Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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तुम मन इन्द्री सों रहित देव,
काया बंध रहित अकायदेव. १९
तुम लेश्या रहित सुलैश्यधार,
तुम भव्याभव्य-दशा निवार;
तुम सैनि असैनी रहित देव,
तुम निर्मल आत्मस्वरूप देव. २०
तुम संज्ञा चारि दियो निवार,
तुम सदा तृप्त हो निराहार;
तुम भवसागरसों पार देव,
तुम जन्मजरामृतु रहितदेव. २१
तुम अचल पद धारी कहेव,
तुम अक्ष अविनश्वर आप देव;
तुम गुण अनंत धारक वखान,
लक्षण वसु एक सहस प्रमान. २२
कहि एक सहस वसु नाम सार,
तुमरे त्रिभुवनपति जिन उदार;
करि भाव भक्ति अतिही ललाम,
सुरपति कीन्हो तुम पद प्रमाण. २३
है एक सहस वसुनामधार,
हे भववारिध तारण उदार;

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परमात्म विभु सेवक आप,
कर जोरि नमै द्यो शिवनिवास. २४
श्री जिनस्तवन
(हरिगीत)
अनुपम अमित तुम गुण निवारिध, ज्यों अलोकाकाश है,
किमि धरैं हम उर कोषमैं सो अकथगुणमणिराश है;
पै जिन प्रयोजन सिद्धि की तुम नाममें ही शक्ति है,
यह चित्तमें सरधान यातैं नाम ही मैं भक्ति है.
(अडिल्ल)
ज्ञानावरणी दर्शनआवरणी भने,
कर्ममोहनी अंतराय चारों हने;
लोकालोक विलोक्यो केवलज्ञानमैं,
इन्द्रादिकके मुकुट नये सुरथानमैं.
तब इन्द्र जान्यो अवधितैं, उठि सुरनयुत बंदत भयौ,
तुम पुन्य को प्रेर्यो हरी ह्वै मुदित धनपतिसौं चयौ;
अब वेगि जाय रचौ समवसृति सफल सुरपदको करौ,
साक्षात् श्री अरहंतके दर्शन करौ कल्मष हरौ.
ऐसे वचन सुने, सुरपतिके धनपती,
चल आयो ततकाल मोद धारै अती;
वीतराग छबि देखि शब्द जय जय चयौ;
दै परदच्छिना बार बार बंदत भयौ.

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अति भक्ति भीनो नम्रचित ह्वै समवशरण रच्यौ सही,
ताकी अनुपम शुभ गतीको, कहन समरथ कोउ नहीं;
प्राकार तोरण सभामंडप कनक मणिमय छाजही,
नगजडित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विराजही.
सिंहासन तामध्य बन्यौ अद्भुत दिपै,
तापर वारिज रच्यो प्रभा दिनकर छीपै;
तीनछत्र सिर शोभित चौसठ चमरजी,
महाभक्तियुत ढोरत है तहां अमरजी.
प्रभु तरनतारन कमल उपर, अंतरिक्ष विराजिया,
यह वीतरागदशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया,
मुनि आदि द्वादश सभाके भवि जीव मस्तक नायकैं,
बहुभांति बारंबार पूजैं, नमै गुणगण गायकै.
परमौदारिक दिव्य देह पावन सही,
क्षुधा तृषा चिंता भय गद दूषण नहीं;
जन्म जरा मृति अरति शोक विस्मय नसे,
राग रोष निद्रा मद मोह सबै खसे.
श्रमविना श्रमजलरहित पावन अमल ज्योतिस्वरूपजी,
शरणागतनिकी अशुचिता हरि, करत विमल अनूपजी;
ऐसे प्रभूकी शांतिमुद्राको न्हवन जलतैं करैं,
जस भक्तिवश मन उक्तितैं हम भानु ढिग दीपक धरैं.
तुमतौ सहज पवित्र यही निश्चय भयो,
तुम पवित्रताहेत नहीं मज्जन ठयो;
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मैं मलीन रागादिक मलतैं ह्वै रह्यो,
महामलिन तनमैं वसुविधिवश दुख सह्यो.
बीत्यो अनंतो काल यह मेरी अशुचिता ना गई,
तिस अशुचिताहर एक तुम ही भरहु बांछा चित ठई;
अब अष्टकर्म विनाश सब मल रोषरागादिक हरौ,
तनरूप कारागेहतैं उद्धार शिववासा करौ.
मैं जानत तुम अष्टकर्म हरि शिव गये,
आवागमन विमुक्त रागवर्जित भये;
पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत सही,
नयप्रमानतैं जानि महा साता लही.
पापाचरण तजि न्हवन करता चित्तमैं ऐसे धरूं,
साक्षात् श्री अरहंतका मानों न्हवन परसन करूं;
ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभबंध तैं,
विधि अशुभ नसि शुभबंधतैं ह्वै शर्म सब विधि तासतैं.
पावन मेरे नयन भये तुम दरसतैं,
पावन पान भये तुम चरननि परसतैं;
पावन मन ह्वैं गयो तिहारे ध्यानतैं,
पावन रसना मानी, तुम गुण गानतैं.
पावन भई परजाय मेरी, भयौ में पूरणधनी,
मैं शक्तिपूर्वक भक्ति कीनी, पूर्णभक्ति नहीं बनी;

