Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 242-245 ; Gatha: 414.

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(वियोगिनी)
व्यवहारविमूढद्रष्टयः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः ।
तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम्।। २४२।।
(स्वागता)
द्रव्यलिङ्गममकारमीलितै–
र्द्रश्यते समयसार एव न
द्रव्यलिङ्गमिह यत्किलान्यतो
ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः।।
२४३।।

श्लोकार्थः– [व्यवहार–विमूढ–द्रष्टयः जनाः परमार्थ नो कलयन्ति] व्यवहारमां ज जेमनी द्रष्टि (-बुद्धि) मोहित छे एवा पुरुषो परमार्थने जाणता नथी, [इह तुष–बोध– विमुग्ध–बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम्] जेम जगतमां तुषना ज्ञानमां ज जेमनी बुद्धि मोहित छे (-मोह पामी छे) एवा पुरुषो तुषने ज जाणे छे, तंडुलने जाणता नथी.

भावार्थः– जेओ फोतरांमां मुग्ध थई रह्या छे, फोतरांने ज कूटया करे छे, तेमणे तंडुलने जाण्या ज नथी; तेवी रीते जेओ द्रव्यलिंग आदि व्यवहारमां मुग्ध थई रह्या छे (अर्थात् शरीरादिनी क्रियामां ममत्व कर्या करे छे), तेमणे शुद्धात्मअनुभवनरूप परमार्थने जाण्यो ज नथी; अर्थात् एवा जीवो शरीरादि परद्रव्यने ज आत्मा जाणे छे, परमार्थ आत्मानुं स्वरूप तेओ जाणता ज नथी. २४२.

हवे आगळनी गाथानी सूचनारूपे काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः–

[द्रव्यलिङ्ग–ममकार–मीलितैः समयसारः एव न द्रश्यते] जेओ

द्रव्यलिंगमां ममकार वडे अंध-विवेकरहित छे, तेओ समयसारने ज देखता नथी; [यत् इह द्रव्यलिङ्गम् किल अन्यतः] कारण के आ जगतमां द्रव्यलिंग तो खरेखर अन्यद्रव्यथी थाय छे, [इदम् ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः] आ ज्ञान ज एक पोताथी (आत्मद्रव्यथी) थाय छे.

भावार्थः– जेओ द्रव्यलिंगमां ममत्व वडे अंध छे तेमने शुद्धात्मद्रव्यनो अनुभव ज नथी, कारण के तेओ व्यवहारने ज परमार्थ मानता होवाथी परद्रव्यने ज आत्मद्रव्य माने छे. २४३.

*

________________________________________ १. तुष = डांगरनां फोतरां; अनाजनां फोतरां. २. तंडुल = फोतरां विनाना चोखा; फोतरां विनानुं अनाज.


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समयसार गाथा ४१३ः मथाळुं

हवे आ अर्थनी गाथा कहे छेः-

* गाथा ४१३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेओ खरेखर “हुं श्रमण छुं, हुं श्रमणोपासक (-श्रावक) छुं” एम द्रव्यलिंगमां ममकार वडे मिथ्या अहंकार करे छे, तेओ अनादिरूढ (अनादिकाळथी चाल्या आवेला) व्यवहारमां मूढ (मोही) वर्तता थका......’

अहा! कोई नग्न दिगंबर मुनिलिंग धारे, पंचमहाव्रतादि क्रियाओ पाळे अने ते वडे द्रव्यलिंगमां ममत्व करी मिथ्या अहंकार करे के-हुं श्रमण छुं, मुनि छुं तो अहीं कहे छे के ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे, बहु आकरी वात बापा! पण आ हितनी वात छे प्रभु! तने खबर नथी पण वीतरागनो मार्ग तो चैतन्यना वीतरागी परिणामथी उत्पन्न थाय छे, रागथी उत्पन्न थतो नथी. पंचमहाव्रत आदि जेवां भगवाने कह्यां छे तेवां चोकखां पाळे तोय ए राग ज छे, धर्म नहि. ए राग वडे तुं माने के हुं साधु-मुनि थई गयो छुं पण ए तारो दुरभिनिवेश छे, मिथ्या मान्यता छे.

ते ज प्रमाणे कोई श्रावकनुं नाम धारण करी बार व्रत पाळे ने दया, दान, भक्ति-पूजा ईत्यादिमां प्रवर्ते अने ते वडे मिथ्या अहंकार करे के हुं श्रावक छुं तो तेने पण आत्मानी खबर नथी. ते पण मूढ अज्ञानी ज छे. आज कारतकी पूनम छे ने! हजारो माणसो शत्रुंजयनी जात्राए जशे. त्यां जो रागनी मंदता थाय तो पुण्यबंध थशे, पण धर्म नहि. तेमां धर्म माने ए तो नरी मूढता छे भाई! अरे! श्रावक कोने कहीए? जेने स्वपरनो अंतर-विवेक जाग्यो होय अने जे रागथी छूटो पडी स्वरूपमां रमे तेने श्रावक कहीए. अने मुनिदशा तो एथीय अधिक ऊंची प्रचुर आनंदनी दशा छे.

अहाहा.....! भगवान आत्मा अनाकुळ आनंदरसनो-चैतन्यरसनो कंद प्रभु छे. अंतर्मुख थई तेने जाणतो-अनुभवतो नथी अने व्यवहार क्रियाकांडमां पोतानुं हित माने छे, तेमां धर्म अने मुनिपणुं -श्रावकपणुं माने छे ते अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ छे. शुभभावनो आवो व्यवहार तो अनादिथी चाल्यो आवे छे, अनंतवार कर्यो छे. अहा! नवमी ग्रैवेयकना स्वर्गमां जाय एवा शुभभाव अत्यारे तो छे नहि, पण एवा शुभभाव पण एणे अनंतवार कर्या छे. एमां नवुं शुं छे? शुभ-अशुभ भाव तो निगोदना जीव पण निरंतर करे छे. आ लसण-डुंगळी नथी आवतां? तेनी राई जेटली एक कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर छे, अने एक शरीरमां अनंता निगोदना जीव छे. सर्वज्ञ परमेश्वरे ज्ञानमां आ जोया छे. अहा! ते निगोदना जीवोने पण क्षणमां


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नियमसारमां कळश (१२१) मां कह्युं छे के- जे मोक्षनुं कथनमात्र कारण छे एवा व्यवहाररत्नत्रयने भवसागरमां डूबेला जीवे पूर्वे भवभवमां सांभळ्‌युं छे अने आचर्युं छे; परंतु अरेरे! खेद छे के जे सर्वदा एक ज्ञान छे तेने जीवे सांभळ्‌युं-आचर्युं नथी. भाई! स्वभावना भान विना व्यवहारना क्रियाकांड तो एणे अनंतवार कर्या छे. पण एथी शुं? ए बधा फोगट ज छे. (एनाथी स्वरूपप्राप्ति थती नथी).

ए ज विशेष कहे छे- ‘...... तेओ अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ वर्तता थका, प्रौढ विवेकवाळा निश्चय (- निश्चयनय) पर अनारूढ वर्तता थका, परमार्थसत्य (-जे परमार्थे सत्यार्थ छे एवा) भगवान समयसारने देखता-अनुभवता नथी.’

पापना परिणाम तो दुर्गतिनुं कारण छे, ने पुण्यना परिणामथी स्वर्गादि मळे छे तेय दुर्गति छे, केमके एनाथी-आत्मानो धर्म -मळतो नथी. वळी शुभभावने हितरूप माने ए तो मिथ्यात्व छे, ते अनंत संसारनुं मूळ छे. भाई! मिथ्यात्वनो अंश पण बुरो छे. अज्ञानी जीवो अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ रहीने प्रौढ विवेकयुक्त निश्चय पर अनारूढ वर्ते छे, ओहो! रागनी क्रियाथी शुद्ध चैतन्य तत्त्व अंदर भिन्न छे एवा प्रौढ विवेकवाळा निश्चय पर अज्ञानी आरूढ थतो नथी. अहा! रागना-व्यवहारना घोडे चढीने अज्ञानी चतुर्गतिमां भमे छे, रखडे छे, तेने प्रौढ विवेकयुक्त निश्चय प्रगटतो नथी. भाई! आ बधुं अत्यारे समजवुं पडशे हों. बाकी अहीं मोटा करोडपति शेठिया होय तोय मरीने क्यांय पशुगतिमां चाल्या जशे.

