Samaysar (Hindi). BhagwAn shri kundkundAchAryadev; BhagwAn kundakundAchAryke sambadhame ullekh; Sadgurudevshreeke hrudyodgar; Sadgurudev stuti; VishayanukramaNikA; ShAstra swAdhyAya kA prArambhik mangalAcharan; Purvarang; Kalash: 1-3 ; Gatha: 1-2.

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भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके सम्बन्धमें
उल्लेख
वन्द्यो विभुर्भ्भुवि न कै रिह कौण्डकुन्दः
कु न्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः
यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीक -
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्
।।
[चन्द्रगिरि पर्वतका शिलालेख ]
अर्थ :कुन्दपुष्पकी प्रभा धारण करनेवाली जिनकी कीर्ति द्वारा दिशाएँ
विभूषित हुई हैं, जो चारणोंकेचारणऋद्धिधारी महामुनियोंकेसुन्दर हस्तकमलोंके
भ्रमर थे और जिन पवित्रात्माने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द
इस पृथ्वी पर किससे वन्द्य नहीं हैं ?
........कोण्डकु न्दो यतीन्द्रः ।।
रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त-
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः
रजःपदं भूमितलं विहाय
चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः
।।
[विंध्यगिरिशिलालेख ]

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अर्थ :यतीश्वर (श्री कुन्दकुन्दस्वामी) रजःस्थानकोभूमितलको
छोड़कर चार अंगुल ऊपर आकाशमें गमन करते थे उसके द्वारा मैं ऐसा समझता हूँ
कि
वे अन्तरमें तथा बाह्यमें रजसे (अपनी) अत्यन्त अस्पृष्टता व्यक्त करते थे
(अन्तरमें वे रागादिक मलसे अस्पृष्ट थे और बाह्यमें धूलसे अस्पृष्ट थे)
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण
ण विबोहइ तो समणा क हं सुमग्गं पयाणंति ।।
[दर्शनसार]
अर्थ :(महाविदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकरदेव) श्री सीमन्धरस्वामीसे प्राप्त
हुए दिव्य ज्ञान द्वारा श्री पद्मनन्दिनाथने (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) बोध न दिया होता
तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?
हे कुन्दकुन्दादि आचार्यों ! आपके वचन भी स्वरूपानुसन्धानमें इस पामरको
परम उपकारभूत हुए हैं उसके लिये मैं आपको अत्यन्त भक्तिपूर्वक नमस्कार करता
हूँ [श्रीमद् राजचन्द्र ]]
भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवका हमारे उपर बहुत उपकार है, हम उनके
दासानुदास है श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञ वीतराग श्री
सीमंधर भगवानके समवसरणमें गये थे और वे वहाँ आठ दिन रहे थे उसमें लेशमात्र
शंका नहीं है
वह बात वैसी ही हैं; कल्पना करना नहीं, ना कहना नहीं; मानो तो
भी वैसे ही है, न मानो तो भी वैसे ही है यथातथ्य बात है, अक्षरशः सत्य है,
प्रमाणसिद्ध है [पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ]
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हृदयोद्गार
(स्व हस्ताक्षरमें)
[ भाषान्तर ]
नमः सिद्धेभ्यः
भगवान कुंदकुंद
आचार्यदेव समयप्राभृतमें कहते हैं
कि, ‘मैं जो यह भाव कहना
चाहता हूँ, वह अन्तरके
आत्मसाक्षीके प्रमाण द्वारा प्रमाण
करना क्योंकि यह अनुभवप्रधान
ग्रंथ है, उसमें मुझे वर्तते स्व-
आत्मवैभव द्वारा कहा जा रहा
है’ ऐसा कहकर गाथा ६ में
आचार्य भगवान कहते हैं कि,
‘आत्मद्रव्य अप्रमत्त नहीं और
प्रमत्त नहीं है अर्थात् उन दो
अवस्थाओंका निषेध करता मैं
एक जाननहार अखंड हूँ
यह

मेरी वर्तमान वर्तती दशासे कह रहा हूँ’ मुनित्वरूप दशा अप्रमत्त व प्रमत्तइन दो भूमिकामें हजारों बार आती-जाती हैं, उस भूमिकामें वर्तते महा-मुनिका यह कथन है

समयप्राभृत अर्थात् समयसाररूपी उपहार जैसे राजाको मिलनेके लिए उपहार लेकर जाना होता है उस भांति अपनी परम उत्कृष्ट आत्मदशारूप परमात्मदशा प्रगट करनेके लिए समयसार जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप आत्मा, उसकी परिणतिरूप उपहार देने पर परमात्मदशा सिद्धदशा प्रगट होती है

यह शब्दब्रह्मरूप परमागमसे दर्शित एकत्वविभक्त आत्माको प्रमाण करना ‘हाँ’से ही स्वीकृत करना, कल्पना नहीं करना; इसका बहुमान करनेवाला भी महाभाग्यशाली है

L

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श्री सद्गुरुदेव-स्तुति
(हरिगीत)
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो ! गुरु क् हान तुं नाविक मळ्यो.
(अनुष्टुप)
अहो ! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुं दना !
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
(शिखरिणी)
सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
(शार्दूलविक्रीडित)
हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके ; परद्रव्य नातो तूटे;
रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमांअंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकं प ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र ! तने नमुं हुं,
क रुणा अकारण समुद्र ! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी ! तने नमुं हुं.
(स्रग्धरा)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति ! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,
मनरथ मननो; पूरजो शक्ति शाळी !
रचयिता : हिंमतलाल जेठालाल शाह

