनका निराकरण
अब यहाँ, कुयुक्ति द्वारा जो उन कुगुरुओं की स्थापना करते हैं उनका निराकरण
करते हैं।
वहाँ वह कहता हैगुरु बिना तो निगुरा कहलायेंगे और वैसे गुरु इस समय दिखते
नहीं हैं; इसलिये इन्हींको गुरु मानना?
उत्तरःनिगुरा तो उसका नाम है जो गुरु मानता ही नहीं। तथा जो गुरुको तो
माने, परन्तु इस क्षेत्रमें गुरुका लक्षण न देखकर किसीको गुरु न माने, तो इस श्रद्धानसे

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तो निगुरा होता नहीं है। जिस प्रकार नास्तिक तो उसका नाम है जो परमेश्वरको मानता
ही नहीं और जो परमेश्वरको तो माने, परन्तु इस क्षेत्रमें परमेश्वरका लक्षण न देखकर किसीको
परमेश्वर न माने तो नास्तिक तो होता नहीं है; उसी प्रकार यह जानना।
फि र वह कहता हैजैन-शास्त्रोंमें वर्तमानमें केवलीका तो अभाव कहा है, मुनिका
तो अभाव नहीं कहा है?
उत्तरःऐसा तो कहा नहीं है कि इन देशोंमें सद्भाव रहेगा; परन्तु भरतक्षेत्रमें कहते
हैं, सो भरतक्षेत्र तो बहुत बड़ा है, कहीं सद्भाव होगा; इसलिये अभाव नहीं कहा है। यदि
तुम रहते हो उसी क्षेत्रमें सद्भाव मानोगे, तो जहाँ ऐसे भी गुरु नहीं मिलेंगे वहाँ जाओगे तब
किसको गुरु मानोगे? जिस प्रकार
हंसोंका सद्भाव वर्तमान में कहा है, परन्तु हंस दिखाई
नहीं देते तो और पक्षियोंको तो हंस माना नहीं जाता; उसी प्रकार वर्तमानमें मुनियों का सद्भाव
कहा है, परन्तु मुनि दिखाई नहीं देते तो औरोंको तो मुनि माना नहीं जा सकता।
फि र वह कहता हैएक अक्षरके दाताको गुरु मानते हैं; तो जो शास्त्र सिखलायें
व सुनायें उन्हें गुरु कैसे न मानें?
उत्तरःगुरु नाम बड़ेका है। सो जिस प्रकारकी महंतता जिसके सम्भव हो, उसे
उस प्रकार गुरुसंज्ञा सम्भव है। जैसेकुल अपेक्षा माता-पिताको गुरुसंज्ञा है; उसी प्रकार
विद्याए पढ़ानेवालेको विद्या-अपेक्षा गुरुसंज्ञा है। यहाँ तो धर्मका अधिकार है, इसलिये जिसके
धर्म-अपेक्षा महंतता सम्भवित हो उसे गुरु जानना। परन्तु धर्म नाम चारित्रका है, ‘‘चारित्तं
खलु धम्मो’’
ऐसा शास्त्रमें कहा है, इसलिये चारित्रके धारकको ही गुरुसंज्ञा है। तथा जिस
प्रकार भूतादिका नाम भी देव है; तथापि यहाँ देवके श्रद्धानमें अरहन्तदेवका ही ग्रहण है,
उसी प्रकार औरोंका भी नाम गुरु है तथापि यहाँ श्रद्धानमें निर्ग्रन्थका ही ग्रहण है। जैनधर्ममें
अर्हन्तदेव, निर्ग्रन्थगुरु ऐसा प्रसिद्ध वचन है।
यहाँ प्रश्न है कि निर्ग्रन्थके सिवा अन्यको गुरु नहीं मानते; सो क्या कारण है?
उत्तरः
निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव सर्वप्रकारसे महंतता धारण नहीं करते। जैसे
लोभी शास्त्र व्याख्यान करे वहाँ वह इसे शास्त्र सुनानेसे महंत हुआ और यह उसे धन-
वस्त्रादि देनेसे महंत हुआ। यद्यपि बाह्यमें शास्त्र सुनानेवाला महंत रहता है, तथापि अन्तरंगमें
लोभी होता है; इसलिये सर्वथा महंतता नहीं हुई।
१. प्रवचनसार गाथा १

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१८६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यहाँ कोई कहेनिर्ग्रन्थ भी तो आहार लेते हैं?
उत्तरःलोभी होकर, दातारकी सुश्रुषा करके, दीनतासे आहार नहीं लेते; इसलिये
महंतता नहीं घटती। जो लोभी हो वही हीनता प्राप्त करता है। इसी प्रकार अन्य जीव
जानना। इसलिये निर्ग्रन्थ ही सर्वप्रकार महंततायुक्त हैं; निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव सर्वप्रकार
गुणवान नहीं हैं; इसलिये गुणोंकी अपेक्षा महंतता और दोषोंकी अपेक्षा हीनता भासित होती
है, तब निःशंक स्तुति नहीं की जा सकती।
तथा निर्ग्रन्थके सिवा अन्य जीव जैसा धर्म-साधन करते हैं, वैसा व उससे अधिक
धर्म-साधन गृहस्थ भी कर सकते हैं; वहाँ गुरुसंज्ञा किसको होगी? इसलिये जो बाह्याभ्यान्तर
परिग्रहरहित निर्ग्रन्थ मुनि हैं उन्हींको गुरु जानना।
यहाँ कोई कहेऐसे गुरु तो वर्तमानमें यहाँ नहीं हैं, इसलिये जिस प्रकार अरहन्तकी
स्थापना प्रतिमा है; उसी प्रकार गुरुओंकी स्थापना यह वेषधारी हैं?
उत्तरःजिस प्रकार राजाकी स्थापना चित्रादि द्वारा करे सो वह राजाका प्रतिपक्षी
नहीं है, और कोई सामान्य मनुष्य अपनेको राजा मनाये तो राजाका प्रतिपक्षी होता है; उसी
प्रकार अरहन्तादिककी पाषाणादिमें स्थापना बनाये तो उनका प्रतिपक्षी नहीं है, और कोई
सामान्य मनुष्य अपने को मुनि मनाये तो वह मुनियोंका प्रतिपक्षी हुआ। इस प्रकार भी स्थापना
होती हो तो अपनेको अरहन्त भी मनाओ! और यदि उनकी स्थापना हो तो बाह्यमें तो
वैसा ही होना चाहिये; परन्तु वे निर्ग्रन्थ, यह बहुत परिग्रहके धारी
यह कैसे बनता है?
तथा कोई कहेअब श्रावक भी तो जैसे सम्भव हैं वैसे नहीं हैं, इसलिये जैसे
श्रावक वैसे मुनि?
उत्तरःश्रावकसंज्ञा तो शास्त्रमें सर्व गृहस्थ जैनियोंको है। श्रेणिक भी असंयमी था,
उसे उत्तरपुराणमें श्रावकोत्तम कहा है। बारह सभाओंमें श्रावक कहे हैं वहाँ सर्व व्रतधारी
नहीं थे। यदि सर्व व्रतधारी होते तो असंयत मनुष्योंकी अलग संख्या कही जाती, सो नहीं
कही है; इसलिये गृहस्थ जैन श्रावक नाम प्राप्त करता है। और मुनिसंज्ञा तो निर्ग्रन्थके सिवा
कहीं कही नहीं है।
तथा श्रावकके तो आठ मूलगुण कहे हैं। इसलिये मद्य, मांस, मधु, पाँच उदम्बरादि
फलोंका भक्षण श्रावकोंके है नहीं; इसलिये किसी प्रकारसे श्रावकपना तो सम्भवित भी है;
परन्तु मुनिके अट्ठाईस मूलगुण हैं सो वेषियोंके दिखाई नहीं देते, इसलिये मुनिपना किसी भी
प्रकार सम्भव नहीं है। तथा गृहस्थ-अवस्थामें तो पहले जम्बूकुमारादिकने बहुत हिंसादि कार्य