शुं थाय? मांस-दारू ईत्यादिनो खोराक नथी एटले नरके न जाय, वळी स्वाध्याय, दान, भक्ति आदि शुभभावनांय ठेकाणां नथी एटले स्वर्ग के मनुष्यगतिमां पण न जाय, एटले तीव्र लोलुपतावाळा जीवो अनेक प्रकारना मायाचार वडे मरीने तिर्यंचमा-पशुगतिमां ज जाय. अहर्निश रळवा-कमावामां ने ईन्द्रियना विषयमां वखत वीतावे ते जीवो मिथ्याभावने सेवता थका क्यांय चाल्या जाय छे. अहीं कहे छे-अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ एवा जीवो निजस्वभावमां अनारूढ वर्तता थका परमार्थ सत्य भगवान समयसारने देखता-अनुभवता नथी, अर्थात् चार गतिमां ज रखडे ज छे. समजाणुं कांई...?

अरे भाई! शुक्ललेश्या पर्यंतना शुभभाव तो अभविने पण थाय छे. पण


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एनाथी सहित ते दुःखी ज छे. शुं थाय? अनादिथी अज्ञानी जीवोने आ हठ छे के आ दया, दान, व्रत, भक्ति आदि व्यवहारना भावोथी मुक्ति थशे. ते व्यवहारना-रागना घोडे आरूढ थयो छे, रागमां आरूढ थयेलो ते निजचैतन्यपद पर अनारूढ छे. अहा! आवा व्यवहार-विमूढ जीवो, अहीं कहे छे, परमार्थ सत्य भगवान समयसारने देखता नथी. अनुभवता नथी.

प्रश्नः– तो धर्मी ने -श्रावक अने मुनिने-व्रतादिनो शुभराग तो होय छे? समाधानः– हा, होय छे; धर्मीने ते पूर्णपणे स्वभाव पर आरूढ न थाय त्यां सुधी यथासंभव व्रतादिनो शुभराग होय छे, पण तेने ते सत्यार्थ मोक्षमार्ग जाणता नथी. ते आदरणीय छे एम ते मानता नथी. भाई! जे शुभराग आवे छे तेने तुं व्यवहार तरीके बस जाण, पण तेनाथी पोतानुं कल्याण थाय एम मानवुं छोडी दे.

व्यवहार मोक्षमार्ग छे एम व्यवहारथी स्थापन करवामां आव्युं छे, परंतु ते साचो मोक्षमार्ग क्यां छे? वास्तवमां तो ते राग ज होवाथी बंधनना कारणरूप छे. ते शुभभाव साधकदशामां आवे छे तेने जाणवो जोईए, परंतु एनाथी जीवनुं कल्याण थाय एम मानवानुं छोडी देवुं जोईए. अज्ञानी तो दया, दान, व्रत आदिनो शुभभाव ज मारुं सर्वस्व छे एम तेमां मूढ थई गयो छे. अहा! प्रौढ विवेकथी प्राप्त थवा-योग्य शुद्ध निश्चय निज चैतन्यपद पर ते अनारूढ वर्ततो थको निज समयसारने प्राप्त थतो नथी- अनुभवतो नथी. आवी वात! समजाणुं कांई......?

व्यवहार समकितीने होय छे, अवश्य होय छे, परंतु तेमां ते आरूढ नथी, ते तो शुद्ध एक निज चैतन्यपद पर आरूढ छे. व्यवहार छे-एम बस धर्मी तेनो जाणनार अने देखनार छे, एनाथी मारुं भलुं थशे एम ते व्यवहारमां मोहित-मूढ नथी. भाई! धर्मीने शुभभाव आवे छे एटली मर्यादा छे, परंतु ए कांई एना कल्याणनुं कारण नथी.

अहो! वीतरागी संतो-केवळीना केडायतीओ भगवानना आडतिया थईने आ माल जगतने जाहेर करे छे. भाई! तारुं चैतन्यपद ज्ञान अने आनंदना स्वभावथी पूरण भरेलुं छे. तेना पर आरूढ था तो तने निराकुळ आनंदनी प्राप्ति थशे. जेओ निज चैतन्यपद पर अनारूढ वर्तता थका व्यवहारमां मूढ थई प्रवर्ते छे तेओ चार गतिना परिभ्रमणना कारणमां-मार्गमां पडेला छे. प्रवचनसारमां कह्युं छे के-शुभ के अशुभमां- बन्नेमां कांई तफावत नथी एम जेओ मानता नथी तेओ मोहथी मूर्छित थया थका अपार घोर संसारसागरमां डूबेला छे. भाई! शुभ-अशुभ बन्नेय जगपंथ छे.

हा, पण अमे निवृत्ति लई ब्रह्मचर्यथी रहीए छीए ने?


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ब्रह्मचर्य कोने कहीए बापु? ब्रह्म नाम आत्मा शुद्ध चिदानंद चैतन्यचिंतामणि प्रभुने चर्य नाम चरवुं; शुद्ध चैतन्यमां चरवुं तेनुं नाम ब्रह्मचर्य छे. शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळवानो विकल्प ए तो शुभभाव छे, एनाथी पुण्य बंधाय, धर्म न थाय. एनाथी धर्म थवानुं माने ए तो मिथ्यात्वनुं महापाप छे. अरे! आवा मिथ्यात्वने सेवीने तो भगवान तुं रझळी मर्यो छे.

अरे! कदीक ए अनेक प्रकारनी सांसारिक चिंताओथी, कुटुंब-परिवार आदिथी निवृत्त थयो तो शुभभाव ने शुभभावना निमित्तोने चोंटी पडयो, एनाथी ज मारुं कल्याण थशे एम मानवा लाग्यो. पण भाई रे! मोक्षपाहुडमां भगवान कुंदकुंदाचार्य फरमावे छे के- ‘पर दव्वादो दुग्गइ’ परमानंदमय निज चैतन्यप्रभु छे तेने छोडीने जेटलुं परद्रव्य-कुंटुंब-परिवार के देव-गुरु-शास्त्र प्रति लक्ष जाय ते बधोय राग दुर्गति छे, ते आत्मानी-चैतन्यनी गति नथी. शुभभावथी स्वर्गगति मळे, पण ते दुर्गति छे. जेनाथी गति मळे ते भाव दुर्गति छे ने ते गति दुर्गति छे. अहाहा....! भगवान कहे छे- अमे तारा माटे परद्रव्य छीए. अमारा लक्षे तने राग थशे. स्वरूपमां रमवुं छोडीने तुं अमारुं लक्ष करे ते दुर्गति छे.

आ नग्नदशा, पंचमहाव्रतनुं पालन, २८ मूळगुणनी क्रिया-आवी क्रिया बधी शुभभाव छे. एमां कोई माने के -आ मारो धर्म ने आ मारुं मुनिपणुं तेने संतो कहे छे- प्रभु! तुं एकवार सांभळ. बापु! तुं बीजे अवळे पाटे चढी गयो छे. मोक्षमार्गनो- आत्माना हितनो -आ मार्ग नथी. अहीं त्रण बोल कह्या छेः अनादिरूढ, व्यवहारमूढ, ने निश्चय स्वभावमां अनारूढ. अहो! आ तो गाथामां एकलुं माखण भर्युं छे. कोई भाग्यवंतने प्राप्त थशे. कह्युं छे ने के-

गगनमंडळमां गौआ विहाणी,
वसुधा दूध जमाया;
माखण था सो तो वीरलाने पाया,
जग छाशे भरमाया--संतो........

अहा! अंतरीक्षमां भगवान बिराजे त्यांथी ॐध्वनिना धोध छूटया. भव्योना कान पर वाणी पडी, ते वाणीमांथी चैतन्यतत्त्वरूप माखण नीकळ्‌युं. ते कोई विरल भाग्यवंतने प्राप्त थयुं अने जगत तो व्यवहारनी छाशमां ज भरमाई गया, राजी.... राजी....थई गया. भाई! महाव्रतादिना परिणाम ए तो छाश एटले कांई नथी. भाई! तने खबर नथी पण ए रागथी आत्मप्राप्ति नहि थाय. आवो मारग प्रभु! एमां तुं शत्रुंजय ने सम्मेदशिखरनी जात्रा करीने मानी ले के मने धर्म थयो, पण धूळेय धर्म नहि थाय सांभळने. धर्म तो कोई जुदी अंतरनी अलौकिक चीज छे बापु!