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विषयानुक्रमणिका
विषय
गाथा
विषय
गाथा
(ठीक) है
। ...................................
पूर्वरंग
जीवके जुदापन और एकपनाका पाना दुर्लभ है;
(प्रथम ३८ गाथाओंमें रंगभूमिस्थल बाँधा है,
उसमें जीव नामके पदार्थका स्वरूप कहा है
क्योंकि बंधकी कथा तो सभी प्राणी करते हैं,
एकत्वकी कथा विरले जानते हैं जो कि
दुर्लभ है, उस सम्बन्धी कथन
)
मंगलाचरण, ग्रन्थप्रतिज्ञा ............................
यह जीव-अजीवरूप छह द्रव्यात्मक लोक है,
। ............
इस कथाको हम सर्व निज विभवसे कहते हैं,
इसमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चार
द्रव्य तो स्वभावपरिणतिस्वरूप ही हैं और
जीव-पुद्गलद्रव्यके अनादिकालके संयोगसे
विभावपरिणति भी है, क्योंकि स्पर्श, रस, गंध,
वर्ण और शब्दरूप मूर्तिक पुद्गलोंको देखकर
यह जीव रागद्वेषमोहरूप परिणमता है और
इसके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप होकर जीवके
साथ बँधता है
उसको अन्य जीव भी अपने अनुभवसे परीक्षा
कर ग्रहण करना
। ............................
शुद्धनयसे देखिये तो जीव अप्रमत्त-प्रमत्त दोनों
दशाओंसे जुदा एक ज्ञायकभावमात्र है, जो
जाननेवाला है वही जीव है, उस सम्बन्धी
इस ज्ञायकभावमात्र आत्माके दर्शन-ज्ञान-
चारित्रके भेदसे भी अशुद्धपन नहीं है, ज्ञायक
है वह ज्ञायक ही है
इस तरह इन दोनोंकी
। ........................
अनादिसे बंधावस्था है
जीव जब निमित्त
पाकर रागादिरूप नहीं परिणमता तब नवीन
कर्म नहीं बंधते, पुराने कर्म झड़ जाते हैं,
इसलिये मोक्ष होती है; ऐसे जीवकी स्वसमय-
परसमयरूप प्रवृत्ति है
व्यवहारनय आत्माको अशुद्ध कहता है; उस
व्यवहारनयके उपदेशका प्रयोजन
। ..........
व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे
जब जीव
९-१०
है ? .............................................
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभावरूप अपने स्व-
भावरूप परिणमता है तब स्वसमय होता है
और जब तक मिथ्या-दर्शनज्ञान-चारित्ररूप
परिणमता है तब तक वह पुद्गलकर्ममें ठहरा
हुआ परसमय है, ऐसा कथन
शुद्धनय सत्यार्थ और व्यवहारनय असत्यार्थ कहा
गया है
। ........................................
११
जो स्वरूपके शुद्ध परमभावको प्राप्त हो गये
। ..............
उनको तो शुद्धनय ही प्रयोजनवान है, और जो
साधक अवस्थामें हैं उनके व्यवहारनय भी
प्रयोजनवान है, ऐसा कथन
जीवके पुद्गलकर्मके साथ बंध होनेसे
। ................
१२
परसमयपन है सो सुन्दर नहीं है, क्योंकि
इसमें जीव संसारमें भ्रमता अनेक तरहके दुःख
पाता है; इसलिये स्वभावमें स्थिर हो
सबसे
जीवादितत्त्वोंको शुद्धनयसे जानना सो सम्यक्त्व
१३
है, ऐसा कथन
। ..............................
जुदा हो अकेला स्थिर होतभी सुन्दर
शुद्धनयका विषयभूत आत्मा बद्धस्पृष्ट, अन्य,

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विषय
गाथा
विषय
गाथा
अनियत, विशेष और संयुक्तइन पाँच
अध्यवसानादिभाव पुद्गलमय हैं, जीव नहीं हैं,
भावोंसे रहित होने सम्बन्धी कथन
। .........
ऐसा कथन
।...........................
१४
४५
अध्यवसानादिभावको व्यवहारनयसे जीव कहा
शुद्धनयके विषयभूत आत्माको जानना सो
गया है; तथा उसका दृष्टांत
। ........
४६-४८
सम्यग्ज्ञान है, ऐसा कथन
। ...................
१५
परमार्थरूप जीवका स्वरूप
। ...........
४९
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप आत्मा ही साधुके
वर्णको आदि लेकर गुणस्थान पर्यन्त जितने भाव
सेवन करने योग्य है, उसका दृष्टांतसहित
कथन
हैं वे जीवके नहीं हैं, ऐसा छह गाथाओंमें
कथन
। ...................................
१६-१८
। .................................
५०-५५

शुद्धनयके विषयभूत आत्माको जब तक न जाने

ये वर्णादिक भाव जीवके हैं ऐसा व्यवहारनय
तब तक वे जीव अज्ञानी हैं
।.........
१९
कहता है, निश्चयनय नहीं कहता, ऐसा
दृष्टांतपूर्वक कथन
अप्रतिबुद्ध(अज्ञानी)को कैसे पहिचाना जा
। ...................
५६-६०
सकता है ? ..............................
२०-२२
२३-२५
वर्णादिक भावोंका जीवके साथ तादात्म्य कोई
अज्ञानी माने, उसका निषेध
। ........
६१-६८
अज्ञानीको समझानेकी रीति
। ..............
२. कर्ताकर्म अधिकार
अज्ञानीने जीवदेहको एक देखकर तीर्थङ्करकी
अज्ञानी जीव क्रोधादिमें जब तक वर्तता है तब
स्तुतिका प्रश्न किया, उसका उत्तर
। .
२६-२७
तक कर्मका बंध करता है
। ........
६९-७०
इस उत्तरमें जीव देहकी भिन्नताका दृश्य तथा
आस्रव और आत्माका भेदज्ञान होने पर बन्ध नहीं
जितेन्द्रिय, जितमोह और क्षीणमोह
। ..
२८-३३
होता
। ...................................
७१
७२
७३
चारित्रमें जो प्रत्याख्यान कहनेमें आता है वह क्या
ज्ञानमात्रसे ही बन्धका निरोध कैसे होता है ?
आस्रवोंसे निवृत्त होनेका विधान
है ? ऐसे शिष्यके प्रश्नका उत्तर दिया है कि
प्रत्याख्यान ज्ञान ही है
। ......
। ................
३४-३५
ज्ञान होनेका और आस्रवोंकी निवृत्तिका समकाल
अनुभूति द्वारा परभावके तथा ज्ञेयभावके
कैसे है ? उसका कथन
। ...........
७४
७५
भेदज्ञानके प्रकार
।.......................
३६-
३७
ज्ञानस्वरूप हुए आत्माका चिह्न
। .......
दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत हुए आत्माका
आस्रव और आत्माका भेदज्ञान होने पर
स्वरूप कह कर रंगभूमिका स्थल (३८
गाथाओंमें) पूर्ण
आत्मा ज्ञानी होता है तब कर्तृकर्मभाव भी नहीं
होता
। ..............................
७६-७९
। ...................................
३८
जीव-पुद्गलकर्मके परस्पर नमित्त-नैमित्तिक
१. जीव-अजीव अधिकार
भाव है तो भी कर्तृकर्मभाव नही कहा जा
सकता

जीवका स्वरूप न जाननेसे अज्ञानीजन जीवकी

। ................................
८०-८२
कल्पना अध्यवसानादि भावरूप अन्यथा
करते हैं, इस प्रकारका वर्णन
निश्चयनयसे आत्मा और कर्मके कर्तृकर्मभाव
। .......
३९-४३
और भोक्तृ भोग्यभाव नहीं हैं, अपने में ही
कर्तृकर्मभाव और भोक्तृ भोग्यभाव हैं