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छठवाँ अधिकार ][ १८७
किये सुने जाते हैं; मुनि होकर तो किसीने हिंसादिक कार्य किये नहीं हैं, परिग्रह रखा नहीं
है, इसलिये ऐसी युक्ति कार्यकारी नहीं है।
देखो, आदिनाथजीके साथ चार हजार राजा दीक्षा लेकर पुनः भ्रष्ट हुए, तब देव
उनसे कहने लगे‘जिनलिंगी होकर अन्यथा प्रवर्तोगे तो हम दंड देंगे। जिनलिंग छोड़कर
जो तुम्हारी इच्छा हो सो तुम जानो’। इसलिये जिनलिंगी कहलाकर अन्यथा प्रवर्ते, वे तो
दंडयोग्य हैं; वंदनादि-योग्य कैसे होंगे?
अब अधिक क्या कहें! जिनमतमें कुवेष धारण करते हैं वे महापाप करते हैं; अन्य
जीव जो उनकी सुश्रुषा आदि करते हैं वे भी पापी होते हैं। पद्मपुराणमें यह कथा है
कि
श्रेष्ठी धर्मात्माने चारण मुनियोंको भ्रमसे भ्रष्ट जानकर आहार नहीं दिया; तब जो प्रत्यक्ष
भ्रष्ट हैं उन्हें दानादिक देना कैसे सम्भव है?
यहाँ कोई कहेहमारे अन्तरंगमें श्रद्धान तो सत्य है, परन्तु बाह्य लज्जादिसे शिष्टाचार
करते हैं; सो फल तो अन्तरंगका होगा?
उत्तरःषट्पाहुड़में लज्जादिसे वन्दनादिकका निषेध बतलाया था, वह पहले ही कहा
था। कोई जबरदस्ती मस्तक झुकाकर हाथ जुड़वाये, तब तो यह सम्भव है कि हमारा अन्तरंग
नहीं था; परन्तु आप ही मानादिकसे नमस्कारादि करे, वहाँ अन्तरंग कैसे न कहें? जैसे
कोई अन्तरंगमें तो माँसको बुरा जाने; परन्तु राजादिकको भला मनवानेको माँस-भक्षण करे
तो उसे व्रती कैसे मानें? उसी प्रकार अन्तरंगमें तो कुगुरु-सेवनको बुरा जाने; परन्तु उनको
व लोगोंको भला मनवानेके लिये सेवन करे तो श्रद्धानी कैसे कहें? इसलिये बाह्यत्याग करने
पर ही अन्तरंगत्याग सम्भव है। इसलिये जो श्रद्धानी जीव हैं, उन्हें किसी प्रकारसे भी
कुगुरुओंकी सुश्रुषा आदि करना योग्य नहीं है।
इस प्रकार कुगुरुसेवनका निषेध किया।
यहाँ कोई कहे
किसी तत्त्वश्रद्धानीको कुगुरुसेवनसे मिथ्यात्व कैसे हुआ?
उत्तरःजिस प्रकार शीलवती स्त्री परपुरुषके साथ भर्तारकी भाँति रमणक्रिया सर्वथा
नहीं करती; उसी प्रकार तत्त्वश्रद्धानी पुरुष कुगुरुके साथ सुगुरुकी भाँति नमस्कारादि क्रिया
सर्वथा नहीं करता। क्योंकि यह तो जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धानी हुआ है
वहाँ रागादिकका
निषेध करनेवाला श्रद्धान करता है, वीतरागभावको श्रेष्ठ मानता हैइसलिये जिसके वीतरागता
पायी जाये, उन्हीं गुरुको उत्तम जानकर नमस्कारादि करता है; जिनके रागादिक पाये जायें
उन्हें निषिद्ध जानकर कदापि नमस्कारादि नहीं करता।

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१८८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कोई कहेजिस प्रकार राजादिकको करता है; उसी प्रकार इनको भी करता है?
उत्तरःराजादिक धर्मपद्धतिमें नहीं हैं, गुरुका सेवन तो धर्मपद्धतिमें है। राजादिकका
सेवन तो लोभादिकसे होता है, वहाँ चारित्रमोहका ही उदय सम्भव है; परन्तु गुरुके स्थान
पर कुगुरुका सेवन किया, वहाँ तत्त्वश्रद्धानके कारण तो गुरु थे, उनसे यह प्रतिकूल हुआ।
सो लज्जादिकसे जिसने कारणमें विपरीतता उत्पन्न की उसके कार्यभूत तत्त्वश्रद्धानमें दृढ़ता कैसे
सम्भव है? इसलिये वहाँ दर्शनमोहका उदय सम्भव है।
इस प्रकार कुगुरुओंका निरूपण किया।
कुधर्मका निरूपण और उसके श्रद्धानादिकका निषेध
अब कुधर्मका निरूपण करते हैंः
जहाँ हिंसादि पाप उत्पन्न हों व विषय-कषायोंकी वृद्धि हो वहाँ धर्म माने; सो कुधर्म
जानना। यज्ञादि क्रियाओंमें महाहिंसादिक उत्पन्न करे, बड़े जीवोंका घात करे और इन्द्रियोंके
विषय पोषण करे, उन जीवोंमें दुष्टबुद्धि करके रौद्रध्यानी हो, तीव्र लोभसे औरोंका बुरा करके
अपना कोई प्रयोजन साधना चाहे; और ऐसे कार्य करके वहाँ धर्म माने; सो कुधर्म है।
तथा तीर्थोंमें व अन्यत्र स्नानादि कार्य करे, वहाँ बड़े-छोटे बहुतसे जीवोंकी हिंसा होती
है, शरीरको चैन मिलता है; इसलिये विषय-पोषण होता है और कामादिक बढ़ते हैं;
कुतूहलादिसे वहाँ कषायभाव बढ़ाता है और धर्म मानता है; सो कुधर्म है।
तथा संक्रान्ति, ग्रहण, व्यतिपातादिकमें दान देता है व बुरे ग्रहादिके अर्थ दान देता
है; पात्र जानकर लोभी पुरुषोंको दान देता है; दान देनेमें सुवर्ण, हस्ती, घोड़ा, तिल आदि
वस्तुओंको देता है। परन्तु संक्रान्ति आदि पर्व धर्मरूप नहीं हैं, ज्योतिषीके संचारादिक द्वारा
संक्रान्ति आदि होते हैं। तथा दुष्ट ग्रहादिकके अर्थ दिया
वहाँ भय, लोभादिककी अधिकता
हुई, इसलिये वहाँ दान देनेमें धर्म नहीं है। तथा लोभी पुरुष देने योग्य पात्र नहीं हैं, क्योंकि
लोभी नाना असत्य युक्तियाँ करके ठगते हैं, किंचित् भला नहीं करते। भला तो तब होता
है जब इसके दानकी सहायतासे वह धर्म-साधन करे; परन्तु वह तो उल्टा पापरूप प्रवर्तता
है। पापके सहायकका भला कैसे होगा?
यही ‘‘रयणसार’’ शास्त्रमें कहा हैः
सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणं फलाणं सोहं वा
लोहीणं दाणं जइ विमाणसोहा सवस्स जाणेह।।२६।।