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धन्य ते बडभागि भवि तिन नीव शिवघरकी धरी,
वर क्षीरसागर आदि जल मणि कुंभभरि भक्ति करी.
विघनसघन-वनदाहन-दहन प्रचंड हो,
मोहमहातमदलन प्रबल मारतंड हो;
ब्रह्मा विष्णु महेश, आदि संज्ञा धरो,
जगविजयी जमराज नाश ताको करो.
आनंदकारण दुखनिवारण परममंगलमय सही,
मोसो पतित नहिं और तुमसो, पतित-तार सुन्यौ नहीं;
चिंतामणी पारस कलपतरु, एकभव सुखकार ही,
तुम भक्तिनवका जे चढैं ते, भये भवदधि पार ही.
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(पद्धरी छंद)
जै जै जै सीमंधर जिनंद, पितु श्रेयांस देव आनंदकंद;
सत्य मात कुमुदमनमोददाय भविवृन्द चकोर सुखी कराय.
भवि भीत कोक कीनों अशोक, शिवमग दरशायो शर्मथोक;
जै जै जै जै तुम गुनगंभीर, तुम आगम निपुन पुनीत धीर.
तुम केवलजोति विराजमान, जै जै जै जै करुनानिधान;
तुम समवसरणमें तत्त्वभेद दरशायो जातें नशत खेद.
तित तुमकों चक्री आनंदधार, पूजत भगतीजुत बहु प्रकार;
पुनि गद्यपद्यमय सुजस गाय, जै बल अनंत गुनवंतराय.

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जय शिवशंकर ब्रह्मा महेश, जय बुद्धि विधाता विष्णुवेष;
जय कुमतिमतंगनको मृगेंद्र, जय मदनध्वांतको रविजिनेन्द्र.
जय कृपासिंधु अविरुद्ध बुद्ध, जय ॠद्धसिद्ध दाता प्रबुद्ध;
जय जगजनमनरंजन महान, जय भवसागर महं सुष्ठ थान.
तुव भगति करै ते धन्य जीव, ते पावैं दिवशिवपद सदीव;
तुमरो गुन देव विविधप्रकार, गावत नित किन्नरकी जु नार.
वर भगतिमाहिं लवलीन होय, नाचैं ताथेई थेई थेई बहोय;
तुम करुणासागर सृष्टिपाल, अब मोकों वेगि करो निहाल.
मैं दुख अनंत वसुकरमजोग, भोगे सदीव नहि और रोग;
तुमको जगमें जान्यो दयाल, हो वीतराग गुनरतनमाल.
तातैं शरना अब गही आय, प्रभु करो वेगि मेरी सहाय;
यह विघन करम मम खंडखंड, मनवांछितकारज मंड मंड. १०
संसारकष्ट चकचूर चूर, सहजानंद मम उर पूर पूर;
निज पर प्रकाशबुधि देह देह, तजि के विलंब सुधि लेह लेह. ११
हम जांचत हैं यह बार बार, भवसागर तें मो तार तार;
नहि सह्यो जात यह जगत दुःख, तातें विनवों हे सुगुनमुक्ख. १२
श्री नेमिनाथस्तुति
(पद्धरी छंद)
जै जै जै नेमि जिनंद चंद्र, सुर नर विद्याधर नमत इन्द्र;
जै सोरठ देश अनेक थान, जूनागढ पै शोभित महान. १

