Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 268-269 ; Kalash: 172.

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सेवे छे पण ते भाव ते ते पर द्रव्यनी क्रिया करवा शक्तिमान नथी अर्थात् ते भाव परनी क्रियामां अकिंचित्कर छे. भगवान! तारी होशियारी के बुद्धि शुं परमां गरी जाय छे? ना; कदीय नहि. माटे ए अध्यवसान पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नथी अने तेथी मिथ्या ज छे.

कोई वैद्य एम माने के हुं आ दवा एने (-पर जीवने) आपुं छुं एनाथी एना शरीरनी नीरोगिता थई जशे तो एनो ए अध्यवसाय जूठो निरर्थक छे एम कहे छे; केमके शरीरनी नीरोगिता ए अध्यवसायनुं कार्य नथी. ए अध्यवसाय कर्ता ने शरीरनी नीरोगिता कार्य एम छे नहि. अहा! शरीरनी नीरोगिता थाय एमां एना (वैद्यना) परिणाम निमित्त हो, पण ए निमित्त एना शरीरनी नीरोगितानुं कर्ता नथी. आवी झीणी वात भाई!

अत्यारे उपादान अने निमित्तनी बहु मोटी चर्चा चाले छे ने? उपादान एटले द्रव्यनी पोतानी पर्यायनी तत्कालीन योग्यता; ते एनी जन्मक्षण छे अने एनाथी पर्याय जन्मे छे, उत्पन्न थाय छे; पण निमित्तथी थाय छे एम त्रणकाळमां नथी. हा, निमित्त छे खरुं, छे तो भले छे, पण निमित्त परमां कांई विलक्षणता करतुं नथी, ए परमां अकिंचित्कर छे.

जुओ, आ पाणी गरम थाय छे ते पोतानी पर्यायनी तत्कालीन योग्यताथी थाय छे. ते काळे बहार अग्निनुं निमित्त छे, पण अग्नि पाणीने गरम करे छे एम छे नहि. पाणीनी गरम अवस्थानो अग्नि कर्ता नथी. पाणी पहेलां ठंडुं हतुं ने हवे गरम थयुं ए पोतानी पर्यायना उपादानथी (-निज शक्तिथी) गरम थयुं छे, ए एनी जन्मक्षणथी थयुं छे; एमां अग्नि निमित्त अवश्य छे, निमित्ते पाणीने गरम कर्युं नथी. आवी भारे सूक्ष्म वात भाई! दुनियाथी साव जुदी.

प्रत्येक द्रव्यनी जे समयमां जे पर्याय थवायोग्य होय ते समयमां ते ज थाय छे; ते समये परवस्तु निमित्त होय; पण निमित्त उपादाननी पर्यायने करे छे वा तेमां कांई विलक्षणता करे छे ए साव खोटी वात छे. बनारसीदासे उपादान-निमित्तना दोहामां लख्युं छे के-

‘उपादान बल जहाँ तहाँ, नहि निमित्तको दाव’

ज्यां त्यां अर्थात् सर्वत्र (प्रत्येक) द्रव्यनी जे जे पर्याय थाय छे ते द्रव्यनी निजशक्तिथी-उपादानना बळथी थाय छे, तेमां निमित्तनो कोई दाव ज नथी, अर्थात् निमित्त-परवस्तु एमां अकिंचित्कर छे.

अहो! आ तो महा अलौकिक सिद्धांत छे. जेनी समजमां ते बेसी जाय तेना


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भाग्यनी शी वात! तेनुं तो महाकल्याण थई जाय. अहा! आ शरीर, मन, वाणी, कुटुंब- परिवार इत्यादि सर्व परद्रव्यनी क्रिया हुं करी शकतो नथी एम जेने अंतरमां बेसी जाय तेनी द्रष्टि सर्व परद्रव्यथी खसीने भगवान ज्ञायकस्वभावी आत्मामां लागी जाय अने त्यारे तेने मिथ्यात्वनो नाश थईने सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थई जाय. आवो अद्भूत सिद्धांत ने अद्भूत अंतःतत्त्व छे. समजाणुं कांई....?

* गाथा २६७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जे हेतु कांईपण न करे ते अकिंचित्कर कहेवाय छे.’ जुओ, आ महासिद्धांत कह्यो. हेतु नाम कारण कहेवाय खरुं, पण ते कांईपण न करे तो अकिंचित्कर छे, निमित्तकारण अकिंचित्कर छे, केमके ते परमां कांई करतुं नथी. ‘निश्चय-व्यवहार’मां पण निश्चयनो हेतु-कारण व्यवहार छे एम (शास्त्रमां) आवे छे. ‘कारण सो व्यवहारो’-एम आवे छे ने? तेमां पण आ ज सिद्धांत छे के व्यवहार छे ते हेतु छे पण ए कांई निश्चयने करतुं नथी अर्थात् ए अकिंचित्कर छे. जे कोई कारण, निमित्त वा हेतु परनुं कांईपण न करे ते अकिंचित्कर कहेवाय छे.

‘आ बांधवा-छोडवानुं अध्यवसान पण परमां कांई करतुं नथी; कारण के ते अध्यवसान न होय तोपण जीव पोताना सराग-वीतराग परिणामथी बंध-मोक्षने पामे छे. अने ते अध्यवसान होय तोपण पोताना सराग-वीतराग परिणामना अभावथी बंध-मोक्षने नथी पामतो.’

जुओ, ‘बीजाने हुं पाप बंधावुं जेथी ते नरकादि दुर्गतिए जाय’-एवो जे अध्यवसाय छे ते अकिंचित्कर छे केमके ते परने बंधावानुं कार्य करी शकतो नथी. परने बंधावानो अध्यवसाय परने बंधावी शकतो नथी. वळी ‘बीजाने हुं बंधावुं’ एवो अध्यवसाय न होय तोपण बीजो पोताना सराग-विकारी परिणामथी बंधाय छे. माटे परने बंधावाना तारा अध्यवसानना कारणे पर जीव बंधाय छे एम छे नहि. पर जीव तो पोताना अज्ञानमय रागादिभावथी ज बंधाय छे.

वळी तारो परने मुक्त करवानो अध्यवसाय होय तोपण वीतरागभाव विना, सराग परिणामनो अभाव थया विना ते मूकातो नथी; अने परने मुक्त करवानो अध्यवसाय न होय तोपण वीतरागभावथी, सराग परिणामना अभावथी एनी मुक्ति थई जाय छे. माटे परने मुक्त करवाना तारा अध्यवसानना कारणे पर जीव मुकाय छे एम छे नहि. पर जीव तो पोताना वीतरागभावथी ज मुकाय छे. अहा! आ तो एकला न्याय भर्या छे.

भाई! तारा परिणाम एवा होय के आने हुं बंधावुं-मुकावुं तोपण ए सामो जीव पोताना सरागभाव विना बंधाय नहि अने पोताना वीतरागभाव विना मुकाय


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नहि. वळी ‘हुं आने बंधावुं-मूकावुं-एवा तारा परिणाम न होय तोपण सामो जीव पोताना सरागभावथी बंधाय छे अने वीतरागभावथी मूकाय छे. आ प्रमाणे परना बंध-मोक्षमां तारो अध्यवसाय अकिंचित्कर छे, अर्थात् कांई पण करी शकतो नथी; माटे ते मिथ्या-निरर्थक छे.

ल्यो, आ निमित्तना संबंधमां मोटी तकरार छे ने के-निमित्त परनुं कांईक करे छे. एम नथी भाई! निमित्त छे खरुं, पण निमित्त परनुं कांई पण न करे. निमित्त परमां अकिंचित्कर छे. आवी ज वस्तुव्यवस्था छे बापु! कर्मनो उदय जीवना विकारी परिणामनो हेतु-निमित्त छे, पण ते जीवना विकारी परिणामने जरीय न करे. आ वस्तुस्थिति छे.

अहीं कहे छे-‘आ रीते अध्यवसान परमां अकिंचित्कर होवाथी स्व-अर्थक्रिया करनारुं नथी अने तेथी मिथ्या छे.’

जीवना परने दुःखी-सुखी करवाना, परने मारवा-जिवाडवाना के परने बंधावा- मूकावाना अध्यवसान छे ते परमां अकिंचित्कर होवाथी पोतानी प्रयोजनभूत क्रिया- स्वअर्थक्रिया करता नथी माटे ते मिथ्या छे. अलबत ते अध्यवसाय पोताना अनर्थ माटे सफळ छे, पण परमां क्रिया करवामां निष्फळ होवाथी मिथ्या छे. आवी वात छे.