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छठवाँ अधिकार ][ १८९
अर्थःसत्पुरुषोंको दान देना कल्पवृक्षोंके फलोंकी शोभा समान है। शोभा भी है
और सुखदायक भी है। तथा लोभी पुरुषोंको दान देना होता है सो शव अर्थात् मुर्देकी
ठठरीकी शोभा समान जानना। शोभा तो होती है, परन्तु मालिकको परम दुःखदायक होती
है; इसलिये लोभी पुरुषोंको दान देनेमें धर्म नहीं है।
तथा द्रव्य तो ऐसा देना चाहिये जिससे उसके धर्म बढ़े; परन्तु स्वर्ण, हस्ती आदि
देनेसे तो हिंसादिक उत्पन्न होते हैं और मानलोभादिक बढ़ते हैं उससे महापाप होता है।
ऐसी वस्तुओंको देनेवालेके पुण्य कैसे होगा?
तथा विषयासक्त जीव रतिदानादिकमें पुण्य ठहराते हैं; परन्तु जहाँ प्रत्यक्ष कुशीलादि
पाप हों वहाँ पुण्य कैसे होगा? तथा युक्ति मिलानेको कहते हैं कि वह स्त्री सन्तोष प्राप्त
करती है। सो स्त्री तो विषय-सेवन करनेसे सुख पाती ही है, शीलका उपदेश किसलिये
दिया? रतिकालके अतिरिक्त भी उसके मनोरथ न प्रवर्ते तो दुःख पाती है; सो ऐसी असत्य
युक्ति बनाकर विषय-पोषण करनेका उपदेश देते हैं।
इसी प्रकार दया-दान व पात्र-दानके सिवा अन्य दान देकर धर्म मानना सर्व कुधर्म है।
तथा व्रतादिक करके वहाँ हिंसादिक व विषयादिक बढ़ाते हैं; परन्तु व्रतादिक तो उन्हें
घटानेके अर्थ किये जाते हैं। तथा जहाँ अन्नका तो त्याग करे और कंदमूलादिका भक्षण
करे वहाँ हिंसा विशेष हुई, स्वादादिक विषय विशेष हुए।
तथा दिनमें तो भोजन करता नहीं है और रात्रिमें भोजन करता है; वहाँ प्रत्यक्ष ही
दिनभोजनसे रात्रिभोजनमें विशेष हिंसा भाषित होती है, प्रमाद विशेष होता है।
तथा व्रतादि करके नाना श्रृंगार बनाता है, कुतूहल करता है, जुआ आदिरूप प्रवर्तता
हैइत्यादि पापक्रिया करता है; तथा व्रतादिकका फल लौकिक इष्टकी प्राप्ति, अनिष्टके नाशको
चाहता है; वहाँ कषायोंकी तीव्रता विशेष हुई।
इस प्रकार व्रतादिकसे धर्म मानता है सो कुधर्म है।
तथा कोई भक्ति आदि कार्योमें हिंसादिक पाप बढ़ाते हैं; गीत-नृत्यगानादिक व इष्ट
भोजनादिक व अन्य सामग्रियों द्वारा विषयोंका पोषण करते हैं; कुतूहलप्रमादादिरूप प्रवर्तते
हैंवहाँ पाप तो बहुत उत्पन्न करते हैं और धर्मका किंचित् साधन नहीं है। वहाँ धर्म
मानते हैं सो सब कुधर्म है।
तथा कितने ही शरीरको तो क्लेश उत्पन्न करते हैं, और वहाँ हिंसादिक उत्पन्न करते
हैं व कषायादिरूप प्रवर्तते हैं। जैसे पंचाग्नि तपते हैं, सो अग्निसे बड़े-छोटे जीव जलते

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१९० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
हैं, हिंसादिक बढ़ते हैं, इसमें धर्म क्या हुआ? तथा औंधे मुँह झूलते हैं, ऊर्ध्वबाहु रखते
हैं।
इत्यादि साधन करते हैं, वहाँ क्लेश ही होता है। यह कुछ धर्मके अंग नहीं हैं।
तथा पवन-साधन करते हैं वहाँ नेती, धोती इत्यादि कार्योंमें जलादिकसे हिंसादिक उत्पन्न
होते हैं; कोई चमत्कार उत्पन्न हो तो उससे मानादिक बढ़ते हैं; वहाँ किंचित् धर्मसाधन नहीं
है।
इत्यादिक क्लेश तो करते हैं, विषय-कषाय घटानेका कोई साधन नहीं करते। अन्तरंगमें
क्रोध, मान, माया, लोभका अभिप्राय है; वृथा क्लेश करके धर्म मानते हैं सो कुधर्म है।
तथा कितने ही इस लोकमें दुःख सहन न होनेसे व परलोकमें इष्टकी इच्छा व अपनी
पूजा बढ़ानेके अर्थ व किसी क्रोधादिकसे आपघात करते हैं। जैसेपतिवियोगसे अग्निमें
जलकर सती कहलाती है, व हिमालयमें गलते हैं, काशीमें करौंत लेते हैं, जीवित मरण लेते
हैं
इत्यादि कार्योंसे धर्म मानते हैं; परन्तु आपघातका तो महान पाप है। यदि शरीरादिकसे
अनुराग घटा था तो तपश्चरणादि करना था, मर जानेमें कौन धर्मका अंग हुआ? इसलिये
आपघात करना कुधर्म है।
इसी प्रकार अन्य भी बहुतसे कुधर्मके अंग हैं। कहाँ तक कहें, जहाँ विषय-कषाय
बढ़ते हों और धर्म मानें सो सब कुधर्म जानना।
देखो, कालका दोष, जैनधर्ममें भी कुधर्मकी प्रवृत्ति हो गयी है। जैनमतमें जो धर्म-पर्व
कहे हैं वहाँ तो विषय-कषाय छोड़कर संयमरूप प्रवर्तना योग्य है। उसे तो ग्रहण नहीं करते
और व्रतादिकका नाम धारण करके वहाँ नाना श्रृंगार बनाते हैं, इष्ट-भोजनादिक करते हैं,
कुतूहलादि करते हैं व कषाय बढ़ानेके कार्य करते हैं, जुआ इत्यादि महान पापरूप प्रवर्तते हैं।
तथा पूजनादि कार्योंमें उपदेश तो यह था कि‘‘सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ
दोषायनालंबहुत पुण्यसमूहमें पापका अंश दोषके अर्थ नहीं है। इस छल द्वारा पूजा-
प्रभावनादि कार्योंमेंरात्रिमें दीपकसे, व अनन्तकायादिकके संग्रह द्वारा, व अयत्नाचार- प्रवृत्तिसे
हिंसादिरूप पाप तो बहुत उत्पन्न करते हैं और स्तुति, भक्ति आदि शुभपरिणामोंमें नहीं प्रवर्तते
व थोड़े प्रवर्तते हैं; सो वहाँ नुकसान बहुत, नफा थोड़ा या कुछ नहीं। ऐसे कार्य करनेमें
तो बुरा ही दिखना होता है।
तथा जिनमन्दिर तो धर्मका ठिकाना है। वहाँ नाना कुकथा करना, सोना इत्यादि
१. पूज्यं जिनं त्वार्चयतोजनस्य, सावद्यलेशोबहुपुण्यराशौ।
दोषायनालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ।।५८।। (बृहत् स्वयंभूस्तोत्र)