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तो पूजामां तो एम आवे छे के-

एकवार वंदे जो कोई, ताको नरक-पशुगति ना होई.

भाई! ए तो जात्रामां विशेष भक्तिना शुभभाव होय तो कदाचित् स्वर्गे जाय, पण आत्मदर्शन विना त्यांथी नीकळीने क्यां जाय? क्रमे करीने नरक-तिर्यंचमां जाय. अहीं तो भवना अभावनी वात छे, ने ए शुभभावमां भवनो अभाव करवानुं सामर्थ्य नथी. स्वस्वरूपनो अनुभव कर्या विना शुभाशुभ थया ज करशे अने तेने चोराशीनुं परिभ्रमण फळ्‌या ज करशे. आवी वात! समजाणुं कांई...?

अहो! संतोने अंदरमां अतीन्द्रिय आनंदरसना प्याला फाटया छे. कहे छे- अतीन्द्रिय रसना वेदन-संवेदन विना मात्र क्रियाकांड वडे अने बाह्य वेश वडे कोई माने हुं श्रमण-श्रावक छुं तो ते जूठा छे; व्यवहारविमूढ अने निश्चय-अनारूढ तेओ परमार्थ पदने-चैतन्यपदने पामता नथी-अनुभवता नथी.

अहो! आ समयसार शास्त्र सं. १९७८ मां हाथमां आव्युं त्यारथी लाग्युं के मार्ग बीजो छे, आ क्रियाकांड अने वेश ते मार्ग नथी. रागथी, भिन्न निज चैतन्यस्वरूप आत्मानो अनुभव करवो ते ज मोक्षनो उपाय अने ते ज धर्म छे; शुभभाव छोडी पापमां प्रवर्तवुं एम अहीं वात नथी, पण शुभभाव मोक्षनो उपाय नथी एम जाणी तेनुं लक्ष छोडी अंतर-स्वभावमां द्रष्टि करवी अने त्यां ज लीन थई प्रवर्तवुं बस ए ज उपाय छे.

* गाथा ४१३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अनादि काळनो परद्रव्यना संयोगथी थयेलो जे व्यवहार तेमां ज जे पुरुषो मूढ अर्थात् मोहित छे, तेओ एम माने छे के- “ आ बाह्य महाव्रतादिरूप भेख छे ते ज अमने मोक्ष प्राप्त करावशे,” परंतु जेनाथी भेदज्ञान थाय छे एवा निश्चयने तेओ जाणता नथी. आवा पुरुषो सत्यार्थ, परमार्थरूप, शुद्धज्ञानमय समयसारने देखता नथी.’

भगवान आत्मा त्रिकाळ शुद्ध एक ज्ञायकस्वरूप छे. आ बाह्य व्रतादिकना भेख ते एनुं स्वरूप नथी. ए तो बधा परद्रव्यना संयोगथी थयेला भाव छे. शुं कीधुं? आ पंचमहाव्रत, पांच समिति, त्रण गुप्ति, दया, दान, भक्ति, पूजा ईत्यादिना भाव -ए बधा परद्रव्यना संयोगथी थयेला संयोगी भाव छे. ए परद्रव्यना संयोगथी थयेलो जे व्यवहार तेमां ज जे पुरुषो मूढ छे, मोहित छे तेओ माने छे के-आ बाह्य व्रतादिक भेख छे ते ज अमने मोक्ष प्राप्त करावशे, पण ते यथार्थ नथी; केमके ते भाव अबंध नथी, बंधरूप छे, दुःखरूप छे, वळी तेओ चैतन्यमय नथी, पण अचेतन छे. वळी जेनाथी भेदज्ञान थाय एवा निश्चयने तेओ जाणता नथी. तेथी व्यवहार विमूढ आवा पुरुषो शुद्धज्ञानमय भगवान समयसारने देखता नथी- अनुभवता नथी.


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अहो! अंदर वस्तु तो पोते त्रिकाळी एक ज्ञायक चैतन्यना आनंदनुं पूर प्रभु छे. अहा! आवी निज वस्तुनी अंतर्दष्टि वडे तेना आश्रये जे प्रचुर आनंदनी दशा प्रगट थाय ते मोक्षमार्ग छे, अने पूर्ण आनंदनी दशा प्रगट थाय ते मोक्ष छे. अरे! पण एणे अंदर नजर करी नथी, परद्रव्यना आश्रये परिणम्या करे छे. त्यां अव्रतना परिणाम थाय ते पाप छे, ने व्रतना परिणाम थाय ते पुण्य छे. त्यां पुण्यभावमां मोहित-मूर्छित थईने एनाथी मारो मोक्ष थशे एम ते माने छे. वळी भेदाभ्यास करीने जेनाथी भेदज्ञान थाय एवा निश्चयने ते जाणतो नथी. शुभभावना मोहपाशथी बंधायेला तेने निश्चय वस्तुने जाणवानी दरकार नथी. तेथी बहिरात्मद्रष्टि एवो ते सत्यार्थस्वरूप निज समयसारने पामतो नथी-अनुभवतो नथी.

अहा! रागनी-आस्रवनी क्रियाओ तो अनादिकाळथी जीव करतो आव्यो छे, अव्रतना पापभाव पण अनादिथी कर्या छे, ने व्रतना पुण्यभाव पण अनादिथी अनंतवार कर्या छे. तेमां नवुं शुं छे? ते सघळा-पुण्य अने पापना-विकारी संयोगीभाव बंधपद्धति छे, मोक्षपद्धति नथी. तेथी तो शुभभाव अनंतवार कर्या छतां चतुर्गति- परिभ्रमण उभुं छे, तेथी तो अनंतकाळथी तुं चोरासीना अवतारमां रझळी मर्यो छे. भाई! तुं आ व्यवहारना शुभभाव मने मोक्षनी प्राप्ति करावशे एम तुं माने छे पण तारी मान्यता बराबर नथी. तारी ए मान्यताए ज तने रझळावी मार्यो छे, पछी ते ठीक केम होय? माटे जो तने मोक्षनी ईच्छा छे तो अंतर्मुख द्रष्टि करी भेदज्ञान कर. अंतर्मुख द्रष्टि वडे ज भेदज्ञान थाय छे. भेदज्ञान वडे ज अंदर शुद्ध निश्चय परमार्थ वस्तु पोते छे तेनो अनुभव थाय छे. आनुं ज नाम धर्म ने आनुं ज नाम मोक्षनो उपाय छे. अनादिकाळनुं भवभ्रमण मटाडवानो आ ज एक उपाय छे.

आ सिवाय शुभरागनी क्रियाओमां धर्म माननारा व्यवहारमां विमोहित पुरुषो, अनेक प्रकारना क्रियाकांड आचरवा छतां शुद्धज्ञानमय निज समयसारने देखता नथी. अनुभवता नथी. आवी बहु चोक्खी वात छे.

*

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २४२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘व्यवहार–विमूढ–द्रष्टयः जनाः परमार्थ नो कलयन्ति’ व्यवहारमां ज जेमनी द्रष्टि (बुद्धि) मोहित छे एवा पुरुषो परमार्थने जाणता नथी, ‘इह तुष–बोध–विमुग्ध–बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम्’ जेम जगतमां तुषना ज्ञानमां ज जेमनी बुद्धि मोहित छे (-मोह पामी छे) एवा पुरुषो तुषने ज जाणे छे, तंडुलने जाणता नथी.