हवे आ अर्थना कळशरूपे अने आगळना कथननी सूचनिकारूपे श्लोक कहे छेः-

* कळश १७१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः’ आ निष्फळ (निरर्थक) अध्यवसायथी मोहित थयो थको ‘आत्मा’ आत्मा ‘तत् किञ्जन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति’ पोताने सर्वरूप करे छे, एवुं कांई पण नथी के जे-रूप पोताने न करतो होय.

शुं कहे छे? के आ जूठा-निरर्थक अध्यवसायथी जीव अनादिथी घेलो नाम पागल थई रह्यो छे. हुं आनुं करुं ने तेनुं करुं, हुं बायडीनुं करुं, छोकरांनुं करुं, रळवानुं करुं ने तेनी व्यवस्था करुं, बीजाने जिवाडवानुं करुं ने मारवानुं करुं, ईत्यादि एवा अध्यवसायथी ए विमोहित अर्थात् पागल थई गयो छे. अहा! आ बधा दुनियाना कहेवाता डाह्या लोको आ रीते मूर्ख-पागल छे एम कहे छे. जगतमां जेटला पदार्थ छे तेनी क्रिया हुं करुं छुं एम माने छे ने? तेथी तेओ मूढ मिथ्याद्रष्टि पागल छे, केमके वास्तविक स्वरूप तो आ छे के-

‘होता स्वयं जगत परिणाम, मैं ईसका कया करता काम?’

शास्त्रमां (समयसार कळशटीकामां) आवे छे के-जीव संसारमां भमतां भमतां ज्यारे अर्धपुद्गलपरावर्तन मात्र काळ बाकी रहे छे त्यारे ज सम्यक्त्व उपजवाने


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योग्य छे. आनुं नाम काळलब्धि छे. हवे आवुं जो नक्की करवा जाय तो क्रमबद्ध (परिणमन) नक्की थई जाय; पर्यायनो काळ अने क्रम नक्की थई जाय, क्रमबद्धपर्याय सिद्ध थई जाय. एटले कोई लोको एने उडाडी दे छे, एम के-अर्धपुद्गलपरावर्तन संसार बाकी होय त्यारे ज समकित थाय एम नहि. पण बापु! छे तो एम हों, तारा अभिप्रायमां भूल छे; वस्तुनो स्वभाव तो जेम छे तेम ज छे. (आत्मा केवळज्ञान- स्वभावी ज छे).

ए लोको क्रमबद्धनो निषेध करतां कहे छे-जुओ, ‘परीक्षामुख’ मां सूत्र छे के ज्ञाननी अवस्था, आ शरीर-मन-वाणी छे, आ घट-पट छे, आ महेल-मकान छे इत्यादि परने ‘छे, छे’ -एम प्रत्यक्ष नक्की करे छे अने तेमां (ज्ञानमां) ए प्रत्यक्ष थाय छे तो ए ज्ञाननी पर्याय स्वने प्रत्यक्ष केम न करे? एमां (ज्ञानमां) स्वस्वरूप प्रत्यक्ष केम न जणाय? आमांथी ए लोको एम काढे छे के-अर्धपुद्गलपरावर्तननो काळनो नियम लागु न पडे.

भाई! त्यां परीक्षामुखमां सूत्रकारनो ए आशय नथी. त्यां तो एम कहेवुं छे के अंदर आत्मानो जे ज्ञानदर्शनस्वभाव छे ते स्वपरप्रकाशक छे. एनी पर्यायमां पण स्वपरप्रकाशकपणुं छे. अहा! जे ज्ञाननी पर्याय, आ शरीर छे, वाणी छे इत्यादि परने प्रत्यक्ष करे छे ते स्वने प्रत्यक्ष केम न करे?

अहाहा...! भगवान! तारो स्व-परप्रकाशक स्वभाव छे ने! अंदरमां ज्ञानदर्शन गुण छे ते स्व-परप्रकाशक छे ने! एनी पर्यायमां पण स्व-परप्रकाशकपणुं छे तो ए परने प्रकाशे छे, आ छे, आ छे, -एम परनो ज्ञाननी पर्याय निर्णय करे छे तो पछी ‘आ हुं त्रिकाळी ज्ञायक छुं’ एम स्वनो निर्णय एमां केम न करे! एम करीने परीक्षामुखमां त्यां सूत्र मूकयुं छे तो काळने छेदवा (एटले के मुक्तिने पामवा, पण त्यां अर्धपुद्गलपरावर्तननी वात नथी), पण त्यां सिद्धांत ए सिद्ध करवो छे के जे ज्ञाननी पर्याय आ बायडी, छोकरां, दुकान, पैसा वगेरे बधुं छे, छे, छे-एम प्रत्यक्ष जाणे छे अर्थात् ज्ञानमां बराबर नक्की करे छे, ए चीजोने करे छे एम नहि, ज्ञानमां जाणे छे ते ज्ञाननी पर्याय तो स्व-परप्रकाशक छे; तो पछी ते स्वने केम न प्रकाशे? न्याय समजाय छे कांई...?

जेम परनो निर्णय (-प्रकाश) करतां ए बधुं पर प्रत्यक्ष थाय छे तेम ज्यारे स्वनो निर्णय (-प्रकाश) करे छे त्यारे स्व प्रत्यक्ष थाय छे; केमके प्रकाश नामनो एनामां गुण छे. ए एकांते परने प्रकाशे छे ए तो एकांत थई गयुं; एनो गुण तो स्व- परप्रकाशक छे. खरेखर स्व प्रत्यक्ष थाय एवो एनो गुण छे अने ए गुणमां परने प्रकाशवानुं सामर्थ्य सहेजे खीली जाय छे. आवी वात छे.


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हवे विशेष वातः के ज्ञाननी पर्यायमां वर्तमान परने प्रकाशवानुं-प्रत्यक्ष करवानुं सामर्थ्य छे तो ते स्वने प्रत्यक्ष केम न करे? करे. जो एम छे तो पछी ते ज्ञाननी पर्याय भविष्यनी पर्यायने पण अत्यारे (-वर्तमानमां) केम न जाणे? वर्तमान ज्ञानपर्याय अनंता द्रव्य, गुण ने पर्यायने जाणे छे तो पोतानी अनंत भविष्यनी पर्यायने पण केम न जाणे? शुं कीधुं? के ज्ञानमां परने जाणवानुं सामर्थ्य प्रत्यक्ष नक्की थाय छे तो एनामां स्वने जाणवानुं पण सामर्थ्य नक्की थाय छे. अने तो पछी ए श्रुतज्ञाननी पर्याय भविष्यने पण वर्तमानमां जाणे छे एम केम नक्की न थाय? न्याय समजाय छे कांई...? अहाहा...! केवळज्ञानी प्रत्यक्ष जाणे छे अने श्रुतज्ञानी परोक्ष जाणे छे. श्रुतज्ञानी, भविष्यनी जे श्रुतज्ञाननी थशे ते, ने केवळज्ञाननी थशे ते-ते बधीय अनंती पर्यायने (परोक्ष) जाणे छे. अहा! भगवान! तारुं कोई गजब अद्भुत सामर्थ्य छे! प्रभु! तुं महान छो पण तने तारा महिमानी खबर नथी.

भगवान! तुं पर चीजनी मोटपमां मुंझाई गयो? आ शुं थयुं तने? आ राग ने आ शेठाई, आ देवताई ने आ वैभव, आ पैसा के आ शरीरनुं रूपाळापणुं-इत्यादिमां एमां तुं कयांय नथी भाई! अने ए चीजो तारामां नथी. तारामां तो एक समयमां लोकालोकने प्रकाशे एवुं सामर्थ्य छे प्रभु! अरेरे! एणे परनी मोटप आडे अनंतकाळ दुःखमां-पामरतामां ज वीताव्यो छे!

आ तो न्यायथी वात छे भाई! अहा! जे ज्ञाननी पर्याय परने प्रकाशे छे ते स्वने केम न प्रकाशे! अने जो स्वद्रव्यने प्रकाशे छे तो पछी पोतानी वर्तमान, भूत ने भविष्यनी पर्यायने केम न जाणे? जाणे; ल्यो, आ वस्तुस्थिति छे. शुं? के करवानुं कांई नहि ने जाणवानुं बाकी कांई नहि. अहाहा...! परमां अकिंचित्कर अने परने जाणवामां कांई बाकी न रहे एवो ज्ञानस्वभावी-सर्वज्ञस्वभावी प्रभु आत्मा छे. अहाहा...! ए तो रागवाळोय नहि, पुण्यवाळोय नहि ने एना फळवाळोय नहि पण ए तो स्वपरप्रकाशी ज्ञाननो पिंड प्रभु छे.