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छठवाँ अधिकार ][ १९१
प्रमादरूप प्रवर्तते हैं; तथा वहाँ बाग-बाड़ी इत्यादि बनाकर विषय-कषायका पोषण करते हैं।
तथा लोभी पुरुषको गुरु मानकर दानादिक देते हैं व उनकी असत्य स्तुति करके महंतपना
मानते हैं।
इत्यादि प्रकारसे विषय-कषायोंको बढ़ाते हैं और धर्म मानते हैं; परन्तु जिनधर्म
तो वीतरागभावरूप है, उसमें ऐसी विपरीत प्रवृत्ति कालदोषसे ही देखी जाती है।
इस प्रकार कुधर्मसेवनका निषेध किया।
अब, इसमें मिथ्यात्वभाव किस प्रकार हुआ सो कहते हैंः
तत्त्वश्रद्धान करनेमें प्रयोजनभूत तो एक यह है किरागादिक छोड़ना। इसी भावका
नाम धर्म है। यदि रागादिक भावोंको बढ़ाकर धर्म माने, वहाँ तत्त्वश्रद्धान कैसे रहा; तथा
जिन-आज्ञासे प्रतिकूल हुआ। रागादिकभाव तो पाप हैं, उन्हें धर्म माना सो यह झूठा श्रद्धान
हुआ; इसलिये कुधर्मके सेवनमें मिथ्यात्वभाव है।
इस प्रकार कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र सेवनमें मिथ्यात्वभावकी पुष्टि होती जानकर इसका
निरूपण किया।
यही ‘‘षट्पाहुड़’’में कहा है :
कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च बंदए जो दु
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।।९२।। (मोक्षपाहुड़)
अर्थःयदि लज्जासे, भयसे, व बड़ाईसे भी कुत्सित् देवको, कुत्सित् धर्मको व कुत्सित्
लिंगको वन्दता है तो मिथ्यादृष्टि होता है।
इसलिये जो मिथ्यात्वका त्याग करना चाहे वह पहले कुदेव, कुगुरु, कुधर्मका त्यागी
हो। सम्यत्वके पच्चीस मलोंके त्यागमें भी अमूढ़दृष्टिमें व षडायतनमें इन्हींका त्याग कराया है;
इसलिये इनका अवश्य त्याग करना।
तथा कुदेवादिकके सेवनसे जो मिथ्यात्वभाव होता है सो वह हिंसादिक पापोंसे बड़ा
पाप है। इसके फलसे निगोद, नरकादि पर्यायें पायी जाती हैं। वहाँ अनन्तकालपर्यन्त महा
संकट पाया जाता है, सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति महा दुर्लभ हो जाती है।
यही ‘‘षट्पाहुड़’’में कहा है :
कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो
कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ।।१४०।। (भावपाहुड़)

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१९२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अर्थ :जो कुत्सित धर्ममें रत है, कुत्सित पाखण्डियोंकी भक्तिसे संयुक्त है, कुत्सित
तपको करता है; वह जीव कुत्सित अर्थात् खोटी गतिको भोगनेवाला होता है।
सो हे भव्यो! किंचित्मात्र लोभसे व भयसे कुदेवादिकका सेवन करके जिससे
अनन्तकालपर्यन्त महादुःख सहना होता है ऐसा मिथ्यात्वभाव करना योग्य नहीं है।
जिन धर्ममें यह तो आम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाकर फि र छोटा पाप छुड़ाया
है; इसलिये इस मिथ्यात्वको सप्त व्यसनादिकसे भी बड़ा पाप जानकर पहले छुड़ाया है। इसलिये
जो पापके फलसे डरते हैं; अपने आत्माको दुःखसमुद्रमें नहीं डुबाना चाहते, वे जीव इस
मिथ्यात्वको अवश्य छोड़ो; निन्दा
प्रशंसादिकके विचारसे शिथिल होना योग्य नहीं है। क्योंकि
नीतिमें भी ऐसा कहा हैः
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्
अद्यैव वास्तु मरणं तु युगान्तरे वा
न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः
।।८४।। (नीतिशतक)
कोई निन्दा करता है तो निन्दा करो, स्तुति करता है तो स्तुति करो, लक्ष्मी आओ
व जहाँ-तहाँ जाओ, तथा अभी मरण होओ व युगान्तरमें होओ; परन्तु नीतिमें निपुण पुरुष
न्यायमार्गसे एक डग भी चलित नहीं होते।
ऐसा न्याय विचारकर निन्दाप्रशंसादिकके भयसे, लोभादिकसे, अन्यायरूप मिथ्यात्व-
प्रवृत्ति करना युक्त नहीं है।
अहो! देव-गुरु-धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं, इनके आधारसे धर्म है। इनमें शिथिलता
रखनेसे अन्य धर्म किस प्रकार होगा? इसलिये बहुत कहनेसे क्या? सर्वथा प्रकारसे कुदेव-
कुगुरु-कुधर्मका त्यागी होना योग्य है।
कुदेवादिकका त्याग न करनेसे मिथ्यात्वभाव बहुत पुष्ट होता है और वर्तमानमें यहाँ
इनकी प्रवृत्ति विशेष पायी जाती है; इसलिये इनका निषेधरूप निरूपण किया है। उसे जानकर
मिथ्यात्वभाव छोड़कर अपना कल्याण करो।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें कुदेव-कुगुरु-कुधर्म निषेध वर्णनरूप
छठवाँ अधिकार समाप्त हुआ।।।।

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सातवाँ अधिकार ][ १९३
सातवाँ अधिकार
जैन मिथ्यादृष्टियोंका विवेचन
दोहाःइस भवतरुका मूल इक, जानहु मिथ्याभाव
ताकौं करि निर्मूल अब, करिए मोक्ष उपाव।।
अब, जो जीव जैन हैं, जिन-आज्ञा को मानते हैं और उनके मिथ्यात्व रहता है,
उसका वर्णन करते हैंक्योंकि इस मिथ्यात्व बैरीका अंश भी बुरा है, इसलिये सूक्ष्म मिथ्यात्व
भी त्यागने योग्य है।
वहाँ जिनागममें निश्चय-व्यवहाररूप वर्णन है। उनमें यथार्थका नाम निश्चय है,
उपचारका नाम व्यवहार है। इनके स्वरूपको न जानते हुए अन्यथा प्रवर्तते हैं, वही कहते
हैं :
निश्चयाभासी मिथ्यादृष्टि
कितने ही जीव निश्चयको न जानते हुए निश्चयाभासके श्रद्धानी होकर अपनेको
मोक्षमार्गी मानते हैं, अपने आत्माका सिद्धसमान अनुभव करते हैं, आप प्रत्यक्ष संसारी हैं,
भ्रमसे अपनेको सिद्ध मानते हैं, वही मिथ्यादृष्टि हैं।
शास्त्रोंमें जो सिद्ध समान आत्माको कहा है वह द्रव्यदृष्टिसे कहा है, पर्याय-अपेक्षा
सिद्ध समान नहीं है। जैसेराजा और रंक मनुष्यपनेकी अपेक्षा समान हैं, परन्तु राजापने
और रंकपनेकी अपेक्षासे तो समान नहीं हैं; उसी प्रकार सिद्ध और संसारी जीवत्वपनेकी अपेक्षा
समान हैं, परन्तु सिद्धपने और संसारीपनेकी अपेक्षा तो समान नहीं हैं। तथापि ये तो जैसे
सिद्ध शुद्ध हैं, वैसा ही अपनेको शुद्ध मानते हैं। परन्तु वह शुद्ध-अशुद्ध अवस्था पर्याय
है; इस पर्याय-अपेक्षा समानता मानी जाये तो यही मिथ्यादृष्टि है।
तथा अपनेको केवलज्ञानादिकका सद्भाव मानते हैं, परन्तु अपनेको तो क्षयोपशमरूप
मति-श्रुतादि ज्ञानका सद्भाव है, क्षायिकभाव तो कर्मका क्षय होने पर होता है और ये भ्रमसे
कर्मका क्षय हुए बिना ही क्षायिकभाव मानते हैं, सो यही मिथ्यादृष्टि है।