जीवका स्वरूप अन्यथा कल्पते हैं, उनके

८३
निषेधकी गाथा
। .........................
४४

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विषय
गाथा
विषय
गाथा

व्यवहारनय आत्मा और पुद्गलकर्मके कर्तृ-

जीव निमित्तभूत बनने पर कर्मका परिणाम होता
कर्मभाव और भोक्तृ भोग्यभाव कहता है
हुआ देखकर उपचारसे कहा जाता है कि यह
कर्म जीवने किया
८४
। ..................
आत्माको पुद्गलकर्मका कर्ता और भोक्ता माना
१०५-१०८
जाय तो महान दोषस्वपरके अभिन्न-
मिथ्यात्वादि सामान्य आस्रव और गुणस्थानरूप
पनेका प्रसंगआता है; वह मिथ्यात्व होनेसे
उनके विशेष बंधके कर्ता हैं, निश्चयकर
इनका जीव कर्ताभोक्ता नहीं है
जिनदेवको सम्मत नहीं है
। ........
८५-८६
।...
१०९-११२
मिथ्यात्वादि आस्रव जीव-अजीवके भेदसे
जीव और आस्रवोंका भेद दिखलाया है; अभेद
दो प्रकारके हैं, ऐसा कथन और
उसका हेतु
कहनेमें दूषण दिया है
। .............
११३-११५
। .........................
८७-८८
सांख्यमती, पुरुष और प्रकृतिको अपरिणामी
आत्माके मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरतिये तीन
कहते हैं उसका निषेध कर पुरुष और
पुद्गलको परिणामी कहा है
परिणाम अनादि हैं; उनका कर्तृपना और उनके
निमित्तसे पुद्गलका कर्मरूप होना
। ......
११६-१२५
८९-९२
ज्ञानसे ज्ञानभाव और अज्ञानसे अज्ञानभाव ही
आत्मा मिथ्यात्वादिभावरूप न परिणमे तब कर्मका
उत्पन्न होता है
। ......................
१२६-१३१
कर्ता नहीं है
। .......................
९३
अज्ञानी जीव द्रव्यकर्म बंधनेका निमित्तरूप
अज्ञानसे कर्म कैसे होता है ऐसा शिष्यका प्रश्न
अज्ञानादि भावोंका हेतु होता है
।...
१३२-१३६
और उसका उत्तर
।..................
९४-९५
पुद्गलके परिणाम तो जीवसे जुदे हैं और जीवके
कर्मके कर्तापनका मूल अज्ञान ही है
......
९६
९७
१३७-१४०
पुद्गलसे जुदे हैं
। ....................
ज्ञानके होने पर कर्तापन नहीं होता
......
कर्म जीवसे बद्धस्पृष्ट है या अबद्धस्पृष्ट ऐसे
व्यवहारी जीव पुद्गलकर्मका कर्ता आत्माको
शिष्यके प्रश्नका निश्चय-व्यवहार दोनों नयोंसे
उत्तर
कहते हैं, यह अज्ञान है
।..........
९८-९९
१४१
। ..................................
आत्मा पुद्गलकर्मका कर्ता निमित्त-नैमित्तिक-
जो नयोंके पक्षसे रहित है वह कर्तृकर्मभावसे
भावसे भी नहीं है; आत्माके योग-उपयोग हैं
वे निमित्त-नैमित्तिकभावसे कर्ता हैं और योग-
उपयोगका आत्मा कर्ता है
रहित समयसारशुद्ध आत्मा
है ऐसा
१४२-१४४
कहकर अधिकार पूर्ण
। .............
। .............
१००
१०१
३. पुण्य-पाप अधिकार
ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है
। ..................
१४५
१४६
१४७
शुभाशुभ कर्मके स्वभावका वर्णन
।........
अज्ञानी भी अपने अज्ञानभावका ही कर्ता है,
दोनों ही कर्म बन्धके कारण हैं
। ..........
पुद्गलकर्मका कर्ता तो ज्ञानी या अज्ञानी कोई
नहीं है, क्योंकि परद्रव्योंके परस्पर कर्तृकर्म-
भाव नहीं हैं
इसलिये दोनों कर्मोंका निषेध
। .............
। .............................
उसका दृष्टांत और आगमकी
१०२
१४८-१५०
साक्षी
। .................................
एक द्रव्य अन्य द्रव्यका कुछ भी कर सकता
नहीं
। .................................
१५१
१०३-१०४
ज्ञान मोक्षका कारण है
। .....................

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विषय
गाथा
विषय
गाथा

व्रतादिक पालै तो भी ज्ञान बिना मोक्ष

५. संवर अधिकार
नहीं है
। .................................
१५२-१५३
संवरका मूल उपाय भेदविज्ञान है उसकी

पुण्यकर्मके पक्षपातीका दोष

। ...........
१५४
१८१-१८३
रीतिका तीन गाथाओंमें कथन
। ......

ज्ञानको ही परमार्थस्वरूप मोक्षका कारण कहा

भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी प्राप्ति
है, और अन्यका निषेध किया है
।..
१५५-१५६
होती है, ऐसा कथन
।.................
१८४-१८५

कर्म मोक्षके कारणका घात करता है ऐसा दृष्टांत

शुद्ध आत्माकी प्राप्तिसे ही संवर होता
द्वारा कथन
। ............................
१५७-१५९
है, ऐसा कथन
। .......................
१८६
संवर होनेका प्रकारतीन गाथाओंमें
। .
कर्म आप ही बन्धस्वरूप है
। ..........
१६०
१८७-१८९
संवर होनेके क्रमका कथन; अधिकार
कर्म बन्धके कारणरूप भावस्वरूप है अर्थात्
पूर्ण
।.....................................
मिथ्यात्व-अज्ञान-कषायरूप है ऐसा कथन,
और तीसरा अधिकार पूर्ण
१९०-१९२
। ..........
१६१-१६३
६. निर्जरा अधिकार
४. आस्रव अधिकार
द्रव्यनिर्जराका स्वरूप
। .......................
१९३
१९४
१९५
१९६
१९७
आस्रवके स्वरूपका वर्णन अर्थात् मिथ्यात्व,
भावनिर्जराका स्वरूप
। .......................
अविरति, कषाय और योगये जीव-
ज्ञानका सामर्थ्य
।..............................
अजीवके भेदसे दो प्रकारके हैं और वे
बन्धके कारण हैं, ऐसा कथन
वैराग्यका सामर्थ्य
। ...........................
१६४-१६५
। .....
ज्ञान-वैराग्यके सामर्थ्यका दृष्टांतपूर्वक कथन
१६६
ज्ञानीके उन आस्रवोंका अभाव कहा है
। .
सम्यग्दृष्टि सामान्यरूपसे तथा विशेषरूपसे
जीवके राग-द्वेष-मोहरूप अज्ञानमय परिणाम
स्व-परको किस रीतिसे जानता है, उस
सम्बन्धी कथन
१६७
हैं, वे ही आस्रव हैं
। ....................
। ........................
१९८-१९९
रागादिकसे अमिश्रित ज्ञानमय भावकी
सम्यग्दृष्टि ज्ञान-वैराग्यसम्पन्न होता है
। ..
२००
१६८
१६९
उत्पत्ति
। ....................................
रागी जीव सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होता