जुओ, परनुं करवुं ने रागादिनुं करवुं ए आत्मानो स्वभाव नथी. भाई! आ व्यवहाररत्नत्रयनो राग करवो ए एनो स्वभाव नथी. पण ए व्यवहाररत्नत्रयना रागने अने बीजाने जाणे एवो तेनो स्वभाव छे. हवे ए जाणे छे तो अनादिथी पण स्वप्रकाशने जाण्या विना परप्रकाशनुं प्रमाणज्ञान यथार्थ थतुं नथी. बापु! आवो वीतरागनो मार्ग संतोए जाहेर कर्यो छे.

अहाहा...! आत्मा परनुं कांई न करे पण परने कांईपण बाकी राख्या विना जाणे एवो एनो स्वभाव छे. पोते ज्ञ-स्वभावी छे ने? एटले स्वने पर-सर्वने जाणे एवुं एनुं सहज सामर्थ्य छे, पण परमां कांई करे एवुं एनुं सामर्थ्य ज नथी.


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अहाहा...! एक रजकणनी के रागना अंशनी क्रियाने करे एवी आत्मानी शक्ति ज नथी. तो पछी देहनी ने वाणीनी ने वेपार आदिनी क्रियाने ते करे ए वात ज क्यां रहे छे?

अहाहा...! आ तो चैतन्यहीरो प्रभु! बधायने जाणे पण करे कोईने नहि. अरे! पण एनी एने खबर नथी! ‘परीक्षा मुख’ ग्रन्थ छे एमां आवे छे के-

परख्यां माणके मोतियां परख्यां हेमकपूर
पण एक न परख्यो आतमा,...............

अहा! आत्मा शुं चीज छे एने जाण्यो नहि अने एणे ज्ञाननी पर्यायमां परने जिवाडवाना, परने मारवाना, तथा शरीर, मन, वाणी, बायडी, छोकरां, कुटुंब, समाज वगेरेनी क्रिया करवाना निष्फळ अध्यवसाय कर्या. अहीं कहे छे-ए रीते निष्फळ अध्यवसानथी विमोहित-मूच्र्छित ते अनंतकाळथी पागल थई रह्यो छे. हुं परनुं करुं छुं- एवी मान्यता वडे ते पोताना स्वस्वरूपने-चैतन्यरूपने भूलीने पोताने सर्वरूप करे छे. आ प्रमाणे ते सर्व परभावोनो कर्ता थाय छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.

भाई! आ वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनी ओम्ध्वनिमां जाहेर थयुं छे के-भगवान! तुं सर्वज्ञस्वभावी अंदरमां परमेश्वर परमात्मा छो. अहाहा...! जगतना अनंत आत्मा बधाय (प्रत्येक) अंदरमां सर्वज्ञस्वभावी भगवानस्वरूप छे. ते स्व-परने सर्वने जाणे एवो एनो स्वभाव छे. पण एने ठेकाणे हुं परनुं करुं-परने मारुं-जिवाडुं, परने दुःखी- सुखी करुं, परने बंधावुं-मूकावुं-इत्यादि मिथ्या तुं अध्यवसान करे ए तो तुं पोताने सर्वरूप (पररूप) करतो मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! पोताने परनुं कर्तापणुं माने ते पोताने सर्वरूप (पररूप) करतो मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! परने पोतारूप जाणे तो तेमां स्वनो लोप थई गयो तेथी ते बहिर्द्रष्टि मिथ्याद्रष्टि छे. समजाणुं कांई...! आ तो सर्वज्ञनो मारग बापा!

जुओ, अहीं शब्द शुं छे! के- ‘तत कञ्चिन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति’ –अहाहा...! एवुं कांई पण नथी के जे-रूप पोताने न करतो होय अर्थात् ए सर्वरूप पोताने करे छे. खरेखर तो ए सर्वरूपने जाणनार छे; पण एने ठेकाणे आ सर्व मारुं छे ने हुं तेने करुं छुं एम जे अध्यवसाय करे छे ते पोताने सर्वरूप करे छे एवो मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. ल्यो, आवी वात! हजी तो भानेय न होय के हुं सर्वज्ञस्वभावी आत्मा छुं ने मंडी पडे सामायिक, पडिक्कमण ने पोसा वगेरे करवा ने माने के मने धर्म थई गयो तो कहे छे-एनाथी धूळेय धर्म नहि थाय सांभळने. भगवान! तुं केवो छुं ने केवडो छुं ए त्रणलोकना नाथ देवाधिदेव अरिहंत परमात्माए ओम्ध्वनिमां जाहेर कर्युं छे. तेने तुं जाणे नहि तो आ बधी क्रियाओ तो फोगट छे, निष्फळ छे अर्थात् संसार माटे सफळ छे.


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एक फेरा छेल्ले छेल्ले संप्रदायमां हता त्यारे मोटी सभामां व्याख्यानमां कह्युं हतुं के आ आत्मा क्रमे क्रमे, क्रमे क्रमे दरेकने जाणे छे; ज्यां जे भवमां-गतिमां गयो, जे संयोगमां आव्यो तेने जाणे तो छे ने? पण एने आम क्रमे क्रमे जाणे छे, पण एने बदले ए सर्वने एक समयमां जाणे ते सर्वज्ञ थाय छे. आ आत्मा ज्यां ज्यां भव करे छे त्यांना ते ते क्षेत्रनुं ने भावनुं ज्ञान करे छे. ते ज्ञान तो ते प्रकारे तेने छे, पण ए क्रमे क्रमे आम भव करीने, राग करीने सर्वनुं ज्ञान करे छे. हवे एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने क्रम विना जाणे एवो एनो स्वभाव छे. ए स्वभावने अनुसरीने एक समयमां सर्वने-लोकालोकने जाणे एवी पर्याय प्रगट थाय तेने ज्ञाननी परिपूर्ण दशा- सर्वज्ञदशा कहे छे. ल्यो, आवी वात छे. भाई! आ तो न्यायथी बेसे एवी वात छे. वस्तुनी स्थिति जे रीते छे ते रीते तेने न्यायथी समजवी एनुं नाम जैनदर्शन छे, एम ने एम (ओघे ओघे) मानी ले के आ केवळी ने आ आत्मा ने आ फलाणुं ने आ ढींकणुं-एम जैनदर्शनमां छे नहि. ज्ञानने वस्तुस्थिति भणी दोरी जवुं एनुं नाम न्याय छे अने न्यायथी वस्तुने ग्रहण करवी ते यथार्थमां जैनदर्शन छे. समजाणुं कांई...?

अहीं तो ए लेवुं छे के-निरर्थक अध्यवसानथी विमोहित-उन्मत्त जीव, जगतमां एवी कोई वस्तु नथी जे-रूप ते पोताने न करतो होय. अनंतकाळमां एणे आ देह मारी ने वाणी मारी ने इन्द्रियो मारी, ने कर्म मारां ने आ बायडी-छोकरां मारां, पैसा मारा, आबरू मारी, दुकान मारी, देश मारो ने समाज मारो-एम कर्म, नोकर्म ने परजीवोने-सर्वने ते पोतानां करे छे. अरे भाई! ए परचीजने तारी करे छे एने बदले सर्वने जाणवानो तारो स्वभाव छे एनी प्रतीति करीने एने तारो कर ने! अहा! सर्वने (-परने) पोताना करवा जाय छे एने बदले हुं सर्वने जाणनार केवळज्ञानस्वभावी परमात्मद्रव्य छुं-एम पोताने पोतानो करने! बापु! परचीज तो अनंतकाळे तारी नहि थाय. अने तारी चीज तो तारी ज छे, एनी प्रतीति-द्रष्टि करतां ज सुख अने आनंद छे.

श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे के- ‘जो कदी प्रगटपणे वर्तमानमां केवळज्ञाननी उत्पत्ति थई नथी, पण जेनां

वचनना विचारयोगे-

-शक्तिपणे केवळज्ञान छे एम स्पष्ट जाण्युं छे, -एम श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे, -विचारदशाए केवळज्ञान थयुं छे, -इच्छादशाए केवळज्ञान थयुं छे,


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मुख्यनयना हेतुथी केवळज्ञान वर्ते छे. पहेलां पोतानो केवळज्ञानस्वभाव मान्यो नहोतो, केवळज्ञाननुं स्वरूप मान्युं नहोतुं, ते पोतानो शुद्ध स्वपरप्रकाशी एक ज्ञायकभाव श्रद्धानमां ने ज्ञानमां आव्यो त्यां ‘श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे’ एम कह्युं. केवळज्ञान तो १३ मे गुणस्थाने थशे, आ तो समकितीनो आत्मानो केवळज्ञानस्वभाव प्रतीतिमां आव्यो छे तो श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे एम कह्युं छे. हे भाई! तुं आवा केवळज्ञानस्वभावी आत्मानी प्रतीति कर ने!