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तहां उग्रसेन नृप राजद्वार, तोरण मंडप शुभ बने सार;
जै समुदविजय सुत व्याह काज, आये हर-बलजुत आन साज.
तहं जीव बंधे लख दया धार, रथ फेर जंतु बंधन निवार;
द्वादश भावन चिंतवन कीन, भूषण वस्त्रादिक त्याग दीन.
तज परिग्रह परिणय सर्व संग, ह्वै अनगार विजयी अनंग;
धर पंच महाव्रत तप मुनीश, निज ध्यान धरो हो केवलीश.
इस ही सुथान निर्वाण थाय, सो तीरथ पावन जगतमाय;
अरु शंभु आदि प्रद्युम्नकुमार, अनिरुद्ध लही पदमुक्ति धार.
पुनि राजुल हू परिवार छांड, मन वचन काय कर जोग मांड;
तप तप्यौ जाय तिय धीर वीर, सन्यास धार तजकें शरीर.
स्त्री लिंग छेद सुर भयो जाय, आगामी भवमें मुक्ति पाय;
तहं अमरगण उर धर अनंद, नितप्रति पूजन है श्रीजिनंद.
अरु निरतत मघवा युक्तनार, देवनकी देवी भक्तिधार;
ता थेई थेई थेई थेई करन जाय, फिरि फिरि फिरि फिरि फिरकी लहाय.
मुहचंग बजावत तारबीन, तननन तननन तन अति प्रवीन;
करताल ताल मिरदंग और, झालर घंटादिक अमित शोर. १०
आवत श्रावकजन सर्व ठाम, बहु देश देश पुर नगर ग्राम;
हिलमिल सब संघ समाज जोर, हय गय बाहन चढ रथ बहोर. ११
इन्द्र

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जात्रा उत्सव निशिदिन कराय, नर नारिउ पावत पुण्य आय;
को बरनत तिस महिमा अनूप, निश्चय सुर शिव के होय भूप. १२
श्री जिनेन्द्रस्तवन
हो दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी,
यह मेरी विथा क्यों न हरो बार क्या लगी. टेक
मालिक हो दो जहानके जिनराज आपही,
एवो हुनर हमारा कुछ तुमसे छिपा नहीं;
बेजानमें गुनाह मुझसे बन गया सही,
ककरीके चोरको कटार मारिये नहीं.......हो०
दुखदर्द दिलका आपसे जिसने कहा सही,
मुश्किल कहर बहरसे लिया है भुजा गही;
जस वेद और पुरानमें प्रमान है यही,
आनंदकंद श्रीजिनंद देव है तुही.....हो०
हाथीपै चढी जाती थी सुलोचना सती,
गंगामें ग्राहने गही गजराजकी गती;
उस वक्तमें पुकार किया था तुम्हें सती,
भय टारके उबार लिया हे कृपापती.....हो०

