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वि. नि. सं. २५३३ वि. सं. २०६६ ई. स. २०१०
मुंबईकी ओरसे ५०% आर्थिक सहयोग विशेष प्राप्त होनेसे इस शास्त्रका विक्रिय-मूल्य मात्र
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सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी;
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी,
मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.
ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी;
अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी उतरती,
विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.
तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो,
विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ,
तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे.
तथापि कुंदसूत्रोनां अंकाये मूल्य ना कदी.
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प्रकाशकीय निवेदन
अध्यात्मश्रुतशिरोमणि परमागम श्री समयसार, भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत सर्वोत्कृष्ट कृति है। गुजराती भाषामें उसका गद्यपद्यानुवाद सर्वप्रथम वि. सं. १९९७में सोनगढ़से प्रकाशित हुआ था। आज तक उसके गुजराती अनुवादके सात संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इस गुजराती अनुवादका हिन्दी रूपान्तर वि. सं. २०२३में मारोठ़(राजस्थान)से ‘पाटनी ग्रंथमाला’की ओरसे प्रकाशित किया गया था। इस रूपान्तरके क्रमशः सात संस्करण श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ एवं अन्य ट्रस्टोंके द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। उसका यह आठवाँ संस्करण प्रकाशित करते हुए अतीव आनन्द अनुभूत होता है।
श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डलकी ओरसे यह परमागम हिन्दी भाषामें (संस्कृत टीकाद्वय सह) वि. सं. १९७५में प्रकाशित हुआ था। पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीके पवित्र करमकमलमें यह परमागम वि. सं. १९७८में आया। उनके करकमलमें यह परमपावन चिन्तामणि आने पर उस कुशल जौहरीने उस श्रुतरत्नको परख लिया और समयसारकी कृपासे उन्होंने चैतन्यमूर्ति भगवान् समयसारके दर्शन किये। उस पवित्र प्रसंगका उल्लेख पूज्य गुरुदेवके जीवनचरित्रमें इस प्रकार किया गया है : — ‘‘वि. सं. १९७८में वीरशासनके उद्धारका, अनेक मुमुक्षुओंके महान पुण्योदयको सूचित करनेवाला एक पवित्र प्रसंग बन गया। विधिकी किसी धन्य पलमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित श्री समयसार नामक महान ग्रन्थ महाराजश्रीके हस्तकमलमें आया। समयसार पढ़ते ही उनके हर्षका पार न रहा। जिसकी शोधमें वे थे वह उनको मिल गया। श्री समयसारमें अमृतके सरोवर छलकते महाराजश्रीके अन्तर्नयनने देखे। एकके बाद एक गाथा पढ़ते हुए महाराजश्रीने घूँट भर-भरके वह अमृत पीया। ग्रन्थाधिराज समयसारने महाराजश्री पर अपूर्व, अलौकिक, अनुपम उपकार किया और उनके आत्मानन्दका पार न रहा। महाराजश्रीके अन्तर्जीवनमें परमपवित्र परिवर्तन हुआ। भूली हुई परिणतिने निज घर देखा। उपयोग-झरनेके प्रवाह
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अमृतमय हुए। जिनेश्वरदेवके सुनन्दन गुरुदेवकी ज्ञानकला अब अपूर्व रीतिसे खीलने लगी। पूज्य गुरुदेव ज्यों ज्यों समयसारकी गहराईमें उतरते गये, त्यों त्यों उसमें केवलज्ञानी पितासे बपौतीमें आये हुए अद्भुत निधान उनके सुपुत्र भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवने सावधानीसे सुरक्षित रखे हुए उन्होंने देखे। अनेक वर्ष तक समयसारका गहराईसे मनन करनेके पश्चात्, ‘किसी भी प्रकारसे जगतके जीव सर्वज्ञपिताकी इस अमूल्य बपौतीकी कीमत समझे और अनादिकालीन दीनताका अन्त लाये !’ — ऐसी करुणाबुद्धिके कारण पूज्य गुरुदेवश्रीने समयसार पर अपूर्व प्रवचनोंका प्रारम्भ किया। सार्वजनिक सभामें सर्वप्रथम वि. सं. १९९०में राजकोटके चातुर्मासके समय समयसार पर प्रवचन शुरू किये।’’ पूज्य गुरुदेवश्रीने समयसार पर कुल उन्नीस बार प्रवचन दिये हैं। सोनगढ़ ट्रस्टकी ओरसे पूज्य गुरुदेवश्रीके समयसार पर प्रवचनोंके पाँच ग्रन्थ छपकर प्रसिद्ध हो गये हैं।