अज्ञानी सर्वरूप पोताने करे छे ए हवे गाथामां आवशे. आ तो एनो उपोद्घात छे के-एवुं कांई पण नथी के जे-रूप पोताने न करतो होय. एम कहीने आचार्य एम कहे छे के-भगवान! तुं परमां क्यां गयो? स्वरूपनी प्रतीति करीने तारा सर्वज्ञस्वरूपमां रहे ने! सर्वने जाणनारा तारा स्वभावमां स्थिर था ने!

अहाहा! ज्ञाननी पर्याय जे स्व-परने जाणे छे एमां भविष्यनी पर्याय पण जाणवामां आवी ज जाय छे. भविष्यमां राग करीश एम नहि, पण भविष्यमां राग थशे तेनुं जे ज्ञान थशे ते ज्ञान ज्ञानीने आवी जाय छे, सर्व ज्ञान आवी जाय छे. ‘त्रणकाळ त्रणलोकने जाणनारो हुं,’ एवी वास्तविक प्रतीति एने आवी जाय छे. माणसने अभ्यास नहि एटले आ वात झीणी पडे. ओला घडिया गोख्या होय ने के - ‘पडिक्कमामि भंते इरियावहियाए, विराहणाए...’ एटले आ झीणुं पडे, पण शुं थाय? स्वरूपने जाण्या विना ए बधुं थोथेथोथां छे.

* कळश १७१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ आत्मा मिथ्या अभिप्रायथी भूल्यो थको चतुर्गति-संसारमां जेटली अवस्थाओ छे, जेटला पदार्थो छे ते सर्वरूप पोताने थयेलो माने छे, पोताना शुद्ध स्वरूपने नथी ओळखतो.’

शुं कीधुं? अहाहा...! पोतानुं तो ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप छे अने एणे सर्वना ज्ञाता- द्रष्टापणे रहेवुं जोईए. पण एने ठेकाणे ते मिथ्या अभिप्रायथी मोहित थईने चतुर्गति संसारमां जेटली अवस्थाओ अने जेटला पदार्थो छे ते सर्व मारां छे एम माने छे, सर्वरूप पोताने करे छे.

जोयुं? जेटली अवस्थाओ, छे ते सर्वरूप पोताने थयेलो माने छे. एटले के भविष्यनी सर्व अवस्थाओने जाणवानुं एम सामर्थ्य छे, अने ते जे जे अवस्थाओने जाणे छे ते सर्वरूप पोताने करे छे, अर्थात् ते सर्व मारी छे एम ते माने छे. अहा! आ देहनी, वाणीनी, इन्द्रियनी, रागनी, कर्मनी इत्यादि सर्वनी अवस्थाओने ते पोतानी माने छे.


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अहाहा...! पडखुं फेरवीने गुलांट खाय तो अंदर पोतानुं एक ज्ञायकस्वरूप जणाय एम छे. ‘परनुं करनारो हुं’ एम परना पडखेथी खसीने हुं तो सर्वने जाणनार एक ज्ञायकस्वभावमात्र छुं एम स्वना पडखे आवतां भगवान निर्मळानंदस्वरूप प्रभु आत्मा जणाय छे. बस पडखुं फेरववानी जरूर छे अर्थात् स्वरूपनो-स्वनो आश्रय लेवो जरूरी छे. आ बधी वात कहेवानो आशय आ एक ज छे के परथी खसीने स्वनो आश्रय कर. तेम कर्या विना केवळज्ञानस्वरूप भगवान आत्मानी ने केवळीनी यर्थाथ प्रतीति नहि थाय. अहाहा...! स्वनो आश्रय कर्या विना पोते भगवान स्व-परप्रकाशी ज्ञानस्वरूप त्रिकाळ छे एनी प्रतीति नहि थाय.

अहाहा....! एनो स्वभाव तो अंदर एवो छे के कांईपण बाकी राख्या वगर बधायने जाणे, पण एना बदले ए पोताना स्वभावने भूलीने कांईपण बाकी राख्या वगर बधीय परवस्तु मारी छे एम ते माने छे. स्वनो प्रकाशक अने परनो प्रकाशक - एवुं एनुं स्वरूप छे. पण आ पर बधुं मारुं छे एम पररूप पोताने ते करे छे तेथी स्वरूपनो अजाण ते महा मिथ्याद्रष्टि दीर्घ संसारी छे.

अहा! अज्ञानीए गुलांट खाधी छे पण अनादिथी ऊंधी गुलांट खाधी छे. रागना विकल्पथी मांडीने कांईपण बाकी राख्या वगर जगतनी बधी चीजोने ते मारी छे एम मान्या विना ते रहेतो नथी. अहा! बधायने पूर्ण जाणवानो ज पोतानो स्वभाव-धर्म छे एम यथार्थ मानवाने बदले एणे बधायने करवानो पोतानो धर्म छे एम मान्युं छे. तेथी बधीय वस्तु मारी छे ने तेने करी दउं एम ते माने छे. आ प्रमाणे परमां रोकाई गयेलो ते पोताना शुद्ध-स्वरूपने ओळखतो नथी. अरे! पर मारुं ने परनुं हुं करुं-एवा मिथ्या अभिप्रायनी आडमां अंदर चैतन्यमूर्ति चिदानंदघन प्रभु पोते पडेलो छे तेने देखतो नथी-ओळखतो नथी.

[प्रवचन नं. ३२१ (शेष) अने ३२२ दिनांक १६-२-७७ अने १७-२-७७]
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गाथा २६८–२६९
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरइए।
देवमणुए य सव्वे पुण्णं पावं च णेयविहं।। २६८।।
धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोगलोगं च।
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं।। २६९।।
सर्वान् करोति जीवोऽध्यवसानेन तिर्यङ्नैरयिकान्।
देवमनुजांश्च सर्वान् पुण्यं पापं च नैकविधम्।। २६८।।
धर्माधर्म च तथा जीवाजीवौ अलोकलोकं च।
सर्वान् करोति जीवः अध्यवसानेन आत्मानम्।। २६९।।

हवे आ अर्थने स्पष्ट रीते गाथामां कहे छेः-

तिर्यंच, नारक, देव, मानव, पुण्य पाप विविध जे,
ते सर्वरूप निजने करे छे जीव अध्यवसानथी. २६८.
वळी एम धर्म अधर्म, जीव–अजीव, लोक–अलोक जे,
ते सर्वरूप निजने करे छे जीव अध्यवसानथी. २६९.

गाथार्थः– [जीवः] जीव [अध्यवसानेन] अध्यवसानथी [तिर्यङ्नैरयिकान्] तिर्यंच, नारक, [देवमनुजान् च] देव अने मनुष्य [सर्वान्] ए सर्व पर्यायो, [च] तथा [नैकविधम्] अनेक प्रकारनां [पुण्यं पापं] पुण्य अने पाप- [सर्वान्] ए बधारूप [करोति] पोताने करे छे. [तथा च] वळी तेवी रीते [जीवः] जीव [अध्यवसानेन] अध्यवसानथी [धर्माधर्म] धर्म-अधर्म, [जीवाजीवौ] जीव-अजीव [च] अने [अलोकलोकं] लोक-अलोक- [सर्वान्] ए बधारूप [आत्मानम् करोति] पोताने करे छे.

टीकाः– जेवी रीते आ आत्मा पूर्वोकत प्रकारे *क्रिया जेनो गर्भ छे एवा हिंसाना अध्यवसानथी पोताने हिंसक करे छे, (अहिंसाना अध्यवसानथी पोताने अहिंसक करे छे) अने अन्य अध्यवसानोथी पोताने अन्य करे छे, तेवी ज रीते उदयमां _________________________________________________________________ * हिंसा आदिनां अध्यवसानो रागद्वेषना उदयमय एवी हणवा आदिनी क्रियाओथी भरेलां छे,

अर्थात् ते क्रियाओ साथे आत्मानुं तन्मयपणुं होवानी मान्यतारूप छे.