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१९४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
शास्त्रोंमें सर्व जीवोंका केवलज्ञानस्वभाव कहा है, वह शक्ति अपेक्षासे कहा है; क्योंकि
सर्व जीवोंमें केवलज्ञानादिरूप होनेकी शक्ति है, वर्तमान व्यक्त्तता तो व्यक्त होने पर ही कही
जाती है।
कोई ऐसा मानता है कि आत्माके प्रदेशोंमें तो केवलज्ञान ही है, ऊपर आवरण होनेसे
प्रगट नहीं होता, सो यह भ्रम है। यदि केवलज्ञान हो तो वज्रपटलादि आड़े होने पर भी
वस्तुको जानता है; कर्म आड़े आने पर वह कैसे अटकेगा? इसलिये कर्मके निमित्तसे
केवलज्ञानका अभाव ही है। यदि इसका सर्वदा सद्भाव रहता तो इसे पारिणामिकभाव कहते,
परन्तु यह तो क्षायिकभाव है। ‘सर्वभेद जिसमें गर्भित हैं ऐसा चैतन्यभाव, सो पारिणामिकभाव
है।’ इसकी अनेक अवस्थाएँ मतिज्ञानादिरूप व केवलज्ञानादिरूप हैं, सो यह पारिणामिकभाव
नहीं हैं। इसलिये केवलज्ञानका सर्वदा सद्भाव नहीं मानता।
तथा शास्त्रोंमें जो सूर्यका दृष्टान्त दिया है उसका इतना ही भाव लेना कि जैसे मेघपटल
होते हुए सूर्यका प्रकाश प्रगट नहीं होता, उसी प्रकार कर्मउदय होते हुए केवलज्ञान नहीं
होता। तथा ऐसे भाव नहीं लेना कि जैसे सूर्यमें प्रकाश रहता है वैसे आत्मामें केवलज्ञान
रहता है; क्योंकि दृष्टान्त सर्व प्रकारसे मिलता नहीं है। जैसे
पुद्गलमें वर्णगुण है, उसकी
हरितपीतादि अवस्थाएँ हैं, सो वर्तमानमें कोई अवस्था होने पर अन्य अवस्थाका अभाव
है; उसी प्रकार आत्मामें चैतन्यगुण है, उसकी मतिज्ञानादिरूप अवस्थाएँ हैं, सो वर्तमानमें कोई
अवस्था होने पर अन्य अवस्थाका अभाव ही है।
तथा कोई कहे कि आवरण नाम तो वस्तुको आच्छादित करनेका है; केवलज्ञानका
सद्भाव नहीं है तो केवलज्ञानावरण किसलिये कहते हो?
उत्तरःयहाँ शक्ति है, उसे व्यक्त न होने दे; इस अपेक्षा आवरण कहा है। जैसे
देशचारित्रका अभाव होने पर शक्ति घातनेकी अपेक्षा अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहा, उसी
प्रकार जानना।
तथा ऐसा जानना कि वस्तुमें परनिमित्तसे जो भाव हो उसका नाम औपाधिकभाव
है और परनिमित्तके बिना जो भाव हो उसका नाम स्वभावभाव है। जैसेजलको अग्निका
निमित्त होने पर उष्णपना हुआ, वहाँ शीतलपनेका अभाव ही है; परन्तु अग्निका निमित्त मिटने
पर शीतलता ही हो जाती है; इसलिये सदाकाल जलका स्वभाव शीतल कहा जाता है, क्योंकि
ऐसी शक्ति सदा पायी जाती है और व्यक्त होने पर स्वभाव व्यक्त हुआ कहते हैं। कदाचित्
व्यक्तरूप होता है। उसी प्रकार आत्माको कर्मका निमित्त होने पर अन्यरूप हुआ, वहाँ

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सातवाँ अधिकार ][ १९५
केवलज्ञानका अभाव ही है; परन्तु कर्मका निमित्त मिटने पर सर्वदा केवलज्ञान हो जाता है;
इससिये सदाकाल आत्माका स्वभाव केवलज्ञान कहा जाता है, क्योंकि ऐसी शक्ति सदा पायी
जाती है। व्यक्त होने पर स्वभाव व्यक्त हुआ कहा जाता है।
तथा जैसे शीतल स्वभावके कारण उष्ण जलको शीतल मानकर पानादि करे तो जलना
ही होगा; उसी प्रकार केवलज्ञानस्वभावके कारण अशुद्ध आत्माको केवलज्ञानी मानकर अनुभव
करे तो दुःखी होगा।
इसप्रकार जो आत्माका केवलज्ञानादिरूप अनुभव करते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं।
तथा रागादिक भाव अपनेको प्रत्यक्ष होने पर भी भ्रमसे आत्माको रागादिरहित मानते
हैं। सो पूछते हैं कि ये रागादिक तो होते दिखाई देते हैं, ये किस द्रव्यके अस्तित्वमें हैं?
यदि शरीर या कर्मरूप पुद्गलके अस्तित्वमें हों तो ये भाव अचेतन या मूर्तिक होंगे; परन्तु
ये रागादिक तो प्रत्यक्ष चेतनतासहित अमूर्तक भाव भासित होते हैं। इसलिये ये भाव आत्माके
ही हैं।
यही समयसार कलशमें कहा है :
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयो
रज्ञायाः प्रकृ ते स्वकार्यफलभुग्भावानुषंगात्कृतिः
नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः
।।२०३।।
इसका अर्थ यह हैरागादिरूप भावकर्म है सो किसीके द्वारा नहीं किया गया ऐसा
नहीं है, क्योंकि यह कार्यभूत है। तथा जीव और कर्मप्रकृति इन दोनोंका भी कर्तव्य नहीं
है, क्योंकि ऐसा हो तो अचेतन कर्मप्रकृतिको भी उस भावकर्मका फल
सुख-दुःखका भोगना
होगा; सो यह असम्भव है। तथा अकेली कर्मप्रकृतिका भी यह कर्तव्य नहीं है, क्योंकि
उसके अचेतनपना प्रगट है। इसलिये इस रागादिकका जीव ही कर्ता है और यह रागादिक
जीवका ही कर्म है; क्योंकि भावकर्म तो चेतनाका अनुसारी है, चेतना बिना नहीं होता, और
पुद्गल ज्ञाता है नहीं।
इसप्रकार रागादिभाव जीवके अस्तित्वमें हैं।
अब, जो रागादिभावोंका निमित्त कर्मको ही मानकर अपनेको रागादिकका अकर्ता मानते
हैं वे कर्ता तो आप हैं; परन्तु आपको निरुद्यमी होकर प्रमादी रहना है, इसलिये कर्मका
ही दोष ठहराते हैं, सो यह दुःखदायक भ्रम है।