जुओ, आ संसारीओना लौकिक व्यवहारनी वात नथी. ए लौकिक व्यवहार तो


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एकलुं पाप छे. अहीं तो धर्मी पुरुषोने (सहकारी) बहारमां जे महाव्रतादिनो व्यवहार- राग होय छे एनी वात छे. कहे छे- धर्मना नामे महाव्रतादिनो जे व्यवहार तेमां जेनी बुद्धि मोहित छे ते पुरुषो परमार्थने जाणता नथी अर्थात् चैतन्यमूर्ति निज स्वरूपने तेओ ओळखता नथी. बिचारा व्यवहार क्रियाकांडना फंदमां फसाई गया छे तेओने निज स्वरूपना अनुभवना रसनो रसास्वाद प्राप्त थतो नथी. तेवा जीवो एम ने एम २००० कंईक अधिक सागरनी त्रसनी स्थिति पूरी करीने क्यांय एकेन्द्रियमां चाल्या जाय छे. त्रसमां-आ कागडा, कुतरा, कीडी, मकोडा ईत्यादि दशामां-रहेवानो उत्कृष्ट काळ २००० सागरोपम कांईक अधिक छे. आवो शास्त्रमां लेख छे. समजाणुं कांई....? दाखलो आपे छे. -

जेम जगतमां तुषना ज्ञानमां ज जेमनी बुद्धि मोहित छे एवा पुरुषो तुषने ज जाणे छे, तंडुलने जाणता नथी. आवे छे ने एमां -दोहा पाहुडमां-

‘पंडिय पंडिय पंडिय कण छोडि वितुस कंडिया’

हे पांडे! हे पांडे! हे पांडे! तुं कणने छोडी मात्र तुष ज खांडे छे. तुं परमार्थ जाणतो नथी माटे मूढ ज छे. अहा! जेओ परमार्थने जाणता नथी तेओ चावल (चोखा) छोडीने एकलां फोतरां-भूंसुं खांडे छे. एक बाई घेर डांगर खांडती हती. चावल (-कण) नीचे अने उपर फोतरां रहे. ते देखीने बीजी एक बाई फोतरां भेगां करीने खांडवा मंडी. तेने शुं खबर के एकलां फोतरां खांडवाथी कांई न मळे? तेथी कांई चावल मळे? न मळे.

तेम धर्मी पुरुषो-गणधरादि महा मुनिवरो अंतर्दष्टिना अनुभवमां पडया होय तेमने महाव्रतादिना विकल्पो साथे होय छे, ते फोतरां समान छे. तेने देखीने अज्ञानी महाव्रतादि धारण करी तेने धर्म मानी तेनुं ज आचरण कर्या करे छे. पण तेथी शुं लाभ? खरेखर ते तंडुल छोडीने तुषमां ज राजी थई गयो छे. पंचमहाव्रतादिना परिणाम तो फोतरां छे भाई! चैतन्यरसना कसथी भरेली चीज तो अंदर छे. ने ते स्वानुभवमां प्रगट थाय छे. अज्ञानी फोतरां समान महाव्रतादिमां मोहित -मुग्ध छे. ते गमे तेटलुं बहारनुं आचरण करवा छतां स्वस्वरूपने देखतो-पामतो नथी.

अरे! एणे अनंत वार दीक्षा ग्रहण करी ने अनंतवार पंचमहाव्रत पाळ्‌यां. पण एथी शुं? ए क्यां मोक्षमार्ग छे? व्यवहारमां मोहितबुद्धिवाळा जीव अंदर चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु छे तेने देखता-अनुभवता नथी.

* कळश २४२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जेओ फोतरांमां मुग्ध थई रह्या छे, फोतरांने ज कूटया करे छे, तेमणे तंडुलने जाण्या ज नथी; तेवी रीते जेओ द्रव्यलिंग आदि व्यवहारमां मुग्ध थई रह्या छे


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महाव्रतना परिणामने तत्त्वार्थ सूत्रमां आस्रव कह्या छे. ते भाव दुःख छे. मोक्ष अधिकारमां तेने विषकुंभ कहेलो छे. हिंसा, जूठ, चोरी इत्यादि पापना भाव तो महादुःखरूप छे, ए अति आकरा झेरनो घडो छे, परंतु महाव्रतादि शुभपरिणाम पण झेरनो घडो छे तेनाथी भिन्न अंदर चैतन्यघनस्वरूप आत्मा छे ते अमृतकुंभ छे. अतीन्द्रिय आनंदरसना रसिया रसिक पुरुषो तेने स्वानुभवनी धाराए पीवे छे, अनुभवे छे.

बेनश्रीमां (-वचनामृतमां) आवे छे के -“मुनिराज कहे छे- अमारो आत्मा अनंत गुणरसथी, अनंत अमृतरसथी भरेलो अक्षय घडो छे. ते घडामांथी पातळी धारे अल्प अमृतपीवाय एवा स्वसंवेदनथी अमने संतोष नथी. अमारे तो प्रत्येक समये पूरुं अमृत पीवाय एवी पूर्ण दशा जोईए छे.” अहो! केवुं अलौकिक चैतन्य द्रव्य अने केवी अलौकिक एनी पूरण व्यक्त दशा! ! ए पूरण दशामां सादि-अनंतकाळ प्रतिसमय पूरुं अमृत पीवाय छे अने घडोय सदा पूर्ण भरेलो ज रहे छे. अहा! जुओ आ मुनिराजनी भावना! अंदर प्रचुर आनंदने अनुभवे छे, पण धारावाही अतीन्द्रिय पूर्ण आनंद जोईए छे. अहा! आवी अलौकिक मुनिदशा छे. पण व्यवहारमां मुग्ध जीवोने अंतर- दशानी खबर नथी, बहारमां शरीरनी क्रियाने देखी शरीरनी क्रियामां ज ममत्व धारण करे छे. अरे! तेओने परमार्थस्वरूप निज शुद्ध तत्त्वनो अनुभव थतो नथी. जेम फोतरांने ज कूटया करे तेने तंडुलनी प्राप्ति थती नथी तेम परद्रव्यने ज आत्मा जाणी आचरण करे छे तेमने परमार्थस्वरूप भगवान आत्मानी प्राप्ति थती नथी. समजाणुं कांई...?

*

हवे आगळनी गाथानी सूचनारूपे काव्य कहे छेः-

* कळश २४३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘द्रव्यलिंग–ममकार–मीलितैः समयसारः एव न द्रश्यते’ जेओ द्रव्यलिंगमां ममकार वडे अंध-विवेकरहित छे, तेओ समयसारने ज देखता नथी; ‘यत् इह द्रव्यलिंगम् किल अन्यतः’ कारण के आ जगतमां द्रव्यलिंग तो खरेखर अन्य द्रव्यथी थाय छे, ‘इदम् ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः’ आ ज्ञान ज एक पोताथी (आत्मद्रव्यथी) थाय छे.

अहा! एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकने जाण्या ए भगवाननी ॐध्वनिमां सिंहनाद थयो के-भगवान! तुं निश्चये परमात्मस्वरूप छो, मारी जात ए ज तारी


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जात छे. हुं जेम सर्वज्ञरूपे थयो छुं तेम स्वभावे तारुं अंदर एवुं ज सर्वज्ञने सर्वदर्शी स्वरूप छे. आ दया, दान, व्रत, भक्ति ईत्यादि परिणाम तो राग छे, अन्यद्रव्य छे, तारुं स्वरूप नथी. आम छतां दया, दान, व्रत आदि परिणामथी धर्म थवानुं माने ते ओला बकरांना टोळामां भळी गयेलुं सिंहनुं बच्चुं पोताने बकरुं माने एना जेवा छे. अहा! द्रव्यलिंगना ममकार वडे तेओ विवेकरहित-अंध बनी गया छे. तेओ निज समयसारने ज देखता नथी, बकरांना टोळामां रहेलुं सिंहनुं बच्चुं माने के हुं बकरुं छुं एनी जेम द्रव्यलिंगमां ममकार करे ते मूढ छे.

अरे भाई! तुं कोण छो? भगवाननी ॐध्वनिमां गर्जना थई छे के-प्रभु तुं अनंत अनंत बेहद ज्ञान अने आनंदना स्वभावनो समुद्र छो, ने स्वसंवेद्य अर्थात् स्वसंवेदनमां जणाय एवो छो. भाई! तुं अन्यद्रव्यमय क्रियाकांडथी आत्मलाभ थवानुं माने ए तारुं अंधपणुं छे, विवेकरहितपणुं छे. बाह्यलिंगमां ममकार करनार निज आत्मस्वरूपने ज देखतो नथी. राग भगवान आत्माने स्पर्शतो ज नथी, छतां रागनी क्रियाथी लाभ थशे एम माननार अंध-विवेकरहित ज छे. अंध केम कह्यो? के ते पोताने ज भाळतो नथी.