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(इन्द्रवज्रा)
विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावा–
दात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्।
मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष
नास्तीह येषां यतयस्त एव।।
१७२।।

आवता नारकना अध्यवसानथी पोताने नारक (-नारकी) करे छे, उदयमां आवता तिर्यंचना अध्यवसानथी पोताने तिर्यंच करे छे, उदयमां आवता मनुष्यना अध्यवसानथी पोताने मनुष्य करे छे, उदयमां आवता देवना अध्यवसानथी पोताने देव करे छे, उदयमां आवता सुख आदि पुण्यना अध्यवसानथी पोताने पुण्यरूप करे छे अने उदयमां आवता दुःख आदि पापना अध्यवसानथी पोताने पापरूप करे छे; वळी तेवी ज रीते जाणवामां आवतो जे धर्म (अर्थात् धर्मास्तिकाय) तेना अध्यवसानथी पोताने धर्मरूप करे छे, जाणवामां आवता अधर्मना (अर्थात् अधर्मास्तिकायना) अध्यवसानथी पोताने अधर्मरूप करे छे, जाणवामां आवता अन्य जीवना अध्यवसानथी पोताने अन्यजीवरूप करे छे, जाणवामां आवता पुद्गलना अध्यवसानथी पोताने पुद्गलरूप करे छे, जाणवामां आवता लोकाकाशना अध्यवसानथी पोताने लोकाकाशरूप करे छे अने जाणवामां आवता अलोकाकाशना अध्यवसानथी पोताने अलोकाकाशरूप करे छे. (आ रीते आत्मा अध्यवसानथी पोताने सर्वरूप करे छे.)

भावार्थः– आ अध्यवसान अज्ञानरूप छे तेथी तेने पोतानुं परमार्थ स्वरूप न जाणवुं. ते अध्यवसानथी ज आत्मा पोताने अनेक अवस्थारूप करे छे अर्थात् तेमनामां पोतापणुं मानी प्रवर्ते छे.

हवे आ अर्थना कळशरूपे तथा आगळना कथननी सूचनिकारूपे काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः–

[विश्वात् विभक्तः अपि हि] विश्वथी (समस्त द्रव्योथी) भिन्न होवा

छतां [आत्मा] आत्मा [यत्–प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति] जेना प्रभावथी पोताने विश्वरूप करे छे [एषः अध्यवसायः] एवो आ अध्यवसाय- [मोह–एक–कन्दः] के जेनुं मोह ज एक मूळ छे ते- [येषां इह नास्ति] जेमने नथी [ते एव यतयः] ते ज मुनिओ छे. १७२.

*
समयसार गाथा २६८–२६९ः मथाळुं

हवे आ अर्थने स्पष्ट रीते गाथामां कहे छेः-


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* गाथा २६८ – २६९ः गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *
‘तिर्यच, नारक, देव, मानव, पुण्यपाप विविध जे,
ते सर्वरूप निजने करे छे जीव अध्यवसानथी.’

जोयुं? आमां चार गति भेगा पुण्य-पापना भाव, शुभ-अशुभ भाव पण नाख्या. खरेखर तो पोते स्वने जाणे, स्वप्रकाशी थाय त्यारे, पुण्य-पाप आदि बधायने जाणे एवो एनो परप्रकाशक स्वभाव छे. परंतु एना वगर (स्वने प्रकाश्या वगर) केवळ परप्रकाशक सौने जाणे छे पण ते यथार्थ नथी. खरेखर तो ज्यारे आत्माना स्वप्रकाशनुं-शुद्ध चैतन्यप्रकाशनुं एने भान थयुं त्यारे रागादि (पुण्य-पाप आदि) जे छे ते व्यवहारे जाणेलो प्रयोजनवान छे. छे तो आम; एने बदले ते (-रागादि) करेलो प्रयोजनवान छे एम अज्ञानी माने छे. अनेक प्रकारना शुभ-अशुभभावने करुं, पुण्यभाव करुं, पापभाव करुं, आ करुं ने ते करुं एम करवाना मिथ्या अहंकार वडे ते सर्वरूप पोताने करे छे. अहो! आ तो गजब शैलीथी वात छे. अहा! शुं समयसार! ने शुं एनी शैली!!

ते ज प्रमाणे मिथ्या अध्यवसायथी, धर्म, अधर्म आदि जे छ द्रव्यो छे ते सर्वरूप पोताने ते करे छे. अहीं गाथामां धर्म, अधर्म एटले पुण्य-पापनी वात नथी, पण धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय द्रव्योनी वात छे. ‘सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार’ मां (गाथा ४०४मां) ‘धरमाधरम, दीक्षा वळी...’ एम आवे छे त्यां धर्म, अधर्म एटले पुण्य-पाप ज्ञान छे, आत्मा छे-एम वात आवे छे. ए तो त्यां आत्माना अस्तित्वमां जेटलुं जेटलुं जेटलुं छे ते बधुं सिद्ध करवुं छे. एम के शुभ-अशुभ भाव पण पोताना (पर्यायरूप) अस्तित्वमां छे, ए कांई परना अस्तित्वमां नथी एम त्यां सिद्ध करवुं छे. आवी वात छे बापु!

हवे आखो दि’ एनुं चित्त वेपार-धंधामां, बायडी-छोकरामां ने खावा-पीवा ने ऊंघवामां रोकायेलुं रहे तेमां मांड एकाद कलाक सांभळवा मळे; एमांय पाछी आवी (निर्भेळ) वात समजाय नहि एटले कहे के-दया पाळो, व्रत करो, तपस्या करो, भक्ति करो एवुं कहो तो कंईक समजाय. पण भाई! ए करवानो तारो जे भाव छे ते मिथ्यात्व छे.

अहाहा...! भाई! तुं प्रज्ञाब्रह्म छो ने? तुं ज्ञानस्वरूप छो ने प्रभु? अहाहा...! आत्मा एकलुं ज्ञाननुं दळ छे. ते ज्ञान करे, पर्यायमां सर्वने जाणे-एम न मानतां सर्वने हुं करुं छुं एम माने छे ते मिथ्याबुद्धि छे भाई! आ पुण्यना भाव मारा, पापना भाव मारा, आ स्त्री-पुत्र-परिवार सौ मारां एम तुं माने पण ए बधां तारां कयांथी थयां बापा? ए तो बधां तारा परप्रकाशनो (परप्रकाशी ज्ञाननो)


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विषय (परज्ञेय) छे. एने ठेकाणे ए बधां मारां-एम कयांथी लाव्यो? हुं घरनो मालिक, हुं स्त्रीनो मालिक, हुं पैसानो मालिक एम माने पण कोण मालिक प्रभु! तुं तो एकला ज्ञानस्वरूपनो मालिक छे, परवस्तुनो मालिक माने छे ए तारो मिथ्या भ्रम छे, अज्ञान छे.

* गाथा २६८–२६९ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जेवी रीते आ आत्मा पूर्वोक्त प्रकारे क्रिया जेनो गर्भ छे एवा हिंसाना अध्यवसानथी पोताने हिंसक करे छे,.....’

अहाहा....! आत्मा पूर्वोक्त प्रकारे एटले के हुं बीजाने मारुं-जिवाडुं, दुःखी-सुखी करुं, बंधावुं-मूकावुं इत्यादि प्रकारे क्रिया जेनो गर्भ छे एवा हिंसाना अध्यवसानथी पोताने हिंसक करे छे. आ पर साथे एकत्वबुद्धिसहित जे अध्यवसान छे ते राग-द्वेषनी क्रियाथी भरेला छे. शुं कीधुं? के स्व ने पर सदा भिन्न वस्तु छे. तेथी हुं परनुं करुं-परने मारुं-जिवाडुं इत्यादि अभिप्राय ए स्व-परनी एकत्वबुद्धि छे. अहीं कहे छे-आवी स्व- परनी एकत्वबुद्धिसहित जे अध्यवसान छे ते राग-द्वेषनी क्रियाथी भरेला छे अने राग- द्वेषरूप हिंसाना अध्यवसानथी ते पोताने हिंसक करे छे.

आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु एकला ज्ञानभावथी-वीतरागभावथी भरेलो भगवान छे; ज्यारे परने बंधावुं-मूकावुं इत्यादि प्रकारे आ परनी एकत्वबुद्धिरूप जे अध्यवसान छे ते एकला राग-द्वेषनी क्रियाथी भरेला छे, अहा! अध्यवसानना गर्भमां एकला राग-द्वेष भरेला छे. हवे एक ज्ञायकभावस्वरूप-वीतरागभावस्वरूप भगवान आत्मानी द्रष्टि करवाने बदले हुं आने बंधावी दउं, मूकावी दउं इत्यादि प्रकारे जे आ अध्यवसान करे छे ते एकला मलिन राग-द्वेषना परिणामथी भरेलो होवाथी पोताने रागरूप-मलिन-हिंसक करे छे.

शुं कीधुं? के भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति प्रभु अखंड एक ज्ञायकभावमात्र वस्तु छे. तेमां द्रष्टि प्रसरतां पर्यायमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागभाव प्रसरे छे. पण एने ठेकाणे एनाथी विरुद्ध आ, हुं परनुं करुं-परना प्राणोने (पांच इन्द्रिय, मन-वचन- कायबळ, श्वासोच्छ्वास ने आयुष्य) हणुं के एनी रक्षा करुं-इत्यादि प्रकारे राग-द्वेषनी क्रियाथी जे भरेलां छे एवां अध्यवसान करे छे ते अनादिथी पोताने राग-द्वेषरूप करे छे, हिंसक करे छे. अहा! पोते त्रिकाळ वीतरागस्वभावे छे, पण एने भूलीने ते पोताने हिंसक करे छे! (महा खेदनी वात).