पूज्य गुरुदेवश्री अपनी अनुभववाणी द्वारा इस परमागमके गहीर-गम्भीर भाव जैसे जैसे खोलते गये वैसे वैसे मुमुक्षु जीवोंको उसका महत्त्व समझ़में आता गया, और उनमें अध्यात्मरसिकताके साथ साथ इस परमागमके प्रति भक्ति एवं बहुमान भी बढ़ते गये। वि. सं. १९९५के ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमीके दिन, सोनगढ़में श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमन्दिरके उद्धघाटनके अवसर पर उसमें प्रशममूर्ति भगवती पूज्य बहिनश्री चम्पाबेनके पवित्र करकमलसे श्री समयसार परमागमकी विधिपूर्वक प्रतिष्ठा — स्थापना की गई थी।
— ऐसा महिमावन्त यह परमागम गुजराती भाषामें प्रकाशित हो तो जिज्ञासुओंको महान लाभका कारण होगा ऐसी पूज्य गुरुदेवश्रीकी पवित्र भावनाको झ़ेलकर श्री जैन अतिथि सेवा- समितिने वि. सं. १९९७में इस परमागमका गुजराती अनुवाद सहित प्रकाशन किया। तत्पश्चात् वि. सं. २००९में इसकी द्वितीय आवृत्ति, श्रीमद्-अमृतचन्द्रसूरि विरचित ‘आत्मख्याति’ संस्कृत टीका सहित, श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़की ओरसे प्रकाशित की गई थी। उसी गुजराती अनुवादके हिन्दी रूपान्तरका यह आठवाँ संस्करण है।
इसप्रकार परमागम श्री समयसारका गुजराती एवं हिन्दी प्रकाशन वास्तवमें पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रभावका ही प्रसाद है। अध्यात्मका रहस्य समझ़ाकर पूज्य गुरुदेवश्रीने जो अपार उपकार किया है उसका वर्णन वाणीके द्वारा व्यक्त करनेमें यह संस्था असमर्थ है।
श्रीमान् समीप समयवर्ती समयज्ञ श्रीमद् राजचन्द्रजीने जनसमाजको अध्यात्म समझ़ाया तथा अध्यात्मप्रचारके लिये श्री परमश्रुतप्रभावक मंडलका स्थापन किया; इसप्रकार जनसमाज पर — मुख्यत्वे गुजरात-सौराष्ट्र पर — उनका महान उपकार प्रवर्तमान है।
अब गुजराती अनुवादके विषयमें : — इस उच्च कोटिके अध्यात्मशास्त्रका गुजराती अनुवाद करनेका काम सरल न था। गाथासूत्रकार एवं टीकाकार आचार्यभगवन्तोंके गम्भीर भाव यथार्थतया
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सुरक्षित रहे — इसप्रकार उनके भावोंको स्पर्शकर अनुवाद हो तभी प्रकाशन समाजको सम्पूर्णतया लाभदायी सिद्ध हो। सद्भाग्यसे मुमुक्षु भाईश्री हिम्मतलाल जेठालाल शाहने ( – पूज्य बहिनश्री चम्पाबेनके भाईने) अपनी श्रुतभक्तिसे, उसका अनुवाद कर देनेकी स्वीकृति देकर वह काम अपने हाथमें लिया और उन्होंने यह अनुवाद-कार्य साँगोपाँग सम्पन्न किया।
इस पवित्र परमागमके गुजराती अनुवादका महान कार्य सम्पन्न करनेवाले भाईश्री हिम्मतलालभाई अध्यात्मरसिक विद्वान् होनेके अतिरिक्त गम्भीर, वैराग्यशाली, शान्त और विवेकी सज्जन हैं तथा कवि भी हैं। उन्होंने समयसार एवं उसकी ‘आत्मख्याति’ संस्कृत टीकाके गुजराती गद्यानुवादके अतिरिक्त उसकी प्राकृतभाषाबद्ध मूल गाथाओंका गुजराती पद्यानुवाद भी हरिगीत छन्दमें किया है; वह बहुत ही मधुर, स्पष्ट एवं सरल है और प्रत्येक गाथार्थके पहले वह छापा गया है। इसप्रकार सारा ही अनुवाद एवं हरिगीत काव्य जिज्ञासु जीवोंको बहुत ही उपयोगी एवं उपकारी हुये हैं। इसके लिये भाईश्री हिम्मतलाल जेठालाल शाहके प्रति जितनी भी कृतज्ञता प्रगट की जाय उतनी कम ही है। इस समयसार जैसे उत्तम परमागमका अनुवाद करनेका परम सौभाग्य उनको प्राप्त हुआ एतदर्थ वे सचमुच अभिनन्दनीय हैं।
आजसे लगभग ढाईसौ वर्ष पहले पं. जयचन्द्रजीने इस परमागमका हिन्दी भाषान्तर करके जैनसमाज पर उपकार किया है। यह गुजराती अनुवाद श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डलकी ओरसे प्रकाशित हुए हिन्दी समयसारके आधारसे किया गया है, गुजराती अनुवादका हिन्दी रूपान्तर पं. परमेष्ठिदासजी जैन, ललितपुरने और इस प्रस्तुत संस्करणका मुद्रणसंशोधन-कार्य ब्र० चन्दूभाई झोबालियाने तथा सुन्दर मुद्रणकार्य ‘कहान मुद्रणालय’, सोनगढ़के मालिक श्री ज्ञानचन्दजी जैनने किया है। अतः यह संस्था उन सबके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करती है।
