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कु न्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः ।
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।।
इस पृथ्वी पर किससे वन्द्य नहीं हैं ?
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः ।
चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः ।।
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कि — वे अन्तरमें तथा बाह्यमें रजसे (अपनी) अत्यन्त अस्पृष्टता व्यक्त करते थे
तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?
शंका नहीं है । वह बात वैसी ही हैं; कल्पना करना नहीं, ना कहना नहीं; मानो तो
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कि, ‘मैं जो यह भाव कहना
चाहता हूँ, वह अन्तरके
आत्मसाक्षीके प्रमाण द्वारा प्रमाण
करना क्योंकि यह अनुभवप्रधान
ग्रंथ है, उसमें मुझे वर्तते स्व-
आत्मवैभव द्वारा कहा जा रहा
है’ ऐसा कहकर गाथा ६ में
आचार्य भगवान कहते हैं कि,
‘आत्मद्रव्य अप्रमत्त नहीं और
प्रमत्त नहीं है अर्थात् उन दो
अवस्थाओंका निषेध करता मैं
एक जाननहार अखंड हूँ
मेरी वर्तमान वर्तती दशासे कह रहा हूँ’ । मुनित्वरूप दशा अप्रमत्त व प्रमत्त — इन दो भूमिकामें हजारों बार आती-जाती हैं, उस भूमिकामें वर्तते महा-मुनिका यह कथन है ।
समयप्राभृत अर्थात् समयसाररूपी उपहार । जैसे राजाको मिलनेके लिए उपहार लेकर जाना होता है । उस भांति अपनी परम उत्कृष्ट आत्मदशारूप परमात्मदशा प्रगट करनेके लिए समयसार जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप आत्मा, उसकी परिणतिरूप उपहार देने पर परमात्मदशा – सिद्धदशा प्रगट होती है ।
यह शब्दब्रह्मरूप परमागमसे दर्शित एकत्वविभक्त आत्माको प्रमाण करना । ‘हाँ’से ही स्वीकृत करना, कल्पना नहीं करना; इसका बहुमान करनेवाला भी महाभाग्यशाली है ।
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो ! गुरु क् हान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके ; परद्रव्य नातो तूटे;
क रुणा अकारण समुद्र ! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी ! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति ! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,
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उसमें जीव नामके पदार्थका स्वरूप कहा है
एकत्वकी कथा विरले जानते हैं जो कि
दुर्लभ है, उस सम्बन्धी कथन
यह जीव-अजीवरूप छह द्रव्यात्मक लोक है,
द्रव्य तो स्वभावपरिणतिस्वरूप ही हैं और
जीव-पुद्गलद्रव्यके अनादिकालके संयोगसे
विभावपरिणति भी है, क्योंकि स्पर्श, रस, गंध,
वर्ण और शब्दरूप मूर्तिक पुद्गलोंको देखकर
यह जीव रागद्वेषमोहरूप परिणमता है और
इसके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप होकर जीवके
साथ बँधता है
कर ग्रहण करना
जाननेवाला है वही जीव है, उस सम्बन्धी
है वह ज्ञायक ही है
कर्म नहीं बंधते, पुराने कर्म झड़ जाते हैं,
इसलिये मोक्ष होती है; ऐसे जीवकी स्वसमय-
परसमयरूप प्रवृत्ति है
भावरूप परिणमता है तब स्वसमय होता है
और जब तक मिथ्या-दर्शनज्ञान-चारित्ररूप
परिणमता है तब तक वह पुद्गलकर्ममें ठहरा
हुआ परसमय है, ऐसा कथन
साधक अवस्थामें हैं उनके व्यवहारनय भी