ज्ञानीके द्रव्य-आस्रवोंका अभाव

। ..........
है, उस सम्बन्धी कथन
। ..............
२०१-२०२

‘ज्ञानी निरास्रव किस तरह है’ ऐसे

अज्ञानी रागी प्राणी रागादिकको अपना पद
शिष्यके प्रश्नका उत्तर
। ..................
१७०
जानता है; उस पदको छोड़ अपने
एक वीतराग ज्ञायकभावपदमें स्थिर
होनेका उपदेश

अज्ञानी और ज्ञानीके आस्रवका होने और न

२०३
। ...........................
होनेका युक्तिपूर्वक वर्णन
।..........
१७१-१७६
आत्माका पद एक ज्ञायकस्वभाव है और वह ही

राग-द्वेष-मोह अज्ञानपरिणाम है, वही

मोक्षका कारण है; ज्ञानमें जो भेद हैं वे कर्मके
क्षयोपशमके निमित्तसे हैं
बंधके कारणरूप आस्रव है; वह ज्ञानीके
नहीं है; इसलिये ज्ञानीके कर्मबंध भी नहीं
है
। ...............
२०४
अधिकार पूर्ण
। .................
१७७-१८०
ज्ञान ज्ञानसे ही प्राप्त होता है
। ..........
२०५-२०६

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विषय
गाथा
विषय
गाथा

ज्ञानी परको क्यों नहीं ग्रहण करता, ऐसे

यह अध्यवसाय क्या है ? ऐसे शिष्यके

शिष्यके प्रश्नका उत्तर

। ..................
प्रश्नका उत्तर
।.............................
२७१
२०७
२०८

परिग्रहके त्यागका विधान

।..................
इस अध्यवसानका निषेध है वह

ज्ञानीके सब परिग्रहका त्याग है

२०९-२१७
व्यवहारनयका ही निषेध है
। ............
२७२

कर्मके फलकी वाँछासे कर्म करता है वह

जो केवल व्यवहारका ही अवलंबन करता है वह

कर्मसे लिप्त होता है; ज्ञानीके वाँछा नहीं होनेसे वह कर्मसे लिप्त नहीं होता है, उसका दृष्टांत द्वारा कथन

अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है; क्योंकि इसका
अवलंबन अभव्य भी करता है, व्रत, समिति,
गुप्ति पालता है, ग्यारह अंग पढ़ता है, तो भी
उसे मोक्ष नहीं है
। ...........
२१८-२२७

सम्यक्त्वके आठ अंग हैं, उनमेंसे प्रथम

। ........................
२७३
२७४

तो सम्यग्दृष्टि निःशंक तथा सात भय रहित है, ऐसा कथन

शास्त्रोंका ज्ञान होने पर भी अभव्य अज्ञानी है
। ................
२२८-२२९
अभव्य धर्मकी श्रद्धा करता है वह भागहेतु

निष्कांक्षिता, निर्विचिकित्सा, अमूढत्व, उपगूहन,

धर्मकी ही है, मोक्षहेतु धर्मकी नहीं
। ..
२७५

स्थतिकरण, वात्सल्य, प्रभावनाइनका

व्यवहार-निश्चयनयका स्वरूप
। .........
२७६-२७७

निश्चयनयकी प्रधानतासे वर्णन

।.......
२३०-२३६
रागादिक भावोंका निमित्त आत्मा है या परद्रव्य ?

७. बन्ध अधिकार

उसका उत्तर
। ..........................
२७८-२८२
२३७-२४१

बन्धके कारणका कथन

। ................
आत्मा रागादिकका अकारक ही किस रीतिसे है,

ऐसे कारणरूप आत्मा न प्रवर्ते तो बन्ध न

उसका उदाहरणपूर्वक कथन
।.......
२८३-२८७
२४२-२४६

हो, ऐसा कथन

।.......................
८. मोक्ष अधिकार
मिथ्यादृष्टिको जिससे बन्ध होता है, उस
मोक्षका स्वरूप कर्मबंधसे छूटना है; जो जीव
आशयको प्रगट किया है और वह आशय
अज्ञान है, ऐसा सिद्ध किया है
बंधका छेद नहीं करता है, परन्तु मात्र बंधके
स्वरूपको जानकर ही संतुष्ट है वह मोक्ष नहीं
पाता है
२४७-२५८
। ....
अज्ञानमय अध्यवसाय ही बन्धका
२८८-२९०
। ...............................
२५९-२६४
कारण है
। ..............................
बन्धकी चिन्ता करने पर भी बन्ध नहीं कटता
बाह्यवस्तु बन्धका कारण नहीं है, अध्यवसान
२९१
है
। ..........................................
ही बंधका कारण हैऐसा कथन
२६५
२९२-२९३
बन्ध-छेदनसे ही मोक्ष होता है
। .......
अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया नहीं करता
बन्धका छेद कैसे करना, ऐसे प्रश्नका उत्तर यह
२६६-२६७
होनेसे मिथ्या है
। ......................
है कि कर्मबन्धके छेदनेको प्रज्ञाशस्त्र ही
करण है
मिथ्यादृष्टि अज्ञानरूप अध्यवसायसे अपनी
२९४
। ..................................
आत्माको अनेक अवस्थारूप करता
है, ऐसा कथन
प्रज्ञारूप करणसे आत्मा और बन्धदोनोंको
२६८-२६९
। .......................
जुदे जुदे कर प्रज्ञासे ही आत्माको ग्रहण
करना, बन्धको छोड़ना
यह अज्ञानरूप अध्यवसाय जिनके नहीं
२९५-२९६
। .............
है वे मुनि कर्मसे लिप्त नहीं होते
। .....
२७०

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विषय
गाथा
विषय
गाथा

आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना,

जो आत्माको कर्ता मानते हैं उनका मोक्ष

उस सम्बन्धी कथन

।.....................
२९७-२९९
नहीं है, ऐसा कथन
। ...........
३२१-३२७

आत्माके सिवाय अन्य भावका त्याग करना;

अज्ञानी अपने भावकर्मका कर्ता है, ऐसा

कौन ज्ञानी परभावको पर जानकर ग्रहण करेगा ? अर्थात् कोई नहीं करेगा

युक्तिपूर्वक कथन
। ..............
३२८-३३१
।.....
३००
आत्माके कर्तापना और अकर्तापना जिस तरह है

जो परद्रव्यको ग्रहण करता है वह अपराधी है,

उस तरह स्याद्वाद द्वारा तेरह गाथाओंमें सिद्ध
किया हैं

बन्धनमें पड़ता है; जो अपराध नहीं करता, वह बन्धनमें नहीं पड़ता

। .........................
३३२-३४४
। ...............
३०१-३०३
३०४-३०५
बौद्धमती ऐसा मानते हैं कि कर्मको करनेवाला

अपराधका स्वरूप .............................. ‘शुद्ध आत्माके ग्रहणसे मोक्ष कहा; परन्तु आत्मा