यह परमागम समयसार सचमुच एक उत्तमोत्तम शास्त्र है। साधक जीवोंके लिये उसमें आध्यात्मिक मन्त्रोंका भण्डार भरा है। भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवके पश्चात् रच गये प्रायः सब अध्यात्मशास्त्र पर समयसारका प्रभाव पड़ा है। अध्यात्मके सर्व बीज समयसारमें समाविष्ट हैं। सभी जिज्ञासु जीवोंको गुरुगमपूर्वक इस परमागमका अभ्यास अवश्य करने योग्य है। परम महिमावन्त निज शुद्धात्मस्वरूपको अनुभवगम्य करनेके लिये इस शास्त्रमें अद्वितीय उपदेश है; और वह अनुभव ही प्रत्येक जिज्ञासु जीवका एकमात्र परम कर्तव्य है। श्री पद्मनन्दी मुनिराज कहते हैं कि —
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अर्थ : — जिस जीवने प्रसन्नचित्तसे इस चैतन्यस्वरूप आत्माकी बात भी सुनी है, वह भव्य पुरुष भविष्यमें होनेवाली मुक्तिका अवश्य भाजन होता है।
उपर्युक्त प्रकारसे सुपात्र जीव गुरुगमसे शुद्धचैतन्यतत्त्वकी वार्ताका प्रीतिपूर्वक श्रवण करो और इस परमागमकी पाँचवी गाथामें कथित आचार्यभगवानकी आज्ञानुसार उस एकत्वविभक्त शुद्ध आत्माको स्वानुभवप्रत्यक्षसे प्रमाण करो।
(विजयादशमी)
वि. सं. २०५५
समयसार हिन्दीका यह नववाँ संस्करण प्रथमकी आवृत्ति अनुसार ही है। मुद्रणकार्य ‘कहान मुद्रणालय’के मालिक श्री ज्ञानचंदजी जैनने अल्प समयमें मुद्रित कर दिया अतः ट्रस्ट आभार मानता है।
समयसार ग्रन्थाधिराज है। उसमें बताये हुए भावोंको यथार्थ समझकर, अन्तरमें उसका परिणमन करके अतीन्द्रिय ज्ञानकी प्राप्ति द्वारा अतीन्द्रिय आनन्दको सब जीव आस्वादन करे यह अंतरीक भावना सह..... पूज्य गुरुदेवश्रीकी १२१वीं जन्मजयंती ता. १५-०५-२०१०
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मैं इसे अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे इस युगके महान आध्यात्मिक संत श्री कानजीस्वामीके सान्निध्यका सुयोग प्राप्त हुआ, और उनके प्रवचनोंको सुनने एवं उन्हें राष्ट्रभाषा-हिन्दीमें अनूदित करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। उन अनूदित ग्रन्थोंमेंसे ‘समयसार प्रवचनादि’ पहले प्रकाशित हो चुके हैं। पूज्य कानजीस्वामीके सान्निध्यमें रहकर अनेक विद्वानोंने कई आध्यात्मिक ग्रन्थोंकी रचना की है, अनुवाद किये हैं और सम्पादन किया है। उन विद्वानोंमें श्री हिम्मतलाल शाह तथा श्री रामजीभाई दोशी आदि प्रमुख हैं।
उपरोक्त विद्वानोंके द्वारा गुजराती भाषामें अनूदित, सम्पादित एवं लिखित अनेक ग्रन्थोंका हिन्दी भाषान्तर करनेका मुझे सुयोग मिला है, जिनमें प्रवचनसार, मोक्षशास्त्र और यह समयसार ग्रन्थ भी हैं। अध्यात्मप्रेमी भाई श्री कुं० नेमीचन्दजी पाटनीकी प्रेरणा इस सुकार्यमें विशेष साधक सिद्ध हुई है। प्रत्येक गाथाका गुजरातीसे हिन्दी पद्यानुवाद उन्होंने किया है। मैंने गुजराती अन्वयार्थ, टीका और भावार्थका हिन्दी रूपान्तर किया है। यद्यपि इस कार्यमें सम्पूर्ण सावधानी रखी गई है, तथापि यदि कोई दोष रह गये हों तो विशेषज्ञ मुझे क्षमा करें।
ललितपुर — परमेष्ठीदास जैन
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(राग – आशाभर्या अमे आवीया)
एनी कुं दकुं द गूंथे माळ रे,
जेमां सार-समय शिरताज रे,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
वाजो मने दिनरात रे,
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अर्थ : — श्री समयसार मोक्ष पर चढ़नेके लिये सीढ़ी है (अथवा
जिस प्रकार जलमें नमक पिघल जाता है उसी प्रकार समयसारके रसमें
बुधपुरुष लीन हो जाते हैं, वह गुणकी गाँठ है (अर्थात् सम्यग्दर्शनादि गुणोंका
समूह है), मुक्तिका सुगम पंथ है और उसके (अपार) यशका वर्णन करनेमें
इन्द्र भी आकुलित हो जाता है। समयसाररूप पंखवाले (अथवा समयसारके
पक्षवाले) जीव ज्ञानगगनमें उड़ते हैं और समयसाररूप पंख रहित (अथवा
समयसारसे विपक्ष) जीव जगजालमें रुलते है। समयसारनाटक (अर्थात्
समयसार-परमागम कि जिसको श्री अमृतचंद्राचार्यदेवने नाटककी उपमा दी