हवे घणा बधा लोको तो अशुभमां-दुकान-धंधा, रळवुं-कमावुं ने ईन्द्रियना विषयनी प्रवृत्तिमां पडया छे. एमां तो भारे नुकशान छे भाई! आवी प्रवृत्तिथी झट विरक्त थई जा बापु! जुओ, आ बोटादना एक मुमुक्षुभाई! मुंबईमां मोटी दुकान-धंधो चाले. भाईओने कह्युं- भाई! मने मुक्त करो; मारे निवृत्ति लई स्वहित थाय एम करवुं छे. मोटो धंधो हों, लाखोनी पेदाश, नानी उंमर बेतालीसनी, पण कहे-मारे गुरुचरणमां रही मारुं हित करवुं छे, हवे मने धंधामां रस नथी; मारा भागे आवती रकममांथी मने चार आनी आपो, पण मारे निवृत्ति लेवी छे. जुओ, आ सत्समागम अने स्वहितनी जागृति! आ पैसावाळाओए दाखलो लेवा जेवो छे. भाई! बहारनी जंजाळमां शुं छे? अहीं विशेष एम कहे छे के-अंदर ज्ञान अने आनंदनुं धाम प्रभु आत्मा छे एनो विश्वास न मळे अने दया, दान, व्रत आदि क्रियाथी धर्म थशे एम माननार विवेकरहित अंध छे. शास्त्रमां तेमने ‘वराकाः’ रांक-बिचारा कह्या छे. अहा! द्रव्यलिंग छे ते अन्यद्रव्यथी निपजेला विकारी भाव छे, तेमां माने के ‘आ हुं’ ने ‘एनाथी मने लाभ’ ते अंध छे. आवी वात! भाई तने आकरी लागे पण आ ॐध्वनिमां आवेलो सत्य पोकार छे.

अरे भाई! आ देह तो छूटी जशे ने तुं क्यां जईश? शुं तारी तने कांई पडी नथी? आ वंटोळिये चढेलुं तरणुं उंचे चडीने क्यां जई पडशे-नक्की नहि तेम रागनी क्रिया मारी छे एवी मान्यतारूप मिथ्यात्वना वंटोळिये चढेलो जीव क्यांय जईने चार


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‘समयसार

एव न द्रश्यते’ तेओ समयसारने ज देखता नथी.

समयसार एटले शुं? अहाहा.....! शरीरथी, कर्मथी, रागथी रहित एकलुं चैतन्यनुं ध्रुव दळ -एनुं नाम समयसार छे. हवे रागने ज देखनार रागना रसिया राग विनाना भगवानने केम देखे? -देखतो नथी. थोडा शब्दे केटलुं भर्युं छे?

अरे! आ शेठिया बधा बहारनी धूमधाममां रोकाई गया छे. बिचाराओने आ बधुं विचारवानो वखत नथी. एमांय पांच-दस करोडनी पुंजी थई जाय एटले जोई ल्यो, जाणे हुं पहोळो ने शेरी सांकडी. अरे, पागल थयो छो के शुं? अंदर अनंती चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार भगवान समयसार छे तेने देखतो नथी अने विषयना-रागना रसमां चढी गयो छे? जाणे बकरांना टोळामां सिंह गरी गयो ने सिंहने थयुं के हुं बकरूं छुं! अरे, तुं बकरुं नथी भाई! तुं सिंह छो, अनंता वीर्यनो स्वामी भगवान चैतन्यसिंह छो. अंतर्द्रष्टिरूप गर्जना कर ने तने खात्री थशे. चैतन्यस्वभावनी समीप जई विश्वास कर, तने भगवानना भेटा थशे अर्थात् तुं पर्यायमां पूरण वीर्यनो स्वामी थईश.

हिंसादि पापना परिणाम तो दूर रह्या, अहीं कहे छे-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह ने ब्रह्मचर्य आ पांच व्रत चैतन्यस्वभावथी विपरीत भाव छे. आ पांचमां ममकार करी पोतानुं अस्तित्व माने ते निज-समयसारने जाणतो नथी, मानतो नथी. भगवान सर्वज्ञदेवनो आ पोकार छे. जेमां आनंदनो अनुभव थाय ते ‘मम’ (-मारुं, भोजन) छे. छोकरां मा ने कहे- ‘मम’ आप. अहीं संतो कहे छे- तारा नित्यानंदस्वभावनो अंतर्मुख थई अनुभव कर, ते तारुं ‘मम’ (स्व वा भोजन) छे. भाई! ए निराकुल आनंदनी अधुरी (-एकदेश) दशा ते साधन अने तेनी पूर्ण दशा ते साध्य छे. बधी रमत अंदर छे बापु! बहार तारे कांई ज संबंध नथी, रागना कणथीय नहि ने शरीरना रजकणथीय नहि; ए बधी रागनी ने शरीरनी क्रिया तो बहार ज छे. भाई! तुं रागनी क्रियामां अंजायो छे पण ए तारा चैतन्यने स्पर्शती ज नथी पछी एनाथी चैतन्यनी प्राप्ति केम थशे? रागनी क्रियामां अंजाई जाय तेने ‘समयसार’ जोतां आवडतुं नथी, ते भगवान समयसारने देखतो ज नथी.


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भगवान! तुं राग नहि हों! तुं ज्ञान अने आनंद स्वरूप छो. अंदर तारुं ध्रुव परमात्मस्वरूप छे तेना अस्तित्वने मानतो नथी ने तुं रागना छंदे (-कुछंदे) चढी गयो छो? अरे प्रभु! तुं शुं करे छे? आ व्रत ने तप ने पूजा ने भक्ति ईत्यादि करी करीने तुं धर्म माने छे पण बापु! ए धर्म नहि, ए स्वद्रव्य नहि, ए तो अन्यद्रव्य छे. तारुं स्वद्रव्य तो बेहद वीतरागस्वभावथी भरेलो आनंदकंद अनाकुळ शांतरस-चैतन्यरसनो पिंड छे. तेने ज अंतर्मुख थई जाणवो, मानवो-श्रद्धवो ने तेमां ज लीन थवुं ते धर्म छे, मोक्षमार्ग छे. अरे, तुं करवानुं करतो नथी, अने न करवानुं करवामां रोकाई गयो! तुं एकवार सांभळ तो खरो, अहीं आचार्यदेव शुं कहे छे? के जगतमां द्रव्यलिंग खरेखर अन्यद्रव्यथी थाय छे, आ ज्ञान ज एक पोताथी-आत्मद्रव्यथी थाय छे. भाई! तारे आत्मानी शांति खोवी होय, चारगतिमां रखडवुं होय तो रागना वाडे (-क्षेत्रमां) जा. कहेवत छे ने के- घो मरवानी थाय तो वाघरीवाडे जाय, तेम जेने जन्म-मरण ज करवां छे ते रागना वाडे जाय. आवी वात!

अहाहा....! भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. अहा! ए ज्ञाननुं ज्ञानस्वभावे थवुं ए ज्ञान ज एक आत्मद्रव्यथी थाय छे. ज्ञाननुं ज्ञान थवुं, ज्ञाननुं श्रद्धानभावे थवुं ने ज्ञाननी रमणता थवी-ए ज्ञान ज एक पोतानुं स्वरूप छे. अहा! ज्ञाननी ज्ञान-श्रद्धान- आचरणरूपे परिणति थवी ते एक ज साधन छे, तेनी पूर्णता ते तेनुं फळ छे. वच्चे व्यवहार-द्रव्यलिंग छे खरुं, पण ते साधन नथी. व्यवहार छे एम एनुं स्थापन छे, पण व्यवहार तरीके. व्यवहार जे वच्चे (-साधकदशामां) होय छे तेने जाणे-माने नहि तो ज्ञान मिथ्या छे, ने व्यवहारने वास्तविक साधन जाणे ने माने तो तेनुं श्रद्धान मिथ्या छे. व्यवहार वच्चे छे खरो, पण ते हेय छे, बंधननुं कारण छे. मुनिराज तेने हेयपणे ज जाणे छे, अने पुरुषार्थनी धारा उग्र करता थका तेने हेय (-अभावरूप) करता जाय छे. हवे जेनो अभाव करवो छे ते साधन केम होय? ते आदरणीय केम होय? भाई! व्यवहार छे-बस एटलुं राख. ते हितकर छे ए वात छोडी दे, एनाथी धर्म थाय ए वात जवा दे.