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पावक प्रचंड कुंडमें उमंड जब रहा,
सीतासे शपथ लेनेको तब रामने कहा;
तुम ध्यान धारी जानकी पग धारती तहां,
तत्काल ही सर स्वच्छ हुआ कौल लहलहां....हो०
जब चीर द्रौपदीका दुःशासन्ने था गहा,
सबही सभाके लोग थे कहते हहा हहा;
उस वक्त भीर पीरमें तुमने करी सहा,
परदा ढका सतीका सुजस जक्तमें रहा......हो०
श्रीपालको सागरविषै जब सेठ गिराया,
उनकी रमासे रमनेको आया वो बेहया;
उस वक्तके संकटमें सती तुमको जो ध्याया,
दुखदंदफंद मेटके आनंद बढाया.....हो०
हरिषेनकी माताको जहां सौत सताया,
रथ जैनका तेरा चलै पीछे यों बताया;
उस वक्तके अनसनमें सती तुमको जो ध्याया,
चक्रीस हो सुत उसकेने रथ जैन चलाया.....हो०
सम्यक्त शुद्ध शीलवती चंदना सती,
जिसके नगीच लगतीथी जाहिर रती रती;
बेरीमें परी थी तुम्हें जब ध्यावती हती,
तब वीर धीरने हरी दुःखदंदकी गती.....हो०
जब अंजना सतीको हुआ गर्भ उजारा,
तब सासने कलंक लगा घरसे निकारा;

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वनवर्गके उपसर्गमें तब तुमको चितारा,
प्रभुभक्त व्यक्त जानिके भय देव निवारा...हो०
सोमासे कहा जो तु सती शील विशाला,
तो कुंभतैं निकाल भला नाग जु काला;
उस वक्त तुम्हें ध्यायके सति हाथ जब डाला,
तत्काळ ही वह नाग हुआ फूलकी माला.....हो० १०
जब कुष्ट रोग था हुआ श्रीपालराजको,
मैना सती तब आपको पूजा इलाजको;
तत्काल ही सुंदर किया श्रीपाल राजको,
वह राजरोग भाग गया मुक्त राजको....हो० ११
जब सेठ सुदर्शनको मृषा दोष लगाया;
रानीके कहे भूपने सूलीपै चढाया;
उस वक्त तुम्हें सेठने निज ध्यानमें ध्याया,
सूलीसे उतार उस्को सिंहासनपै बिठाया.......हो० १२
जब सेठ सुधन्नाजीको वापीमें गिराया,
ऊपरसे दुष्ट फिर उसे वह मारने आया;
उस वक्त तुम्हें सेठने दिल अपनेमें ध्याया,
तत्काल ही जंजालसे तब उस्को बचाया.....हो० १३
इक सेठके घरमें किया दारिद्रने डेरा,
भोजनका ठिकाना भि न था सांझ सवेरा;

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उस वक्त तुम्हें सेठने जब ध्यान में घेरा,
घर उसकेमें तब कर दिया लक्ष्मीका बसेरा....हो० १४
बलि वादमें मुनिराज सों जब पार ना पाया,
तब रातको तलवार ले शठ मारने आया;
मुनिराजने निजध्यानमें मन लीन लगाया,
उस वक्त हो प्रत्यक्ष तहां देव बचाया......हो० १५
जब रामने हनुमंतको गढलंक पठाया,
सीताकी खबर लेनेको सह सैन्य सिधाया;
मग बीच दो मुनिराजकी लख आगमें काया,
झट वारि मूसलधारसे उपसर्ग बुझाया......हो० १६
जिननाथहीको माथ नवाता था उदारा,
घेरेमें पडा था वह कुलिशकरण बिचारा;
उस वक्त तुम्हें प्रेमसे संकटमें चितारा,
रघुवीरने सब पीर तहां तुरत निवारा....हो० १७
रणपाल कुंवरके पडीथी पांवमें बेरी,
उस वक्त तुम्हें ध्यानमें ध्याया था सबेरी;
तत्काल ही सुकुमालकी सब झड पडी बेरी,
तुम राजकुंवरकी सभी दुखदंद निवेरी.......हो० १८
जब सेठके नंदनको डसा नाग जु कारा,
उस वक्त तुम्हें पीरमें धर धीर पुकारा;
तत्काल ही उस बालका विष भूरि उतारा,
वह जाग उठा सोके मानों सेज सकारा.......हो० १९