है वह) शुद्ध सुवर्ण समान निर्मल है, विराट (ब्रह्माण्ड) समान उसका विस्तार
है और उसका श्रवण करने पर हृदयके कपाट खुल जाते हैं।
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भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत यह ‘समयप्राभृत’ अथवा ‘समयसार’ नामका शास्त्र ‘द्वितीय श्रुतस्कंध’का सर्वोत्कृष्ट आगम है।
‘द्वितीय श्रुतस्कंध’की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह पहले हम पट्टावलिओंके आधारसे संक्षेपमें देख लेवें।
आज से २४६६ वर्ष पहले इस भरतक्षेत्रकी पुण्य-भूमिमें मोक्षमार्गका प्रकाश करनेके लिये जगत्पूज्य परम भट्टारक भगवान् श्री महावीरस्वामी अपनी सातिशय दिव्यध्वनि द्वारा समस्त पदार्थोंका स्वरूप प्रगट कर रहे थे। उनके निर्वाणके पश्चात् पांच श्रुतकेवली हुए, उनमेंसे अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी हुए। वहाँ तक तो द्वादशांगशास्त्रके प्ररूपणसे व्यवहारनिश्चयात्मक मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्तता रहा। तत्पश्चात् कालदोषसे क्रमक्रमसे अंगाोंके ज्ञानकी व्युच्छित्ति होती गई। इसप्रकार अपार ज्ञानसिंधुका बहु भाग विच्छेद हो जानेके पश्चात् दूसरे भद्रबाहुस्वामी आचार्यकी परिपाटीमें दो महा समर्थ मुनि हुए — एकका नाम श्री धरसेन आचार्य तथा दूसरोंका नाम श्री गुणधर आचार्य था। उनसे मिले हुए ज्ञानके द्वारा उनकी परम्परामें होनेवाले आचार्योंने शास्त्रोंकी रचनाएँ की और श्री वीरभगवानके उपदेशका प्रवाह प्रवाहित रखा।
श्री धरसेन आचार्यको अग्रायणीपूर्वके पाँचवेँ ‘वस्तु’ अधिकारके महाकर्मप्रकृति नामक चौथे प्राभृतका ज्ञान था। उस ज्ञानामृतमेंसे अनुक्रमसे उनके पीछेके आचार्यों द्वारा ष्टखंडागम तथा उसकी धवला-टीका, गोम्म्टसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्रोंकी रचना हुई। इसप्रकार प्रथम श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति है। उसमें जीव और कर्मके संयोगसे हुए आत्माकी संसार-पर्यायका — गुणस्थान, मार्गणास्थान आदिका — संक्षिप्त वर्णन है, पर्यायार्थिकनयको प्रधान करके कथन है। इस नयको अशुद्धद्रव्यार्थिक भी कहते हैं और अध्यात्मभाषासे अशुद्ध-निश्चयनय अथवा व्यवहार कहते हैं।
श्री गुणधर आचार्यको ज्ञानप्रवादपूर्वकी दसवीं ‘वस्तु’के तृतीय प्राभृतका ज्ञान था। उस ज्ञानमेंसे उनके पीछेके आचार्योंने अनुक्रमसे सिद्धान्त रचे। इसप्रकार सर्वज्ञ भगवान् महावीरसे प्रवाहित होता हुवा ज्ञान, आचार्योंकी परम्परासे भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवको प्राप्त हुआ। उन्होंने
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पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि शास्त्र रचे। इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई। इसमें ज्ञानको प्रधान करके शुद्ध-द्रव्यार्थिकनयसे कथन है, आत्माके शुद्ध स्वरूपका वर्णन है।
भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव विक्रम संवत्के प्रारम्भमें हो गये हैं। दिगम्बर जैन परम्परामें भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवका स्थान सर्वोत्कृष्ट है।
प्रत्येक दिगम्बर जैन, इस श्लोकको, शास्त्राध्ययन प्रारम्भ करते समय मंगलाचरणरूप बोलते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि सर्वज्ञ भगवान् श्री महावीरस्वामी और गणधर भगवान् श्री गौतमस्वामीके अनन्तर ही भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यका स्थान आता है। दिगम्बर जैन साधुगण स्वयंको कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्पराका कहलानेमें गौरव मानते हैं। भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात् गणधरदेवके वचनों जैसे ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके पश्चात् हुए ग्रन्थकार आचार्य स्वयंके किसी कथनको सिद्ध करनेके लिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं जिससे यह कथन निर्विवाद सिद्ध होता है। उनके पीछे रचे गये ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रोंमेंसे अनेकानेक अवतरण लिये हुए हैं। यथार्थतः भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवने स्वयंके परमागमोंमें तीर्थंकरदेवोंके द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम सिद्धांतोंको सुरक्षित रखे हैं और मोक्षमार्गको टिका रखा है। वि० सं० ९९०द्ममें हुए श्री देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार नामके ग्रन्थमें कहते हैं कि —