अहाहा...! आत्मा जाणग.... जाणग.... जाणग स्वभावनो पिंड छे. तेनां ज्ञान- दर्शन-रमणता ते आत्मानी ज्ञानक्रिया छे. ते ज्ञान ज एक पोताथी थाय छे. आ तो भाषा सादी छे भाई! भाव तो जे छे ते अति गंभीर छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एम निर्मळ रत्नत्रयरूप परिणति थवी-बस ए एक ज स्वद्रव्यथी थाय छे. राग- क्रियाकांड छे ए तो परद्रव्यथी थाय छे; ए परद्रव्य ज छे. ए (-राग) स्वद्रव्यने तो अडता सुद्धां नथी. समजाणुं कांई...?

एक भाई आवीने कहे -महाराज! आ समयसार तो आखुं हुं पंदर दि’ मां वांची गयो. अरे भाई! तने खबर छे आ शुं चीज छे? आ समयसार तो परम अदभुत चीज छे- एमां तो त्रणलोकना नाथनी वाणीनां रहस्यो भर्यां छे. तेना शब्देशब्द


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अपार अगाध रहस्योथी भर्या छे. भाई! आ तो केवळीनी वाणी बापा! कहे छे-ज्ञान- दर्शन-आनंदनुं ज थवुं आत्माथी थाय छे. रागनुं थवुं ते आत्मा नहि. ज्ञाननुं थवुं ते ज ज्ञानस्वरूप छे, आत्मा छे; ते ज मोक्षमार्ग छे ने ते ज (पूर्णता थये) मोक्ष छे. खूब गंभीर वात भाई!

अहाहा....! भगवान! तुं अंदर पूरण शुद्ध ज्ञानमात्र-चिन्मात्र वस्तु परमात्मा छो. अल्पज्ञता ने विपरीतता तारुं स्वरूप नथी. पर्यायमां ते अज्ञानवश उभुं थयुं छे ते तुं भूली जा (गौण करी दे); अने नक्की कर के-ज्ञान ज एक स्वद्रव्यथी थाय छे. झीणी वात प्रभु! छे ने अंदर- ‘इदम् ज्ञानम् एव हि एकम स्वतः’ अहाहा.....! ज्ञानस्वरूपे थवुं, निर्मळ रत्नत्रयपणे थवुं-बस एक ज आत्मस्वरूप छे. ल्यो, आ धर्म ने आ मोक्षमार्ग, अहाहा....! वस्तु अंदर कारणपरमात्मपणे छे, अने तेना आश्रये तेना परिणमननुं कार्य थयुं ते कार्यपरमात्मा छे. ल्यो, आनुं नाम ‘एक ज्ञान ज आत्माथी छे’ आ तो थोडामां घणुं भर्युं छे. अहो! दिगंबर मुनिवरोए जगतने न्याल करी दीधुं छे!

अहाहा.....! आनंदनो नाथ अंदर पूर्णस्वरूपे पडयो छे ने प्रभु! पर्याय जेटलुं ज एनुं अस्तित्व नथी. मोक्षनी पर्याय जेटलो पण ए नथी, ए तो पूर्ण चिदानंदघन परमात्मा छे. तारा श्रद्धानने एनो रंग चढावी दे प्रभु! ते श्रद्धान अने ज्ञाननुं थवुं ते ज ज्ञानस्वरूप आत्मानुं थवुं छे. राग तो अन्यद्रव्यनुं परिणमन छे, एने ज्ञानना थवा साथे कांई ज संबंध नथी. माटे जो मोक्षनी ईच्छा छे तो व्यवहारना क्रियाकांडथी धर्म थशे ए वात जवा दे. आ हितनी वात छे भाई!

* कळश २४३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जेओ द्रव्यलिंगमां ममत्व वडे अंध छे तेमने शुद्धात्मद्रव्यनो अनुभव ज नथी; कारण के तेओ व्यवहारने ज परमार्थ मानता होवाथी परद्रव्यने ज आत्मद्रव्य माने छे.’

जुओ, शुं कहे छे? के द्रव्यलिंगमां जेने ममत्व छे ते अंध छे, अर्थात् स्वपरनो विवेक करनारां नेत्र तेने बीडाई गयां छे, तेमने शुद्ध आत्मद्रव्यनो अनुभव ज थतो नथी. द्रव्यलिंगथी-क्रियाकांडथी मारुं कल्याण थशे एवी मान्यता आडे तेने पोताना परमात्मस्वरूपनो अनुभव ज थतो नथी.

साधकने स्वपरनो विवेक छे, तेने निज स्वरूपनुं अंदर भान वर्ते छे. साथे जे दया, दान, व्रत, भक्ति आदिनो राग आवे छे तेने ते जाणे छे, व्यवहार छे बस


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एटलुं; एनाथी मोक्षमार्ग छे एम ते जाणतो-मानतो नथी. भाई! व्यवहार छे एने न जाणे-माने तो एकान्त थई जाय. व्यवहार जाणवा माटे प्रयोजन-वान छे, पण ते आदरवालायक नथी.

अज्ञानी क्रियाकांडना ममत्व वडे अंध छे. ते व्यवहारने ज परमार्थ मानतो होवाथी परद्रव्यने ज आत्मद्रव्य माने छे. हवे आम छे तो पछी तेने शुद्ध आत्मद्रव्यनी प्राप्ति केवी रीते थाय?

(प्रवचन नं. प०४ थी प०७ * दिनांक २६-११-७७ थी २९-११-७७)

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गाथा–४१४
ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे।
णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।। ४१४।।
व्यावहारिकः पुनर्नयो द्वे अपि लिङ्गे भणति मोक्षपथे।
निश्चयनयो नेच्छति मोक्षपथे सर्वलिङ्गानि।। ४१४।।

‘व्यवहारनय ज मुनिलिंगने अने श्रावकलिंगने-ए बन्ने लिंगोने मोक्षमार्ग कहे छे, निश्चयनय कोई लिंगने मोक्षमार्ग कहेतो नथी’ -एम हवे गाथामां कहे छेः-

व्यवहारनय ए उभय लिंगो मोक्षपंथ विषे कहे,
निश्चय नहीं माने कदी को लिंग मुक्तिपथ विषे. ४१४.

गाथार्थः– [व्यावहारिकः नयः पुनः] व्यवहारनय [द्वे लिङ्गे अपि] बन्ने लिंगोने [मोक्षपथे भणति] मोक्षमार्गमां कहे छे (अर्थात् व्यवहारनय मुनिलिंग तेम ज गृहीलिंगने मोक्षमार्ग कहे छे); [निश्चयनयः] निश्चयनय [सर्वलिङ्गानि] सर्व लिंगोने (अर्थात् कोई पण लिंगने) [मोक्षपथे न इच्छति] मोक्षमार्गमां गणतो नथी.

टीकाः– श्रमण अने श्रमणोपासकना भेदे बे प्रकारनां द्रव्यलिंगो मोक्षमार्ग छे-एवो जे प्ररूपण प्रकार (अर्थात् एवा प्रकारनी जे प्ररूपणा) ते केवळ व्यवहार ज छे, परमार्थ नथी, कारण के ते (प्ररूपणा) पोते अशुद्ध द्रव्यना अनुभवनस्वरूप होवाथी तेने परमार्थपणानो अभाव छे; श्रमण अने श्रमणोपासकना भेदोथी अतिक्रांत, दर्शनज्ञानमां प्रवृत्त परिणतिमात्र (-मात्र दर्शन-ज्ञानमां प्रवर्तेली परिणतिरूप) शुद्ध ज्ञान ज एक छे- एवुं जे निस्तुष (-निर्मळ) अनुभवन ते परमार्थ छे, कारण के ते (अनुभवन) पोते शुद्ध द्रव्यना अनुभवनस्वरूप होवाथी तेने ज परमार्थपणुं छे. माटे जेओ व्यवहारने ज परमार्थबुद्धिथी (-परमार्थ मानीने) अनुभवे छे, तेओ समयसारने ज नथी अनुभवता; जेओ परमार्थने परमार्थबुद्धिथी अनुभवे छे, तेओ ज समयसारने अनुभवे छे.

भावार्थः– व्यवहारनयनो विषय तो भेदरूप अशुद्धद्रव्य छे, तेथी ते परमार्थ नथी; निश्चयनयनो विषय अभेदरूप शुद्धद्रव्य छे, तेथी ते ज परमार्थ छे. माटे, जेओ व्यवहारने ज निश्चय मानीने प्रवर्ते छे तेओ समयसारने अनुभवता नथी; जेओ


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(मालिनी)
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पै–
रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः।
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रा–
न्न खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति।। २४४।।
(अनुष्टुभ्)
इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् ।
विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत्।। २४५।।

परमार्थने परमार्थ मानीने प्रवर्ते छे तेओ ज समयसारने अनुभवे छे (तेथी तेओ ज मोक्षने पामे छे).