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मुनि मानतुंगको दई जब भूपने पीरा,
तालेमें किया बंद भरी लोहजंजीरा;
मुनिइशने आदीशकी थुति की है गंभीरा,
चक्रेश्वरी तब आनिके झट दूर की पीरा....हो० २०
शिवकोटिने हट था किया सामंतभद्रसों,
शिवपिंडकी बंदन करौ शंकों अभद्रसों;
उस वक्त स्वयंभू रचा गुरु भावभद्रसों,
जिनचंद्रकी प्रतिमा तहां प्रगटी सुभद्रसों.....हो० २१
सूवेने तुम्हें आनिके फल आम चढाया,
मेंढक ले चला फूल भरा भक्तिका भाया;
तुम दोनों को अभिराम स्वर्गधाम बसाया,
हम आपसे दातारको लख आज ही पाया....हो० २२
कपि स्वान सिंह नेवला अज बैल बिचारे,
तिर्यंच जिन्हें रंच न था बोध चितारे;
इत्यादिको सुरधाम दे शिवधाममें धारे,
हम आपसे दातारको प्रभु आज निहारे.....हो० २३
तुम ही अनंत जंतुका भय भीर निवारा,
वेदोपुराणमें गुरु गणधरने उचारा;
हम आपकी सरनागतिमें आके पुकारा,
तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष इच्छिताकारा....हो० २४
प्रभु भक्त व्यक्त भक्त जक्त मुक्तके दानी,
आनंद कंद वृंदको हो मुक्त के दानी;

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मोहि दीन जान दीनबंधु पातक भानी,
संसार विषम खार तार अंतरजामी.....हो० २५
करुणानिधान बानको अब क्यों न निहारो,
दानी अनंत दानके दाता हो संभारो;
वृषचंदनंद वृंदका उपसर्ग निवारो,
संसार विषम खारसे प्रभु पार उतारो;
हो दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी,
यह मेरी विथा कयों न हरो बार क्या लगी...हो० २६
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(मेरी भावनाराग)
देखोजी सीमंधरस्वामी, कैसा ध्यान लगाया है,
कर उपर कर सुभग विराजे, आसन थिर ठहराया है. देखोजी० टेक
जगतविभूति भूतिसम
तजकर, निजानंदपद ध्याया है;
सुरभित श्वासा आशावासा, नासाद्रष्टि सुहाया है. देखोजी०
कंचन वरन चलै मन रंच न, सुरगिरि ज्यों थिर थाया है;
जासपास अहि मोर मृगी हरि, जाति विरोध नशाया है. देखोजी०
सुध उपयोग हुतासनमें जिन, वसुविधि समिध जलाया है;
श्यामलि अलिकावलि सिर सोहै, मानों धूआं उडाया है. देखोजी०
१. भस्म समान. २. दिशारूपी वस्त्रदिगंबरपणुं.
३. सुमेरु पर्वत. ४. सिंह

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जीवन मरन अलाभ लाभ जिन, सबको नाश बनाया है,
सुरनरनाग नमहिं पद जाके, ‘दौल’ तास जस गाया है. देखोजी०
श्री जिनस्तवन
(मेरी भावनाराग)
श्री अरिहंत छबि लखि हिरदै,
आनंद अनूपम छाया है; श्री अरहंत० टेक.
वीतराग मुद्रा हितकारी,
आसन पद्म लगाया है;
द्रष्टि नासिका अग्रधार मनु,
ध्यान महान बढाया है. श्री अरिहंत०
रूप सुधाधर अंजुलि भरभर,
पीवत अति सुख पाया है;
तारन तरन जगतहितकारी,
विरद शचीपति गाया है. श्री अरहंत०
तुम मुखचंद्र नयनके मारग,
हिरदैमांहि समाया है;
भ्रमतम दुख आताप नस्यो सब,
सुखसागर बढि आया है. श्री अरहंत०
प्रगटी उर संतोषचंद्रिका,
निजस्वरूप दरशाया है;