प्रयोजनवान है, ऐसा कथन
इसमें जीव संसारमें भ्रमता अनेक तरहके दुःख
पाता है; इसलिये स्वभावमें स्थिर हो
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कथन
कथन
शुद्धनयके विषयभूत आत्माको जब तक न जाने
दृष्टांतपूर्वक कथन
२३-२५
७२
७३
आस्रवोंसे निवृत्त होनेका विधान
प्रत्याख्यान ज्ञान ही है
७५
गाथाओंमें) पूर्ण
होता
सकता
जीवका स्वरूप न जाननेसे अज्ञानीजन जीवकी
करते हैं, इस प्रकारका वर्णन
कर्तृकर्मभाव और भोक्तृ भोग्यभाव हैं
जीवका स्वरूप अन्यथा कल्पते हैं, उनके
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व्यवहारनय आत्मा और पुद्गलकर्मके कर्तृ-
कर्म जीवने किया
इनका जीव कर्ताभोक्ता नहीं है
उसका हेतु
पुद्गलको परिणामी कहा है
निमित्तसे पुद्गलका कर्मरूप होना
९७
उत्तर
वे निमित्त-नैमित्तिकभावसे कर्ता हैं और योग-
उपयोगका आत्मा कर्ता है
१०१
१४६
१४७
नहीं है, क्योंकि परद्रव्योंके परस्पर कर्तृकर्म-
भाव नहीं हैं
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व्रतादिक पालै तो भी ज्ञान बिना मोक्ष
पुण्यकर्मके पक्षपातीका दोष
ज्ञानको ही परमार्थस्वरूप मोक्षका कारण कहा
कर्म मोक्षके कारणका घात करता है ऐसा दृष्टांत
और तीसरा अधिकार पूर्ण
१९४
१९५
१९६
१९७
बन्धके कारण हैं, ऐसा कथन
सम्बन्धी कथन
१६९
ज्ञानीके द्रव्य-आस्रवोंका अभाव
‘ज्ञानी निरास्रव किस तरह है’ ऐसे
एक वीतराग ज्ञायकभावपदमें स्थिर
होनेका उपदेश
अज्ञानी और ज्ञानीके आस्रवका होने और न
राग-द्वेष-मोह अज्ञानपरिणाम है, वही
क्षयोपशमके निमित्तसे हैं
नहीं है; इसलिये ज्ञानीके कर्मबंध भी नहीं
है
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ज्ञानी परको क्यों नहीं ग्रहण करता, ऐसे
शिष्यके प्रश्नका उत्तर
२०८
परिग्रहके त्यागका विधान
ज्ञानीके सब परिग्रहका त्याग है
कर्मके फलकी वाँछासे कर्म करता है वह
कर्मसे लिप्त होता है; ज्ञानीके वाँछा नहीं होनेसे वह कर्मसे लिप्त नहीं होता है, उसका दृष्टांत द्वारा कथन
अवलंबन अभव्य भी करता है, व्रत, समिति,
गुप्ति पालता है, ग्यारह अंग पढ़ता है, तो भी
उसे मोक्ष नहीं है
सम्यक्त्वके आठ अंग हैं, उनमेंसे प्रथम
२७४
तो सम्यग्दृष्टि निःशंक तथा सात भय रहित है, ऐसा कथन
निष्कांक्षिता, निर्विचिकित्सा, अमूढत्व, उपगूहन,
स्थतिकरण, वात्सल्य, प्रभावना – इनका
निश्चयनयकी प्रधानतासे वर्णन
७. बन्ध अधिकार
बन्धके कारणका कथन
ऐसे कारणरूप आत्मा न प्रवर्ते तो बन्ध न
हो, ऐसा कथन
अज्ञान है, ऐसा सिद्ध किया है
स्वरूपको जानकर ही संतुष्ट है वह मोक्ष नहीं
पाता है
करण है
है, ऐसा कथन
करना, बन्धको छोड़ना
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आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना,
उस सम्बन्धी कथन
आत्माके सिवाय अन्य भावका त्याग करना;
कौन ज्ञानी परभावको पर जानकर ग्रहण करेगा ? अर्थात् कोई नहीं करेगा
जो परद्रव्यको ग्रहण करता है वह अपराधी है,
किया हैं
बन्धनमें पड़ता है; जो अपराध नहीं करता, वह बन्धनमें नहीं पड़ता
३०४-३०५
अपराधका स्वरूप .............................. ‘शुद्ध आत्माके ग्रहणसे मोक्ष कहा; परन्तु आत्मा
युक्तिपूर्वक निषेध