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१९६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
ऐसा ही समयसारके कलशमें कहा है :
रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते
उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः।।२२१।।
इसका अर्थःजो जीव रागादिककी उत्पत्तिमें परद्रव्यका ही निमित्तपना मानते हैं,
वे जीव - शुद्धज्ञानसे रहित अन्धबुद्धि है जिनकीऐसे होते हुए मोहनदीके पार नहीं उतरते
हैं।
तथा समयसारके ‘सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार’ मेंजो आत्माको अकर्ता मानता है और
यह कहता है कि कर्म ही जगाते-सुलाते हैं, परघातकर्मसे हिंसा है, वेदकर्मसे अब्रह्म है, इसलिये
कर्म ही कर्ता है
उस जैनीको सांख्यमती कहा है। जैसे सांख्यमती आत्माको शुद्ध मानकर
स्वच्छन्दी होता है, उसी प्रकार यह हुआ।
तथा इस श्रद्धानसे यह दोष हुआ कि रागादिकको अपना नहीं जाना, अपनेको अकर्ता
माना, तब रागादिक होनेका भय नहीं रहा तथा रागादिकको मिटानेका उपाय करना नहीं
रहा; तब स्वच्छन्द होकर खोटे कर्मोंका बन्ध करके अनन्त संसारमें रुलता है।
यहाँ प्रश्न है कि समयसारमें ही ऐसा कहा है :
‘‘वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः।’’
इसका अर्थ :वर्णादिक अथवा रागादिक भाव हैं वे सभी इस आत्मासे भिन्न हैं।
तथा वहीं रागादिकको पुद्गलमय कहा है, तथा अन्य शास्त्रोंमें भी आत्माको रागादिकसे
भिन्न कहा है; सो वह किस प्रकार है?
उत्तर :रागादिकभाव परद्रव्यके निमित्तसे औपाधिकभाव होते हैं, और यह जीव
उन्हें स्वभाव जानता है। जिसे स्वभाव जाने उसे बुरा कैसे मानेगा? उसके नाशका उद्यम
किसलिये करेगा? इसलिये यह श्रद्धान भी विपरीत है। उसे छुड़ानेके लिये स्वभावकी अपेक्षा
रागादिकको भिन्न कहा है और निमित्तकी मुख्यतासे पुद्गलमय कहा है। जैसे
वैद्य रोग
मिटाना चाहता है; यदि शीतकी अधिकता देखता है तब उष्ण औषधि बतलाता है, और
यदि आतापकी अधिकता देखता है तब शीतल औषधि बतलाता है। उसी प्रकार श्रीगुरु
रागादिक छुड़ाना चाहते हैं; जो रागादिकको परका मानकर स्वच्छन्द होकर निरुद्यमी होता
१. वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः।
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽभी नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात्।।(समयसार कलश ३७)

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सातवाँ अधिकार ][ १९७
है, उसे उपादानकारणकी मुख्यतासे रागादिक आत्माके हैंऐसा श्रद्धान कराया है; तथा जो
रागादिकको अपना स्वभाव मानकर उनके नाशका उद्यम नहीं करता, उसे निमित्तकारणकी
मुख्यतासे रागादिक परभाव हैं
ऐसा श्रद्धान कराया है।
दोनों विपरीत श्रद्धानोंसे रहित होने पर सत्य श्रद्धान होगा तब ऐसा मानेगा कि ये
रागादिक भाव आत्माका स्वभाव तो नहीं हैं, कर्मके निमित्तसे आत्माके अस्तित्वमें विभाव
पर्यायरूपसे उत्पन्न होते हैं, निमित्त मिटने पर इनका नाश होनेसे स्वभावभाव रह जाता है;
इसलिये इनके नाशका उद्यम करना।
यहाँ प्रश्न है कियदि कर्मके निमित्तसे होते हैं तो कर्मका उदय रहेगा तब तक
यह विभाव दूर कैसे होंगे? इसलिये इसका उद्यम करना तो निरर्थक है?
उत्तर :एक कार्य होनेमें अनेक कारण चाहिये। उनमें जो कारण बुद्धिपूर्वक हों
उन्हें तो उद्यम करके मिलाये, और अबुद्धिपूर्वक कारण स्वयमेव मिलें तब कार्यसिद्धि होती
है। जैसे
पुत्र होनेका कारण बुद्धिपूर्वक तो विवाहादि करना है, और अबुद्धिपूर्वक भवितव्य
है; वहाँ पुत्रका अर्थी विवाहादिका तो उद्यम करे, और भवितव्य स्वयमेव हो तब पुत्र होगा।
उसी प्रकार विभाव दूर करनेके कारण बुद्धिपूर्वक तो तत्त्वविचारादि हैं, और अबुद्धिपूर्वक
मोहकर्मके उपशमादिक हैं, सो उसका अर्थी तत्त्वविचारादिकका तो उद्यम करे, और मोहकर्मके
उपशमादिक स्वयमेव हों तब रागादिक दूर होते हैं।
यहाँ ऐसा कहते हैं कि जैसे विवाहादिक भी भवितव्य आधीन हैं; उसी प्रकार
तत्त्वविचारादिक भी कर्मके क्षयोपशमादिकके आधीन हैं; इसलिये उद्यम करना निरर्थक है?
उत्तरःज्ञानावरणका तो क्षयोपशम तत्त्वविचारादिक करने योग्य तेरे हुआ है; इसलिये
उपयोगको वहाँ लगानेका उद्यम कराते हैं। असंज्ञी जीवोंके क्षयोपशम नहीं है, तो उन्हें
किसलिये उपदेश दें?
तब वह कहता हैहोनहार हो तो वहाँ उपयोग लगे, बिना होनहार कैसे लगे?
उत्तर :यदि ऐसा श्रद्धान है तो सर्वत्र किसी भी कार्यका उद्यम मत कर। तू
खान-पान-व्यापारादिकका तो उद्यम करता है और यहाँ होनहार बतलाता है। इससे मालूम
होता है कि तेरा अनुराग यहाँ नहीं है, मानादिकसे ऐसी झूठी बातें बनाता है।
इसप्रकार जो रागादिक होते हुए आत्माको उनसे रहित मानते हैं, उन्हें मिथ्यादृष्टि
जानना।
तथा कर्मनोकर्मका सम्बन्ध होते हुए आत्माको निर्बन्ध मानते हैं, सो इनका बन्धन

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१९८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
प्रत्यक्ष देखा जाता है। ज्ञानावरणादिकसे ज्ञानादिकका घात देखा जाता है, शरीर द्वारा उसके
अनुसार अवस्थाएँ होती देखी जाती हैं, फि र बन्धन कैसे नहीं है? यदि बन्धन न हो तो
मोक्षमार्गी इनके नाशका उद्यम किसलिये करे?
यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोंमें आत्माको कर्मनोकर्मसे भिन्न अबद्धस्पृष्ट कहा है?
उत्तरःसम्बन्ध अनेक प्रकारके हैं। वहाँ तादात्म्यसम्बन्धकी अपेक्षा आत्माको कर्म
नोकर्मसे भिन्न कहा है, क्योंकि द्रव्य पलटकर एक नहीं हो जाते, और इसी अपेक्षासे अबद्धस्पृष्ट
कहा है। अथवा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धकी अपेक्षा बन्धन है ही, उनके निमित्तसे आत्मा
अनेक अवस्थाएँ धारण करता ही है; इसलिये अपनेको सर्वथा निर्बन्ध मानना मिथ्यादृष्टि है।
यहाँ कोई कहे कि हमें तो बन्ध-मुक्तिका विकल्प करना नहीं, क्योंकि शास्त्रमें ऐसा
कहा है :
‘‘जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि सो बंधियहि णिभंतु
अर्थ :जो जीव बँधा और मुक्त हुआ मानता है वह निःसन्देह बँधता है।
उससे कहते हैंःजो जीव केवल पर्यायदृष्टि होकर बन्ध-मुक्त अवस्थाको ही मानते
हैं, द्रव्यस्वभावका ग्रहण नहीं करते; उन्हें ऐसा उपदेश दिया है कि द्रव्यस्वभावको न जानता
हुआ जो जीव बँधा-मुक्त हुआ मानता है वह बँधता है। तथा यदि सर्वथा ही बन्ध-मुक्ति
न हो तो यह जीव बँधता है
ऐसा क्यों कहें? तथा बन्धके नाशकामुक्त होनेका उद्यम
किसलिये किया जाये? और किसलिये आत्मानुभव किया जाये? इसलिये द्रव्यदृष्टिसे एक दशा
है और पर्यायदृष्टिसे अनेक अवस्थाएँ होती हैं
ऐसा मानना योग्य है।
ऐसे ही अनेक प्रकारसे केवल निश्चयनयके अभिप्रायसे विरुद्ध श्रद्धानादि करता है।
जिनवाणीमें तो नाना नयोंकी अपेक्षासे कहीं कैसा, कहीं कैसा निरूपण किया है; यह
अपने अभिप्रायसे निश्चयनयकी मुख्यतासे जो कथन किया होउसीको ग्रहण करके मिथ्यादृष्टि
धारण करता है।
तथा जिनवाणीमें तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता होने पर मोक्षमार्ग कहा है; सो
इसके सम्यग्दर्शन-ज्ञानमें सात तत्त्वोंका श्रद्धान और जानना होना चाहिये सो उनका विचार नहीं
है, और चारित्रमें रागादिक दूर करना चाहिये उसका उद्यम नहीं है; एक अपने आत्माके शुद्ध
१. जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि तो बंधियहि णिभंतु।
सहज-सरूवइ जइ रमहि तो पावहि सिव संतु।।(योगसार, दोहा ८७)