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धन्य धन्य तुम छबी ‘जिनेश्वर’,
देखत ही सुखपाया है. श्री अरहंत०
श्री जिनस्तवन
(मेरी भावनाराग)
जयवंतो जिनबिंब जगतमें,
जिन देखत निज पाया है; जयवंतो० टेक.
वीतरागता लखि प्रभुजीकी,
विषयदाह विनशाया है;
प्रगट भयो संतोष महागुण,
मन थिरतामें आया है. जयवंतो०
अतिशय ज्ञान शरासनपै धरि,
शुक्लध्यान शर बाया है;
हानि मोह अरि चंड चौकडी,
ज्ञानादिक उपजाया है. जयवंतो०
वसुविधि अरि हरिकर शिवथानक,
थिरस्वरूप ठहराया है;
सो स्वरूप रुचि स्वयंसिद्ध प्रभु,
ज्ञानरूप मन भाया है. जयवंतो०
यदपि अचेत तदपि चेतनको,
चितस्वरूप दिखलाया है;
१. फेंका है.

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कृत्यकृत्य ‘जिनेश्वर’ प्रतिमा,
पूजनीय गुरु गाया है. जयवंतो०
श्री जिनस्तवन
(आशावरीराग)
आज मैं परम पदारथ पायो,
प्रभुचरनन चित लायो. आज मैं० टेक
अशुभ गये शुभ प्रगट भए हैं,
सहज कल्पतरु छायो. आज०
ज्ञान शक्ति तप ऐसी जाकी,
चेतन-पद दरसायो. आज मैं०
अष्ट कर्मरिपु जोधा जीते,
शिवअंकूर जमायो. आज०
श्री जिनस्तवन
(मेरी भावनाराग)
हे जिन तेरो सुजस उजागर,
गावत हैं मुनिजन ज्ञानी. हे जिन० टेक
दुर्जय मोह-महा-भट जानै,
निज-बस कीने जगप्रानी;
सो तुम ध्यानकृपान पानिगहि;
ततछिन ताकी थिति भानी. हे जिन०

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सुप्त अनादि-अविद्या-निद्रा,
जिन जन निजसुधि विसरानी;
ह्वै सचेत तिनि निजनिधि पाई,
श्रवन सुनी जब तुम वानी. हे जिन०
मंगलमय तु जगमें उत्तम,
तुही सरन शिवमगदानी;
तुम-पद-सेवा परम औषधी,
जन्मजरामृत-गद-हानी. हे जिन०
तुमरे पंचकल्याणकमाहीं,
त्रिभुवन-मोद-दशा ठानी;
विष्णु विदांवर जिष्णु दिगंबर बुध शिव,
कहि ध्यावत ध्यानी. हे जिन०
सर्व-दर्व-गुन-परजय-परनति,
तुम सुबोधमैं नहि छानी;
तातैं दौलदास उरआशा,
प्रगट करो निजरससानी. है जिन०
श्री जिनराजस्तवन
(आशावरीराग)
प्रभु तोरी अब ही महिमा जानी; प्रभु तोरी० टेक०
अबलों मोहमहामद पिय मैं, तुमरी सुध विसरानी;
भागजोग तुम शांति छबी लखि, जडतानींद बिलानी. प्रभु०
१. जन्मजरामरनरूपी रोग.

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जग-विजयी दुखदाय रागरुष, तुम तिनकी थिति भानी;
शांतिसुधासागर गुनआगर, परम विराग विज्ञानी. प्रभु०
समवसरन अतिशय कमलाजुत, पै निरग्रंथ निदानी;
कोह विना दुठ मोह विदारक, त्रिभुवनपूज्य अमानी. प्रभु०
एकस्वरूप सकलज्ञेयाकृत, जगउदास जगज्ञानी;
शत्रुमित्र सबमैं तुम सम हो, जो दुखसुखफलथानी. प्रभु०
परम ब्रह्मचारी ह्वै प्यारी, तुम हेरी शिवरानी;
ह्वै कृतकृत्य तदपि तुम शिवमग, उपदेशकअगवानी. प्रभु०
भई कृपा तुमरी तुममैं यह, भक्ति सु मुक्तिनिशानी;
ह्वै दयाल अब देहु दौलको, जो तुमने कृति ठानी. प्रभु०
श्री जिनस्तवन
(मेरी भावनाराग)
प्रभूपै यह वरदान सुपाऊं, फिर जगकीच बीच नहिं आऊं टेक.
जल गंधाक्षत पुष्प सु मोदक, दीप धूप फल सुंदर ल्याऊं;
आनंदजनक-कनक-भाजनधरि, अर्घ अनर्घ बनाय चढाऊं.
प्रभूपै० १
आगमके अभ्यासमांहिं पुनि, चित एकाग्र सदीन लगाऊं;
संतनिकी संगति तजिकै मैं, अंत कहू इक छिन नहिं जाऊं.
प्रभूपै० २.