तो प्रतिक्रमण आदि द्वारा ही दोषोंसे छूट जाता है; तो फि र शुद्ध आत्माके ग्रहणका क्या काम है ?’ ऐसे शिष्यके प्रश्नका उत्तर यह दिया है कि प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणसे रहित अप्रतिक्रमणादि-स्वरूप तीसरी भूमिकासे ही — शुद्ध आत्माके ग्रहणसे ही
नहीं होता; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान
जीवके परिणाम हैं
होता है
आत्माके अकर्तापना दृष्टांतपूर्वक कहते
कर्तापना जीव अज्ञानसे मानता है; उस
आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनको
जानने नही जाता; परन्तु अज्ञानी जीव उनसे
वृथा राग-द्वेष करता है
जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे
वह कर्ता होता है
ऐसा कथन
३१८-३१९
बंध करता है
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कायासे अतीत, वर्तमान और अनागत कर्मके त्यागका उनचास उनचास भङ्ग द्वारा कथन करके कर्मचेतनाके त्यागका विधान दिखाया है तथा एक सौ अड़तालीस प्रकृतियोंके फलके त्यागका कथन करके कर्मफलचेतनाके त्यागका विधान दिखाया है
आता है ? इसको बताते हुए, तथा एक ही
ज्ञानमें उपायभाव और उपेयभाव दोनों किस
तरह बनते हैं ? यह बताते हुए टीकाकार
आचार्यदेव इस ‘आत्मख्याति’ टीकाके
अन्तमें परिशिष्टरूपसे स्याद्वाद और उपाय-
उपेय-भावके विषयमें थोड़ा कहनेकी
प्रतिज्ञा करते हैं
ज्ञानको समस्त अन्य द्रव्योंसे भिन्न बतलाया हैं
इन भावोंके चौदह भेद कर उनके १४
काव्य कहे हैं
दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है, ऐसा
कथन
इसलिये आत्माको ज्ञानमात्र कहा है
मोक्षका अर्थी दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप
शक्तियोंके नाम तथा लक्षणोंका कथन
उपदेश किया है
ऐसा कथन
लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता — ऐसा
सम्पूर्ण
इस शास्त्रको पूर्ण करते हुए, उसके अभ्यास
इस शास्त्रको अनन्त धर्मवाले आत्माको
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पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीसमयसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु ।।
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समयसार
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव कृत मूल गाथायें और श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि कृत आत्मख्याति नामक टीकाके गुजराती अनुवादका
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अर्थसमयमें जीव नाम है सार, सुनहु सहु;
तातैं जु सार बिनकर्ममल शुद्ध जीव शुद्ध नय कहै,
इस ग्रन्थ माँहि कथनी सबै समयसार बुधजन गहै ।।४।।
प्रथम, संस्कृत टीकाकार श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव ग्रन्थके प्रारम्भमें मंगलके लिये इष्टदेवको नमस्कार करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [नमः समयसाराय ] ‘समय’ अर्थात् जीव नामक पदार्थ, उसमें सार — जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा, उसे मेरा नमस्कार हो । वह कैसा है ? [भावाय ] शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु है । इस विशेषणपदसे सर्वथा अभाववादी नास्तिकोंका मत खण्डित हो गया । और वह कैसा है ? [चित्स्वभावाय ] जिसका स्वभाव चेतनागुणरूप है । इस विशेषणसे गुण-गुणीका सर्वथा भेद माननेवाले नैयायिकोंका निषेध हो गया । और वह कैसा है ? [स्वानुभूत्या चकासते ] अपनी ही अनुभवनरूप क्रियासे प्रकाशमान है, अर्थात् अपनेको अपनेसे ही जानता है — प्रगट करता है । इस विशेषणसे, आत्माको तथा ज्ञानको सर्वथा परोक्ष ही माननेवाले जैमिनीय – भट्ट – प्रभाकरके भेदवाले मीमांसकोंके मतका खण्डन हो गया; तथा ज्ञान अन्य ज्ञानसे जाना जा सकता है, स्वयं अपनेको नहीं जानता — ऐसा माननेवाले नैयायिकोंका भी प्रतिषेध हो गया । और वह कैसा है ? [सर्वभावान्तरच्छिदे ] अपनेसे अन्य सर्व जीवाजीव, चराचर पदार्थोंको सर्व क्षेत्रकालसम्बन्धी, सर्व विशेषणोंके साथ, एक ही समयमें जाननेवाला है । इस विशेषणसे, सर्वज्ञका अभाव माननेवाले मीमांसक आदिका निराकरण हो गया । इस प्रकारके विशेषणों (गुणों) से शुद्ध आत्माको ही इष्टदेव सिद्ध करके (उसे) नमस्कार किया है ।
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दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः ।
भावार्थ : — यहाँ मंगलके लिये शुद्ध आत्माको नमस्कार किया है । यदि कोई यह प्रश्न करे कि किसी इष्टदेवका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? तो उसका समाधान इस प्रकार है : — वास्तवमें इष्टदेवका सामान्य स्वरूप सर्वकर्मरहित, सर्वज्ञ, वीतराग, शुद्ध आत्मा ही है, इसलिये इस अध्यात्मग्रन्थमें ‘समयसार’ कहनेसे इसमें इष्टदेवका समावेश हो गया । तथा एक ही नाम लेनेमें अन्यमतवादी मतपक्षका विवाद करते हैं उन सबका निराकरण, समयसारके विशेषणोंसे किया है । और अन्यवादीजन अपने इष्टदेवका नाम लेते हैं उसमें इष्ट शब्दका अर्थ घटित नहीं होता, उसमें अनेक बाधाएँ आती हैं, और स्याद्वादी जैनोंको तो सर्वज्ञ वीतरागी शुद्ध आत्मा ही इष्ट है । फि र चाहे भले ही उस इष्टदेवको परमात्मा कहो, परमज्योति कहो, परमेश्वर, परब्रह्म, शिव, निरंजन, निष्कलंक, अक्षय, अव्यय, शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी, अनुपम, अच्छेद्य, अभेद्य, परमपुरुष, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा, चिदानंद, सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हत्, जिन, आप्त, भगवान, समयसार इत्यादि हजारो नामोंसे कहो; वे सब नाम कथंचित् सत्यार्थ हैं । सर्वथा एकान्तवादियोंको भिन्न नामोंमें विरोध है, स्याद्वादीको कोई विरोध नहीं है । इसलिये अर्थको यथार्थ समझना चाहिए ।
श्लोकार्थ : — [अनेकान्तमयी मूर्तिः ] जिनमें अनेक अन्त (धर्म) हैं ऐसे जो ज्ञान तथा वचन उसमयी मूर्ति [नित्यम् एव ] सदा ही [प्रकाशताम् ] प्रकाशरूप हो । कैसी है वह मूर्ति ? [अनन्तधर्मणः प्रत्यगात्मनः तत्त्वं ] जो अनन्त धर्मोंवाला है और जो परद्रव्योंसे तथा परद्रव्योंके गुणपर्यायोंसे भिन्न एवं परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने विकारोंसे कथंचित् भिन्न एकाकार है ऐसे आत्माके तत्त्वको, अर्थात् असाधारण — सजातीय विजातीय द्रव्योंसे विलक्षण — निजस्वरूपको, [पश्यन्ती ] वह मूर्ति अवलोकन करती है ।
भावार्थ : — यहाँ सरस्वतीकी मूर्तिको आशीर्वचनरूपसे नमस्कार किया है । लौकिकमें जो सरस्वतीकी मूर्ति प्रसिद्ध है वह यथार्थ नहीं है, इसलिये यहाँ उसका यथार्थ वर्णन किया है । सम्यक्ज्ञान ही सरस्वतीकी यथार्थ मूर्ति है । उसमें भी सम्पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है,