‘‘विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधरस्वामीके समवसरणमें जाकर स्वयं प्राप्त किये हुए दिव्य ज्ञानके द्वारा श्री पद्मनंदिनाथने (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) बोध नहीं दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?’’ दूसरा एक उल्लेख देखिये, जिसमें कुन्दकुन्दाचार्यदेवको कलिकालसर्वज्ञ कहा गया है : ‘‘पद्मनंदी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, ऐलाचार्य, गृध्रपिच्छाचार्य — इन पाँच नामोंसे विराजित, चार अंगुल ऊ पर आकाशमें गमन करनेकी जिनको ऋद्धि थी, जिन्होंने पूर्वविदेहमें जाकर श्री सीमंघरभगवानको वंदन किया था और उनके पाससे मिले हुए श्रुतज्ञानके द्वारा जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोधित किया है, ऐसे जो श्री जिनचन्द्रसूरिभट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ (भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव) उनके द्वारा रचित इस षट्प्राभृत ग्रन्थमें........सूरीश्वर श्री श्रुतसागर द्वारा रचित मोक्षप्राभृतकी टीका समाप्त हुई।’’ इस प्रकार षट्प्राभृतकी श्री श्रुतसागरसूरिकृत टीकाके अन्तमें लिखा हुआ है। भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी महत्ता बतानेवाले ऐसे अनेकानेक उल्लेख जैन साहित्यमें मिलते हैं;
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❃ शिलालेख भी अनेक हैं। इस प्रकार यह निर्णीत है कि सनातन जैन (दिगम्बर) संप्रदायमें कलिकालसर्वज्ञ भगवान् कुंदकुंदाचार्यका स्थान अजोड़ है।
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यके रचे हुए अनेक शास्त्र हैं; उसमेंसे थोड़े अभी विद्यमान हैं। त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवके मुखसे प्रवाहित श्रुतामृतकी सरितामेंसे जो अमृत-भाजन भर लिये गये थे, वे अमृतभाजन वर्तमानमें भी अनेक आत्मार्थियोंको आत्म-जीवन अर्पण करते हैं। उनके पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार और समयसार नामके तीन उत्तमोत्तम शास्त्र ‘प्राभृतत्रय’ कहलाते हैं। इन तीन परमागमोंमें हजारों शास्त्रोंका सार आ जाता है। इन तीन परमागमोंमें भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यके पश्चात् लिखे गये अनेक ग्रन्थोंके बीज निहित हैं ऐसा सूक्ष्म दृष्टिसे अभ्यास करने पर मालूम होता है। पंचास्तिकायसंग्रहमें छह द्रव्योंका और नौ तत्त्वोंका स्वरूप संक्षेपमें कहा है। प्रवचनसारको ज्ञान, ज्ञेय और चरणानुयोगसूचक चूलिका — इस प्रकार तीन अधिकारोंमें विभाजित किया है। समयसारमें नव तत्त्वोंका शुद्धनयकी दृष्टिसे कथन है।
श्री समयसार अलौकिक शास्त्र है। आचार्यभगवान्ने इस जगतके जीवों पर परम करुणा करके इस शास्त्रकी रचना की है। उसमें मौक्षमार्गका यथार्थ स्वरूप जैसा है वैसा कहा गया है। अनन्त कालसे परिभ्रमण करते हुए जीवोंको जो कुछ भी समझना बाकी रह गया है, वह इस परमागममें समझाया गया है। परम कृपालु आचार्यभगवान् इस शास्त्रका प्रारम्भ करते हुए स्वयं ही कहते हैं : — ‘कामभोगबंधकी कथा सबने सुनी है, परिचय किया है, अनुभव किया है, लेकिन परसे भिन्न एकत्वकी प्राप्ति ही केवल दुर्लभ है। उस एकत्वकी — परसे भिन्न आत्माकी — बात
अर्थ : — कुन्दपुष्पकी प्रभाको धारण करनेवाली जिनकी कीर्तिके द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं, जो चारणोंके — चारणऋद्धिधारी महामुनियोंके — सुन्दर हस्तकमलोंके भ्रमर थे और जिन पवित्रात्माने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किससे बन्द्य नहीं हैं ?