तेवी रीते क्रिया जेनो गर्भ छे एवा अहिंसाना अध्यवसानथी पोताने अहिंसक करे छे.


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अहा! आ जगतने आकरी लागे एवी वात छे. भाई! ‘पर जीवनी रक्षा करुं’ एवो अहिंसानो अध्यवसाय छे ते वास्तवमां पाप छे. भगवान! परनी रक्षा तो तुं करी शकतो नथी, छतां ‘परनी रक्षा करुं’ एवो अहिंसानो अध्यवसाय तुं करे ए मिथ्या छे, निरर्थक छे अने ते एकत्वबुद्धि सहित होवाथी एकली राग-द्वेषनी क्रियाथी भरेलो छे. एना गर्भमां-पेटमां एकलो राग-द्वेष भरेलो छे; एमां भगवान आत्मानो वीतरागभाव, चैतन्यभाव आवतो नथी, पण एकला राग-द्वेष भरेला छे.

प्रश्नः– तो सम्यग्द्रष्टि सर्व जीवोने अभयदाननो दाता छे ते केवी रीते छे? समाधानः– भाई! पर जीवोने हुं अभयदान दउं वा पर जीवोनी रक्षा करुं-एवो एकत्वबुद्धिसहित अभिप्राय समकितीने छे नहि, केमके पर साथेनी एकत्वनी ग्रंथि एने छूटी गई छे. समकितीने किंचित् अस्थिरताना कारणे पर जीवोना अभयदान संबंधी विकल्प अवश्य आवे छे, पण ए पर जीवोथी अने तेनी रक्षाना विकल्पथी हुं भिन्न छुं एवी अंतर-प्रतीति एने निरंतर होय छे. अहा! अहिंसाना विकल्पना काळे पण एने अंतरंगमां निर्विकल्प सम्यग्दर्शन-ज्ञान आदि वीतरागभावरूप परिणति प्रगट होय छे. आ रीते तेने अंतरंगमां निश्चय अने बहारमां व्यवहार अभयदान वर्ते छे.

ज्यारे मिथ्याद्रष्टिने तो ‘हुं परने न मारुं, परने राखुं’ -एवा अध्यवसायमां एकला राग-द्वेष-मोहना भाव ज भर्या छे.

‘परना प्राणोनी रक्षा करुं’ एवो जे परने बचाववानो अभिप्राय ते पाप छे ए लोकोने आकरुं लागे छे. पण भाई! पोतानी सत्ता परमां जाय तो तुं परनी रक्षा करे ने? पण एम तो बनतुं नथी. पोतानी सत्ता तो त्रिकाळ पोतामां ज रहे छे, परमां कदीय जती नथी. तेथी ते अध्यवसाय परनुं तो कांई करी शकतो नथी, पण पोताने अहिंसक करे छे, अहिंसक करे छे एटले के रागद्वेषमोहरूप पोताने करे छे. अहीं अहिंसक एटले वीतरागी अहिंसक-एम नहि, पण जेना गर्भमां राग-द्वेष-मोहनी क्रिया भरेली छे तेवो अहिंसक पोताने करे छे. समजाणुं कांई....?

प्रश्नः– पण ‘अहिंसा परम धर्म छे’ -एम कह्युं छे ने? उत्तरः– हा, ए कह्युं छे ए तो यथार्थ ज छे. पण ते अहिंसा कयी? भाई! ए वीतरागी अहिंसानी वात छे. शुद्ध चैतन्यस्वरूप, ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्माना आश्रये अंतरमां निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागी परिणति प्रगट थाय ते अहिंसा छे अने ते परम धर्म छे. (अने एवा धर्मीने पर जीवोनी रक्षा करवानो विकल्प आवे छे तेने व्यवहारथी व्यवहारधर्म कहेवामां आवे छे).

अहीं ए वात नथी. अहीं तो जेने परम धर्म अर्थात् निश्चयधर्मेय नथी अने व्यवहारधर्मेय नथी एवा अज्ञानीनी वात छे. अज्ञानीने पर जीवोने हुं


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बचावुं अर्थात् पर जीवोने न हणुं एवो जे परमां एकत्वबुद्धिनो अहिंसानो अध्यवसाय छे ते रागद्वेषमोहनी क्रियाथी अंतर्गर्भित छे अने तेवा अध्यवसाय वडे ते पोताने अहिंसक करे छे एटले के रागद्वेषमोहरूप करे छे एम वात छे. झीणी वात छे प्रभु! अहा! पर साथे ने रागद्वेषनी क्रिया साथे जे तद्रूप-तन्मय छे एवा आ अध्यवसाय मिथ्यात्वना महापापरूप छे. तेथी एवा अध्यवसाय वडे जीव पोताने अहिंसक करे छे एटले के पापरूप करे छे एम वात छे; ए पुण्येय नथी पण मिथ्यात्वना महापापरूप छे एम कहेवुं छे. समजाणुं कांई...?

पर जीवोनी दया पाळवानो जे भाव छे ते पुण्यभाव छे, पण तेमां पर जीवोनी दया हुं पाळी शकुं छुं एवो जे परना एकत्वसहित अध्यवसाय छे ते मिथ्यात्वना महापापरूप छे, अने ते वडे जीव पोताने अहिंसक एटले पापरूप करे छे एम अहीं कहे छे. भारे आकरी वात!

हवे कहे छे- ‘अने अध्यवसानोथी पोताने अन्य करे छे,......’ अहा! अनेक प्रकारे, हुं आ करुं ने ते करुं, घरमां कन्याओ मोटी थई छे एमने सारा ठेकाणे परणावी दउं, आ छोकराओने कामधंधे लगाडी दउं, तेमना सुख माटे बंगला ने बाग-बगीचा बनावी दउं इत्यादि अध्यवसायथी पोताना एक ज्ञायकभावने भूलीने तुं परमां एकाकार थई जाय छे पण भगवान! तुं एमां हणाई जाय छे, केमके ए अध्यवसाय राग-द्वेष-मोहनी क्रियाथी भरेला छे. भगवान! तुं चोरासीना अवतारमां आवा मिथ्या भाव वडे चारेकोरथी लूंटाई रह्यो छे.

अहाहा....! बीजाने सामग्री दई ने सुखी करी दउं, पाणी पाईने तृषा मटाडुं, दवा आपीने एनो रोग मटाडुं, मा-बापनी सेवा करुं, गरीबोनी सेवा करुं, देशनी सेवा करी लोकोने सुखी करी दउं इत्यादि अध्यवसाय बधा रागद्वेषथी भरेला मिथ्यात्वभाव छे. आ सत्याग्रह नथी करता? एम के आ प्रमाणे न थाय तो कायदानो भंग करीने लोको जेलमां जाय छे. घणा लोको आ प्रमाणे जेलमां जई आव्या छे ने? अरे! ए जेल नहि बापु! जेल तो आ मिथ्या अभिप्राय छे ते छे. श्रीमद राजचंद्रे ‘अमूल्य तत्त्वविचार’मां कह्युं छे ने के-

‘ए दिव्य शक्तिमान जेथी जंजीरेथी नीकळे.’ अहाहा...! आत्मा दिव्य शक्तिमान प्रभु वीतरागी परमानंदथी भरेलो अनंत शक्तिओनो भंडार चित्चमत्कारस्वरूप भगवान छे. तेने ‘आ परनुं करुं’ एवो मिथ्या अध्यवसाय जंजीर नाम जेल छे. (केमके एने आ अध्यवसाय ८४ लाखना अवतारमां- जेलमां धकेली दे छे.)

अहा! अन्य अध्यवसानोथी पोताने अन्य करे छे. हुं वाणियो छुं, हुं ब्राह्मण


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छुं, हुं क्षत्रिय छुं, हुं हरीजन छुं, दरजी छुं, मोची छुं, लुहार छुं,-इत्यादि एवा अध्यवसानथी पोताने ते-रूप करे छे. हुं ज्ञायक छुं एम अनुभववाने बदले मिथ्या अध्यवसानथी आ हुं अन्य छुं एम पोताने अन्यरूप करे छे. भगवान आत्मा तो एक ज्ञायकभावरूप छे; ते वाणियो के ब्राह्मण आदि कयां छे? पण परमां एकाकार थईने ते मिथ्या अध्यवसान वडे पोताने पररूप माने छे. अहा! पोताना पेटमां तो परमानंद भरेलो छे पण मिथ्या अध्यवसान वडे ते चारगतिनी जेलरूप-दुःखरूप पोताने करे छे ए महा खेद छे.