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र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ।।३।।
जिसमें समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भासित होते हैं । वह अनन्त धर्म सहित आत्मतत्त्वको प्रत्यक्ष देखता है इसलिये वह सरस्वतीकी मूर्ति है । और उसीके अनुसार जो श्रुतज्ञान है वह आत्मतत्त्वको परोक्ष देखता है इसलिये वह भी सरस्वतीकी मूर्ति है । और द्रव्यश्रुत वचनरूप है वह भी उसकी मूर्ति है, क्योंकि वह वचनोंके द्वारा अनेक धर्मवाले आत्माको बतलाती है । इसप्रकार समस्त पदार्थोंके तत्त्वको बतानेवाली ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकांतमयी सरस्वतीकी मूर्ति है; इसीलिये सरस्वतीके वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी इत्यादि बहुतसे नाम कहे जाते हैं । यह सरस्वतीके मूर्ति अनन्तधर्मोंको ‘स्यात्’ पदसे एक धर्मीमें अविरोधरूपसे साधती है, इसलिये वह सत्यार्थ है । कितने ही अन्यवादीजन सरस्वतीकी मूर्तिको अन्यथा (प्रकारान्तरसे) स्थापित करते हैं, किन्तु वह पदार्थको सत्यार्थ कहनेवाली नहीं है ।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्माको अनन्तधर्मवाला कहा है, सो उसमें वे अनन्त धर्म कौन कौनसे हैं ? उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि — वस्तुमें अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तिकत्व, अमूर्तिकत्व इत्यादि (धर्म) तो गुण हैं; और उन गुणोंका तीनों कालमें समय-समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त हैं । और वस्तुमें एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं । वे सामान्यरूप धर्म तो वचनगोचर हैं, किन्तु अन्य विशेषरूप अनन्त धर्म भी हैं जो कि वचनके विषय नहीं हैं, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं । आत्मा भी वस्तु है, इसलिये उसमें भी अपने अनन्त धर्म हैं ।
आत्माके अनन्त धर्मोंमें चेतनत्व असाधारण धर्म है वह अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है । सजातीय जीवद्रव्य अनन्त हैं, उनमें भी यद्यपि चेतनत्व है तथापि सबका चेतनत्व निजस्वरूपसे भिन्न भिन्न कहा है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशभेद होनेसे वह किसीका किसीमें नहीं मिलता । वह चेतनत्व अपने अनन्त धर्मोंमें व्यापक है, इसलिये उसे आत्माका तत्त्व कहा है । उसे यह सरस्वतीकी मूर्ति देखती है और दिखाती है । इसप्रकार इसके द्वारा सर्व प्राणियोंका कल्याण होता है इसलिये ‘सदा प्रकाशरूप रहो’ इसप्रकार इसके प्रति आशीर्वादरूप वचन कहा ।।२।।
श्लोकार्थ : — श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव कहते हैं कि [समयसारव्याख्यया एव ] इस समयसार (शुद्धात्मा तथा ग्रन्थ) की व्याख्या (टीका) से ही [मम अनुभूतेः ] मेरी अनुभूतिकी
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रहित उत्कृष्ट निर्मलता) [भवतु ] हो । कैसी है यह मेरी परिणति ? [परपरिणतिहेतोः मोहनाम्नः
से [अविरतम् अनुभाव्य-व्याप्ति-कल्माषितायाः ] जो अनुभाव्य (रागादि परिणामों) की व्याप्ति है
उससे निरन्तर कल्माषित अर्थात् मैली है । और मैं कैसा हूँ ? [शुद्ध-चिन्मात्रमूर्तेः ] द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध
