चैत्र : २४७४ आत्मधर्म : ८३ :
रागरहित स्वभावनी श्रद्धा पूर्वक जो रागरहित चारित्रदशा थई शके तो तो ते प्रगट करीने स्वरूपमां ठरी जजे;
पण जो तेम न थई शके अने राग रही जाय तो ते रागने मोक्षनो हेतु न मानीश, रागथी भिन्न तारा चैतन्य
स्वभावनी श्रद्धा राखजे.
(१९३) राग होवा छतां रागरहित स्वभावनी श्रद्धा केम थाय?
कोई एम माने के पर्यायमां राग होय त्यां सुधी रागरहित स्वभावनी श्रध्धा केम थई शके? पहेलांं राग
टळी जाय पछी रागरहित स्वभावनी श्रध्धा थाय.–ए रीते जे जीव रागने ज पोतानुं स्वरूप मानीने सम्यक्श्रद्धा
पण करतो नथी तेने आचार्यभगवान कहे छे के हे जीव! तुं पर्यायद्रष्टिथी रागने तारूं स्वरूप मानी रह्यो छे.
पण पर्यायमां राग होवा छतां तुं पर्यायद्रष्टि छोडीने स्वभावद्रष्टिथी जो तो तारा रागरहित स्वरूपनो तने
अनुभव थाय. जे वखते क्षणिक पर्यायमां राग छे ते वखते ज रागरहित त्रिकाळी स्वभाव छे, माटे पर्यायद्रष्टि
छोडीने तारा राग–रहित स्वभावनी तुं प्रतीति राखजे; ए प्रतीतिना जोरे राग अल्पकाळे टळी जशे, पण ए
प्रतीति वगर राग कदी टळवानो नथी.
(१९४) पहेलांं साची श्रद्धा अने पछी वीतरागता
‘पहेलांं राग टळी जाय तो हुं रागरहित स्वभावनी श्रध्धा करुं’ – एम नहि पण आचार्यदेव कहे छे के
पहेलांं तुं रागरहित स्वभावनी श्रद्धा कर तो ते स्वभावनी एकाग्रता वडे राग टळे. ‘राग टळे तो श्रद्धा करुं –
एटले के पर्याय सुधरे तो द्रव्यने मानुं’ एवी जेनी मान्यता छे ते जीव पर्यायद्रष्टि छे – पर्याय मूढ छे, तेने
स्वभाव द्रष्टि नथी; अने ते मोक्षमार्गना क्रमने जाणतो नथी, केमके ते सम्यक्श्रद्धा पहेलांं सम्यक्चारित्र ईच्छे छे.
‘रागरहित स्वभावनी प्रतीति करुं तो राग टळे’ एवा अभिप्रायमां द्रव्यद्रष्टि छे; अने द्रव्यद्रष्टिना जोरे
पर्यायमां निर्मळता प्रगटे छे. मारो स्वभाव रागरहित छे एवा वीतरागी अभिप्राय पूर्वक (–स्वभावना लक्षे
अर्थात् द्रव्यद्रष्टिथी) जे परिणमन थयुं तेमां क्षणे क्षणे राग तूटतो जाय छे अने रागनो अल्पकाळे नाश थाय
छे; ए सम्यक्दर्शननो महिमा छे. पण जो पर्यायद्रष्टि ज राखीने पोताने रागवाळो मानी ल्ये तो राग टळे कई
रीते? हुं रागी छुं एवा रागीपणाना अभिप्राय पूर्वक (–विकारना लक्षे अर्थात् पर्यायद्रष्टिथी) जे परिणमन
थाय तेमां तो रागनी ज उत्पत्ति थया करे, पण राग टळे नहि. तेथी, पर्यायमां राग होवा छतां ते ज वखते
पर्यायद्रष्टि छोडीने स्वभावद्रष्टिथी रागरहित चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा करवानुं आचार्यभगवान जणावे छे; अने
ए ज मोक्ष मार्गनो क्रम छे.
आत्मधर्मना ग्राहकोने भेट
गांधी नंदलाल रायचंद–बोटाद तरफथी तेमनी सद्गत पुत्री प्रियवंदाना स्मरणार्थे सामायिक पाठ
आत्मधर्मना तमाम ग्राहकोने भेट आपेल छे जे बधा ग्राहकोने मोकली आपवामां आवेल छे.
भाईश्री खीमचंद जेठालाल शेठ–राजकोट तरफथी ‘मोक्षमार्ग प्रकाशकना किरणो’ आत्मधर्मना
तमाम ग्राहकोने भेट आपेल छे जे बधा ग्राहकोने मोकली आपवामां आवेल छे.
उपर प्रमाणे आ वर्षे आत्मधर्मना ग्राहकोने बे सारा ग्रंथो भेट रूपे मळेल छे. भेट आपनार
बंधुओनी सद्धर्म प्रचारनी भावना खरेखर प्रशंसनीय छे.
(१९५) आत्मार्थीनुं पहेलुं कर्तव्य
आत्मार्थीनुं पहेलुं कर्तव्य ए छे के पर्यायमां राग न छूटी शके तो पण ‘मारुं स्वरूप रागरहित ज छे’
एवी श्रद्धा तो अवश्य करे. मारा स्वरूपमां राग नथी एवी जो जीव श्रद्धा करे तो तेने राग टाळवानो पुरुषार्थ
प्रगटी शके. पण जे जीव पोताना रागरहित स्वभावनी श्रद्धा करवानी ना पाडे छे अने रागने ज पोतानुं
स्वरूप मानीने त्यां एकाकार थई रह्यो छे ते जीव पोताना शुद्ध स्वभावनो अनादर करीने अने विकारनो आदर
करीने संसारमां ज भमे छे. अने जेणे रागरहित स्वभावनी श्रद्धा करी छे एवो जीव स्वभावनो आदर करीने
अने विकारनो अनादर करीने अल्पकाळे सिद्धि (–मुक्ति) पामे छे. माटे साची श्रद्धा ए ज धर्मनुं मूळियुं छे,
दरेक आत्मार्थीओए सौथी पहेलांं साची श्रद्धा तो अवश्य करवी जोईए.
(१९६) जेवो अभिप्राय ते तरफनुं परिणमन
‘मारामां रागादि विकारनी अस्ति छे’ एवी मान्यता वाळो जीव रागनी नास्ति कोना लक्षे करशे?
एनी द्रष्टि ज विकारमां अटकेली होवाथी ते विकारनी नास्ति करी शकशे नहि. अने ‘मारा स्वभावभावमां
रागादि विकारनी नास्ति ज छे’ एवी मान्यतावाळो जीव स्वभावद्रष्टिना जोरे एकाग्रता करीने रागनी नास्ति
करशे. जेवो अभिप्राय करे ते तरफनुं परिणमन थाय. जो ज्ञानस्वभाव साथे एकतानो अभिप्राय करे तो तेनुं
परिणमन ज्ञानमय थतुं जाय. अने जो विकार साथे एकतानो अभिप्राय करे