‘तेवी ज रीते उदयमां आवता नारकना अध्यवसानथी पोताने नारक (-नारकी) करे छे,.....’

अहा! ए नरकगतिमां जाय छे त्यारे हुं नारकी छुं एम माने छे. अरे भगवान! तुं तो एक ज्ञायकमात्र छो, नारकी तो जड देह छे. एनामां हुं नारकी छुं एवो अभिप्राय तुं करे ते मिथ्यात्व छे; एमां एकलो रागद्वेष ने मिथ्यात्वरूपी कषाय भरेलो छे. मिथ्यात्व ए कषाय छे ने? कषायना भेदमां मिथ्यात्व आवी जाय छे. स्थिति ने अनुभाग (रस) नो बंध कषायथी पडे छे ने प्रकृति ने प्रदेशबंध योगथी पडे छे.

‘उदयमां आवता नारकना अध्यवसानथी...’ एम कहीने अहीं एम पण सिद्ध करवुं छे के तुं नारकीपणे पण भगवान! अनंतवार उपज्यो छे अने त्यारे हुं नारकी छुं एवो अध्यवसाय करीने तें तारा जीवने हणी नाख्यो छे. अहा! ए नारकी नथी पण जेना पेटमां परमानंद पडेलो छे तेवो ए ज्ञायकस्वरूप भगवान छे. एमांथी प्रसव थाय तो अतीन्द्रिय आनंद प्रसवे एवी ए चीज छे.

जुओ, श्रेणीक राजा हाल नरकमां छे; पण हुं नारकी छुं एम एमने नथी. समकिती छे ने? अंदर निर्मळानंदनो नाथ छे एने भाळ्‌यो छे ने? एटले हुं ज्ञानानंदस्वरूपी भगवान आत्मा छुं एम पोताने अनुभवे छे. आ नारकपर्याय छे ए तो परचीज छे, एनो तो हुं जाणनारमात्र छुं-एम पोते माने छे. मान्यतामां मोटो फेर बापु! ए चोरासीना अवतार करी करीने तुं भवसमुद्रमां डूबी गयो छुं एनुं कारण एक आ मिथ्या अध्यवसाय ज छे. समजाणुं कांई...?

श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे के- ‘मिथ्यात्वनुं लक्षण ए छे के परचीजने पोतानी मानवी अने पोतानी चीजने भूली जवी.’ अहा! एणे शास्त्रनां जाणपणां कर्यां, परलक्षी परप्रकाशक ज्ञान कर्युं, पण ए ज्ञान क्यां पोतानुं हतुं? अहा! परलक्षी ज्ञान कांई पोतानुं ज्ञान नथी, ज्ञाननुं ज्ञान नथी. अरे! परना लक्षे तो ए अनंतवार


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शास्त्र भण्यो, पण दिशा बदली स्वलक्ष कर्युं नहि, परमानंदस्वरूप पोताना भगवानने अंदर जाण्यो नहि तो शो लाभ? अहा! परने पोतानुं मानवुं, पूर्णस्वरूपने अपूर्ण मानवुं ने पोताने पर्याय जेवडो मानवो ए मिथ्यात्व छे भाई! एना गर्भमां अनंतां जन्म- मरण पडेलां छे.

हवे कहे छे - ‘उदयमां आवता तिर्यंचना अध्यवसानथी पोताने तिर्यंच करे छे,.....’

आम कहीने एम पण सिद्ध करे छे के आ भवसमुद्रमां एकेन्द्रियथी मांडीने पंचेन्द्रिय सुधीना तिर्यंचमां प्रभु! तुं अनंत अनंतवार गयो छुं अने त्यारे त्यां ‘हुं तिर्यंचपणे छुं’ एम तें मान्युं हतुं. जुओने! आ गाय, भेंस वगेरे तिर्यंचो केवां शरीरमां एकाकार थई रह्यां छे! अंदर पोते चिदानंदस्वरूप भगवान छे एनुं कांई भान न मळे ने एकला शरीरमां तद्रूप थई रह्यां छे. अहा! एने (शरीरने) राखवा माटे घास खाय, पाणी पीए ने कदाचित् लीलुं घास मळी जाय तो राजीराजी थई जाय ने माने के हुं (तिर्यंचपणे) सुखी छुं. बहु गंभीर वात! अहीं कहे छे-ए मिथ्या अध्यवसायथी जीव पोताने तिर्यंच करे छे. तिर्यंच थई जाय एम नहि, ए तो ज्ञायक ज रहे छे, पण मिथ्या अध्यवसायथी जीव पोताने तिर्यंच माने छे. ल्यो, आवी वात छे!

वळी कहे छे- ‘उदयमां आवता मनुष्यना अध्यवसानथी पोताने मनुष्य करे छे,.....’

मनुष्य थयो तो माने के हुं मनुष्य छुं. एमांय वळी हुं स्त्री छुं, पुरुष छुं, नपुंसक छुं, बाळक छुं, युवान छुं, वृद्ध छुं, पंडित छुं, मूर्ख छुं, रोगी छुं, नीरोगी छुं, राजा छुं, रंक छुं, शेठ छुं, नोकर छुं, नानो छुं, मोटो छुं, काळो छुं, रूपाळो छुं ईत्यादि अध्यवसानथी अनेक प्रकारे पोताने ते-रूपे करे छे.

कोई वळी समाजसेवामां ने देशसेवामां भळेला होय तो माने के अमे मोटा समाजसेवक ने देशसेवक छीए. अमे दीन-दुःखियांनी सेवा करनारा दरिद्रनारायण लोकसेवक छीए. भाई! आवुं तारुं अध्यवसान एकला रागद्वेषने मिथ्यात्वथी भरेलुं छे. भाई! तुं ए रागमय अध्यवसानमां तद्रूप थई रह्यो छे पण एमां आत्मानी गंधेय नथी. भजनमां आवे छे ने के-

‘वैष्णवजन तो तेने कहिये, जे पीड पराई जाणे रे;
पर दुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे.’

त्यां जाणे ए तो जुदी वात छे, ‘पण परनी पीडा हुं हरुं ने परनो उपकार करुं’ -एवी परना एकत्वरूप मान्यता बापु! मिथ्या अध्यवसान छे, ने तेना गर्भमां एकला रागद्वेष भरेला छे.


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वळी कोई गर्वथी कहे छे के-अमे गर्भश्रीमंत छीए, एम के माताना पेटमां आव्या त्यारथी श्रीमंत छीए, अमे कांई नवा नथी थया; त्यारे कोई वळी रांकाईथी कहे- अमे जन्मथी दीन-दरिद्री छीए. तेने कहीए छीए-तुं आ शुं कहे छे प्रभु? श्री नाम ज्ञानानंदनी लक्ष्मीथी भरेलो सहजचतुष्यरूप लक्ष्मीनो भगवान! तुं स्वामी छो. अहाहा...! जेमांथी अनंत चतुष्टय-अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंत वीर्य नीकळे एवो भंडार छो ने तुं प्रभु! अहा! आ हुं श्रीमंतने घरे जन्म्यो एम तुं शुं माने छे? बहारना संयोगथी तुं पोताने श्रीमंत ने दरिद्री करे छे ते तारो मिथ्या अध्यवसाय छे; एना गर्भमां अनंता रागद्वेष भरेला छे जे अनंत संसारनुं कारण छे.

हवे कहे छे- उदयमां आवता देवना अध्यवसानथी पोताने देव करे छे,... ...’

आ भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी अने वैमानिकना देव होय छे ने? ते एम माने के अमे आवा रिद्धिवाळा देव छीए, असंख्य देवोना स्वामी छीए, अमारे आटली देवीओ-अप्सराओ छे. भाई! आ तुं क्यांथी लाव्यो? ए अध्यवसान मिथ्यात्वना एकला मलिन परिणामथी भरेला छे. देव किंकर होय तो एम माने के अमारे हाथी वगेरेनां रूप धारण करवां पडे. आ इन्द्रो भगवाननो जन्म-कल्याणक उजवे छे ने? त्यारे ऐरावत हाथी उपर बेसाडीने भगवानने मेरु पर्वत उपर लई जाय. त्यां हाथी-बाथी कांई होय नहि, पण किंकर देव होय ते ऐरावत हाथीनुं रूप धारण करे अने एना उपर देवीओ नाचे. पण भाई! तुं क्यां देव छो? तुं क्यां हाथी छो? तुं क्यां देवी छो? अरे भाई! हुं देव छुं, देवी छुं, हाथी छुं ईत्यादि अध्यवसायथी, हुं भगवान ज्ञायक छुं एम द्रव्यद्रष्टि छोडी दईने, पर्यायमां सलवाई गयो? ए अध्यवसाय बापु! तने अनंत संसारनुं कारण छे.