भावार्थ : — आचार्यदेव कहते हैं कि शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे तो मैं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ । किन्तु मेरी परिणति मोहकर्मके उदयका निमित्त पा करके मैली है — रागादिस्वरूप हो रही है । इसलिये शुद्ध आत्माकी कथनीरूप इस समयसार ग्रंथकी टीका करनेका फल यह चाहता हूँ कि मेरी परिणति रागादि रहित शुद्ध हो, मेरे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति हो । मैं दूसरा कुछ भी — ख्याति, लाभ, पूजादिक — नहीं चाहता । इसप्रकार आचार्यने टीका करनेकी प्रतिज्ञागर्भित उसके फलकी प्रार्थना की है ।।३।।
अब मूलगाथासूत्रकार श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ग्रन्थके प्रारम्भमें मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं —
मैं वंद श्रुतकेवलिकथित कहूँ समयप्राभृतको अहो ।।१।।
गाथार्थ : — [ध्रुवाम् ] ध्रुव, [अचलाम् ] अचल और [अनौपम्यां ] अनुपम — इन तीन विशेषणोंसे युक्त [गतिं ] गतिको [प्राप्तान् ] प्राप्त हुए [सर्वसिद्धान् ] सर्व सिद्धोंको [वन्दित्वा ] नमस्कार करके [अहो ] अहो ! [श्रुतकेवलिभणितम् ] श्रुतकेवलियोंके द्वारा कथित [इदं ] यह [समयप्राभृतम् ] समयसार नामक प्राभृत [वक्ष्यामि ] कहूँगा ।
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अथ प्रथमत एव स्वभावभावभूततया ध्रुवत्वमवलंबमानामनादिभावान्तरपरपरिवृत्ति- विश्रांतिवशेनाचलत्वमुपगतामखिलोपमानविलक्षणाद्भुतमाहात्म्यत्वेनाविद्यमानौपम्यामपवर्गसंज्ञिकां गतिमापन्नान् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धत्वेन साध्यस्यात्मनः प्रतिच्छन्दस्थानीयान् भावद्रव्यस्तवाभ्यां स्वात्मनि परात्मनि च निधायानादिनिधनश्रुतप्रकाशितत्वेन निखिलार्थसार्थसाक्षात्कारिकेवलिप्रणीत- त्वेन श्रुतकेवलिभिः स्वयमनुभवद्भिरभिहितत्वेन च प्रमाणतामुपगतस्यास्य समयप्रकाशक स्य प्राभृता- ह्वयस्यार्हत्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादिमोहप्रहाणाय भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते ।
टीका : — यहाँ (संस्कृत टीकामें) ‘अथ’ शब्द मंगलके अर्थको सूचित करता है । ग्रंथके प्रारंभमें सर्व सिद्धोंको भाव-द्रव्यस्तुतिसे अपने आत्मामें तथा परके आत्मामें स्थापित करके इस समय नामक प्राभृतका भाववचन और द्रव्यवचनसे परिभाषण (व्याख्यान) प्रारम्भ करते हैं — इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं । वे सिद्ध भगवान्, सिद्धत्वके कारण, साध्य जो आत्मा उसके प्रतिच्छन्दके स्थान पर हैं, — जिनके स्वरूपका संसारी भव्यजीव चिंतवन करके, उनके समान अपने स्वरूपको ध्याकर, उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियोंसे विलक्षण पंचमगति – मोक्षको प्राप्त करते हैं । वह पंचमगति स्वभावस्वरूप है, इसलिए ध्रुवत्वका अवलम्बन करती है । चारों गतियाँ परनिमित्तसे होती हैं, इसलिए ध्रुव नहीं किन्तु विनश्वर हैं । ‘ध्रुव’ विशेषणसे पंचमगतिमें इस विनश्वरताका व्यवच्छेद हो गया । और वह गति अनादिकालसे परभावोंके निमित्तसे होनेवाले परमें भ्रमण, उसकी विश्रांति (अभाव)के वश अचलताको प्राप्त है । इस विशेषणसे, चारों गतियोंमें पर निमित्तसे जो भ्रमण होता