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दोषवादमें मौन रहूं फिर, पुण्यपुरुषगुन निशदिन गाऊं;
राग द्वेष सबहीको टारी, वीतराग निज भाव बढाऊं.
प्रभूपै० ३.
बाहिजद्रष्टि खैंचके अंतर, परमानंद स्वरूप लखाऊं;
भागचंद शिव प्राप्त न जौलौं, तौलौं तुम चरणांबुज ध्याऊं.
प्रभपै० ४.
प्रार्थना
(चौपाई छंद)
हे जिनेश! जय त्रिभुवन स्वामी, करुणासागर अन्तर्यामी;
राग, द्वेष, मद, मोह विनाशक, निर्मळ ज्ञान विवेक प्रकाशक.
वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, हित उपदेशक नाथ शुभंकर;
गुण-रत्नाकर त्रिभुवनस्वामी, जन्म-जरा-मृत्यु रहित अकामी.
केवलज्ञान भानु उपजायो, लोक अलोक त्रिलोक जगायो;
दर्शन ज्ञान अनंत अखंडित, बल विक्रम अनंत सुख मंडित.
सरल शांत मुद्रा अति प्यारी, निर्मल प्रभा विलोक तुम्हारी;
चिर विस्मृत निज रूप निहारा, ज्ञानानन्द अनूपम धारा.
आप समान निजातम जाना, दर्श ज्ञान सुखमय निज माना;
नष्ट भयो अज्ञान अंधेरा, हट्यो मिथ्यात नृपतिका डेरा.
निर्मल ज्ञान जग्यो उर अंतर, आत्मस्वरूप पिछानो सुखकार;
प्रभो! दास पर करुणा कीजे, भक्ति चरणकमलोंकी दीजे.
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रहूं ध्यानमें मग्न निरंतर, प्रतिपल भक्ति रहे तुव द्रढतर;
बनूं धर्मवत्सल गुणधारी, इच्छा पूरो नाथ हमारी.
(दोहा)
सहस वदन करि त्रिदिवपति, गुण गण लह्यो न पार;
‘‘वत्सल’’ किमि वर्णन करहिं, धरहुं भक्ति अविकार.
दर्शनस्तोत्र
(मेरी भावनाराग)
अहा! प्रभो! अवलोक आपको, नेत्र युगल मम सफल हुए;
मानव जन्म कृतार्थ हुआ यह, अक्षय सुख संपन्न हुए.
हे जिनेन्द्र! तव विमल दर्शसे, दुस्तर भवसागर गंभीर;
मानो पार हुआ क्षणभरमें, पहुंच गया हूं उसके तीर.
हे जिनवर! तव दर्श-नीरसे, पावन मैंने गात्र किया;
निर्मल द्रष्टि हुई अब मेरी, धर्मतीर्थ स्नान किया.
प्रभो! आपके शुभ दर्शनसे, जीवन सफल हुआ मेरा;
भवदधि शीघ्र तिरा मैं मानो, किया मंगलोंने डेरा.
हुई कषाएं क्षीण, अष्ट कर्मोंकी ज्वाला हुई शमन;
दुर्गति द्वार हटा मेरा, जब किया आपका शुभ दर्शन.
सब कठोर गृह शांत हुए, शुभ पुण्यफलोंने किया निवास;
विघ्न जाल सब नष्ट हुए, प्रभु-दर्शन जब कीना सुखरास.