अर्थ : — यतीश्वर (श्री कुन्दकुन्दस्वामी) रजःस्थानको — भूमितलको – छोड़कर चार अंगुल ऊ पर आकाशमें चलते थे, उससे मैं यह समझता हूँ कि, वे अन्तरङ्ग तथा बहिरङ्ग रजसे (अपना) अत्यन्त अस्पृष्टत्व व्यक्त करते थे ( — वे अन्तरङ्गमें रागादि मलसे और बाह्यमें धूलसे अस्पृष्ट थे) ।
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मैं इस शास्त्रमें समस्त निज वैभवसे (आगम, युक्ति, परम्परा और अनुभवसे) कहूँगा।’ इस प्रतिज्ञाके अनुसार आचार्यदेव इस शास्त्रमें आत्माका एकत्व — पर-द्रव्यसे और परभावोंसे भिन्नता — समझाते हैं। वे कहते हैं कि ‘जो आत्माको अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त देखते हैं वे समग्र जिनशासनको देखते हैं’। और भी वे कहते हैं कि ‘ऐसा नहीं देखनेवाले अज्ञानीके सर्व भाव अज्ञानमय हैं’। इस प्रकार, जहाँ तक जीवको स्वयंकी शुद्धताका अनुभव नहीं होता वहाँ तक वह मोक्षमार्गी नहीं है; भले ही वह व्रत, समिति, गुप्ति आदि व्यवहारचारित्र पालता हो और सर्व आगम भी पढ़ चुका हो। जिसको शुद्ध आत्माका अनुभव वर्तता है वह ही सम्यग्दृष्टि है। रागादिके उदयमें सम्यक्त्वी जीव कभी एकाकाररूप परिणमता नहीं हैं, परन्तु ऐसा अनुभवता है कि ‘यह, पुद्गलकर्मरूप रागके विपाकरूप उदय है; वह मेरा भाव नहीं हैं, मैं तो एक ज्ञायकभाव हूँ।’ यहाँ प्रश्न होगा कि रागादिभाव होने पर भी आत्मा शुद्ध कैसे हो सकता है ? उत्तरमें स्फ टिकमणिका दृष्टान्त दिया गया है। जैसे स्फ टिकमणि लाल कपड़ेके संयोगसे लाल दिखाई देता है — होता है तो भी स्फ टिकमणिके स्वभावकी दृष्टिसे देखने पर स्फ टिकमणिने निर्मलपना छोड़ा नहीं है, उसी प्रकार आत्मा रागादि कर्मोदयके संयोगसे रागी दिखाई देता है — होता है तो भी शुद्धनयकी दृष्टिसे उसने शुद्धता छोड़ी नहीं है। पर्यायदृष्टिसे अशुद्धता वर्तती होने पर भी द्रव्यदृष्टिसे शुद्धताका अनुभव हो सकता है। वह अनुभव चतुर्थ गुणस्थान में होता है। इससे वाचकको समझमें आयेगा कि सम्यग्दर्शन कितना दुष्कर है। सम्यग्दृष्टिका परिणमन ही पलट गया होता है। वह चाहे जो कार्य करते हुए भी शुद्ध आत्माको ही अनुभवता है। जैसे लोलुपी मनुष्य नमक और शाकके स्वादका भेद नहीं कर सकता, उसी प्रकार अज्ञानी ज्ञानका और रागका भेद नहीं कर सकता, जैसे अलुब्ध मनुष्य शाकसे नमकका भिन्न स्वाद ले सकता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि रागसे ज्ञानको भिन्न ही अनुभवता है। अब यह प्रश्न होता है कि ऐसा सम्यग्दर्शन किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् राग और आत्माकी भिन्नता किस प्रकार अनुभवांशपूर्वक समझमें आये ? आचार्य भगवान् उत्तर देते हैं कि — प्रज्ञारूपी छैनीसे छेदने पर वे दोंनो भिन्न हो जाते हैं, अर्थात् ज्ञानसे ही — वस्तुके यथार्थ स्वरूप की पहचानसे ही — , अनादिकालसे रागद्वेषके साथ एकाकाररूप परिणमता आत्मा भिन्नपने परिणमने लगता है; इससे अन्य दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिये प्रत्येक जीवको वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी पहिचान करनेका प्रयत्न सदा कर्तव्य है।
इस शास्त्रका मुख्य उद्देश यथार्थ आत्मस्वरूपकी पहिचान कराना है। इस उद्देशकी पूर्तिके लिये इस शास्त्रमें आचार्यभगवानने अनेक विषयोंका निरूपण किया है। जीव और पुद्गलके निमित्त-नैमित्तिकपना होने पर भी दोनोंका अत्यन्त स्वतन्त्र परिणमन, ज्ञानीको राग-द्वेषका अकर्ता- अभोक्तापना, अज्ञानीको रागद्वेषका कर्ताभोक्तापना, सांख्यदर्शनकी एकान्तिकता, गुणस्थान- आरोहणमें भावका और द्रव्यका निमित्त-नैमित्तिकपना, विकाररूप परिणमन करनेमें अज्ञानीका