है, उसका पंचमगतिमें व्यवच्छेद हो गया । और वह जगत्में जो समस्त उपमायोग्य पदार्थ हैं उनसे विलक्षण — अद्भुत महिमावाली है, इसलिए उसे किसीकी उपमा नहीं मिल सकती । इस विशेषणसे चारों गतियोंमें जो परस्पर कथंचित् समानता पाई जाती है, उसका पंचमगतिमें निराकरण हो गया । और उस गतिका नाम अपवर्ग है । धर्म, अर्थ और काम — त्रिवर्ग कहलाते हैं; मोक्षगति इस वर्गमें नहीं है, इसलिए उसे अपवर्ग कही है । — ऐसी पंचमगतिको सिद्ध भगवान् प्राप्त हुए हैं । उन्हें अपने तथा परके आत्मामें स्थापित करके, समयका (सर्व पदार्थोंका अथवा जीव पदार्थका) प्रकाशक जो प्राभृत नामक अर्हत्प्रवचनका अवयव है उसका, अनादिकालसे उत्पन्न हुए अपने और परके मोहका नाश करनेके लिए परिभाषण करता हूँ । वह अर्हत्प्रवचनका अवयव अनादिनिधन परमागम शब्दब्रह्मसे प्रकाशित होनेसे, सर्व पदार्थोंके समूहको साक्षात् करनेवाले केवली भगवान् सर्वज्ञदेव द्वारा प्रणीत होनेसे और केवलियोंके निकटवर्ती साक्षात् सुननेवाले तथा स्वयं अनुभव करनेवाले श्रुतकेवली गणधरदेवोंके द्वारा कथित होनेसे प्रमाणताको प्राप्त है । यह अन्य वादियोंके आगमकी भाँति छद्मस्थ (अल्पज्ञानियों)की कल्पना मात्र नहीं है कि जिसका अप्रमाण हो ।
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अधिकार हैं । उनमेंसे दशवें वस्तुमें समय नामक जो प्राभृत है उसके मूलसूत्रोंके शब्दोंका ज्ञान पहले
कुन्दकुन्दाचार्यदेवको भी था । उन्होंने समयप्राभृतका परिभाषण किया — परिभाषासूत्र बनाया ।
आचार्यने मंगलके लिए सिद्धोंको नमस्कार किया है । संसारीके लिए शुद्ध आत्मा साध्य है और सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा है, इसलिए उन्हें नमस्कार करना उचित है । यहाँ किसी इष्टदेवका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? इसकी चर्चा टीकाकारने मंगलाचरण पर की है, उसे यहाँ भी समझ लेना चाहिए । सिद्धोंको ‘सर्व’ विशेषण देकर यह अभिप्राय बताया है कि सिद्ध अनन्त हैं । इससे यह माननेवाले अन्यमतियोंका खण्डन हो गया कि ‘शुद्ध आत्मा एक ही है’ । ‘श्रुतकेवली’ शब्दके अर्थमें (१) श्रुत अर्थात् अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम और केवली अर्थात् सर्वज्ञदेव कहे गये हैं, तथा (२) श्रुत-अपेक्षासे केवली समान ऐसे गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधर कहे गये हैं; उनसे समयप्राभृतकी उत्पत्ति बताई गई है । इसप्रकार ग्रन्थकी प्रमाणता बताई है, और अपनी बुद्धिसे कल्पित कहनेका निषेध किया है । अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अपनी बुद्धिसे पदार्थका स्वरूप चाहे जैसा कहकर विवाद करते हैं, उनका असत्यार्थपन बताया है ।
इस ग्रन्थके अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन तो प्रगट ही हैं । शुद्ध आत्माका स्वरूप अभिधेय (कहने योग्य) है । उसके वाचक इस ग्रन्थमें जो शब्द हैं उनका और शुद्ध आत्माका वाच्यवाचकरूप सम्बन्ध है सो सम्बन्ध है । और शुद्धात्माके स्वरूपकी प्राप्तिका होना प्रयोजन है ।।१।।
प्रथम गाथामें समयका प्राभृत कहनेकी प्रतिज्ञा की है । इसलिए यह आकांक्षा होती है कि समय क्या है ? इसलिए पहले उस समयको ही कहते हैं : —
स्थित कर्मपुद्गलके प्रदेशों, परसमय जीव जानना ।।२।।