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सातवाँ अधिकार ][ १९९
अनुभवनको ही मोक्षमार्ग जानकर सन्तुष्ट हुआ है। उसका अभ्यास करनेको अन्तरंगमें ऐसा
चिंतवन करता रहता है कि ‘मैं सिद्धसमान शुद्ध हूँ, केवलज्ञानादि सहित हूँ, द्रव्यकर्म-नोकर्म
रहित हूँ, परमानंदमय हूँ, जन्म-मरणादि दुःख मेरे नहीं हैं’; इत्यादि चिंतवन करता है।
सो यहाँ पूछते हैं कि यह चिंतवन यदि द्रव्यदृष्टिसे करते हो तो द्रव्य तो शुद्ध-
अशुद्ध सर्व पर्यायोंका समुदाय है; तुम शुद्ध ही अनुभवन किसलिये करते हो? और पर्यायदृष्टिसे
करते हो तो तुम्हारे तो वर्तमान अशुद्ध पर्याय है; तुम अपनेको शुद्ध कैसे मानते हो?
तथा यदि शक्तिअपेक्षा शुद्ध मानते हो तो ‘‘मैं ऐसा होने योग्य हूँऐसा मानो; ‘मैं
ऐसा हूँ’ऐसा क्यों मानते हो? इसलिये अपनेको शुद्धरूप चिंतवन करना भ्रम है। कारण
कि तुमने अपनेको सिद्धसमान माना तो यह संसार-अवस्था किसकी है? और तुम्हारे केवलज्ञानादि
हैं तो यह मतिज्ञानादिक किसके हैं? और द्रव्यकर्म, नोकर्मरहित हो तो ज्ञानादिककी व्यक्त्तता
क्यों नहीं है? परमानन्दमय हो तो अब कर्तव्य क्या रहा? जन्म-मरणादि दुःख नहीं हैं तो
दुःखी कैसे होते हो?
इसलिये अन्य अवस्थामें अन्य अवस्था मानना भ्रम है।
यहाँ कोई कहे कि शास्त्रमें शुद्ध चिंतवन करनेका उपदेश कैसे दिया है?
उत्तरः
एक तो द्रव्य-अपेक्षा शुद्धपना है, एक पर्याय-अपेक्षा शुद्धपना है। वहाँ द्रव्य-
अपेक्षा तो परद्रव्यसे भिन्नपना और अपने भावोंसे अभिन्नपनाउसका नाम शुद्धपना है।
और पर्याय-अपेक्षा औपाधिकभावोंका अभाव होनेका नाम शुद्धपना है। सो शुद्ध चिंतवनमें
द्रव्य-अपेक्षा शुद्धपना ग्रहण किया है। वही समयसार व्याख्यामें कहा है :
‘‘एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते’’
(गाथा६की टीका)
इसका अर्थ यह है कि आत्मा प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है। सो यही समस्त परद्रव्योंके
भावोंसे भिन्नपने द्वारा सेवन किया गया शुद्ध ऐसा कहा जाता है।
तथा वहीं ऐसा कहा है :
‘‘समस्तकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः’’
(गाथा ७३की टीका)
अर्थःसमस्त ही कर्ता, कर्म आदि कारकोंके समूहकी प्रक्रियासे पारंगत ऐसी निर्मल
अनुभूति, जो अभेदज्ञान तन्मात्र है, उससे शुद्ध है। इसलिये ऐसा शुद्ध शब्दका अर्थ जानना।
तथा इसीप्रकार केवल शब्दका अर्थ जानना‘जो परभावसे भिन्न निःकेवल आप

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२०० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
ही’उसका नाम केवल है। इसी प्रकार अन्य यथार्थ अर्थका अवधारण करना।
पर्याय-अपेक्षा शुद्धपना माननेसे तथा अपनेको केवली माननेसे महाविपरीतता होती है,
इसलिये अपनेको द्रव्य-पर्यायरूप अवलोकन करना। द्रव्यसे सामान्यस्वरूप अवलोकन करना,
पर्यायमें अवस्था-विशेष अवधारण करना।
इसी प्रकार चिंतवन करनेसे सम्यग्दृष्टि होता है, क्योंकि सच्चा अवलोकन किये बिना
सम्यग्दृष्टि नाम कैसे प्राप्त करे?
निश्चयाभासीकी स्वच्छन्दता और उसका निषेध
तथा मोक्षमार्गमें तो रागादिक मिटानेका श्रद्धाज्ञानआचरण करना है; वह तो विचार
ही नहीं है, अपने शुद्ध अनुभवनमें ही अपनेको सम्यग्दृष्टि मानकर अन्य सर्व साधनोंका निषेध
करता है।
शास्त्राभ्यास करना निरर्थक बतलाता है, द्रव्यादिकके तथा गुणस्थान-मार्गणा-
त्रिलोकादिकके विचारको विकल्प ठहराता है, तपश्चरण करनेको वृथा क्लेश करना मानता है,
व्रतादिक धारण करनेको बन्धनमें पड़ना ठहराता है, पूजनादिक कार्योंको शुभास्रव जानकर
हेय प्ररूपित करता है;
इत्यादि सर्वसाधनोंको उठाकर प्रमादी होकर परिणमित होता है।
यदि शास्त्राभ्यास निरर्थक हो तो मुनियोंके भी तो ध्यान और अध्ययन दो ही कार्य
मुख्य हैं। ध्यानमें उपयोग न लगे तब अध्ययनमें हीं उपयोगको लगाते हैं, बीचमें अन्य
स्थान उपयोग लगाने योग्य नहीं हैं। तथा शास्त्राभ्यास द्वारा तत्त्वोंको विशेष जाननेसे
सम्यग्दर्शन-ज्ञान निर्मल होता है। तथा वहाँ जब तक उपयोग रहे तब तक कषाय मन्द
रहे और आगामी वीतरागभावोंकी वृद्धि हो; ऐसे कार्यको निरर्थक कैसे मानें?
तथा वह कहता है कि जिन शास्त्रोंमें अध्यात्म-उपदेश है उनका अभ्यास करना, अन्य
शास्त्रोंके अभ्याससे कोई सिद्धि नहीं है।
उससे कहते हैंयदि तेरे सच्ची दृष्टि हुई है तो सभी जैनशास्त्र कार्यकारी हैं। वहाँ
भी मुख्यतः अध्यात्म-शास्त्रोंमें तो आत्मस्वरूपका मुख्य कथन है; सो सम्यग्दृष्टि होने पर
आत्मस्वरूपका निर्णय तो हो चुका, तब तो ज्ञानकी निर्मलताके अर्थ व उपयोगको मन्दकषायरूप
रखनेके अर्थ अन्य शास्त्रोंका अभ्यास मुख्य चाहिये। तथा आत्मस्वरूपका निर्णय हुआ है, उसे
स्पष्ट रखनेके अर्थ अध्यात्म-शास्त्रोंका भी अभ्यास चाहिये; परन्तु अन्य शास्त्रोंमें अरुचि तो नहीं
होना चाहिये। जिसको अन्य शास्त्रोंकी अरुचि है उसे अध्यात्मकी रुचि सच्ची नहीं है।