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स्वयंका ही दोष, मिथ्यात्वादिका जड़पना उसी प्रकार चेतनपना, पुण्य और पाप दोनोंका बंधस्वरूपपना, मोक्षमार्गमें चरणानुयोग का स्थान — इत्यादि अनेक विषय इस शास्त्रमें प्ररूपण किये हैं। भव्य जीवोंको यथार्थ मोक्षमार्ग बतलानेका इन सबका उद्देश है। इस शास्त्रकी महत्ता देखकर अन्तर उल्लास आ जानेसे श्रीमद् जयसेन आचार्य कहते हैं कि ‘जयवंत वर्तो वे पद्मनंदि आचार्य अर्थात् कुन्दकुन्द आचार्य कि जिन्होंने महातत्त्वसे भरे हुये प्राभृतरूपी पर्वतको बुद्धिरूपी सिर पर उठाकर भव्य जीवोंको समर्पित किया है। वस्तुतः इस कालमें यह शास्त्र मुमुक्षु भव्य जीवोंका परम आधार है। ऐसे दुःषम कालमें भी ऐसा अद्भुत अनन्य-शरणभूत शास्त्र — तीर्थंकरदेवके मुखमेंसे निकला हुआ अमृत — विद्यमान है यह हम सबका महा सद्भाग्य है। निश्चय-व्यवहारकी संधिपूर्वक यथार्थ मोक्षमार्गकी ऐसी संकलनाबद्ध प्ररूपणा दूसरे कोई भी ग्रन्थमें नहीं है। परमपूज्य सद्गुरुदेव(श्री कानजीस्वामी)के शब्दोंमें कहा जाये तो — ‘यह समयसार शास्त्र आगमोंका भी आगम है; लाखों शास्त्रोंका सार इसमें है; जैनशासनका यह स्तम्भ है; साधककी यह कामघेनु है, कल्पवृक्ष है। चौदह पूर्वका रहस्य इसमें समाया हुवा है। इसकी हरएक गाथा छट्ठे-सातवें गुणस्थानमें झूलते हुए महामुनिके आत्म-अनुभवमेंसे निकली हुई है। इस शास्त्रके कर्ता भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमन्घरभगवानके समवसरणमें गये थे और वहाँ वे आठ दिन रहे थे यह बात यथातथ्य है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणसिद्ध है, इसमें लेशमात्र भी शंकाके लिये स्थान नहीं है। उन परम उपकारी आचार्यभगवान् द्वारा रचित इस समयसारमें तीर्थंङ्करदेवकी निरक्षरी ॐकारध्वनिमेंसे निकला हुआ ही उपदेश है’।
इस शास्त्रमें भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी प्राकृत गाथाओं पर आत्मख्याति नामकी संस्कृत टीका लिखनेवाले (लगभग विक्रमकी दसवीं शताब्दीमें हुए) श्रीमान् अमृतचन्द्राचार्यदेव हैं। जिसप्रकार इस शास्त्रके मूल कर्ता अलौकिक पुरुष हैं उसीप्रकार इसके टीकाकार भी महासमर्थ आचार्य हैं। आत्मख्याति जैसी टीका अभी तक दूसरे कोई जैन ग्रन्थकी नहीं लिखी गई है। उन्होंने पंचास्तिकायसंग्रह तथा प्रवचनसारकी भी टीका लिखी है और तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे हैं। उनकी एक इस आत्मख्याति टीका पढ़नेवालेको ही उनकी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको न्यायसे सिद्ध करनेकी उनकी असाधारण शक्ति और उत्तम काव्यशक्तिका पूरा ज्ञान हो जायेगा। अति संक्षेपमें गंभीर रहस्योंको भरदेनेकी उनकी अनोखी शक्ति विद्वानोंको आश्चर्यचकित करती है। उनकी यह दैवी टीका श्रुतकेवलीके वचनोंके समान है। जिसप्रकार मूलशास्त्रकर्ताने समस्त निजवैभवसे इस शास्त्रकी रचना की है उसीप्रकार टीकाकारने भी अत्यन्त उत्साहपूर्वक सर्व निजवैभवसे यह टीका रची है, ऐसा इस टीकाके पढ़नेवालोंको स्वभावतः ही निश्चय हुये बिना नहीं रह सकता। शासनमान्य भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवने इस कलिकालमें जगद्गुरु तीर्थंकरदेवके जैसा काम किया है और श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवने, मानों कि वे कुन्दकुन्दभगवान्के हृदयमें प्रवेश कर गये हों उस प्रकारसे उनके
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गम्भीर आशयोंको यथार्थतया व्यक्त करके, उनके गणधरके समान कार्य किया है। इस टीकामें आनेवाले काव्य (-कलश) अध्यात्मरससे और आत्मानुभवकी मस्तीसे भरपूर हैं। श्री पद्मप्रभमलधारिदेव जैसे समर्थ मुनिवरों पर उन कलशोंने गहरी छाप डाली है और आज भी वे तत्त्वज्ञानसे और अध्यात्मरससे भरे हुए मधुर कलश, अध्यात्मरसिकोंके हृदयके तारको झनझना देते हैं। अध्यात्मकविरूपमें श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवका स्थान जैन साहित्यमें अद्वितीय है।