‘बहु कथनथी बस थाओ, एक परमार्थनो ज अनुभव करो’ -एवा अर्थनुं काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम्] बहु कहेवाथी अने बहु दुर्विकल्पोथी बस थाओ; बस थाओ; [इह] अहीं एटलुं ज कहेवानुं छे के [अयम् परमार्थः एकः नित्यम् चेत्यताम्] आ परमार्थने एकने ज निरंतर अनुभवो; [स्व–रस– विसर–पूर्ण–ज्ञान–विस्फूर्ति–मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति] कारण के निज रसना फेलावथी पूर्ण जे ज्ञान तेना स्फुरायमान थवामात्र जे समयसार (- परमात्मा) तेनाथी ऊंचुं खरेखर बीजुं कांई पण नथी (-समयसार सिवाय बीजु कांई पण सारभूत नथी).

भावार्थः– पूर्णज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव करवो; आ उपरांत खरेखर बीजुं कांई पण सारभूत नथी. २४४.

हवे छेल्ली गाथामां आ समयसार ग्रंथना अभ्यास वगेरेनुं फळ कहीने आचार्यभगवान आ ग्रंथ पूर्ण करशे; तेनी सूचनानो श्लोक प्रथम कहे छेः-

श्लोकार्थः– [आनन्दमयम् विज्ञानघनम् अध्यक्षतां नयत्] आनंदमय विज्ञानघनने (- शुद्ध परमात्माने, समयसारने) प्रत्यक्ष करतुं [इदम् एकम् अक्षयं जगत्–चक्षः] आ एक (-अद्वितीय) अक्षय जगत-चक्षु (-समयप्राभृत) [पूर्णताम् याति] पूर्णताने पामे छे.

भावार्थः– आ समयप्राभृत ग्रंथ वचनरूपे तेम ज ज्ञानरूपे-बन्ने प्रकारे जगतने अक्षय (अर्थात् जेनो विनाश न थाय एवुं) अद्वितीय नेत्र समान छे, कारण


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*
समयसार गाथा ४१४ः मथाळुं

‘व्यवहारनय ज मुनिलिंगने अने श्रावकलिंगने-ए बन्ने लिंगोने मोक्षमार्ग कहे छे, निश्चयनय कोईलिंगने मोक्षमार्ग कहेतो नथी’ -एम हवे गाथामां कहे छेः-

* गाथा ४१४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘श्रमण अने श्रमणोपासकना भेदे बे प्रकारनां द्रव्यलिंगो मोक्षमार्ग छे- एवो जे प्ररूपण -प्रकार (अर्थात् एवा प्रकारनी जे प्ररूपणा) ते केवळ व्यवहार ज छे, परमार्थ नथी, कारण के ते (प्ररूपणा) पोते अशुद्ध द्रव्यना अनुभवनस्वरूप होवाथी तेने परमार्थपणानो अभाव छे;........’

जुओ, शुं कहे छे आ? के श्रमण अने श्रमणोपासकना भेदे बे प्रकारनां द्रव्यलिंगो मोक्षमार्ग छे एवी जे प्ररूपणा ते केवळ व्यवहार ज छे, परमार्थ नथी. मुनिदशामां जे व्रत-तप आदि विकल्प ने नग्नदशा छे ते सहचारीपणे कारण छे, तेने व्यवहार कहेवामां आवे छे. व्यवहारपणे ते व्यवहार छे, पण निश्चये ते आश्रय करवालायक नथी. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां पं. श्री टोडरमलजीए स्पष्टताथी खुलासो कर्यो छे के-“ हवे मोक्षमार्ग तो बे नथी, पण मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गने मोक्षमार्ग निरूपण कर्यो छे ते निश्चय-मोक्षमार्ग छे तथा ज्यां मोक्षमार्ग तो नथी परंतु मोक्षमार्गनुं निमित्त छे वा सहचारी छे तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए ते व्यवहार मोक्षमार्ग छे. कारण के निश्चय-व्यवहारनुं सर्वत्र एवुं ज लक्षण छे. अर्थात् साचुं निरूपण ते निश्चय तथा उपचार निरूपण ते व्यवहार. माटे निरूपणनी अपेक्षाए बे प्रकारे मोक्षमार्ग जाणवो, पण एक निश्चय मोक्षमार्ग छे तथा एक व्यवहार मोक्षमार्ग छे एम बे मोक्षमार्ग जाणवा मिथ्या छे.” भाई! द्रव्यलिंगने उपचारथी मोक्षमार्ग कहेवाय पण तेने मोक्षमार्ग जाणवो मिथ्या छे. द्रव्यलिंगने मोक्षमार्ग कहीए ए तो आरोपित कथन छे.

भावलिंगी संत-मुनिवरने पंचमहाव्रतादि परिणाम होय छे, नियमथी होय छे, ते भावो सहचारीपणे छे, पण ते कांई सत्यार्थ मोक्षमार्ग नथी. तेने मोक्षमार्ग कहीए ते आरोपित कथन छे, यथार्थ नथी. भाई! तुं व्यवहारने व्यवहारपणे जाणे ते बराबर छे, परंतु ते धर्म वा धर्मनुं कारण छे एम नथी. बे नय छे एम जाणवुं ते बराबर छे, पण बन्ने नय आश्रय करवालायक छे एम नथी. आश्रय-योग्य तो एक शुद्ध निश्चयनय ज छे. समजाणुं कांई....!


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अहाहा....! अंदर पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंद प्रभु त्रिकाळ विराजे छे. तेनां द्रष्टि, ज्ञान ने रमणता करतां जे निराकुळ निर्विकल्प आनंदनी धारा अंतरमां उमटे ते एक ज मोक्षमार्ग छे अने ते ज धर्म छे. सहचरपणे रहेला व्रतादिना रागने धर्म कहीए ते केवळ व्यवहारथी ज छे, आरोपित छे, यथार्थ-परमार्थ नथी, कारण के ते (व्यवहार) पोते अशुद्ध द्रव्यना अनुभवनस्वरूप होवाथी तेने परमार्थपणानो अभाव छे, शुं कीधुं? आ व्रत-तप-भक्तिना भाव अशुद्ध द्रव्यना अनुभवनरूप छे; ते शुद्ध द्रव्यना अनुभवरूप नथी. अशुद्ध द्रव्यनो अनुभव कहो के दुःखनो अनुभव कहो -एक ज वात छे, तेमां निराकुल आनंदनो अनुभव नथी.

आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो महान डुंगर छे. क्षेत्र भले नानुं होय, तेनो भाव बेहद अपरिमित छे, अनंत अमाप छे-अहा! तेना आश्रये जेटली शुद्ध परिणति-निर्मळ रत्नत्रयपरिणति प्रगट थाय ते परमार्थ मोक्षनो मार्ग छे. तेनी साथे जे व्रत, तप, भक्ति, पूजा आदिनो राग होय छे ते, कहे छे, अशुद्ध द्रव्यनुं -दुःखनुं वेदन छे. हवे ए दुःखनुं वेदन मोक्ष अर्थात् परम सुखनी दशानुं कारण केम थाय? आत्माना पूर्ण शुद्ध परिणाम मोक्ष छे, तो तेनुं कारण पण आत्माना शुद्ध परिणाम होवा जोईए. व्रतादि रागना परिणाम छे ते आत्म-परिणाम नथी, ते विभाव छे, औपाधिक भाव छे, तेने पहेला अधिकारमां अजीव-अनात्मा कह्या छे. हवे ते मोक्षनुं कारण केम बने? न बने. तेथी तेमां (द्रव्यलिंगमां) परमार्थपणानो अभाव छे. हवे कहे छे-

‘श्रमण अने श्रमणोपासकना भेदोथी अतिक्रान्त, दर्शनज्ञानमां प्रवृत्त परिणतिमात्र (-मात्र दर्शनज्ञानमां प्रवर्तेली परिणतिरूप) शुद्ध ज्ञान ज एक छे-एवुं जे निस्तुष (-निर्मळ) अनुभवन ते परमार्थ छे, कारणके ते (-अनुभवन) पोते शुद्ध द्रव्यना अनुभवनस्वरूप होवाथी तेने ज परमार्थपणुं छे.’