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सातवाँ अधिकार ][ २०१
जैसे जिसके विषयासक्तपना होवह विषयासक्त पुरुषोंकी कथा भी रुचिपूर्वक सुने
व विषयके विशेषको भी जाने व विषयके आचरणमें जो साधन हों उन्हें भी हितरूप माने
व विषयके स्वरूपको भी पहिचाने; उसी प्रकार जिसके आत्मरुचि हुई हो
वह आत्मरुचिके
धारक तीर्थंकरादिके पुराणोंको भी जाने तथा आत्माके विशेष जाननेके लिये गुणस्थानादिकको
भी जाने। तथा आत्म-आचरणमें जो व्रतादिक साधन हैं उनको भी हितरूप माने तथा आत्माके
स्वरूपको भी पहिचाने। इसलिये चारों ही अनुयोग कार्यकारी हैं।
तथा उनका अच्छा ज्ञान होनेके अर्थ शब्दन्यायशास्त्रादिकको भी जानना चाहिये।
इसलिये अपनी शक्तिके अनुसार सभीका थोड़ा या बहुत अभ्यास करना योग्य है।
फि र वह कहता है‘पद्मनन्दि पच्चीसी’ में ऐसा कहा है कि आत्मस्वरूपसे निकलकर
बाह्य शास्त्रोंमें बुद्धि विचरती है, सो वह बुद्धि व्यभिचारिणी है?
उत्तर :यह सत्य कहा है। बुद्धि तो आत्माकी है; उसे छोड़कर परद्रव्यशास्त्रोंमें
अनुरागिनी हुई; उसे व्यभिचारिणी ही कहा जाता है।
परन्तु जैसे स्त्री शीलवती रहे तो योग्य ही है, और न रहा जाय तब उत्तम पुरुषको
छोड़कर चांडालादिकका सेवन करनेसे तो अत्यन्त निन्दनीय होगी; उसी प्रकार बुद्धि
आत्मस्वरूपमें प्रवर्ते तो योग्य ही है, और न रहा जाय तो प्रशस्त शास्त्रादि परद्रव्योंको छोड़कर
अप्रशस्त विषयादिमें लगे तो महानिन्दनीय ही होगी। सो मुनियोंकी भी स्वरूपमें बहुत काल
बुद्धि नहीं रहती, तो तेरी कैसे रहा करे?
इसलिये शास्त्राभ्यासमें उपयोग लगाना योग्य है।
तथा यदि द्रव्यादिकके और गुणस्थानादिकके विचारको विकल्प ठहराता है, सो विकल्प
तो है; परन्तु निर्विकल्प उपयोग न रहे तब इन विकल्पोंको न करे तो अन्य विकल्प होंगे,
वे बहुत रागादि गर्भित होते हैं। तथा निर्विकल्पदशा सदा रहती नहीं है; क्योंकि छद्मस्थका
उपयोग एकरूप उत्कृष्ट रहे तो अन्तर्मुर्हूत रहता है।
तथा तू कहेगा कि मैं आत्मस्वरूपका ही चिंतवन अनेक प्रकार किया करूँगा; सो
सामान्य चिंतवनमें तो अनेक प्रकार बनते नहीं हैं, और विशेष करेगा तो द्रव्य-गुण-पर्याय,
गुणस्थान, मार्गणा, शुद्ध-अशुद्ध अवस्था इत्यादि विचार होगा।
१. बाह्यशास्त्रगहने विहारिणी या मतिर्बहुविकल्पधारिणी।
चित्स्वरूपकुलसद्मनिर्गता सा सती न सदृशी कुयोषिता।।३८।।(सद्बोधचन्द्रोदयः अधिकार)

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२०२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
और सुन, केवल आत्मज्ञानसे ही तो मोक्षमार्ग होता नहीं है। सात तत्त्वोंका श्रद्धान-
ज्ञान होने पर तथा रागादिक दूर करने पर मोक्षमार्ग होगा। सो सात तत्त्वोंके विशेष जाननेको
जीव-अजीवके विशेष तथा कर्मके आस्रव-बन्धादिकके विशेष अवश्य जानने योग्य हैं, जिनसे
सम्यग्दर्शन-ज्ञानकी प्राप्ति हो।
और वहाँ पश्चात् रागादिक दूर करना। सो जो रागादिक बढ़ानेके कारण हैं उन्हें
छोड़करजो रागादिक घटानेके कारण हों वहाँ उपयोगको लगाना। सो द्रव्यादिक और
गुणस्थानादिकके विचार रागादिक घटानेके कारण हैं। इनमें कोई रागादिकका निमित्त नहीं
है। इसलिये सम्यग्दृष्टि होनेके पश्चात् भी यहाँ ही उपयोग लगाना।
फि र वह कहता है कि रागादि मिटानेके कारण हों इनमें तो उपयोग लगानापरन्तु
त्रिलोकवर्ती जीवोंकी गति आदिका विचार करना; कर्मके बन्ध, उदय, सत्तादिके बहुत विशेष
जानना तथा त्रिलोकके आकार
प्रमाणादिक जानना;इत्यादि विचार क्या कार्यकारी हैं?
उत्तरःइनके भी विचार करनेसे रागादिक बढ़ते नहीं हैं, क्योंकि वे ज्ञेय इसको
इष्ट-अनिष्टरूप हैं नहीं, इसलिये वर्तमान रागादिकके कारण नहीं हैं। तथा इनको विशेष जाननेसे
तत्त्वज्ञान निर्मल हो, इसलिये आगामी रागादिक घटानेको ही कारण हैं, इसलिये कार्यकारी
हैं।
फि र वह कहता हैस्वर्ग-नरकादिको जाने वहाँ तो राग-द्वेष होता है?
समाधानःज्ञानीके तो ऐसी बुद्धि होती नहीं है, अज्ञानीके होती है। वहाँ पाप
छोड़कर पुण्य-कार्यमें लगे वहाँ किंचित् रागादिक घटते ही हैं।
फि र वह कहता हैशास्त्रमें ऐसा उपदेश है कि प्रयोजनभूत थोड़ा ही जानना
कार्यकारी है, इसलिये बहुत विकल्प किसलिये करें?
उत्तरःजो जीव अन्य बहुत जानते हैं और प्रयोजनभूतको नहीं जानते; अथवा
जिनकी बहुत जाननेकी शक्ति नहीं, उन्हें यह उपदेश दिया है। तथा जिसकी बहुत जाननेकी
शक्ति हो उससे तो यह नहीं कहा कि बहुत जाननेसे बुरा होगा? जितना बहुत जानेगा
उतना प्रयोजनभूत जानना निर्मल होगा। क्योंकि शास्त्रमें ऐसा कहा है :
‘‘सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत्’’
इसका अर्थ यह हैःसामान्य शास्त्रसे विशेष बलवान है। विशेषसे ही अच्छी तरह
निर्णय होता है, इसलिये विशेष जानना योग्य है।