दूसरा है और भोगनेवाला दूसरा है; उसका
युक्तिपूर्वक निषेध
। ..............
३४५-३४८

तो प्रतिक्रमण आदि द्वारा ही दोषोंसे छूट जाता है; तो फि र शुद्ध आत्माके ग्रहणका क्या काम है ?’ ऐसे शिष्यके प्रश्नका उत्तर यह दिया है कि प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणसे रहित अप्रतिक्रमणादि-स्वरूप तीसरी भूमिकासे हीशुद्ध आत्माके ग्रहणसे ही

कर्तृकर्मका भेद-अभेद जैसे है उसी तरह
नयविभाग द्वारा दृष्टांतपूर्वक कथन
३४९-३५५
निश्चयव्यवहारके कथनको, खड़ियाके दृष्टांतसे
दस गाथाओंमें स्पष्ट किया हैं
३५६-३६५
‘ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न हैं’ ऐसा जाननेके
आत्मा निर्दोष
कारण सम्यग्दृष्टिको विषयोंके प्रति रागद्वेष
नहीं होता; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान
जीवके परिणाम हैं

होता है

३०६-३०७
। ...................................
९. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
। .............
३६६-३७१

आत्माके अकर्तापना दृष्टांतपूर्वक कहते

अन्यद्रव्यका अन्यद्रव्य कुछ नहीं कर सकता,
३०८-३११
हैं
। ...............................................
ऐसा कथन
।......................
३७२

कर्तापना जीव अज्ञानसे मानता है; उस

स्पर्श आदि पुद्गलके गुण हैं वे आत्माको कुछ
अज्ञानका सामर्थ्य दिखाते हैं
।................
३१२-३१३
ऐसा नहीं कहते कि हमको ग्रहण करो और
आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनको
जानने नही जाता; परन्तु अज्ञानी जीव उनसे
वृथा राग-द्वेष करता है

जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे

उपजना- विनशना न छोड़े तब तक
वह कर्ता होता है
।........
। ..............
३७३-३८२
३१४-३१५
प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनाका
कर्मफलका भोक्तृ पना भी आत्माका स्वभाव
स्वरूप
। ...........................
३८३-३८६
नहीं है, अज्ञानसे ही वह भोक्ता होता है
ऐसा कथन
।......................
जो कर्म और कर्मफलका अनुभव करता हुआ
३१६-३१७
३१८-३१९
अपनेको उसरूप करता है वह नवीन कर्मका
बंध करता है
ज्ञानी कर्मफलका भोक्ता नहीं है
।.
(यहाँ पर टीकाकार आचार्य-
ज्ञानी कर्ता-भोक्ता नहीं है, उसका
देवने कृत-कारित-अनुमोदनासे मन-वचन-
३२०
दृष्टांतपूर्वक कथन
। ..............

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विषय
गाथा
विषय
गाथा

कायासे अतीत, वर्तमान और अनागत कर्मके त्यागका उनचास उनचास भङ्ग द्वारा कथन करके कर्मचेतनाके त्यागका विधान दिखाया है तथा एक सौ अड़तालीस प्रकृतियोंके फलके त्यागका कथन करके कर्मफलचेतनाके त्यागका विधान दिखाया है

ज्ञानमात्र कहनेमें स्याद्वादसे विरोध कैसे नहीं
आता है ? इसको बताते हुए, तथा एक ही
ज्ञानमें उपायभाव और उपेयभाव दोनों किस
तरह बनते हैं ? यह बताते हुए टीकाकार
आचार्यदेव इस ‘आत्मख्याति’ टीकाके
अन्तमें परिशिष्टरूपसे स्याद्वाद और उपाय-
उपेय-भावके विषयमें थोड़ा कहनेकी
प्रतिज्ञा करते हैं
। .................................
३८७-३८९
। .................
५८९

ज्ञानको समस्त अन्य द्रव्योंसे भिन्न बतलाया हैं

। ......................
३९०-४०४
एक ज्ञानमें ही ‘‘तत्, अतत्, एक,
अनेक, सत्, असत्, नित्य, अनित्य’’
इन भावोंके चौदह भेद कर उनके १४
काव्य कहे हैं
आत्मा अमूर्तिक है, इसलिये इसके
पुद्गलमयी देह नहीं है
।........
४०५-४०७
। ..................
५९०
द्रव्यलिंग देहमयी है, इसलिये द्रव्यलिंग
ज्ञान लक्षण है और आत्मा लक्ष्य है, ज्ञानकी
आत्माके मोक्षका कारण नहीं है;
दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है, ऐसा
कथन
प्रसिद्धिसे ही आत्माकी प्रसिद्धि होती है,
इसलिये आत्माको ज्ञानमात्र कहा है
६०६
। ............................
४०८-४१०
एक ज्ञानक्रियारूप परिणत आत्मामें ही अनन्त

मोक्षका अर्थी दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप

शक्तियाँ प्रगट हैं, उनमेंसे सैंतालीस
शक्तियोंके नाम तथा लक्षणोंका कथन
मोक्षमार्गमें ही आत्माको प्रवर्तावे, ऐसा
उपदेश किया है
६०९
। ................
४११-४१२
उपाय-उपेयभावका वर्णन; उसमें, आत्मा
जो द्रव्यलिंगमें ममत्व करते हैं वे समयसारको
परिणामी होनेसे साधकपना और सिद्धपना
नहीं जानते हैं
। ...................
४१३
ये दोनों भाव अच्छी तरह बनते हैं,
ऐसा कथन
व्यवहारनय ही मुनि-श्रावकके लिंगको
।......................
६१४
मोक्षमार्ग कहता है, और निश्चयनय किसी
लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता
ऐसा
थोड़े कलशोंमें, अनेक विचित्रतासे भरे
हुए आत्माकी महिमा करके परिशिष्ट
सम्पूर्ण
कथन
। ............................
४१४
। ...........................
६१८

इस शास्त्रको पूर्ण करते हुए, उसके अभ्यास

टीकाकार आचार्यदेवका वक्तव्य,
आदिका फल कहते हैं
। .......
४१५
आत्मख्याति टीका सम्पूर्ण
। ....
६२८
[परिशिष्ट पृष्ठ ५९२ से ६२९]
पं० श्री जयचन्दजी छाबड़ाका वक्तव्य,

इस शास्त्रको अनन्त धर्मवाले आत्माको

ग्रन्थ समाप्त
। .....................
६२९
L

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नमः श्रीसर्वज्ञवीतरागाय
शास्त्र-स्वाध्यायका प्रारंभिक मंगलाचरण
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ।।१।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलङ्का
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ।।२।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।३।।
श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ।।
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं,
पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीसमयसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
।।
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी
मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।।१।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ।।२।।


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नमः परमात्मने
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत
श्री

समयसार

पूर्वरंग
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिव्याख्यासमुपेतः
(अनुष्टुभ्)
नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।।१।।

श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव कृत मूल गाथायें और श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि कृत आत्मख्याति नामक टीकाके गुजराती अनुवादका