हवे कहे छे-’ उदयमां आवता सुख आदि पुण्यना अध्यवसानथी पोताने पुण्यरूप करे छे,... ...’

जुओ, बहारमां सामग्री भरपूर मळी होय, करोडो-अबजोनी संपत्तिनी साह्यबी होय, बंगलामां राच-रचीलामां करोडो रूपिया नाख्या होय, मोटा लीलाछम बगीचा मखमलना गालीचा जेवा देखाता होय, घरे हाथी, घोडा, नोकर-चाकर वगेरेनी भरमार होय, -आवा उदयमां आवता सुखना साधनोमां मारापणानी एकत्वबुद्धिथी अर्थात् सुखना अध्यवसानथी (अज्ञानी) जीव पोताने पुण्यरूप करे छे. अहा! अमने अढळक संपत्ति! कुटुंब-परिवार, नोकर-चाकर ईत्यादि चारेकोरथी अमने सगवडता! अहो! अमे सुखी महा भाग्यशाळी-पुण्यशाळी छीए. आ प्रमाणे सुख आदि पुण्यना अध्यवसानथी ते पोताने पुण्यरूप करे छे.


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वळी, कोई गरीब माणस होय ने घेर दीकरो होशियार होय तो कन्या बे-पांच करोड लई ने आवे एटले माने के अमारां पुण्य फळ्‌यां ने सामावाळो कन्यानो बाप पण माने के अमारुं भाग्य के अमने आवो होशियार जमाई मळ्‌यो ने छोकरी सारी पेठे ठेकाणे पडी. आ प्रमाणे सुख आदि पुण्यना अध्यवसानथी अज्ञानी पोताने पुण्यरूप करे छे; एटले के अमे पुण्यशाळी-एम पोताने माने छे. पण भाई! ए पुण्य आदि साधनो तारां क्यां छे? नाहकनुं अमे पुण्यशाळी एम सुखना अध्यवसानथी तुं पोताना माटे अनर्थ-नुकशान करे छे; केमके ते अध्यवसान राग-द्वेष ने मिथ्यात्वथी भरेलां छे, अनंत संसारनुं बीज छे. अहा! आवो वीतरागनो मारग! पण जगतने क्यां पडी छे? (ए तो पुण्यनी धूनमां छे).

’ अने उदयमां आवता दुःख आदि पापना अध्यवसानथी पोताने पापरूप करे छे.......’

जुओ, प्रतिकूळ सामग्री बहारमां आवी पडे, शरीरमां क्षय आदि रोग थाय, घरमां बायडी मरी जाय, कमाउ दीकरो होय ते मरी जाय, छोकरी रांडे, घरमां कोई आज्ञा माने नहि, सगां-वहालां विपरीत चाले, वेपार-धंधामां अवळुं पडे ने नुकशान जाय, धंधो भांगी पडे ईत्यादि बधी प्रतिकूळता आने घेरो घाले त्यारे आ मुंझाई जाय अने राडो पाडे के-अरे! अमे मरी गया, अमने भारे पापनो उदय छे, अमे निराधार थई गया. आ प्रमाणे दुःख आदि पापना अध्यवसानथी ते पोताने पापरूप करे छे. अरे भाई! ए सामग्रीमां तुं क्यां छे? अने तारामां ए सामग्री क्यां छे के एना विना तुं निराधार थई जाय? बापु! तुं परना आधार विनानो स्वरूपथी ज सदा एक स्वाधीन छो. छे तो आम, तोपण अज्ञानी उदयमां आवता दुःख आदि पापना अध्यवसानथी पोताने पापरूप करे छे.

‘वळी तेवी ज रीते जाणवामां आवतो जे धर्म (अर्थात् धर्मास्तिकाय) तेना अध्यवसानथी पोताने धर्मरूप करे छे,......’

जुओ, आ जैनदर्शननी वात. बीजे (अन्यमतमां) तो धर्मास्तिकाय आदि कांई छे नहि, पण जैनमां धर्मास्तिकाय नामनुं एक लोकव्यापी अरूपी द्रव्य छे एम स्वीकारायुं छे. अहा! जीव-पुद्गलोने स्वयं गति करवामां जे उदासीन निमित्त छे एवुं धर्मास्तिकाय नामनुं एक अरूपी द्रव्य छे एम सर्वज्ञ भगवाने जोयुं छे, हवे एनो विचार करतां अज्ञानीने ए तरफनो जे विकल्प उठे छे ए विकल्पने पोतानो मानीने धर्मास्तिकाय पोतानुं छे एम माने छे. शुं कीधुं? के जैनमां (जैन संप्रदायमां) होय अने धर्मास्तिकायनो विचार आवतां एमां एकत्व करीने ते धर्मास्तिकायरूप पोताने करे छे अर्थात् धर्मास्तिकाय मारुं छे एम ते माने छे. अहा! अज्ञानीने धर्मास्तिकायने


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जाणवा प्रति जे विकल्प उठे छे तेमां तेने एकत्वबुद्धि थई जाय छे ने ते एकत्वबुद्धिना अध्यवसानथी पोताने धर्मास्तिकायरूप करे छे. पोते अखंड एक ज्ञायकभावरूप छे एनुं भान नहि होवाथी मिथ्याद्रष्टि जीव जाणवामां आवता धर्मास्तिकायना अध्यवसानथी पोताने धर्मास्तिकायरूप करे छे. आवी वात छे!

वळी, ‘जाणवामां आवता अधर्मना (अर्थात् अधर्मास्तिकायना) अध्यवसानथी पोताने अधर्मरूप करे छे... ...’

चौद ब्रह्मांडमां गतिपूर्वक स्वयं स्थिर थता जीव-पुद्गलोने स्थिति करवामां उदासीन निमित्त छे एवुं बीजुं अरूपी तत्त्व-पदार्थ अधर्मास्तिकाय छे. ते चौदराजु लोकव्यापी छे. ए अधर्मास्तिकायनो विचार करतां जैननो श्रावक के साधु (संप्रदायना हों) एना अध्यवसानथी पोताने अधर्मास्तिकायरूप करे छे. अहा! पोते स्व-परप्रकाशी सहज एक ज्ञायकभावरूप छे एने भूली गयो अने अधर्मास्तिकायने जाणवा प्रति जे विकल्प उठयो ते विकल्पमां ज ए गूंचाई गयो, ए विकल्पमां ज एकत्व करीने मानवा लाग्यो के मने अधर्मास्तिकायनुं ज्ञान छे. (पोते ज्ञान छे एम नहि). ल्यो, आवा अधर्मना अध्यवसानथी ते पोताने अधर्मरूप करे छे. समजाणुं कांई....? बहु झीणी वात भाई! (मतलब के उपयोगने झीणो करे तो समजाय एवी वात छे).

हवे कहे छे- ‘जाणवामां आवता अन्य जीवना अध्यवसानथी पोताने अन्यजीवरूप करे छे,......’

जुओ, आ बायडी-छोकरां, दीकरा-दीकरीओ, भाई-भांडु, सगां-स्नेहीओ ने नोकर-चाकरो वगेरे सर्व अन्य जीव छे. ते बधां पर छे, स्व नथी. छतां ते बधां मारां छे ने मने उपकारी छे एम अध्यवसाय करे ते मिथ्या छे. अज्ञानी आवा मिथ्या अध्यवसाय वडे पोताने सर्व अन्यजीवरूप करे छे-एम कहे छे. आ स्त्रीने-आ मारी अर्धांगना छे-एम नथी कहेता? धूळेय अर्धांगना नथी सांभळने. आ अंग शरीर तारी चीज नथी तो अर्धांगना तारी क्यांथी थई? दुनिया एम ने एम (जूठे-जूठ) चलावे राखे छे, पण भाई! एम ने एम तुं चारगतिमां रखडी रखडीने मरी गयो छे, केमके ए मिथ्या अध्यवसान राग-द्वेष-मोहथी भरेलुं छे.

आ देव-गुरुनो आत्मा छे ते पण अन्य जीव छे, पर छे, स्व नथी. तेने जाणवामां आवतां ते मने हितकारी छे, मारा तारणहार छे एम एकत्वबुद्धिनो जे अध्यवसाय थाय छे ते मिथ्यादर्शन छे. बहु आकरी वात बापा! अहीं तो निज ज्ञायकभावने भूलीने अन्यजीवमां-परजीवमां पोतापणानो विकल्प करे तो ते विकल्प वडे जीव पोताने अन्यजीवरूप करे छे एम कहेवुं छे, अर्थात् ते मिथ्याद्रष्टि छे एम कहे छे. समजाणुं कांई...?