समयसारमें भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवने ४१५ गाथाओंकी प्राकृतमें रचना की है। उस पर श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवने आत्मख्याति नामकी और श्री जयसेनाचार्यदेवने तात्पर्यवृत्ति नामकी संस्कृत टीका लिखी है। पंडित जयचन्द्रजीने मूल गाथाओंका और आत्मख्यातिका हिन्दीमें भाषांतर किया और उसमें स्वयंने थोड़ा भावार्थ भी लिखा है। वह पुस्तक ‘समयप्राभृत’के नामसे विक्रम सं० १९६४ में प्रकाशित हुई। उसके बाद उस पुस्तकको पंडित मनोहरलालजीने प्रचलित हिंदीमें परिवर्तित किया और श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल द्वारा ‘समयसार’के नामसे वि. सं. १९७५में प्रकाशित हुआ। उस हिंदी ग्रन्थके आधारसे, उसीप्रकार संस्कृत टीकाके शब्दों तथा आशयसे चिपके रहकर, यह गुजराती अनुवाद तैयार किया गया है।
यह अनुवाद करनेका महाभाग्य मुझे प्राप्त हुआ यह मुझे अत्यंत हर्षका कारण है। परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीकी छत्रछायामें इस गहन शास्त्रका अनुवाद हुआ है। अनुवाद करनेकी समस्त शक्ति मुझे पूज्यपाद सद्गुरुदेवके पाससे ही मिली है। मेरे द्वारा अनुवाद हुआ, इसलिये ‘यह अनुवाद मैंने किया है’ ऐसा व्यवहारसे भले ही कहा जाये, परन्तु मुझे मेरी अल्पताका पूरा ज्ञान होनेसे और अनुवादकी सर्व शक्तिका मूल पूज्य श्री सद्गुरुदेव ही होनेसे मैं तो बराबर समझता हूँ कि सद्गुरुदेवकी अमृतवाणीका प्रपात ही — उनके द्वारा मिला हुआ अनमोल उपदेश ही — यथाकाल इस अनुवादरूपमें परिणमा है। जिनके बल पर ही इस अतिगहन शास्त्रके अनुवाद करनेका मैंने साहस किया था और जिनकी कृपासे यह निर्विघ्न पूरा हुवा है, उन परम उपकारी सद्गुरुदेवके चरणारविंदमें अति भक्तिभावसे वंदन करता हूँ।
इस अनुवादमें अनेक भाइयोंकी मदद है। भाई श्री अमृतलाल माणेकलाल झाटकियाकी इसमें सबसे ज्यादा मदद है। उन्होंने सम्पूर्ण अनुवादका अति परिश्रम करके बहुत ही सूक्ष्मतासे और उत्साहसे संशोधन किया है, बहुतसी अति-उपयोगी सूचनाएँ उन्होंने बताईं है, संस्कृत टीकाकी हस्तलिखित प्रतियोंका मिलान कर पाठान्तरोंको ढूंढ दिया है, शंका-स्थलोंका समाधान पण्डितजनोंसे बुला दिया हैं — इत्यादि अनेक प्रकारसे उन्होंने जो सर्वतोमुखी सहायता की है उसके लिये मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ। अपने विशाल शास्त्रज्ञानसे, इस अनुवादमें पड़नेवाली छोटी मोटी दिक्कतोंको दूर कर देनेवाले माननीय वकील श्री रामजीभाई माणेकचन्द दोशीका मैं हृदयपूर्वक आभार मानता हूँ। भाषांतर करते समय जब जब कोई अर्थ बराबर नहीं बैठा तब तब मैंने पं०
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गणेशप्रसादजी वर्णी और पं० रामप्रसादजी शास्त्रीको पत्र द्वारा (भाई अमृतलालभाई द्वारा) अर्थ पुछवाने पर उन्होंने मेरेको हर समय बिनासंकोच प्रश्नोंके उत्तर दिये हैं; इसके लिये मैं उनका अन्तःकरणपूर्वक आभार मानता हूँ। इसके अतिरिक्त भी जिन जिन भाइयोंकी इस अनुवादमें सहायता है उन सबका भी मैं आभारी हूँ।
यह अनुवाद भव्य जीवोंको जिनदेव द्वारा प्ररूपित आत्मशांतिका यथार्थ मार्ग बताये, यह मेरी अन्तरकी भावना है। श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवके शब्दोंमें ‘यह शास्त्र आनंदमय विज्ञानघन आत्माको प्रत्यक्ष दिखानेवाला अद्वितीय जगत्चक्षु है’। जो कोई उसके परम गम्भीर और सूक्ष्म भावोंको हृदयङ्गत करेगा उसको वह जगत्चक्षु आत्माका प्रत्यक्ष दर्शन करायेगा। जब तक वे भाव यथार्थ प्रकारसे हृदयङ्गत नहीं होवें तब तक रातदिन वह ही मंथन, वह ही पुरुषार्थ कर्तव्य है। श्री जयसेनाचार्यदेवके शब्दोंमें समयसारके अभ्यास आदिका फल कहकर यह उपोद्घात पूर्ण करता हूँ : — ‘स्वरूपरसिक पुरुषों द्वारा वर्णित इस प्राभृतका जो कोई आदरसे अभ्यास करेगा, श्रवण करेगा, पठन करेगा, प्रसिद्धि करेगा, वह पुरुष अविनाशी स्वरूपमय, अनेक प्रकारकी विचित्रतावाले, केवल एक ज्ञानात्मक भावको प्राप्त करके अग्र पदमें मुक्तिललनामें लीन होगा।’ दीपोत्सव वि० सं० १९९६
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