हिन्दी रूपान्तर
(मंगलाचरण)
श्री परमातमको प्रणमि, शारद सुगुरु मनाय
समयसार शासन करूं देशवचनमय, भाय ।।१।।
शब्दब्रह्मपरब्रह्मके वाचकवाच्यनियोग
मंगलरूप प्रसिद्ध ह्वै, नमों धर्मधनभोग ।।२।।
नय नय लहइ सार शुभवार, पय पय दहइ मार दुखकार
लय लय गहइ पार भवधार, जय जय समयसार अविकार ।।३।।
1

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(अनुष्टुभ्)
अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः
अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।।२।।
शब्द, अर्थ अरु ज्ञानसमयत्रय आगम गाये,
मत, सिद्धान्त रु कालभेदत्रय नाम बताये;
इनहिं आदि शुभ अर्थसमयवचके सुनिये बहु,
अर्थसमयमें जीव नाम है सार, सुनहु सहु;
तातैं जु सार बिनकर्ममल शुद्ध जीव शुद्ध नय कहै,
इस ग्रन्थ माँहि कथनी सबै समयसार बुधजन गहै
।।४।।
नामादिक छह ग्रन्थमुख, तामें मंगल सार
विघनहरन नास्तिकहरन, शिष्टाचार उचार ।।५।।
समयसार जिनराज है, स्याद्वाद जिनवैन
मुद्रा जिन निरग्रन्थता, नमूं करै सब चैन ।।६।।

प्रथम, संस्कृत टीकाकार श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव ग्रन्थके प्रारम्भमें मंगलके लिये इष्टदेवको नमस्कार करते हैं :

श्लोकार्थ :[नमः समयसाराय ] ‘समय’ अर्थात् जीव नामक पदार्थ, उसमें सार जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा, उसे मेरा नमस्कार हो वह कैसा है ? [भावाय ] शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु है इस विशेषणपदसे सर्वथा अभाववादी नास्तिकोंका मत खण्डित हो गया और वह कैसा है ? [चित्स्वभावाय ] जिसका स्वभाव चेतनागुणरूप है इस विशेषणसे गुण-गुणीका सर्वथा भेद माननेवाले नैयायिकोंका निषेध हो गया और वह कैसा है ? [स्वानुभूत्या चकासते ] अपनी ही अनुभवनरूप क्रियासे प्रकाशमान है, अर्थात् अपनेको अपनेसे ही जानता हैप्रगट करता है इस विशेषणसे, आत्माको तथा ज्ञानको सर्वथा परोक्ष ही माननेवाले जैमिनीयभट्टप्रभाकरके भेदवाले मीमांसकोंके मतका खण्डन हो गया; तथा ज्ञान अन्य ज्ञानसे जाना जा सकता है, स्वयं अपनेको नहीं जानताऐसा माननेवाले नैयायिकोंका भी प्रतिषेध हो गया और वह कैसा है ? [सर्वभावान्तरच्छिदे ] अपनेसे अन्य सर्व जीवाजीव, चराचर पदार्थोंको सर्व क्षेत्रकालसम्बन्धी, सर्व विशेषणोंके साथ, एक ही समयमें जाननेवाला है इस विशेषणसे, सर्वज्ञका अभाव माननेवाले मीमांसक आदिका निराकरण हो गया इस प्रकारके विशेषणों (गुणों) से शुद्ध आत्माको ही इष्टदेव सिद्ध करके (उसे) नमस्कार किया है


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(मालिनी)
परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा-
दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः

भावार्थ :यहाँ मंगलके लिये शुद्ध आत्माको नमस्कार किया है यदि कोई यह प्रश्न करे कि किसी इष्टदेवका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? तो उसका समाधान इस प्रकार है :वास्तवमें इष्टदेवका सामान्य स्वरूप सर्वकर्मरहित, सर्वज्ञ, वीतराग, शुद्ध आत्मा ही है, इसलिये इस अध्यात्मग्रन्थमें ‘समयसार’ कहनेसे इसमें इष्टदेवका समावेश हो गया तथा एक ही नाम लेनेमें अन्यमतवादी मतपक्षका विवाद करते हैं उन सबका निराकरण, समयसारके विशेषणोंसे किया है और अन्यवादीजन अपने इष्टदेवका नाम लेते हैं उसमें इष्ट शब्दका अर्थ घटित नहीं होता, उसमें अनेक बाधाएँ आती हैं, और स्याद्वादी जैनोंको तो सर्वज्ञ वीतरागी शुद्ध आत्मा ही इष्ट है फि र चाहे भले ही उस इष्टदेवको परमात्मा कहो, परमज्योति कहो, परमेश्वर, परब्रह्म, शिव, निरंजन, निष्कलंक, अक्षय, अव्यय, शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी, अनुपम, अच्छेद्य, अभेद्य, परमपुरुष, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा, चिदानंद, सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हत्, जिन, आप्त, भगवान, समयसार इत्यादि हजारो नामोंसे कहो; वे सब नाम कथंचित् सत्यार्थ हैं सर्वथा एकान्तवादियोंको भिन्न नामोंमें विरोध है, स्याद्वादीको कोई विरोध नहीं है इसलिये अर्थको यथार्थ समझना चाहिए

प्रगटै निज अनुभव करै, सत्ता चेतनरूप
सब-ज्ञाता लखिकें नमौं, समयसार सब-भूप ।।१।।
अब सरस्वतीको नमस्कार करते हैं

श्लोकार्थ :[अनेकान्तमयी मूर्तिः ] जिनमें अनेक अन्त (धर्म) हैं ऐसे जो ज्ञान तथा वचन उसमयी मूर्ति [नित्यम् एव ] सदा ही [प्रकाशताम् ] प्रकाशरूप हो कैसी है वह मूर्ति ? [अनन्तधर्मणः प्रत्यगात्मनः तत्त्वं ] जो अनन्त धर्मोंवाला है और जो परद्रव्योंसे तथा परद्रव्योंके गुणपर्यायोंसे भिन्न एवं परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने विकारोंसे कथंचित् भिन्न एकाकार है ऐसे आत्माके तत्त्वको, अर्थात् असाधारणसजातीय विजातीय द्रव्योंसे विलक्षण निजस्वरूपको, [पश्यन्ती ] वह मूर्ति अवलोकन करती है

भावार्थ :यहाँ सरस्वतीकी मूर्तिको आशीर्वचनरूपसे नमस्कार किया है लौकिकमें जो सरस्वतीकी मूर्ति प्रसिद्ध है वह यथार्थ नहीं है, इसलिये यहाँ उसका यथार्थ वर्णन किया है सम्यक्ज्ञान ही सरस्वतीकी यथार्थ मूर्ति है उसमें भी सम्पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है,


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मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते-
र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः
।।३।।