अहाहा...! आत्मा अनंत गुणरतनथी भरेलो चैतन्यरत्नाकर छे. तेनुं एकेक गुणरतन अनंत अनंत प्रभुताथी भर्युं छे. तेनो महिमा लावी अंतरमां तेनो अनुभव करवो ते मोक्षमार्ग छे. ते शुद्ध द्रव्यना निस्तुष अनुभवनरूप छे. तेथी तेने ज परमार्थपणुं छे. निस्तुष एटले रागरहित शुद्ध वीतरागी अनुभवन ते परमार्थ छे. एक स्वद्रव्यनुं वेदन छे तेने ज परमार्थपणुं छे.

आ देह तो नाशवान चीज छे, अने आ बैरां-छोकरां ए बधी बहारनी भूतावळ छे, नियमसारमां ए बधाने धूताराओनी टोळी कही छे. वळी शुभराग जे थाय तेय पुण्य छे, धर्म नथी. त्रिकाळी शुद्ध जे स्वद्रव्य छे तेनो आश्रय करतां जे निर्मळ रत्नत्रयना परिणाम प्रगट थाय ते एक ज धर्म छे. ते शुद्ध द्रव्यना अनुभवनरूप होवाथी परमार्थ छे. भाई! जन्म-मरण रहित थवानो आ मार्ग छे. वस्तु तारी


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अब हम अमर भये, न मरेंगे;
या कारण मिथ्यात दियो तज, कयों करि देह धरेंगे;
अब हम अमर भये, न मरेंगे.

अहाहा.....! पोतानी चीज अंदर शुद्ध ज्ञानानंदमय अमर छे तेनां श्रद्धान-ज्ञान- आचरण प्रगटतां अमरपणुं प्रगटे छे. आ एक ज परमार्थ मार्ग छे. साथे व्यवहार भले हो, पण तेने परमार्थपणुं नथी. आवी वात. समजाणुं कांई....?

अहाहा....! मुनि अने श्रावकना विकल्पथी पार त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यना अनुभवनरूप जे निर्मळ दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय परिणति छे ते एक ज, कहे छे, परमार्थ मोक्षमार्ग छे. आ एकान्त-सम्यक् एकान्त छे. आ सिवाय कोई पचीस-पचास लाख दानमां खर्चे, मोटां मंदिर बंधावे ने भगवाननी प्रतिष्ठा करावे तो ए पुण्य छे बस, ए मोक्षमार्ग नथी, केमके ए अशुद्ध द्रव्यना अनुभवनरूप होवाथी अपरमार्थ छे, असत्यार्थ छे. भाई! दया, दान, व्रत, तप, भक्तिना परिणाम बधा फोतरा समान निःसार छे, अंतःतत्त्व - चैतन्यतत्त्वना अनुभवन विना बधुं थोथेथोथां छे अर्थात् कांईज नथी (व्यवहारेय नथी). समजाणुं कांई....? हवे कहे छे-

‘माटे जेओ व्यवहारने ज परमार्थबुद्धिथी (-परमार्थ मानीने) अनुभवे छे, तेओ समयसारने ज नथी अनुभवता; जेओ परमार्थने परमार्थबुद्धिथी अनुभवे छे, तेओ ज समयसारने अनुभवे छे.’

वीतराग परमेश्वरनो कहेलो सत्यार्थ मार्ग तें सांभळ्‌यो नथी भाई! अंदर रागरहित पोतानुं स्वद्रव्य छे तेनां श्रद्धान-ज्ञान अने रमणता-लीनता थाय ते परमार्थ मोक्षमार्ग छे. हवे तेने तो जाणे नहि, अने व्यवहारने ज परमार्थ मानीने कोई अनुभवे छे तो, कहे छे, तेओ समयसारने ज अनुभवता नथी. आ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह -एम व्रतना विकल्प, शास्त्रभणतरनो भाव अने देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा-तेने ज परमार्थ जाणीने अनुभवे छे तेओ शुद्ध द्रव्यने-निज समयसारने ज अनुभवता नथी.

अरे भाई! परमार्थ मानीने शुभरागनी क्रियाओ तो अनंतवार करी छे. व्रत ने तप ने उपवास ने पडिकमण ने पोसा ईत्यादि क्रियाओ तें धर्म समजीने अनंत वार करी छे. पण एथी शुं? एनाथी धर्म थाय एम तुं माने पण धूळेय धर्म


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नथी सांभळने. ए तो बधी रागनी क्रिया बापा! तारा चैतन्यतत्त्वने स्पर्श सुद्धां करती नथी तो एनाथी तने धर्म केम थाय? भाई! एकवार निर्णय करी श्रद्धामां तो ले के व्यवहार क्रियाकांडनी क्रिया आत्मरूप नथी. आ सिवाय कोई लाख क्रियाओ करे तो पण तेओ निज ज्ञानानंद-सहजानंदस्वरूपने अनुभवता नथी; तेओ रागने-दुःखने ज वेदे छे. एक समयनी पर्यायमां जेमनुं लक्ष छे तेमनी रमत रागमां छे, अंदरमां चैतन्यचिंतामणि पोते छे तेने तेओ अनुभवता नथी.

परमार्थ वस्तु अंदर पोतानुं शुद्ध चैतन्यतत्त्व छे. तेने जेओ परमार्थबुद्धिथी अनुभवे छे, तेनां ज श्रद्धान-ज्ञान-चारित्रपणे परिणमे छे तेओ ज समयसारने अनुभवे छे; अर्थात् तेओ ज मोक्षमार्ग अने तेनुं फळ जे मोक्ष तेने प्राप्त थाय छे. आवी वात छे.

* गाथा ४१४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘व्यवहारनयनो विषय तो भेदरूप अशुद्ध द्रव्य छे, तेथी ते परमार्थ नथी; निश्चयनयनो विषय अभेदरूप शुद्ध द्रव्य छे, तेथी ते ज परमार्थ छे.’

शुं कहे छे? के आ व्रत, तप, भक्ति आदिना भाव ए व्यवहारनयनो विषय भेदरूप अशुद्ध द्रव्य छे. अहा! कोई क्रोडो रूपिया दानमां खर्चे, लाख मंदिरो बनावे, जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य पाळे, शास्त्रो भणे ने पंच महाव्रतादि पाळे, एकेन्द्रियने पण दुभवे नहि -ईत्यादि बधो जे प्रशस्त राग छे ते भेदरूप अशुद्धद्रव्य छे. अहीं अशुद्ध द्रव्य केम कह्युं? स्वभावथी तो अंदर द्रव्य त्रिकाळ शुद्ध ज छे, पण पर्याय अशुद्ध छे ए अपेक्षाए अशुद्ध द्रव्य छे एम कह्युं. त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य कांई अशुद्ध थई जतुं नथी, पण वर्तमानमां अशुद्ध परिणम्युं छे ने! तो अशुद्ध परिणम्युं छे ते अशुद्ध द्रव्य छे एम वात छे. समजाणुं कांई.....!

आ समज्या विना मोटा अबजोपति शेठ हो के राजा हो- ए बधा दुःखी ज छे. अंदर आत्मा अमृतनो सागर छे तेनाथी उलटी दशा-चाहे ते अति मंद रागनी हो तो पण -ते बधुं ज दुःख ज छे. भाई! भेदरूप अशुद्ध द्रव्यनो अनुभव ते परमार्थ नथी, मोक्षमार्ग नथी. अहा! रत्नजडित राजमहेल, राजपाट अने राणीओ -सर्व छोडीने, नग्न दिगंबरदशा धारण करी कोई जंगलमां चाल्यो जाय अने त्यां धर्मबुद्धिथी अनेक मंदरागनी क्रियाओ करे, पण अंतर्द्रष्टि करे नहि तो एवो अशुद्धद्रव्यनो अनुभव परमार्थ नथी. बहारना त्याग वडे माने के में घणुं छोडयुं, पण अंदरथी मिथ्यात्व छोडया विना तेणे शुं छोडयुं? कांई ज नहि. (एक आत्मा छोडयो छे). अहा! आवी आवी व्यवहारनी क्रियाओ तो जीवे अनंतवार करी छे. ए बधो व्यवहारनयनो