जिसमें समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भासित होते हैं वह अनन्त धर्म सहित आत्मतत्त्वको प्रत्यक्ष देखता है इसलिये वह सरस्वतीकी मूर्ति है और उसीके अनुसार जो श्रुतज्ञान है वह आत्मतत्त्वको परोक्ष देखता है इसलिये वह भी सरस्वतीकी मूर्ति है और द्रव्यश्रुत वचनरूप है वह भी उसकी मूर्ति है, क्योंकि वह वचनोंके द्वारा अनेक धर्मवाले आत्माको बतलाती है इसप्रकार समस्त पदार्थोंके तत्त्वको बतानेवाली ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकांतमयी सरस्वतीकी मूर्ति है; इसीलिये सरस्वतीके वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी इत्यादि बहुतसे नाम कहे जाते हैं यह सरस्वतीके मूर्ति अनन्तधर्मोंको ‘स्यात्’ पदसे एक धर्मीमें अविरोधरूपसे साधती है, इसलिये वह सत्यार्थ है कितने ही अन्यवादीजन सरस्वतीकी मूर्तिको अन्यथा (प्रकारान्तरसे) स्थापित करते हैं, किन्तु वह पदार्थको सत्यार्थ कहनेवाली नहीं है

यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्माको अनन्तधर्मवाला कहा है, सो उसमें वे अनन्त धर्म कौन कौनसे हैं ? उसका उत्तर देते हुए कहते हैं किवस्तुमें अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तिकत्व, अमूर्तिकत्व इत्यादि (धर्म) तो गुण हैं; और उन गुणोंका तीनों कालमें समय-समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त हैं और वस्तुमें एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं वे सामान्यरूप धर्म तो वचनगोचर हैं, किन्तु अन्य विशेषरूप अनन्त धर्म भी हैं जो कि वचनके विषय नहीं हैं, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं आत्मा भी वस्तु है, इसलिये उसमें भी अपने अनन्त धर्म हैं

आत्माके अनन्त धर्मोंमें चेतनत्व असाधारण धर्म है वह अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है सजातीय जीवद्रव्य अनन्त हैं, उनमें भी यद्यपि चेतनत्व है तथापि सबका चेतनत्व निजस्वरूपसे भिन्न भिन्न कहा है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशभेद होनेसे वह किसीका किसीमें नहीं मिलता वह चेतनत्व अपने अनन्त धर्मोंमें व्यापक है, इसलिये उसे आत्माका तत्त्व कहा है उसे यह सरस्वतीकी मूर्ति देखती है और दिखाती है इसप्रकार इसके द्वारा सर्व प्राणियोंका कल्याण होता है इसलिये ‘सदा प्रकाशरूप रहो’ इसप्रकार इसके प्रति आशीर्वादरूप वचन कहा ।।२।।

अब टीकाकार इस ग्रंथका व्याख्यान करनेका फल चाहते हुए प्रतिज्ञा करते हैं :

श्लोकार्थ :श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव कहते हैं कि [समयसारव्याख्यया एव ] इस समयसार (शुद्धात्मा तथा ग्रन्थ) की व्याख्या (टीका) से ही [मम अनुभूतेः ] मेरी अनुभूतिकी


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अथ सूत्रावतार :
वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं ।।१।।
वन्दित्वा सर्वसिद्धान् ध्रुवामचलामनौपम्यां गतिं प्राप्तान्
वक्ष्यामि समयप्राभृतमिदं अहो श्रुतकेवलिभणितम् ।।१।।
अर्थात् अनुभवनरूप परिणतिकी [परमविशुद्धिः ] परम विशुद्धि (समस्त रागादि विभावपरिणति
रहित उत्कृष्ट निर्मलता) [भवतु ] हो
कैसी है यह मेरी परिणति ? [परपरिणतिहेतोः मोहनाम्नः
अनुभावात् ] परपरिणतिका कारण जो मोह नामक कर्म है, उसके अनुभाव (उदयरूप विपाक)
से [अविरतम् अनुभाव्य-व्याप्ति-कल्माषितायाः ] जो अनुभाव्य (रागादि परिणामों) की व्याप्ति है
उससे निरन्तर कल्माषित अर्थात् मैली है
और मैं कैसा हूँ ? [शुद्ध-चिन्मात्रमूर्तेः ] द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध
चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ

भावार्थ :आचार्यदेव कहते हैं कि शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे तो मैं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ किन्तु मेरी परिणति मोहकर्मके उदयका निमित्त पा करके मैली हैरागादिस्वरूप हो रही है इसलिये शुद्ध आत्माकी कथनीरूप इस समयसार ग्रंथकी टीका करनेका फल यह चाहता हूँ कि मेरी परिणति रागादि रहित शुद्ध हो, मेरे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति हो मैं दूसरा कुछ भी ख्याति, लाभ, पूजादिकनहीं चाहता इसप्रकार आचार्यने टीका करनेकी प्रतिज्ञागर्भित उसके फलकी प्रार्थना की है ।।३।।

अब मूलगाथासूत्रकार श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ग्रन्थके प्रारम्भमें मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं

(हरिगीतिका छन्द)
ध्रुव अचल अरु अनुपम गति पाये हुए सब सिद्धको
मैं वंद श्रुतकेवलिकथित कहूँ समयप्राभृतको अहो
।।१।।

गाथार्थ :[ध्रुवाम् ] ध्रुव, [अचलाम् ] अचल और [अनौपम्यां ] अनुपमइन तीन विशेषणोंसे युक्त [गतिं ] गतिको [प्राप्तान् ] प्राप्त हुए [सर्वसिद्धान् ] सर्व सिद्धोंको [वन्दित्वा ] नमस्कार करके [अहो ] अहो ! [श्रुतकेवलिभणितम् ] श्रुतकेवलियोंके द्वारा कथित [इदं ] यह [समयप्राभृतम् ] समयसार नामक प्राभृत [वक्ष्यामि ] कहूँगा


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अथ प्रथमत एव स्वभावभावभूततया ध्रुवत्वमवलंबमानामनादिभावान्तरपरपरिवृत्ति- विश्रांतिवशेनाचलत्वमुपगतामखिलोपमानविलक्षणाद्भुतमाहात्म्यत्वेनाविद्यमानौपम्यामपवर्गसंज्ञिकां गतिमापन्नान् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धत्वेन साध्यस्यात्मनः प्रतिच्छन्दस्थानीयान् भावद्रव्यस्तवाभ्यां स्वात्मनि परात्मनि च निधायानादिनिधनश्रुतप्रकाशितत्वेन निखिलार्थसार्थसाक्षात्कारिकेवलिप्रणीत- त्वेन श्रुतकेवलिभिः स्वयमनुभवद्भिरभिहितत्वेन च प्रमाणतामुपगतस्यास्य समयप्रकाशक स्य प्राभृता- ह्वयस्यार्हत्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादिमोहप्रहाणाय भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते

टीका :यहाँ (संस्कृत टीकामें) ‘अथ’ शब्द मंगलके अर्थको सूचित करता है ग्रंथके प्रारंभमें सर्व सिद्धोंको भाव-द्रव्यस्तुतिसे अपने आत्मामें तथा परके आत्मामें स्थापित करके इस समय नामक प्राभृतका भाववचन और द्रव्यवचनसे परिभाषण (व्याख्यान) प्रारम्भ करते हैंइस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं वे सिद्ध भगवान्, सिद्धत्वके कारण, साध्य जो आत्मा उसके प्रतिच्छन्दके स्थान पर हैं,जिनके स्वरूपका संसारी भव्यजीव चिंतवन करके, उनके समान अपने स्वरूपको ध्याकर, उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियोंसे विलक्षण पंचमगतिमोक्षको प्राप्त करते हैं वह पंचमगति स्वभावस्वरूप है, इसलिए ध्रुवत्वका अवलम्बन करती है चारों गतियाँ परनिमित्तसे होती हैं, इसलिए ध्रुव नहीं किन्तु विनश्वर हैं ‘ध्रुव’ विशेषणसे पंचमगतिमें इस विनश्वरताका व्यवच्छेद हो गया और वह गति अनादिकालसे परभावोंके निमित्तसे होनेवाले परमें भ्रमण, उसकी विश्रांति (अभाव)के वश अचलताको प्राप्त है इस विशेषणसे, चारों गतियोंमें पर निमित्तसे जो भ्रमण होता है, उसका पंचमगतिमें व्यवच्छेद हो गया और वह जगत्में जो समस्त उपमायोग्य पदार्थ हैं उनसे विलक्षणअद्भुत महिमावाली है, इसलिए उसे किसीकी उपमा नहीं मिल सकती इस विशेषणसे चारों गतियोंमें जो परस्पर कथंचित् समानता पाई जाती है, उसका पंचमगतिमें निराकरण हो गया और उस गतिका नाम अपवर्ग है धर्म, अर्थ और कामत्रिवर्ग कहलाते हैं; मोक्षगति इस वर्गमें नहीं है, इसलिए उसे अपवर्ग कही है ऐसी पंचमगतिको सिद्ध भगवान् प्राप्त हुए हैं उन्हें अपने तथा परके आत्मामें स्थापित करके, समयका (सर्व पदार्थोंका अथवा जीव पदार्थका) प्रकाशक जो प्राभृत नामक अर्हत्प्रवचनका अवयव है उसका, अनादिकालसे उत्पन्न हुए अपने और परके मोहका नाश करनेके लिए परिभाषण करता हूँ वह अर्हत्प्रवचनका अवयव अनादिनिधन परमागम शब्दब्रह्मसे प्रकाशित होनेसे, सर्व पदार्थोंके समूहको साक्षात् करनेवाले केवली भगवान् सर्वज्ञदेव द्वारा प्रणीत होनेसे और केवलियोंके निकटवर्ती साक्षात् सुननेवाले तथा स्वयं अनुभव करनेवाले श्रुतकेवली गणधरदेवोंके द्वारा कथित होनेसे प्रमाणताको प्राप्त है यह अन्य वादियोंके आगमकी भाँति छद्मस्थ (अल्पज्ञानियों)की कल्पना मात्र नहीं है कि जिसका अप्रमाण हो

भावार्थ :गाथासूत्रमें आचार्यदेवने ‘वक्ष्यामि’ कहा है, उसका अर्थ टीकाकारने ‘वच्

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तत्र तावत्समय एवाभिधीयते
जीवो चरित्तदंसणणाणठिदो तं हि ससमयं जाण
पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ।।२।।
परिभाषणे’ धातुसे परिभाषण किया है उसका आशय इसप्रकार सूचित होता है कि चौदह पूर्वोंमेंसे
ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्वमें बारह ‘वस्तु’ अधिकार हैं; उनमें भी एक एकके बीस बीस ‘प्राभृत’
अधिकार हैं
उनमेंसे दशवें वस्तुमें समय नामक जो प्राभृत है उसके मूलसूत्रोंके शब्दोंका ज्ञान पहले
बड़े आचार्योंको था और उसके अर्थका ज्ञान आचार्योंकी परिपाटीके अनुसार श्री
कुन्दकुन्दाचार्यदेवको भी था
उन्होंने समयप्राभृतका परिभाषण किया परिभाषासूत्र बनाया
सूत्रकी दश जातियाँ कही गई हैं, उनमेंसे एक ‘परिभाषा’ जाति भी है जो अधिकारको अर्थके द्वारा
यथास्थान सूचित करे वह ‘परिभाषा’ कहलाती है श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव समयप्राभृतका परिभाषण
करते हैं,अर्थात् वे समयप्राभृतके अर्थको ही यथास्थान बतानेवाला परिभाषासूत्र रचते हैं

आचार्यने मंगलके लिए सिद्धोंको नमस्कार किया है संसारीके लिए शुद्ध आत्मा साध्य है और सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा है, इसलिए उन्हें नमस्कार करना उचित है यहाँ किसी इष्टदेवका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? इसकी चर्चा टीकाकारने मंगलाचरण पर की है, उसे यहाँ भी समझ लेना चाहिए सिद्धोंको ‘सर्व’ विशेषण देकर यह अभिप्राय बताया है कि सिद्ध अनन्त हैं इससे यह माननेवाले अन्यमतियोंका खण्डन हो गया कि ‘शुद्ध आत्मा एक ही है’ ‘श्रुतकेवली’ शब्दके अर्थमें (१) श्रुत अर्थात् अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम और केवली अर्थात् सर्वज्ञदेव कहे गये हैं, तथा (२) श्रुत-अपेक्षासे केवली समान ऐसे गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधर कहे गये हैं; उनसे समयप्राभृतकी उत्पत्ति बताई गई है इसप्रकार ग्रन्थकी प्रमाणता बताई है, और अपनी बुद्धिसे कल्पित कहनेका निषेध किया है अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अपनी बुद्धिसे पदार्थका स्वरूप चाहे जैसा कहकर विवाद करते हैं, उनका असत्यार्थपन बताया है

इस ग्रन्थके अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन तो प्रगट ही हैं शुद्ध आत्माका स्वरूप अभिधेय (कहने योग्य) है उसके वाचक इस ग्रन्थमें जो शब्द हैं उनका और शुद्ध आत्माका वाच्यवाचकरूप सम्बन्ध है सो सम्बन्ध है और शुद्धात्माके स्वरूपकी प्राप्तिका होना प्रयोजन है ।।१।।

प्रथम गाथामें समयका प्राभृत कहनेकी प्रतिज्ञा की है इसलिए यह आकांक्षा होती है कि समय क्या है ? इसलिए पहले उस समयको ही कहते हैं :

जीव चरितदर्शनज्ञानस्थित, स्वसमय निश्चय जानना;
स्थित कर्मपुद्गलके प्रदेशों, परसमय जीव जानना
।।२।।